प्रत्य॑र्धिर्य॒ज्ञाना॑मश्वह॒यो रथा॑नाम् ।
ऋषि॒: स यो मनु॑र्हितो॒ विप्र॑स्य यावयत्स॒खः ॥ (ऋग्वेद-१०।२६।५)
शब्दार्थ :- (ऋषिः स:) ऋषि वह है (यः) (यज्ञानां प्रति अर्धिः) यज्ञों का प्रतिपादक है, जो यज्ञ के तुल्य शुद्ध ,पवित्र एवं निष्पाप है, (रथानाम्-अश्व-हयः) जो रथों का = जीवन-रथों का आशु प्रेरक है ,शीघ्र संचालक है, शुभ कर्मों का प्राण है , (मनु-हितः) जो मनुष्यमात्र का हित और कल्याण चाहने वाला है,।(विप्रस्य सखः) जो ज्ञानी, बुद्धिमान् और धार्मिक व्यक्तियों का सखा है, (यावयत्) जो सव दु:खों को दूर कर देता है।।
वेद सौरभ -जगदीश्वरानन्द सरस्वतीपरमात्मा समस्त श्रेष्ठ कर्मों का पोषक, रमणीय पदार्थों का महान् प्रेरक, मननशील उपासकों का हितकर मिलनेवाला मित्र और पोषणकर्त्ता सर्वज्ञ है ॥-ब्रह्ममुनि
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