ऋग्वेद 1/1/2 - ধর্ম্মতত্ত্ব

ধর্ম্মতত্ত্ব

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14 July, 2017

ऋग्वेद 1/1/2

स्वामी दयानन्द सरस्वती
अग्निः पूर्वेभिर्ऋषिभिरीड्यो नूतनैरुत।
 स देवाँ एह वक्षति॥
-ऋग्वेद  मण्डल 1 सूक्त 1 मन्त्र 2
उक्त अग्नि किन से स्तुति करने वा खोजने योग्य है, इसका उपदेश अगले मन्त्र में किया है− अन्वय: योऽयमग्निः पूर्वेभिरुत नूतनैर्ऋषिभिरीड्योऽस्ति, स एह देवान् वक्षति समन्तात्प्रापयतु ॥
पदार्थान्वयभाषाः -यह जो (अग्निः) परमेश्वर (पूर्वेभिः) वर्त्तमान वा पहिले समय के विद्वान् (उत) और (नूतनैः) वेदार्थ के पढ़नेवाले नवीन ब्रह्मचारी, (ऋषिभिः) मन्त्रों के अर्थों को देखनेवालों, उन लोगों के तर्कों और कारणों में रहनेवाले प्राणों से (ईड्यः) स्तुति करने योग्य है और यह भौतिक अग्नि नित्य खोजने योग्य है, (सः) वह परमेश्वर (इह) इस संसार वा इस जन्म में (देवान्) अच्छी-अच्छी इन्द्रियों, विद्या आदि गुण और भौतिक अग्नि अच्छे-अच्छे भोगने योग्य पदार्थों को (आवक्षति) प्राप्त करता है। प्राचीन और नवीन ऋषियों में प्रमाण ये हैं कि−(ऋषिप्रशंसा०) वे ऋषि लोग गूढ़ और अल्प अभिप्राययुक्त मन्त्रों के अर्थों को यथावत् जानने से प्रशंसा के योग्य होते हैं, और उन्हीं ऋषियों की मन्त्रों में दृष्टि अर्थात् उनके अर्थों के विचार में पुरुषार्थ से यथार्थ ज्ञान और विज्ञान की प्रवृत्ति होती है, इसी से वे सत्कार करने योग्य भी हैं। तथा (साक्षात्कृत०) जो धर्म और अधर्म की ठीक-ठीक परीक्षा करने वाले धर्मात्मा और यथार्थवक्ता थे, तथा जिन्होंने सब विद्या यथावत् जान ली थी, वे ही ऋषि हुए और जिन्होंने मन्त्रों के अर्थ ठीक-ठीक नहीं जाने थे और नहीं जान सकते थे, उन लोगों को अपने उपदेश द्वारा वेदमन्त्रों का अर्थसहित ज्ञान कराते हुए चले आये, इस प्रयोजन के लिये कि जिससे उत्तरोत्तर अर्थात् पीढ़ी दर पीढ़ी आगे को भी वेदार्थ का प्रचार उन्नति के साथ बना रहे, तथा जिससे कोई मनुष्य अपने और उक्त ऋषियों के लिखे हुए व्याख्यान सुनने के लिये अपने निर्बुद्धिपन से ग्लानि को प्राप्त हो, तो उनके सहाय के लिये उनको सुगमता से वेदार्थ का ज्ञान कराने के लिये उन ऋषियों ने निघण्टु और निरुक्त आदि ग्रन्थों का अच्छी प्रकार अभ्यास कराया, जिससे कि सब मनुष्यों को वेद और वेदाङ्गों का यथार्थ बोध हो जावे। (पुरस्तान्मनुष्या०) इस प्रमाण से ऋषि शब्द का अर्थ तर्क ही सिद्ध होता है। (अविज्ञात०) यह न्यायशास्त्र में गोतम मुनिजी ने तर्क का लक्षण कहा है, इससे यही सिद्ध होता है कि जो सिद्धान्त के जानने के लिये विचार किया जाता है, उसी का नाम तर्क है। (प्राणा०) इन शतपथ के प्रमाणों से ऋषि शब्द करके प्राण और देव शब्द करके ऋतुओं का ग्रहण होता है। (अग्निः पूर्वे०) इस मन्त्र का अर्थ निरुक्तकार ने जैसा कुछ किया है, सो इस मन्त्र के भाष्य में लिख दिया है ॥२॥

भावार्थभाषाः -जो मनुष्य सब विद्याओं को पढ़के औरों को पढ़ाते हैं तथा अपने उपदेश से सब का उपकार करनेवाले हैं वा हुए हैं वे पूर्व शब्द से, और जो कि अब पढ़नेवाले विद्याग्रहण के लिये अभ्यास करते हैं, वे नूतन शब्द से ग्रहण किये जाते हैं, क्योंकि जो मन्त्रों के अर्थों को जाने हुए धर्म और विद्या के प्रचार, अपने सत्य उपदेश से सब पर कृपा करनेवाले, निष्कपट पुरुषार्थी, धर्म की सिद्धि के लिये ईश्वर की उपासना करनेवाले और कार्य्यों की सिद्धि के लिये भौतिक अग्नि के गुणों को जानकर अपने कर्मों के सिद्ध करनेवाले होते हैं, वे सब पूर्ण विद्वान् शुभ गुण सहित होने पर ऋषि कहाते हैं, तथा प्राचीन और नवीन विद्वानों के तत्त्व जानने के लिये युक्ति प्रमाणों से सिद्ध तर्क और कारण वा कार्य्य जगत् में रहनेवाले जो प्राण हैं, [वे भी ऋषि शब्द से गृहीत होते हैं]। इन सब से ईश्वर स्तुति करने योग्य और भौतिक अग्नि अपने-अपने गुणों के साथ खोज करने योग्य है। और जो सर्वज्ञ परमेश्वर ने पूर्व और वर्त्तमान अर्थात् त्रिकालस्थ ऋषियों को अपने सर्वज्ञपन से जान के इस मन्त्र में परमार्थ और व्यवहार ये दो विद्या दिखलाई हैं, इससे इसमें भूत वा भविष्य काल की बातों के कहने में कोई भी दोष नहीं आ सकता, क्योंकि वेद सर्वज्ञ परमेश्वर का वचन है। वह परमेश्वर उत्तम गुणों को तथा भौतिक अग्नि व्यवहार-कार्यों में संयुक्त किया हुआ उत्तम-उत्तम भोग के पदार्थों का देनेवाला होता है। पुराने की अपेक्षा एक पदार्थ से दूसरा नवीन और नवीन की अपेक्षा पहिला पुराना होता है। देखो, यही अर्थ इस मन्त्र का निरुक्तकार ने भी किया है कि−जो प्राकृत जन अर्थात् अज्ञानी लोगों ने प्रसिद्ध भौतिक अग्नि पाक बनाने आदि कार्य्यों में लिया है, वह इस मन्त्र में नहीं लेना, किन्तु सब का प्रकाश करनेहारा परमेश्वर और सब विद्याओं का हेतु, जिसका नाम विद्युत् है, वही भौतिक अग्नि यहाँ अग्नि शब्द से कहा गया है। (अग्निः पूर्वे०) इस मन्त्र का अर्थ नवीन भाष्यकारों ने कुछ का कुछ ही कर दिया है, जैसे सायणाचार्य ने लिखा है कि−(पुरातनैः०) प्राचीन भृगु, अङ्गिरा आदियों और नवीन अर्थात् हम लोगों को अग्नि की स्तुति करना उचित है। वह देवों को हवि अर्थात् होम में चढ़े हुए पदार्थ उनके खाने के लिये पहुँचाता है। ऐसा ही व्याख्यान यूरोपखण्डवासी और आर्यावर्त्त के नवीन लोगों ने अङ्ग्रेजी भाषा में किया है, तथा कल्पित ग्रन्थों में अब भी होता है। सो यह बड़े आश्चर्य की बात है, जो ईश्वर के प्रकाशित अनादि वेद का ऐसा व्याख्यान, जिसका क्षुद्र आशय और निरुक्त शतपथ आदि सत्य ग्रन्थों से विरुद्ध होवे, वह सत्य कैसे हो सकता है ॥२॥

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