वेद के अनुसार ईश्वर के यथार्थ स्वरूप की व्याख्या - ধর্ম্মতত্ত্ব

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28 October, 2017

वेद के अनुसार ईश्वर के यथार्थ स्वरूप की व्याख्या

 वेदों में ईश्वर को सच्चिदानंद स्वरूप, निराकार, सर्वशक्तिमान, न्यायकारी दयालु, अजन्मा, अनन्त, निर्विकार, पापरहित, अनादि, अनुपम, सर्वाधार, सर्वेश्वर, सर्वव्यापक, सर्वान्तर्यामी, अजर, अमर, अभय, नित्य, पवित्र, पूर्ण, नियामक और सृष्टिकर्ता आदि संज्ञा से वर्णित किया है।

जैसा कि ॠषि दयानंद ने आर्यसमाज के दूसरे नियम में प्रतिपादन किया है।
यजुर्वेद अध्याय ४० में पूर्ण रूप से ईश्वर के स्वरूप का वर्णन किया है। जैसा कि --
स पर्य्यागाच्छुक्रमकायमब्रणमस्नाविरशुद्धमपापविद्धम्
कविर्मनीषी परिभूः स्वयंभूर्याथातथ्यतोSर्थान्व्यदधाच्छाश्वतीभ्यः समाभ्यः।।
यजु० ४०। ८।।
अर्थात् -- हे मनुष्यों! जो ब्रह्म (शुक्रम्) शीघ्रकारी सर्वशक्तिमान (अकायम्) स्थूल, सूक्ष्म और कारण शरीर से रहित (अब्रणम्) छिद्ररहित और नाहि छेद करने योग्य (अस्नाविरम्) नाडी आदि के साथ सम्बन्ध रूप बन्धन से रहित (शुद्धम्) अविद्या आदि दोषों से रहित होने से सदा पवित्र और (अपापविद्धम्) जो पापयुक्त, पापकारी और पाप से प्रीति करने वाला कभी नहीं होता (परिअगात्) सब और से व्याप्त है जो (कविः) सर्वज्ञ (मनीषी)सब जीवों के मनों की वृत्तियों को जानने वाला (परिभूः) दुष्ट पापियों का तिरस्कार करनेवाला और (स्वयंभूः) आनादि स्वरूप जिसके संयोग से उत्पत्ति, वियोग से विनाश, माता-पिता, गर्भवास, जन्म वृद्धि और मरण नहीं होते वह परमात्मा (शाश्वतीभ्य:)सनातन आनादि स्वरूप अपने-अपने स्वरूप से उत्पत्ति और विनाश रहित (समाभ्यः) प्रजाओं के लिए (यथातथ्यत:) यथार्थ भाव से (अर्थान्) वेद द्वारा सब पदार्थों को (व्यदधात्) विशेष कर बनाता है (सः)वही परमेश्वर तुम लोगों के द्वारा उपासना करने योग्य है। (महर्षि दयानंद भाष्य)
इसी प्रकार से अनेकों वेद मन्त्र ईश्वर के स्वरूप का वर्णन करते हुए ईश्वर को निराकार प्रतिपादन करते हैं। चारों वैदिक मंत्र संहिताओं में एक भी मंत्र ऐसा नहीं है कि जो ईश्वर को साकार वर्णन करता हो। क्योंकि साकार होने से ईश्वर एक देशीय हो जाता और सर्वव्यापक सर्वज्ञ आदि गुणों के आभाव में आ जाता। अतएव वेद का सर्वतन्त्र सिद्धांत यही है कि ईश्वर निराकार है। इसके विपरीत कथित पुराणों में ईश्वर को जन्म धारण करने वाला शरीरधारी कहा है, जो पूर्णतः वैदिक सिद्धांतों के विरुद्ध है।
ऊपर लिखे गए वैदिक मंत्र का महीधर भाष्य भी हमारे कथन की पुष्टि करता है यथा --
योsयमतीत मन्त्रोक्त आत्मा स पर्य्यगात् परितः सर्वत्र गच्छति नभोवत्सर्वंव्याप्नोति। व्याप्य च शाश्वतीभ्यो नित्याभ्यः समाभ्यः संवत्सराख्येभ्यः प्रजापतिभ्यो यथातथ्यतः यथा भूतकर्म फलसाधनतः अर्थात् कर्तव्यपदार्थान् व्यदधात्। यथानुरुपं व्यभजदित्यर्थः। सकीदृशः। शुक्रमित्यादि विशेषणानिलिंग व्यत्ययेन पुल्लिंगे नेतव्यानि। शुक्रः शुद्धो दीप्तिमान्। अकायो अशरीरः। लिंगशरीरवर्जित इत्यर्थः। अव्रणोSक्षतः। अस्नाविरः शरीररहितः। अव्रणोSस्नाविर इति विशेषणद्धयेन स्थूल शरीर प्रतिषेधः। शुद्धोनिर्मलः। अपापविद्धोSधर्म्मादिवर्जितः। कविः सर्वदृक् "नान्यदतोSस्ति द्रष्टा" इति श्रुतेः। मनीषी मनसे ईषिता सर्वज्ञः। परिभूः। परि सर्वेषामुपर्युपरि भवतीति परिभूः। स्वयंभूः स्वयमेव भवतीति येषामुपरिभवति यश्चोपरि भवति स स्वयमेव भवतीति स्वयंभूः। स नित्य ईश्वरः सर्वं कृतवानित्यर्थः।। यजु० ४०। ८।। (महीधर भाष्य)
अर्थ: जो यह पिछले मंत्र में कहा परमात्मा वह आकाशवत् सर्वव्यापक है। और सर्वव्यापक होकर नित्य प्रजापतियों के लिए जीवों के प्रति यथायोग्य कर्म फल साधन से करने योग्य पदार्थों को बनाता है। यथानुरूप विभाग कर दिया यह मतलब है। वह कैसा है। शुद्ध दीप्तिमान् शरीर से रहित। लिंग शरीर से रहित यह अर्थ है। घाव शून्य नाड़ी नस रहित। घावरहित, नाड़ी शून्य इन दो विशेषणों से स्थूल शरीर का निषेध है। निर्मल, पाप ना करने वाला अधर्म्म से रहित। सर्व दर्शी। मनीषी सर्वज्ञ। ऊपर ऊपर विराजमान्। नित्य ईश्वर ने सब कुछ बनाया यह अर्थ है।
इसी मंत्र का श्री शंकराचार्य ने पदार्थ करते हुए "शुक्रम्" का अर्थ "शुद्धं ज्योतिष्मदीप्तिमान्" किया है। "अकायम्" का अर्थ "अशरीरो लिंगशरीरवर्जितः" किया है। "अस्नाविरम्" का "स्नावाः शिरा यस्मिन् विद्यन्ते अव्रणमस्नाविरमित्याभ्यां स्थूलशरीरप्रतिषेधः" किया है। और "शुद्धम्" का "निर्मलविद्यामलरहितम् इति कारणशरीरप्रतिषेधः" किया है।
माध्वाचार्य लिखते हैं :-
"शुक्रंतच्छोकराहित्यात्, अव्रणं नित्य पूर्णतः। पावनत्वात् सदाशुद्धम् लिंग वर्जनात्। स्थूलराहित्यात्। "
अतः सिद्ध है कि महर्षि दयानंद के सदृश आचार्य महीधर आदि शंकराचार्य और माध्वाचार्य जी ने भी परमात्मा को सर्वत्र व्यापक, स्थूलादि त्रिविध शरीर रहित, अविद्या आदि दोषों से रहित, सर्वशक्तिमान, प्रकाशस्वरूप, अच्छेद्य आदि गुणों वाला ही माना है।
अतः ईश्वर को निराकार, अरूप ही माना है।
यजुर्वेद का यह मंत्र ईश्वर के साकार और सशरीर होने का पूर्णतः खंडन करता है। इसके अतिरिक्त पूर्णतः ईश्वर के वैदिक यथार्थ स्वरूप की व्याख्या भी करता है।
अब इस मंत्र के अतिरिक्त यजुर्वेद अ० ३२। मं० ३।। का उल्लेख करते हैं। यह मंत्र है :-
"न तस्य प्रतिमा अस्ति यस्य नाम महद्यशः।
हिरण्यगर्भ इत्येष मा मा हि्ँसीदित्येषा यस्मान्न जात इत्येष।। "
अर्थात् :- हे मनुष्यों! (यस्य) जिसका (महत्) पूज्य बड़ा (यशः) कीर्ति करनेवाला धर्मयुक्त कर्म का आचरण ही (नाम)नामस्मरण है, जो (हिरण्यगर्भः) सूर्य बिजली आदि पदार्थों का आधार (इति) इस प्रकार (एषः) अन्तर्यामी होने से प्रत्यक्ष जिसकी (मा) मुझको (मा, हिंसीत्) मत ताड़ना दे वा वह अपने से मुझको विमुख मत करे, (इति)इस प्रकार (एषा) यह प्रार्थना वा बुद्धि और (यस्मात्) जिस कारण (न)नहीं (जातः) उत्पन्न हुआ (इति) इस प्रकार (एषः) यह परमात्मा उपासना के योग्य है। (तस्य) उस परमेश्वर की (प्रतिमा) प्रतिमा - परिमाण उसके तुल्य अवधि का साधन प्रतिकृति, मूर्ति वा आकृति (न, अस्ति) नहीं है। (दयानंद भाष्य)
इस मंत्र पर महीधर अपने भाष्य में लिखते हैं :-
"न तस्य पुरुषस्य प्रतिमा प्रतिमानभूतं किचिद्विद्यते"
अर्थात् - उस पुरुष परमात्मा की प्रतिमा अर्थात् प्रतिनिधि सदृश माप आदि कोई वस्तु नहीं है।
इस मंत्र पर भाष्य करते हुए सायणाचार्य ने "न प्रतिमानमस्ति। प्रतिमानम् - प्रतिनिधि" यह कहकर परमेश्वर की प्रतिमा या मूर्ति का खंडन किया है।
इस मंत्र में दो कथन ज्ञातव्य है। पहला की उस परमात्मा का कोई परिमाण व आकृति नहीं है। और दूसरा कि ब्रह्म के सदृश महत्व रखने वाली कोई वस्तु संसार में नहीं। तो फिर यह पाषाण की मूर्तियां उसके सदृश महत्व रखने वाली कैसे हो सकती हैं। अतः परमात्मा के स्थान में उनकी पूजा व्यर्थ है।
प्रायः लोग यह प्रश्न करते हैं कि महर्षि दयानंद ने इस मंत्र का विपरीतार्थ किया है। सो यह आक्षेप गलत है।
क्योंकि :-
१. महीधर :- न तस्य पुरुषस्य प्रतिमा प्रतिमानभूतं किचिद्विद्यते।
२. उव्वट :- तस्य पुरुषस्य प्रतिमा प्रतिमानमुपमानं किंचिद्वस्तुनास्ति।
३. अमरकोष :- प्रतिमानं प्रतिबिम्बं प्रतिमा प्रतियाना प्रतिच्छाया। प्रतिकृतिरर्चापुंसि प्रतिनिधि रूपमोपमानं स्यात्। अमरकोष २०। ३६।
४. स्वामी दयानंद :- न निषेधे तस्य परमेश्वरस्य प्रतिमा प्रतिमीयते यया तत्परिमापकं सदृशं तोलन प्रतिकृति राकृतिर्वा अस्ति वर्तते (वेदभाष्य)
भाषार्थ :- १. उस पुरुष परमात्मा की प्रतिमा अर्थात् प्रतिनिधि सदृश माप प्रतिमान भूत कोई वस्तु नहीं है। (महीधर)
२. उस परमात्मा की प्रतिमा प्रतिमान उपमान कोई वस्तु नहीं है। (उव्वट)
३. प्रतिमान, प्रतिबिम्ब, प्रतिमा, प्रतियातना, प्रतिच्छाया, प्रतिकृति, अर्चा, प्रतिनिधि, ये आठ नाम प्रतिमा के हैं। (अमरकोष)
४. उस परमेश्वर की प्रतिमा माप सदृश तोल साधन प्रतिकृति आकृति नहीं है। (स्वामी दयानंद)
अतः आप देख सकते हैं कि स्वामी जी ने कौन-सा नया अर्थ किया है??जो युक्तियुक्त अर्थ पूर्व के आचार्यों ने किया वैसा स्वामी जी का भी है। अतः यह आक्षेप निराधार है।
यजुर्वेद के इस मंत्र में भी परमेश्वर को आकृति रहित व अतुल्य बताया है। अतः सर्वव्यापी निराकार ईश्वर के स्थान पर स्वेच्छा से उसकी आकृति गढ़ कर मूर्ति बनाकर उस पाषाण जड़ मूर्ति को पूजना गलत है। व्यर्थ है।
इस मंत्र के अतिरिक्त यजुर्वेद का एक और मंत्र है जो ईश्वर का साकार होकर अवतार धारण करने की कल्पित मान्यता का खंडन करता है। यजुर्वेद अध्याय ३१ मंत्र १९।
मंत्र है :-
प्रजापतिश्चरति गर्भे अन्तरजायमानो बहुधा वि जायते।
तस्य योनिं परि पश्यन्ति धीरास्तस्मिन्ह तस्थुर्भुवनानि विश्वा।।
(यजु० ३१। १९।।)
भाषार्थ :- (प्रजापतिः) प्रजापालक परमात्मा (गर्भे अन्तः) गर्भ में, गर्भस्थ जीवात्मा में (चरति) विचरता है। वह (अजायमानः) स्वयं कभी उत्पन्न न होता हुआ भी (बहुधा)अनेक प्रकार से (वि जायते) विविध रूपों में प्रकट होता है (तस्य योनिम्) उसके स्वरूप को (धीराः) धीर, निश्चल योगिजन ही (परि पश्यन्ति) साक्षात् करते हैं (तस्मिन् ह) उस परमेश्वर में ही (विश्वा भुवनानि) समस्त सूर्य्यादि लोक (तस्थुः) स्थिर हैं।
भावार्थ :- १. ईश्वर सर्वत्र व्यापक है, अतः वह गर्भ में अथवा गर्भस्थ जीवात्मा में भी व्यापक है।
२. वह स्वयं जन्म धारण नहीं करता। जो जन्म धारण नहीं करता वह मरता भी नहीं। अतः ईश्वर जन्म-मरण के बन्धन से रहित है।
३. ईश्वर जन्म नहीं लेता परन्तु वह नाना प्रकार के रूपों में प्रकट होता है। यहां कहीं भी परमेश्वर को निमित्तोपादान कारण नहीं कहा है। अपितु परमेश्वर की सर्वव्यापक गुण को कहा है। सर्वव्यापक होने से वो परमेश्वर निराकार सिद्ध होता है। सर्वव्यापक होने से ही वो सारी सृष्टि का आधाररूप है। इत्यादि।
४. उस ईश्वर का साक्षात्कार धीर योगी लोग ही कर सकते हैं। अर्थात् वेद रीति से उपासना करनेवाले लोग ही परमेश्वर का साक्षात्कार कर सकते हैं। अन्यथा मनमाने आचरण वाले नहीं।
५. वह ईश्वर समस्त लोक-लोकांतर में स्थित है। उसी के आश्रय सब ठहरे हुए हैं।
अतः इस मंत्र से भी परमेश्वर जन्म-मरण रहित, निराकार, सर्वव्यापक, सर्वाधार ही सिद्ध होता है। और यह भी सिद्ध होता है कि योग आदि वैदिक उपासना पद्धति से ही ईश्वर प्राप्ति निश्चित है। मनमाने ढंग से मूर्ति आदि की पूजा से प्राप्त कतई निश्चित नहीं।
क्रमशः....

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