যজুর্বেদ ৫/৫ - ধর্ম্মতত্ত্ব

ধর্ম্মতত্ত্ব

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धर्म मानव मात्र का एक है, मानवों के धर्म अलग अलग नहीं होते-Theology

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18 May, 2016

যজুর্বেদ ৫/৫

যজুর্বেদ ৫/৫

देवता: विद्युद्देवता ऋषि: गोतम ऋषिः छन्द: आर्षी उष्णिक्, भुरिग् आर्षी पङ्क्तिः स्वर: ऋषभः, पञ्चमः
आप॑तये त्वा॒ परि॑पतये गृह्णामि॒ तनू॒नप्त्रे॑ शाक्व॒राय॒ शक्व॑न॒ऽओजि॑ष्ठाय। अना॑धृष्टमस्यनाधृ॒ष्यं दे॒वाना॒मोजोऽन॑भिशस्त्यभिशस्ति॒पा॑ऽअ॑नभिशस्ते॒न्यमञ्ज॑सा स॒त्यमु॑पगेषꣳ स्वि॒ते मा॑ धाः ॥
-यजुर्वेद0 अध्याय05 मन्त्र05
पद पाठ
आप॑तय॑ इत्याऽप॑तये। त्वा॒। परि॑पतय॒ इति॒ परि॑ऽपतये। गृ॒ह्णा॒मि॒। तनू॒नप्त्र॒ इति॒ तनू॒ऽनप्त्रे॑। शा॒क्व॒राय॑। शक्व॑ने। ओजि॑ष्ठाय। अना॑धृष्टम्। अ॒सि॒। अ॒ना॒धृ॒ष्यम्। दे॒वाना॑म्। ओजः॑। अन॑भिश॒स्तीत्यन॑भिऽशस्ति। अ॒भि॒श॒स्ति॒पा इत्य॑भिशस्ति॒ऽपाः। अ॒न॒भि॒श॒स्ते॒न्यमित्य॑नभिऽशस्ते॒न्यम्। अञ्ज॑सा। स॒त्यम्। उप॑। गे॒ष॒म्। स्वि॒त इति॑ सुऽइते। मा॒। धाः॒ ॥

पदार्थान्वयभाषाः -मैं हे परमात्मन् ! जिस से आप (अभिशस्तिपाः) हिंसारूप कर्मों से अलग रहने और रखनेवाले हैं, इससे (त्वा) आपको (आपतये) सब प्रकार से स्वामी होने (परिपतये) सब ओर से रक्षा (शाक्वराय) सब सामर्थ्य की प्राप्ति (शक्वने) शूरवीर-युक्त सेना (ओजिष्ठाय) जिसमें सर्वोत्कृष्ट पराक्रम होता है, उस विद्या के होने और (तनूनप्त्रे) जिस से उत्तम शरीर होता है, उसके लिये (गृह्णामि) ग्रहण करता हूँ। आप अपनी कृपा से उस (देवानाम्) विद्वानों का (अनाधृष्टम्) जिस का अपमान कोई नहीं कर सकता (अनाधृष्यम्) किसी के अपमान करने योग्य नहीं है, (अनभिशस्ति) किसी के हिंसा करने योग्य नहीं है (अनभिशस्तेन्यम्) अहिंसारूप धर्म की प्राप्ति कराने हारा (सत्यम्) अविनाशी (ओजः) तेज है, उसका ग्रहण कराके (स्विते) अच्छे प्रकार जिस व्यवहार में सब सुख प्राप्त होते हैं, उस में (मा) मुझको (धाः) धारण करें कि जिस से (सत्यम्) सत्य व्यवहार को (उपगेषम्) जानकर करूँ ॥५॥ मैं जो (अनाधृष्टम्) न हटाने (अनाधृष्यम्) न किसी से नष्ट करने (अनभिशस्ति) न हिंसा करने (अनभिशस्तेन्यम्) और हिंसारहित धर्म प्राप्त कराने योग्य (देवानाम्) विद्वान् वा पृथिवी आदिकों के मध्य में (सत्यम्) कारणरूप नित्य (ओजः) पराक्रम स्वरूपवाली (अभिशस्तिपाः) हिंसा से रक्षा का निमित्त रूप बिजुली (असि) है, जो (मा) मुझे (स्विते) उत्तम प्राप्त होने योग्य व्यवहार में (धाः) धारण करती है (अञ्जसा) सहजता से (ओजिष्ठाय) अत्यन्त तेजस्वी (आपतये) अच्छे प्रकार पालन करने योग्य व्यवहार (परिपतये) जिस में सब प्रकार पालन करनेवाले होते हैं (तनूनप्त्रे) जिस से उत्तम शरीरों को प्राप्त होते हैं (शाक्वराय) शक्ति उत्पन्न करने और (शक्वने) शक्तिवाली वीरसेना की प्राप्ति के लिये है (त्वा) उसको (गृह्णामि) ग्रहण करता हूँ कि जिससे उन सत्य कारणरूप पदार्थों को (उपगेषम्) जान सकूँ ॥

अन्वय -(आपतये) समन्तात् पतिः पालको यस्मिंतस्मै (त्वा) परमेश्वरं विद्युतं वा (परिपतये) परितः सर्वतः पतयो यस्मिंस्तस्मै (गृह्णामि) स्वीकरोमि (तनूनप्त्रे) तनू देहान् नयन्ति प्राप्नुवन्ति येन तस्मै (शाक्वराय) शक्तिजननाय (शक्वने) शक्तिमद्वीरसैन्यप्राप्तये (ओजिष्ठाय) अतिशयेनौजो विद्यते यस्मिन् विद्याव्यवहारे तस्मै (अनाधृष्टम्) यन्न धृष्यते तेजस्तम् (असि) अस्ति (अनाधृष्यम्) न केनाऽपि धर्षितुं योग्यम् (देवानाम्) विदुषां पृथिव्यादीनां मध्ये वा (ओजः) पराक्रमकारि (अनभिशस्ति) यन्नाभिशस्यतेऽभिहिंस्यते तत् (अभिशस्तिपाः) योऽभिशस्तेर्हिंसनात् पाति रक्षति (अनभिशस्तेन्यम्) यदनभिशस्तेऽविद्यमानहिंसने नयति तत् (अञ्जसा) व्यक्तेन शत्रूणां म्लेच्छनेन कान्त्या ज्ञापनेन वा (सत्यम्) यथार्थम् (उप) सामीप्ये (गेषम्) प्राप्नुयाम् (स्विते) सुष्ठु ईयते प्राप्यते येन व्यवहारेण तस्मिन्। इदं पदमवैयाकरणेन महीधरेण लेट् लकारस्य रूपमित्यशुद्धं व्याख्यातम्। (मा) माम् (धाः) धेहि दधाति वा। अत्र लडर्थे लुङडभावश्च। अयं मन्त्रः (शत०३.४.२.१०-१४) व्याख्यातः ॥

भावार्थभाषाः -मनुष्यों को परमेश्वर के विज्ञान के विना सत्य सुख और बिजुली आदि विद्या और क्रियाकुशलता के विना संसार के सब सुख नहीं हो सकते, इसलिये यह कार्य्य पुरुषार्थ से सिद्ध करना चाहिये ॥


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যজুর্বেদ অধ্যায় ১২

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