ঋগ্বেদ ১/২২/২০ - ধর্ম্মতত্ত্ব

ধর্ম্মতত্ত্ব

ধর্ম বিষয়ে জ্ঞান, ধর্ম গ্রন্থ কি , হিন্দু মুসলমান সম্প্রদায়, ইসলাম খ্রীষ্ট মত বিষয়ে তত্ত্ব ও সনাতন ধর্ম নিয়ে আলোচনা

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03 June, 2018

ঋগ্বেদ ১/২২/২০

ঋগ্বেদ ১/২২/২০
ঋগ্বেদ-১।২২।২০

ঋষিঃ-মেধাতিথিঃ কাণঃ।।দেবতা-বিষ্ণু।।ছন্দঃ-নিচূদগায়ত্রী।। স্বরঃ-ষড়জঃ।।

ও৩ম্ তদ্বিষ্ণোঃ পরমং পদং সদা পশ্যস্তি সুরয়ঃ। দিবীব চক্ষুরাততম্।।
तद्विष्णोः॑ पर॒मं प॒दं सदा॑ पश्यन्ति सू॒रयः॑। दि॒वी॑व॒ चक्षु॒रात॑तम्॥

পদার্থঃ- ( সুরয়ঃ) ১ ধার্মিক বুদ্ধিমান পুরুষার্থী বিদ্বান লোক, ( দিবীব) সূর্য আদি প্রকাশে ( আততম্) বিস্তৃত হইয়া (চক্ষু) ২ নেত্রের ন্যায় ( বিষ্ণোঃ) ব্যাপক আনন্দস্বরূপ পরমেশ্বরের বিস্তৃত (পরমম্) উত্তম হইতে উত্তম ( পদম্) চাহিবার এবং জানিবার যোগ্য উক্ত বা বক্ষমান পদ আছে, (তত্) তাঁহাকে (সদা) সর্ব কালে নির্মল শুদ্ধ জ্ঞানের দ্বারা নিজের আত্মায় (পশ্যস্তি) অনুভব করিয়া থাকে।।
সরলার্থঃ- ধার্মিক বুদ্ধিমান পুরুষার্থী বিদ্বান লোক সূর্য আদি প্রকাশে বিস্তৃত হইয়া নেত্রের ন্যায় ব্যাপক আনন্দস্বরূপ পরমেশ্বরের বিস্তৃত উত্তম হইতে উত্তম চাহিবার এবং জানিবার যোগ্য উক্ত বা বক্ষমান পদ আছে, তাহাকে সর্ব কালে নির্মল শুদ্ধ জ্ঞানের দ্বারা নিজের আত্মায় অনুভব করিয়া থাকে।।
ভাবার্থঃ-এই মন্ত্রে উপামালঙ্কার আছে। যেরূপ প্রাণী সূর্য প্রকাশে শুদ্ধ নেত্র দ্বারা মূর্তিমান পদার্থকে দেখিয়া থাকেন। ঐরূপই বিদ্বান মনুষ্য নির্মল বিজ্ঞান দ্বারা বিদ্যা বা শ্রেষ্ঠ বিচারযুক্ত শুদ্ধ নিজের আত্মায় জগদীশ্বরের সমস্ত আনন্দ হইতে যুক্ত এবং প্রাপ্ত হইবার যোগ্য মেক্ষকে পদকে প্রাপ্ত করাতি সমর্থ হইতে পারে না। এই জন্য ইহার প্রাপ্তি নিমিত্ত সকল মনুষ্যকে নিরন্তর যত্ন করা উচিত।।
টীপ্পনী
১সূরিরিতি স্তোতৃনামস্ পঠিতম্। নিঘ০ ৩।১৬।
২চষ্টে য়েন তন্নেত্রম্। চক্ষেঃ শিচ্চ। উ০ ২।১১৯।আনেন কসিপ্রত্যয়ঃ শিচ্চ। উ০ ২।১১৯।।
पदार्थान्वयभाषाः -(सूरयः) धार्मिक बुद्धिमान् पुरुषार्थी विद्वान् लोग (दिवि) सूर्य आदि के प्रकाश में (आततम्) फैले हुए (चक्षुरिव) नेत्रों के समान जो (विष्णोः) व्यापक आनन्दस्वरूप परमेश्वर का विस्तृत (परमम्) उत्तम से उत्तम (पदम्) चाहने जानने और प्राप्त होने योग्य उक्त वा वक्ष्यमाण पद हैं (तत्) उस को (सदा) सब काल में विमल शुद्ध ज्ञान के द्वारा अपने आत्मा में (पश्यन्ति) देखते हैं॥-स्वामी दयानन्द सरस्वती [(तत्) उक्तं वक्ष्यमाणं वा (विष्णोः) व्यापकस्यानन्दस्वरूपस्य (परमम्) सर्वोत्कृष्टम् (पदम्) अन्वेष्यं ज्ञातव्यं प्राप्तव्यं वा (सदा) सर्वस्मिन् काले (पश्यन्ति) सम्प्रेक्षन्ते (सूरयः) धार्मिका मेधाविनः पुरुषार्थयुक्ता विद्वांसः। सूरिरिति स्तोतृनामसु पठितम्। (निघं०३.१६) अत्र सूङः क्रिः। (उणा०४.६४) अनेन ‘सूङ’ धातोः क्रिः प्रत्ययः। (दिवीव) यथा सूर्यादिप्रकाशे विमलेन ज्ञानेन। स्वात्मनि वा (चक्षुः) चष्टे येन तन्नेत्रम्। चक्षेः शिच्च। (उणा०२.११५) अनेन ‘चक्षे’ रुसिप्रत्ययः शिच्च। (आततम्) समन्तात् ततं विस्तृतम्॥] भावार्थभाषाः -इस मन्त्र में उपमालङ्कार है। जैसे प्राणी सूर्य्य के प्रकाश में शुद्ध नेत्रों से मूर्त्तिमान् पदार्थों को देखते हैं, वैसे ही विद्वान् लोग निर्मल विज्ञान से विद्या वा श्रेष्ठ विचारयुक्त शुद्ध अपने आत्मा में जगदीश्वर को सब आनन्दों से युक्त और प्राप्त होने योग्य मोक्ष पद को देखकर प्राप्त होते हैं। इस की प्राप्ति के विना कोई मनुष्य सब सुखों को प्राप्त होने में समर्थ नहीं हो सकता। इस से इसकी प्राप्ति के निमित्त सब मनुष्यों को निरन्तर यत्न करना चाहिये। इस मन्त्र में परमम् पदम् इन पदों के अर्थ में यूरोपियन विलसन साहब ने कहा है कि इन का अर्थ स्वर्ग नहीं हो सकता, यह उनकी भ्रान्ति है, क्योंकि परमपद का अर्थ स्वर्ग ही है॥

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