ईश्वर का स्वरुप - ধর্ম্মতত্ত্ব

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24 February, 2018

ईश्वर का स्वरुप

अजो न क्षां दाधार पृथिवीं तस्तम्भ द्यां मन्त्रेभिः सत्यैः।
प्रिया पदानि पश्वो निपाहि विश्वायुरग्ने गुहा गुहं गाः ।।--(ऋ० १/६७/३)
अर्थ:-जैसे अज अर्थात् न जन्म लेने वाला अजन्मा परमेश्वर न टूटने वाले विचारों से पृथिवी को धारण करता है,विस्तृत अन्तरिक्ष तथा द्यौलोक को रोके हुए है,प्रीतिकारक पदार्थों को देता है,सम्पूर्ण आयु देने वाला,बंधन से सर्वथा छुड़ाता है,बुद्धि में स्थित हुआ वह गोप्य पदार्थ को जानता है,वैसे तू भी हे विद्वान जीव!हमें प्राप्तव्य की प्राप्ति करा।

प्रजापतिश्चरति गर्भे अन्तरजायमानो बहुधा विजायते ।
तस्य योनि परिपश्यन्ति धीरास्तस्मिन् ह तस्थुर्भुवनानि विश्वा ।।-(यजु० ३१/१९)
अर्थ:-अपने स्वरुप से उत्पन्न न होने वाला अजन्मा परमेश्वर,गर्भस्थ जीवात्मा और सबके ह्रदय में विचरता है और उसके स्वरुप को धीर लोग सब और देखते हैं।उसमें सब लोक लोकान्तर स्थित है।

ब्रह्म वा अजः ।-(शतपथ० ६/४/४/१५)
ब्रह्म ही अजन्मा है।

उपनिषदों में भी परमात्मा को स्थान-स्थान पर अजन्मा वर्णन किया है--

वेदाहमेतमजरं पुराणं सर्वात्मानं सर्वगतं विभुत्वात् ।
जन्मनिरोधं प्रवदन्ति यस्य ब्रह्मवादिनो प्रवदन्ति नित्यम् ।।-(श्वेता० ३/२१)

मैं उस ब्रह्म को जानता हूं जो पुराना है और अजर है।
सबका आत्मा और विभु होने से सर्वगत है।ब्रह्मवादी जिषके जन्म का अभाव बतलाते हैं क्योंकि वह नित्य है।

प्रश्न:-ईश्वर निराकार है अथवा साकार अथवा दोनों प्रकार का,निराकार भी साकार भी।

उत्तर:-ईश्वर निराकार ही है और तीनों कालों में निराकार ही रहता है।

प्रश्न:-वेद में ईश्वर को साकार भी कहा है।
जैसे:-
(1) विश्वतश्चक्षु विश्वतो मुखो विश्वतो बाहुरूत विश्वतस्पात् (यजुर्वेद अ. 17 /मं. 19)
(2) सहस्र शीर्षा पुरुषः सहस्राक्ष सहस्रपात् ।
(यजुर्वेद अ. 31/ मं. 1)
(3) ब्राह्मणोस्य मुखमासीद् बाहुराजन्यः कृतः ऊरुतदस्य यद्वैश्य पद्भ्याम् शूद्रो अजायत ।। (यजुर्वेद अ. 31/मं. 11)

अर्थात् वह ईश्वर सब और से आँखों वाला ,सब और से मुखों वाला,सब और से हाथों वाला और सब और से पैरों वाला है।वह ईश्वर सहस्र सिरों वाला,सहस्र आंखों वाला और सहस्र पैरों वाला है। 2 ।।
ब्राह्मण ईश्वर के मुख से,क्षत्रीय बाहु से,वैश्य ऊरु से और शूद्र ईश्वर के पैरों से उत्पन्न हुआ।। 3 ।।
सहस्र सिर,सहस्र आँखें और सहस्र पैर साकार के ही होते हैं।अतः ईश्वर साकार भी है।

उत्तर:-यदि ईश्वर साकार है तो दिखना चाहिये,परन्तु दिखता नहीं?दूसरे यदि ईश्वर साकार है तो उसका शरीर कितना बड़ा है?यदि चींटी के समान शरीर है तो सूर्य,भूमि,चन्द्रादि लोकों को धारण नह़ी कर सकता और यदि पर्वत के समान शरीर है तो चींटी आदि छोटे जन्तुओं के सिर में आँख जैसी सूक्ष्म वस्तु की रचना नहीं कर सकता।यदि एक ही समय में ईश्वर निराकार और साकार दोंनो प्रकार का है तो दो विरोधी बातें ईश्वर में नहीं हो सकती?क्योंकि-

नैकस्मिन्न सम्भवात् (वेदान्त० २/२/३३)
विप्रतिषेधाच्च (वेदान्त २/२/४५)
अर्थात् एक ही वस्तु में एक साथ दो विरोधी धर्म नहीं रह सकते।
जैसे निराकार और साकार।
निराकार और साकार दोंनो का परस्पर में विरोध होने से निराकार ईश्वर साकार नहीं हो सकता।

अतः ईश्वर निराकार है और तीनों कालों में निराकार ही रहता है क्योंकि वेदादि शास्त्रों में ईश्वर को निराकार निर्विकार कूटस्थ(न बदलने वाला) एकरस कहा है,

और जो वेदमन्त्र ईश्वर को सब और से आँखों वाला,सब और से मुखों वाला,सब और से हाथों वाला,सब और से पैरों वाला तथा सहस्र सिरों वाला,सहस्र आँखों वाला,सहस् पैरों वाला कहते हैं,उनका भी अर्थ ईश्वर को निराकार ही बतलाना है।सचमुच आँख,मुख,सिर,हाथ,पैर नहीं।

प्रथम वेद मन्त्र में ईश्वर को विश्वत चक्षु अर्थात् सब और से आँखों वाला,'विश्वत मुख' अर्थात् सब और से मुखों वाला,'विश्वत पात' अर्थात् सब और से पैरों वाला कहा है।
'विश्वत' शब्द का अर्थ है'सब और से' अथवा "सर्वत्र"
किसी भी शरीरधारी के सहस्रों,लाखों,करोड़ों,अरबों,खरबों सिर,आँख,हाथ,पैर होने पर भी 'सब ओर' या"सर्वत्र" नहीं हो सकते।
जहाँ या जिस ओर मुख है वहीं या उस और पैर नहीं हो सकते और जिस ओर या जहाँ पैर हैं वहाँ उस ओर आँखें नहीं हो सकती।और वहाँ या उस और हाथ नहीं हो सकते और जिस ओर या जहाँ हाथ हैं वहाँ या उस और पैर और आंखें नहीं हो सकती।

अतः इस प्रकार इस मन्त्र का अर्थ यह हुआ कि:-
वह ईश्वर सब और से आँखों वाला है अर्थात् 'सर्वदृष्टा है' सब ओर से मुखों वाला है अर्थात् 'सब ओर से उपदेशक है।सब ओर से हाथों वाला है अर्थात् सब प्रकार से अनन्त बल वाला है।सब ओर से पैरों वाला है अर्थात् सर्वत्र व्याप्ति वाला है।अपनी सर्वव्यापक अनन्त शक्ति रुपी पैंरों से जानो सारे पहुंचा हुआ है।

दूसरे वेदमन्त्र में भी ईश्वर को निराकार ही कहा है।क्योंकि उसमें भी 'सहस्र' और 'पुरुष' शब्द हैं।सहस्र का अर्थ 'सर्व और असंख्यात' है।"सर्व वै सहस्रम् सर्वस्य दाताsसीत्यादि"
(शतपथ कांड ७/अ. ५)

'पुरुष' का अर्थ है 'व्यापक'
पुरुषं पुरिशय इत्याचचक्षीरन (निरुक्त अ. १/ख. १३)
ब्रह्माण्ड में'व्यापक' होने से ईश्वर को पुरुष कहते हैं।और शरीर में शयन करने से जीव को पुरुष कहते हैं।

"तेनेदम पूर्णम् पुरुषेण सर्वम् (निरुक्त अ. २/ खं. ३)
तथा श्वेताश्वतर-उपनिषद अ. ३/ मं. ९)

अर्थात् उस सबमें पूर्ण व्यापक पुरुष से यह सब जगत पूर्ण है,व्यापक निराकार ही होता है,साकार नहीं।

अतः इस दूसरे वेद मन्त्र का अर्थ यह हुआ कि 'सहस्र' सिरों वाला है अर्थात् सर्वज्ञ है' सहस्र आंखों वाला है अर्थात् 'सर्वदृष्टा है' सहस्र पैरों वाला है अर्थात् सर्वव्यापक है।
अनन्त सर्वव्यापक होने से वह अनन्त सर्वव्यापक शक्ति रुपी पैरों से सारे पहुंचा हुआ है। ।
तीसरे वेद मन्त्र में भी ईश्वर को निराकार ही कहा है क्योंकि इसमें भी 'पुरुष' शब्द है जिसका अर्थ 'व्यापक' है जो अभी पहले कह चुके हैं।

कहा भी है:-
सर्वानन शिरोग्रीवः सर्वभूतागुहाशयः ।
सर्वव्यापी स भगवान तस्मात्सर्वगतः शिवः ।।
(श्वेताश्वतर उपनि० अ. ३/मं. ११)
अर्थात् सर्वत्र ही जिसके मुख ,सिर,गर्दन हैं।जो सब भूतों की ह्रदय रुपी गुफा में रहता है.वह भगवान सर्वव्यापक है।इसलिए सबमें स्थित् शिव(कल्याणकारी) है।
अतः ईश्वर निराकार ही है,क्योंकि निराकार ही सर्वव्यापक हो सकता है।साकार एकदेशी होता है।

यह वेदमन्त्र भी देखिये:-
स पर्यगाच्छुक्रमकायमवर्णमस्नाविरं   शुद्धमपापविद्धम् ।
कविर्मनीषी परिभुः स्वयम्भूर्याथातथ्यतोsर्थाव्यदधाच्छाश्वतीभ्यः समाभ्यः ।।-(यजु० ४०/८)

अर्थ:-वह सर्वशक्तिमान,शरीर-रहित,छिद्र-रहित,नस-नाड़ी के बन्धन से रहित,पवित्र,पुण्य-युक्त,अन्तर्यामी,दुष्टों का तिरस्कार करने वाला,स्वतः सिद्ध और सर्वव्यापक है।वही परमेश्वर ठीक-ठीक रीति से जीवों को कर्मफल प्रदान करता है।

जब वेदों में कयी जगहों पर ईश्वर को निराकार,अजन्मा बताया है,तो जो लोग वेदों के कुछ मन्त्रों का (जो ऊपर दिये हैं) गलत अर्थ करके बताते हैं वे मूर्ख हैं,वे वेदविरोधी हैं।
क्योंकि जब वेद में परस्पर विरोधी बातें नहीं हो सकती।एक मन्त्र दूसरे मन्त्र का विरोधी नहीं हो सकता।जैसे पुराणों में परस्पर विरोधी बातें है

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