अथर्ववेदः प्रथम काण्ड - ধর্ম্মতত্ত্ব

ধর্ম্মতত্ত্ব

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স্বাগতম

19 October, 2017

अथर्ववेदः प्रथम काण्ड

 [अथ प्रथम काण्ड - पञ्चम  सूक्त]

अपांभेषज (जल चिकित्सा) सूक्त

 ऋषि - सिन्धुद्वीप

 देवता - अपानपात्, सोम और आप: (जल) देवता


आपो हि ष्ठा मयोभुवस्ता न ऊर्जे दधातन। महे रणाय चक्षसे।।१।।

हे आपः! आप प्राणिमात्र को सुख देने वाले हैं। सुखोपभोग एवं संसार में रमण करते हुए, हमें उत्तम दृष्टि की प्राप्ति हेतु पुष्ट करें।


यो व: शिवतमो रसस्तस्य भाजयतेह नः। उशतीरिव मातरः।।२।।

जिनका स्नेह उमड़ता ही रहता है, ऐसी माताओं की भांति आप हमें अपने सबसे अधिक कल्याणप्रद रस में भागीदार बनाएं।

【दुर्गति का मुख्य कारण यह है कि हमारी रसानुभूति अहितकारी प्रवृत्तियों की ओर मुड़ जाती है इसलिए जीवन रस कल्यानोन्मुख रखने की प्रार्थना की गई हैं】


तस्मा अरं गमाम वो यस्य क्षयाय जिनवथ। आपो जनयथा च नः।।३।।

अन्नादि उत्पन्न कर प्राणिमात्र को पोषण देने वाले हे दिव्य प्रवाह! हम आपका सान्निध्य पाना चाहते हैं। हमारी अधिकतम वृद्धि हो।


ईशाना वार्यानाम क्षयन्तीश्चर्षणीनाम। अपो याचामी भेषजम।।४।।

व्याधिनिवारक दिव्य गुण वाले जल का हम आवाहन करते हैं। वह हमें सुख-सम्रद्धि प्रदान करें। उस औषधिरूप जल ही हम प्रार्थना करते हैं।

[अथ प्रथम काण्ड - षष्ठ  सूक्त]

अपांभेषज (जल चिकित्सा) सूक्त

 ऋषि - सिन्धुद्वीप कृति अथवा अथर्वा

 देवता - अपानपात्, सोम और आप: (जल) देवता


शं नो देवीरभिष्टय आपो भवन्तु पीयते। शं योरभि स्रवन्तु नः॥१॥

दिव्य गुणवाले (आपः) जल [जल के समान उपकारी पुरुष] (नः) हमारे (अभिष्टये) अभीष्ट सिद्धि के लिये और (पीतये) पान वा रक्षा के लिये (शम्) सुखदायक (भवन्तु) होवें। और (नः) हमारे (शम्) रोग की शान्ति के लिये और (योः) भय दूर करने के लिये (अभि) सब ओर से (स्रवन्तु) वर्षा करें।

 वृष्टि से जल के समान उपकारी पुरुष सबके दुःख की निवृत्ति और सुख की प्रवृत्ति में प्रयत्न करते रहें। 


अप्सू मे सोमो अब्रवीदन्तर्विश्वानि भेषजा। अग्निम च विश्वशम्भुवम ॥२॥

(सोमः) बड़े ऐश्वर्यवाले परमेश्वर ने [चन्द्रमा वा सोमलता ने] (मे) मुझे (अप्सु अन्तः) व्यापनशील जलों में (विश्वानि) सब (भेषजा=०-नि) औषधों को, (च) और (विश्वशम्भुवम्) संसार के सुखदायक (अग्निम्) अग्नि [बिजुली वा पाचनशक्ति] को बताया है।

 परमेश्वर सब विद्याओं का प्रकाशक है, चन्द्रमा औषधियों को पुष्ट करता है और सोमलता मुख्य ओषधि है। यह सब पदार्थ जैसे जल द्वार औषधों, अन्न आदि और शरीरों के बढ़ाने, बिजुली और पाचन शक्ति पहुँचाने और तेजस्वी करने में मुख्य कारण होते हैं, वैसे ही मनुष्यों को परस्पर सामर्थ्य बढ़ाकर उपकार करना चाहिये। 


 आपः पृणीत भेषजं वरूथं तन्वेदमम। ज्योक् च सूर्यम दृशे॥३॥ 

(आपः) हे व्यापनशील जलो [जलसमान उपकारी पुरुषो] (मम) मेरे (तन्वे) शरीर के लिये (च) और (ज्योक्) बहुत काल तक (सूर्यम्) चलने वा चलानेवाले सूर्य को (दृशे) देखने के लिये (वरूथम्) कवचरूप (भेषजम्) भयनिवारक औषध को (पृणीत) पूर्ण करो।

जैसे युद्ध में योद्धा की रक्षा झिलम से होती है, वैसे ही जलसमान उपकारी पुरुष परस्पर सहायक होकर सबका जीवन आनन्द से बढ़ाते हैं


 शं नः आपो धन्वन्याः शमु सन्त्वनूप्या:।

शं नः खनित्रिमा आपः शमु याः कुम्भ आभृता: शिवा नः सन्तु वार्षिकी: ॥४॥ 


(नः) हमारे लिये (धन्वन्याः) निर्जल देश के (आपः) जल (शम्) सुखदायक, (उ) और (अनूप्याः) जलवाले देश के [जल] (शम्) सुखदायक (सन्तु) होवें। (नः) हमारे लिये (खनित्रिमाः) खनती वा फावड़े से निकाले गये (आपः) जल (शम्) सुखदायक होवें, (उ) और (याः) जो (कुम्भे) घड़े में (आभृताः) लाये गये वह भी (शम्) सुखदायी होवें, (वार्षिकीः) वर्षा के जल (नः) हमको (शिवाः) सुखदायी (सन्तु) होवें।

जैसे जल सब स्थानों में उपकारी होता है, वैसे ही जलसमान उपकारी मनुष्यों को प्रत्येक कार्य और प्रत्येक स्थान में परस्पर लाभ पहुँचाकर सुखी होना चाहिये।

[अथ प्रथम काण्ड - सप्तम  सूक्त]

 यातुधाननाशन सूक्त 

 ऋषि - चातन

 देवता - अग्नि


स्तुवानमग्न आ वह यातुधानं किमीदिनं।

त्वं हि देव वंदितो हन्ता दस्योर्बभूविथ।।१।।

(अग्ने) हे अग्ने ! [अग्निसमान प्रतापी] (स्तुवानम्) [तेरी] स्तुति करते हुए (यातुधानम्) पीडा देनेहारे (किमीदिनम्) यह क्या यह क्या हो रहा है, ऐसा कहनेवाले लुतरे को (आवह) ले आ। (हि) क्योंकि (देव) हे राजन् (त्वम्) तू (वन्दितः) स्तुति को प्राप्त करके (दस्योः) चोर वा डाकू का (हन्ता) हनन कर्ता (बभूविथ) हुआ था।

जब अग्नि के समान तेजस्वी और यशस्वी राजा दुःखदायी लुतरों [चुग़लख़ोरों] और डाकुओं और चोरों को आधीन करता है, तो शत्रु लोग उसके बल और प्रताप की प्रशंसा करते हैं और राज्य में शान्ति फैलती है।

(किमीदिन्) शब्द का अर्थ भगवान् यास्क ने अब क्या हो रहा है वा यह क्या यह क्या हो रहा है ऐसा कहते हुए छली, सूचक वा चुग़लख़ोर का किया है।


आज्यस्य परमेष्ठिञ्जातवेदस्तनूविशन्।

अग्ने तौलस्य प्राशान यातुधानान् वि लापय।।२।।

(परमेष्ठिन्) हे बड़े ऊँचे पदवाले ! (जातवेदः) हे ज्ञान वा धन के देनेवाले ! (तनूवशिन्।) शरीरों को वश में रखने हारे ! (अग्ने) अग्नि, राजन् ! तू (तौलस्य) तोल से पाये हुए (आज्यस्य) घृत का (प्र-अशान) भोजन कर। और (यातुधानान्) दुःखदायी राक्षसों से (विलापय) विलाप करा।

जैसे अग्नि स्रुवादि के तौल व परिमाण से दिये हुए घृतादि हवन सामग्री को पाकर प्रज्वलित होता है, वैसे ही प्रतापी राजा प्रजा का दिया हुआ कर लेकर दुष्टों को दण्ड देता है, उससे प्रजा सदा आनन्दयुक्त रहती है।


वि लपन्तु यातुधाना अति्त्रणों ये किमीदिनः।

अथेदमग्ने वो हविरिन्द्रश्च प्रतिहर्यतम्।।३।।

(ये) जो (यातुधानाः) पीडा देनेहारे, (अत्त्त्रिणः) पेट भरनेवाले (किमीदिनः) यह क्या यह क्या, ऐसा करनेवाले लुतरे [हैं] [वे] (विलपन्तु) विलाप करें। (अथ) और (अग्ने) हे अग्नि (च) और (इन्द्रः) हे वायु, तुम दोनों (इदम्) इस (हविः) होम सामग्री को (प्रति हर्यतम्) अङ्गीकार करो।

जैसे अग्नि, वायु के साथ हवनसामग्री से प्रचण्ड होकर दुर्गन्धादि दोषों का नाश करती है, वैसे ही अग्नि के समान तेजस्वी और वायु के समान वेगवान् महाप्रतापी राजा से दुःखदायी, स्वार्थी, बतबने लोग अपने किये का दण्ड पाकर विलाप करते हैं, तब उसके राज्य में शान्ति होती है।


अग्निः पूर्व आ रभतां प्रेन्द्रो नुदतु बाहुमान्। ब्रवीतु सर्वो यातुमानयमस्मीत्येत्य।।४।।

(पूर्वः) मुखिया (अग्निः) अग्निरूप राजा (आरभताम्) [शत्रुओं] को पकड़ लेवे, (बाहुमान्) प्रबल भुजावाला (इन्द्रः) वायुरूप सेनापति (प्रनुदतु) निकाल देवे। (सर्वः) एक-एक (यातुमान्) दुःखदायी राक्षस (एत्य) आकर (अयम् अस्मि) यह मैं हूँ−(इति) ऐसा (ब्रवीतु) कहे।

जब अग्नि के समान तेजस्वी और वायु के समान वेगवान् महाप्रतापी राजा उपद्रवियों को पकड़ता और देश से निकालता है, तब उपद्रवी लोग अपना-अपना नाम लेकर उस राजा के शरणागत होते हैं।


पश्याम ते वीर्यं जातवेदः प्रणो ब्रूहि यातुधानान् नृचक्षः।

त्वया सर्वे परितप्ताः पुरस्तात् त आ यन्तु प्रर्ब्रूवाणा उपेदम्।।५।।

(जातवेदः) हे ज्ञान देनेहारे वा बहुत धनवाले राजा ! (ते) तेरे (वीर्यम्) पराक्रम को (पश्याम) हम देखें, (नृचक्षः) हे मनुष्यों के देखने हारे ! (नः) हमें (यातुधानान्) दुःखदायी राक्षसों को (प्रब्रूहि) बता दे। (त्वया) तुझसे (परितप्ताः) जलाये हुए (सर्वे) वह सब (प्रब्रुवाणाः) जय बोलते हुए (पुरस्तात्) [तेरे] आगे (इदम्) इस स्थान में (उप आ यन्तु) चले आवें।

राजा को चाहिये कि अपने राज्य में विद्याप्रचार करे, सब प्रजा पर दृष्टि रक्खे और उपद्रवियों को अपने आधीन सर्वथा रक्खे कि वह लोग उसकी आज्ञा को सर्वदा मानते रहें।


आ रभस्व जातवेदोsस्माकार्थाय जज्ञिषे।

दूतो नो अग्ने भूत्वा यातुधानान् वि लापय।।६।।

(जातवेदः) हे ज्ञान वा धन देनेवाले राजन् ! (आरभस्व) वैरियों को पकड़ ले, (अस्माक) हमारे (अर्थाय) प्रयोजन के लिये (जज्ञिषे) तू उत्पन्न हुआ है। (अग्ने) हे अग्ने [ सेनापते] (नः) हमारा (दूतः) दूत (भूत्वा) होकर (यातुधानान्) दुःखदायियों से (विलापय) विलाप करा।

(दूत) का अर्थ शीघ्रगामी और सन्तापकारी है, जैसे दूत शीघ्र चल कर संदेश पहुँचाता है वैसे ही बिजुलीरूप अग्नि शरीरों में प्रविष्ट होकर वेग उत्पन्न करता है अथवा काष्ठ आदि को जलाता है, इसी प्रकार अग्नि के समान तेजस्वी और प्रतापी राजा अपनी प्रजा की दशा को जान कर यथोचित न्याय करता और दुष्टों को दण्ड देता है।


त्वमग्ने यातुधानानुपबद्धां इहा वह। अथैषामिन्द्रो वज्रेणापि शीर्षाणि वृश्चतु।।७।।

(अग्ने) हे अग्नि ! (त्वम्) तू (उप बद्धान्) दृढ़ बाँधे हुए (यातुधानान्) दुःखदायी राक्षसों को (इह) यहाँ पर (आवह) ले आ। (अथ) और (इन्द्रः) वायु (वज्रेण) कुल्हाड़े से (एषाम्) इनके (शीर्षाणि) मस्तकों को (अपि) भी (व्रश्चतु) काट डाले।

अग्नि के समान प्रतापी और (इन्द्र) वायु के समान वेगवान् राजा उत्पातियों को कारागार में डाल दे और उनके सिर उड़ा दे।

इसी प्रकार सब मनुष्य आध्यात्म विषय में आत्मा को सेनानी, और लोभ, मोह, आदि को शत्रु और गृहस्थिति में गृहपति को सेनापति और विघ्नों को बैरी मान कर योग्य व्यवहार करें।

 [अथ प्रथम काण्ड - अष्टम  सूक्त] 

 यातुधाननाशन सूक्त 

 ऋषि - चातन

 देवता - वृहस्पति, अग्निषोम


इदं हविर्यातुधानान् नदी फेनमिवा वहत्।

य इदं स्त्री पुमानकरहि स स्तुवतां जनः।।१।।

(इदम्) यह (हविः) [हमारी] भक्ति (यातुधानान्) राक्षसों को (आवहत्) ले आवे, (इव) जैसे (नदी) नदी (फेनम्) फेन को। (यः) जिस किसी (पुमान्) मनुष्य ने अथवा (स्त्री) स्त्री ने (इदम्) इस [पापकर्म] को (अकः) किया है (सः जनः) वह पुरुष (स्तुवताम्) [तेरी] स्तुति करे।

प्रजा की पुकार सुनकर जब राजा दुष्टों को पकड़ता है, अपराधी स्त्री और पुरुष अपने अपराध को अङ्गीकार कर लेते और उस प्रतापी राजा की स्तुति करते हैं।

(स्त्री) शब्द का अर्थ संग्रह करने हारी वा स्तुति योग्य और [पुमान्] का अर्थ रक्षक वा पुरुषार्थी है।


अयं स्तुवान आगमदिमं स्म प्रति हर्यत।

वृहस्पते वशे लब्ध्वाग्निषोमा वि विध्यतम्।।२।।

(अयम्) यह [शत्रु] (स्तुवानः) स्तुति करता हुआ (आ-अगमत्) आया है, (इमम्) इसका (स्म) अवश्य (प्रति हर्यत) तुम सब स्वागत करो। (बृहस्पते) हे बड़े बड़ों के रक्षक राजन् ! [दूसरे वैरी को] (वशे) वश में (लब्ध्वा) लाकर [वर्त्तमान हो], (अग्नीषोमा=०-मौ) हे अग्नि और चन्द्रमा ! तुम दोनों [अन्य वैरियों को] (वि) अनेक भाँति से (विध्यतम्) ताड़ो।

जो शत्रु राजा का प्रभुत्य मानकर शरणागत हो, राजा और कर्मचारी उसका स्वागत करें। प्रतापी राजा दूसरे वैरी को शम दम आदि से अपने आधीन रक्खे। और अन्य वैरियों को (अग्निषोमा) दण्ड देने में अग्नि सा प्रचण्ड और न्याय करने में (सोम्) चन्द्रमा सा शान्तस्वभाव रहे।


यातुधानस्य सोमप जहि प्रजां नयस्व च। नि स्तुवानस्य पातय परमक्ष्युतावरम्।।३।।

(सोमप) हे अमृत पीने हारे [राजन्] तू (यातुधानस्य) पीडा देनेहारे पुरुष के (प्रजाम्) मनुष्यों को (जहि) मार, (च) और (नयस्व) ले आ। (निस्तुवानस्य) अपस्तुति [निन्दा] करते हुए [शत्रु की] (परम्) उत्तम [हृदय की] (उत) और (अवरम्) नीची [शिर की] (अक्षि) आँख को (पातय) निकाल दे।

(सोमप) अमृत पीने हारा अर्थात् शान्तस्वभाव यशस्वी राजा दुष्टों का नाश करे और पकड़ लावे। निन्दा फैलाने हारे मिथ्याचारी शत्रु को नष्ट भ्रष्ट कर दे कि वह पापी अपने मन के भीतरी कुविचार और बाहिरी कुचेष्टा और पाप कर्म छोड़ दे।


यत्रैषामग्ने जनिमानि वेत्थ गुहा सतामित्त्राणाम् जातवेदः।

तास्तवं ब्राह्मणा वावृधानोज़ह्योषा शततर्हमग्ने।।४।।

(जातवेदः) हे अनेक विद्यावाले वा धनवाले ! (अग्ने) अग्नि [अग्निस्वरूप राजन्] (यत्र) जहाँ पर (गुहा) गुफा में (सताम्) वर्त्तमान (एषाम्) इन (अत्रिणाम्) उदरपोषकों के (जन्मा नि) जन्मों को (वेत्थ) तू जानता है। (अग्ने) हे अग्निरूप राजन् ! (ब्रह्मणा) वेदज्ञान [वा अन्न वा धन] से (वावृधानः) बढ़ता हुआ (त्वम्) तू (तान्) उनकी और (एषाम्) इनकी (शततर्हम्) सैकड़ों प्रकार की हिंसा को (जहि) नाश कर।

अग्नि के समान तेजस्वी महाबली राजा गुप्त उपद्रवियों का खोज करे और उनको यथा नीति कड़े-कड़े दण्ड देकर प्रजा में शान्ति रक्खे।

[अथ प्रथम काण्ड - नवम  सूक्त] 

 विजयप्रार्थना सूक्त 

 ऋषि - अथर्वा

 देवता - वसुगण, इंद्र, पूषा:, वरुण, मित्र, अग्नि, आदित्यगण, विश्वेदेवा, २ देवगण, सूर्य, अग्नि, हिरण्य, ३-४ अग्नि (जातवेदा)


अस्मिन वसु वसवो धारयन्त्विन्द्रः पूषा वरुणो मित्रो अग्निः।

इममादित्या उत विश्वे च देवा उत्तरस्मिञ्ज्योतिषि धारयन्तु।।१।।

(वसवः) प्राणियों के बसानेवाले वा प्रकाशमान, श्रेष्ठ देवता [अर्थात्] (इन्द्रः) परमेश्वर वा सूर्य, (पूषा) पुष्टि करनेवाली पृथिवी, (वरुणः) मेघ, (मित्रः) वायु और (अग्निः) आग, (अस्मिन्) इस पुरुष में [मुझमें] (वसु) धन को (धारयन्तु) धारण करें। (आदित्याः) प्रकाशवाले [बड़े विद्वान् शूरवीर पुरुष] (उत च) और भी (विश्वे) सब (देवाः) व्यवहार जाननेहारे माहात्मा (इमम्) इसको [मुझको] (उत्तरस्मिन्) अति उत्तम (ज्योतिषि) ज्योति में (धारयन्तु) स्थापित करें।

चतुर पुरुषार्थी मनुष्य के लिये परमेश्वर और संसार के सब पदार्थ उपकारी होते हैं। अथवा जो सूर्य, भूमि, मेघ, वायु और अग्नि के समान उत्तम गुणवाले और दूसरे शूर वीर विद्वान् लोग (आदित्याः) जो विद्या के लिये और धरती अर्थात् सब जीवों के लिये पुत्र समान सेवा करते हैं और जो सूर्य के समान उत्तम गुणों से प्रकाशमान हैं, वे सब नरभूषण पुरुषार्थी मनुष्य के सदा सहायक और शुभचिन्तक रहते हैं।


अस्य देवाः प्रदिशि ज्योतिरसुत सूर्यो अग्निरूत वा हिरण्यम्।

सपत्ना अस्मधरे भवन्तुत्तमं नाकमधि रोहयेमम्।।२।।

(देवाः) हे व्यवहार जाननेहारे महात्माओ ! (अस्य) इसके [मेरे] (प्रदिशि) शासन में (ज्योतिः) तेज, [अर्थात्] (सूर्यः) सूर्य, (अग्निः) अग्नि, (उत वा) और भी (हिरण्यम्) सुवर्ण (अस्तु) होवे। (सपत्नाः) सब वैरी (अस्मत्) हमसे (अधरे) नीचे (भवन्तु) रहें। (उत्तमम्) अति ऊंचे (नाकम्) सुख में (एनम्) इसको [मुझको] (अधि) ऊपर (रोहय=०-यत) तुम चढ़ाओ।

प्रकाशवाले, सूर्य अग्नि की और सुवर्ण आदि की विद्याएँ, अथवा सूर्य, अग्नि और सुवर्ण के समान प्रकाशवाले लोग, पुरुषार्थी मनुष्य के अधिकार में रहें और वह यथायोग्य शासन करके सर्वोत्तम सुख भोगे।


येनेन्द्राय समभरः पयांस्युत्तमेन ब्रह्मणा जातवेदः।

तेन त्वमग्न इह वर्धयेमं सजातानां श्रैष्ठय आ धेह्योनम्।।३।।

(जातवेदः) हे विज्ञानयुक्त, परमेश्वर ! तूने (येन उत्तमेन ब्रह्मणा) जिस उत्तम वेदविज्ञान से (इन्द्राय) पुरुषार्थी जीव के लिये (पयांसि) दुग्धादि रसों को (समभरः) भर रक्खा है। (तेन) उसी से (अग्ने) हे ज्ञानस्वरूप परमेश्वर ! (त्वम्) तू (इह) यहाँ पर (इमम्) इसे (मुझे) (वर्धय) वृद्धियुक्त कर, (सजातानाम्) तुल्य जन्मवाले पुरुषों में (श्रैष्ठ्ये) श्रेष्ठ पद पर (एनम्) इसको [मुझको] (आ) यथाविधि (धेहि) स्थापित कर।

परमेश्वर पुरुषार्थियों को सदा पुष्ट और आनन्दित करता है। मनुष्य को प्रयत्न करके अपनी श्रेष्ठता और प्रतिष्ठा बढ़ानी चाहिये।

(अग्नि) शब्द ईश्वरवाची है। इस में यह प्रमाण है−मनु १२।१२३।

एतमेके वदन्त्यग्निं मनुमन्ये प्रजापतिम्।

इन्द्रमेकेऽपरे प्राणमपरे ब्रह्म शाश्वतम् ।।१।।

इसको कोई अग्नि, दूसरे मनु और प्रजापति, कोई इन्द्र, दूसरे प्राण और नित्य ब्रह्म कहते हैं।  


ऐषां यज्ञमुत वर्चो ददेअहं रायस्पोषमुत चित्तान्यग्ने।

सपत्ना अस्मधरे भवन्तुत्तमं नाकमधि रोहयेमम्।।४।।

(अग्ने) हे परमेश्वर ! (एषाम्) इनके [अपने लोगों] के दिये (यज्ञम्) सत्कार, (उत) और (वर्चः) तेज, (रायः) धन की (पोषम्) बढ़ती (उत) और (चित्तानि) मानसिक बलों को (अहम्) मैं (आददे) ग्रहण करता हूँ। (सपत्नाः) वैरी लोग (अस्मत्) हमसे (अधरे) नीचे (भवन्तु) होवें, (उत्तमम्) अति ऊँचे (नाकम्) सुख में (एनम्) इसको [मुझे] (अधि) ऊपर (रोहय) चढ़ा।

बुद्धिमान् नीतिनिपुण पुरुष अपने पक्षवालों के किये हुए उपकार और सत्कार को सधन्यवाद स्वीकार करे और विपक्षियों को नीचा दिखा कर अपनी प्रतिष्ठा बढ़ावे।

इस मन्त्र का उत्तरार्ध मन्त्र २ का उत्तरार्ध है।


[अथ प्रथम काण्ड - दशं सूक्त] 

 पाशविमोचन सूक्त 

 ऋषि - अथर्वा

 देवता - १ असुर, २-४ वरुण


अयं देवानामसुरो वि राजति वशा हि सत्या वरुणस्य राज्ञ:।

ततस्परि ब्रह्माणा शाशदान उग्रस्य मन्योरुदिमं नयामि।।१।।

(अयम्) यह (देवानाम्) विजयी महात्माओं का (असुरः) प्राणदाता [वा प्रज्ञावान् वा प्राणवान्] परमेश्वर (विराजति) बड़ा राजा है, (वरुणस्य) वरुण अर्थात् अति श्रेष्ठ (राज्ञः) राजा परमेश्वर की (वशा) इच्छा (सत्या) सत्य (हि) ही है। (ततः) इस लिये (ब्रह्मणा) वेदज्ञान से (परि) सर्वथा (शाशदानः) तीक्ष्ण होता हुआ मैं (उग्रस्य) प्रचण्ड परमेश्वर के (मन्योः) क्रोध से (इमम्) इस को [अपने को] (उत् नयामि) छुड़ाता हूँ।

सर्वशक्तिमान् परमेश्वर के क्रोध से डर कर मनुष्य पाप न करें और सदा उसे प्रसन्न रक्खें।


नमस्ते राजन् वरुणास्तु मन्यवे विश्वं ह्युग्र निचिकेषि द्रुग्धम्।

सहस्रमन्यान् प्र सुवामि साकं शतं जीवाति शरदस्तवायम्।।२।।

(वरुण) हे अतिश्रेष्ठ (राजन्) बड़े ऐश्वर्यवाले, राजा, (ते) तुझ (मन्यवे) क्रोधरूप को (नमः) नमस्कार (अस्तु) होवे, (उग्र) हे प्रचण्ड ! तू (विश्वम्) सब (हि) ही (द्रुग्धम्) द्रोह को (नि-चिकेषि) सदा जानता है। [मैं] (सहस्रम्) सहस्र (अन्यान्) दूसरे जीवों को (साकम्) एक साथ (प्रसुवामि) आगे बढ़ाता हूँ, (ते) तेरा (अयम्) यह [सेवक] (शतम्) सौ (शरदः) शरद् ऋतुओं तक (जीवाति) जीता रहे।

सर्वज्ञ परमेश्वर के महा क्रोध से भय मानकर मनुष्य पातकों से बचें और सबके साथ उपकार करके जीवन भर आनन्द भोगें।


यदुवक्थानृतं जिह्वया वृजिनं बहु। राज्ञस्त्वा सत्यधर्मणो मुञ्चामि वरुणादहम्।।३।।

[हे आत्मा !] (यत्) जो (बहु) बहुत सा (अनृतम्) असत्य और (वृजिनम्) पाप (जिह्वया) जिह्वा से (उवक्थ) तू बोला है। (अहम्) मैं (त्वा) तुझको (सत्यधर्मणः) सच्चे धर्मात्मा वा न्यायी, (वरुणात्) सबमें श्रेष्ठ परमेश्वर (राज्ञः) राजा से (मुञ्चामि) छुड़ाता हूँ।

जो मनुष्य मिथ्यावादी दुराचारी भी होकर उस प्रभु की शरण लेते और सत्कर्मों में प्रवृत्त होते हैं, वे लोग उस जगदीश्वर की न्यायव्यवस्था के अनुसार दुःखपाश से छूटकर आनन्द भोगते हैं।


मुञ्चामि त्वा वैश्वानरादर्णवान् महतस्परि।

सजातानुग्रेहा वद ब्रह्म चाप चिकिह नः।।४।।

[हे आत्मा !] (महतः) विशाल (अर्णवात्) समुद्र के समान गंभीर (वैश्वानरात्) सब नरों के हितकारक वा सबके नायक परमेश्वर से (त्वा) तुझको (परि मुञ्चामि) मैं छुड़ाता हूँ। (उग्र) हे प्रचण्डस्वभाव [परमेश्वर !] (सजातान्) [मेरे] तुल्य जन्मवालों को (इह) इस विषय में (आवद) उपदेश कर (च) और (नः) हमारे (ब्रह्म) वैदिक ज्ञान को (अप) आनन्द से (चिकीहि) तू जान।

मनुष्य पापकर्म छोड़ने से सर्वहितकारी परमेश्वर के कोप से मुक्त होते हैं। परमात्मा सब प्राणियों को उपदेश करता और सबकी सत्य भक्ति को स्वीकार कर यथार्थ आनन्द देता है।

[अथ प्रथम काण्ड - एकादश सूक्त]

११. नारीसुखप्रसूती सूक्त

 ऋषि - अथर्वा

 देवता - पृषा, अर्यमा, वेधा दिक, देवगण


वषट् ते पूषन्नस्मिन्त्सूतावर्यमा होता कृणोतु वेधा:।

सिस्त्रतां नार्यृतप्रजाता वि पर्वाणि जिहतां सूतवा उ।।१।।

(पूषन्) हे सर्वपोषक, परमेश्वर ! (ते) तेरे लिये (वषट्) यह आहुति [भक्ति] है। (अस्मिन्) इस समय पर (सूतौ) सन्तान के जन्म को (अर्यमा) न्याय कारी, (होता) दाता, (वेधाः) सबका रचनेवाला ईश्वर (कृणोतु) करे। (ऋतप्रजाता) पूरे गर्भवाली (नारी) नर का हित करनेहारी स्त्री (सिस्रताम्) सावधान रहे, (पर्वाणि) इस के सब अङ्ग (उ) भी (सूतवै) सन्तान उत्पन्न करने के लिये (विजिहाताम्) कोमल हो जावें।

प्रसवसमय होने पर पति आदि विद्वान् लोग परमेश्वर की भक्ति के साथ हवनादि कर्म प्रसूता स्त्री की प्रसन्नता के लिये करें और वह स्त्री सावधान होकर श्वास-प्रश्वास आदि द्वारा अपने अङ्गों को कोमल रक्खे, जिससे बालक सुखपूर्वक उत्पन्न होवे।

टिप्पणी−इस सूक्त में माता से सन्तान उत्पन्न होने का उदाहरण देकर बताया गया है कि मनुष्य सृष्टि विद्या के ज्ञान से ईश्वर की अनन्त महिमा का विचार करके परस्पर उपकारी बनें।


चतस्त्रो दिवः प्रदिशश्चतस्त्रो भूम्या उत। देवा गर्भं समैरयन् तं व्यूर्णुवन्तु सूतवे।।२।।

(दिवः) आकाश की (चतस्रः) चारों (उत) और (भूम्याः) भूमि की (चतस्रः) चारों (प्रदिशः) दिशाओं ने और (देवाः) दिव्य गुणवाले [अग्नि वायु आदि] देवताओं ने (गर्भम्) गर्भ को (समैरयन्) संगत किया है, वे सब (तम्) उस गर्भ को (सूतवे) उत्पन्न होने के लिये (व्यूर्णुवन्तु) प्रस्तुत करें।

अग्नि आदि दिव्य पदार्थों के यथार्थ संयोग से ईश्वरीय नियम के अनुसार यह गर्भ स्थिर हुआ है, मनुष्य उन तत्त्वों की अनुकूलता को, माता और गर्भ में, स्थिर रखने के लिये सदा प्रयत्न करते रहें, जिससे बालक बलवान् और नीरोग होकर पूरे समय पर उत्पन्न होवे।

टिप्पणी−देव वा देवता का अर्थ दिव्य वा अच्छे गुणवाला है। यजुर्वेद १४।२०। में ये देवता कहे हैं।

अ॒ग्निर्दे॒वता॑। वातो॑ दे॒वता॑। सूर्यो दे॒वता॑। च॒न्द्रमा॑ दे॒वता॑।

वस॑वो दे॒वता॑। रु॒द्रो दे॒वता॑। आ॒दि॒त्या दे॒वता॑। म॒रुतो॑ दे॒वता॑।

विश्वे॑दे॒वा दे॒वता॑। बृह॒स्पति॑र्दे॒वता॑। इन्द्रो॑ दे॒वता॑। वरु॑णो दे॒वता॑ ॥

अग्नि १, वायु २, सूर्य ३, चन्द्रमा ४, सबके बसानेवाले अन्नादि पदार्थ ५, दुःख दूर करनेवाले जीव वा पदार्थ ६, प्रकाश करनेवाले पदार्थ अथवा अदिति, विद्या वा पृथिवी के पुत्र के समान सेवा करनेवाले पुरुष ७, दुष्टों के मारनेवाले शूरवीर पुरुष ८, सब अच्छे गुणवाले विद्वान् ९, बड़े वेद- वचनों वा ब्रह्माण्डों का रक्षक परमेश्वर १०, ऐश्वर्य वा धन ११ और जल १२, यह सब (देवता) उत्तम गुणवाले हैं।


सूषा व्यूर्णोंतु वि योनिं हापयामसि। श्रथया सूषणे त्वमव त्वं विष्कले सृज।।३।।

(सूषा) सन्तान उत्पन्न करनेवाली माता (व्यूर्णोतु) अङ्गों को कोमल करे (योनिम्) प्रसूतिका गृह को (विहापयामसि) हम प्रस्तुत करते हैं। (सूषणे) हे जन्म देने हारी माता ! (त्वम्) तू (श्रथय) प्रसन्न हो। (विष्कले) हे वीर स्त्री ! (त्वम्) तू (अव सृज) [बालक को] उत्पन्न कर।

गर्भ के पूरे दिनों में गर्भिणी की शारीरिक और मानसिक अवस्था को विशेष ध्यान से स्वस्थ रक्खें। माता के प्रसन्न और सुखी रहने से बालक भी प्रसन्न और सुखी होता है। प्रसूतिका गृह भी पहिले से देश, काल विचार कर प्रस्तुत रक्खें कि प्रसूता स्त्री और बालक भले प्रकार स्वस्थ और हृष्ट पुष्ट रहें।


नेव मांसे न पीवसी नेव मज्जस्वाहतम्।अवैतु पृश्नि शेवलं शुने जराय्वत्तवेअव जरायु पद्यताम्।।४।।

[वह जरायु] (नेव) न तो (मांसे) मांस में (न) न (पीवसि) शरीर की मुटाई में (नेव) और न (मज्जसु) हड्डियों की मीग में (आहतम्) बँधी हुयी हैं। (पृश्नि) पतली (शेवलम्) सेवार घास के समान (जरायु) जेली वा झिल्ली (शुने) कुत्ते के लिये (अत्तवे) खाने को (अव) नीचे (एतु) आवे, (जरायु) जरायु (अव) नीचे (पद्यताम्) गिर जावे।

जरायु एक झिल्ली होती है, जिसे जेली वा जेरी कहते हैं और जिस में बालक गर्भ के भीतर लिपटा रहता है, कुछ उसमें से बालक के साथ निकल आती है और कुछ पीछे। यह जरायु बालक उत्पन्न होने पर नाभि आदि के बन्धन से छुट जाती है और साररहित होकर माता के उदर में ऐसे फिरता है, जैसे सेवार नाम घास जलाशय में। शरीर में उसके रह जाने से रोग हो जाता है। इससे उस जरायु का उदर से निकल जाना आवश्यक है, जिससे प्रसूता नीरोग होकर सुखी रहे।


वि ते भिनद्मि मेहनं वि योनिं वि गवीनिके।

वि मातरं च पुत्रं च वि कुमारं जरायुणाव जरायु पद्यताम्।।५।।

(ते) तेरे (मेहनम्) गर्भ मार्ग को (वि) विशेष करके और (योनिम्) गर्भाशय को (वि) विशेष करके और (गवीनिके) पार्श्वस्थ दोनों नाड़ियों को (वि) विशेष करके (भिनद्मि) [मल से] अलग करती हूँ (च) और (मातरम्) माता को (च) और (कुमारम्) क्रीड़ा करनेवाले (पुत्रम्) पुत्र को (जरायुणा) जरायु से (वि वि) अलग-अलग [करती हूँ], (जरायु) जरायु (अव) नीचे (पद्यताम्) गिर जावे।

इस मन्त्र में धात्रेयी [धायी] अपने कर्म का वर्णन करके प्रसूता को उत्साहित करती है, अर्थात् धायी बड़ी सावधानी से प्रसवसमय प्रसूता के अङ्गों को आवश्यकतानुसार कोमल मर्दन करे और उत्पन्न होने पर माता और सन्तान की यथायोग्य शुद्धि करके सुधि रक्खे और ऐसा यत्न करे कि जरायु अपने आप गिर जावे, जिससे दोनों माता और सन्तान सुखी रहें।


यथा वातो तथा मनो यथा पतन्ति पक्षिणः।

एवा त्वं दशमास्य साकं जरायुणा पताव जरायु पद्यताम्।।६।।

(यथा) जैसे (वातः) पवन और (यथा) जैसे (मनः) मन और (यथा) जैसे (पक्षिणः) पक्षी (पतन्ति) चलते हैं। (एव) वैसे ही (दशमास्य) हे दस महीनेवाले [गर्भ के बालक !] (त्वम्) तू (जरायुणा साकम्) जरायु के साथ (पत) नीचे आ, (जरायु) जरायु (अव) नीचे (पद्यताम्) गिर जावे।

(दशमास्य) दशवें अथवा ग्यारहवें महीने में बालक माता के गर्भ में बहुत शीघ्र चेष्टा करता है, तब वह उत्पन्न होता है और जरायु वा जेली कुछ उस के साथ और कुछ उसके पीछे निकलती है।

ऋग्वेद म० ५ सू० ७८ म० ८ में इस प्रकार है।

यथा॒ वातो॒ यथा॒ वनं॒ यथा॑ समु॒द्र एज॑ति।

ए॒वा त्वं द॑शमास्य स॒हावे॑हि ज॒रायु॑णा ॥१॥

जैसे वायु, जैसे वृक्ष और जैसे समुद्र हिलता है, ऐसे ही तू हे दस महीनेवाले [गर्भ के बालक !] जरायु के साथ नीचे आ।

शब्दकल्पद्रुम कोश में लिखा है।

अष्टमे मासि याते च अग्नियोगः प्रवर्तते।

मासे तु नवमे प्राप्ते जायते तस्य चेष्टितम् ॥१॥

जायते तस्य वैराग्यं गर्भवासस्य कारणात्।

दशमे च प्रसूयेत तथैकादशमासि वा ॥२॥

और आठवाँ महीना आने पर अग्नियोग होता है और नवमे महीने में उस [गर्भ] में चेष्टा होती है ॥१॥ गर्भ में वास करने के कारण उसको वैराग्य (उच्चाटन) होता है, तब दसवें अथवा ग्यारहवें महीने में वह उत्पन्न होता है ॥२॥

[अथ प्रथम काण्ड - द्वादश सूक्त]

१२. यक्ष्मनाशन सूक्त

 ऋषि - भृग्वङ्गिरा

 देवता - यक्ष्मनाशन


जरायुज: प्रथम उस्त्रियो वृषा वातभ्रजा स्तनयन्नेति वृष्टया।

स नो मृडाति तन्व ऋजुगो रुजन् य एकमोजस्त्रेधा विचक्रमे।।१।।

(जरायुजः) झिल्ली से [जरायुरूप प्रकृति से] उत्पन्न करनेवाला, (प्रथमः) पहले से वर्तमान, (उस्रियः) प्रकाशवान् [हिरण्यगर्भनाम], (वातभ्रजाः) पवन के साथ पाकशक्ति वा तेज देनेवाला, (वृषा) मेघरूप परमेश्वर (स्तनयन्) गरजता हुआ (वृष्ट्या) बरसा के साथ (एति) चलता रहता है। (सः) वह (ऋजुगः) सरलगामी (रुजन्) [दोषों को] मिटाता हुआ, (नः) हमारे (तन्वे) शरीर के लिये (मृडाति) सुख देवे, (यः) जिस (एकम्) अकेले (ओजः) सामर्थ्य ने (त्रेधा) तीन प्रकार से (विचक्रमे) सब ओर को पद बढ़ाया था।

जैसे माता के गर्भ से जरायु में लिपटा हुआ बालक उत्पन्न होता है, वैसे ही (उस्रियः) प्रकाशवान् हिरण्यगर्भ और मेघरूप परमेश्वर (वातभ्रजाः) सृष्टि में प्राण डालकर पाचनशक्ति और तेज देता हुआ सब संसार को प्रलय के पीछे प्रकृति, स्वभाव, वा सामर्थ्य से उत्पन्न करता है, वही त्रिकालज्ञ और त्रिलोकीनाथ आदि कारण जगदीश्वर हमें सदा आनन्द देवे ॥१॥

यजुर्वेद में इस प्रकार वर्णन है−य० १३।४ ॥

हि॒र॒ण्य॒ग॒र्भः सम॑वर्त॒ताग्रे॑ भू॒तस्य॑ जा॒तः पति॒रेक॑ आसीत्।

स दा॑धार पृथि॒वीं द्यामु॒तेमां कस्मै॑ दे॒वाय॑ ह॒विषा॑ विधेम ॥

(हिरण्यगर्भः) तेजों का आधार परमेश्वर पहिले ही पहिले नियमपूर्वक वर्तमान था, वह संसार का प्रसिद्ध एक स्वामी था। उसने इस पृथिवी और प्रकाश को धारण किया था, हम सब उस प्रकाशमय प्रजापति परमेश्वर की भक्ति से सेवा किया करें ॥

और भी देखो ऋ० १।२२।१७।

इ॒दं विष्णु॒र्विच॑क्रमे त्रे॒धा निद॑धे प॒दम्।

समू॑ढमस्य पांसुरे ॥

(विष्णु) व्यापक परमेश्वर ने इस [जगत्] में अनेक अनेक प्रकार से पग को बढ़ाया, उसने अपने विचारने योग्य पद को तीन प्रकार से परमाणुओं से युक्त [संसार] में जमाया ॥

सायणभाष्य में (वातभ्रजाः) के स्थान में (वातव्रजाः) शब्द और अर्थ “वायुसमान शीघ्रगामी” है ॥


अङ्गे अङ्गे शोचिषा शिश्रियाणं नमस्यन्तस्तवा हविषा विधेम।

अङ्कान्त्स्मङ्कान हविषा विधेम यो अग्रभीत् पर्वास्या ग्रभीता।।२।।

(शोचिषा) अपने प्रकाश से (अङ्गे अङ्गे) अङ्ग-अङ्ग में (शिश्रियाणम्) ठहरे हुए (त्वा) तुझको (नमस्यन्तः) नमस्कार करते हुए हम (हविषा) भक्ति से (विधेम) सेवा करते रहें। [उसके] (अङ्कान्) पृथक्-पृथक् चिह्नों को और (समङ्कान्) मिले हुए चिन्हों को (हविषा) भक्ति से (विधेम) हम आराधें, (यः) जिस (ग्रभीता) ग्रहण करनेहारे परमेश्वर ने (अस्य) इस [ सेवक वा जगत्] के (पर्व) अवयव-अवयव को (अग्रभीत्) ग्रहण किया है।

वह (वृषा) परमात्मा हमारे और सब व्यष्टि और समष्टिरूप जगत् के रोम-रोम में परिपूर्ण है, उस प्रकाशस्वरूप के गुणों को यथावत् जानकर हम लोग उस पर पूरी श्रद्धा से आत्मसमर्पण करें। वह हमारे शरीर और आत्मा को बल देकर सहाय और आनन्द देता है।


मुञ्च शीर्षक्तया उत कास एनं परुष्परुराविवेशा यो अस्य।

यो अभ्रजा वातजा यश्च शुष्मो वनस्पतीन्त्सचतां पर्वतांश्चत।।३।।

(एनम्) इस पुरुष को (शीर्षक्त्याः) शिर की पीड़ा से (उत) और [उस खाँसी से] (मुञ्च) छुड़ा (यः कासः) जिस खाँसी ने (अस्य) इस पुरुष के (परुःपरुः) जोड़-जोड़ में (आविवेश) घर कर लिया है। (यः) जो खाँसी (अभ्रजाः) मेघ से उत्पन्न, (वातजाः) वायु से उत्पन्न (च) और (यः) जो (शुष्मः) सूखी [होवे और जो] (वनस्पतीन्) वृक्षों से (च) और (पर्वतान्) पहाड़ों से (सचताम्) संबन्धवाली होवे। 

खाँसी सब रोगों की माता है, जैसा कि प्रसिद्ध है “लड़ाई का घर हाँसी और रोग का घर खाँसी”। जैसे सद्वैद्य मन्त्र में कहे अनुसार मस्तक की पीड़ा और खाँसी आदि बाहिरी और भीतरी रोगों का निदान जान कर रोगी को स्वस्थ करता है, इसी प्रकार परमेश्वर वेदज्ञान से मनुष्य को दोषों से छुड़ा कर और ब्रह्मज्ञान देकर अत्यन्त सुखी करता है। इसी प्रकार राजप्रबन्ध और गृहप्रबन्ध आदि व्यवहार में विचारना चाहिये।


शं मे परस्मै गात्राय शमस्त्ववराय मे। शं मे चतुर्भ्यो अंगेभ्यः शमस्तु तन्वेमम्।।४।।

(मे) मेरे (परस्मै) ऊपर के (गात्राय) शरीर के लिये (शम्) सुख और (मे) मेरे (अवराय) नीचे के शरीर के लिये (शम्) सुख (अस्तु) होवे। (मे) मेरे (चतुर्भ्यः) चारों (अङ्गेभ्यः) अङ्गों के लिये (शम्) सुख और (मम) मेरे (तन्वे) सब शरीर के लिये (शम्) सुख (अस्तु) होवे।

चारों अङ्ग दो हाथ और दो पद हैं। मनुष्य को योग्य है कि परमेश्वर की प्रार्थनापूर्वक अपने सब अमूल्य शरीर को प्रयत्न से सर्वथा स्वस्थ रक्खे और मानसिक बल बढ़ा कर संसार में उपकारी हो और सदा सुख भोगे।

[अथ प्रथम काण्ड - त्रयोदश सूक्त]

 १३. विद्युत सूक्त 


 ऋषि - भृग्वङ्गिरा

 देवता – विद्युत


नमस्ते अस्तु विद्युते नमस्ते स्तनयित्नवे। नमस्ते अस्त्वश्मने येना दूडाशे अस्यसि ॥१॥

हे परमेश्वर ! (ते) तुझ (विद्युते) कौंधा लेती हुयी, बिजुली रूप को (नमः) नमस्कार (अस्तु) होवे, (ते) तुझ (स्तनयित्नवे) गड़गड़ाते हुए, बादलरूप को (नमः) नमस्कार होवे। (ते) तुझ (अश्मने) पाषाण रूप को (नमः) नमस्कार (अस्तु) होवे, (येन) जिस [पत्थर] से (दूडाशे) दुःखदायी पुरुष को (अस्यसि) तू ढा देता है|

न्यायकारी परमात्मा दुःखदायी अधर्मी पापियों को आधिदैविक आदि दण्ड देकर असह्य विपत्तियों में डालता है, इसलिये सब मनुष्य उस के कोप से डर कर उस की आज्ञा का पालन करें और सदा आनन्द भोगें| 


नमस्ते प्रवतो नपाद्यतस्तपः समूहसि। मृडया नस्तनूभ्यो मयस्तोकेभ्यस्कृधि ॥२॥

हे (प्रवतः) अपने भक्त, के (नपात्) न गिरानेहारे ! (ते) तुझको (नमः) नमस्कार है, (यतः) क्योंकि तू [दुष्टों पर] (तपः) संताप को (समूहसि) संयुक्त करता है। (नः) हमें (तनूभ्यः) हमारे शरीरों के लिये (मृडय) सुख दे और (तोकेभ्यः) हमारे सन्तानों के लिये (मयः) सुख (कृधि) प्रदान कर|

परमेश्वर भक्तों को आनन्द और पापियों को कष्ट देता है। सब मनुष्य नित्य धर्म में प्रवृत्त रहें और संसार भर में सुख की वृद्धि करें|


प्रवतो नपान्नम एवास्तु तुभ्यं नमस्ते हेतये तपुषे च कृण्मः। विद्म ते धाम परमं गुहा यत्समुद्रे अन्तर्निहितासि नाभिः ॥३॥

हे (प्रवतः) अपने भक्त के (नपात्) न गिरानेवाले ! (तुभ्यम्) तुझको (एव) अवश्य (नमः) नमस्कार (अस्तु) होवे, (ते) तुझ (हेतये) वज्ररूप को (च) और (तपुषे) तपानेवाले तोप आदि अस्त्ररूप को (नमः) नमस्कार (कृण्मः) हम करते हैं। (यत्) क्योंकि (ते) तेरे (परमम्) बड़े ऊँचे (धाम) धाम [निवास] को (गुहा=गुहायाम्) गुफा में [अपने हृदय और प्रत्येक अगम्य स्थान में] (विद्म) हम जानते हैं। (समुद्रे अन्तः) आकाश के बीच में (नाभिः) बन्ध में रखनेवाली नाभि के समान तू (निहिता) ठहरा हुआ (असि) है|

उस भक्तरक्षक, दुष्टनाशक परमात्मा का (परम धाम) महत्त्व सबके हृदयों में और सब अगम्य स्थानों में वर्तमान है। जैसे (नाभि) सब नाड़ियों को बन्धन में रखकर शरीर के भार को समान तोल कर रखती है, वैसे ही परमेश्वर (समुद्र) अन्तरिक्ष वा आकाश में स्थित मनुष्य आदि प्राणियों और सब पृथिवी, सूर्य्य आदि लोकों का धारण करनेवाला केन्द्र है। विद्वान् लोग उसको माथा टेकते और उसकी महिमा को जानकर संसार में उन्नति करते हैं|


यां त्वा देवा असृजन्त विश्व इषुं कृण्वाना असनाय धृष्णुम्। सा नो मृड विदथे गृणाना तस्यै ते नमो अस्तु देवि ॥४॥

(विश्वे) सब (देवाः) विद्वानों ने (याम् त्वा) जिस तुझ परमेश्वर को (असनाय) नाश के लिये (धृष्णुम्) बहुत दृढ़ (इषुम्) शक्ति अर्थात् बरछी (कृण्वानाः) बनाकर (असृजन्त) माना है। (सा) सो तू (विदथे) यज्ञ में (गृणाना) उपदेश करती हुयी (नः) हमको (मृड) सुख दे, (देवि) हे देवी [बरछी] (तस्यै ते) उस तेरे लिये (नमः) नमस्कार (अस्तु) होवे|

विद्वान् लोग परमेश्वर के क्रोध को सब संसार के दोषों के नाश के लिये बरछीरूप समझ कर सदा सुधार और उपकार करते हैं, तब संसार में प्रतिष्ठा और मान पाकर सुख भोगते और परमात्मा के क्रोध का धन्यवाद देते हैं|


यजुर्वेद में लिखा है−यजु० १६।३ ॥


यामिषु॑ गिरिशन्त॒ हस्ते॑ बि॒भर्ष्यस्त॑वे।

शि॒वां गि॑रित्र॒ तां कु॑रु॒ मा हि॑सीः॒ पुरु॑षं जग॑त् ॥१॥


हे वेद द्वारा शान्ति फैलानेवाले ! जिस बरछी वा बाण को चलाने के लिये अपने हाथों में तू धारण करता है, हे वेदद्वारा रक्षा करनेवाले ! उसको मङ्गलकारी कर, पुरुषार्थी लोगों को तू मत मार।

[अथ प्रथम काण्ड - चतुर्दश सूक्त]

१४. कुलपाकन्या सूक्त


 ऋषि - भृग्वङ्गिराः

 देवता – वरुण:,  यमः


भग॑मस्या॒ वर्च॒ आदि॒ष्यधि॑ वृ॒क्षादि॑व॒ स्रज॑म्। म॒हाबु॑ध्न इव॒ पर्व॑तो॒ ज्योक्पि॒तृष्वा॑स्ताम् ॥१॥

(अस्याः) इस [वधू] से (भगम्) [अपने] ऐश्वर्य को और (वर्चः) तेज को (आ अदिषि) मैंने माना है, (इव) जैसे (वृक्षात् अधि) वृक्ष से (स्रजम्) फूलों की माला को। (महाबुध्नः) विशाल जड़वाले (पर्वतः इव) पर्वत के समान [यह वधू] (पितृषु) [मेरे] माता-पिता आदि बान्धवों में (ज्योक्) बहुत काल तक (आस्ताम्) रहे|

यह वर का वचन है। विद्वान् पुरुष खोज कर अपने समान गुणवती स्त्री से विवाह करके संसार में ऐश्वर्य और शोभा पाता है, जैसे वृक्ष के सुन्दर फूलों से शोभा होती है। वधू अपने सास ससुर आदि माननीयों की सेवा और शिक्षा से दृढ़चित्त होकर घर के कामों का सुप्रबन्ध करके गृहलक्ष्मी की पक्की नेव जमावे और पति पुत्र आदि कुटुम्बियों में बड़ी आयु भोग कर आनन्द करे|


ए॒षा ते॑ राजन्क॒न्या॑ व॒धूर्नि धू॑यतां यम। सा मा॒तुर्ब॑ध्यतां गृ॒हे ऽथो॒ भ्रातु॒रथो॑ पि॒तुः ॥२॥

(यम) हे नियम में चलानेवाले, वर (राजन्) राजा ! (एषा) यह (कन्या) कामनायोग्य कन्या (ते) तेरी (वधूः) वधू (नि) नियम से (धूयताम्) व्यवहार करे। (सा) वह (मातुः) [तेरी] माता के, (अथो) और भी (पितुः) पिता के (अथो) और (भ्रातुः) भ्राता के साथ (गृहे) घर में (बध्यताम्) नियम से बन्धी रहे।

मन्त्र २-४ वधू पक्ष के वचन हैं। वधू के माता-पिता आदि वर से कहें कि यह सुशिक्षिता गुणवती कन्या आप को सौंपी जाती है यह आप के माता, पिता और भ्राता आदि सब कुटुम्बियों में रहकर अपने सुप्रबन्ध से सबको प्रसन्न रक्खे और सुख भोगे| 


मनुजी महाराज ने कहा है−मनुस्मृति अ० २ श्लो० २४०॥


स्त्रियो रत्नान्यथो विद्या धर्मः शौचं सुभाषितम्।


विविधानि च शिल्पानि समादेयानि सर्वतः ॥१॥


स्तुति योग्य स्त्रियाँ, रत्न, विद्या, धर्म, शुद्धता और मीठी बोली और अनेक प्रकार की हस्तक्रियाएँ सबसे यत्नपूर्वक लेना चाहिएँ ॥


बालया वा युवत्या वा वृद्धया वापि योषिता।


न स्वातन्त्र्येण कर्तव्यं किंचित् कार्यं गृहेष्वपि ॥१॥ म० ५।१४७॥


चाहे स्त्री बालक वा युवती वा बूढ़ी हो, वह स्वतन्त्रता से कोई काम घरों में भी न करे ॥


ए॒षा ते॑ कुल॒पा रा॑ज॒न्तामु॑ ते॒ परि॑ दद्मसि। ज्योक्पि॒तृष्वा॑साता॒ आ शी॒र्ष्णः स॒मोप्या॑त् ॥३॥

(राजन्) हे वर राजा (एषा) यह कन्या (ते) तेरे (कुलपाः) कुल की रक्षा करनेहारी है, (ताम्) उसको (उ) ही (ते) तेरे लिये (परि) आदर से (दद्मसि) हम दान करते हैं। यह (ज्योक्) बहुत काल तक (पितृषु) तेरे माता-पिता आदिकों में (आसातै) निवास करे और (आशीर्ष्णः) अपने मस्तक तक [जीवनपर्यन्त वा बुद्धि की पहुँच तक] (समोप्यात्) ठीक-ठीक बढ़ती का बीज बोवे|

फिर वधूपक्षवाले माता-पिता आदि इस मन्त्र से जामाता की विनती करते और स्त्री-धर्म का उपदेश करते हुए कन्यादान करके गृहाश्रम में प्रविष्ट कराते हैं|


असि॑तस्य ते॒ ब्रह्म॑णा क॒श्यप॑स्य॒ गय॑स्य च। अ॑न्तःको॒शमि॑व जा॒मयो ऽपि॑ नह्यामि ते॒ भग॑म् ॥४॥

(असितस्य) जो तू बन्धनरहित, (कश्यपस्य) [सोम] रस पीनेहारा, (च) और (गयस्य) कीर्तन के योग्य है, उस (ते) तेरे (ब्रह्मणा) वेदज्ञान के कारण (ते) तेरे लिये (भगम्) ऐश्वर्य को (अपि) अवश्य (नह्यामि) मैं बाँधता हूँ। (इव) जैसे (जामयः) कुलस्त्रियाँ [वा बहिनें] (अन्तः कोशम्) मञ्जूषा वा पिटारे को [बाँधती] हैं|

इस मन्त्र के अनुसार वधू पक्षवाले पुरुष और स्त्रियाँ विनती करके श्रेष्ठ वर और कन्या को धन, भूषण और वस्त्र आदि से सत्कार के साथ विदा करें|

[अथ प्रथम काण्ड - पञ्चदश सूक्त]

१५. पुष्टिकर्म सूक्त


ऋषि - अथर्वा

देवता – सिन्धुसमूहः


सं सं स्र॑वन्तु॒ सिन्ध॑वः॒ सं वाताः॒ सं प॑त॒त्रिणः॑। इ॒मं य॒ज्ञं प्र॒दिवो॑ मे जुषन्तां संस्रा॒व्ये॑ण ह॒विषा॑ जुहोमि ॥१॥

(सिन्धवः) सब समुद्र (सम् सम्) अत्यन्त अनुकूल (स्रवन्तु) बहें, (वाताः) विविध प्रकार के पवन और (पतत्रिणः) पक्षी (सम् सम्) बहुत अनुकूल बहैं। (प्रदिवः) बड़े तेजस्वी विद्वान् लोग (इमम्) इस (मे) मेरे (यज्ञम्) सत्कार को (जुषन्ताम्) स्वीकार करें, (संस्राव्येण) बहुत आर्द्रभाव [कोमलता] से भरी हुयी (हविषा) भक्ति के साथ [उनको] (जुहोमि) मैं स्वीकार करता हूँ|

मनुष्यों को योग्य है कि नौका आदि से समुद्रयात्रा को, विमान आदि से वायुमण्डल में जाने आने के मार्गों को और यथायोग्य व्यवहार से पक्षी आदि सब जीवों को अनुकूल रक्खें और विज्ञानपूर्वक सब पदार्थों से उपकार लेवें और विद्वानों में पूर्ण प्रीति और श्रद्धा रक्खें, जिससे वह भी उत्साहपूर्वक वर्ताव करें|


इ॒हैव हव॒मा या॑त म इ॒ह सं॑स्रावणा उ॒तेमं व॑र्धयता गिरः। इ॒हैतु॒ सर्वो॒ यः प॒शुर॒स्मिन्ति॑ष्ठतु॒ या र॒यिः ॥२॥

(संस्रावणाः) हे बहुत आर्द्रभाववाले [बड़े कोमलस्वभाव] (गिरः) स्तुतियोग्य विद्वानो ! (इह) यहाँ पर (एव) ही (मे) मेरे (हवम्) आवाहन को (आयात) तुम पहुँचो, (उत) और (इमम्) इस पुरुष को (वर्धयत) बढ़ाओ। (यः सर्वः पशुः) जो प्रत्येक जीव है, [वह] (इह) यहाँ (एतु) आवे और (या रयिः) जो लक्ष्मी है, [वह भी सब] (अस्मिन्) इस पुरुष में (तिष्ठतु) ठहरी रहे ।

विद्वान् लोग विद्या के बल से संसार की उन्नति करते हैं, इससे मनुष्य विद्वानों का सत्संग पाकर सदा अपनी वृद्धि करें और उपकारी जीवों और धन का उपार्जन पूर्ण शक्ति से करते रहें| 

टिप्पणी−पशु शब्द जीववाची है, अथर्ववेद का० २ सू० ३४ म० १ ॥

य ईशे॑ पशु॒पतिः॑ पशू॒नां चतु॑ष्पदामु॒त यो द्वि॒पदा॑म् ॥१॥


जो (पशुपतिः) जीवों का स्वामी चौपाये और जो दोपाये (पशूनाम्) जीवों का (ईशे=ईष्टे) राजा है|


ये न॒दीनां॑ सं॒स्रव॒न्त्युत्सा॑सः॒ सद॒मक्षि॑ताः। तेभि॑र्मे॒ सर्वैः॑ संस्रा॒वैर्धनं॒ सं स्रा॑वयामसि ॥३॥

(नदीनाम्) नाद करनेवाली नदियों के (ये) जो (अक्षिताः) अक्षय (उत्सासः) स्रोते (सदम्) सर्वदा (संस्रवन्ति) मिलकर बहते हैं। (तेभिः सर्वैः) उन सब (संस्रावैः) जलप्रवाहों के साथ (मे) अपने (धनम्) धनको (सम्) उत्तम रीति से (स्रावयामसि) हम व्यय करें|

जैसे पर्वतों पर जल के सोते मिलने से वेगवती और उपकारिणी नदिएँ बनती हैं, जो ग्रीष्मऋतु में भी नहीं सूखतीं, इसी प्रकार हम सब मिलकर विज्ञान और उत्साहपूर्वक तडित्, अग्नि, वायु, सूर्य, जल, पृथिवी आदि पदार्थों से उपकार लेकर अक्षय धन बढ़ावें और उसे उत्तम कर्मों में व्यय करें|


ये स॒र्पिषः॑ सं॒स्रव॑न्ति क्षी॒रस्य॑ चोद॒कस्य॑ च। तेभि॑र्मे॒ सर्वैः॑ संस्रा॒वैर्धनं॒ सं स्रा॑वयामसि ॥४॥

(सर्पिषः) घृत की (च) और (क्षीरस्य) दूध की (च) और (उदकस्य) जल की (ये) जो धाराएँ (संस्रवन्ति) मिलकर बह चलती हैं। (तैः सर्वैः) उन सब (संस्रावैः) धाराओं के साथ (मे) अपने (धनम्) धनको (सम्) उत्तम रीति से (स्रावयामसि) हम व्यय करें|

जैसे घी, दूध और जल की बूँद-बूँद मिलकर धारें बँध जाती और उपकारी होती हैं, इसी प्रकार हम लोग उद्योग करके थोड़ा-थोड़ा संचय करने से बहुत सा विद्या, धन और सुवर्ण आदि धन प्राप्त करके उत्तम कामों में व्यय करें|

[अथ प्रथम काण्ड - षोडश सूक्त]

१६. शत्रुबाधन सूक्त


ऋषि - चातनः

देवता - वरुणः


ये ऽमा॑वा॒स्यां॑३ रात्रि॑मु॒दस्थु॑र्व्रा॒जम॒त्त्रिणः॑। अ॒ग्निस्तु॒रीयो॑ यातु॒हा सो अ॒स्मभ्य॒मधि॑ ब्रवत् ॥१॥

(ये) वे जो (अत्रिणः) उदरपोषक [खाऊ लोग] (अमावास्याम्) अमावसी में (रात्रिम्) विश्राम देनेहारी रात्रि को (व्राजम्) गोशालाओं पर [अथवा समूह के समूह] (उदस्थुः) चढ़ आये हैं। (सः) वह (तुरीयः) वेगवान् (यातुहा) राक्षसों का नाश करनेहारा (अग्निः) अग्नि [अग्निसदृश तेजस्वी राजा] (अस्मभ्यम्) हमारे हित के लिये (अधि) [उन पर] अधिकार जमा कर (ब्रवत्) घोषणा दे|

जो दुष्ट जन अन्धेरी रातों में गोशाला आदि पर धावा करके प्रजा को सतावें, तो प्रतापी राजा ऐसे राक्षसों से रक्षा करके राज्य भर में शान्ति फैलावे|


सीसा॒याध्या॑ह॒ वरु॑णः॒ सीसा॑या॒ग्निरुपा॑वति। सीसं॑ म॒ इन्द्रः॒ प्राय॑च्छ॒त्तद॒ङ्ग या॑तु॒चात॑नम् ॥२॥

(वरुणः) चाहने योग्य, समुद्रादि का जल (सीसाय) बन्धन काटनेवाले सामर्थ्य [ब्रह्मज्ञान की प्राप्ति] के लिये (अधि) अधिकारपूर्वक (आह) कहता है, (अग्निः) व्यापक, सूर्य, बिजुली आदि अग्नि (सीसाय) बन्धन काटनेवाले सामर्थ्य [ब्रह्मज्ञान] के लिये (उप) समीप रह कर (अवति) रक्षा करता है। (इन्द्रः) महाप्रतापी परमेश्वर ने (सीसम्) बन्धन काटनेवाला सामर्थ्य [ब्रह्मज्ञान] (मे) मुझको (प्र-अयच्छत्) दिया है, (अङ्ग) हे भाई (तत्) वह सामर्थ्य (यातुचातनम्) पीडानाशक है|

जल, अग्नि, वायु आदि पदार्थ ईश्वर की आज्ञा से परस्पर मिलकर हमारे लिये बाहिर और भीतर से उपकारी होते हैं। वह ब्रह्मज्ञान प्रत्येक मनुष्य आदि प्राणी को परमेश्वर ने दिया है, उस ज्ञान को साक्षात् करके प्राणी दुःखों से छूट कर शारीरिक, आत्मिक और सामाजिक आनन्द पाते हैं| 

टिप्पणी−(सीस) शब्द का धात्वर्थ [षिञ् बाँधना−क्विप्+षो नाश करना−क प्रत्यय] बन्धन का काटनेवाला है। लोक में वस्तुविशेष, सीसा को कहते हैं। सायणभाष्य में (सीस) का अर्थ “नदी के फेन आदि रूप द्रव्य” और ग्रिफ़िथ साहिब ने (lead) सीसा धातुविशेष किया है ॥


इ॒दं विष्क॑न्धं सहत इ॒दं बा॑धते अ॒त्त्रिणः॑। अ॒नेन॒ विश्वा॑ ससहे॒ या जा॒तानि॑ पिशा॒च्याः ॥३॥

(इदम्) यह [सामर्थ्य] (विष्कन्धम्) विघ्न को (सहते) जीतता है और (इदम्) यह (अत्त्त्रिणः) उदरपोषक खाउओं को (बाधते) हटाता है। (अनेन) इससे (विश्वा=विश्वानि) उन सब दुःखों को (ससहे) मैं जीतता हूँ (या=यानि) जो (पिशाच्याः) मांस खानेहारी (कुवासना) से (जातानि) उत्पन्न हैं|

दूरदर्शी पुरुषार्थी मनुष्य उत्तम ज्ञान के सामर्थ्य से अपने क्लेशों के कारण को जानते और कुवासनाओं के कुसंस्कारों को अपने हृदय में नहीं जमने देते| 

भगवान् पतञ्जलि जी ने कहा है−योगदर्शन पाद २ सूत्र १६ ॥

हेयं दुःखमनागतम् ॥

न आया हुआ [परन्तु आनेवाला] दुःख हटाना चाहिये ॥


यदि॑ नो॒ गां हंसि॒ यद्यश्वं॒ यदि॒ पूरु॑षम्। तं त्वा॒ सीसे॑न विध्यामो॒ यथा॒ नो ऽसो॒ अवी॑रहा ॥४॥

(यदि) जो (नः) हमारी (गाम्) गाय को, (यदि) जो (अश्वम्) घोड़े को और (यदि) जो (पुरुषम्) पुरुष को (हंसि) तू मारता है। (तम् त्वा) उस तुझको (सीसेन) बन्धन काटनेहारे सामर्थ्य [ब्रह्मज्ञान] से (विध्यामः) हम वेधते हैं, (यथा) जिससे तू (नः) हमारे (अवीरहा असः) वीरों का नाश करनेहारा न होवे|

मनुष्य वर्तमान क्लेशों को देखकर आनेवाले क्लेशों को यत्नपूर्वक रोककर आनन्द भोगें|

[अथ प्रथम काण्ड - सप्तदश सूक्त]


१७. रुधिरस्रावनिवर्तनधमनीबन्धन सूक्त


 ऋषि - ब्रह्मा

 देवता - हिरा


अ॒मूर्या यन्ति॑ यो॒षितो॑ हि॒रा लोहि॑तवाससः। अ॒भ्रात॑र इव जा॒मय॒स्तिष्ठ॑न्तु ह॒तव॑र्चसः ॥१॥

(अमूः) वे (याः) जो (योषितः) सेवायोग्य वा सेवा करनेहारी [अथवा स्त्रियों के समान हितकारी] (लोहितवाससः) लोह में ढकी हुयी (हिराः) नाड़ियाँ (यन्ति) चलती हैं, वे (अभ्रातरः) बिना भाइयों की (जामयः इव) बहिनों के समान, (हतवर्चसः) निस्तेज होकर (तिष्ठन्तु) ठहर जाएँ।

इस सूक्त में सिराछेदन, अर्थात् नाड़ी [फ़सद्] खोलने का वर्णन है। मन्त्र का अभिप्राय यह है कि नाड़ियाँ रुधिरसंचार का मार्ग होने से शरीर की (योषितः) सेवा करनेहारी और सेवायोग्य हैं। जब किसी रोग के कारण वैद्यराज नाड़ीछेदन करे और रुधिर निकलने से रोग बढ़ाने में नाड़ियाँ ऐसी असमर्थ हो जाएँ जैसे माता-पिता और भाइयों के बिना कन्याएँ असहाय हो जाती हैं, तब नाड़ियों को रुधिर बहने से रोक दे।

मनुष्य के सबकार्य कुकामनाओं को रोककर मर्यादापूर्वक करने से सुफल होते हैं।


तिष्ठा॑वरे॒ तिष्ठ॑ पर उ॒त त्वं ति॑ष्ठ मध्यमे। क॑निष्ठि॒का च॒ तिष्ठ॑ति तिष्ठा॒दिद्ध॒मनि॑र्म॒ही ॥२॥

(अवरे) हे नीचे की [नाड़ी] (तिष्ठ) तू ठहर, (परे) हे ऊपरवाली (तिष्ठ) तू ठहर, (उत) और (मध्यमे) हे बीचवाली (त्वम्) तू (तिष्ठ) ठहर, (च) और (कनिष्ठिका) अति छोटी नाड़ी (तिष्ठति) ठहरती है, (मही) बड़ी (धमनिः) नाड़ी (इत्) भी (तिष्ठात्) ठहर जावे। 

१−चिकित्सक सावधानी से सब नाड़ियों को अधिक रुधिर बहने से रोक देवे ॥

२−मनुष्य अपने चित्त की वृत्तियों को ध्यान देकर कुमार्ग से हटावे और हड़बड़ी करके अपने कर्तव्य को न बिगड़ने दे किन्तु यत्नपूर्वक सिद्ध करे।


श॒तस्य॑ ध॒मनी॑नां स॒हस्र॑स्य हि॒राणा॑म्। अस्थु॒रिन्म॑ध्य॒मा इ॒माः सा॒कमन्ता॑ अरंसत ॥३॥

(शतस्य धमनीनाम्) सौ प्रधान नाड़ियों में से और (सहस्रस्य हिराणाम्) सहस्र शाखा नाड़ियों में से (इमाः) ये सब (मध्यमाः) बीच वाली (इत्) भी (अस्थुः) ठहर गयीं, (अन्ताः) अन्त की [अवशिष्ट नाड़ियाँ] (साकम्) एक साथ (अरंसत) क्रीड़ा करने लगी हैं।

सिराछेदन से असंख्य धमनी और सिरा नाड़ियों का रुधिर यथाविधि चिकित्सक निकाल कर बन्ध कर देवे, जिससे कि नाड़ियाँ पहिले के समान चेष्टा करने लगें ॥ 

२−मनुष्य अपनी अनन्त चित्तवृत्तियों को कुमार्ग से रोक कर सुमार्ग में चलावें।


परि॑ वः॒ सिक॑तावती ध॒नूर्बृ॑ह॒त्य॑क्रमीत्। तिष्ठ॑ते॒लय॑ता॒ सु क॑म् ॥४॥

(सिकतावती) सेचन स्वभाव [कोमल रखनेवाली] बालू आदि से भरी हुई (बृहती) बड़ी (धनूः) पट्टी ने (वः) तुम [नाड़ियों] को (परि अक्रमीत्) लपेट लिया है। (तिष्ठत) ठहर जाओ, (सु) अच्छे प्रकार (कम्) सुख से (इलयत) चलो।

१−(धनूः) अर्थात् धनु चार हाथ परिमाण को कहते हैं। इसी प्रकार की पट्टी से जो सूक्ष्म चूर्ण बालू से वा बालू के समान राल आदि औषध से युक्त होवे, उससे चिकित्सक घाव को बाँध देवे, कि रक्त बहने से ठहर जाये और घाव पुरकर सब नाड़ियाँ यथानियम चलने लगें, मन प्रसन्न और शरीर पुष्ट हो। 

२−मनुष्य कुमार्गगामिनी मनोवृत्तियों को रोककर यत्नपूर्वक हानि पूरी करे और लाभ के साथ अपनी वृद्धि करे और आनन्द भोगे।

[अथ प्रथम काण्ड - अष्टादश सूक्त]

१८. अलक्ष्मीनाशन सूक्त


 ऋषि - द्रविणोदाः

 देवता - विनायकः


निर्ल॒क्ष्म्यं॑ लला॒म्यं॑१ निररा॑तिं सुवामसि। अथ॒ या भ॒द्रा तानि॑ नः प्र॒जाया॒ अरा॑तिं नयामसि ॥१॥

(ललाम्यम्=०-मीम्) [धर्म से] रुचि हटानेवाली (निर्लक्ष्म्यम्=०-क्ष्मीम्) अलक्ष्मी [निर्धनता] और (अरातिम्) शत्रुता को (निः सुवामसि=०-मः) हम निकाल देवें। (अथ) और (या=यानि) जो (भद्रा=भद्राणि) मङ्गल हैं (तानि) उनको (नः) अपनी (प्रजायै) प्रजा के लिये (अरातिम्) सुख न देनेहारे शत्रु से (नयामसि=०-मः) हम लावें।

राजा अपने और प्रजा की निर्धनता आदि दुर्लक्षणों को मिटावे और शत्रु को दण्ड देकर प्रजा में आनन्द फैलावे। 

सायणभाष्य में (लक्ष्म्यम्) के स्थान में [लक्ष्मम्] पाठ है।  


निरर॑णिं सवि॒ता सा॑विषक्प॒दोर्निर्हस्त॑यो॒र्वरु॑णो मि॒त्रो अ॑र्य॒मा। निर॒स्मभ्य॒मनु॑मती॒ ररा॑णा॒ प्रेमां दे॒वा अ॑साविषुः॒ सौभ॑गाय ॥२॥

(सविता) [सबका चलानेहारा] सूर्य [सूर्यरूप तेजस्वी], (वरुणः) सबके चाहनेयोग्य जल [जलसमान शान्तस्वभाव], (मित्रः) चेष्टा देनेहारा वायु [वायु समान वेगवान् उपकारी], (अर्यमा) श्रेष्ठों का मान करनेहारा न्यायकारी राजा (अरणिम्) पीडा को (पदोः) दोनों पदों और (हस्तयोः) दोनों हाथों से (निः) निरन्तर (निः साविषत्) निकाल देवे। (रराणा) दानशीला (अनुमतिः) अनुकूल बुद्धि (अस्मभ्यम्) हमारे लिये (निः=निः साविषत्) [पीडा को] निकाल देवे, (देवाः) उदार चित्तवाले महात्माओं ने (इमाम्) इस [अनुकूल बुद्धि] को (सौभगाय) बड़े ऐश्वर्य के लिये (प्र असाविषुः) भेजा है।

मन्त्रोक्त शुभ लक्षणोंवाला राजा और प्रजा परस्पर हितबुद्धि से और शुभचिन्तक महात्माओं के सहाय से क्लेशों का नाश करके सबका ऐश्वर्य बढ़ावें।

टिप्पणी−सायणभाष्य में (अरणिम्) के स्थान में [अरणीम् है और बंबई गवर्नमेन्ट के पुस्तक में लिखे] [साविषक्] के स्थान में सायणभाष्य में और अन्य दोनों पुस्तकों में (साविषत्) पद है, वही पाठ हमने रक्खा है। गवर्नमेन्ट पुस्तक में टिप्पणी है कि [साविषक्] शब्द शोधकर लिखा है, परन्तु यह अशुद्ध है, क्योंकि अथर्व० ६।१।३ में, ७।७७।७ में और ९।१५।४। में (सविता साविषत्) पाठ है, वही (सविता साविषत्) यहाँ भी शुद्ध है ॥


यत्त॑ आ॒त्मनि॑ त॒न्वां॑ घो॒रमस्ति॒ यद्वा॒ केशे॑षु प्रति॒चक्ष॑णे वा। सर्वं॒ तद्वा॒चाप॑ हन्मो व॒यं दे॒वस्त्वा॑ सवि॒ता सू॑दयतु ॥३॥

[हे मनुष्य] ! (यत्) जो कुछ (ते) तेरे (आत्मनि) आत्मा में और (तन्वाम्) शरीर में (वा) अथवा (यत्) जो कुछ (केशेषु) केशों में (वा) अथवा (प्रतिचक्षणे) दृष्टि में (घोरम्) भयानक (अस्ति) है। (वयम्) हम (तत् सर्वम्) उस सबको (वाचा) वाणी से [विद्याबल से] (अप) हटाकर (हन्मः) मिटाये देते हैं। (देवः) दिव्यस्वरूप (सविता) सर्वप्रेरक परमेश्वर (त्वा) तुझको (सूदयतु) अङ्गीकार करे।

जब मनुष्य अपने आत्मिक और शारीरिक दुर्गुणों और दुर्लक्षणों को विद्वानों के उपदेश और सत्सङ्ग से छोड़ देता है, परमेश्वर उसे अपना करके अनेक सामर्थ्य देता और आनन्दित करता है।


रिश्य॑पदीं॒ वृष॑दतीं गोषे॒धां वि॑ध॒मामु॒त। वि॑ली॒ढ्यं॑ लला॒म्यं१॒॑ ता अ॒स्मन्ना॑शयामसि ॥४॥

(रिश्यपदीम्) हरिण के समान [बिना जमाये शीघ्र] पद की चेष्टा, (वृषदतीम्) बैल के समान दाँत चबाना, (गोषेधाम्) बैल की सी चाल, (उत) और (विधमाम्) बिगड़ी भाथी [धोंकनी] के समान श्वासक्रिया, (ललाम्यम्=०-मीम्) रुचि नाश करनेहारी (विलिढ्यम्=०-ढिम्) चाटने की बुरी प्रकृति, (ताः) इन सब [कुचेष्टाओं] को (अस्मत्) अपने से (नाशयामसि=०-मः) हम नाश करें।

सब स्त्री-पुरुष मनुष्यस्वभाव से विरुद्ध कुचेष्टाओं को छोड़कर विद्वानों के सत्सङ्ग से सुन्दर स्वभाव बनावें और मनुष्यजन्म को सुफल करके आनन्द भोगें।

टिप्पणी−सायणभाष्य में (रिश्यपदीम्) के स्थान में (ऋष्यपदीम्) पाठ है। और जो (विलीढ्यम्, ललाम्यम्) पदों को नपुंसकलिङ्ग माना है, वह अशुद्ध है, क्योंकि मन्त्र में (ताः) स्त्रीलिङ्ग सर्वनाम होने से ऊपर के सब छह पद स्त्रीलिङ्ग हैं।

[अथ प्रथम काण्ड - नवदश सूक्त]

१९. शत्रुनिवारण सूक्त


 ऋषि - ब्रह्मा

 देवता - ईश्वरः


मा नो॑ विदन्विव्या॒धिनो॒ मो अ॑भिव्या॒धिनो॑ विदन्। आ॒राच्छ॑र॒व्या॑ अ॒स्मद्विषू॑चीरिन्द्र पातय ॥१॥

(विव्याधिनः) अत्यन्त वेधनेहारे शत्रु (नः) हम तक (मा विदन्) न पहुँचें और (अभिव्याधिनः) चारों ओर से मारनेहारे (मो विदन्) कभी न पहुँचें। (इन्द्र) हे परम ऐश्वर्यवाले राजन् (विषूचीः) सब ओर फैले हुए (शरव्याः) वाणसमूहों को (अस्मत्) हमसे (आरात्) दूर (पातय) गिरा।

सर्वरक्षक जगदीश्वर पर पूर्ण श्रद्धा करके चतुर सेनापति अपनी सेना को रणक्षेत्र में इस प्रकार खड़ा करे, कि शत्रु लोग पास न आ सकें और न उनके अस्त्र-शस्त्रों के प्रहार किसी के लगें।


विष्व॑ञ्चो अ॒स्मच्छर॑वः पतन्तु॒ ये अ॒स्ता ये चा॒स्याः॑। दै॑वीर्मनुष्येसषवो॒ ममा॑मित्रा॒न्वि वि॑ध्यत ॥२॥

(ये) जो बाण (अस्ताः) छोड़े गये हैं (च) और (ये) जो (आस्याः) छोड़े जायेंगे (विष्वञ्चः) [वे] सब ओर फैले हुए (शरवः) बाण (अस्मत्) हमसे [दूर] (पतन्तु) गिरें। (दैवीः मनुष्येषवः) हे [हमारे] मनुष्यों के दिव्य बाणो ! [बाण चलानेवाले तुम] (मम) मेरे (अमित्रान्) पीडा देनेहारे शत्रुओं को (विविध्यत) छेद डालो।

सेनापति इस प्रकार अपनी सेना का व्यूह करे कि शत्रुओं के अस्त्र-शस्त्र जो चल चुके हैं अथवा चलें, वे सेना के न लगें और उस निपुण सेनापति के योद्धाओं के (दैवीः) दिव्य अर्थात् आग्नेय [अग्निबाण] और वारुणेय [जलबाण जो बन्दूक़ आदि जल में वा जल से छोड़े जावें] अस्त्र शत्रुओं को निरन्तर छेद डालें।

इस मन्त्र में वर्तमानकाल का अभाव है, क्योंकि वह अति सूक्ष्म और वेगवान् है और मनुष्यों को अगम्य है।


यो नः॒ स्वो यो अर॑णः सजा॒त उ॒त निष्ट्यो॒ यो अ॒स्माँ अ॑भि॒दास॑ति। रु॒द्रः श॑र॒व्य॑यै॒तान्ममा॒मित्रा॒न्वि वि॑ध्यतु ॥३॥

(यः) जो (नः) हमारी (स्वः) जातिवाला अथवा (यः) जो (अरणः) न बोलनेयोग्य शत्रु वा विदेशी, अथवा (सजातः) कुटुम्बी (उत) अथवा (यः) जो (निष्ट्यः) वर्णसङ्कर नीच (अस्मान्) हम पर (अभिदासति) चढ़ाई करे (रुद्रः) शत्रुओं को रुलानेवाला महाशूर वीर सेनापति (शरव्यया) वाणों के समूह से (मम) मेरे (एतान्) इन (अमित्रान्) पीडा देनेहारे वैरियों को (विविध्यतु) छेद डाले।

राजा को अपने और पराये का पक्षपात छोड़ कर दुष्टों को यथोचित दण्ड देकर राज्य में शान्ति रखनी चाहिये। 

इस मन्त्र का पूर्वार्ध ऋ० ६।७५।१९ में कुछ भेद से है।


यः स॒पत्नो॒ यो ऽस॑पत्नो॒ यश्च॑ द्वि॒षन्छपा॑ति नः। दे॒वास्तं सर्वे॑ धूर्वन्तु॒ ब्रह्म॒ वर्म॒ ममान्त॑रम् ॥४॥

(यः) जो पुरुष (सपत्नः) प्रतिपक्षी और (यः) जो (असपत्नः) प्रकट प्रतिपक्षी नहीं है (च) और (यः) जो (द्विषन्) द्वेष करता हुआ (नः) हमको (शपाति) कोसे [क्रोशे]। (सर्वे) सब (देवाः) विजयी महात्मा (तम्) उसको (धूर्वन्तु) नाश करें, (ब्रह्म) परमेश्वर, (वर्म) कवचरूप (मम) मेरे (अन्तरम्) भीतर है।

छान-बीन करके प्रकट और अप्रकट प्रतिपक्षियों और अनिष्टचिन्तकों को (देवाः) शूरवीर विद्वान् महात्मा नाश कर डालें। वह परब्रह्म सर्वरक्षक, कवचरूप होकर, धर्मात्माओं के रोम-रोम में भर रहा है, वही आत्मबल देकर युद्धक्षेत्र में सदा उनकी रक्षा करता है।

मन्त्र का उत्तरार्ध ऋ० ६।७५।१९। है।

[अथ प्रथम काण्ड – विंशतिः सूक्त]

२०. शत्रुनिवारण सूक्त


 ऋषि - अथर्वा

 देवता – इन्द्रः, वरुणः, मित्रावरुणौ, सोमो मरुद्गणः

 

अदा॑रसृद्भवतु देव सोमा॒स्मिन्य॒ज्ञे म॑रुतो मृ॒डता॑ नः। मा नो॑ विददभि॒भा मो अश॑स्ति॒र्मा नो॑ विदद्वृजि॒ना द्वेष्या॒ या ॥१॥

(देव) हे प्रकाशमय, (सोम) उत्पन्न करनेवाले परमेश्वर ! [वह शत्रु] (अदारसृत्) डर का न पहुँचानेवाला अथवा अपने स्त्री आदि के पास न पहुँचनेवाला (भवतु) होवे, (मरुतः) हे [शत्रुओं के] मारनेवाले देवताओं ! (अस्मिन्) इस (यज्ञे) पूजनीय काम में (नः) हम पर (मृडत) अनुग्रह करो। (अभिभाः) सन्मुख चमकती हुई, आपत्ति (नः) हम पर (मा विदत्) न आ पड़े और (मो=माउ) न कभी (अशस्तिः) अपकीर्ति और (या) जो (द्वेष्या) द्वेषयुक्त (वृजिना) पापबुद्धि है [वह भी] (नः) हम पर (मा विदत्) न आ पड़े।

सब मनुष्य परमेश्वर के सहाय से शत्रुओं को निर्बल कर दें अथवा घरवालों से अलग रक्खें और विद्वान शूरवीरों से भी सम्मति लेवें, जिससे प्रत्येक विपत्ति, अपकीर्त्ति और कुमति हट जाय और निर्विघ्न अभीष्ट सिद्ध होवे।

मरुत् देवताओं के बिजुली आदि के विमान हैं, इस पर वैज्ञानिकों को विशेष ध्यान देना चाहिये−ऋग्वेद १।८८।१। में वर्णन है ॥ 

आ वि॒द्युन्म॑द्भिर्मरुतः स्व॒र्कैः रथे॑भिर्यात ऋष्टि॒मद्भि॒ऱश्व॑पर्णैः। 

आवर्षि॑ष्ठ्या न इ॒षा वयो न प॑प्तता सुमायाः ॥१॥ 

(मरुतः) हे शूर महात्माओ ! (विद्युन्मद्भिः) बिजुलीवाले, (स्वर्कैः) अच्छी ज्वालावाले [वा अच्छे विचारों से बनाये गये] (ऋष्टिमद्भिः) दो−धारा तलवारोंवाले [आगे-पीछे, दाएँ-बाएँ, ऊपर-नीचे चलाने की कलाओंवाले] (रथेभिः) रथों से (आयात) तुम आओ और (सुमायाः) हे उत्तम बुद्धिवाले ! (नः) हमारे लिये (वर्षिष्ठ्या) अति उत्तम (इषा) अन्न के साथ (वयो न) पक्षियों के समान् (आपप्तत) उड़ कर चले आओ ॥

 

यो अ॒द्य सेन्यो॑ व॒धो ऽघा॒यूना॑मु॒दीर॑ते। यु॒वं तं मि॑त्रावरुणाव॒स्मद्या॑वयतं॒ परि॑ ॥२॥

(अद्य) आज (अघायूनाम्) बुरा चीतनेवाले शत्रुओं की (सेन्यः) सेना का चलाया हुआ (यः) जो (वधः) शस्त्रप्रहार (उदीरते) उठ रहा है। (मित्रावरुणौ) हे [हमारे] प्राण और अपान (युवम्) तुम दोनों (तम्) उस [शस्त्रप्रहार] को (अस्मत्) हम लोगों से (परि) सर्वथा (यावयतम्) अलग रक्खो।

(मित्रावरुणौ) का अर्थ महर्षि दयानन्द सरस्वती ने [य० २।३] प्राण और अपान किया है। जो वायु शरीर के भीतर जाता है, वह प्राण और जो बाहिर निकलता है, वह अपान कहाता है। जिस समय युद्ध में शत्रुसेना आ दबावे, उस समय अपने प्राण और अपान वायु को यथायोग्य सम रखकर और सचेत होकर शरीर में बल बढ़ाकर सैन्यक लोग युद्ध करें, तो शत्रुओं पर शीघ्र जीत पावें।

२−श्वास के साधने से मनुष्य स्वस्थ और बलवान् होते हैं ॥

३−प्राण और अपान के समान उपकारी और बलवान् होकर योद्धा लोग परस्पर रक्षा करें ॥

 

इ॒तश्च॒ यद॒मुत॑श्च॒ यद्व॒धं व॑रुण यावय। वि म॒हच्छर्म॑ यच्छ॒ वरी॑यो यावया व॒धम् ॥३॥

(वरुण) हे सबमें श्रेष्ठ, परमेश्वर ! (इतः च) इस दिशा से (च) और (अमुतः) उस दिशा से (यत् यत्) प्रत्येक (वधम्) शत्रुप्रहार को (यावय) हटा दे। (महत्) [अपनी] बड़ी (शर्म) शरण को (वि) अनेक प्रकार से (यच्छ) [हमें] दान कर और (वधम्) [शत्रुओं के] प्रहार को (वरीयः) बहुत दूर (यावय) फैंक दे।

जो सेनापति ईश्वर पर विश्वास करके अपनी सेना को प्रयत्नपूर्वक शत्रु के प्रहार से बचाता और उन में वैरी को जीतने का उत्साह बढ़ाता है, वह शूरवीर जीत पाकर आनन्द पाता है।

मन्त्र का पिछला आधा ऋ० १०।१५२।५। का दूसरा आधा है, वहाँ (महत्) के स्थान में [मन्योः] शब्द है ॥

 

शा॒स इ॒त्था म॒हाँ अ॑स्यमित्रसा॒हो अ॑स्तृ॒तः। न यस्य॑ ह॒न्यते॒ सखा॒ न जी॒यते॑ क॒दा च॒न ॥४॥

(इत्था) सत्य-सत्य (महान्) बड़ा (शासः) शासनकर्ता (अमित्रसाः) शत्रुओं को हरानेहारा और (अस्तृतः) कभी न हारनेहारा (असि) तू है। (यस्य) जिसका (सखा) मित्र (कदा चन) कभी भी (न) न (हन्यते) मारा जाता है और (न) न (जीयते) जीता जाता है।

वह परमात्मा (वरुण) सर्वशक्तिमान् शत्रुनाशक है, इस प्रकार श्रद्धा करके जो मनुष्य प्रयत्नपूर्वक, आत्मिक, शारीरिक और सामाजिक बल बढ़ाते रहते हैं, वे ईश्वर के भक्त दृढ़विश्वासी अपने शत्रुओं पर सदा जय प्राप्त करते हैं।

यह मन्त्र कुछ भेद से ऋ० १०।१५२।१ में है ॥

[अथ प्रथम काण्ड – एकविंशतिः सूक्त]

२१. शत्रुनिवारण सूक्त


 ऋषि - अथर्वा

 देवता – इन्द्रः 


स्व॑स्ति॒दा वि॒शां पति॑र्वृत्र॒हा वि॑मृ॒धो व॒शी। वृषेन्द्रः॑ पु॒र ए॑तु॒ नः सो॑म॒पा अ॑भयंक॒रः ॥१॥

(स्वस्तिदाः) मङ्गल का देनहारा, (विशाम्) प्रजाओं का (पतिः) पालनेहारा (वृत्रहा) अन्धकार मिटानेहारा (विमृधः) शत्रुओं को (वशी) वश में करनेहारा (वृषा) महा बलवान् (सोमपाः) अमृत रस का पीनेहारा (अभयंकरः) अभय दान करनेहारा (इन्द्रः) बड़े ऐश्वर्यवाला राजा (नः) हमारे (पुरः) आगे-आगे (एतु) चले।

१ - जो मनुष्य उपर्युक्त गुणों से युक्त राजा को अपना अगुआ बनाते हैं, वे अपने सब कामों में विजय पाते हैं।

२−वह जगदीश्वर सब राजा-महाराजाओं का लोकाधिपति है, उसको अपना अगुआ समझकर सब मनुष्य जितेन्द्रिय हों।

इस सूक्त में ऋग्वेद १०।१५२। मन्त्र−२-५ कुछ भेद के साथ हैं।


वि न॒ इन्द्र॒ मृधो॑ जहि नी॒चा य॑च्छ पृतन्य॒तः। अ॑ध॒मं ग॑मया॒ तमो॒ यो अ॒स्माँ अ॑भि॒दास॑ति ॥२॥

(इन्द्र) हे बड़े ऐश्वर्यवाले राजन् ! (नः) हमारे (मृधः) शत्रुओं को (विजहि) मार डाल, (पृतन्यतः) और सेना चढ़ाकर लानेहारों को (नीचा) नीचे करके (यच्छ) रोक दे। (यः) जो (अस्मान्) हमको (अभिदासति) हानि पहुँचावे, उसको (अधमम्) नीचे (तमः) अन्धकार में (गमय) पहुँचा दे।

१−न्यायशील, प्रतापी राजा अन्यायी दुराचारियों को परमेश्वर के दिये हुए बल से सब प्रकार परास्त करके दृढ़ बन्धीगृह में डाल दे ॥

२−महाबली परमेश्वर को हृदयस्थ समझकर सब मनुष्य अपनी कुवृत्तियों का दमन करें।


वि रक्षो॒ वि मृधो॑ जहि॒ वि वृ॒त्रस्य॒ हनू॑ रुज। वि म॒न्युमि॑न्द्र वृत्रहन्न॒मित्र॑स्याभि॒दास॑तः ॥३॥

(रक्षः=रक्षांसि) राक्षसों और (मृधः) हिंसकों को (वि वि) सर्वथा (जहि) तू मार डाल, (वृत्रस्य) शत्रु के (हनू) दोनों जावड़ों को (विरुज) तोड़ दे (वृत्रहन्) हे अन्धकार मिटानेहारे (इन्द्र) बड़े ऐश्वर्यवाले राजन् ! (अभिदासतः) चढ़ाई करनेहारे (अमित्रस्य) पीडाप्रद शत्रु के (मन्युम्) कोप को (वि=विरुज) भङ्ग कर दे।

१−राजा को पुरुषार्थी होकर शत्रुओं का नाश करके और प्रजा में शान्ति फैलाकर आनन्द भोगना चाहिये।

२−सर्वरक्षक परमेश्वर के प्रताप से मनुष्य अपने बाहिरी और भीतरी शत्रुओं को निर्बल करें।


अपे॑न्द्र द्विष॒तो मनो॑ ऽप॒ जिज्या॑सतो व॒धम्। वि म॒हच्छर्म॑ यच्छ॒ वरी॑यो यावया व॒धम् ॥४॥

(इन्द्र) हे बड़े ऐश्वर्यवाले राजन् (द्विषतः) वैरी के (मनः) मन को (अप=अपकृत्य) तोड़कर और (जिज्यासतः) [हमारी] आयु की हानि चाहनेहारे शत्रु के (वधम्) प्रहार को (अप=अपकृत्य) छिन्न-भिन्न करके (महत् शर्म) [अपना] विस्तीर्ण शरण (वियच्छ) [हमें] दान कर और (वधम्) [शत्रु के] प्रहार को (वरीयः) बहुत दूर (यावय) फेंक दे।

परमेश्वर के विश्वास से मनुष्य अपने पुरुषार्थ और बुद्धिबल से शत्रु को निरुत्साही करके विजयी होवें।

[अथ प्रथम काण्ड - द्वाविंशतिः सूक्त]

२२. हृद्रोगकामलाशन सूक्त


 ऋषि - ब्रह्मा

 देवता – सूर्यः, हरिमा, हृद्रोगः


अनु॒ सूर्य॒मुद॑यतां हृद्द्यो॒तो ह॑रि॒मा च॑ ते। गो रोहि॑तस्य॒ वर्णे॑न॒ तेन॑ त्वा॒ परि॑ दध्मसि ॥१॥

(ते) तेरे (हृद्-द्योतः) हृद्य की सन्ताप [चमक] (च) और (हरिमा) शरीर का पीलापन (सूर्यम् अनु) सूर्य के साथ-साथ (उद्-अयताम्) उड़ जावे। (रोहितस्य) निकलते हुए लाल रङ्गवाले (गोः) सूर्य के (तेन) प्रसिद्ध (वर्णेन) रङ्ग से (त्वा) तुझको (परि) सब प्रकार से (दध्मसि) हम पुष्ट करते हैं।

प्रातः और सायंकाल सूर्य की किरणें तिरछी पड़ने से रक्तवर्ण दीखती हैं और वायु शीतल, मन्द, सुगन्ध चलता है। उस समय मानसिक और शारीरिक रोगी को सद्वैद्य वायुसेवन और औषधिसेवन करावें, जिससे वह स्वस्थ हो जाये और रुधिर के संचार से उसका रङ्ग रक्तसूर्य के समान लाल चमकीला हो जाये।


१−(गौः) सूर्य है, वह रसों को ले जाता [और पहुँचाता] है और अन्तरिक्ष में चलता है−निरु० २।१४ ।

२−मनु महाराज ने भी दो सन्ध्याओं का विधान [स्वस्थता के लिये] किया है−मनु, अ० २ श्लो० १०१ ॥


पूर्वां सन्ध्यां जपंस्तिष्ठेत् सावित्रीमार्कदर्शनात्।

पश्चिमां तु समासीनः सम्यगृक्षविभावनात् ॥१॥ 

प्रातःकाल की सन्ध्या में गायत्री को जपता हुआ सूर्यदर्शन होने तक स्थित रहे और सायंकाल की सन्ध्या में तारों के चमकने तक बैठा हुआ ठीक-ठीक जप करे ॥


परि॑ त्वा॒ रोहि॑तै॒र्वर्णै॑र्दीर्घायु॒त्वाय॑ दध्मसि। यथा॒यम॑र॒पा अस॒दथो॒ अह॑रितो॒ भुव॑त् ॥२॥

(रोहितैः) लाल (वर्णैः) रङ्गों के साथ (त्वा) तुझको (दीर्घायुत्वाय) चिरकाल जीवन के लिये (परि) सब प्रकार से (दध्मसि) हम पुष्ट करते हैं। (यथा) जिससे (अयम्) यह (अरपाः) नीरोग (असत्) हो जाये, (अथो) और (अहरितः) पीले वर्ण रहित (भुवत्) रहे।

सद्वैद्य और कुटुम्बी लोग रोगी को प्रातः-सायम् वायुसेवन और औषधसेवन कराकर स्वस्थ करें, कि रुधिरसंचार से उसका शरीर रक्तवर्ण हो जाय और ज्वर, पीलिया आदि रोग का पीलापन शरीर से जाता रहे।


या रोहि॑णीर्देव॒त्या॑३ गावो॒ या उ॒त रोहि॑णीः। रू॒पंरू॑पं॒ वयो॑वय॒स्ताभि॑ष्ट्वा॒ परि॑ दध्मसि ॥३॥

(याः) जो (देवत्याः) दिव्य गुण युक्त (रोहिणीः) स्वास्थ्य उत्पन्न करनेवाली ओषधें (उत) और (याः) जो (रोहिणीः) लाल वर्णवाली (गावः) दिशाएँ हैं। (ताभिः) उन सबके साथ (त्वा) तुझको (रूपम् रूपम्) सब प्रकार की सुन्दरता और (वयः वयः) सब प्रकार के बल के लिये (परि दध्मसि) हम सर्वथा पुष्ट करते हैं।

जब सूर्य की किरणों से दिशाएँ रक्तवर्ण दिखायी देती हैं, तब प्रातः-सायं दोनों समय सद्वैद्य रोगी को सुपरीक्षित औषधों और यथायोग्य वायुसेवन से स्वस्थ करके सब प्रकार से हृष्ट-पुष्ट और बलवान् करें।


सुके॑षु ते हरि॒माणं॑ रोप॒णाका॑सु दध्मसि। अथो॒ हारि॑द्रवेषु ते हरि॒माणं॒ नि द॑ध्मसि ||४॥

(सुकेषु) उत्तम-उत्तम उपदेशों में और (रोपणाकासु) लेप आदि क्रियाओं में (ते) तेरे (हरिमाणम्) सुख हरनेवाले शरीररोग को (दध्मसि) हम रखते हैं। (अथो) और भी (हारिद्रवेषु) रुचिर रसों में (ते) तेरे (हरिमाणम्) चित्तविकार को (नि) निरन्तर (दध्मसि) हम रखते हैं।

सद्वैद्य बाहिरी शारीरिक रोगों को यथायोग्य ओषधि और लेप आदि से और भीतरी मानसिक रोगों को उत्तम-उत्तम ओषधिरसों से नाश करके रोगी को स्वस्थ करें।


यह मन्त्र ऋ० १।५०।१२। में कुछ भेद से है, वहाँ (सुकेषु) के स्थान में [शुकेषु] है। और सायणभाष्य में भी [शुकेषु] माना है। परन्तु तीनों अथर्वसंहिताओं में (सुकेषु) पाठ है, वही हमने लिया है। सायणाचार्य ने [शुक] का अर्थ तोता पक्षी और [रोपणाका] का [काष्ठशुक] नाम हरिद्वर्ण पक्षी अथर्ववेद में और [शारिका पक्षी विशेष] अर्थात् मैना ऋग्वेद में और (हारिद्रव) का अर्थ [गोपीतनक नाम हरिद्वर्ण] [पक्षी] अथर्ववेद में और [हरिताल का वृक्ष] ऋग्वेद में किया है। इस अर्थ का यह आशय जान पड़ता है कि रोगविशेषों में पक्षीविशेषों को रोगी के पास रखने से भी रोग की निवृत्ति होती है।

[अथ प्रथम काण्ड - त्रयोविंशतिः सूक्त]

२३. श्वेत कुष्ठ नाशन सूक्त


 ऋषि - अथर्वा

 देवता - असिक्नी वनस्पतिः


न॑क्तंजा॒तासि॑ ओषधे॒ रामे॒ कृष्णे॒ असि॑क्नि च। इ॒दं र॑जनि रजय कि॒लासं॑ पलि॒तं च॒ यत् ॥१॥

(ओषधे) हे उष्णता रखनेहारी, ओषधि तू (नक्तंजाता) रात्रि में उत्पन्न हुई (असि) है, जो तू (रामे) रमण करानेहारी (कृष्णे) चित्त को खींचनेहारी, (च) और (असिक्नि) निर्बन्ध [पूर्ण सारवाली] है। (रजनि) हे उत्तम रंग करनेहारी ! तू (इदम्) यह (यत्) जो (किलासम्) रूप का बिगाड़नेहारा कुष्ठ आदि (च) और (पलितम्) शरीर का श्वेतपन रोग है [उसको] (रजय) रंग दे।

सद्वैद्य उत्तम परीक्षित औषधों से रोगों की निवृत्ति करें।

१−रात में उत्पन्न हुई ओषधि से यह आशय है कि ओषधें, गैंहूँ, जौ, चावल आदि अन्न और कमल आदि रोगनिवर्तक पदार्थ, चन्द्रमा की किरणों से पुष्ट होकर उत्पन्न होते हैं ॥

२−इसी प्रकार मनुष्यों को गर्भाधानक्रिया रात्रि में करनी चाहिये ॥

३−ओषधि आदि मूर्त्तिमान् पदार्थ पाँच तत्त्वों से बने हैं, तो भी उनके भिन्न-भिन्न आकार और भिन्न-भिन्न गुण हैं, यह मूल संयोग-वियोग क्रिया ईश्वर के अधीन है, वस्तुतः मनुष्य के लिये यह कर्म रात्रि अर्थात् अन्धकार वा अज्ञान में है ॥

४−प्रलयरूपी रात्रि के पीछे, पहिले अन्न आदि पदार्थ उत्पन्न होते हैं फिर मनुष्य आदि की सृष्टि होती है।


कि॒लासं॑ च पलि॒तं च॒ निरि॒तो ना॑शया॒ पृष॑त्। आ त्वा॒ स्वो वि॑शतां॒ वर्णः॒ परा॑ शु॒क्लानि॑ पातय ॥२॥

[हे ओषधि!] (इतः) इस पुरुष से (किलासम्) रूप बिगाड़नेवाले कुष्ठ आदि रोग को (च) और (पलितम्) शरीर के श्वेतपन (च) और (पृषत्) विकृत् चिह्न को (निर्णाशय) निरन्तर नाश कर दे। (स्वः वर्णः) [रोग का] अपना रंग (त्वाम्) तुझमें [ओषधि में] (आविशताम्) प्रविष्ट हो जाय और (शुक्लानि) [उसके] श्वेत चिह्नों को (परा पातय) दूर गिरा दे।

सद्वैद्य की उत्तम ओषधि से रोगी के शरीर का बिगड़ा हुआ रूप फिर यथापूर्व सुन्दर रुचिर और मनोहर हो जाता है।


असि॑तं ते प्र॒लय॑नमा॒स्थान॒मसि॑तं॒ तव॑। असि॑क्न्यस्योषधे॒ निरि॒तो ना॑शया॒ पृष॑त् ॥३॥

(ओषधे) हे ओषधि! (ते) तेरा (प्रलयनम्) लाभ (असितम्) निर्बन्ध वा अखण्ड है और (तव) तेरा (आस्थानम्) विश्रामस्थान (असितम्) निर्बन्ध है, (असिक्नी असि) और तू निर्बन्ध [सारवाली] है, (इतः) इस पुरुष से (पृषत्) [विकृत] चिह्न को (निर्णाशय) सर्वथा नाश कर दे।

सद्वैद्य विचार करे कि यह ओषधि पूर्ण लाभयुक्त है, यथायोग्य स्थान में उत्पन्न हुई है और सब अंशों में सारयुक्त है, ऐसी ओषधि के प्रयोग से रोगनिवृत्ति होती है।


अ॑स्थि॒जस्य॑ कि॒लास॑स्य तनू॒जस्य॑ च॒ यत्त्व॒चि। दूष्या॑ कृ॒तस्य॒ ब्रह्म॑णा॒ लक्ष्म॑ श्वे॒तम॑नीनशम् ॥४॥

(दूष्याकृतस्य अस्थिजस्य तनूजस्य च किलासस्य यत् श्वेतं लक्ष्म त्वचि अस्ति तद् ब्रह्मणा अहम् अनीनशम्−इत्यन्वयः)। (दूष्या) दुष्ट क्रिया से (कृतस्य) उत्पन्न हुए, (अस्थिजस्य) हड्डी से उत्पन्न हुए (च) और (तनूजस्य) शरीर से निकले हुए (किलासस्य) रूप बिगाड़नेहारे, कुष्ठ आदि रोग का (यत्) जो (श्वेतम्) श्वेत (लक्ष्म) चिह्न (त्वचि) त्वचा पर है [उसको] (ब्रह्मणा) वेदविज्ञान से (अनीनशम्) मैंने नाश कर दिया है।

भारी रोग दो प्रकार के होते हैं, एक (अस्थिज) हड्डी से उत्पन्न होनेवाले अर्थात् भीतरी रोग जो ब्रह्मचर्य के खण्डन और कुपथ्य भोजन आदि के कारण मज्जा और वीर्य के विकार से हो जाते हैं और दूसरे (तनुज) शरीर से उत्पन्न हुए बाहिरी रोग जो मलिन वायु, मलिन घर, आदि के कारण होते हैं, इस प्रकार (ब्रह्मणा) वेदिक ज्ञान से रोगों का निदान करके उत्तम परीक्षित ओषधियों से रोगियों को स्वस्थ करे।

इस सूक्त का आशय यह है कि जिस प्रकार सद्वैद्य रोगों का आदि कारण जानकर ओषधि करके रोगनिवृत्ति करता है, उसी प्रकार नीतिज्ञ राजा नियमपूर्वक दुष्टों का दमन करता है, सेनापति शत्रु के प्रहार से अपनी सेना की रक्षा करके जीत पाता है और ब्रह्मज्ञानी और वैज्ञानिक लोग बाह्य और आभ्यन्तर विघ्नों को हटाकर अपना कार्य सिद्ध करते हैं ॥

[अथ प्रथम काण्ड - चतुर्विंशतिः सूक्त]

२४. श्वेत कुष्ठ नाशन सूक्त


 ऋषि - अथर्वा

 देवता - आसुरी वनस्पतिः


सु॑प॒र्णो जा॒तः प्र॑थ॒मस्तस्य॒ त्वं पि॒त्तमा॑सिथ। तदा॑सु॒री यु॒धा जि॒ता रू॒पं च॑क्रे॒ वन॒स्पती॑न् ॥१॥

(सुपर्णः) उत्तम रीति से पालन करनेहारा, वा अति पूर्ण परमेश्वर (प्रथमः) सबका आदि (जातः) प्रसिद्ध है। (तस्य) उस [परमेश्वर] के (पित्तम्) पित्त [बल] को, [हे औषधि !] (त्वम्) तूने (आसिथ) पाया था। (तत्) तब (युधा) संग्राम से (जिता) जीती हुयी (आसुरी) असुर [प्रकाशमय परमेश्वर] की माया [प्रज्ञा वा बुद्धि] ने (वनस्पतीन्) सेवा करनेवालों के रक्षा करनेहारे वृक्षों को (रूपम्) रूप (चक्रे) किया था।

सृष्टि से पहिले वर्त्तमान परमेश्वर की नित्य शक्ति से ओषधि-अन्न आदि में पोषणसामर्थ्य रहता है। वह (आसुरी) परमेश्वर की शक्ति (युधा जिता) युद्ध अर्थात् प्रलय के अन्धकार के उपरान्त प्रकाशित होती है, जैसे अन्न और घास-पात आदि का बीज शीत और ग्रीष्म ऋतुओं में भूमि के भीतर पड़ा रहता और वृष्टि का जल पाकर हरा हो जाता है। 

टिप्पणी−(असुर) शब्द के लिये १।१०।१। और (आसुरी) के लिये ७।३९।१। देखो। हे ओषधि ! तू रात्रि में उत्पन्न हुई है। ऐसा १।२३।१। में आया है। ऋग्वेद १०।१२९।३ में कहा है।

तम॑ आसी॒त् तम॑सा गू॒ढ़मग्रेऽप्रके॒तं स॑लि॒लं सर्व॑मा इ॒दम्।

पहिले [प्रलय काल में] अन्धकार था और यह सब अन्धकार से ढका हुआ चिह्नरहित समुद्र था।


आ॑सु॒री च॑क्रे प्रथ॒मेदं कि॑लासभेष॒जमि॒दं कि॑लास॒नाश॑नम्। अनी॑नशत्कि॒लासं॒ सरू॑पामकर॒त्त्वच॑म् ॥२॥

(प्रथमा) प्रथम प्रकट हुई (आसुरी) प्रकाशमय परमेश्वर की माया [बुद्धि वा ज्ञान] ने (इदम्) इस [वस्तु] को (किलासभेषजम्) रूपनाशक महा रोग की ओषधि और (इदम्) इस [वस्तु] को ही (किलासनाशनम्) रूप बिगाड़नेवाले महारोग की नाश करनेहारी (चक्रे) बनाया। [उस़ने] [ईश्वर माया ने] (किलासम्) रूप बिगाड़नेवाले महारोग को (अनीनशत्) नाश किया और (त्वचम्) त्वचा को (सरूपाम्) सुन्दर रूपवाली (अकरत्) बना दिया।

(आसुरी) प्रकाशस्वरूप परमेश्वर की शक्ति से प्रलय के पश्चात् अनेक विघ्नों के हटाने पर मनुष्य के सुखदायक पदार्थ उत्पन्न हुए, जिससे पृथिवी पर समृद्धि और क्षुधा आदि रोगों की निवृत्ति हुई।


सरू॑पा॒ नाम॑ ते मा॒ता सरू॑पो॒ नाम॑ ते पि॒ता। स॑रूप॒कृत्त्वमो॑षधे॒ सा सरू॑पमि॒दं कृ॑धि ॥३॥

(ओषधे) हे उष्णता रखनेहारे अन्न आदि ओषधि (सरूपा) समान गुण वा स्वभाववाली (नाम) नाम (ते) तेरी (माता) माता है, (सरूपः) समान गुण वा स्वभाववाला (नाम) नाम (ते) तेरा (पिता) पिता है। (त्वम्) तू (सरूपकृत्) सुन्दर वा समान गुण करनेहारी है, (सा=सा त्वम्) सो तू (इदम्) इस [अङ्ग] को (सरूपम्) सुन्दररूपयुक्त (कृधि) कर।

(ओषधि) क्षुधा रोगादिनिवर्तक वस्तु को कहते हैं, जिससे शरीर में उष्णता रहती है, उसकी (माता) प्रकृति वा पृथिवी और (पिता) परमेश्वर वा मेघ वा सूर्य्य है, जिनके गुण वा स्वभाव सब प्राणियों के लिये समान हैं। ईश्वर से प्रेरित प्रकृति से अथवा भूमि और मेघ वा सूर्य्य के संयोग से सब पुष्टिदायक और रोगनाशक पदार्थ उत्पन्न होते हैं। विद्वान् लोग पदार्थों के गुणों को यथार्थ जान कर नियमपूर्वक उचित भोजन आदि के सेवन और यथोचित उपकार लेने से अपने को और अपने सन्तानों को रूपवान् और वीर्य्यवान् बनावें।


श्या॒मा स॑रूपं॒कर॑णी पृथि॒व्या अध्युद्भृ॑ता। इ॒दमू॑ षु॒ प्र सा॑धय॒ पुना॑ रू॒पाणि॑ कल्पय ॥४॥

(श्यामा) व्यापनशीला वा सुखप्रदा, (सरूपं करणी) सुन्दरता करनेहारी तू (पृथिव्याः अधि) विख्यात वा विस्तीर्ण पृथिवी में से (उद्भृता) उखाड़ी गई है। (इदम् उ) इस [कर्म्म] को (सु) भली-भाँति से (प्रसाधय) सिद्ध कर, (पुनः) और (रूपाणि) [इस पुरुष] की सुन्दरताओं को (कल्पय) पूर्ण कर।

जैसे उत्तम वैद्य उत्तम औषधों से रोग को निवृत कर रोगी को सर्वाङ्ग पुष्ट करके आनन्दयुक्त करते हैं, इसी प्रकार दूरदर्शी पुरुष सब विघ्नों को हटा कर कार्य्यसिद्धि कर आनन्द भोगते हैं।


मुद्राराक्षस में कहा है−

“धरि लात विघ्न अनेक पैं निरभय न उद्यम तें टरैं।

जे पुरुष उत्तम अन्त में ते सिद्ध सब कारज करैं ॥”

 [अथ प्रथम काण्ड - पञ्चविंशतिः सूक्त]

२५. ज्वरनाशक सूक्त 


 ऋषि - भृग्वङ्गिराः

 देवता - यक्ष्मनाशनोऽग्निः


यद॒ग्निरापो॒ अद॑हत्प्र॒विश्य॒ यत्राकृ॑ण्वन्धर्म॒धृतो॒ नमां॑सि। तत्र॑ त आहुः पर॒मं ज॒नित्रं॒ स नः॑ संवि॒द्वान्परि॑ वृङ्ग्धि तक्मन् ॥१॥

(यत्) जिस सामर्थ्य से (अग्निः) व्यापक अग्नि [ताप] ने (प्रविश्य) प्रवेश करके (अपः) व्यापनशील जल को (आ अदहत्) तपा दिया है और (यत्र) जिस [सामर्थ्य] के आगे (धर्मधृतः) मर्यादा के रखनेवाले पुरुषों ने (नमांसि) अनेक प्रकार से नमस्कार (अकृण्वन्) किया है। (तत्र) उस [सामर्थ्य] में (ते) तेरे (परमम्) सबसे ऊँचे (जनित्रम्) जन्मस्थान को (आहुः) वह [मर्यादापुरुष] बताते हैं, (सः=स त्वम्) सो तू, (तक्मन्) हे जीवन को कष्ट देनेवाले, ज्वर ! [ज्वरसमान पीडा देनेवाले ईश्वर !] (संविद्वान्) [यह बात] जानता हुआ (नः) हमको (परि वृङ्धि) छोड़ दे।

जो परमेश्वर उष्णस्वभाव अग्नि द्वारा शीतलस्वभाव जल को तपाता है अर्थात् विरुद्ध स्वभाववालों को संयोग-वियोग से अनुकूल करके सृष्टि का धारण करता है, जिस परमेश्वर से बढ़ कर कोई मर्यादापालक नहीं है, जो स्वयंभू सबका अधिपति है और ज्वर आदि रोगों से पापियों को दण्ड देता है, उस न्यायी जगदीश्वर का स्मरण करते हुए हम पापों से बच कर सदा आनन्द भोगें, सब विद्वान् लोग उस ईश्वर के आगे सिर झुकाते हैं।


यद्य॒र्चिर्यदि॒ वासि॑ शो॒चिः श॑कल्ये॒षि यदि॑ वा ते ज॒नित्र॑म्। ह्रूडु॒र्नामा॑सि हरितस्य देव॒ स नः॑ संवि॒द्वान्परि॑ वृङ्ग्धि तक्मन् ॥२॥

(यदि) चाहे तू (अर्चिः) ज्वालारूप (यदि वा) अथवा (शोचिः) तापरूप (असि) है (यदि वा) अथवा (ते) तेरा (जनित्रम्) जन्मस्थान (शकल्येषि) अङ्ग-अङ्ग की गति में है। (हरितस्य) हे पीले रंग के (देव) देनेवाले (ह्रूडुः) दबाने की कल (नाम असि) तेरा नाम है, (सः) सो तू (तक्मन्) जीवन को कष्ट देनेवाले ज्वर ! [ज्वरसमान पीड़ा देनेवाले ईश्वर] (संविद्वान्) [यह बात] जानता हुआ (नः) हमको (परि वृङ्धि) छोड़ दे।

वह परब्रह्म ज्वर आदि रोग से दुष्कर्मियों की नाड़ी-नाड़ी को दुःख से दबा डालता है जैसे कोई किसी को दबाने की कल में दबावे। उस न्यायी जगदीश्वर का स्मरण करते हुए पापों से बच कर सदा आनन्द भोगें।

सायणभाष्य में (ह्रूडुः) के स्थान में [रुढुः] पढ़ कर [रोहकः] उत्पन्न करनेवाला अर्थ किया है।


यदि॑ शो॒को यदि॑ वाभिशो॒को यदि॑ वा॒ राज्ञो॒ वरु॑ण॒स्यासि॑ पु॒त्रः। ह्रूडु॒र्नामा॑सि हरितस्य देव॒ स नः॑ संवि॒द्वान्परि॑ वृङ्ग्धि तक्मन् ॥३॥

(यदि) चाहे, तू (शोकः) हृदयपीड़क (यदि वा) चाहे (अभिशोकः) सर्वशरीरपीड़क है, (यदि वा) अथवा तू (राज्ञः) तेजवाले (वरुणस्य) सूर्य वा जल का (पुत्रः) पुत्ररूप (असि) है। (हरितस्य) हे पीले रंग के (देव) देनेवाले ! (ह्रूडुः) दबाने की कल (नाम असि) तेरा नाम है (सः) सो तू, (तक्मन्) हे जीवन को कष्ट देनेवाले, ज्वर ! [ज्वरसमान पीडा देनेहारे !] (संविद्वान्) [यह बात] जानता हुआ (नः) हमको (परि−वृङ्ग्धि) छोड़ दे।

मानसिक और शारीरिक पीड़ा, सूर्य्य की ताप वा जल से उत्पन्न ज्वर और पीलिया आदि रोग, पाप अर्थात् ईश्वरीय नियम से विरुद्ध आचरण का फल है, इसलिये मनुष्य पुरुषार्थपूर्वक परमेश्वर के नियमों का पालन करैं और दुष्ट आचरण छोड़ कर सुखी रहैं।


नमः॑ शी॒ताय॑ त॒क्मने॒ नमो॑ रू॒राय॑ शो॒चिषे॑ कृणोमि। यो अ॑न्ये॒द्युरु॑भय॒द्युर॒भ्येति॒ तृती॑यकाय॒ नमो॑ अस्तु त॒क्मने॑ ॥४॥

(शीताय) शीत (तक्मने) जीवन को कष्ट देनेहारे ज्वर [ज्वररूप परमेश्वर] को (नमः) नमस्कार और (रूराय) क्रूर (शोचिषे) ताप के ज्वर को [ज्वररूप परमेश्वर को] (नमः) नमस्कार (कृणोमि) मैं करता हूँ। (यः) जो (अन्येद्युः) एकान्तरा ज्वर और (उभयद्युः) दो अन्तरा ज्वर (अभि एति) चढ़ता है, [तस्मै] [उस ज्वररूप को और] (तृतीयकाय) तिजारी (तक्मने) ज्वर [ज्वररूप परमेश्वर] को (नमः) नमस्कार (अस्तु) होवे।

परमेश्वर अनेक प्रकार के ज्वर आदि रोगों से पापियों को कष्ट देता है, उस के क्रोध से भय मान कर हम खोटे कामों से बचकर सदा शान्तचित्त और आनन्द में मग्न रहें।

[अथ प्रथम काण्ड - षड्विंशतिः सूक्त]

२६. सुख प्राप्ति सूक्त


 ऋषि - ब्रह्मा

 देवता – देवा, सविता, भग इन्द्रः, मरुद्गणः


आ॒रे॑३ ऽसा॑व॒स्मद॑स्तु हे॒तिर्दे॑वासो असत्। आ॒रे अश्मा॒ यमस्य॑थ ॥१॥

(देवासः) हे विजयी शूरवीरो ! (असौ) वह (हेतिः) साँग वा बरछी (अस्मत्) हमसे (आरे) दूर (अस्तु) रहे और (अश्मा) वह पत्थर (आरे) दूर (असत्) रहे (यम्) जिसे (अस्यथ) तुम फैंकते हो।

युद्धकुशल सेनापति लोग चक्रव्यूह, पद्मव्यूह, मकरव्यूह, क्रौञ्चव्यूह, सूचीव्यूह आदि से अपनी सेना का विन्यास इस प्रकार करें कि शत्रु के अस्त्र-शस्त्र का प्रहार अपने प्रजा और सेना को न लगैं और न अपने अस्त्र-शस्त्र उलट कर अपने ही लगैं, किन्तु शत्रुओं का विध्वंस करैं ।


सखा॒साव॒स्मभ्य॑मस्तु रा॒तिः सखेन्द्रो॒ भगः॑। स॑वि॒ता चि॒त्ररा॑धाः ॥२॥

(असौ) वह (रातिः) दानशील राजा (अस्मभ्यम्) हमारे लिये (सखा) मित्र (अस्तु) होवे, (भगः) सबका सेवनीय, (सविता) लोकों को चलानेवाले सूर्य के समान प्रतापी, (चित्रराधाः) अद्भुत धनयुक्त (इन्द्रः) बड़े ऐश्वर्यवाला (सखा) मित्र (अस्तु) होवे।

राजा अपनी प्रजा, सेना और कर्मचारियों पर सदा उदारचित्त रहे और सूर्य के समान महाप्रतापी और ऐश्वर्यशाली और महाधनी होकर सबका हितकारी बने और सबकी उन्नति से अपनी उन्नति करे।


यू॒यं नः॑ प्रवतो नपा॒न्मरु॑तः॒ सूर्य॑त्वचसः। शर्म॑ यच्छाथ स॒प्रथः॑ ॥३॥

(प्रवतः) हे [अपने] भक्त के (नपात्) न गिरानेहारे राजन् ! और (सूर्यत्वचसः) हे सूर्यसमान प्रतापवाले (मरुतः) शत्रुओं के मारनेहारे शूरवीर महात्माओ ! (यूयम्) तुम सब (नः) हमारे लिये (सप्रथः) बहुत विस्तीर्ण (शर्म) सुख वा शरण (यच्छाथ) दान करो।

अपने भक्तों की रक्षा करनेहारा राजा और महाप्रतापी धर्म-धुरंधर शूरवीर मन्त्री आदि मिल कर प्रजा की सर्वथा रक्षा करके अपने शरण में रक्खें।

टिप्पणी−अजमेर वैदिक यन्त्रालय और बंबई गवर्नमेन्ट के पुस्तक के संहितापाठ में (सप्रथाः) पाठ अशुद्ध दीखता है, सायणभाष्य और बंबई के सेवकलाल कृष्णदास-शोधित पुस्तक का (सप्रथः) पाठ शुद्ध जान कर हमने यहाँ पर लिया है।


सु॑षू॒दत॑ मृ॒डत॑ मृ॒डया॑ नस्त॒नूभ्यो॑ मय॑स्तो॒केभ्य॑स्कृ॒धि ॥४॥

(सुषूदत) तुम सब [हमें] अङ्गीकार करो और (मृडत) सुखी करो, [हे राजन् !] तू (नः) हमारे (तनूभ्यः) शरीरों को (मृडय) सुख दे और (तोकेभ्यः) बालकों को (मयः) आनन्द (कृधि) कर ।

महाप्रतापी राजा और सुयोग्य कर्मचारी मिल कर सब प्रजा और उनकी सन्तानों की उत्तम शिक्षा आदि से उन्नति करें और सुख पहुँचाते रहंत।

[अथ प्रथम काण्ड - सप्तविंशतिः सूक्त]

२७. स्वस्त्ययन सूक्त


 ऋषि - अथर्वा

 देवता - चन्द्रमाः, इन्द्राणी


अ॒मूः पा॒रे पृ॑दा॒क्व॑स्त्रिष॒प्ता निर्ज॑रायवः। तासा॑म्ज॒रायु॑भिर्व॒यम॒क्ष्या॒वपि॑ व्ययामस्यघा॒योः प॑रिप॒न्थिनः॑ ॥१॥

(अमूः) वह (त्रिषप्ताः) तीन [ऊँचे, मध्यम और नीचे] स्थान में खड़ी हुई, (निर्जरायवः) जरायु [गर्भ की झिल्ली] से निकली हुई (पृदाक्वः) सर्पिणी [वा बाघिनी] रूप शत्रुसेनाएँ (पारे) उस पार [वर्तमान] हैं। (तासाम्) उनकी (जरायुभिः) जरायुरूप गुप्त चेष्टाओं सहित [वर्तमान] (अघायोः) बुरा चीतनेवाले, (परिपन्थिनः) उलटे आचरणवाले शत्रु की (अक्ष्यौ) दोनों आँखों को (वयम्) हम (अपि व्ययामसि) ढके देते हैं।

जब शत्रु की सेना अपने पड़ावों से निकल कर घातस्थानों पर ऐसी खड़ी होवे, जैसे सर्पिणी वा बाघिनी माता के गर्भ से निकल कर बहुत से उपद्रव फैलाती है, तब युद्धकुशल सेनापति शत्रुसेना की गुप्त कपट चेष्टाओं का मर्म समझ कर ऐसी हल-चल मचा दे कि शत्रु की दोनों, आँखें हृदय की और मस्तक की मुँद जावें और वह घबराकर हार मान लेवे।

सायणभाष्य में (निर्जरायवः) के स्थान में [निर्जरा इव] शब्द है ॥


विषू॑च्येतु कृन्त॒ती पिना॑कमिव॒ बिभ्र॑ती। विष्व॑क्पुन॒र्भुवा॒ मनो ऽस॑मृद्धा अघा॒यवः॑ ॥२॥

(पिनाकम् इव) त्रिशूल सा (बिभ्रती) उठाये हुए (कृन्तती) काटती हुयी [हमारी सेना] (विषूची) सब ओर फैल कर (एतु) चले। और (पुनर्भुवाः) फिर जुड़ कर आयी हुयी [शत्रुसेना] का (मनः) मन (विष्वक्) इधर-उधर उड़ाऊ [हो जावे] (अघायवः) बुरा चीतनेवाले शत्रु लोग (असमृद्धाः) निर्धन हो जावें।

जैसे चतुर सेनापति अस्त्र-शस्त्रवाली अपनी साहसी सेना के अनेक विभाग करके शत्रुओं पर झपट कर धावा मारता और उन्हें व्याकुल करके भगा देता है, जिससे वह लोग फिर न तो एकत्र हो सकते और न धन जोड़ सकते हैं, ऐसे ही बुद्धिमान् मनुष्य कुमार्गगामिनी इन्द्रियों को वश में करके सुमार्ग में चलावें और आनन्द भोगें।

सायणभाष्य में (पुनर्भुवाः) के स्थान में [पुनर्भवाः] है ॥


न ब॒हवः॒ सम॑शक॒न्नार्भ॒का अ॒भि दा॑धृषुः। वे॒णोरद्गा॑ इवा॒भितो ऽस॑मृद्धा अघा॒यवः॑ ॥३॥

(न) न तो (बहवः) बहुत से शत्रु (समशकन्) समर्थ हुए (न) और न (अर्भकाः) वह निर्बल हो जाने पर (अभिदाधृषुः) कुछ साहस कर सके, (वेणोः) बाँस के (अद्गाः) मालपुओं के (इव) समान (अघायवः) बुरा चीतनेवाले शत्रु (असमृद्धाः) निर्धन [होवें]।

राजा दुराचारी दुष्टों को ऐसा वश में करे कि वह एकत्र न हो सकें और न सता सकें और जैसे नीरस सूखे बाँस आदि तृण का भोजन पुष्टिदायक नहीं होता, इसी प्रकार सर्वथा निर्बल कर दिये जावें। इसी प्रकार मनुष्य आत्मशिक्षा करें।

सायणभाष्य में (दाधृषुः) के स्थान में [दादृशुः] और (अद्गाः) के स्थान में [उद्गाः] है ॥


प्रेतं॑ पादौ॒ प्र स्फु॑रतं॒ वह॑तं पृण॒तो गृ॒हान्। इ॑न्द्रा॒ण्ये॑तु प्रथ॒माजी॒तामु॑षिता पु॒रः ॥४॥

(पादौ) हे हमारे दोनों पाँव (प्रेतम्) आगे बढ़ो, (प्रस्फुरतम्) फुरती करे जाओ, (पृणतः) तृप्त करनेवाले (गृहान्) कुटुम्बियों के पास [हमें] (वहतम्) पहुँचाओ। (प्रथमा) अपूर्व वा विख्यात (अजीता=अजिता) बिना जीती और (अमुषिता) विना लूटी हुई (इन्द्राणी) इन्द्र की शक्ति, महा सम्पत्ति (पुरः) [हमारे] आगे-आगे (एतु) चले।

१−महाप्रतापी शूरवीर पुरुषार्थी राजा विजय करके और बहुत धन प्राप्त करके सावधान होकर अपने घर को लौटे और अपने मित्रों में अनेक प्रकार से उन्नति करके सुखभोग करे ॥

२−जितेन्द्रिय पुरुष आत्मस्थ परमेश्वर के दर्शन से परोपकार करके सुख प्राप्त करे ॥४॥

(इ॒हेन्द्रा॒णी॒मुप॑ह्वये वरुणा॒नीं स्व॒स्तये॑) ऋ० १।२२।१२।

इस मन्त्र में (इन्द्राणी) इन्द्र सूर्य वा वायु की शक्ति और (वरुणानी) वरुण जल की शक्ति ऐसा अर्थ श्रीमद्दयानन्दभाष्य में है ॥

[अथ प्रथम काण्ड - अष्टाविंशतिः सूक्त]

२८. रक्षोघ्न सूक्त


 ऋषि - चातनः

 देवता – अग्निः, यातुधानी


उप॒ प्रागा॑द्दे॒वो अ॒ग्नी र॑क्षो॒हामी॑व॒चात॑नः। दह॒न्नप॑ द्वया॒विनो॑ यातु॒धाना॑न्किमी॒दिनः॑ ॥१॥

(रक्षोहा) राक्षसों का मार डालनेवाला (अमीवचातनः) दुःख मिटानेवाला (देवः) विजयी (अग्निः) अग्निरूप सेनापति (द्वयाविनः) दुमुखे कपटी, (यातुधानान्) पीडा देनेवाले (किमीदिनः) यह क्या है यह क्या है, ऐसा करनेवाले छली सूचकों वा लंपटों को (अप दहन्) मिटाकर भस्म करता हुआ (उप) हमारे समीप (प्र-अगात्) आ पहुँचा है।

जब सेनापति अग्निरूप होकर शतघ्नी [तोप] भुशुण्डी [बन्दूक] धनुष् बाण तरवारि आदि अस्त्र-शस्त्रों से शत्रुओं का नाश करता है, तब राज्य में शान्ति रहती है।


प्रति॑ दह यातु॒धाना॒न्प्रति॑ देव किमी॒दिनः॑। प्र॒तीचीः॑ कृष्णवर्तने॒ सं द॑ह यातुधा॒न्यः॑ ॥२॥

(देव) हे विजयी सेनापति (यातुधानान्) दुःखदायी (किमीदिनः) क्या-क्या करनेहारे छली सूचकों को (प्रति) एक-एक करके (प्रतिदह) जला दे। (कृष्णवर्तने) हे धूँआ-धार मार्गवाले अग्निरूप सेनापति (प्रतीचीः) सन्मुख धावा करती हुयी (यातुधान्यः=०-नीः) दुःखदायिनी शत्रुसेनाओं को (सम् दह) चारों ओर से भस्म कर दे।

युद्धकुशल सेनापति अपने घातस्थानों से तोप तुपक आदि द्वारा अग्नि के समान धूँआ-धार करता हुआ शत्रुओं के मुखियाओं और सेनादलों को व्याकुल करके भस्म कर देवे।

सायणभाष्य में (कृष्णवर्तने) के स्थान में [कृष्णवर्तमने] पद और उसका अर्थ [हे कृष्णवर्तमन्] है।


या श॒शाप॒ शप॑नेन॒ याघं मूर॑माद॒धे। या रस॑स्य॒ हर॑णाय जा॒तमा॑रे॒भे तो॒कम॑त्तु॒ सा ॥३॥

(या) जिस [शत्रुसेना] ने (शपनेन) शाप [कुवचन] से (शशाप) कोसा है और (या) जिसने (अघम्) दुःख की (मूरम्) मूल को (आदधे) आकर जमाया है और (या) जिसने (रसस्य) रस के (हरणाय) हरण के लिये (जातम्) [हमारे] समूह को (आरेभे) हाथ लगाया है, (सा) वह [शत्रुसेना] (तोकम्) अपनी बढ़ती वा सन्तान को (अत्तु) खा लेवे।

रणक्षेत्र में जब शत्रुसेना कोलाहल मचाती, धावा मारती और लूट-खसोट करती आगे बढ़ती आवे, तो युद्धकुशल सेनापति शत्रुओं में भेद डाल दे कि वह लोग आपस में लड़ मरैं और अपने सन्तान अर्थात् हितकारियों का ही नाश कर दें।

सायणभाष्य में (आदधे) के स्थान में [आददे] पाठ है।


पु॒त्रम॑त्तु यातुधा॒नीः स्वसा॑रमु॒त न॒प्त्य॑म्। अधा॑ मि॒थो वि॑के॒श्यो॑३ वि घ्न॑तां यातुधा॒न्यो॑३ वि तृ॑ह्यन्तामरा॒य्यः॑ ॥४॥

(यातुधानीः=०-नीः) दुःखदायिनी, [शत्रुसेना] (पुत्रम्) [अपने] पुत्र को, (स्वसारम्) भली-भाँति काम पूरा करनेहारी बहिन को (उत) और (नप्त्यम्=नप्त्रीम्) नातिनी वा धेवती को (अत्तु) खा लेवे अर्थात् नष्ट करे। (अध) और (विकेश्यः) केश बिखेरे हुए वह सब [सेनाएँ] (मिथः) आपस में (विघ्नताम्) मर मिटें और (अराय्यः) दान अर्थात् कर न देनेहारी (यातुधान्यः) दुःख पहुँचानेहारी [शत्रुप्रजाएँ] (वितृह्यन्ताम्) विविध प्रकार के दुःख उठावें।

चतुर सेनापति राजा अपनी बुद्धिबल से दुष्ट शत्रुसेना में हलचल मचा दे कि वह सब घबराकर आपस में कट-मर कर एक दूसरे को सताने लगें और जो प्रजागण हठ दुराग्रह करके, कर आदि न देवें, उनको दण्ड देकर वश में कर लेवे।

तीनों संहिताओं में (यातुधानीः) सविसर्ग पाठ लेखप्रमाद दीखता है। सायणभाष्य में (यातुधानी) विसर्गरहित व्याख्यात है, वह (अत्तु) क्रिया के संबन्ध में ठीक है।

[अथ प्रथम काण्ड - नवविंशतिः सूक्त] 


 २९. राष्ट्र अभिवर्धन सूक्त 


 ऋषि - वसिष्ठः

 देवता - अभीवर्तमणिः, ब्रह्मणस्पतिः


अ॑भीव॒र्तेन॑ म॒णिना॒ येनेन्द्रो॑ अभिवावृ॒धे। तेना॒स्मान्ब्र॑ह्मणस्पते॒ ऽभि रा॒ष्ट्राय॑ वर्धय ॥१॥

(येन) जिस (अभिवर्तेन) विजय करनेवाले, (मणिना) मणि से [प्रशंसनीय सामर्थ्य वा धन से] (इन्द्रः) बड़े ऐश्वर्यवाला पुरुष (अभि) सर्वथा (ववृधे) बढ़ा था। (तेन) उसी से, (ब्रह्मणस्पते) हे वेद वा ब्रह्मा [वेदवेत्ता] के रक्षक परमेश्वर ! (अस्मान्) हम लोगों को (राष्ट्राय) राज्य भोगने के लिये (अभि) सब ओर से (वर्धय) तू बढ़ा।

जिस प्रकार हमसे पहिले मनुष्य उत्तम सामर्थ्य और धन को पाकर महाप्रतापी हुए हैं, वैसे ही उस सर्वशक्तिमान् जगदीश्वर के अनन्त सामर्थ्य और उपकार का विचार करके हम लोग पूर्ण पुरुषार्थ के साथ (मणि) विद्याधन और सुवर्ण आदि धन की प्राप्ति से सर्वदा उन्नति करके राज्य का पालन करें।

मन्त्र १-३, ६ ऋग्वेद मण्डल १० सूक्त १७४। म० १-३ और ५ कुछ भेद से हैं। जैसे (मणिना) के स्थान में [हविषा] पद है, इत्यादि ॥


अ॑भि॒वृत्य॑ स॒पत्ना॑न॒भि या नो॒ अरा॑तयः। अ॒भि पृ॑त॒न्यन्तं॑ तिष्ठा॒भि यो नो॑ दुर॒स्यति॑ ॥२॥

[हे ब्रह्मणस्पते] (सपत्नान्) [हमारे] प्रतिपक्षियों को और (याः) जो (नः) हमारी (अरातयः) कर न देनेहारी प्रजाएँ हैं, [उनको] (अभि) सर्वथा (अभिवृत्य) जीतकर (प्रतन्यन्तम्) सेना चढ़ा कर लानेवाले शत्रु को [और उस पुरुष को] (यः) जो (नः) हमसे (दुरस्यति) दुष्ट आचरण करे, (अभि) सर्वथा (अभि तिष्ठ) तू दबा ले।

राजा परमेश्वर पर श्रद्धा करके अपने स्वदेशी और विदेशी दोनों प्रकार के शत्रुओं को यथायोग्य दण्ड देकर वश में रक्खें।

टिप्पणी−(अरातयः) शब्द का अर्थ ऋ० १०।१७४।२। में सायणाचार्य ने भी अदानशील प्रजा किया है ॥


अ॒भि त्वा॑ दे॒वः स॑वि॒ताभि सोमो॑ अवीवृधत्। अ॒भि त्वा॒ विश्वा॑ भू॒तान्य॑भीव॒र्तो यथास॑सि ॥३॥

[हे परमेश्वर !] (देवः) प्रकाशमय (सविता) लोकों के चलानेहारे, सूर्य्य और (सोमः) अमृत देनेवाले, चन्द्रमा ने (त्वा) तेरी (अभि अभि) सब प्रकार से (अवीवृधत्) बड़ाई की है। और (विश्वा) सब (भूतानि) सृष्टि के पदार्थों ने (त्वा) तेरी (अभि) सब प्रकार [बड़ाई की है,] (यथा) क्योंकि तू (अभिवर्तः) [शत्रुओं का] दबानेवाला (अससि) है।

सूक्ष्म से सूक्ष्म और स्थूल से स्थूल पदार्थों की रचना और उपकार से उस परमेश्वर की महिमा दीख पड़ती है, उसी अन्तर्यामी के दिये हुए आत्मबल से शूरवीर पुरुष रणभूमि में राक्षसों को जीत कर राज्य में शान्ति फैलाते हैं।


अ॑भीव॒र्तो अ॑भिभ॒वः स॑पत्न॒क्षय॑णो म॒णिः। रा॒ष्ट्राय॒ मह्यं॑ बध्यतां स॒पत्ने॑भ्यः परा॒भुवे॑ ॥४॥

(अभिवर्तः) शत्रुओं का जीतनेवाला और (अभिभवः) हरानेवाला और (सपत्नक्षयणः) प्रतिपक्षियों का नाश करनेवाला (मणिः) मणि [प्रशंसनीय सामर्थ्य] रत्न आदि राज्य चिह्न (मह्यम्) मुझपर (राष्ट्राय) राज्य की वृद्धि के लिये और (सपत्नेभ्यः) वैरियों को (पराभुवे) दबाने के लिये (बध्यताम्) बाँधा जावे।

राज्यलक्ष्मी का प्रभाव जताने के लिये राजा मणि रत्न आदि को धारण करके अपना सामर्थ्य बढ़ावे और राजसभा में राजसिंहासन पर विराजे कि जिससे शत्रुदल भयभीत होकर आज्ञाकारी बने रहें और राज्य में ऐश्वर्य की सदा वृद्धि होवे।


उद॒सौ सूर्यो॑ अगा॒दुदि॒दं मा॑म॒कं वचः॑। यथा॒हं श॑त्रु॒हो ऽसा॑न्यसप॒त्नः स॑पत्न॒हा ॥५॥

(असौ) वह (सूर्यः) लोकों का चलानेहारा सूर्य (उत् अगात्) उदय हुआ है और (इदम्) यह (मामकम्) मेरा (वचः) वचन (उत्=उत् अगात्) उदय हुआ है (यथा) जिससे कि (अहम्) मैं (शत्रुहः) शत्रुओं का मारनेवाला और (सपत्नहा) रिषु दल का नाश करनेवाला होकर (असपत्नः) शत्रुरहित (असानि) रहूँ।

राजा राज सिंहासन पर विराज कर राजघोषणा करे कि जिस प्रकार पृथिवी पर सूर्य प्रकाशित है, उसी प्रकार से यह राजघोषणा [ढंढोरा] प्रकाशित की जाती है कि राज्य में कोई उपद्रव न मचावे और न अराजकता फैलावे ।

इस मन्त्र का पूर्वार्ध ऋ० १०।१५९।१। का पूर्वार्ध है, वहाँ (वचः) के स्थान में (भगः) है ॥


स॑पत्न॒क्षय॑णो॒ वृषा॒भिरा॑ष्ट्रो विषास॒हिः। यथा॒हमे॒षां वी॒राणां॑ वि॒राजा॑नि॒ जन॑स्य च ॥६॥

(यथा) जिससे कि (सपत्नक्षयणः) शत्रुओं का नाश करनेवाला (वृषा) ऐश्वर्यवाला (विषासहिः) सदा विजयवाला (अहम्) मैं (अभिराष्ट्रः) राज्य पाकर (एषाम्) इन (वीराणाम्) वीर पुरुषों का (च) और (जनस्य) लोकों का (विराजानि) राजा रहूँ।

राजा सिंहासन पर विराज कर राजघोषणा करते हुए शूरवीर योद्धाओं और विद्वान् जनों का सत्कार और मान करके शासन करे।

[अथ प्रथम काण्ड - त्रिंशत् सूक्त]

३०. दीर्घायु प्राप्ति सूक्त


 ऋषि - अथर्वा

 देवता - विश्वे देवाः


विश्वे॑ देवा॒ वस॑वो॒ रक्ष॑ते॒ममु॒तादि॒त्या जा॑गृ॒त यू॒यम॒स्मिन्। मेमं सना॑भिरु॒त वान्यना॑भि॒र्मेमं प्राप॒त्पौरु॑षेयो व॒धो यः ॥१॥

(वसवः) हे श्रेष्ठ (विश्वे) सब (देवाः) प्रकाशमान महात्माओ ! (इमम्) इस पुरुष की (रक्षत) रक्षा करो, (उत) और (आदित्याः) हे सूर्यसमान तेजवाले विद्वानो ! (यूयम्) तुम (अस्मिन्) इस राजा के विषय में (जागृत) जागते रहो। (सनाभिः) अपने बन्धु का, (उत वा) अथवा (अन्यनाभिः) अबन्धु का, अथवा (पौरुषेयः) किसी और पुरुष का किया हुआ, (यः) जो (वधः) वध का यत्न है [वह] (इमम्) इस (इमम्) इस पुरुष को (मा मा) कभी न (प्रापत्) पहुँच सके।

राजा अपने सुपरीक्षित न्याय, मन्त्री और युद्धमन्त्री आदि कर्मचारी शूरवीरों को राज्य की रक्षा के लिये सदा चेतन्य करता रहे कि कोई सजाती वा स्वदेशी वा विदेशी पुरुष प्रजा में अराजकता न फैलावे।


ये वो॑ देवाः पि॒तरो॒ ये च॑ पु॒त्राः सचे॑तसो मे शृणुते॒दमु॒क्तम्। सर्वे॑भ्यो वः॒ परि॑ ददाम्ये॒तं स्व॒स्त्ये॑नं ज॒रसे॑ वहाथ ॥२॥

(देवाः) हे विजयी देवताओ ! और (ये) जो (वः) तुम्हारे (पितरः) पितृगण (च) और (ये) जो (पुत्राः) पुत्रगण हैं, वह तुम सब (सचेतसः) सावधान हो कर (मे) मेरे (इदम्) इस (उक्तम्) वचन को (शृणुत) सुनो। (सर्वेभ्यः वः) तुम सबको मैं (एतम्) इसे [अपने को] (परि ददामि) सौंपता हूँ (एनम्) इस पुरुष के लिये [मेरे लिये] (स्वस्ति) कल्याण और मङ्गल (जरसे) स्तुति के अर्थ (वहाथ) तुम पहुँचाओ।

जो बुद्धिमान् मनुष्य शास्त्रवित् विजयशील वृद्ध, युवा और ब्रह्मचारियों की सेवा में आत्मसमर्पण करता है, वह पुरुष उन महात्माओं के सत्सङ्ग, उपदेश और सत्कर्मों से लाभ उठाकर संसार में अपनी स्तुति फैलाता है।

टिप्पणी−(जरसे) शब्द का अर्थ “स्तुति के लिये” निघण्टु ३।१४। निरु० १०।८। और सायणभाष्य ऋग्वेद १।२।२। के प्रमाण से किया है। यहाँ पर सायणभाष्य में “जरायै, जराप्राप्तियर्यन्तम्। बुढ़ापे के लिये, बुढ़ापे के आने तक” जो अर्थ है, वह असंगत है, वेद में जीवन को स्वस्थ और स्तुतियोग्य रखने का उपदेश है। देखो−अथर्ववेद, का० ६ सू० १२० म० ३ ॥ 

यत्रा॑ सु॒हार्दः॑ सु॒कृतो॒ मद॑न्ति वि॒हाय॒ रोगं॑ त॒न्वः स्वायाः॑।

अश्लो॑णा॒ अङ्गैरह्रुताः स्व॒र्गे तत्र॑ पश्येम पितरौ च पुत्रान् ॥

जहाँ पर पुण्यात्मा मित्र अपने शरीर का रोग छोड़ कर आनन्द भोगते हैं, वहाँ पर स्वर्ग में बिना लंगड़े हुए और अङ्गों से बिना टेढ़े हुए हम माता-पिता और पुत्रों को देखते रहें।

और देखो यजुर्वेद २५।२१। तथा ऋग्वेद १।८९।८।


भ॒द्रं कर्णेभिः शृणुयाम देवा भ॒द्रं प॑श्येमा॒क्षभि॑र्यजत्राः।

स्थि॒रैरङ्गै॑स्तुष्टुवास॑स्त॒नूभि॒र्व्य॑शेमहि दे॒वहितं यदायुः ॥ 

हे विद्वान् जनो ! कानों से हम शुभ सुनते रहें, हे पूज्य महात्माओ ! आँखों से हम शुभ देखते रहें। दृढ़ अङ्गों और शरीरों से स्तुति करते हुए हम लोग वह जीवन पावें, जो विद्वानों का हितकारक है ॥


ये दे॑वा दि॒वि ष्ठ ये पृ॑थि॒व्यां ये अ॒न्तरि॑क्ष॒ ओष॑धीषु प॒शुष्व॒प्स्व१॒॑न्तः। ते कृ॑णुत ज॒रस॒मायु॑र॒स्मै श॒तम॒न्यान्परि॑ वृणक्तु मृ॒त्यून् ॥३॥

(देवाः) हे विद्वान् महात्माओ ! (ये) जो तुम (दिवि) सूर्यलोक में, (ये) जो (पृथिव्याम्) पृथिवी में, (ये) जो (अन्तरिक्षे) आकाश वा मध्यलोक में, (ओषधिषु) ओषधियों में, (पशुषु) सब जीवों में और (अप्सु) व्यापक सूक्ष्म तन्मात्राओं वा जल में (अन्तः) भीतर (स्थ) वर्तमान हो। (ते) वह तुम (अस्मै) इस पुरुष के लिये (जरसम्) कीर्तियुक्त (आयुः) जीवन (कृणुत) करो, [यह पुरुष] (अन्यान्) दूसरे प्रकार के (शतम्) सौ (मृत्यून्) मृत्युओं को (परि वृणक्तु) हटावे।

जो विद्वान् सूर्यविद्या, भूमिविद्या, वायुविद्या, ओषधि अर्थात् अन्न, वृक्ष, जड़ी-बूटी आदि की विद्या, पशु अर्थात् सब जीवों की पालनविद्या और जलविद्या वा सूक्ष्मतन्मात्राओं की विद्या में निपुण हैं, उनके ससङ्ग और उनके कर्मों के विचार से शिक्षा ग्रहण करके और पदार्थों के गुण, उपकार और सेवन को यथार्थ समझ कर मनुष्य अपना सब जीवन शुभ कर्मों में व्यतीत करें और दुराचरणों में अपने जन्म को न गमाकर सुफल करें।

टिप्पणी−(पशु) शब्द जीववाची है, देखो अथर्व० २।३४।१।


य ईशे॑ पशु॒पतिः॑ पशू॒नां चतु॑ष्पदामु॒त यो द्वि॒पदा॑म्।

जो पशुपति चौपाये और दोपाये पशुओं [अर्थात् जीवों] का राजा है।

(अप्सु) व्यापक सूक्ष्मतन्मात्राओं में। देखो श्रीमद्दयानन्दभाष्य, यजुर्वेद ३७।२५ और २६ ॥


येषां॑ प्रया॒जा उ॒त वा॑नुया॒जा हु॒तभा॑गा अहु॒ताद॑श्च दे॒वाः। येषां॑ वः॒ पञ्च॑ प्र॒दिशो॒ विभ॑क्ता॒स्तान्वो॑ अ॒स्मै स॑त्र॒सदः॑ कृणोमि ॥४॥

(येषाम्) जिन [तुम्हारे] (प्रयाजाः) उत्तम पूजनीय कर्म (उत वा) और (अनुयाजाः) अनुकूल पूजनीय कर्म और (हुतभागाः) देने-लेने के विभाग (च) और (अहुतादः) यज्ञ वा दान से बचे पदार्थों के आहार (देवाः) विजय करनेहारे [वा प्रकाशवाले] हैं और (येषाम् वः) जिन तुम्हारे (पञ्च) विस्तीर्ण [वा पाँच] (प्रदिशः) उत्तम दानक्रियाएँ [वा प्रधान दिशाएँ] (विभक्ताः) अनेक प्रकार बटी हुयी हैं (तान् वः) उन तुमको (अस्मै) इस [पुरुष] के हित के लिये [अपने लिये] (सत्रसदः) सभासद् (कृणोमि) बनाता हूँ।

जो धर्मात्मा विद्वान् पुरुष स्वार्थ छोड़ कर दान करते हों और सब संसार के हित में दत्तचित्त हों, राजा उन महात्माओं को चुन कर अपनी राजसभा का सभासद् बनावे.


यज्ञशेष के भोजन के विषय में भगवान् श्रीकृष्ण महाराज ने कहा है। भगवद्गीता अ० ४ श्लोक ३१ ॥


यज्ञशिष्टामृतभुजो यान्ति ब्रह्म सनातनम्। 

नायं लोकोऽस्त्ययज्ञस्य कुतोऽन्यः कुरुसत्तम ॥१॥

यह [दान वा देवपूजा] से बचे अमृत का भोजन करनेवाले पुरुष सनातन ब्रह्म को पाते हैं। यज्ञ न करनेवाले का यह लोक नहीं है, हे कौरवों में श्रेष्ठ ! फिर उसका परलोक कहाँ से हो ॥

[अथ प्रथम काण्ड - एकत्रिंशत् सूक्त]

३१. पाशविमोचन सूक्त


 ऋषि - ब्रह्मा

 देवता - आशापाला वास्तोष्पतयः


आशा॑नामाशापा॒लेभ्य॑श्च॒तुर्भ्यो॑ अ॒मृते॑भ्यः। इ॒दं भू॒तस्याध्य॑क्षेभ्यो वि॒धेम॑ ह॒विषा॑ व॒यम् ॥१॥

(इदम्) इस समय (वयम्) हम (आशानाम्) सब दिशाओं के मध्य (आशापालेभ्यः) आशाओं के पालनेहारे, (चतुर्भ्यः) प्रार्थना के योग्य [अथवा, चार धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष] (अमृतेभ्यः) अमर रूपवाले, (भूतस्य) संसार के (अध्यक्षेभ्यः) प्रधानों की (हविषा) भक्ति से (विधेम) सेवा करें।

सब मनुष्यों को उत्तम गुणवाले पुरुषों अथवा चतुर्वर्ग, धर्म, अर्थ, काम [ईश्वर में प्रेम] और मोक्ष की प्राप्ति के लिये सदा पूर्ण पुरुषार्थ करना चाहिये। इनके ही पाने से मनुष्य की सब आशाएँ वा कामनाएँ पूर्ण होती हैं।


य आशा॑नामाशापा॒लाश्च॒त्वार॒ स्थन॑ देवाः। ते नो॒ निरृ॑त्याः॒ पाशे॑भ्यो मु॒ञ्चतांह॑सोअंहसः ॥२॥

(देवाः) हे प्रकाशमय देवताओ ! (ये) जो तुम (आशानाम्) सब दिशाओं के मध्य (चत्वारः) प्रार्थना के योग्य [अथवा चार] (आशापालाः) आशाओं के रक्षक (स्थन) वर्तमान हो, (ते) वे तुम (नः) हमें (निर्ऋत्याः) अलक्ष्मी वा महामारी के (पाशेभ्यः) फंदों से और (अंहसो−अंहसः) प्रत्येक पाप से (मुञ्चत) छुड़ाओ।

मनुष्यों को प्रयत्नपूर्वक सब उत्तम पदार्थों [अथवा चारों पदार्थ, धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष] को प्राप्त करके सब क्लेशों का नाश करना चाहिये।


अस्रा॑मस्त्वा ह॒विषा॑ यजा॒म्यश्लो॑णस्त्वा घृ॒तेन॑ जुहोमि। य आशा॑नामाशापा॒लस्तु॒रीयो॑ दे॒वः स नः॑ सुभू॒तमे॒ह व॑क्षत् ॥३॥

[हे परमेश्वर!] (अस्त्रामः) श्रमरहित मैं (त्वा) तुझको (हविषा) भक्ति से (यजामि) पूजता हूँ, (अश्लोणः) लंगड़ा न होता हुआ मैं (त्वा) तुझको (घृतेन) [ज्ञान के] प्रकाश से [अथवा घृत से] (जुहोमि) स्वीकार करता हूँ। (यः) जो (आशानाम्) सब दिशाओं में (आशापालः) आशाओं को पालन करनेवाला, (तुरीयः) बड़ा वेगवान् परमेश्वर [अथवा, चौथा मोक्ष] (देवः) प्रकाशमय है, (सः) वह (नः) हमारे लिये (इह) यहाँ पर (सुभूतम्) उत्तम ऐश्वर्य (आ+वक्षत्) पहुँचावे।

जो मनुष्य निरालस्य होकर परमेश्वर की आज्ञा का पालन करते हैं अथवा जो घृत से अग्नि के समान प्रतापी होते हैं, वे शीघ्र ही जगदीश्वर का दर्शन करके [अथवा धर्म, अर्थ और काम की सिद्धि से पाये हुए चौथे मोक्ष के लाभ से] महासमर्थ हो जाते हैं। 

सायणभाष्य में (अस्त्रामः) के स्थान में [अश्रामः] और (अश्लोणः) के स्थान में [अश्रोणः] हैं, वे अधिक शुद्ध जान पड़ते हैं ॥


स्व॒स्ति मा॒त्र उ॒त पि॒त्रे नो॑ अस्तु स्व॒स्ति गोभ्यो॒ जग॑ते॒ पुरु॑षेभ्यः। विश्व॑म्सुभू॒तम्सु॑वि॒दत्रं॑ नो अस्तु॒ ज्योगे॒व दृ॑शेम॒ सूर्य॑म् ॥४॥

(नः) हमारी (मात्रे) माता के लिये (उत) और (पित्रे) पिता के लिये (स्वस्ति) आनन्द (अस्तु) होवे और (गोभ्यः) गौओं के लिये (पुरुषेभ्यः) पुरुषों के लिये और (जगते) जगत् के लिये (स्वस्ति) आनन्द होवे। (विश्वम्) संपूर्ण (सुभूतम्) उत्तम ऐश्वर्य और (सुविदत्रम्) उत्तम ज्ञान वा कुल (नः) हमारे लिये (अस्तु) हो, (ज्योक्) बहुत काल तक (सूर्यम्) सूर्य को (एव) ही (दृशेम) हम देखते रहें।

जो मनुष्य माता-पिता आदि अपने कुटुम्बियों और अन्य माननीय पुरुषों और गौ आदि पशुओं से लेकर सब जीवों और संसार के साथ उपकार करते हैं, वे पुरुषार्थी सब प्रकार का उत्तम धन, उत्तम ज्ञान और उत्तम कुल पाते और वही सूर्य जैसे प्रकाशमान होकर दीर्घ आयु अर्थात् बड़े नाम को भोगते हैं।

[अथ प्रथम काण्ड - द्वात्रिंशत् सूक्त]

 ३२. महद्ब्रह्मा सूक्त 


 ऋषि - ब्रह्मा

 देवता - द्यावापृथिवी


इ॒दं ज॒नासो॑ वि॒दथ॑ म॒हद्ब्रह्म॑ वदिष्यति। न तत्पृ॑थि॒व्यां नो॑ दि॒वि येन॑ प्रा॒णन्ति॑ वी॒रुधः॑ ॥१॥

(जनासः) हे मनुष्यो ! (इदम्) इस बात को (विदथ) तुम जानते हो, वह [ब्रह्मज्ञानी] (महत्) पूजनीय (ब्रह्म) परम ब्रह्म का (वदिष्यति) कथन करेगा। (तत्) वह ब्रह्म (न) न तो (पृथिव्याम्) पृथिवी में (नो) और न (दिवि) सूर्य्यलोक में है (येन) जिसके सहारे से (वीरुधः) यह उगती हुयी जड़ी-बूटी [लतारूप सृष्टि के पदार्थ] (प्राणन्ति) श्वास लेती हैं।

यद्यपि वह सर्वव्यापी, सर्वशक्तिमान् परब्रह्म भूमि वा सूर्य्य आदि किसी विशेष स्थान में वर्तमान नहीं है, तो भी वह अपनी सत्ता मात्र से ओषधि अन्न आदि सब सृष्टि का नियमपूर्वक प्राणदाता है। ब्रह्मज्ञानी लोग उस ब्रह्म का उपदेश करते हैं। 


केनोपनिषत् में वर्णन है, खण्ड १ मन्त्र ३।

न तत्र चक्षुर्गगच्छति न वाग् गच्छति नो मनो न विद्मो न विजानीमो यथैतदनुशिष्यादन्यदेव तद्विदितादथो अविदितादधि। इति शुश्रुम पूर्वेषां ये नस्तद् व्याचचक्षिरे .


न वहाँ आँख जाती है, न वाणी जाती है, न मन, हम न जानते हैं न पहिचानते हैं, कैसे वह इस जगत् का अनुशासन करता है। वह जाने हुए से भिन्न है और न जाने हुए से ऊपर है। ऐसा हमने पूर्वजों से सुना है, जिन्होंने हमें उसकी शिक्षा दी थी ॥


और भी केनोपनिषत् का वचन है, अ० १ म० ८ ॥


यत् प्राणे न प्राणिति येन प्राणः प्रणीयते।

तदेव ब्रह्म त्वं विद्धि नेदं यदिदमुपासते ॥२॥

जो प्राण द्वारा नहीं श्वास लेता है। जिस करके प्राण चलाया जाता है, उसको ही तू ब्रह्म जान, यह वह नहीं है जिसके पास वे बैठते हैं।


अ॒न्तरि॑क्ष आसां॒ स्थाम॑ श्रान्त॒सदा॑मिव। आ॒स्थान॑म॒स्य भू॒तस्य॑ वि॒दुष्टद्वे॒धसो॒ न वा॑ ॥२॥

(अन्तरिक्षे) सबके भीतर दिखाई देनेहारे आकाशरूप परमेश्वर में (आसाम्) इनका [लतारूप सृष्टियों का] (स्थाम) ठहराव है (श्रान्तसदाम् इव) जैसे थक कर बैठे हुए यात्रियों का पड़ाव। (वेधसः) बुद्धिमान् लोग (तत्) उस ब्रह्म को (अस्य भूतस्य) इस संसार का (आस्थानम्) आश्रय (विदुः) जानते हैं, (वा) अथवा (न) नहीं [जानते हैं]

सूर्य आदि असंख्य लोक उसी परमब्रह्म में ठहरे हैं, वही समस्त जगत् का केन्द्र है। इस बात को विद्वान् लोग विधि और निषेधरूप विचार से निश्चित करते हैं, जैसे ब्रह्म जड़ नहीं है, किन्तु चैतन्य है, इत्यादि, अथवा जितना अधिक ब्रह्मज्ञान होता जाता है, उतना ही वह अनन्त, ब्रह्म अगम्य और अति अधिक जान पड़ता है, इससे वह ब्रह्मज्ञानी अपने को अज्ञानी समझते हैं।


यद्रोद॑सी॒ रेज॑माने॒ भूमि॑श्च नि॒रत॑क्षतम्। आ॒र्द्रं तद॒द्य स॑र्व॒दा स॑मु॒द्रस्ये॑व स्रो॒त्याः ॥३॥

(रोदसी=सि) हे सूर्य (च) और (भूमिः) भूमि। (रेजमाने) काँपते हुए तुम दोनों ने (यत्) जिस [रस] को (निरतक्षम्) उत्पन्न किया है, (तत्) वह (आर्द्रम्) रस (अद्य) आज (सर्वदा) सदा से (समुद्रस्य) सींचनेवाले समुद्र के (स्रोत्याः) प्रवाहों के (इव) समान वर्तमान है।

जिस रस वा उत्पादनशक्ति को, परमेश्वर ने सूर्य और भूमि को (कम्पमान) वश में रख के, सृष्टि के आदि में उत्पन्न किया था वह शक्ति मेघ आदि रस रूप से सदा संसार में सृष्टि की उत्पत्ति और स्थिति का कारण है।

टिप्पणी−सायणभाष्य में (रोदसी इति) यह पदपाठ और उसका अर्थ [हे द्यावापृथिव्यौ] हे सूर्य और भूमि अशुद्ध है। यहाँ (रोदसी) एकवचन और केवल सूर्यवाची है क्योंकि (भूमिः च) [और भूमि] यह पद मन्त्र में वर्तमान हैं। फिर (भूमिः च) का भी अर्थ [भूमि और द्युलोक] उक्त भाष्य में है।


विश्व॑म॒न्याम॑भी॒वार॒ तद॒न्यस्या॒मधि॑ श्रि॒तम्। दि॒वे च॑ वि॒श्ववे॑दसे पृथि॒व्यै चा॑करं॒ नमः॑ ॥४॥

(विश्वम्) उस सर्वव्यापक [रस] ने (अन्याम्) एक [सूर्य्य वा भूमि] को (अभि) चारों ओर से [वार=ववार] घेर लिया, (तत्) वही [रस] (अन्यस्याम्) दूसरी में (अधिश्रितम्) आश्रित हुआ। (च) और (दिवे) सूर्यरूप वा आकाशरूप (च) और (पृथिव्यै) पृथिवीरूप (विश्ववेदसे) सबके जाननेवाले [वा सब धनों के रखनेवाले, वा सबमें विद्यमान ब्रह्म] को (नमः) नमस्कार (अकरम्) मैंने किया है।

सृष्टि का कारण रस अर्थात् जल, सूर्य की किरणों से आकाश में जाकर फिर पृथिवी में प्रविष्ट होता, वही फिर पृथिवी से आकाश में जाता और पृथिवी पर आता है। इस प्रकार उन दोनों का परस्पर आकर्षण, जगत् को उपकारी होता है। विद्वान् लोग इसी प्रकार जगदीश्वर की अनन्त शक्तियों को विचार कर सत्कारपूर्वक उपकार लेकर आनन्द भोगते हैं।


यजुर्वेद म० ३। अ० ५। में इस प्रकार वर्णन है-

भूर्भुवः॒ स्वर्द्यौरि॑व भू॒म्ना पृ॑थि॒वीव वरि॒म्णा ॥


सबका आधार, सबमें व्यापक, सुखस्वरूप परमेश्वर बहुत्व के कारण [सब लोकों के धारण करने से] आकाश के समान और अपने फैलाव से पृथिवी के समान है ॥

[अथ प्रथम काण्ड - त्रयस्त्रिंशत् सूक्त]

३३. आपः सूक्त


 ऋषि - शन्तातिः

 देवता - चन्द्रमाः, आपः


हिर॑ण्यवर्णाः॒ शुच॑यः पाव॒का यासु॑ जा॒तः स॑वि॒ता यास्व॒ग्निः। या अ॒ग्निं गर्भं॑ दधि॒रे सु॒वर्णा॒स्ता न॒ आपः॒ शं स्यो॒ना भ॑वन्तु ॥१॥

[जो] (हिरण्यवर्णाः) व्यापनशील वा कमनीय रूपवाली (शुचयः) निर्मल स्वभाववाली और (पावकाः) शुद्धि की जतानेवाली हैं, (यासु) जिनमें (सविता) चलाने वा उत्पन्न करनेहारा सूर्य और (यासु) जिनमें (अग्निः) [पार्थिव] अग्नि (जातः) उत्पन्न हुई। (याः) जिन (सुवर्णाः) सुन्दर रूपवाली (आपः) तन्मात्राओं ने (अग्निम्) [बिजुलीरूप] अग्नि को (गर्भम्) गर्भ के समान (दधिरे) धारण किया था, (ताः) वे [तन्मात्राएँ] (नः) हमारे लिये (शम्) शुभ करनेहारी और (स्योनाः) सुख देनेवाली (भवन्तु) होवें।

जैसे परमात्मा ने कामना के और खोजने के योग्य तन्मात्राओं के संयोग-वियोग से अग्नि, सूर्य और बिजुली, इन तीन तेजधारी पदार्थ आदि सब संसार को उत्पन्न किया है, उसी प्रकार मनुष्यों को शुभ गुणों के ग्रहण और दुर्गुणों के त्याग से आपस में उपकारी होना चाहिये।

१−(आपः)=व्यापक तन्मात्राएँ−श्रीमद्दयानन्दभाष्य, यजुर्वेद २७।२५ ॥

२−(आपः) के विषय में सूक्त ४, ५ और ६ सूक्त ४ में मनु महाराज का श्लोक भी देखें ॥


यासां॒ राजा॒ वरु॑णो॒ याति॒ मध्ये॑ सत्यानृ॒ते अ॑व॒पश्य॒ञ्जना॑नाम्। या अ॒ग्निं गर्भं॑ दधि॒रे सु॒वर्णा॒स्ता न॒ आपः॒ शं स्यो॒ना भ॑वन्तु ॥२॥

(यासाम्) जिन तन्मात्राओं के (मध्ये) बीच में (वरुणः) सर्वश्रेष्ठ (राजा) राजा परमेश्वर (जनानाम्) सब जन्मवाले जीवों के (सत्यानृते) सत्य और असत्य को (अवपश्यन्) देखता हुआ (याति) चलता है। (याः) जिन (सुवर्णाः) सुन्दर रूपवाली (आपः) तन्मात्राओं ने (अग्निम्) बिजुलीरूप अग्नि को (गर्भम्) गर्भ के समान (दधिरे) धारण किया था, (ताः) वे [तन्मात्राएँ] (नः) हमारे लिये (शम्) शुभ करनेहारी और (स्योनाः) सुख देनेवाली (भवन्तु) होवें।

इन तन्मात्राओं का नियन्ता अर्थात् संयोजक और वियोजक (वरुण राजा) परमेश्वर है, वही सब जीवों के पुण्य-पाप को देखकर यथावत् फल देता है। इनके गुणों से उपकार लेकर मनुष्यों को सुख भोगना चाहिये।


यासां॑ दे॒वा दि॒वि कृ॒ण्वन्ति॑ भ॒क्षं या अ॒न्तरि॑क्षे बहु॒धा भ॑वन्ति। या अ॒ग्निं गर्भं॑ दधि॒रे सु॒वर्णा॒स्ता न॒ आपः॒ शं स्यो॒ना भ॑वन्तु ॥३॥

(देवाः) सब प्रकाशमय पदार्थ (दिवि) व्यवहार के योग्य आकाश में (यासाम्) जिनका (भक्षम्) भोजन (कृण्वन्ति) करते हैं और (याः) जो [तन्मात्राएँ] (अन्तरिक्षे) सबके मध्यवर्ती आकर्षण में (बहुधा) अनेक रूपों से (भवन्ति) वर्त्तमान हैं और (याः) जिन (सुवर्णाः) सुन्दर रूपवाली (आपः) तन्मात्राओं ने (अग्निम्) [बिजुली] रूप अग्नि को (गर्भम्) गर्भ के समान (दधिरे) धारण किया था, (ताः) वो [तन्मात्राएँ] (नः) हमारे लिये (शम्) शुभ करनेहारी और (स्योनाः) सुख देनेवाली (भवन्तु) होवें।

अपरिमित तन्मात्राएँ ईश्वरकृत परस्पर आकर्षण से संसार के (देवाः) सूर्य, अग्नि, वायु आदि सब पदार्थों के धारण और पोषण का कारण हैं। (देवाः) विद्वान् लोग इनके सूक्ष्म विचार से संसार में अनेक उपकार करके सुख पाते हैं।


शि॒वेन॑ मा॒ चक्षु॑षा पश्यतापः शि॒वया॑ त॒न्वोप॑ स्पृशत॒ त्वचं॑ मे। घृ॑त॒श्चुतः॒ शुच॑यो॒ याः पा॑व॒कास्ता न॒ आपः॒ शं स्यो॒ना भ॑वन्तु ॥४॥

(आपः) हे तन्मात्राओ! (शिवेन) सुखप्रद (चक्षुषा) नेत्र से (मा) मुझको (पश्यत) तुम देखो, (शिवया) अपने सुखप्रद (तन्वा) रूप से (मे) मेरे (त्वचम्) शरीर को (उपस्पृशत) तुम स्पर्श करो। (याः) जो (आपः) तन्मात्राएँ (घृतश्चुतः) अमृत बरसानेवाली, (शुचयः) निर्मल स्वभाव और (पावकाः) शुद्धि जतानेवाली हैं, (ताः) वे [तन्मात्राएँ] (नः) हमारे लिये (शम्) शुभ करनेहारी और (स्योनाः) सुख देनेवाली (भवन्तु) होवें।

(आपः) तन्मात्राएँ मुझे नेत्र से देखें, अर्थात् पूर्ण ज्ञान हमें प्राप्त हो और उससे हमारे शरीर और आत्मा स्वस्थ रहें। अथवा, (आपः) शब्द से तन्मात्राओं के ज्ञाता और वशयिता परमेश्वर वा विद्वान् पुरुष का ग्रहण है। जो मनुष्य सृष्टि के विज्ञान से शरीर का स्वास्थ्य और आत्मा की उन्नति करके उपकारी होते हैं, उनके लिये परमेश्वर की कृपा से सदा अमृत अर्थात् स्थिर सुख बरसता है।

[अथ प्रथम काण्ड - चतुस्त्रिंशत् सूक्त]

 ३४. मधु विद्या 


 ऋषि - अथर्वा

 देवता - मधुवनस्पतिः


इ॒यं वी॒रुन्मधु॑जाता॒ मधु॑ना त्वा खनामसि। मधो॒रधि॒ प्रजा॑तासि॒ सा नो॒ मधु॑मतस्कृधि ॥१॥

 ॥ पहला अर्थ ॥ 

(इयम्) यह तू (वीरुत्) बढ़ती हुई [विद्या] (मधुजाता) ज्ञान से उत्पन्न हुई है, (मधुना) ज्ञान के साथ (त्वा) तुझको (खनामसि) हम खोदते हैं। (मधोः अधि) विद्या से (प्रजाता असि) तू जन्मी है (सा) सो तू (नः) हमको (मधुमतः) उत्तम विद्यावाले (कृधि) कर।


 ॥ दूसरा अर्थ ॥ 

 (इयम् वीरुत्) यह तू फैलती हुई बेल (मधुजाता) मधु (शहद) से उत्पन्न हुई है (मधुना) मधु के साथ (त्वा) तुझको (खनामसि) हम खोदते हैं। (मधोः अधि) वसन्त ऋतु से (प्रजाता असि) तू जन्मी है, (सा) सो तू (नः) हमको (मधुमतः) मधु रसवाले (कृधि) कर। 


 ॥ पहला भावार्थ ॥ 

मधु शब्द [मन जानना−उ, न=ध] का अर्थ ज्ञान है। धात्वर्थ के अनुसार यह आशय है कि शिक्षा के ग्रहण, अभ्यास, अन्वेषण और परीक्षण से मनुष्य को उत्तम सुखदायक विद्या मिलती है।


 ॥ दूसरा भावार्थ ॥ 

मधु शब्द उसी धातु [मन जानना] से सिद्ध होकर [शहद] के रस का वाचक है। इस अर्थ में विद्या को मधुलता अर्थात् शहद की बेल वा प्रेमलता माना है। (मधु) शहद वसन्त ऋतु में अनेक पुष्पों के रस से मधुमक्षिकाओं द्वारा मिलता है, इसी प्रकार (मधुना) प्रेमरस के साथ (खोदने) अर्थात् अन्वेषण और परीक्षण से विद्वान् लोग अनेक विद्वानों से विद्यारूप मधु को पाकर (मधु) आनन्दरस का भोग करते हैं।


जि॒ह्वाया॒ अग्रे॒ मधु॑ मे जिह्वामू॒ले म॒धूल॑कम्। ममेदह॒ क्रता॒वसो॒ मम॑ चि॒त्तमु॒पाय॑सि ॥२॥

(मे) मेरी (जिह्वायाः) रस जीतनेवाली, जिह्वा के (अग्रे) सिरे पर (मधु) ज्ञान [वा मधु का रस] होवे और (जिह्वामूले) जिह्वा के मूल में (मधूलकम्) ज्ञान का लाभ [वा मधु का स्वाद] होवे। (मम) मेरे (क्रतौ) कर्म वा बुद्धि में (इत्) ही (अह) अवश्य (असः) तू रह, (मम चित्तम्) मेरे चित्त में (उपायसि) तू पहुँच करती है।

जब मनुष्य विद्या को रटन, मनन और परीक्षण से प्रेमपूर्वक प्राप्त करते हैं, तब विद्या उनके हृदय में घर करके सुख का वरदान देती है।


मधु॑मन्मे नि॒क्रम॑णं॒ मधु॑मन्मे प॒राय॑णम्। वा॒चा व॑दामि॒ मधु॑मद्भू॒यासं॒ मधु॑संदृशः ॥३॥

(मे) मेरा (निक्रमणम्) पास आना (मधुमत्) बहुत ज्ञानवाला वा रस में भरा हुआ और (मे) मेरा (परायणम्) बाहिर जाना (मधुमत्) बहुत ज्ञानवाला वा रस में भरा हुआ होवे। (वाचा) वाणी से मैं (मधुमत्) बहुत ज्ञानवाला वा रसयुक्त (वदामि) बोलूँ और मैं (मधुसन्दृशः) ज्ञान रूपवाला वा मधुर रूपवाला (भूयासम्) रहूँ।

जो मनुष्य घर, सभा, राजद्वार, देश, परदेश आदि में आने, जाने, निरीक्षण, परीक्षण, अभ्यास आदि समस्त चेष्टाओं और वाणी से बोलने अर्थात् शुभ गुणों के ग्रहण और उपदेश करने में (मधुमान्) ज्ञानवान् वा रस से भरे अर्थात् प्रेम में मग्न होते हैं, वही महात्मा (मधुसन्दृश) रसीले रूपवाले अर्थात् संसार भर में शुभकर्मी होकर उपकार करते हैं।


मधो॑रस्मि॒ मधु॑तरो म॒दुघा॒न्मधु॑मत्तरः। मामित्किल॒ त्वं वनाः॒ शाखां॒ मधु॑मतीमिव ॥४॥

(मधोः) मधुर रस से मैं (मधुतरः) अधिक मधुर (अस्मि) होऊँ, (मदुघात्) लड्डू [वा मुलहटी ओषधि] से भी (मधुमत्तरः) अधिक मधुर रसवाला होऊँ। (त्वम्) तू (माम् इत्) मुझसे ही (किल) निश्चय करके (वनाः) प्रेम कर, (इव) जैसे (मधुमतीम्) मधुर रसवाली (शाखाम्) शाखा से [अनुराग करते हैं]

विद्या का रस सांसारिक स्वादिष्ठ मिष्टान्न आदि रोचक पदार्थों से बहुत ही रसीला अर्थात् अधिक लाभदायक और उपकारी होता है। जैसे-जैसे ब्रह्मचारी यत्नपूर्वक विद्या की लालसा करता है, वैसे ही वैसे विद्या देवी भी उससे अनुराग करती है।

मनु महाराज ने कहा है−अ० ४ श्लोक २० ॥


 यथा यथा हि पुरुषः शास्त्रं समधिगच्छति।

तथा तथा विजानाति विज्ञानं चास्य रोचते ॥१॥ 

जैसे-जैसे ही पुरुष शास्त्र को पढ़ता जाता है, वैसे ही वैसे वह अधिक विद्वान् होता जाता है और विज्ञान में उसकी रुचि होती है ॥


परि॑ त्वा परित॒त्नुने॒क्षुणा॑गा॒मवि॑द्विषे। यथा॒ मां का॒मिन्यसो॒ यथा॒ मन्नाप॑गा॒ असः॑ ॥५॥

(परितत्नुना) बहुत फैली हुई (इक्षुणा) लालसा के साथ [अथवा, ऊख जैसी मधुरता के साथ] (अविद्विषे) वैर छोड़ने के लिये (त्वा) तुझको (परि) सब ओर से (अगाम्) मैंने पाया है। (यथा) जिससे तू (माम् कामिनी) मेरी कामना करनेवाली (असः) होवे और (यथा) जिससे तू (मत्) मुझसे (अपगाः) बिछुड़नेवाली (न) न (असः) होवे।

जब ब्रह्मचारी पूर्ण अभिलाषा से विद्या के लिये प्रयत्न करता है, तो कठिन से कठिन भी विद्या उसको अवश्य मिलती और अभीष्ट आनन्द देती है।

[अथ प्रथम काण्ड - पञ्चत्रिंशत् सूक्त]

३५. दीर्घायु प्राप्ति सूक्त


 ऋषि - अथर्वा 

 देवता - हिरण्यम्, इन्द्राग्नी, विश्वे देवाः


यदाब॑ध्नन्दाक्षाय॒णा हिर॑ण्यं श॒तानी॑काय सुमन॒स्यमा॑नाः। तत्ते॑ बध्ना॒म्यायु॑षे॒ वर्च॑से॒ बला॑य दीर्घायु॒त्वाय॑ श॒तशा॑रदाय ॥१॥

(यत्) जिस (हिरण्यम्) कामनायोग्य विज्ञान वा सुवर्णादि को (दाक्षायणाः) बल की गति रखनेवाले, परम उत्साही (सुमनस्यमानाः) शुभचिन्तकों ने (शतानीकाय) सौ सेनाओं के लिये (अबध्नन्) बाँधा है। (तत्) उसको (आयुषे) लाभ के लिये, (वर्चसे) यश के लिये, (बलाय) बल के लिये और (शतशारदाय) सौ शरद् ऋतुओंवाले (दीर्घायुत्वाय) चिरकाल जीवन के लिये (ते) तेरे (बध्नामि) मैं बाँधता हूँ।

जिस प्रकार कामनायोग्य उत्तम विज्ञान और धन आदि से दूरदर्शी, शुभचिन्तक, शूरवीर विद्वान् लोग बहुत सेना लेकर रक्षा करते हैं, उसी प्रकार सब मनुष्य विज्ञान और धन की प्राप्ति से संसार में कीर्त्ति और सामर्थ्य बढ़ावें और अपना जीवन सुफल करें।

यह मन्त्र कुछ भेद से यजुर्वेद में है। अ० ३४ म० ५२ ॥


नैनं॒ रक्षां॑सि॒ न पि॑शा॒चाः स॑हन्ते दे॒वाना॒मोजः॑ प्रथम॒जं ह्ये॒तत्। यो बिभ॑र्ति दाक्षाय॒णं हिर॑ण्यं॒ स जी॒वेषु॑ कृणुते दी॒र्घमायुः॑ ॥२॥

(न) न तो (रक्षांसि) हिंसा करनेहारे राक्षस और (न) न (पिशाचाः) मांसाहारी पिशाच (एनम्) इस पुरुष को (सहन्ते) दबा सकते हैं, (हि) क्योंकि (एतत्) यह [विज्ञान वा सुवर्ण] (देवानाम्) विद्वानों का (प्रथमजम्) प्रथम उत्पन्न (ओजः) सामर्थ्य है। (यः) जो पुरुष (दाक्षायणम्) बल की गति बढ़ानेवाले (हिरण्यम्) कमनीय तेजःस्वरूप विज्ञान वा सुवर्ण को (बिभर्ति) धारण करता है, (सः) वह (जीवेषु) सब जीवों में (आयुः) अपनी आयु को (दीर्घम्) दीर्घ (कृणुते) करता है।

जो पुरुष (प्रथमजम्) प्रथम अवस्था में गुणी माता, पिता और आचार्य से ब्रह्मचर्यसेवन करके शिक्षा पाते हैं, वह उत्साही जन सब विघ्नों को हटा कर दुष्ट हिंसकों के फंदे में नहीं फँसते हैं और वही सत्कर्मी पुरुष विज्ञान और सुवर्ण आदि धन को प्राप्त करके संसार में यश पाते हैं, इसी का नाम दीर्घ आयु करना है।

यह मन्त्र कुछ भेद से यजुर्वेद में है, अ० ३४ म० ५१ ॥


अ॒पां तेजो॒ ज्योति॒रोजो॒ बलं॑ च॒ वन॒स्पती॑नामु॒त वी॒र्या॑णि। इन्द्र॑ इवेन्द्रि॒याण्यधि॑ धारयामो अ॒स्मिन्तद्दक्ष॑माणो बिभर॒द्धिर॑ण्यम् ॥३॥

(अपाम्) प्राणों वा प्रजाओं के (तेजः) तेज, (ज्योतिः) कान्ति, (ओजः) पराक्रम (च) और (बलम्) बल को (उत) और भी (वनस्पतीनाम्) सेवनीय गुणों के रक्षक विद्वानों की (वीर्याणि) शक्तियों को (अस्मिन् अधि) इस [पुरुष] में (धारयामः) हम धारण करते हैं, (इव) जैसे (इन्द्रे) बड़े ऐश्वर्यवाले पुरुष में (इन्द्रियाणि) इन्द्र के चिह्न, [बड़े-बड़े ऐश्वर्य] होते हैं। [इस लिये] (दक्षमाणः) वृद्धि करता हुआ यह पुरुष (तत्) उस (हिरण्यम्) कमनीय विज्ञान वा सुवर्ण आदि को (बिभ्रत्) धारण करे।

विद्वानों के सत्सङ्ग से महाप्रतापी, विक्रमी, तेजस्वी, गुणी पुरुष वृद्धि करके विज्ञान और धनसंचय करे और सामर्थ्य बढ़ावे।


समा॑नां मा॒सामृ॒तुभि॑ष्ट्वा व॒यं सं॑वत्स॒रस्य॒ पय॑सा पिपर्मि। इ॑न्द्रा॒ग्नी विश्वे॑ दे॒वास्ते ऽनु॑ मन्यन्ता॒महृ॑णीयमानाः ॥४॥

(वयम्) हम लोग (त्वा) तुझको [आत्मा को] (समानाम्) अनुकूल (मासाम्) महीनों की (ऋतुभिः) ऋतुओं से और (संवत्सरस्य) वर्ष के (पयसा) दुग्ध वा रस से (पिपर्मि=पिपर्मः) पूर्ण करते हैं। (इन्द्राग्नी) वायु और अग्नि [वायु और अग्नि के समान गुणवाले] (ते) वह (विश्वे देवाः) सब दिव्य गुणयुक्त पुरुष (अहृणीयमानाः) संकोच न करते हुए (अनु मन्यन्ताम्) [हम पर] अनुकूल रहें।

जो मनुष्य महीनों, ऋतुओं और वर्षों का अनुकूल विभाग करते हैं, वह वर्ष भर की उपज, अन्न, दूध, फल, पुष्प आदि से पुष्ट रहते हैं और वायु के समान वेगवाले और अग्नि के समान तेजस्वी विद्वान् महात्मा उस पुरुषार्थी मनुष्य के सदा शुभचिन्तक होते हैं।


इति षष्ठोऽनुवाकः ॥


इति प्रथमं काण्डम् ॥


 इति श्रीमद्राजाधिराजप्रथितमहागुणमहिमश्रीसयाजीरावगायकवाडाधिष्ठितबडोदेपुरीगतश्रावणमासदक्षिणापरीक्षायाम्

ऋक्सामाथर्ववेदभाष्येषु लब्धदक्षिणेन श्रीपण्डितक्षेमकरणदासत्रिवेदिना

कृते अथर्ववेदभाष्ये प्रथमं काण्डं समाप्तम् ॥ 

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