অহং মনুরভবং সূর্যশ্চাহং কক্ষীবাঁ ঋষিরস্মি বিপ্রঃ।
অহং কুৎসমার্জুনেয়ং ন্যৃজ্ঞেংহং কবিরুশনা পশ্যতা মা।।
अ॒हं मनु॑रभवं॒ सूर्य॑श्चा॒हं क॒क्षीवाँ॒ ऋषि॑रस्मि॒ विप्रः॑। अ॒हं कुत्स॑मार्जुने॒यं न्यृ॑ञ्जे॒ऽहं क॒विरु॒शना॒ पश्य॑ता मा ॥१॥
ऋग्वेद » मण्डल:4» सूक्त:26» मन्त्र:1
पदार्थान्वयभाषाः -हे मनुष्यो ! जो (अहम्) मैं सृष्टि को करनेवाला ईश्वर (मनुः) विचार करने और विद्वान् के सदृश सम्पूर्ण विद्याओं का जनानेवाला (च) और (सूर्य्यः) सूर्य्य के सदृश सब का प्रकाशक (अभवम्) हूँ और (अहम्) मैं (कक्षीवान्) सम्पूर्ण सृष्टि की कक्षा अर्थात् परम्पराओं से युक्त (ऋषिः) मन्त्रों के अर्थ जाननेवाले के सदृश (विप्रः) बुद्धिमान् के सदृश सब पदार्थों को जाननेवाला (अस्मि) हूँ और (अहम्) मैं (आर्ज्जुनेयम्) सरल विद्वान् ने उत्पन्न किये हुए (कुत्सम्) वज्र को (नि) अत्यन्त (ऋञ्जे) सिद्ध करता हूँ और (अहम्) मैं (उशना) सब के हित की कामना करता हुआ (कविः) सम्पूर्ण शास्त्र को जाननेवाला विद्वान् हूँ, उस (मा) मुझको तुम (पश्यत) देखो ॥१॥
भावार्थभाषाः -इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। हे मनुष्यो ! जो जगदीश्वर मन्त्रियों अर्थात् विचार करनेवालों में विचार करने और प्रकाश करनेवालों का प्रकाशक, विद्वानों में विद्वान्, अखण्डित न्याययुक्त, सर्वज्ञ और सब का उपकारी है उस ही का विद्या, धर्म्माचरण और योगाऽभ्यास से प्रत्यक्ष करो ॥१॥
No comments:
Post a Comment
ধন্যবাদ