हम ईश्वर तत्व पर निष्पक्ष वैज्ञानिक दृष्टि से विचार करते हैं। हम संसार के समस्त ईश्वरवादियों से पूछना चाहते हैं कि क्या ईश्वर नाम का कोई पदार्थ इस सृष्टि में विद्यमान है, भी वा नही? जैसे कोई अज्ञानी व्यक्ति भी सूर्य, चन्द्र, पृथिवी, जल, वायु, अग्नि, तारे, आकाशगंगाओं, वनस्पति एवं प्राणियों के अस्तित्व पर कोई शंका नहीं करेगा, क्या वैसे ही इन सब वास्तविक पदार्थों के मूल निर्माता व संचालक ईश्वर तत्व पर सभी ईश्वरवादी शंका वा संदेह से रहित हैं? क्या संसार के विभिन्न पदार्थों का अस्तित्व व स्वरूप किसी की आस्था व विश्वास पर निर्भर करता है? यदि नहीं तब इन पदार्थों का निर्माता माने जाने वाला ईश्वर क्यों किसी की आस्था व विश्वास के आश्रय पर निर्भर है? हमारी आस्था न होने से क्या ईश्वर नहीं रहेगा? हमारी आस्था से संसार का कोई छोटे से छोटा पदार्थ भी न तो बन सकता है और न आस्था के समाप्त होने से किसी पदार्थ की सत्ता नष्ट हो सकती है, तब हमारी आस्थाओं से ईश्वर क्योंकर बन सकता है और क्यों हमारी आस्था समाप्त होने से ईश्वर मिट सकता है? क्या हमारी आस्था से सृष्टि के किसी भी पदार्थ का स्वरूप बदल सकता है? यदि नहीं, तो क्यों हम अपनी-२ आस्थाओं के कारण ईश्वर के रूप बदलने की बात कहते हैं? संसार की सभी भौतिक क्रियाओं के विषय में कहीं किसी का विरोध नहीं, कहीं आस्था, विश्वास की बैसाखी की आवश्यकता नहीं, तब क्यों ईश्वर को ऐसा दुर्बल व असहाय बना दिया, जो हमारी आस्थाओं में बंटा हुआ मानव और मानव के मध्य विरोध, हिंसा व द्वेष को बढ़ावा दे रहा है। हम सूर्य को एक मान सकते हैं, पृथिवी आदि लोकों, अपने-२ शरीरों को एक समान मानकर आधुनिक भौतिक विद्याओं को मिलजुल कर पढ़ व पढ़ा सकते हैं, तब क्यों हम ईश्वर और उसके नियमों को एक समान मानकर परस्पर मिलजुल कर नहीं रह सकते? हम ईश्वर की बनाई हुई सृष्टि एवं उसके नियमों पर बिना किसी पूर्वाग्रह के संवाद व तर्क-वितर्क प्रेमपूर्वक करते हैं, तब क्यों इस सृष्टि के रचयिता ईश्वर तत्व पर किसी चर्चा, तर्क से घबराते हैं? क्यों किचित् मतभेद होने मात्र से फतवे जारी करते हैं, आगजनी, हिंसा पर उतारू हो जाते हैं। क्या सृष्टि के निर्माता ईश्वर तत्व की सत्ता किसी की शंका व तर्क मात्र से हिल जायेगी, मिट जायेगी?
यदि ईश्वर तर्क, विज्ञान वा विरोधी पक्ष की आस्था व विश्वास तथा अपने पक्ष की अनास्था व अविश्वास से मिट जाता है, तब ऐसे ईश्वर का मूल्य ही क्या है? ऐसा परजीवी, दुर्बल, असहाय, ईश्वर की पूजा करने से क्या लाभ? उसे क्यों माना जाये? क्यों उस कल्पित ईश्वर और उसके नाम से प्रचलित कल्पित धर्मों में व्यर्थ माथापच्ची करके धनसमय व श्रम का अपव्यय किया जाये?
जरा विचारें कि यदि ईश्वर नाम की कोई सत्ता वास्तव में संसार में विद्यमान है, तो वह हमारे विश्वास, आस्थाओं के सहारे जीवित नहीं रहेगी। वह सत्ता निरपेक्ष रूप से यथार्थ विज्ञान के द्वारा जानने योग्य भी होगी। उसका एक निश्चित स्वरूप होगाउसके निश्चित नियम होंगे।
ईश्वर के भौतिक नियमों के विषय में Richard P. Feynman का कथन है-
“We an imagine that this complicated array of moving things which constitutes ‘the world' is something like a great chess game being played by the god, and we are observers of the game. We do not know what the rules of the games are, all we are allowed to do is to watch the playing. Of course, if we watch long enough, we may eventually watch on to a few rules. The rules of the game are whats we mean by fundamental physics.” (Lectures on Physics-Pg. 13)
इसका आशय यह है कि यह संसार निश्चित नियमों से बना व चल रहा है। वे नियम ईश्वर द्वारा बनाये गये हैं और वही उनको लागू करके संसार को बनाता व चलाता है। वैज्ञानिक उन असंख्य नियमों में से कुछ को जान भर सकते हैं, उन्हें बना वा लागू नहीं कर सकते। यहाँ फाइनमेन ने एक भारी भूल अवश्य कर दी, जो ‘God' के स्थान पूर 'Gods' लिख दिया। यदि नियम बनाने वाले अनेक 'Gods', तो उन नियमों में सामंजस्य नहीं बैठेगा। सभी 'Gods' को समन्वित व नियन्त्रित करने वाला कोई ‘Supreme God’ अर्थात् ‘God' की सत्ता अवश्य माननी होगी और मूलभूत भौतिकी के नियम बनाने वाला एक ही ‘God’ होगा।
अब हम विचारें कि उस ‘God’ अर्थात् ईश्वर के भौतिक नियम ही मूलभूत भौतिक विज्ञान नाम से जाने जाते हैं। इसी विज्ञान पर सम्पूर्ण भौतिक विज्ञान, खगोल, रसायन, जीव, वनस्पति, भूगर्भ, इंजीनियरिंग, मेडिकल सायंस आदि सभी शाखाएं आश्रित हैं। भूलभूत भौतिकी के बिना संसार में विज्ञान का अस्तित्व ही सम्भव नहीं है। जब ईश्वर के भौतिक नियम जिनसे इस संसार को जाना जाता है, ब्रह्माण्ड भर के बुद्धिवादी प्राणी वा मनुष्यों के लिए समान हैं, तब उस ईश्वर को जानने के लिए आवश्यक उसी के बनाये आध्यात्मिक नियम अर्थात् अध्यात्म विज्ञान (जिसे प्रायः धर्म कहा जाता है) भी तो सभी मनुष्यों के लिए समान ही होंगे। आश्चर्य है कि इस साधारण तर्क को समझने की भी बुद्धि ईश्वरवादियों में नहीं रही, तब निश्चित ही यह उनकी कल्पनाप्रसूत ईश्वरीय धारणा व कल्पित उपासना-पूजा पद्धति का ही फल है, जहाँ सत्य के अन्वेषण की वैज्ञानिक मेधा कहीं पलायन कर गयी ।
ईश्वरवादी वैज्ञानिक केवल Feynman ही नहीं है अपितु अनेक प्रतिभाशाली वैज्ञानिक ईश्वर की सत्ता को स्वीकार करते रहे हैं व करते हैं। क्योंकि वर्तमान विज्ञान केवल प्रयोगों, प्रेक्षणों व गणितीय व्याख्याओं के सहारे ही जीता है और यही उसका स्वरूप भी है। इस कारण वह ईश्वर की व्याख्या इनके सहारे तो, नहीं कर सकता और न वह इसकी व्याख्या की इच्छा करता है। उधर Stephen Hawing ने तो The Grand Design पुस्तक में मानो संसार के सभी ईश्वरवादियों को मूर्ख समझकर निरर्थक व्यंग्य किये हैं। विज्ञान का नाम लेकर स्वयं अवैज्ञानिकता का ही परिचय दिया है। इस पुस्तक से पूर्व उन्हीं की पुस्तकों में वे ईश्वर की सत्ता स्वीकार करते हैं, फिर मानो अकस्मात् वे भारी खोज करके संसार में घोषणा करते हैं कि ईश्वर नाम की कोई सत्ता ब्रह्माण्ड में नहीं है। उधर आज संसार में ऐसा भयंकर पाप प्रवाह चल रहा है कि ईश्वरवादी कहाने वाले भी ऐसा व्यवहार कर रहे हैं, मानो उनके ऊपर ईश्वर नाम की कोई सत्ता न हो, वे अहंकारी मानव स्वयं को ही सर्वोच्च सत्ता की भांति व्यवहार का प्रदर्शन करते देखे जाते हैं। इस कारण हम संसार भर के वैज्ञानिक अनीश्वरवादियों व ईश्वरवादियों दोनों का ही आह्वान करना चाहेंगे कि वे ईश्वर की सत्ता पर खुले मस्तिष्क से विचार करने को उद्यत हो जाएं। आज अनेक ईश्वरवादी विद्वान् ईश्वरवादी वैज्ञानिकों के प्रमाण देते देखे वा सुने जाते हैं, परन्तु हम ईश्वरीय सत्ता का प्रमाण किसी वैज्ञानिक से लेना आवश्यक नहीं समझते। अब वह समय आयेगा जब वर्तमान वैज्ञानिक हम वैदिक वैज्ञानिकों को प्रमाण मानना प्रारम्भ करके नये वैज्ञानिक युग का सूत्रपात करेंगे अर्थात् हमारे साथ मिलकर कार्य करेंगे। हम आज विश्वभर के समस्त प्रबुद्ध समाज से घोषणापूर्वक कहना चाहेंगे कि यदि ईश्वर नहीं है, तो सब झंझट छोड़कर नितान्त नास्तिक व स्वच्छन्द बन जाएँ और यदि ईश्वर सिद्ध होता है, तो उसकी आज्ञा में चलकर मर्यादित जीवन जीते हुये संसार को सुखी बनाने का प्रयत्न करें, क्योंकि सम्पूर्ण संसार उसी ईश्वर की रचना है और इस कारण सभी मानव ही नहीं, अपितु प्राणिमात्र परस्पर भाई-२ हैं।
अब हम ईश्वर के अस्तित्व पर नये सिरे से विचार करते हैं-
हमने अब तक वैज्ञानिकों से जो भी चर्चा सृष्टि विज्ञान पर की है, उससे एक विचार यह सामने आता है कि वैज्ञानिक ‘क्यों’ प्रश्न का उत्तर नहीं देते क्योंकि उनकी दृष्टि में यह विज्ञान का विषय नहीं है। हम संसार में नाना स्तरों पर निम्न प्रश्नवाचक शब्दों का सामना करते हैं
1. क्यों
2. किसने
3. किसके लिए
4. क्या
5. कैसे आदि
इन प्रश्नों में से ‘क्या’, 'कैसे’ के उत्तर के विषय में वर्तमान विज्ञान विचार करने का प्रयास करता प्रतीत हो रहा है। यद्यपि इन दोनों ही प्रश्नों का पूर्ण समाधान तो विज्ञान के पास नहीं परन्तु प्रयास अवश्य ईमानदारी से हो रहा है। अन्य प्रश्न ‘क्या’, ' किसने’ एवं 'किसके लिए’ इन तीन प्रश्नों के विषय में विचार करना भी आधुनिक विज्ञान के लिए किंचिदपि रुचि का विषय नहीं है। हम इन प्रश्नों के आशय पर क्रमशः विचार करते हैं-
1. क्यों- यह प्रश्न प्रयोजन की खोज के लिए प्रेरित करता है। हम निःसन्देह सारे जीवन नाना प्रकार के कर्मों को करते एवं नाना द्रव्यों का संग्रह करते हैं। इन सबका कोई न कोई प्रयोजन अवश्य होता है। कोई भी बुद्धिमान् प्राणी किसी न किसी प्रयोजन हेतु ही कोई प्रवृत्ति रखता है। मूर्ख मनुष्य भले ही निष्प्रयोजन कर्मों में प्रवृत्त रहता हो, बुद्धिमान् तो कदापि ऐसा नहीं करेगा। संसार पर विचार करें कि यह क्यों बना व क्यों संचालित हो रहा है? इसकी प्रत्येक गतिविधि का कोई न कोई प्रयोजन अवश्य है। 'क्यों' प्रश्न की उपेक्षा करने वाला कोई वैज्ञानिक क्या यह मानता है कि सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड निष्प्रयोजन रचना है? हमारे विचार से प्रत्येक मनुष्य को सर्वप्रथम ‘क्यों' प्रश्न का उत्तर ही खोजने का यत्न करना चाहिये। जिस प्रकार वह कोई कर्म करने से पूर्व उसका प्रयोजन जानता है, उसी प्रकार इस सृष्टि के उत्पन्न होने, किसी शरीरधारी के जन्म लेने का प्रयोजन जानने का भी प्रयत्न करना चाहिये। वर्तमान विज्ञान के इस प्रश्न से दूर रहने से ही आज वह अनेकों अनुसन्धान करते हुए भी उनके प्रयोजनव दुष्प्रभाव पर विचार नहीं करता है। इसी कारण मानव को अपने विविध क्रियाकलापों, यहाँ तक कि जीने के भी प्रयोजन का ज्ञान नहीं होने से भोगों की अति तृष्णा में भटकता हुआ अशान्ति व दुःखों के जाल में फंसता जा रहा है।
2. किसने- यह प्रश्न ‘क्यों’ से जुड़ा हुआ है। कोई कार्य किस प्रयोजन के लिए हो रहा है, इसके साथ ही इससे जुड़ा हुआ अन्य प्रश्न यह भी उपस्थित होता है कि उस कार्य को किसने सम्पन्न किया अथवा कौन सम्पन्न रहा है अर्थात् उसका प्रायोजक कौन है? इस सृष्टि की प्रत्येक क्रिया का एक निश्चित प्रयोजन है, साथ ही उसका प्रायोजक कोई चेतन तत्व है। कोई जड़ पदार्थ प्रायोजक नहीं होता। जड़ पदार्थ प्रयोजन की सामग्री तो बन सकता है परन्तु उसका कर्त्ता अर्थात् प्रायोजक नहीं। चेतन तत्व ही जड़ तत्व पर साम्राज्य व नियन्त्रण करता है। चेतन तत्व स्वतन्त्र होने से कर्त्तापन का अधिकारी है, जबकि जड़ पदार्थ स्वतन्त्र नहीं होने से कर्त्तृत्व सम्पन्न नहीं हो सकता।
3. किसके लिए- यह प्रश्न इस बात का विचार करता है कि किसी कर्ता ने कोई कार्य किया वा कर रहा है, तो क्या वह कार्य स्वयं के लिए किया वा कर रहा है अथवा अन्य किसी चेतन तत्व के लिए कर रहा है? यहाँ कोई उपभोक्ता होगा और उपभोक्ता भी चेतन ही होता है। जड़ पदार्थ कभी भी न तो स्वयं का उपभोग कर सकता है और न वह दूसरे जड़ पदार्थों का उपभोग कर सकता है।
4. क्या- यह प्रश्न पदार्थ के स्वरूप की पूर्णतः व्याख्या करता है। जगत् क्या है? इसका स्वरूप क्या है? मूल कण क्या हैं? ऊर्जा व द्रव्य क्या है? बल क्या है? इन सब प्रश्नों का समाधान इस क्षेत्र का विषय है। वर्तमान विज्ञान तथा दर्शन शास्त्र दोनों इस प्रश्न का उत्तर देने का यथासम्भव प्रयास करते हैं। इसका क्षेत्र बहुत व्यापक है। वर्तमान विज्ञान इस प्रश्न का सम्पूर्ण उत्तर देने में समर्थ नहीं है। जहाँ विज्ञान असमर्थ हो जाता है, वहाँ वैदिक विज्ञान किंवा दर्शन शास्त्र इसका उत्तर देता है।
5. कैसे- कोई भी क्रिया कैसे सम्पन्न होती है? जगत् कैसे बना है? द्रव्य व ऊर्जा कैसे व्यवहार करते हैं? बल कैसे कार्य करता है? इन सभी प्रश्नों का समाधान इस क्षेत्र का विषय है। वर्तमान विज्ञान इस क्षेत्र में कार्य करता है परन्तु इसका भी पूर्ण सन्तोषप्रद उत्तर इसके पास नहीं है। अन्य प्रश्नों के उत्तर जाने बिना इसका सन्तोषप्रद उत्तर मिल भी नहीं सकता।
इन पांच प्रश्नों के अतिरिक्त अन्य कुछ प्रश्न भी हैं, जिनका समायोजन इन पांचों प्रश्नों में ही प्रायः हो सकता है।
-आचार्य अग्निव्रत नैष्ठिक, वैदिक वैज्ञानिक
(‘‘वेदविज्ञान-आलोकः’’ से उदधृत)
प्रस्तुति- इंजीनियर संदीप आर्य
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हमने अपनी website पर ईश्वर के अस्तित्व सम्बंधित अनेकों लेख लिखे हैं जिन्हे आप पढ़ सकते हैं |
लेकिन इस विषय पर हम अनेकों तर्कों से ईश्वर का अस्तित्व पर लेख लिख सकते हैं इसलिए आपके सामने एक नया लेख लेकर आये हैं जिसमे विशुद्ध तर्क के आश्रय से हम पता करेंगे की ईश्वर का अस्तित्व हैं या नहीं ?
इस विषय पर आप हमारे अन्य लेख Website पर पढ़ सकते हैं
ईश्वर का अस्तित्व हैं या नहीं ?
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इस ब्रम्हांड को किसी के बनाया हैं या यह अपने आप बना हैं |
इस विषय पर अनेकों वर्षों से लोग आपस में लड़ते आये हैं
अच्छा होता की लड़ने की वे ज्ञानयुद्ध करते यानि की आपस में प्रेम पूर्वक शास्त्रार्थ करते तो किसी एक मत तक पहुँच पाते
हमारे प्राचीन भारत देश में किसी भी विषय पर सत्य का निर्णय करने के लिए आपस में शास्त्रार्थ किया जाता था जिसका उद्देश्य सत्य और असत्य का निर्णय करना होता हैं |
जिसका उद्देश्य हार और जीत न होकर सत्य को जानना होता था इसीलिए 5000 वर्षों से पूर्व सम्पूर्ण विषय में ईश्वर विषय का झगड़ा नहीं था |
तो आइये आज हम भारत देश की प्राचीन शास्त्रार्थ प्रणाली से ईश्वर की छानबीन करते हैं
अन्य लेख देखें –
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आस्तिक और नास्तिक के बीच बहस
प्राचीन शास्त्रार्थ प्रणाली से ईश्वर की खोज
महर्षि गौतम ने अपने न्याय दर्शन में किसी सिद्धांत के निरूपण यानि सिद्धि के उपाय के लिए पांच अवयव बताये हैं
यहाँ हम उन पांच उपायों से ईश्वर अस्तित्व पर खोज करते हैं
प्रतिज्ञा – गति अनित्य हैं यानि की गति हमेशा के लिए नहीं रहती कभी न कभी नष्ट होती हैं |
हेतु – इस प्रतिज्ञा की सिद्धि के लिए हेतु यानि कारण बताते हैं – क्यों की हम गति को उत्पन्न व् नष्ट होते देखते हैं |
उदाहरण – जैसे लोक में जड़ पदार्थों व् चेतन प्राणियों द्वारा नाना प्रकार की गतियों का उत्पन्न व नियंत्रित होना देखते हैं |
उपनय – उसी प्रकार अन्य प्रकार की गतियां भी अनित्य हैं |
निगमन – सभी दृष्ट व अदृष्ट(न दिखने वाली) गतियां अनित्य हैं |
यहाँ गति की अनित्यता सिद्ध होती हैं , अब हम इसी प्रकार गति के पीछे चेतन कर्त्ता के होने पर खोज करते हैं |
गति का कारण ईश्वर हैं या नहीं ?
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किसी भी प्रकार की गति अनित्य होती हैं अब यह जानना चाहिए क्या गति के पीछे चेतन होता हैं या नहीं ? क्या जड़ वास्तु गति का कारण हो सकती हैं ? आइये देखते हैं |
प्रतिज्ञा – गति मूलतः चेतन के बल द्वारा उत्पन्न व नियंत्रित होती हैं |
हेतु – हम जगत में विभिन्न गतियों को विभिन्न चेतन प्राणियों द्वारा उत्पन्न व नियंत्रित होना देखते हैं |
उदाहरण – जैसे हम स्वयं नाना गतियों को उत्पन्न व नियंत्रित करते हैं |
उपनय – उसी प्रकार अन्य गतियाँ, जिनका कोई प्रेरक व नियंत्रक साक्षात दिखाई नहीं देता , वे भी किसी अदृष्ट चेतन तत्व द्वारा नियंत्रित व प्रेरित होती हैं |
निगमन – सभी प्रकार की गतियों को उत्पन्न , प्रेरित व नियंत्रित करने वाला कोई न कोई चेतन तत्व अवश्य होता हैं अर्थात बिना चेतन के गति उत्पन्न, नियंत्रित व संचालित नहीं हो सकती |
बल का कारण ईश्वर हैं या नहीं ?
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किसी भी वस्तु की गति के पीछे बल होता हैं , पहले बल होता हैं तभी गति होती हैं |
बल पहले नंबर पर हैं और गति दूसरे नंबर हैं इसलिए ये जानना चाहिए की बल का कारण क्या हैं ?
यूं तो विज्ञान के अनुसार बल भी अनेकों प्रकार के हैं और मूल बल 4 हैं लेकिन ये सभी बल कैसे कार्य करते हैं , यह कोई भी वैज्ञानिक नहीं जानता |
बल के विषय में यदि किसी वैज्ञानिक ने संसार को कुछ दिया हैं तो वे हैं Richard P Feynman लेकिन वे खुद मानते हैं की हम बल को आज तक पूरी तरह से नहीं जान पाएं हैं और शायद ही जान पाएं , इसीलिए Feynman कहते हैं
If you insist upon a precise definition of force, you will never get it – lectures on physics
किसी भी बल के कार्य करने की एक process होती हैं उस process में भी अनेकों प्रकार की गतियां होती हैं और जैसा की हमने कहा कि गति का कारण बल हैं |
इसलिए मूल बल क्या हैं ? और मूल बल का कारण कौन हैं यह जानना चाहिए |
आइये न्याय दर्शन के अनुसार हम देखते हैं कि बल का कारण कौन हैं
प्रतिज्ञा – प्रत्येक बल के पीछे चेतन तत्व की भूमिका हैं |
हेतु – क्यों कि हम चेतन प्राणियों में बल का होना देखते हैं |
उदाहरण – जैसे लोक में हम नाना क्रियाओं में अपने बल का उपयोग करते हैं |
उपनय – उसी प्रकार सृष्टि में जो विभिन्न प्रकार के बल देखे जाते हैं , उन सबमे किसी अदृष्ट चेतन तत्व कि भूमिका होती हैं |
निगमन – प्रत्येक बल के पीछे किसी न किसी चेतन (ईश्वर अथवा जीव) कि मूल भूमिका अवश्य होती हैं किंवा वह बल उस चेतन का ही होता हैं | जड़ पदार्थ में अपना कोई बल नहीं होता |
इस तरह मूल बल चेतन का होता हैं जिस से सृष्टि में विभिन्न प्रकार के बल आपस में सामंजस्य स्थापित करके कार्य करते हैं , इसलिए बल का कारण ईश्वर हैं |
सृष्टि में हम विविध रचनाएँ देखते हैं इन रचनाओं के पीछे कोई बुद्धि काम करती हैं व नहीं इस भी जानना जरुरी हैं |
आइये अब हम बुद्धि पर विचार करते हैं |
बुद्धिपूर्वक कार्यों के पीछे ईश्वर हैं या नहीं ?
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मनुष्य एक ऐसा प्राणी हैं जो अन्य प्राणियों कि अपेक्षा श्रेष्ट हैं क्यों कि उसमे बुद्धि हैं और उसके प्रत्येक कार्य बुद्धि से ही सम्पादित होते हैं |
इसीलिए बुद्धिजन्य कार्यों के पीछे चेतन का होना मानना चाहिए |
सृष्टि में भी व्यवस्था नजर आती हैं इसलिए इसके पीछे कोई बुद्धिमान व्यवस्थापक हैं या नहीं |
आइये हम इसे न्याय दर्शन कि नजर से देखते हैं |
प्रतिज्ञा – प्रत्येक बुद्धिगम्य, व्यवस्थित रचना के पीछे चेतन तत्व कि भूमिका होती हैं |
हेतु – क्यों कि हम चेतन प्राणियों द्वारा बुद्धिगम्य कार्य करते हुए देखते हैं |
उदाहरण- जैसे हम अपनी बुद्धि के द्वारा नाना प्रकार के कार्यों को सिद्ध करते हैं |
उपनय – उसी प्रकार सृष्टि में विभिन्न बुद्धिगम्य किंवा सम्पूर्ण सृष्टि कि प्रत्येक क्रिया के पीछे चेतन तत्व कि अनिवार्य भूमिका होती हैं |
सभी प्रकार कि बुद्धिगम्य रचनाओं किंवा सपूर्ण सृष्टि की प्रत्येक क्रिया के पीछे चेतन तत्व कि अनिवार्य भूमिका अवश्य होती हैं |
इस तरह बुद्धि बल और गति के पीछे चेतन तत्व ही मूल कारण होता हैं , सृष्टि में सर्वत्र महान , बुद्धि , महान बल और महान गति दिखाई देती हैं जिसके पीछे एक महान चेतन सत्ता अवश्य हैं ऐसा सिद्ध होता हैं , वही चेतन सत्ता ईश्वर हैं |
नोट – न्याय दर्शन की प्रक्रिया से इस तरह ईश्वर की सिद्धि वैदक वैज्ञानिक आचार्य अग्निव्रत नैष्ठिक जी ने अपने ग्रन्थ वेद विज्ञान आलोक में की हैं , इस ग्रन्थ का मुख्य विषय भौतिक विज्ञान हैं जिसमे ब्रम्हांड की एक नयी थ्योरी Vedic Rashmi Theory दी गयी हैं |
यह भी पढ़ें
📖 To Get VedVigyan-Alok (A Vaidic Theory Of Universe): https://imjo.in/JfsG5p
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