ঋষিঃ-বত্সঃ কাণ্বঃঃ। দেবতা-অগ্নিঃ। ছন্দঃ-গায়ত্রী স্বরঃ-ষড়জঃ। কাণ্ড নাম-আগ্নেয়ম্ কাণ্ডম্।।
আদিত্প্রত্নস্য রেতসো জ্যোতিঃ পশ্যন্তি বাসরম্। পরো যদিধ্যতে দিবি -সামবেদ-২০
आदित्प्रत्नस्य रेतसो ज्योतिः पश्यन्ति वासरम् । परो यदिध्यते दिवि ॥
পদঃ-জাত্। ইত্। প্রত্নস্য। রেতমঃ। জ্যোতিঃ। পশ্যন্তি। বাসরম্। পরঃ। যত্। ইধ্যতে। দিবি।
পদার্থ-(আত্-ইত্) অনন্তর -নিদিধ্যাসনরূপ অভ্যাসের অনন্তর ( প্রত্নস্য রেতসঃ) এই জগতে পূর্ব বর্তমান শাশ্বত তথা সর্বত্র জগতে প্রাপ্ত অগ্নি-প্রকাশস্বরূপ পরমাত্মাকে "রেতে বা অগ্নিঃ" [ মৈ০ ৩/২/১] (বাসরম্ জ্যোতিঃ) 'বাস-র' মুক্ত আত্মাদের আবাস দানে জ্যোতিতে ( পশ্যন্তি) দেখতে ধ্যানীজন ( যত্-দিবি পরঃ-ইধ্যতে) যিনি ঐশ্বরিক অমৃতস্বরূপ মোক্ষধামে "ত্রিপাদস্যামৃতম্ দিবি" [ ঋ০ ১০/৯০/৩] অত্যন্ত দীপ্ত হয়ে রয়েছে।
ভাবার্থ-জগতের পূর্ব বর্তমান তথা জগতর ব্যাপ্ত পরমাত্মার জ্যোতি এবং যা প্রকাশময় মোক্ষধামে দীপ্তভাবে বিকিরণ করছে,যোগসাধনার পর ধ্যানকারীরা প্রাপ্ত হন। পরমাত্মার জ্যোতিঃ স্বরূপ অনন্ত মোক্ষধামের আবাসে ধ্যানকারীর হৃদয়েও একই ভাবে প্রকাশিত হয় কেবল স্বল্পস্থায়ী এক দেশীর মতো প্রতীত হয়, তবে পরমাত্মা চিরন্তন,কিন্তু মানুষের অধিকার অন্তরেই উপলব্ধি করতে হয় তা অনন্ত হতে পারে না। "হৃদ্যপেক্ষা তু মানুষ্যাধিকারত্বাত্" [ বেদান্ত০ ১/৩/২৫]
বিশেষ- ঋষিঃ-বত্সঃ ( অধ্যাত্মিক বক্তা) ( ভাষ্যম্-স্বামী ব্রহ্মমুনি পরিব্রাজক)
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार
पदार्थान्वयभाषाः -
(आत् इत्) उसके अनन्तर ही (प्रत्नस्य) सनातन, (रेतसः) वीर्यवान् परमसामर्थ्यशाली परमात्म-सूर्य की (वासरम्) राग, द्वेष, मोह आदि के अन्धकार को दूर करनेवाली, अथवा अणिमा आदि ऐश्वर्यों की निवासक, अथवा दिव्य दिन उत्पन्न कर देनेवाली (ज्योतिः) ज्योति को—योगदर्शनोक्त ज्योतिष्मती वृत्ति को, ज्ञानदीप्ति को या (विवेकख्याति) को, योगीजन (पश्यन्ति) देख पाते हैं, (यत्) जब, वह परमात्म-सूर्य (परः) परे (दिवि) आत्मारूप द्युलोक में (इध्यते) प्रदीप्त हो जाता है ॥१०॥ श्लेष से सूर्य के पक्ष में भी अर्थयोजना करनी चाहिए ॥
भावार्थभाषाः -
जैसे प्रातःकाल उदित सूर्य जब मध्याह्न के आकाश में पहुँच जाता है, तभी लोग उसके अन्धकार-निवारक, देदीप्यमान, दिन को उत्पन्न करनेवाले सम्पूर्ण प्रभामण्डल को देख पाते हैं, वैसे ही जब योगियों से ध्यान किया गया परमात्मा उनके आत्म-लोक में जगमगाने लगता है, तभी वे उसके राग, द्वेष आदि के विनाशक, योगसिद्धियों के निवासक, जीवन्मुक्तिरूप दिन के जनक दिव्य प्रकाश का साक्षात्कार करने में समर्थ होते हैं ॥१०॥ इस दशति में परमात्मा के गुण-कर्म-स्वभाव का वर्णन करते हुए उसे रिझाने का, उसके प्रति नमस्कार करने का, उसे स्तोत्र अर्पण करने का, मनुष्यों को परमेश्वर की स्तुति के साथ-साथ कर्म में भी प्रेरित करने का और परम ज्योति के दर्शन का वर्णन है, अतः इस दशति के अर्थ की पूर्व दशति के अर्थ के साथ संगति है ॥ प्रथम प्रपाठक, प्रथम अर्ध में द्वितीय दशति समाप्त ॥ प्रथम अध्याय में द्वितीय खण्ड समाप्त ॥
टिप्पणी:१. ऋ० ८।६।३०, इन्द्रो देवता। ज्योतिष्पश्यन्ति, दिवा इति पाठः। २. रेतसः गन्तुः (री गतिरेषणयोः अस्मात् स्रुरीभ्यां तुड् वा उ० ४।२००३ इत्यसुन् तुडागमश्च।) यद्वा रेतस् इत्युदकनाम (निघं० १।१२) रेतस्विनः उदकवतः, सामर्थ्यान्मत्वर्थो लक्ष्यते। ईदृशस्य इन्द्रस्य सूर्यात्मनः वासरं नियामकं वासरस्य निवासहेतुभूतं वा—इति सा०। ३. द्रष्टव्यम्—योग० १।३६, २।२८, ३।५४। ४. इयमासन्नमरणे जप्येति बहवृचोपनिषदि श्रूयते (ऐ० आ० ३।२।४।८)। इयं वैश्वानरस्याग्नेः स्तुतिः। वैश्वानरश्च त्रैलोक्यशरीरः परमात्मेति उपनिषदि स्थितम्। आत् इति निपातः अनन्तरमित्यस्मिन् अर्थे वर्तते। इद् इति एवार्थे। आदित् अनन्तरमेव आत्मविज्ञानात्। प्रत्नस्य पुराणस्य। रेतसः कारणात्मनः स्वरूपभूतम्। ज्योतिः वैश्वानराख्यं सूर्यम्। पश्यन्ति विद्वांसः। वासरं विवासकं तमसाम्। परः परस्तात्। इध्यते दीप्यते। दिवि दिव इत्यर्थः, यत् दिवः परस्ताद् इध्यते इति सम्बन्धः। “अथ यदतः परो दिवो ज्योतिर्दीप्यते (छा० उ० ३।१३।७)” इत्यादि श्रूयते—इति भ०।
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