19 दिसंबर-बलिदान दिवस
🎯नशा छोङ राष्ट्र भक्त कैसे बने🌷
पं० रामप्रसाद बिस्मिल जी का जन्म उत्तरप्रदेश में स्थित *शाहजहांपुरा* में 11 जून 1897 ई. को हुआ था। इनके पिता का नाम *मुरलीधर* तथा माता का नाम *मूलमती* था। इनके घर की आर्थिक अवस्था अच्छी नहीं थी। बालकपन से ही इन्हें गाय पालने का बड़ा शौक था। बाल्यकाल में बड़े उद्दंड थे। पांचवी में दो बार अनुत्तीर्ण हुए। थोड़े दिनों बाद घर से चोरी भी करने लगे तथा उन पैसों से गंदे उपन्यास खरीदकर पढ़ा करते थे, भंग भी पीने लगे। रोज़ाना 40-50 सिगरेट पीते थे। एक दिन भांग पीकर संदूक से पैसे निकाल रहे थे, नशे में होने के कारण संदूकची खटक गई। माता जी ने पकड़ लिया व चाबी पकड़ी गई। बहुत से रूपये व उपन्यास इनकी संदूक से निकले। किताबों से निकले उपन्यासादि उसी समय फाड़ डाले गए व बहुत दण्ड मिला। ( _परमात्मा की कृपा से मेरी चोरी पकड़ ली गई, नहीं तो दो-चार साल में न दीन का रहता न दुनिया का_ –आत्मचरित्र)
परंतु विधि की लीला और ही थी। एक दिन शाहजहांपुरा में *आर्यसमाज* के एक बड़े सन्यासी *स्वामी सोमदेव* जी आए। बिस्मिल जी का उनके पास आना-जाना होने लगा। इनके जीवन ने पलटा खाया, *बिस्मिल जी आर्यसमाजी बन गए और ब्रह्मचर्य का पालन करने लगे।* प्रसिद्ध क्रांतिकारी भाई परमानन्द जी की लिखी पुस्तक *तवारीखे हिन्द* को पढ़कर बिस्मिल जी बहुत प्रभावित हुए। पं० रामप्रसाद ने प्रतिज्ञा की कि ब्रिटिश सरकार से क्रांतिकारियों पर हो रहे अत्याचार का बदला लेकर रहूँगा।
🎯गुरु कौन था?🌷
फाँसी से पुर्व *बिस्मिल जी नित्य जेल में वैदिक हवन करते थे।* उनके चेहरे पर प्रसन्नता व संतोष देखकर *जेलर ने पूछा की तुम्हारा गुरु कौन है?* बिस्मिल जी ने कहा कि *जिस दिन उसे फाँसी दी जाएगी, उस दिन वह अपने गुरु का नाम बताएगा*, और हुआ भी ऐसा ही। फाँसी देते समय जेलर ने जब अपनी बात याद दिलाई तो बिस्मिल जी ने कहा कि *मेरा गुरु है स्वामी दयानन्द।*
🎯 *आर्य समाज के कट्टर अनुयायी और पिता से विवाद*🌷
*स्वामी दयानंद जी की बातों का राम प्रसाद पर इतना गहरा प्रभाव पड़ा कि ये आर्य समाज के सिद्धान्तों को पूरी तरह से अनुसरण करने लगे* और आर्य समाज के कट्टर अनुयायी बन गये। इन्होंने आर्य समाज द्वारा आयोजित सम्मेलनों में भाग लेना शुरु कर दिया। इन सम्मेलनों में जो भी सन्यासी महात्मा आते रामप्रसाद उनके प्रवचनों को बड़े ध्यान से सुनकर उन्हें अपनाने की पूरी कोशिश करते।
बिस्मिल का परिवार सनातन धर्म में पूर्ण आस्था रखता था और इनके पिता कट्टर पौराणिक थे। *उन्हें किसी बाहर वाले व्यक्ति से इनके आर्य समाजी होने का पता चला तो उन्होंने खुद को बड़ा अपमानित महसूस किया।* क्योंकि वो रामप्रसाद के आर्य समाजी होने से पूरी तरह से अनजान थे। अतः घर आकर उन्होंने इनसे आर्य समाज छोड़ देने का लिये कहा। लेकिन बिस्मिल ने अपने पिता की बात मानने के स्थान पर उन्हें उल्टे समझाना शुरु कर दिया। अपने पुत्र को इस तरह बहस करते देख वो स्वंय को और अपमानित महसूस करने लगे। उन्होंने क्रोध में भर कर इनसे कहा –
*“या तो आर्य समाज छोड़ दो या मेरा घर छोड़ दो।”*
इस पर बिस्मिल ने अपने सिद्धान्तों पर अटल रहते हुये घर छोड़ने का निश्चय किया और *अपने पिता के पैर छूकर उसी समय घर छोड़कर चले गये।* इनका शहर में कोई परिचित नहीं था जहाँ ये कुछ समय के लिये रह सके, इसलिये ये जंगल की ओर चले गये। वहीं इन्होंने एक दिन और एक रात व्यतीत की। इन्होंने नदी में नहाकर पूजा-अर्चना की। जब इन्हें भूख लगी तो खेत से हरे चने तोड़कर खा लिये।
दूसरी तरफ इनके घर से इस तरह चले जाने पर घर में सभी परेशान हो गये। *मुरलीधर को भी गुस्सा शान्त होने पर अपनी गलती का अहसास हुआ* और इन्हें खोजने में लग गये। दूसरे दिन शाम के समय जब ये आर्य समाज मंदिर पर स्वामी अखिलानंद जी का प्रवचन सुन रहे थे *इनके पिता दो व्यक्तियों के साथ वहाँ गये और इन्हें घर ले आये।*तब से उनके पिता ने उनके क्रांतिकारी विचारों का विरोध करना बन्द कर दिया।
🎯फाँसी का दिन🌷
19 दिसंबर को फाँसी वाले दिन प्रात: 3 बजे बिस्मिल जी उठते है। शौच , स्नान आदि नित्य कर्म करके यज्ञ किया। फिर ईश्वर स्तुति करके वन्देमातरम् तथा भारत माता की जय कहते हुए वे फाँसी के तख्ते के निकट गए। तत्पश्चात् उन्होने कहा – *“मै ब्रिटिश साम्राज्य का विनाश चाहता हूँ।”* फिर पं. रामप्रसाद बिस्मिल जी तख्ते पर चढ़े और _‘विश्वानिदेव सवितर्दुरितानि...’_ वेद मंत्र का जाप करते हुए फंदे से झूल गए।
ऐसी शानदार मौत लाखों में दो-चार को ही प्राप्त हो सकती है। स्वातंत्र्य वीर पं. रामप्रसाद बिस्मिल जी के इस महान बलिदान ने भारत की आजादी की क्रांति को और तेज़ कर दिया। बाद में चन्द्रशेखर आजाद, भगतसिंह, राजगुरु व सुखदेव जैसे हजारों देशभक्तों ने उनकी लिखी अमर रचना *‘सरफ़रोशी की तमन्ना’* गाते हुए अपने बलिदान दिये।
पं रामप्रसाद बिस्मिल आदर्श राष्ट्रभक्त तथा क्रांतिकारी साहित्यकार के रूप में हमेशा अमर रहेंगे।
दुखद है आज भारत के आधिकांश लोगो ने उन्हें और उनके प्रेरणा स्त्रोत दोनों को भूला दिया है।
भारत के अमर क्रांतिकारी
राम प्रसाद बिस्मिल
स्वतंत्रता संग्राम के क्रांतिकारियों का संदर्भ आते ही, जो वीर हमारी स्मृति में कौंध जाते हैं, उनमें रामप्रसाद बिस्मिल का नाम अग्रणी है । मध्य प्रदेश ग्वालियर के माता-पिता की संतान के रूप में बिस्मिल मैन पुरी उत्तर प्रदेश में जन्मे जो संभवतः उनका ननिहाल था, वह पिता के कठोर अनुशासन में पले बड़े और उन्होंने अनेकों विद्वानों और साधुजन की संगति पाई, लेकिन अंग्रेज सरकार के प्रति विद्रोह की आग जो उनके सीने में एक बार बैठी, वह दिनों दिन धधकती चली गई । इस आग ने उनके देश प्रेम से ओत-प्रोत कवि को जगाया और वह उत्तरोतर देश के अतिरिक्त शेष सब प्रसंगों से विरक्त होते चले गए । यहां तक कि उनके उद्वेग ने उनके प्राणों के प्रति मोह को भी पीछे छोड़ दिया ।
यह सब जानते हैं कि उन्होंने हंसते हुए फांसी का फंदा गले में यह कहते हुए डाल लिया कि अंग्रेज साम्राज्य का विनाश उनकी अंतिम इच्छा है, लेकिन उनका पूरा जीवन वृतांत भी सब जानें और वह विस्मृत न हो, यह भी बहुत जरूरी है क्योंकि देश हर एक युग में रामप्रसाद बिस्मिल मांग सकता है ।
लेखक: डॉ. भवान सिंह राणा
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पारिवारिक पृष्ठभूमि व प्रारम्भिक जीवन
वर्तमान मध्य प्रदेश में अंग्रेजों के शासन में एक देशी रियासत थी, ‘ग्वालियर’। यहीं चम्बल नदी के तट पर दो गांव हैं। इन दोनों गांवों के निवासी उस समय बड़े ही उद्दंड स्वभाव के थे। यहां के लोगों पर राज्य के कानूनों का कोई प्रभाव नहीं था। जमींदार लोग जब चाहें, अपनी इच्छा से भूमिकर देते थे, जब इच्छा नहीं होती, नहीं देते थे। इस संबंध में जब कभी कोई राज्य का अधिकारी इन गांवों में पहुंचता, तो जमींदार लोग अपनी समस्त सम्पत्ति को लेकर अपने पशुओं आदि के साथ चम्बल के बीहड़ों में निकल जाते। राज्य के कानूनों एवं आदेशों की खुलेआम अवहेलना करना इनके लिए एक सामान्य बात थी। इनके इस प्रकार के व्यवहार पर भी यदा-कदा तत्कालीन शासन ने इन पर अपनी उदारता दिखाई थी। इसे उदारता कहा जाए अथवा सनक कि इसी व्यवहार के कारण एक जमींदार को भूमिकर से मुक्ति मिल गई थी। इस घटना का वर्णन करते हुए पण्डित रामप्रसाद बिस्मिल ने अपनी आत्मकथा में लिखा है-
“एक जमींदार के संबंध में एक कथा प्रचलित है कि मालगुजारी न देने के कारण ही उनको कुछ भूमि माफी में मिल गई। पहले तो कई साल तक भागे रहे। एक बार धोखे से पकड़ लिए गए तो तहसील के अधिकारियों ने उन्हें खूब सताया। कई दिन तक बिना खाना पानी बंधा रहने दिया। अन्त में जलाने की धमकी दे पैरों पर सूखी घास डालकर आग लगवा दी। किन्तु उन जमींदार महोदय ने भूमिकर देना स्वीकार नहीं किया और यही उत्तर दिया कि ग्वालियर महाराज के कोष में मेरे कर न देने से घाटा न पड़ जाएगा। संसार क्या जानेगा कि अमुक व्यक्ति उद्दण्डता के कारण ही अपना समय व्यतीत करता है। राज्य को लिखा गया, जिसका परिणाम यह हुआ कि उतनी भूमि उन महाशय को माफी में दे दी गई।”
इस प्रकार की उद्दण्डता करना यहां के निवासी अपने लिए बड़े गौरव की बात समझते थे। एक बार इन लोगों ने राज्य के ऊंटों की चोरी की और इस पर भी राजकोप से बच गए। इस घटना का वर्णन शहीद बिस्मिल ने निम्नलिखित शब्दों में किया है-
“.....एक समय इन ग्रामों के निवासियों को एक अद्भुत खेल सूझा। उन्होंने महाराज के रिसाले के साठ ऊंट चुराकर बीहड़ों में छिपा दिए। राज्य को लिखा गया, जिस पर राज्य की ओर से आज्ञा हुई कि दोनों ग्राम तोप लगाकर उड़वा दिए जाएं। न जाने किस प्रकार समझाने-बुझाने से ऊंट वापस कर दिए गए और अधिकारियों को समझाया गया कि इतने बड़े राज्य में थोड़े से वीर लोगों का निवास है, इनका विध्वंस न करना ही उचित होगा। तब तोपें लौटाई गईं और ग्राम उड़ाए जाने से बचे।”
देसी रियासतें आन्तरिक प्रशासन के लिए उसके शासन के अधीन थीं। इस रियासत के ये निवासी लूट-पाट आदि की घटनाएं प्रायः अपनी रियासत में नहीं करते थे। इस प्रकार की घटनाओं के लिए इन लोगों का कार्यक्षेत्र समीप का अंग्रेजी राज्य होता था। ये लोग अंग्रेजी राज्य के समीपवर्ती क्षेत्र के धनवान लोगों के घरों में डकैतियां डाल रातों-रात चम्बल के बीहड़ों में जा छिपते और इस प्रकार पुलिस इनका कुछ भी नहीं बिगाड़ पाती। ये दोनों गांव अंग्रेजी राज्य की सीमा से प्रायः पन्द्रह मील की दूरी पर हैं। यहीं एक गांव में पण्डित श्री नारायण लाल रहते थे। पण्डितजी की पारिवारिक परिस्थिति अत्यंत सामान्य स्तर की थी। घर में उनकी भाभी का एकाधिकार चलता था, जो एक स्वार्थी प्रवृत्ति की महिला थी। पण्डित नारायण लाल के लिए धीरे-धीरे भाभी का दुर्व्यवहार असहनीय हो गया। इसलिए उन्होंने घर छोड़ देने का निर्णय लिया और अपनी धर्मपत्नी तथा दो अबोध पुत्रों को साथ लेकर घर से निकल पड़े। इस समय उनके बड़े पुत्र मुरलीधर की अवस्था आठ वर्ष तथा छोटे पुत्र कल्याणमल की केवल छः वर्ष थी।
घर छोड़ने के बाद पण्डित नारायण लाल कई दिनों तक आजीविका की तलाश में इधर-उधर भटकते रहे तथा अन्त में शाहजहांपुर उत्तर प्रदेश पहुंचे और यहीं अरहिया नामक गांव में रहने लगे। इस समय देश में भयंकर अकाल पड़ा था। अत्यधिक प्रयत्न करने पर शाहजहांपुर में एक अतार महोदय के यहां पण्डित नारायण लाल को एक मामूली सी नौकरी मिली, जिसमें नाममात्र के लिए तीन रुपए प्रतिमास वेतन मिलता था। भयंकर अकाल में परिवार के चार प्राणियों का भरण-पोषण कर पाना अत्यधिक कठिन कार्य था। दादीजी एक समय, वह भी केवल आधा पेट भोजन करतीं, तब भी परिवार का निर्वाह न हो पाता। अत्यधिक निर्धनता एवं कठिनाइयों का सामना करना पड़ता था। इसका उल्लेख करते हुए पण्डित रामप्रसाद बिस्मिल ने लिखा है-
“दादीजी ने बहुत प्रयत्न किया कि अपने आप केवल एक समय आधे पेट भोजन करके बच्चों का पेट पाला जाए, किन्तु फिर भी निर्वाह न हो सका। बाजरा, कुकनी, सामा, ज्वार इत्यादि खाकर दिन काटने चाहे, किन्तु फिर भी गुजारा न हुआ। तब आधा बथुवा, चना या कोई दूसरा साग, जो सबसे सस्ता हो उसको लेकर, सबसे सस्ता अनाज उसमें आधा मिलाकर थोड़ा सा नमक डालकर उसे स्वयं खातीं, लड़कों को चना या जौ की रोटी देती और इसी तरह दादाजी भी समय व्यतीत करते थे। बड़ी कठिनता से आधा पेट खाकर दिन तो कट जाता, किन्तु पेट में घोटूं दबाकर रात काटना कठिन हो जाता।”
भोजन के साथ ही वस्त्र एवं रहने के लिए मकान की समस्या भी विकट थी। अतः दादीजी ने कुछ घरों में कुटाई-पिसाई का काम करने का विचार किया, परंतु इस अकाल के समय में यह काम मिलना भी सरल नहीं था। बड़ी ही कठिनाई के साथ कुछ घरों में इस तरह का काम मिल पाया, परंतु इसे भी उन्हीं लोगों के घर में करना पड़ता था, जो लोग काम देते थे। यह काम भी बहुत ही कम मिल पाता था-मुश्किल से दिन में पांच-छः सेर जिसका पारिश्रमिक उन दिनों एक पैसा प्रति पसेरी मिलता था। अपनी पारिवारिक विवशताओं के कारण उन्हें इन्हीं एक डेढ़ पैसों के लिए तीन-चार घंटे काम करना पड़ता था। इसके बाद ही घर आकर बच्चों के भोजन की व्यवस्था करनी पड़ती। फिर भी दादीजी संतोष और धैर्य के साथ विपत्ति का सामना करतीं। वह बड़ी ही साहसी महिला थीं। पण्डित नारायण लाल कभी-कभी पत्नी एवं बच्चों के कष्टों को देखकर दुःखी हो जाते और अपनी पत्नी से पुनः अपने मूल निवास स्थान ग्वालियर चल पड़ने को कहते, किन्तु दादी बड़ी स्वाभिमानी महिला थीं। ऐसे अवसरों पर वे अपने पति का साहस बढ़ाती और कहती कि जिन लोगों के कारण घर छोड़ना पड़ा, फिर उन्हीं की शरण में जाना एक स्वाभिमानी व्यक्ति को शोभा नहीं देता। स्वाभिमान की रक्षा करते हुए प्राणों का परित्याग कर देना अच्छा है, किंतु स्वाभिमान का परित्याग मृत्यु से भी बढ़कर है। दुःख-सुख सदा लगे रहते हैं। दुःख के बाद सुख भी प्राप्त होता है। ये दिन भी सदा नहीं रहेंगे। अतः दादीजी फिर कभी लौटकर ग्वालियर राज्य नहीं गईं।
धीरे-धीरे चार-पांच वर्ष बीत गए। पण्डित नारायण लाल का कुछ स्थानीय लोगों से परिचय भी बढ़ गया। अकाल भी बीत गया। पण्डितजी के परिवार पर लोगों का विश्वास एवं स्नेह भी बढ़ गया। ब्राह्मण होने के कारण लोग सम्मान भी देने लगे। दादाजी को कभी-कभी कुछ लोग अपने घर भोजन के लिए आमंत्रित करने लगे। पहले की तुलना में काम भी अधिक मिलने लगा। कभी कुछ दान दक्षिणा भी मिल जाती। इस प्रकार धीरे-धीरे कठिनाइयां कुछ कम होने लगीं।
पण्डित नारायण लाल भी ब्राह्मणवृत्ति करने लगे। कठिन परिश्रम से घर की स्थिति में कुछ सुधार हुआ। धीरे-धीरे बच्चे भी कुछ बड़े हो गए थे। बड़ा पुत्र पाठशाला में पढ़ने जाने लगा। पण्डितजी के कठिन परिश्रम से अब उनका वेतन भी बढ़कर सात रुपए प्रतिमाह हो गया था। परिवार की स्थिति को सुधारने में दादीजी के परिश्रम की भी महत्त्वपूर्ण भूमिका रही। ऐसे दुर्दिनों में उन्होंने जिस साहस का परिचय दिया, एक सामान्य ग्रामीण महिला से ऐसी अपेक्षा प्रायः कम ही की जाती है।
दादी का सामाजिक परिवेश
दादीजी ने ग्वालियर में कभी अपने घर से बाहर पांव भी नहीं रखा था। उन्होंने जिस परिवेश में जन्म लिया, वह एक रूढ़िवादी परंपराओं वाला परिवेश था। उस समाज में जात-पांत, छुआ-छूत आदि रूढ़ियां पूरी तरह व्याप्त थी। इन प्रथाओं का पालन करने में वहां के लोग नियम-कानून आदि की कोई परवाह नहीं करते थे। इसके लिए किसी के प्राण लेने में भी उन्हें किसी प्रकार का संकोच नहीं होता था। कोई भी महिला बिना घूंघट निकाले एक घर से दूसरे घर नहीं जा सकती थी। अनुसूचित जाति की महिलाओं की दशा तो और भी अधिक दयनीय थी। इन सब प्रथाओं का पालन कराने के लिए सवर्ण लोग तरह-तरह के अत्याचार करते थे। किसी भी महिला पर व्यभिचार का संदेह होने पर उसे काट कर चम्बल में बहा देना एक मामूली बात थी, जिसकी किसी को कानों कान खबर भी नहीं होती थी। अनुसूचित जातियों पर सवर्णों के अत्याचारों की कोई सीमा नहीं थी। इस संबंध में बिस्मिल ने एक घटना का उल्लेख किया है-
“एक समय किसी चमार की वधू, जो अंग्रेजी राज्य से विवाह करके गई थी, कुलप्रथानुसार जमींदार के घर पैर छूने के लिए गई। वह पैरों में बिछुए (नूपुर) पहने हुई थी। और सब पहनावा चमारों का पहने थी। जमींदार महोदय की नजर उसके पैरों पर पड़ी। पूछने पर मालूम हुआ कि चमार की बहू है। जमींदार साहब जूता पहनकर आए और उसके पैरों पर खड़े होकर इतने जोर से दबाया कि उसकी अंगुलियां कट गईं। उन्होंने कहा कि यदि चमारों की बहुएं बिछुवा पहनेंगी तो ऊंची जाति के घर की स्त्रियां क्या पहनेंगी?”
इस समाज का केवल एक ही उज्ज्वल पक्ष था, वह था यहां के लोगों का सदाचरण। सभी लोगों का आचरण उच्च था। गांव में किसी भी जाति की महिलाओं को कोई भी बुरी नजर से नहीं देख सकता था। स्त्रियों के सम्मान की रक्षा के लिए लोग अपने प्राणों की भी परवाह नहीं करते थे। अन्यथा यह समाज पूर्णतया एक सामन्तवादी समाज था, जिसे सोलहवीं सदी का समाज कहा जा सकता है।
इस प्रकार के परिवेश में जन्म लेकर भी विपत्ति के दिनों का दादीजी ने जिस साहस के साथ सामना किया, उसे उनका एक क्रान्तिकारी कार्य ही कहा जाएगा। उनके इस साहस एवं त्याग ने अन्ततः इन विपत्तियों पर विजय पा ली। कठिन परिश्रम तथा कुछ ब्राह्मण कार्य करके पण्डित नारायण लाल की आर्थिक स्थिति में सुधार हुआ। इसके बाद उन्होंने नौकरी छोड़ दी। तथा पैसे दुअन्नी आदि सिक्के बेचने का कार्य करने लगे। बुरे दिनों ने विदा ले ली। खुशियों के दिन आए। बड़ा पुत्र मुरलीधर कुछ शिक्षा भी पा गया। पहले किसी दूसरे के घर में रहते थे, अब एक मकान भी खरीद लिया। एक के बाद दूसरे मकान में आश्रय पाने वाले परिवार को अपना घर प्राप्त हो गया, जहां वे शांति एवं आराम से रह सकते थे, जिसे अपना कह सकते थे। मकान हो जाने पर उन्होंने अपने बड़े पुत्र का विवाह करने का विचार किया। यद्यपि उस समय उसकी अवस्था पन्द्रह-सोलह वर्ष से अधिक नहीं थी, किंतु उस समय समाज में बाल विवाह की प्रथा थी। अतः पति-पत्नी अपने बच्चों को लेकर बच्चों के ननिहाल गए। वहीं रिश्ता तय हुआ और विवाह हो गया। पूरा परिवार तीन-चार महीने वहीं रहा तथा फिर नववधू को लेकर शाहजहांपुर आ गया।
अब परिवार में एक नवीन सदस्य का आगमन हो चुका था। पण्डित मुरलीधर पर भी गृहस्थी का उत्तरदायित्व आ गया था। उन्हें भी स्थानीय नगरपालिका में नौकरी मिल गई, जिसमें उन्हें पन्द्रह रुपये मासिक वेतन मिलने लगा। शिक्षा अधिक न होने पर भी उस समय पन्द्रह रुपये प्रतिमास की यह नौकरी कोई कम नहीं थी। फिर भी उन्होंने यह नौकरी लगभग दो वर्षों तक की, क्योंकि उन्हें यह नौकरी करना पसंद न था। वे कोई स्वतंत्र व्यवसाय करना चाहते थे। इसलिए उन्होंने नौकरी से त्यागपत्र दे दिया। इसके बाद क्या किया जाए, यह प्रश्न सामने था। खाली घर में तो बैठा नहीं जा सकता था। घर की स्थिति भी ऐसा काम करने की आज्ञा नहीं देती थी। इस सब को देखते हुए उन्होंने कचहरी में स्टाम्प बेचने का कार्य प्रारम्भ कर दिया। यह व्यवसाय उनके लिए अत्यन्त शुभ रहा। इससे घर की आर्थिक स्थिति अत्यधिक सुधर गई।
इस व्यवसाय से पण्डित मुरलीधर ने अपने समाज में अपना एक विशेष स्थान बना लिया। वे अपने मुहल्ले के संभ्रान्त एवं सम्मानित लोगों में गिने जाने लगे। उन्होंने इसी व्यवसाय से तीन बैलगाड़ियां बनाईं, जिन्हें किराए पर लगा दिया गया। वे पैसे के लेन-देन का काम भी करने लगे। इस प्रकार उनकी आय के स्रोत भी बढ़ गए। यह व्यवसाय वास्तव में उनके जीवन में एक सुनहरा अध्याय सिद्ध हुआ। पहले जिस परिवार के पास पेट भरने के लिए भोजन भी नहीं था, वही परिवार अब साहूकारी का काम करने लगा था। पण्डित मुरलीधर अपने जीवन में प्रायः अन्त तक सरकारी स्टाम्प बेचने का व्यवसाय करते रहे। इसी व्यवसाय से उन्होंने अपनी संतान को शिक्षा-दीक्षा दी, किंतु सम्पन्न हो जाने पर भी वह एक साधारण गृहस्थ की तरह ही रहते थे, दिखावा उन्हें पसंद नहीं था। इसके साथ ही वह अखाड़े में जाने के भी बड़े शौकीन थे। उन्हें कसरत-व्यायाम आदि से बड़ा लगाव था। वह एक स्वस्थ-सुदृढ़ शरीर के व्यक्ति थे। उनका चरित्र बड़ा ही उत्तम था। वह इस विषय में बड़े सख्त व्यक्ति थे।
अपने परिवार की पूर्व स्थिति को सुधारने का सारा श्रेय पण्डित मुरलीधर को ही जाता है। वह वास्तव में एक सपूत सिद्ध हुए। उन्होंने अपने माता-पिता की सारी कठिनाइयों को दूर कर दिया। वह अपने माता-पिता द्वारा उठाए गए कष्टों को भूले नहीं थे, इसी से उन्होंने सदा परिश्रम एवं ईमानदारी की शिक्षा ग्रहण की थी। सवंत् 1953 में पण्डित मुरलीधर के घर में एक पुत्र ने जन्म लिया। दुर्भाग्य से यह पुत्र जीवित न रहा।
रामप्रसाद बिस्मिल का जन्म
ज्येष्ठ शुक्ला 11 संवत् 1954 सन् 1897 में पण्डित मुरलीधर की धर्मपत्नी ने द्वितीय पुत्र को जन्म दिया। इस पुत्र का जन्म मैनपुरी में हुआ था। संभवतः वहां बालक का ननिहाल रहा हो। इस विषय में श्री व्यथित हृदय ने लिखा है-“यहां यह बात बड़े आश्चर्य की मालूम होती है कि बिस्मिल के दादा और पिता ग्वालियर के निवासी थे। फिर भी उनका जन्म मैनपुरी में क्यों हुआ? हो सकता है, मैनपुरी में बिस्मिल जी का ननिहाल रहा हो।”
इस पुत्र से पूर्व एक पुत्र की मृत्यु हो जाने से माता-पिता का इसके प्रति चिन्तित रहना स्वाभाविक था। अतः बालक के जीवन की रक्षा के लिए जिसने जो उपाय बताया, वही किया गया। बालक को अनेक प्रकार के गण्डे ताबीज आदि भी लगाए गए। बालक जन्म से ही दुर्बल था। जन्म के एक-दो माह बाद इतना दुर्बल हो गया कि उसके बचने की आशा ही बहुत कम रह गई थी। माता-पिता इससे अत्यन्त चिन्तित हुए। उन्हें लगा कि कहीं यह बच्चा भी पहले बच्चे की तरह ही चल न बसे। इस पर लोगों ने कहा कि संभवतः घर में ही कोई बच्चों का रोग प्रवेश कर गया है। इसके लिए उन्होंने उपाय भी सुझाया। बताया गया कि एक बिल्कुल सफेद खरगोश बालक के चारों ओर घुमाकर छोड़ दिया जाए। यदि बालक को कोई रोग होगा तो खरगोश तुरंत मर जाएगा। माता-पिता बालक की रक्षा के लिए कुछ भी करने को तैयार थे, अतः ऐसा ही किया गया। आश्चर्य की बात कि खरगोश तुरंत मर गया। इसके बाद बच्चे का स्वास्थ्य दिन पर दिन सुधरने लगा। यही बालक आगे चलकर प्रसिद्ध क्रान्तिकारी अमर शहीद रामप्रसाद बिस्मिल के नाम से प्रसिद्ध हुआ।
शिक्षा
सात वर्ष की अवस्था हो जाने पर बालक रामप्रसाद को पिता पण्डित मुरलीधर घर पर ही हिन्दी अक्षरों का ज्ञान कराने लगे। उस समय उर्दू का बोलबाला था। अतः घर में हिन्दी शिक्षा के साथ ही बालक को उर्दू पढ़ने के लिए एक मौलवी साहब के पास मकतब में भेजा जाता था।
पण्डित मुरलीधर पुत्र की शिक्षा पर विशेष ध्यान देते थे। पढ़ाई के मामले में जरा भी लापरवाही करने पर बालक रामप्रसाद को पिता की मार भी पड़ती रहती थी। हिन्दी अक्षरों का ज्ञान कराते समय एक बार उन्हें बंदूक के लोहे के गज से इतनी मार पड़ी थी कि गज टेढ़ा पड़ गया था। अपनी इस मार का वर्णन करते हुए उन्होंने लिखा है-
“बाल्यकाल से पिताजी मेरी शिक्षा का अधिक ध्यान रखते थे और जरा-सी भूल करने पर बहुत पीटते थे। मुझे अब भी भली-भांति स्मरण है कि जब मैं नागरी के अक्षर लिखना सीख रहा था तो मुझे ‘उ’ लिखना न आया। मैंने बहुत प्रयत्न किया। पर जब पिताजी कचहरी चले गए तो मैं भी खेलने चला गया। पिताजी ने कचहरी से आकर मुझसे ‘उ’ लिखवाया, मैं न लिख सका। उन्हें मालूम हो गया कि मैं खेलने चला गया था। इस पर उन्होंने मुझे बंदूक के लोहे के गज से इतना पीटा कि गज टेढ़ा पड़ गया। मैं भागकर दादाजी के पास चला गया, तब बचा।”
इसके बाद बालक रामप्रसाद ने पढ़ाई में कभी असावधानी नहीं की। वह परिश्रम से पढ़ने लगे। वह आठवीं कक्षा तक सदा अपनी कक्षा में प्रथम आते थे, किंतु कुसंगति में पड़ जाने के कारण उर्दू मिडिल परीक्षा में वह लगातार दो वर्ष अनुत्तीर्ण हो गए। बालक की इस अवनति से घर में सभी को बहुत दुःख हुआ। दो बार एक ही परीक्षा में अनुत्तीर्ण होने पर बालक रामप्रसाद का मन उर्दू की पढ़ाई से उठ गया। उन्होंने अंग्रेजी पढ़ने की इच्छा व्यक्त की, किंतु पिता पण्डित मुरलीधर अंग्रेजी पढ़ाने के पक्ष में नहीं थे। वह रामप्रसाद को किसी व्यवसाय में लगाना चाहते थे। अन्ततः मां के कहने पर उन्हें अंग्रेजी पढ़ने भेजा गया। अंग्रेजी में आठवीं पास करने के बाद नवीं में ही वह आर्यसमाज के सम्पर्क में आए, जिससे उनके जीवन की दिशा ही बदल गई।
दादा-दादी की छत्रछाया में
बच्चों को घर में अपने माता-पिता से भी अधिक स्नेह अपने दादा-दादी से होता है। बालक रामप्रसाद भी इसके अपवाद नहीं थे। पिताजी अत्यधिक सख्त अनुशासन वाले व्यक्ति थे। इसका उल्लेख ऊपर किया जा चुका है। अतः पिताजी के गुस्से से बचने का उपाय रामप्रसाद के लिए अपने दादा श्री नारायण लाल ही थे। दादाजी सीधे-सादे, सरल स्वभाव के प्राणी थे। मुख्यरूप से सिक्के बेचना ही उनका व्यवसाय था। उन्हें अच्छी नस्ल की दुधारू गायें पालने का बड़ा शौक था। दूर-दूर से दुधारू गायें खरीदकर लाते थे और पोते को खूब दूध पिलाते थे। गायें इतनी सीधी थीं कि बालक रामप्रसाद जब-तब उनका थन मुंह में लेकर दूध पिया करते थे। दादाजी रमप्रसाद के स्वास्थ्य पर सदा ध्यान देते थे। इसके साथ ही दादा जी धार्मिक स्वभाव के पुरुष थे। वे सदा सांयकाल शिव मंदिर में जाकर लगभग दो घण्टे तक पूजा-भजन इत्यादि करते थे, जिसका बालक रामप्रसाद पर गहरा प्रभाव पड़ा। दादाजी का देहावसान लगभग पचपन वर्ष की आयु में हुआ।
दादीजी कठिन परिश्रमी महिला थीं। उन्होंने अपने जीवन में बड़े अभाव देखे थे, जिनका उन्होंने बड़ी दृढ़ता से सामना किया था। इसका वर्णन पहले ही किया जा चुका है।
ममतामयी मां
पण्डित रामप्रसाद बिस्मिल की मां पूर्णतया एक अशिक्षित ग्रामीण महिला थी। विवाह के समय उनकी अवस्था केवल ग्यारह वर्ष की थी। ग्यारह वर्ष की नववधू को घरेलू कामों की शिक्षा देने के लिए दादीजी ने अपनी छोटी बहिन को बुला लिया था। संभवतः दादीजी अभी तक कुटाई-पिसाई का काम करती रहती थीं, जिससे उन्हें बहू को काम सिखाने का समय नहीं मिल पाता था। कुछ ही दिनों में उन्होंने घर का सारा काम भोजन बनाना आदि अच्छी तरह से सीख लिया था। रामप्रसाद जब छः-सात वर्ष के हो गए तो माताजी ने भी हिन्दी सीखना शुरू किया। उनके मन में पढ़ने की तीव्र इच्छा थी। घर के कामों को निबटाने के बाद वह अपनी किसी शिक्षित पड़ोसिन से लिखना-पढ़ना सीखने लगीं। अपनी तीव्र लगन से वह कुछ ही समय में हिन्दी की पुस्तकें पढ़ना सीख गईं। अपनी सभी पुत्रियों को भी स्वयं उन्होंने ही हिन्दी अक्षरों का ज्ञान कराया था।
बालक रामप्रसाद की धर्म में भी रुचि थी, जिसमें उन्हें अपनी माताजी का पूरा सहयोग मिलता था। वह पुत्र को इसके लिए नित्य प्रातः चार बजे उठा देती थीं। इसके साथ ही जब रामप्रसाद की अभिरुचि देशप्रेम की ओर हुई, तो मां उन्हें हथियार खरीदने के लिए यदा-कदा पैसे भी देती रहती थीं। वह सच्चे अर्थों में एक देशप्रेमी महिला थीं। बाद में जब रामप्रसाद आर्य समाज के सम्पर्क में आए, तो उनके पिताजी ने इसका बहुत अधिक विरोध किया, किंतु मां ने उनकी (रामप्रसाद की) इस भावना का सम्मान किया। आर्यसमाज के सिद्धांतों का उन पर पर्याप्त प्रभाव पड़ा। पहले वह एक पारंपरिक ब्राह्मण महिला थीं, किंतु अब उनके विचारों में काफी उदारता आ गई थी।
पण्डित रामप्रसाद की माताजी एक साहसी महिला थीं। महानतम विपत्ति में भी धैर्य न खोना उनके चरित्र का एक सबसे बड़ा गुण था। वह किसी भी विपत्ति में सदा अपने पुत्र का उत्साह बढ़ाती रहती थीं। पुत्र के दुःखी अथवा अधीर होने पर वह अपनी ममतामयी वाणी से सदा उन्हें सांत्वना देती थीं।
रामप्रसाद के परिवार में कन्याओं को जन्म लेते ही मार देने की एक क्रूर परंपरा रही थी। इस परंपरा को उनकी माताजी ने ही तोड़ा था। इसके लिए उन्हें अपने परिवार के विरोध का भी सामना करना पड़ा था। दादा और दादी दोनों कन्याओं को मार देने के पक्ष में थे और बार-बार अपनी पुत्रवधू को कन्याओं को मार देने की प्रेरणा देते थे, किंतु माताजी ने इसका डटकर विरोध किया और अपनी पुत्रियों के प्राणों की रक्षा की। उन्हीं के कारण इस परिवार में पहली बार कन्याओं का पालन-पोषण तथा विवाह हुआ था।
अपनी मां के व्यक्तित्व का रामप्रसाद बिस्मिल पर गहरा प्रभाव पड़ा। अपने जीवन की सभी सफलताओं का श्रेय उन्होंने अपनी मां को ही दिया है। मां के प्रति अपनी श्रद्धा व्यक्त करते हुए उन्होंने लिखा है-
“यदि मुझे ऐसी माता न मिलती तो मैं भी अतिसाधारण मनुष्यों की भांति संसार चक्र में फंसकर जीवन निर्वाह करता। शिक्षादि के अतिरिक्त क्रांतिकारी जीवन में भी उन्होंने मेरी वैसी ही सहायता की, जैसी मेजिनी की उनकी माता ने की थी।.....माताजी का मेरे लिए सबसे बड़ा उपदेश यही था कि किसी की प्राण हानि न हो। उनका कहना था कि अपने शत्रु को भी कभी प्राण दण्ड न देना। उनके इस आदेश की पूर्ति करने के लिए मुझे मजबूरन एक-दो बार अपनी प्रतिज्ञा भंग भी करनी पड़ी।
जन्म दात्री जननी! इस जीवन में तो तुम्हारा ऋण परिशोध करने का प्रयत्न करने का भी अवसर न मिला। इस जन्म में तो क्या यदि अनेक जन्मों में भी सारे जीवन प्रयत्न करूं तो भी तुमसे उऋण नहीं हो सकता। जिस प्रेम तथा दृढ़ता के साथ तुमने इस तुच्छ जीवन का सुधार किया है, वह अवर्णनीय है। मुझे जीवन की प्रत्येक घटना का स्मरण है कि तुमने किस प्रकार अपनी देव वाणी का उपदेश करके मेरा सुधार किया है। तुम्हारी दया से ही मैं देश सेवा में संलग्न हो सका। धार्मिक जीवन में भी तुम्हारे ही प्रोत्साहन ने सहायता दी। जो कुछ शिक्षा मैंने ग्रहण की उसका भी श्रेय तुम्हीं को है। जिस मनोहर रूप से तुम मुझे उपदेश करती थी, उसका स्मरण कर तुम्हारी मंगलमयी मूर्ति का ध्यान आ जाता है और मस्तक नत हो जाता है। तुम्हें यदि मुझे ताड़ना भी देनी हुई, तो बड़े स्नेह से हर बात को समझा दिया। यदि मैंने धृृष्टतापूर्वक उत्तर दिया, तब तुमने प्रेम भरे शब्दों में यही कहा कि तुम्हें जो अच्छा लगे, वह करो, किंतु ऐसा करना ठीक नहीं, इसका परिणाम अच्छा न होगा। जीवनदात्री! तुमने इस शरीर को जन्म देकर केवल पालन-पोषण ही नहीं किया, किन्तु आत्मिक, धार्मिक तथा सामाजिक उन्नति में तुम्हीं मेरी सदैव सहायक रहीं। जन्म-जन्मान्तर परमात्मा ऐसी ही माता दे।
महान-से-महान कष्ट में भी तुमने मुझे अधीर नहीं होने दिया। सदैव अपनी प्रेमभरी वाणी सुनाते हुई मुझे सांत्वना देती रही। तुम्हारी दया की छाया में मैंने जीवनभर कोई कष्ट अनुभव न किया। इस संसार में मेरी किसी से भोग-विलास तथा ऐश्वर्य की इच्छा नहीं। केवल एक तृष्णा है, वह यह कि एक बार श्रद्धापूर्वक तुम्हारे चरणों की सेवा करके अपने जीवन को सफल बना लेता। किंतु यह इच्छा पूर्ण होती दिखाई नहीं देती और तुम्हें मेरी मृत्यु का दुःखद संवाद सुनाया जाएगा। मां! मुझे विश्वास है कि तुम यह समझकर धैर्य धारण करोगी कि तुम्हारा पुत्र माताओं की माता-भारत माता-की सेवा में अपने जीवन को बलिवेदी पर भेंट कर गया और उसने तुम्हारे कुल को कलंकित नहीं किया, अपनी प्रतिज्ञा पर दृढ़ रहा। जब स्वाधीन भारत का इतिहास लिखा जाएगा, तो उसके किसी पृष्ठ पर उज्जवल अक्षरों में तुम्हारा भी नाम लिखा जाएगा। गुरु गोविन्द सिंह की धर्मपत्नी ने जब अपने पुत्रों की मृत्यु का संवाद सुना था, तो बहुत हर्षित हुई थीं और गुरु के नाम पर धर्म-रक्षार्थ अपने पुत्रों के बलिदान पर मिठाई बांटी थी। जन्म दात्री वर दो कि अंतिम समय भी मेरा हृदय किसी प्रकार विचलित न हो और तुम्हारे चरण कमलों को प्रणाम कर मैं परमात्मा का स्मरण करता हुआ शरीर त्याग करूं।”
स्पष्ट है कि रामप्रसाद के जीवन पर उनकी मां का सबसे अधिक प्रभाव पड़ा था। उन्होंने अपने जीवन में अपनी मां को ही सबसे बड़े आदर्श के रूप में देखा था।
भाई-बहिन
पण्डित रामप्रसाद के जन्म से पूर्व ही उनके एक भाई की जन्म के कुछ ही समय बाद मृत्यु हो गई थी। रामप्रसाद के बाद उनके घर में पांच बहनों तथा तीन भाइयों का जन्म हुआ। इनमें से दो भाई तथा दो बहनें कुछ ही समय बाद मृत्यु को प्राप्त हो गए। इसके बाद परिवार में दो भाई तथा तीन बहनें रहीं। पहले ही उल्लेख हो चुका है कि उनके परिवार में कन्याओं की हत्या कर दी जाती थी। उनकी मां के कारण ही पहली बार इस परिवार में कन्याओं का पालन-पोषण हुआ। मां की ही प्रेरणा से तीनों पुत्रियों को अपने समाज के अनुसार अच्छी शिक्षा दी गई तथा उनका विवाह भी बड़ी धूम-धाम से किया गया।
पण्डित रामप्रसाद बिस्मिल के बलिदान के समय उनके छोटे भाई सुशीचन्द्र की अवस्था केवल दस वर्ष थी। बाद में उसे तपेदिक हो गई थी, जो चिकित्सा के अभाव में कुछ ही समय बाद दुनिया से चल बसा था। तीन बहनों का विवाह हो गया था, जिनमें से एक की विवाह के बाद मृत्यु हो गई थी। एक अन्य बहन बड़े भाई रामप्रसाद की मृत्यु का दुःख सहन नहीं कर सकी। उसने विष खाकर आत्महत्या कर ली। केवल एक बहन शास्त्रीदेवी ही शेष बचीं। इस करुणकथा का वर्णन श्रीमती शास्त्रीदेवी ने इस प्रकार किया है-
“.....दो बहनें विवाह के बाद मर गई। एक छोटी बहिन तो जहर खाकर मर गई। भाई को फांसी का हुक्म हुआ सुनकर उसने जहर खा लिया। उसकी शादी भाई ने एक जमींदार के साथ की थी। वह हम से छः मील की दूरी पर थी कुचेला के मौजे में। छोटा भाई बीमार हो गया तपेदिक हो गई थी। पिताजी अस्पताल में भर्ती कर आए। डॉक्टर ने कहा कि दो सौ रुपये दो, हम ठीक कर सकते हैं। पिताजी ने कहा कि मेरे पास रुपये होते तो यहां क्यों आता? मुझे तो गवर्नमेण्ट ने भेंट दिया। लड़का भी गया, पैसा भी गया। अब तो बहुत दिन हो गए। गणेशशंकर विद्यार्थी पन्द्रह रुपये मासिक देते हैं, उनसे गुजर करता हूं। एक हफ्ता अस्पताल में रहा, उसे खून के दस्त हुए, चौबीस घण्टे में खत्म हो गया। दसवां दर्जा पास था। वह भी बोलने में बहुत अच्छा था। लोग कहते थे कि यह भी रामप्रसाद की तरह काम करेगा। अब इस समय मायके के सारे खानदान में मैं ही अकेली अभागिन रह गई हूं।”
उद्दण्ड स्वभाव बालक रामप्रसाद
रामप्रसाद बिस्मिल अपने बचपन में बहुत शरारती तथा उद्दण्ड स्वभाव के थे। दूसरों के बागों से फल तोड़ने तथा अन्य शरारतें करने में उन्हें बड़ा आनंद आता था। इस पर उन्हें अपने पिताजी के क्रोध का भी सामना करना पड़ता था। वह बुरी तरह पीटते थे, किंतु इसका भी उन पर (रामप्रसाद पर) कोई प्रभाव नहीं पड़ता था। एक बार किसी के पेड़ से आड़ू तोड़ने पर उन्हें इतनी मार पड़ी थी कि वह दो दिन तक बिस्तर से नहीं उठ सके थे। अपनी आत्मकथा में इस घटना का वर्णन करते हुए उन्होंने लिखा है-
“छोटेपन में मैं बहुत ही उद्दण्ड था। पिताजी के पर्याप्त शासन रखने पर भी बहुत उद्दण्डता करता था। एक बार किसी के बाग में जाकर आड़ू के वृक्षों में से सब आड़ू तोड़ डाले। माली पीछे दौड़ा किंतु उसके हाथ न आया। माली ने सब आड़ू पिताजी के सामने ला रखे। उस दिन पिताजी ने मुझे इतना पीटा कि मैं दो दिन तक उठ न सका। इसी प्रकार खूब पिटता था, किंतु उद्दण्डता अवश्य करता था। शायद उस बचपन की मार से ही यह शरीर बहुत कठोर तथा सहनशील बन गया।”
किशोर अवस्था और बुरी आदतें
पण्डित मुरलीधर को पहलवानी से बड़ा प्रेम था। उनका शरीर बड़ा ही स्वस्थ एवं बलवान था। वह अपने से डेढ़ गुना बलवान पहलवानों को कुश्ती में हरा देते थे। बालक रामप्रसाद के सात वर्ष के होने पर उन्हें उर्दू मकबत में भेजा जाने लगा। इसके कुछ दिनों बाद पण्डित मुरलीधर का किसी चटर्जी महाशय से परिचय हुआ जो एक कैमिस्ट थे; उनकी अंग्रेजी दवाओं की दुकान थीं। चटर्जी महाशय अनेक प्रकार के नशे के आदी थे, बाद में उन्हें शराब की भी लत पड़ गई थी। अन्ततः ये नशे उन्हें ले डूबे। उन्हें बीमारी ने जकड़ लिया और वह दुनिया से अकाल ही चल बसे।
इन्हीं चटर्जी महाशय से पण्डित मुरलीधर का परिचय धीरे-धीरे प्रगाढ़ प्रेम में परिवर्तित हो गया। फलतः मित्र के सभी दुर्गुण उनमें भी आ गए। मुरलीधर भी चरस पीने लगे, जिससे उनके स्वास्थ्य की भयंकर हानि हुई। उनका सुन्दर बलवान शरीर सूखकर कांटा हो गया। उनके मित्रों तथा घरवालों को इससे बड़ी चिंता हुई। सभी ने उन्हें तरह-तरह से समझाया। तब कहीं जाकर बहुत दिनों बाद उनकी चरस पीने की आदत छूट पाई।
यह एक कटु सत्य है कि अभिभावकों की हर अच्छी-बुरी आदतों का प्रभाव उनके बच्चों पर अवश्य पड़ता है। भले ही अबोध बच्चे अपने बड़ों की बुरी आदतों का विरोध नहीं कर पाते; परंतु इससे उनके अचेतन मन में एक विरोध की भावना घर कर जाती है कभी-कभी बच्चे स्वयं भी उन बुरी आदतों की ओर आकृष्ट हो जाते हैं, क्योंकि उनका स्वभाव ही जिज्ञासु होता है। इसके साथ ही बच्चे के साथ मार-पीट और कठोर व्यवहार उसे जिद्दी बना देता है। कदाचित् अपने पिता की नशे की आदत तथा कठोर व्यवहार का बालक रामप्रसाद पर भी दुष्प्रभाव पड़े बिना नहीं रह सका।
चौदह वर्ष की अवस्था में रामप्रसाद उर्दू की चौथी कक्षा में उत्तीर्ण होकर पांचवीं में पहुंचे। अपनी इस किशोर अवस्था में उनमें अनेक दुर्गुण आ गए। वह घर से पैसों की चोरी करना सीख गए। इन पैसों से वह उपन्यास खरीदते। उपन्यास पढ़ना उनका प्रिय शौक बन गया। इसके साथ ही शृंगारिक साहित्य तथा उर्दू की गजलों का भी उन्हें चस्का लग गया। वह सिगरेट पीना भी सीख गए। यही नहीं भांग का भी स्वाद लिया जाने लगा। इन्हीं बुरी आदतों के कारण वह उर्दू मिडिल परीक्षा में दो साल अनुत्तीर्ण हो गए। बालक रामप्रसाद बुरी आदतों के दलदल में फंसते गए। इससे बच पाना उनके लिए कठिन हो गया। वह जिस पुस्तक विक्रेता से उपन्यास आदि खरीदते थे, वह पण्डित मुरलीधर का परिचित था। रामप्रसाद का अधःपतन देखकर उसे दुःख हुआ। अतः इसकी शिकायत रामप्रसाद के पिता से कर दी। पिता जी सावधान रहने लगे। बालक रामप्रसाद भी सावधान थे। उन्होंने उसकी दुकान से उपन्यास खरीदना ही बंद कर दिया।
संभवतः भगवान को रामप्रसाद का यह पतन स्वीकार नहीं था। एक बार वह भांग के नशे में डूबे हुए पिताजी के संदूक में हाथ साफ कर रहे थे। इतने में असावधानी से संदूक की कुण्डी जोर से खटक पड़ी। इसे उनकी माताजी ने सुन लिया और रंगे हाथों पकड़े गए। उन्होंने पिताजी के संदूक के ताले की दूसरी चाबी बना ली थी। इस पर उनके अपने संदूक में देखा गया। उसमें अनेक उपन्यास, ग़ज़लों की किताबें तथा रुपये भी रखे मिले। सभी पुस्तकें फाड़कर जला दी गईं। इसके बाद उनकी सभी गतिविधियों पर विशेष ध्यान दिया जाने लगा। पिताजी ने अपने संदूक का ताला ही बदल लिया। रामप्रसाद बुरी आदतों के शिकार हो चुके थे। आदतों का छूटना इतना आसान नहीं होता। यद्यपि वह सुधरने का पूरा प्रयत्न करते, किंतु सिगरेट छोड़ पाना उनके लिए बड़ा कठिन हो गया था। जब भी उन्हें मौका मिलता, वह अपनी मां के पैसों पर हाथ साफ करने से नहीं चूकते। परंतु मां के पास इतने पैसे नहीं रहते थे कि उनके पहले की तरह सभी शौक पूरे हो सकें। साथ ही मां भी सावधान रहती थीं। और रामप्रसाद को भी अब स्वतः अपनी बुराई का आभास होने लगा कि ऐसा करना अच्छा नहीं था।
बुराइयों से मुक्ति
अपनी इन बुरी आदतों के कारण रामप्रसाद मिडिल में दो वर्ष अनुत्तीर्ण हो गए। उनकी इच्छा पर उन्हें अंग्रेजी स्कूल में प्रवेश दिला दिया गया। उनके घर के पास ही एक मंदिर था। इन्हीं दिनों इस मंदिर में एक नए पुजारीजी आ गए; जो बड़े ही उदार और चरित्रवान व्यक्ति थे। रामप्रसाद अपने दादा जी के साथ पहले से ही मंदिर में जाने लगे थे। नए पुजारीजी से भी रामप्रसाद प्रभावित हुए। वह नित्य मंदिर में आने-जाने लगे। पुजारीजी के सम्पर्क में वह पूजा-पाठ आदि भी सीखने लगे। पुजारीजी पूजा-पाठ के साथ ही उन्हें संयम-सदाचार, ब्रह्मचर्य आदि का भी उपदेश देते थे। इस सबका रामप्रसाद पर गहरा प्रभाव पड़ा। वह समय का सदुपयोग करने लगे। उनका अधिकतर समय पढ़ने तथा ईश्वर उपासना में बीतने लगा। उन्हें इस कार्य में आनंद आने लगा। इसके साथ ही वह व्यायाम भी नियमित रूप में करने लगे। उनकी सभी बुरी आदतें छूट गईं, किंतु सिगरेट छोड़ना उन्हें बहुत कठिन लगा। इस समय वह प्रतिदिन लगभग पचास-साठ सिगरेट पी जाते थे। इस बुराई को न छोड़ पाने का उन्हें दुःख था। वह समझते थे संभवतः उनकी यह बुरी आदत कभी नहीं छूट पाएगी।
उर्दू स्कूल छोड़कर उन्होंने मिशन स्कूल की पांचवी कक्षा में नाम लिखा लिया। यहां उनको अपने एक सहपाठी सुशीलचन्द्र सेन से विशेष प्रेम हो गया। अपने इसी सहपाठी के संपर्क में आने पर उनकी सिगरेट पीने की लत भी छूट गई।
द्वितीय अध्याय
नये विश्वास-नया जीवन
जिन दिनों रामप्रसाद अपने घर के पास वाले मंदिर में ईश्वर की आराधना करते थे, तभी उनका परिचय मुंशी इन्द्रजीत से हुआ, जो आर्यसमाजी विचारधारा के थे। उनका मंदिर के पास ही रहने वाले किसी सज्जन के घर आना-जाना था। रामप्रसाद की धर्म में अभिरुचि देखकर मुंशी इन्द्रजीत ने उन्हें संध्या उपासना करने का परामर्श दिया। रामप्रसाद ने संध्या के विषय में उनसे विस्तार में पूछा। मुंशीजी ने संध्या का महत्त्व तथा उपासना की विधि उन्हें समझाई। इसके बाद उन्होंने रामप्रसाद को आर्य सामाज के सिद्धांतों के बारे में भी बताया और पढ़ने के लिए सत्यार्थ प्रकाश दिया।
सत्यार्थ प्रकाश पढ़ने पर रामप्रसाद के विचार में एक अभूतपूर्व परिवर्तन आया। उन्हें वैदिक धर्म को जानने का सुअवसर प्राप्त हुआ। इससे उनके जीवन में नए विचारों और विश्वासों का जन्म हुआ, उन्हें एक नया जीवन मिला, उन्होंने सत्य, संयम, ब्रह्मचर्य का महत्त्व आदि विषयों को जाना। उन्होंने अखण्ड ब्रह्मचर्य व्रत का प्रण किया। इसके लिए उन्होंने अपनी पूरी जीवनचर्या ही बदल डाली। भूमि में तख्ते पर सोना, सात्विक आचार-विचार, संयम से रहना यही सब उनका जीवन बन गया। इससे उनका शरीर अपूर्व कांतिमय एवं सुदृढ़ बन गया। सत्यार्थ प्रकाश के अध्ययन ने उनके जीवन की दशा ही बदल डाली। इस प्रभाव के विषय में उन्होंने स्वयं लिखा है-
“इसके बाद मैंने सत्यार्थ प्रकाश पढ़ा। इससे तख्ता ही पलट गया। सत्यार्थ प्रकाश के अध्ययन ने मेरे जीवन के इतिहास में एक नवीन पृष्ठ खोल दिया। मैंने उसमें उल्लिखित ब्रह्मचर्य के कठिन नियमों का पालन करना प्रारंभ कर दिया। मैं एक कंबल को तख्त पर बिछाकर सोता और प्रातःकाल चार बजे से ही शय्या त्याग कर देता। स्नान-संध्यादि से निवृत्त होकर व्यायाम करता, किंतु मन की वृत्तियां ठीक न होतीं। मैंने रात्रि के समय भोजन करना त्याग दिया। केवल थोड़ा सा दूध ही रात के समय पीने लगा। सहसा ही बुरी आदतों को छोड़ा था, इस कारण कभी-कभी स्वप्नदोष हो जाता। तब किसी सज्जन के कहने पर मैंने नमक खाना भी छोड़ दिया। केवल उबालकर साग या दाल से एक समय भोजन करता। मिर्च खटाई तो छूता भी न था। इस प्रकार पांच वर्ष तक बराबर नमक न खाया। नमक न खाने से शरीर के दोष दूर हो गए और मेरा स्वास्थ्य दर्शनीय हो गया। सब लोग मेरे स्वास्थ्य को आश्चर्य की दृष्टि से देखा करते थे।”
इस प्रकार जो बालक अपनी किशोर अवस्था में एक बार अनेक बुरी लतों का आदी हो गया था, सत्यार्थ प्रकाश के अध्ययन ने उसका पूरा जीवन ही बदल डाला। वह एक आदर्श किशोर बन गया। उसका यह परिवर्तन सभी को आश्चर्य में डाल देता था।
विचारों का विरोध
आर्य समाज के प्रति रामप्रसाद की जिज्ञासा दिन-प्रतिदिन बढ़ती गई। वह आर्य समाज की सभाओं में जाने लगे। वहां आर्य समाज के विषय में दिए गए व्याख्यानों को वह बड़े मनोयोग से सुनते। आर्य समाज के साधु-महात्माओं के प्रति उनके हृदय में अपार श्रद्धा उत्पन्न हो गई। साधु-महात्माओं की सेवा करने में उन्हें बड़ा आनंद मिलता। इन्हीं दिनों वह योग के प्रति भी आकर्षित हुए, उन्हें प्राणायाम सीखने की तीव्र इच्छा थी। अपनी इस इच्छा की पूर्ति के लिए वह किसी भी साधु-महात्मा के आगमन का समाचार सुनकर उसी के पास पहुंच जाते।
आर्य समाज हिन्दू धर्म में फैली सभी बुराइयों का विरोध करके इसे एक विशुद्ध वैज्ञानिक स्वरूप देना चाहता है। इसकी इस विचारधारा के कारण पुरातनपंथी, अंधविश्वासी हिन्दू इसके विरोधी रहे हैं। जब रामप्रसाद मिशन स्कूल में सातवीं कक्षा के विद्यार्थी थे, उन्हीं दिनों सनातन हिन्दू मत के अनुयायी पण्डित जगत प्रसाद आर्य समाज का खण्डन कर रहे थे। इसी सिलसिले में वह शाहजहांपुर पहुंचे। उन्होंने आर्य समाज का विरोध करना प्रारंभ कर दिया। आर्य समाजियों ने उनके इस कार्य का विरोध किया और उनसे शास्त्रार्थ करने के लिए प्रसिद्ध विद्वान पण्डित अखिलानन्द को बुलाया गया। दोनों में शास्त्रार्थ हुआ, किंतु यह शास्त्रार्थ संस्कृत भाषा में हुआ था। संभवतः इसमें आर्य समाज की ही विजय हुई थी।
रामप्रसाद पूर्णतया आर्य समाज के रंग में रंग चुके थे स्वाभाविक रूप में वह समाज में फैली बुराइयों का विरोध करने लगे। इससे उनके मुहल्ले के कुछ लोगों के विचारों को ठेस लगी। अतः उन्होंने रामप्रसाद की शिकायत उनके पिताजी से की। पिताजी ने रामप्रसाद से तुरंत आर्य समाज छोड़ देने के लिए कहा, किंतु उन्हें आर्य समाज के सिद्धांतों पर दृढ़ आस्था थी। वह ऐसा करने के लिए तैयार नहीं हुए। इस पर पिता पुत्र में विवाद बढ़ गया। कोई भी अपनी बात पर पीछे हटने को तैयार नहीं था। पिताजी ने अंतिम चेतावनी दे दी-“आर्य समाज छोड़ दो या घर से निकल जाओ, अन्यथा रात में सोते समय तुम्हारी हत्या कर दी जाएगी।”
रामप्रसाद को पिताजी के इस व्यवहार से भारी दुःख हुआ। उन्होंने अपने मन में विचार किया-“पिताजी जिद्दी स्वभाव के हैं। हो सकता है वह कोई अनुचित व्यवहार कर बैठें। इससे घर की ही बदनामी होगी। ऐसी परिस्थिति में घर छोड़ देना ही उचित होगा।” वह इसी विषय में चिंतन कर रहे थे और धोती पहनने का उपक्रम कर रहे थे। पिताजी का क्रोध अपने आपे से बाहर हो चुका था। उन्होंने क्रोध में आकर रामप्रसाद की धोती हाथ से छीन ली तथा आदेशात्मक स्वर में कहा, “जाओ घर से निकल जाओ।” पिताजी के इस असंभावित व्यवहार से रामप्रसाद को अकल्पनीय दुःख हुआ। उन्होंने पिताजी के चरण स्पर्श किए और घर से निकल पड़े। इस समय उनके शरीर पर केवल एक कमीज तथा लंगोट के सिवाय कुछ भी न था।
आवेश में वह घर से निकल गए, किंतु अब समस्या सामने खड़ी थी कि कहां जाएं? शहर में कोई ऐसा परिचित नहीं था कि शरण दे पाता। उनकी समझ में कुछ न आया। पग स्वयं ही जंगल की ओर बढ़ गए। एक रात और एक दिन पूरे चौबीस घंटे रास्ते में किसी बाग के एक पेड़ पर गुजारे। भूख पर किसी का वश नहीं चलता, अतः भूख से व्याकुल होने पर पास के खेतों से कच्चे चने तोड़कर खा लिए। पास ही में बहने वाली नदी में नहाया भी और पानी भी पिया। इसके दूसरे दिन आर्य समाज मंदिर में पंडित अखिलानन्द का व्याख्यान था, अतः व्याख्यान सुनने के लिए वहां पहुंच गए और एक पेड़ के नीचे खड़े होकर व्याख्यान सुनने लगे।
यद्यपि पण्डित मुरलीधर ने क्रोध के आवेश में पुत्र को घर से निकाल तो दिया, किंतु बाद में स्वयं उन्हें अपने व्यवहार पर भारी ग्लानि हुई। रामप्रसाद के घर से निकल जाने पर घर में सभी दुःखी थे। इस बीच घर में किसी ने भोजन नहीं किया। सबके मन में तरह-तरह की शंकाएं उभरने लगीं। कहीं वह रेल से कटकर अथवा नदी में डूबकर आत्महत्या न कर ले। क्रोध में मनुष्य अपना विवेक खो बैठता है, किंतु बाद में उसे स्वयं अपने कृत्य पर पछतावा होता है, सभी लोग उसे भला-बुरा कहते हैं। अतः रामप्रसाद की खोज होने लगी। सबने विचार किया कि वह आर्य समाज मंदिर में ही मिल सकते हैं। रामप्रसाद वहां व्याख्यान सुन रहे थे। इतने में उनके पिताजी दो अन्य व्यक्तियों के साथ वहां पर पहुंच गए। उन्हें वहां से समझा-बुझाकर ले आए। सबसे पहले उन्हें मिशन स्कूल के प्रधान अध्यापक के पास ले गए, जहां रामप्रसाद पढ़ते थे। प्रधान अध्यापक महोदय स्वयं एक ईसाई थे। उन्हें सारी बातें बताई गई। उन्होंने पण्डित मुरलीधर को समझाया कि “लड़का समझदार है; वह अपना भला बुरा स्वयं समझ सकता है, अगर वह आर्य समाज के सिद्धांतों को उचित समझता है, तो उसे बलपूर्वक इससे विमुख नहीं किया जा सकता, ऐसा करना उचित भी नहीं होगा। इससे उसके मन में विद्रोह की भावना का जन्म लेना स्वाभाविक ही है और फिर इतने बड़े लड़के के साथ मार-पीट करना उचित नहीं है।”
इसके बाद घर वालों ने आर्य समाज के प्रति उनके दृष्टिकोण का विरोध करना छोड़ दिया। पिताजी ने फिर उनके ऊपर कभी हाथ नहीं उठाया। हां, दादीजी को यह कदापि पसंद नहीं था कि उनका पोता आर्य समाजी बने। वह बार-बार आर्य समाज के कार्यकलापों में भाग न लेने की सलाह देती रहतीं, किंतु मां पुत्र की भावनाओं का सम्मान करती थी। वह सदा पुत्र का उत्साह बढ़ातीं, जिसके कारण उन्हें कई बार पति की डांट-फटकार भी सुननी पड़ती थी। रामप्रसाद अपने मार्ग पर आगे बढ़ते रहे।
कुमार सभा में
आर्य समाज से प्रभावित युवकों ने आर्य समाज मंदिर में कुमार सभा की स्थापना की थी। प्रत्येक शुक्रवार को कुमार सभा की एक बैठक होती थी। यह सभा धार्मिक पुस्तकों पर बहस, निबंध लेखन, वाद-विवाद आदि का आयोजन करती थी। रामप्रसाद भी इसके सदस्य थे। यहीं से उन्होंने सार्वजनिक रूप में बोलना प्रारंभ किया। कुमार सभा के सदस्य शहर तथा उसके आस-पास लगने वाले मेलों में आर्य समाज के सिद्धांतों का प्रचार करते थे तथा बाजारों में भी इस विषय में व्याख्यान देते थे। इस प्रकार का प्रचार कार्य मुसलमानों को सहन नहीं हुआ। सांप्रदायिक वैमनस्य बढ़ने का खतरा दिखाई देने लगा। अतः बाजारों में व्याख्यान देने पर प्रशासन ने प्रतिबंध लगा दिया। आर्य समाज के बड़े-बड़े नेता लोग कुमार सभा के सदस्यों को अपने संकेतों पर नचाना चाहते थे, परंतु युवक उनका नियंत्रण स्वीकार करने को किसी प्रकार तैयार न थे। अतः कुमार सभा के लिए आर्य समाज मंदिर में ताला लगा दिया गया। उन्हें मंदिर में सभा न करने के लिए बाध्य कर दिया गया। साथ ही चेतावनी दी गई की यदि उन्होंने मंदिर में सभा की तो उन्हें पुलिस द्वारा बाहर निकलवा दिया जाएगा। इससे युवकों को बड़ी निराशा हुई, उन्हें ऐसी आशा नहीं थी। फिर भी वे दो-तीन महीनों तक मैदान में ही अपनी साप्ताहिक बैठक करते रहे। सदा ऐसा करना संभव नहीं था, अतः कुमार सभा समाप्त हो गई। बुजुर्ग आर्यसमाजियों ने अपनी नेतागिरी दिखाने के लिए युवकों की भावनाओं की हत्या कर दी।
कुमार सभा के टूट जाने पर भी उसका शहर की जनता पर अच्छा प्रभाव पड़ चुका था। लखनऊ में सम्पन्न होने वाले कांग्रेस के अधिवेशन के साथ ही अखिल भारतीय कुमार सभा का भी वार्षिक सम्मेलन होने वाला था। राम प्रसाद इसमें भाग लेने के इच्छुक थे। इसमें भाग लेने पर कांग्रेस का अधिवेशन देखने का भी अवसर मिल जाता। उन्होंने अपनी यह इच्छा अपने घर वालों के सामने रखी, किंतु उनके पिताजी तथा दादीजी इससे सहमत न हुए। दोनों ने इसका प्रबल विरोध किया, केवल उनकी माताजी ने ही उन्हें वहां भेजने का समर्थन किया। उन्होंने पुत्र को वहां जाने के लिए खर्चा भी दिया, जिसके कारण उन्हें पति की डांट-फटकार का भी सामना करना पड़ा। इस सम्मेलन में लाहौर तथा शाहजहांपुर की कुमार सभाओं को ही सबसे अधिक पुरस्कार प्राप्त हुए। देश के सभी प्रमुख समाचारपत्रों ने इस समाचार को प्रकाशित किया था।
लखनऊ कांग्रेस अधिवेशन में लोकमान्य बालगंगाधर तिलक के स्वागत में रामप्रसाद ने विशेष भूमिका निभाई। इसका वर्णन अगले अध्याय में यथास्थान किया जाएगा।
आर्य समाज का प्रभाव
यद्यपि रामप्रसाद बिस्मिल का जन्म एक परंपरागत रूढ़िवादी ब्राह्मण परिवार में हुआ था, किंतु आर्य समाज के प्रभाव ने उनके जीवन को आमूल बदल कर रख दिया। सत्यार्थ प्रकाश के अध्ययन से वह एक सच्चे सत्यशोधक बन गए आर्य समाज के सिद्धांतों को उन्होंने अपने व्यावहारिक जीवन में अपना लिया। इस विषय में उनके जीवन की एक-दो घटनाएं विशेष उल्लेखनीय हैं।
एक बार रामप्रसाद बिस्मिल अपने कुछ साथियों के साथ ट्रेन से कहीं जा रहे थे। इस यात्रा में उन्होंने तृतीय श्रेणी के टिकट लिए थे, परंतु वह अपने अन्य साथियों के साथ द्वितीय श्रेणी के डिब्बे में जा बैठे। यात्रा पूरी होने पर अपने इस कृत्य पर उन्हें अत्यंत खेद हुआ। उन्होंने अपने साथियों से कहा कि उन्हें इस यात्रा का बाकी भाड़ा स्टेशन मास्टर के पास जमा कर देना चाहिए। संभवतः शेष भाड़ा जमा कर दिया गया। इसी प्रकार दूसरी बार उनके पिताजी को किसी के साथ दीवानी का दावा करना था। इसके लिए वह एक वकील रख गए थे तथा उससे कह गए थे कि इस विषय में जो भी काम करना हो, रामप्रसाद से करा लें। पिताजी कहीं बाहर चले गए थे। वकील ने दावे के कागज तैयार किए। उन पर हस्ताक्षर कराने के लिए रामप्रसाद बिस्मिल को बुलाया और वकालत नामे पर उनके पिता के हस्ताक्षर करने के लिए कहा, किंतु रामप्रसाद सच्चे आर्य समाजी थे उन्हें पिताजी के जाली हस्ताक्षर करना धर्म विरुद्ध प्रतीत हुआ। अतः उन्होंने ऐसा करने से मना कर दिया। इस विषय में उन्होंने स्वयं लिखा है।-
प्रथम अध्याय
रामप्रसाद बिस्मिल
पारिवारिक पृष्ठभूमि व प्रारम्भिक जीवन
वर्तमान मध्य प्रदेश में अंग्रेजों के शासन में एक देशी रियासत थी, ‘ग्वालियर’। यहीं चम्बल नदी के तट पर दो गांव हैं। इन दोनों गांवों के निवासी उस समय बड़े ही उद्दंड स्वभाव के थे। यहां के लोगों पर राज्य के कानूनों का कोई प्रभाव नहीं था। जमींदार लोग जब चाहें, अपनी इच्छा से भूमिकर देते थे, जब इच्छा नहीं होती, नहीं देते थे। इस संबंध में जब कभी कोई राज्य का अधिकारी इन गांवों में पहुंचता, तो जमींदार लोग अपनी समस्त सम्पत्ति को लेकर अपने पशुओं आदि के साथ चम्बल के बीहड़ों में निकल जाते। राज्य के कानूनों एवं आदेशों की खुलेआम अवहेलना करना इनके लिए एक सामान्य बात थी। इनके इस प्रकार के व्यवहार पर भी यदा-कदा तत्कालीन शासन ने इन पर अपनी उदारता दिखाई थी। इसे उदारता कहा जाए अथवा सनक कि इसी व्यवहार के कारण एक जमींदार को भूमिकर से मुक्ति मिल गई थी। इस घटना का वर्णन करते हुए पण्डित रामप्रसाद बिस्मिल ने अपनी आत्मकथा में लिखा है-
“एक जमींदार के संबंध में एक कथा प्रचलित है कि मालगुजारी न देने के कारण ही उनको कुछ भूमि माफी में मिल गई। पहले तो कई साल तक भागे रहे। एक बार धोखे से पकड़ लिए गए तो तहसील के अधिकारियों ने उन्हें खूब सताया। कई दिन तक बिना खाना पानी बंधा रहने दिया। अन्त में जलाने की धमकी दे पैरों पर सूखी घास डालकर आग लगवा दी। किन्तु उन जमींदार महोदय ने भूमिकर देना स्वीकार नहीं किया और यही उत्तर दिया कि ग्वालियर महाराज के कोष में मेरे कर न देने से घाटा न पड़ जाएगा। संसार क्या जानेगा कि अमुक व्यक्ति उद्दण्डता के कारण ही अपना समय व्यतीत करता है। राज्य को लिखा गया, जिसका परिणाम यह हुआ कि उतनी भूमि उन महाशय को माफी में दे दी गई।”
इस प्रकार की उद्दण्डता करना यहां के निवासी अपने लिए बड़े गौरव की बात समझते थे। एक बार इन लोगों ने राज्य के ऊंटों की चोरी की और इस पर भी राजकोप से बच गए। इस घटना का वर्णन शहीद बिस्मिल ने निम्नलिखित शब्दों में किया है-
“.....एक समय इन ग्रामों के निवासियों को एक अद्भुत खेल सूझा। उन्होंने महाराज के रिसाले के साठ ऊंट चुराकर बीहड़ों में छिपा दिए। राज्य को लिखा गया, जिस पर राज्य की ओर से आज्ञा हुई कि दोनों ग्राम तोप लगाकर उड़वा दिए जाएं। न जाने किस प्रकार समझाने-बुझाने से ऊंट वापस कर दिए गए और अधिकारियों को समझाया गया कि इतने बड़े राज्य में थोड़े से वीर लोगों का निवास है, इनका विध्वंस न करना ही उचित होगा। तब तोपें लौटाई गईं और ग्राम उड़ाए जाने से बचे।”
देसी रियासतें आन्तरिक प्रशासन के लिए उसके शासन के अधीन थीं। इस रियासत के ये निवासी लूट-पाट आदि की घटनाएं प्रायः अपनी रियासत में नहीं करते थे। इस प्रकार की घटनाओं के लिए इन लोगों का कार्यक्षेत्र समीप का अंग्रेजी राज्य होता था। ये लोग अंग्रेजी राज्य के समीपवर्ती क्षेत्र के धनवान लोगों के घरों में डकैतियां डाल रातों-रात चम्बल के बीहड़ों में जा छिपते और इस प्रकार पुलिस इनका कुछ भी नहीं बिगाड़ पाती। ये दोनों गांव अंग्रेजी राज्य की सीमा से प्रायः पन्द्रह मील की दूरी पर हैं। यहीं एक गांव में पण्डित श्री नारायण लाल रहते थे। पण्डितजी की पारिवारिक परिस्थिति अत्यंत सामान्य स्तर की थी। घर में उनकी भाभी का एकाधिकार चलता था, जो एक स्वार्थी प्रवृत्ति की महिला थी। पण्डित नारायण लाल के लिए धीरे-धीरे भाभी का दुर्व्यवहार असहनीय हो गया। इसलिए उन्होंने घर छोड़ देने का निर्णय लिया और अपनी धर्मपत्नी तथा दो अबोध पुत्रों को साथ लेकर घर से निकल पड़े। इस समय उनके बड़े पुत्र मुरलीधर की अवस्था आठ वर्ष तथा छोटे पुत्र कल्याणमल की केवल छः वर्ष थी।
घर छोड़ने के बाद पण्डित नारायण लाल कई दिनों तक आजीविका की तलाश में इधर-उधर भटकते रहे तथा अन्त में शाहजहांपुर उत्तर प्रदेश पहुंचे और यहीं अरहिया नामक गांव में रहने लगे। इस समय देश में भयंकर अकाल पड़ा था। अत्यधिक प्रयत्न करने पर शाहजहांपुर में एक अतार महोदय के यहां पण्डित नारायण लाल को एक मामूली सी नौकरी मिली, जिसमें नाममात्र के लिए तीन रुपए प्रतिमास वेतन मिलता था। भयंकर अकाल में परिवार के चार प्राणियों का भरण-पोषण कर पाना अत्यधिक कठिन कार्य था। दादीजी एक समय, वह भी केवल आधा पेट भोजन करतीं, तब भी परिवार का निर्वाह न हो पाता। अत्यधिक निर्धनता एवं कठिनाइयों का सामना करना पड़ता था। इसका उल्लेख करते हुए पण्डित रामप्रसाद बिस्मिल ने लिखा है-
“दादीजी ने बहुत प्रयत्न किया कि अपने आप केवल एक समय आधे पेट भोजन करके बच्चों का पेट पाला जाए, किन्तु फिर भी निर्वाह न हो सका। बाजरा, कुकनी, सामा, ज्वार इत्यादि खाकर दिन काटने चाहे, किन्तु फिर भी गुजारा न हुआ। तब आधा बथुवा, चना या कोई दूसरा साग, जो सबसे सस्ता हो उसको लेकर, सबसे सस्ता अनाज उसमें आधा मिलाकर थोड़ा सा नमक डालकर उसे स्वयं खातीं, लड़कों को चना या जौ की रोटी देती और इसी तरह दादाजी भी समय व्यतीत करते थे। बड़ी कठिनता से आधा पेट खाकर दिन तो कट जाता, किन्तु पेट में घोटूं दबाकर रात काटना कठिन हो जाता।”
भोजन के साथ ही वस्त्र एवं रहने के लिए मकान की समस्या भी विकट थी। अतः दादीजी ने कुछ घरों में कुटाई-पिसाई का काम करने का विचार किया, परंतु इस अकाल के समय में यह काम मिलना भी सरल नहीं था। बड़ी ही कठिनाई के साथ कुछ घरों में इस तरह का काम मिल पाया, परंतु इसे भी उन्हीं लोगों के घर में करना पड़ता था, जो लोग काम देते थे। यह काम भी बहुत ही कम मिल पाता था-मुश्किल से दिन में पांच-छः सेर जिसका पारिश्रमिक उन दिनों एक पैसा प्रति पसेरी मिलता था। अपनी पारिवारिक विवशताओं के कारण उन्हें इन्हीं एक डेढ़ पैसों के लिए तीन-चार घंटे काम करना पड़ता था। इसके बाद ही घर आकर बच्चों के भोजन की व्यवस्था करनी पड़ती। फिर भी दादीजी संतोष और धैर्य के साथ विपत्ति का सामना करतीं। वह बड़ी ही साहसी महिला थीं। पण्डित नारायण लाल कभी-कभी पत्नी एवं बच्चों के कष्टों को देखकर दुःखी हो जाते और अपनी पत्नी से पुनः अपने मूल निवास स्थान ग्वालियर चल पड़ने को कहते, किन्तु दादी बड़ी स्वाभिमानी महिला थीं। ऐसे अवसरों पर वे अपने पति का साहस बढ़ाती और कहती कि जिन लोगों के कारण घर छोड़ना पड़ा, फिर उन्हीं की शरण में जाना एक स्वाभिमानी व्यक्ति को शोभा नहीं देता। स्वाभिमान की रक्षा करते हुए प्राणों का परित्याग कर देना अच्छा है, किंतु स्वाभिमान का परित्याग मृत्यु से भी बढ़कर है। दुःख-सुख सदा लगे रहते हैं। दुःख के बाद सुख भी प्राप्त होता है। ये दिन भी सदा नहीं रहेंगे। अतः दादीजी फिर कभी लौटकर ग्वालियर राज्य नहीं गईं।
धीरे-धीरे चार-पांच वर्ष बीत गए। पण्डित नारायण लाल का कुछ स्थानीय लोगों से परिचय भी बढ़ गया। अकाल भी बीत गया। पण्डितजी के परिवार पर लोगों का विश्वास एवं स्नेह भी बढ़ गया। ब्राह्मण होने के कारण लोग सम्मान भी देने लगे। दादाजी को कभी-कभी कुछ लोग अपने घर भोजन के लिए आमंत्रित करने लगे। पहले की तुलना में काम भी अधिक मिलने लगा। कभी कुछ दान दक्षिणा भी मिल जाती। इस प्रकार धीरे-धीरे कठिनाइयां कुछ कम होने लगीं।
पण्डित नारायण लाल भी ब्राह्मणवृत्ति करने लगे। कठिन परिश्रम से घर की स्थिति में कुछ सुधार हुआ। धीरे-धीरे बच्चे भी कुछ बड़े हो गए थे। बड़ा पुत्र पाठशाला में पढ़ने जाने लगा। पण्डितजी के कठिन परिश्रम से अब उनका वेतन भी बढ़कर सात रुपए प्रतिमाह हो गया था। परिवार की स्थिति को सुधारने में दादीजी के परिश्रम की भी महत्त्वपूर्ण भूमिका रही। ऐसे दुर्दिनों में उन्होंने जिस साहस का परिचय दिया, एक सामान्य ग्रामीण महिला से ऐसी अपेक्षा प्रायः कम ही की जाती है।
दादी का सामाजिक परिवेश
दादीजी ने ग्वालियर में कभी अपने घर से बाहर पांव भी नहीं रखा था। उन्होंने जिस परिवेश में जन्म लिया, वह एक रूढ़िवादी परंपराओं वाला परिवेश था। उस समाज में जात-पांत, छुआ-छूत आदि रूढ़ियां पूरी तरह व्याप्त थी। इन प्रथाओं का पालन करने में वहां के लोग नियम-कानून आदि की कोई परवाह नहीं करते थे। इसके लिए किसी के प्राण लेने में भी उन्हें किसी प्रकार का संकोच नहीं होता था। कोई भी महिला बिना घूंघट निकाले एक घर से दूसरे घर नहीं जा सकती थी। अनुसूचित जाति की महिलाओं की दशा तो और भी अधिक दयनीय थी। इन सब प्रथाओं का पालन कराने के लिए सवर्ण लोग तरह-तरह के अत्याचार करते थे। किसी भी महिला पर व्यभिचार का संदेह होने पर उसे काट कर चम्बल में बहा देना एक मामूली बात थी, जिसकी किसी को कानों कान खबर भी नहीं होती थी। अनुसूचित जातियों पर सवर्णों के अत्याचारों की कोई सीमा नहीं थी। इस संबंध में बिस्मिल ने एक घटना का उल्लेख किया है-
“एक समय किसी चमार की वधू, जो अंग्रेजी राज्य से विवाह करके गई थी, कुलप्रथानुसार जमींदार के घर पैर छूने के लिए गई। वह पैरों में बिछुए (नूपुर) पहने हुई थी। और सब पहनावा चमारों का पहने थी। जमींदार महोदय की नजर उसके पैरों पर पड़ी। पूछने पर मालूम हुआ कि चमार की बहू है। जमींदार साहब जूता पहनकर आए और उसके पैरों पर खड़े होकर इतने जोर से दबाया कि उसकी अंगुलियां कट गईं। उन्होंने कहा कि यदि चमारों की बहुएं बिछुवा पहनेंगी तो ऊंची जाति के घर की स्त्रियां क्या पहनेंगी?”
इस समाज का केवल एक ही उज्ज्वल पक्ष था, वह था यहां के लोगों का सदाचरण। सभी लोगों का आचरण उच्च था। गांव में किसी भी जाति की महिलाओं को कोई भी बुरी नजर से नहीं देख सकता था। स्त्रियों के सम्मान की रक्षा के लिए लोग अपने प्राणों की भी परवाह नहीं करते थे। अन्यथा यह समाज पूर्णतया एक सामन्तवादी समाज था, जिसे सोलहवीं सदी का समाज कहा जा सकता है।
इस प्रकार के परिवेश में जन्म लेकर भी विपत्ति के दिनों का दादीजी ने जिस साहस के साथ सामना किया, उसे उनका एक क्रान्तिकारी कार्य ही कहा जाएगा। उनके इस साहस एवं त्याग ने अन्ततः इन विपत्तियों पर विजय पा ली। कठिन परिश्रम तथा कुछ ब्राह्मण कार्य करके पण्डित नारायण लाल की आर्थिक स्थिति में सुधार हुआ। इसके बाद उन्होंने नौकरी छोड़ दी। तथा पैसे दुअन्नी आदि सिक्के बेचने का कार्य करने लगे। बुरे दिनों ने विदा ले ली। खुशियों के दिन आए। बड़ा पुत्र मुरलीधर कुछ शिक्षा भी पा गया। पहले किसी दूसरे के घर में रहते थे, अब एक मकान भी खरीद लिया। एक के बाद दूसरे मकान में आश्रय पाने वाले परिवार को अपना घर प्राप्त हो गया, जहां वे शांति एवं आराम से रह सकते थे, जिसे अपना कह सकते थे। मकान हो जाने पर उन्होंने अपने बड़े पुत्र का विवाह करने का विचार किया। यद्यपि उस समय उसकी अवस्था पन्द्रह-सोलह वर्ष से अधिक नहीं थी, किंतु उस समय समाज में बाल विवाह की प्रथा थी। अतः पति-पत्नी अपने बच्चों को लेकर बच्चों के ननिहाल गए। वहीं रिश्ता तय हुआ और विवाह हो गया। पूरा परिवार तीन-चार महीने वहीं रहा तथा फिर नववधू को लेकर शाहजहांपुर आ गया।
अब परिवार में एक नवीन सदस्य का आगमन हो चुका था। पण्डित मुरलीधर पर भी गृहस्थी का उत्तरदायित्व आ गया था। उन्हें भी स्थानीय नगरपालिका में नौकरी मिल गई, जिसमें उन्हें पन्द्रह रुपये मासिक वेतन मिलने लगा। शिक्षा अधिक न होने पर भी उस समय पन्द्रह रुपये प्रतिमास की यह नौकरी कोई कम नहीं थी। फिर भी उन्होंने यह नौकरी लगभग दो वर्षों तक की, क्योंकि उन्हें यह नौकरी करना पसंद न था। वे कोई स्वतंत्र व्यवसाय करना चाहते थे। इसलिए उन्होंने नौकरी से त्यागपत्र दे दिया। इसके बाद क्या किया जाए, यह प्रश्न सामने था। खाली घर में तो बैठा नहीं जा सकता था। घर की स्थिति भी ऐसा काम करने की आज्ञा नहीं देती थी। इस सब को देखते हुए उन्होंने कचहरी में स्टाम्प बेचने का कार्य प्रारम्भ कर दिया। यह व्यवसाय उनके लिए अत्यन्त शुभ रहा। इससे घर की आर्थिक स्थिति अत्यधिक सुधर गई।
इस व्यवसाय से पण्डित मुरलीधर ने अपने समाज में अपना एक विशेष स्थान बना लिया। वे अपने मुहल्ले के संभ्रान्त एवं सम्मानित लोगों में गिने जाने लगे। उन्होंने इसी व्यवसाय से तीन बैलगाड़ियां बनाईं, जिन्हें किराए पर लगा दिया गया। वे पैसे के लेन-देन का काम भी करने लगे। इस प्रकार उनकी आय के स्रोत भी बढ़ गए। यह व्यवसाय वास्तव में उनके जीवन में एक सुनहरा अध्याय सिद्ध हुआ। पहले जिस परिवार के पास पेट भरने के लिए भोजन भी नहीं था, वही परिवार अब साहूकारी का काम करने लगा था। पण्डित मुरलीधर अपने जीवन में प्रायः अन्त तक सरकारी स्टाम्प बेचने का व्यवसाय करते रहे। इसी व्यवसाय से उन्होंने अपनी संतान को शिक्षा-दीक्षा दी, किंतु सम्पन्न हो जाने पर भी वह एक साधारण गृहस्थ की तरह ही रहते थे, दिखावा उन्हें पसंद नहीं था। इसके साथ ही वह अखाड़े में जाने के भी बड़े शौकीन थे। उन्हें कसरत-व्यायाम आदि से बड़ा लगाव था। वह एक स्वस्थ-सुदृढ़ शरीर के व्यक्ति थे। उनका चरित्र बड़ा ही उत्तम था। वह इस विषय में बड़े सख्त व्यक्ति थे।
अपने परिवार की पूर्व स्थिति को सुधारने का सारा श्रेय पण्डित मुरलीधर को ही जाता है। वह वास्तव में एक सपूत सिद्ध हुए। उन्होंने अपने माता-पिता की सारी कठिनाइयों को दूर कर दिया। वह अपने माता-पिता द्वारा उठाए गए कष्टों को भूले नहीं थे, इसी से उन्होंने सदा परिश्रम एवं ईमानदारी की शिक्षा ग्रहण की थी। सवंत् 1953 में पण्डित मुरलीधर के घर में एक पुत्र ने जन्म लिया। दुर्भाग्य से यह पुत्र जीवित न रहा।
रामप्रसाद बिस्मिल का जन्म
ज्येष्ठ शुक्ला 11 संवत् 1954 सन् 1897 में पण्डित मुरलीधर की धर्मपत्नी ने द्वितीय पुत्र को जन्म दिया। इस पुत्र का जन्म मैनपुरी में हुआ था। संभवतः वहां बालक का ननिहाल रहा हो। इस विषय में श्री व्यथित हृदय ने लिखा है-“यहां यह बात बड़े आश्चर्य की मालूम होती है कि बिस्मिल के दादा और पिता ग्वालियर के निवासी थे। फिर भी उनका जन्म मैनपुरी में क्यों हुआ? हो सकता है, मैनपुरी में बिस्मिल जी का ननिहाल रहा हो।”
इस पुत्र से पूर्व एक पुत्र की मृत्यु हो जाने से माता-पिता का इसके प्रति चिन्तित रहना स्वाभाविक था। अतः बालक के जीवन की रक्षा के लिए जिसने जो उपाय बताया, वही किया गया। बालक को अनेक प्रकार के गण्डे ताबीज आदि भी लगाए गए। बालक जन्म से ही दुर्बल था। जन्म के एक-दो माह बाद इतना दुर्बल हो गया कि उसके बचने की आशा ही बहुत कम रह गई थी। माता-पिता इससे अत्यन्त चिन्तित हुए। उन्हें लगा कि कहीं यह बच्चा भी पहले बच्चे की तरह ही चल न बसे। इस पर लोगों ने कहा कि संभवतः घर में ही कोई बच्चों का रोग प्रवेश कर गया है। इसके लिए उन्होंने उपाय भी सुझाया। बताया गया कि एक बिल्कुल सफेद खरगोश बालक के चारों ओर घुमाकर छोड़ दिया जाए। यदि बालक को कोई रोग होगा तो खरगोश तुरंत मर जाएगा। माता-पिता बालक की रक्षा के लिए कुछ भी करने को तैयार थे, अतः ऐसा ही किया गया। आश्चर्य की बात कि खरगोश तुरंत मर गया। इसके बाद बच्चे का स्वास्थ्य दिन पर दिन सुधरने लगा। यही बालक आगे चलकर प्रसिद्ध क्रान्तिकारी अमर शहीद रामप्रसाद बिस्मिल के नाम से प्रसिद्ध हुआ।
शिक्षा
सात वर्ष की अवस्था हो जाने पर बालक रामप्रसाद को पिता पण्डित मुरलीधर घर पर ही हिन्दी अक्षरों का ज्ञान कराने लगे। उस समय उर्दू का बोलबाला था। अतः घर में हिन्दी शिक्षा के साथ ही बालक को उर्दू पढ़ने के लिए एक मौलवी साहब के पास मकतब में भेजा जाता था।
पण्डित मुरलीधर पुत्र की शिक्षा पर विशेष ध्यान देते थे। पढ़ाई के मामले में जरा भी लापरवाही करने पर बालक रामप्रसाद को पिता की मार भी पड़ती रहती थी। हिन्दी अक्षरों का ज्ञान कराते समय एक बार उन्हें बंदूक के लोहे के गज से इतनी मार पड़ी थी कि गज टेढ़ा पड़ गया था। अपनी इस मार का वर्णन करते हुए उन्होंने लिखा है-
“बाल्यकाल से पिताजी मेरी शिक्षा का अधिक ध्यान रखते थे और जरा-सी भूल करने पर बहुत पीटते थे। मुझे अब भी भली-भांति स्मरण है कि जब मैं नागरी के अक्षर लिखना सीख रहा था तो मुझे ‘उ’ लिखना न आया। मैंने बहुत प्रयत्न किया। पर जब पिताजी कचहरी चले गए तो मैं भी खेलने चला गया। पिताजी ने कचहरी से आकर मुझसे ‘उ’ लिखवाया, मैं न लिख सका। उन्हें मालूम हो गया कि मैं खेलने चला गया था। इस पर उन्होंने मुझे बंदूक के लोहे के गज से इतना पीटा कि गज टेढ़ा पड़ गया। मैं भागकर दादाजी के पास चला गया, तब बचा।”
इसके बाद बालक रामप्रसाद ने पढ़ाई में कभी असावधानी नहीं की। वह परिश्रम से पढ़ने लगे। वह आठवीं कक्षा तक सदा अपनी कक्षा में प्रथम आते थे, किंतु कुसंगति में पड़ जाने के कारण उर्दू मिडिल परीक्षा में वह लगातार दो वर्ष अनुत्तीर्ण हो गए। बालक की इस अवनति से घर में सभी को बहुत दुःख हुआ। दो बार एक ही परीक्षा में अनुत्तीर्ण होने पर बालक रामप्रसाद का मन उर्दू की पढ़ाई से उठ गया। उन्होंने अंग्रेजी पढ़ने की इच्छा व्यक्त की, किंतु पिता पण्डित मुरलीधर अंग्रेजी पढ़ाने के पक्ष में नहीं थे। वह रामप्रसाद को किसी व्यवसाय में लगाना चाहते थे। अन्ततः मां के कहने पर उन्हें अंग्रेजी पढ़ने भेजा गया। अंग्रेजी में आठवीं पास करने के बाद नवीं में ही वह आर्यसमाज के सम्पर्क में आए, जिससे उनके जीवन की दिशा ही बदल गई।
दादा-दादी की छत्रछाया में
बच्चों को घर में अपने माता-पिता से भी अधिक स्नेह अपने दादा-दादी से होता है। बालक रामप्रसाद भी इसके अपवाद नहीं थे। पिताजी अत्यधिक सख्त अनुशासन वाले व्यक्ति थे। इसका उल्लेख ऊपर किया जा चुका है। अतः पिताजी के गुस्से से बचने का उपाय रामप्रसाद के लिए अपने दादा श्री नारायण लाल ही थे। दादाजी सीधे-सादे, सरल स्वभाव के प्राणी थे। मुख्यरूप से सिक्के बेचना ही उनका व्यवसाय था। उन्हें अच्छी नस्ल की दुधारू गायें पालने का बड़ा शौक था। दूर-दूर से दुधारू गायें खरीदकर लाते थे और पोते को खूब दूध पिलाते थे। गायें इतनी सीधी थीं कि बालक रामप्रसाद जब-तब उनका थन मुंह में लेकर दूध पिया करते थे। दादाजी रमप्रसाद के स्वास्थ्य पर सदा ध्यान देते थे। इसके साथ ही दादा जी धार्मिक स्वभाव के पुरुष थे। वे सदा सांयकाल शिव मंदिर में जाकर लगभग दो घण्टे तक पूजा-भजन इत्यादि करते थे, जिसका बालक रामप्रसाद पर गहरा प्रभाव पड़ा। दादाजी का देहावसान लगभग पचपन वर्ष की आयु में हुआ।
दादीजी कठिन परिश्रमी महिला थीं। उन्होंने अपने जीवन में बड़े अभाव देखे थे, जिनका उन्होंने बड़ी दृढ़ता से सामना किया था। इसका वर्णन पहले ही किया जा चुका है।
ममतामयी मां
पण्डित रामप्रसाद बिस्मिल की मां पूर्णतया एक अशिक्षित ग्रामीण महिला थी। विवाह के समय उनकी अवस्था केवल ग्यारह वर्ष की थी। ग्यारह वर्ष की नववधू को घरेलू कामों की शिक्षा देने के लिए दादीजी ने अपनी छोटी बहिन को बुला लिया था। संभवतः दादीजी अभी तक कुटाई-पिसाई का काम करती रहती थीं, जिससे उन्हें बहू को काम सिखाने का समय नहीं मिल पाता था। कुछ ही दिनों में उन्होंने घर का सारा काम भोजन बनाना आदि अच्छी तरह से सीख लिया था। रामप्रसाद जब छः-सात वर्ष के हो गए तो माताजी ने भी हिन्दी सीखना शुरू किया। उनके मन में पढ़ने की तीव्र इच्छा थी। घर के कामों को निबटाने के बाद वह अपनी किसी शिक्षित पड़ोसिन से लिखना-पढ़ना सीखने लगीं। अपनी तीव्र लगन से वह कुछ ही समय में हिन्दी की पुस्तकें पढ़ना सीख गईं। अपनी सभी पुत्रियों को भी स्वयं उन्होंने ही हिन्दी अक्षरों का ज्ञान कराया था।
बालक रामप्रसाद की धर्म में भी रुचि थी, जिसमें उन्हें अपनी माताजी का पूरा सहयोग मिलता था। वह पुत्र को इसके लिए नित्य प्रातः चार बजे उठा देती थीं। इसके साथ ही जब रामप्रसाद की अभिरुचि देशप्रेम की ओर हुई, तो मां उन्हें हथियार खरीदने के लिए यदा-कदा पैसे भी देती रहती थीं। वह सच्चे अर्थों में एक देशप्रेमी महिला थीं। बाद में जब रामप्रसाद आर्य समाज के सम्पर्क में आए, तो उनके पिताजी ने इसका बहुत अधिक विरोध किया, किंतु मां ने उनकी (रामप्रसाद की) इस भावना का सम्मान किया। आर्यसमाज के सिद्धांतों का उन पर पर्याप्त प्रभाव पड़ा। पहले वह एक पारंपरिक ब्राह्मण महिला थीं, किंतु अब उनके विचारों में काफी उदारता आ गई थी।
पण्डित रामप्रसाद की माताजी एक साहसी महिला थीं। महानतम विपत्ति में भी धैर्य न खोना उनके चरित्र का एक सबसे बड़ा गुण था। वह किसी भी विपत्ति में सदा अपने पुत्र का उत्साह बढ़ाती रहती थीं। पुत्र के दुःखी अथवा अधीर होने पर वह अपनी ममतामयी वाणी से सदा उन्हें सांत्वना देती थीं।
रामप्रसाद के परिवार में कन्याओं को जन्म लेते ही मार देने की एक क्रूर परंपरा रही थी। इस परंपरा को उनकी माताजी ने ही तोड़ा था। इसके लिए उन्हें अपने परिवार के विरोध का भी सामना करना पड़ा था। दादा और दादी दोनों कन्याओं को मार देने के पक्ष में थे और बार-बार अपनी पुत्रवधू को कन्याओं को मार देने की प्रेरणा देते थे, किंतु माताजी ने इसका डटकर विरोध किया और अपनी पुत्रियों के प्राणों की रक्षा की। उन्हीं के कारण इस परिवार में पहली बार कन्याओं का पालन-पोषण तथा विवाह हुआ था।
अपनी मां के व्यक्तित्व का रामप्रसाद बिस्मिल पर गहरा प्रभाव पड़ा। अपने जीवन की सभी सफलताओं का श्रेय उन्होंने अपनी मां को ही दिया है। मां के प्रति अपनी श्रद्धा व्यक्त करते हुए उन्होंने लिखा है-
“यदि मुझे ऐसी माता न मिलती तो मैं भी अतिसाधारण मनुष्यों की भांति संसार चक्र में फंसकर जीवन निर्वाह करता। शिक्षादि के अतिरिक्त क्रांतिकारी जीवन में भी उन्होंने मेरी वैसी ही सहायता की, जैसी मेजिनी की उनकी माता ने की थी।.....माताजी का मेरे लिए सबसे बड़ा उपदेश यही था कि किसी की प्राण हानि न हो। उनका कहना था कि अपने शत्रु को भी कभी प्राण दण्ड न देना। उनके इस आदेश की पूर्ति करने के लिए मुझे मजबूरन एक-दो बार अपनी प्रतिज्ञा भंग भी करनी पड़ी।
जन्म दात्री जननी! इस जीवन में तो तुम्हारा ऋण परिशोध करने का प्रयत्न करने का भी अवसर न मिला। इस जन्म में तो क्या यदि अनेक जन्मों में भी सारे जीवन प्रयत्न करूं तो भी तुमसे उऋण नहीं हो सकता। जिस प्रेम तथा दृढ़ता के साथ तुमने इस तुच्छ जीवन का सुधार किया है, वह अवर्णनीय है। मुझे जीवन की प्रत्येक घटना का स्मरण है कि तुमने किस प्रकार अपनी देव वाणी का उपदेश करके मेरा सुधार किया है। तुम्हारी दया से ही मैं देश सेवा में संलग्न हो सका। धार्मिक जीवन में भी तुम्हारे ही प्रोत्साहन ने सहायता दी। जो कुछ शिक्षा मैंने ग्रहण की उसका भी श्रेय तुम्हीं को है। जिस मनोहर रूप से तुम मुझे उपदेश करती थी, उसका स्मरण कर तुम्हारी मंगलमयी मूर्ति का ध्यान आ जाता है और मस्तक नत हो जाता है। तुम्हें यदि मुझे ताड़ना भी देनी हुई, तो बड़े स्नेह से हर बात को समझा दिया। यदि मैंने धृृष्टतापूर्वक उत्तर दिया, तब तुमने प्रेम भरे शब्दों में यही कहा कि तुम्हें जो अच्छा लगे, वह करो, किंतु ऐसा करना ठीक नहीं, इसका परिणाम अच्छा न होगा। जीवनदात्री! तुमने इस शरीर को जन्म देकर केवल पालन-पोषण ही नहीं किया, किन्तु आत्मिक, धार्मिक तथा सामाजिक उन्नति में तुम्हीं मेरी सदैव सहायक रहीं। जन्म-जन्मान्तर परमात्मा ऐसी ही माता दे।
महान-से-महान कष्ट में भी तुमने मुझे अधीर नहीं होने दिया। सदैव अपनी प्रेमभरी वाणी सुनाते हुई मुझे सांत्वना देती रही। तुम्हारी दया की छाया में मैंने जीवनभर कोई कष्ट अनुभव न किया। इस संसार में मेरी किसी से भोग-विलास तथा ऐश्वर्य की इच्छा नहीं। केवल एक तृष्णा है, वह यह कि एक बार श्रद्धापूर्वक तुम्हारे चरणों की सेवा करके अपने जीवन को सफल बना लेता। किंतु यह इच्छा पूर्ण होती दिखाई नहीं देती और तुम्हें मेरी मृत्यु का दुःखद संवाद सुनाया जाएगा। मां! मुझे विश्वास है कि तुम यह समझकर धैर्य धारण करोगी कि तुम्हारा पुत्र माताओं की माता-भारत माता-की सेवा में अपने जीवन को बलिवेदी पर भेंट कर गया और उसने तुम्हारे कुल को कलंकित नहीं किया, अपनी प्रतिज्ञा पर दृढ़ रहा। जब स्वाधीन भारत का इतिहास लिखा जाएगा, तो उसके किसी पृष्ठ पर उज्जवल अक्षरों में तुम्हारा भी नाम लिखा जाएगा। गुरु गोविन्द सिंह की धर्मपत्नी ने जब अपने पुत्रों की मृत्यु का संवाद सुना था, तो बहुत हर्षित हुई थीं और गुरु के नाम पर धर्म-रक्षार्थ अपने पुत्रों के बलिदान पर मिठाई बांटी थी। जन्म दात्री वर दो कि अंतिम समय भी मेरा हृदय किसी प्रकार विचलित न हो और तुम्हारे चरण कमलों को प्रणाम कर मैं परमात्मा का स्मरण करता हुआ शरीर त्याग करूं।”
स्पष्ट है कि रामप्रसाद के जीवन पर उनकी मां का सबसे अधिक प्रभाव पड़ा था। उन्होंने अपने जीवन में अपनी मां को ही सबसे बड़े आदर्श के रूप में देखा था।
भाई-बहिन
पण्डित रामप्रसाद के जन्म से पूर्व ही उनके एक भाई की जन्म के कुछ ही समय बाद मृत्यु हो गई थी। रामप्रसाद के बाद उनके घर में पांच बहनों तथा तीन भाइयों का जन्म हुआ। इनमें से दो भाई तथा दो बहनें कुछ ही समय बाद मृत्यु को प्राप्त हो गए। इसके बाद परिवार में दो भाई तथा तीन बहनें रहीं। पहले ही उल्लेख हो चुका है कि उनके परिवार में कन्याओं की हत्या कर दी जाती थी। उनकी मां के कारण ही पहली बार इस परिवार में कन्याओं का पालन-पोषण हुआ। मां की ही प्रेरणा से तीनों पुत्रियों को अपने समाज के अनुसार अच्छी शिक्षा दी गई तथा उनका विवाह भी बड़ी धूम-धाम से किया गया।
पण्डित रामप्रसाद बिस्मिल के बलिदान के समय उनके छोटे भाई सुशीचन्द्र की अवस्था केवल दस वर्ष थी। बाद में उसे तपेदिक हो गई थी, जो चिकित्सा के अभाव में कुछ ही समय बाद दुनिया से चल बसा था। तीन बहनों का विवाह हो गया था, जिनमें से एक की विवाह के बाद मृत्यु हो गई थी। एक अन्य बहन बड़े भाई रामप्रसाद की मृत्यु का दुःख सहन नहीं कर सकी। उसने विष खाकर आत्महत्या कर ली। केवल एक बहन शास्त्रीदेवी ही शेष बचीं। इस करुणकथा का वर्णन श्रीमती शास्त्रीदेवी ने इस प्रकार किया है-
“.....दो बहनें विवाह के बाद मर गई। एक छोटी बहिन तो जहर खाकर मर गई। भाई को फांसी का हुक्म हुआ सुनकर उसने जहर खा लिया। उसकी शादी भाई ने एक जमींदार के साथ की थी। वह हम से छः मील की दूरी पर थी कुचेला के मौजे में। छोटा भाई बीमार हो गया तपेदिक हो गई थी। पिताजी अस्पताल में भर्ती कर आए। डॉक्टर ने कहा कि दो सौ रुपये दो, हम ठीक कर सकते हैं। पिताजी ने कहा कि मेरे पास रुपये होते तो यहां क्यों आता? मुझे तो गवर्नमेण्ट ने भेंट दिया। लड़का भी गया, पैसा भी गया। अब तो बहुत दिन हो गए। गणेशशंकर विद्यार्थी पन्द्रह रुपये मासिक देते हैं, उनसे गुजर करता हूं। एक हफ्ता अस्पताल में रहा, उसे खून के दस्त हुए, चौबीस घण्टे में खत्म हो गया। दसवां दर्जा पास था। वह भी बोलने में बहुत अच्छा था। लोग कहते थे कि यह भी रामप्रसाद की तरह काम करेगा। अब इस समय मायके के सारे खानदान में मैं ही अकेली अभागिन रह गई हूं।”
उद्दण्ड स्वभाव बालक रामप्रसाद
रामप्रसाद बिस्मिल अपने बचपन में बहुत शरारती तथा उद्दण्ड स्वभाव के थे। दूसरों के बागों से फल तोड़ने तथा अन्य शरारतें करने में उन्हें बड़ा आनंद आता था। इस पर उन्हें अपने पिताजी के क्रोध का भी सामना करना पड़ता था। वह बुरी तरह पीटते थे, किंतु इसका भी उन पर (रामप्रसाद पर) कोई प्रभाव नहीं पड़ता था। एक बार किसी के पेड़ से आड़ू तोड़ने पर उन्हें इतनी मार पड़ी थी कि वह दो दिन तक बिस्तर से नहीं उठ सके थे। अपनी आत्मकथा में इस घटना का वर्णन करते हुए उन्होंने लिखा है-
“छोटेपन में मैं बहुत ही उद्दण्ड था। पिताजी के पर्याप्त शासन रखने पर भी बहुत उद्दण्डता करता था। एक बार किसी के बाग में जाकर आड़ू के वृक्षों में से सब आड़ू तोड़ डाले। माली पीछे दौड़ा किंतु उसके हाथ न आया। माली ने सब आड़ू पिताजी के सामने ला रखे। उस दिन पिताजी ने मुझे इतना पीटा कि मैं दो दिन तक उठ न सका। इसी प्रकार खूब पिटता था, किंतु उद्दण्डता अवश्य करता था। शायद उस बचपन की मार से ही यह शरीर बहुत कठोर तथा सहनशील बन गया।”
किशोर अवस्था और बुरी आदतें
पण्डित मुरलीधर को पहलवानी से बड़ा प्रेम था। उनका शरीर बड़ा ही स्वस्थ एवं बलवान था। वह अपने से डेढ़ गुना बलवान पहलवानों को कुश्ती में हरा देते थे। बालक रामप्रसाद के सात वर्ष के होने पर उन्हें उर्दू मकबत में भेजा जाने लगा। इसके कुछ दिनों बाद पण्डित मुरलीधर का किसी चटर्जी महाशय से परिचय हुआ जो एक कैमिस्ट थे; उनकी अंग्रेजी दवाओं की दुकान थीं। चटर्जी महाशय अनेक प्रकार के नशे के आदी थे, बाद में उन्हें शराब की भी लत पड़ गई थी। अन्ततः ये नशे उन्हें ले डूबे। उन्हें बीमारी ने जकड़ लिया और वह दुनिया से अकाल ही चल बसे।
इन्हीं चटर्जी महाशय से पण्डित मुरलीधर का परिचय धीरे-धीरे प्रगाढ़ प्रेम में परिवर्तित हो गया। फलतः मित्र के सभी दुर्गुण उनमें भी आ गए। मुरलीधर भी चरस पीने लगे, जिससे उनके स्वास्थ्य की भयंकर हानि हुई। उनका सुन्दर बलवान शरीर सूखकर कांटा हो गया। उनके मित्रों तथा घरवालों को इससे बड़ी चिंता हुई। सभी ने उन्हें तरह-तरह से समझाया। तब कहीं जाकर बहुत दिनों बाद उनकी चरस पीने की आदत छूट पाई।
यह एक कटु सत्य है कि अभिभावकों की हर अच्छी-बुरी आदतों का प्रभाव उनके बच्चों पर अवश्य पड़ता है। भले ही अबोध बच्चे अपने बड़ों की बुरी आदतों का विरोध नहीं कर पाते; परंतु इससे उनके अचेतन मन में एक विरोध की भावना घर कर जाती है कभी-कभी बच्चे स्वयं भी उन बुरी आदतों की ओर आकृष्ट हो जाते हैं, क्योंकि उनका स्वभाव ही जिज्ञासु होता है। इसके साथ ही बच्चे के साथ मार-पीट और कठोर व्यवहार उसे जिद्दी बना देता है। कदाचित् अपने पिता की नशे की आदत तथा कठोर व्यवहार का बालक रामप्रसाद पर भी दुष्प्रभाव पड़े बिना नहीं रह सका।
चौदह वर्ष की अवस्था में रामप्रसाद उर्दू की चौथी कक्षा में उत्तीर्ण होकर पांचवीं में पहुंचे। अपनी इस किशोर अवस्था में उनमें अनेक दुर्गुण आ गए। वह घर से पैसों की चोरी करना सीख गए। इन पैसों से वह उपन्यास खरीदते। उपन्यास पढ़ना उनका प्रिय शौक बन गया। इसके साथ ही शृंगारिक साहित्य तथा उर्दू की गजलों का भी उन्हें चस्का लग गया। वह सिगरेट पीना भी सीख गए। यही नहीं भांग का भी स्वाद लिया जाने लगा। इन्हीं बुरी आदतों के कारण वह उर्दू मिडिल परीक्षा में दो साल अनुत्तीर्ण हो गए। बालक रामप्रसाद बुरी आदतों के दलदल में फंसते गए। इससे बच पाना उनके लिए कठिन हो गया। वह जिस पुस्तक विक्रेता से उपन्यास आदि खरीदते थे, वह पण्डित मुरलीधर का परिचित था। रामप्रसाद का अधःपतन देखकर उसे दुःख हुआ। अतः इसकी शिकायत रामप्रसाद के पिता से कर दी। पिता जी सावधान रहने लगे। बालक रामप्रसाद भी सावधान थे। उन्होंने उसकी दुकान से उपन्यास खरीदना ही बंद कर दिया।
संभवतः भगवान को रामप्रसाद का यह पतन स्वीकार नहीं था। एक बार वह भांग के नशे में डूबे हुए पिताजी के संदूक में हाथ साफ कर रहे थे। इतने में असावधानी से संदूक की कुण्डी जोर से खटक पड़ी। इसे उनकी माताजी ने सुन लिया और रंगे हाथों पकड़े गए। उन्होंने पिताजी के संदूक के ताले की दूसरी चाबी बना ली थी। इस पर उनके अपने संदूक में देखा गया। उसमें अनेक उपन्यास, ग़ज़लों की किताबें तथा रुपये भी रखे मिले। सभी पुस्तकें फाड़कर जला दी गईं। इसके बाद उनकी सभी गतिविधियों पर विशेष ध्यान दिया जाने लगा। पिताजी ने अपने संदूक का ताला ही बदल लिया। रामप्रसाद बुरी आदतों के शिकार हो चुके थे। आदतों का छूटना इतना आसान नहीं होता। यद्यपि वह सुधरने का पूरा प्रयत्न करते, किंतु सिगरेट छोड़ पाना उनके लिए बड़ा कठिन हो गया था। जब भी उन्हें मौका मिलता, वह अपनी मां के पैसों पर हाथ साफ करने से नहीं चूकते। परंतु मां के पास इतने पैसे नहीं रहते थे कि उनके पहले की तरह सभी शौक पूरे हो सकें। साथ ही मां भी सावधान रहती थीं। और रामप्रसाद को भी अब स्वतः अपनी बुराई का आभास होने लगा कि ऐसा करना अच्छा नहीं था।
बुराइयों से मुक्ति
अपनी इन बुरी आदतों के कारण रामप्रसाद मिडिल में दो वर्ष अनुत्तीर्ण हो गए। उनकी इच्छा पर उन्हें अंग्रेजी स्कूल में प्रवेश दिला दिया गया। उनके घर के पास ही एक मंदिर था। इन्हीं दिनों इस मंदिर में एक नए पुजारीजी आ गए; जो बड़े ही उदार और चरित्रवान व्यक्ति थे। रामप्रसाद अपने दादा जी के साथ पहले से ही मंदिर में जाने लगे थे। नए पुजारीजी से भी रामप्रसाद प्रभावित हुए। वह नित्य मंदिर में आने-जाने लगे। पुजारीजी के सम्पर्क में वह पूजा-पाठ आदि भी सीखने लगे। पुजारीजी पूजा-पाठ के साथ ही उन्हें संयम-सदाचार, ब्रह्मचर्य आदि का भी उपदेश देते थे। इस सबका रामप्रसाद पर गहरा प्रभाव पड़ा। वह समय का सदुपयोग करने लगे। उनका अधिकतर समय पढ़ने तथा ईश्वर उपासना में बीतने लगा। उन्हें इस कार्य में आनंद आने लगा। इसके साथ ही वह व्यायाम भी नियमित रूप में करने लगे। उनकी सभी बुरी आदतें छूट गईं, किंतु सिगरेट छोड़ना उन्हें बहुत कठिन लगा। इस समय वह प्रतिदिन लगभग पचास-साठ सिगरेट पी जाते थे। इस बुराई को न छोड़ पाने का उन्हें दुःख था। वह समझते थे संभवतः उनकी यह बुरी आदत कभी नहीं छूट पाएगी।
उर्दू स्कूल छोड़कर उन्होंने मिशन स्कूल की पांचवी कक्षा में नाम लिखा लिया। यहां उनको अपने एक सहपाठी सुशीलचन्द्र सेन से विशेष प्रेम हो गया। अपने इसी सहपाठी के संपर्क में आने पर उनकी सिगरेट पीने की लत भी छूट गई।
द्वितीय अध्याय
नये विश्वास-नया जीवन
जिन दिनों रामप्रसाद अपने घर के पास वाले मंदिर में ईश्वर की आराधना करते थे, तभी उनका परिचय मुंशी इन्द्रजीत से हुआ, जो आर्यसमाजी विचारधारा के थे। उनका मंदिर के पास ही रहने वाले किसी सज्जन के घर आना-जाना था। रामप्रसाद की धर्म में अभिरुचि देखकर मुंशी इन्द्रजीत ने उन्हें संध्या उपासना करने का परामर्श दिया। रामप्रसाद ने संध्या के विषय में उनसे विस्तार में पूछा। मुंशीजी ने संध्या का महत्त्व तथा उपासना की विधि उन्हें समझाई। इसके बाद उन्होंने रामप्रसाद को आर्य सामाज के सिद्धांतों के बारे में भी बताया और पढ़ने के लिए सत्यार्थ प्रकाश दिया।
सत्यार्थ प्रकाश पढ़ने पर रामप्रसाद के विचार में एक अभूतपूर्व परिवर्तन आया। उन्हें वैदिक धर्म को जानने का सुअवसर प्राप्त हुआ। इससे उनके जीवन में नए विचारों और विश्वासों का जन्म हुआ, उन्हें एक नया जीवन मिला, उन्होंने सत्य, संयम, ब्रह्मचर्य का महत्त्व आदि विषयों को जाना। उन्होंने अखण्ड ब्रह्मचर्य व्रत का प्रण किया। इसके लिए उन्होंने अपनी पूरी जीवनचर्या ही बदल डाली। भूमि में तख्ते पर सोना, सात्विक आचार-विचार, संयम से रहना यही सब उनका जीवन बन गया। इससे उनका शरीर अपूर्व कांतिमय एवं सुदृढ़ बन गया। सत्यार्थ प्रकाश के अध्ययन ने उनके जीवन की दशा ही बदल डाली। इस प्रभाव के विषय में उन्होंने स्वयं लिखा है-
“इसके बाद मैंने सत्यार्थ प्रकाश पढ़ा। इससे तख्ता ही पलट गया। सत्यार्थ प्रकाश के अध्ययन ने मेरे जीवन के इतिहास में एक नवीन पृष्ठ खोल दिया। मैंने उसमें उल्लिखित ब्रह्मचर्य के कठिन नियमों का पालन करना प्रारंभ कर दिया। मैं एक कंबल को तख्त पर बिछाकर सोता और प्रातःकाल चार बजे से ही शय्या त्याग कर देता। स्नान-संध्यादि से निवृत्त होकर व्यायाम करता, किंतु मन की वृत्तियां ठीक न होतीं। मैंने रात्रि के समय भोजन करना त्याग दिया। केवल थोड़ा सा दूध ही रात के समय पीने लगा। सहसा ही बुरी आदतों को छोड़ा था, इस कारण कभी-कभी स्वप्नदोष हो जाता। तब किसी सज्जन के कहने पर मैंने नमक खाना भी छोड़ दिया। केवल उबालकर साग या दाल से एक समय भोजन करता। मिर्च खटाई तो छूता भी न था। इस प्रकार पांच वर्ष तक बराबर नमक न खाया। नमक न खाने से शरीर के दोष दूर हो गए और मेरा स्वास्थ्य दर्शनीय हो गया। सब लोग मेरे स्वास्थ्य को आश्चर्य की दृष्टि से देखा करते थे।”
इस प्रकार जो बालक अपनी किशोर अवस्था में एक बार अनेक बुरी लतों का आदी हो गया था, सत्यार्थ प्रकाश के अध्ययन ने उसका पूरा जीवन ही बदल डाला। वह एक आदर्श किशोर बन गया। उसका यह परिवर्तन सभी को आश्चर्य में डाल देता था।
विचारों का विरोध
आर्य समाज के प्रति रामप्रसाद की जिज्ञासा दिन-प्रतिदिन बढ़ती गई। वह आर्य समाज की सभाओं में जाने लगे। वहां आर्य समाज के विषय में दिए गए व्याख्यानों को वह बड़े मनोयोग से सुनते। आर्य समाज के साधु-महात्माओं के प्रति उनके हृदय में अपार श्रद्धा उत्पन्न हो गई। साधु-महात्माओं की सेवा करने में उन्हें बड़ा आनंद मिलता। इन्हीं दिनों वह योग के प्रति भी आकर्षित हुए, उन्हें प्राणायाम सीखने की तीव्र इच्छा थी। अपनी इस इच्छा की पूर्ति के लिए वह किसी भी साधु-महात्मा के आगमन का समाचार सुनकर उसी के पास पहुंच जाते।
आर्य समाज हिन्दू धर्म में फैली सभी बुराइयों का विरोध करके इसे एक विशुद्ध वैज्ञानिक स्वरूप देना चाहता है। इसकी इस विचारधारा के कारण पुरातनपंथी, अंधविश्वासी हिन्दू इसके विरोधी रहे हैं। जब रामप्रसाद मिशन स्कूल में सातवीं कक्षा के विद्यार्थी थे, उन्हीं दिनों सनातन हिन्दू मत के अनुयायी पण्डित जगत प्रसाद आर्य समाज का खण्डन कर रहे थे। इसी सिलसिले में वह शाहजहांपुर पहुंचे। उन्होंने आर्य समाज का विरोध करना प्रारंभ कर दिया। आर्य समाजियों ने उनके इस कार्य का विरोध किया और उनसे शास्त्रार्थ करने के लिए प्रसिद्ध विद्वान पण्डित अखिलानन्द को बुलाया गया। दोनों में शास्त्रार्थ हुआ, किंतु यह शास्त्रार्थ संस्कृत भाषा में हुआ था। संभवतः इसमें आर्य समाज की ही विजय हुई थी।
रामप्रसाद पूर्णतया आर्य समाज के रंग में रंग चुके थे स्वाभाविक रूप में वह समाज में फैली बुराइयों का विरोध करने लगे। इससे उनके मुहल्ले के कुछ लोगों के विचारों को ठेस लगी। अतः उन्होंने रामप्रसाद की शिकायत उनके पिताजी से की। पिताजी ने रामप्रसाद से तुरंत आर्य समाज छोड़ देने के लिए कहा, किंतु उन्हें आर्य समाज के सिद्धांतों पर दृढ़ आस्था थी। वह ऐसा करने के लिए तैयार नहीं हुए। इस पर पिता पुत्र में विवाद बढ़ गया। कोई भी अपनी बात पर पीछे हटने को तैयार नहीं था। पिताजी ने अंतिम चेतावनी दे दी-“आर्य समाज छोड़ दो या घर से निकल जाओ, अन्यथा रात में सोते समय तुम्हारी हत्या कर दी जाएगी।”
रामप्रसाद को पिताजी के इस व्यवहार से भारी दुःख हुआ। उन्होंने अपने मन में विचार किया-“पिताजी जिद्दी स्वभाव के हैं। हो सकता है वह कोई अनुचित व्यवहार कर बैठें। इससे घर की ही बदनामी होगी। ऐसी परिस्थिति में घर छोड़ देना ही उचित होगा।” वह इसी विषय में चिंतन कर रहे थे और धोती पहनने का उपक्रम कर रहे थे। पिताजी का क्रोध अपने आपे से बाहर हो चुका था। उन्होंने क्रोध में आकर रामप्रसाद की धोती हाथ से छीन ली तथा आदेशात्मक स्वर में कहा, “जाओ घर से निकल जाओ।” पिताजी के इस असंभावित व्यवहार से रामप्रसाद को अकल्पनीय दुःख हुआ। उन्होंने पिताजी के चरण स्पर्श किए और घर से निकल पड़े। इस समय उनके शरीर पर केवल एक कमीज तथा लंगोट के सिवाय कुछ भी न था।
आवेश में वह घर से निकल गए, किंतु अब समस्या सामने खड़ी थी कि कहां जाएं? शहर में कोई ऐसा परिचित नहीं था कि शरण दे पाता। उनकी समझ में कुछ न आया। पग स्वयं ही जंगल की ओर बढ़ गए। एक रात और एक दिन पूरे चौबीस घंटे रास्ते में किसी बाग के एक पेड़ पर गुजारे। भूख पर किसी का वश नहीं चलता, अतः भूख से व्याकुल होने पर पास के खेतों से कच्चे चने तोड़कर खा लिए। पास ही में बहने वाली नदी में नहाया भी और पानी भी पिया। इसके दूसरे दिन आर्य समाज मंदिर में पंडित अखिलानन्द का व्याख्यान था, अतः व्याख्यान सुनने के लिए वहां पहुंच गए और एक पेड़ के नीचे खड़े होकर व्याख्यान सुनने लगे।
यद्यपि पण्डित मुरलीधर ने क्रोध के आवेश में पुत्र को घर से निकाल तो दिया, किंतु बाद में स्वयं उन्हें अपने व्यवहार पर भारी ग्लानि हुई। रामप्रसाद के घर से निकल जाने पर घर में सभी दुःखी थे। इस बीच घर में किसी ने भोजन नहीं किया। सबके मन में तरह-तरह की शंकाएं उभरने लगीं। कहीं वह रेल से कटकर अथवा नदी में डूबकर आत्महत्या न कर ले। क्रोध में मनुष्य अपना विवेक खो बैठता है, किंतु बाद में उसे स्वयं अपने कृत्य पर पछतावा होता है, सभी लोग उसे भला-बुरा कहते हैं। अतः रामप्रसाद की खोज होने लगी। सबने विचार किया कि वह आर्य समाज मंदिर में ही मिल सकते हैं। रामप्रसाद वहां व्याख्यान सुन रहे थे। इतने में उनके पिताजी दो अन्य व्यक्तियों के साथ वहां पर पहुंच गए। उन्हें वहां से समझा-बुझाकर ले आए। सबसे पहले उन्हें मिशन स्कूल के प्रधान अध्यापक के पास ले गए, जहां रामप्रसाद पढ़ते थे। प्रधान अध्यापक महोदय स्वयं एक ईसाई थे। उन्हें सारी बातें बताई गई। उन्होंने पण्डित मुरलीधर को समझाया कि “लड़का समझदार है; वह अपना भला बुरा स्वयं समझ सकता है, अगर वह आर्य समाज के सिद्धांतों को उचित समझता है, तो उसे बलपूर्वक इससे विमुख नहीं किया जा सकता, ऐसा करना उचित भी नहीं होगा। इससे उसके मन में विद्रोह की भावना का जन्म लेना स्वाभाविक ही है और फिर इतने बड़े लड़के के साथ मार-पीट करना उचित नहीं है।”
इसके बाद घर वालों ने आर्य समाज के प्रति उनके दृष्टिकोण का विरोध करना छोड़ दिया। पिताजी ने फिर उनके ऊपर कभी हाथ नहीं उठाया। हां, दादीजी को यह कदापि पसंद नहीं था कि उनका पोता आर्य समाजी बने। वह बार-बार आर्य समाज के कार्यकलापों में भाग न लेने की सलाह देती रहतीं, किंतु मां पुत्र की भावनाओं का सम्मान करती थी। वह सदा पुत्र का उत्साह बढ़ातीं, जिसके कारण उन्हें कई बार पति की डांट-फटकार भी सुननी पड़ती थी। रामप्रसाद अपने मार्ग पर आगे बढ़ते रहे।
कुमार सभा में
आर्य समाज से प्रभावित युवकों ने आर्य समाज मंदिर में कुमार सभा की स्थापना की थी। प्रत्येक शुक्रवार को कुमार सभा की एक बैठक होती थी। यह सभा धार्मिक पुस्तकों पर बहस, निबंध लेखन, वाद-विवाद आदि का आयोजन करती थी। रामप्रसाद भी इसके सदस्य थे। यहीं से उन्होंने सार्वजनिक रूप में बोलना प्रारंभ किया। कुमार सभा के सदस्य शहर तथा उसके आस-पास लगने वाले मेलों में आर्य समाज के सिद्धांतों का प्रचार करते थे तथा बाजारों में भी इस विषय में व्याख्यान देते थे। इस प्रकार का प्रचार कार्य मुसलमानों को सहन नहीं हुआ। सांप्रदायिक वैमनस्य बढ़ने का खतरा दिखाई देने लगा। अतः बाजारों में व्याख्यान देने पर प्रशासन ने प्रतिबंध लगा दिया। आर्य समाज के बड़े-बड़े नेता लोग कुमार सभा के सदस्यों को अपने संकेतों पर नचाना चाहते थे, परंतु युवक उनका नियंत्रण स्वीकार करने को किसी प्रकार तैयार न थे। अतः कुमार सभा के लिए आर्य समाज मंदिर में ताला लगा दिया गया। उन्हें मंदिर में सभा न करने के लिए बाध्य कर दिया गया। साथ ही चेतावनी दी गई की यदि उन्होंने मंदिर में सभा की तो उन्हें पुलिस द्वारा बाहर निकलवा दिया जाएगा। इससे युवकों को बड़ी निराशा हुई, उन्हें ऐसी आशा नहीं थी। फिर भी वे दो-तीन महीनों तक मैदान में ही अपनी साप्ताहिक बैठक करते रहे। सदा ऐसा करना संभव नहीं था, अतः कुमार सभा समाप्त हो गई। बुजुर्ग आर्यसमाजियों ने अपनी नेतागिरी दिखाने के लिए युवकों की भावनाओं की हत्या कर दी।
कुमार सभा के टूट जाने पर भी उसका शहर की जनता पर अच्छा प्रभाव पड़ चुका था। लखनऊ में सम्पन्न होने वाले कांग्रेस के अधिवेशन के साथ ही अखिल भारतीय कुमार सभा का भी वार्षिक सम्मेलन होने वाला था। राम प्रसाद इसमें भाग लेने के इच्छुक थे। इसमें भाग लेने पर कांग्रेस का अधिवेशन देखने का भी अवसर मिल जाता। उन्होंने अपनी यह इच्छा अपने घर वालों के सामने रखी, किंतु उनके पिताजी तथा दादीजी इससे सहमत न हुए। दोनों ने इसका प्रबल विरोध किया, केवल उनकी माताजी ने ही उन्हें वहां भेजने का समर्थन किया। उन्होंने पुत्र को वहां जाने के लिए खर्चा भी दिया, जिसके कारण उन्हें पति की डांट-फटकार का भी सामना करना पड़ा। इस सम्मेलन में लाहौर तथा शाहजहांपुर की कुमार सभाओं को ही सबसे अधिक पुरस्कार प्राप्त हुए। देश के सभी प्रमुख समाचारपत्रों ने इस समाचार को प्रकाशित किया था।
लखनऊ कांग्रेस अधिवेशन में लोकमान्य बालगंगाधर तिलक के स्वागत में रामप्रसाद ने विशेष भूमिका निभाई। इसका वर्णन अगले अध्याय में यथास्थान किया जाएगा।
आर्य समाज का प्रभाव
यद्यपि रामप्रसाद बिस्मिल का जन्म एक परंपरागत रूढ़िवादी ब्राह्मण परिवार में हुआ था, किंतु आर्य समाज के प्रभाव ने उनके जीवन को आमूल बदल कर रख दिया। सत्यार्थ प्रकाश के अध्ययन से वह एक सच्चे सत्यशोधक बन गए आर्य समाज के सिद्धांतों को उन्होंने अपने व्यावहारिक जीवन में अपना लिया। इस विषय में उनके जीवन की एक-दो घटनाएं विशेष उल्लेखनीय हैं।
एक बार रामप्रसाद बिस्मिल अपने कुछ साथियों के साथ ट्रेन से कहीं जा रहे थे। इस यात्रा में उन्होंने तृतीय श्रेणी के टिकट लिए थे, परंतु वह अपने अन्य साथियों के साथ द्वितीय श्रेणी के डिब्बे में जा बैठे। यात्रा पूरी होने पर अपने इस कृत्य पर उन्हें अत्यंत खेद हुआ। उन्होंने अपने साथियों से कहा कि उन्हें इस यात्रा का बाकी भाड़ा स्टेशन मास्टर के पास जमा कर देना चाहिए। संभवतः शेष भाड़ा जमा कर दिया गया। इसी प्रकार दूसरी बार उनके पिताजी को किसी के साथ दीवानी का दावा करना था। इसके लिए वह एक वकील रख गए थे तथा उससे कह गए थे कि इस विषय में जो भी काम करना हो, रामप्रसाद से करा लें। पिताजी कहीं बाहर चले गए थे। वकील ने दावे के कागज तैयार किए। उन पर हस्ताक्षर कराने के लिए रामप्रसाद बिस्मिल को बुलाया और वकालत नामे पर उनके पिता के हस्ताक्षर करने के लिए कहा, किंतु रामप्रसाद सच्चे आर्य समाजी थे उन्हें पिताजी के जाली हस्ताक्षर करना धर्म विरुद्ध प्रतीत हुआ। अतः उन्होंने ऐसा करने से मना कर दिया। इस विषय में उन्होंने स्वयं लिखा है।-
प्रथम अध्याय
रामप्रसाद बिस्मिल
पारिवारिक पृष्ठभूमि व प्रारम्भिक जीवन
वर्तमान मध्य प्रदेश में अंग्रेजों के शासन में एक देशी रियासत थी, ‘ग्वालियर’। यहीं चम्बल नदी के तट पर दो गांव हैं। इन दोनों गांवों के निवासी उस समय बड़े ही उद्दंड स्वभाव के थे। यहां के लोगों पर राज्य के कानूनों का कोई प्रभाव नहीं था। जमींदार लोग जब चाहें, अपनी इच्छा से भूमिकर देते थे, जब इच्छा नहीं होती, नहीं देते थे। इस संबंध में जब कभी कोई राज्य का अधिकारी इन गांवों में पहुंचता, तो जमींदार लोग अपनी समस्त सम्पत्ति को लेकर अपने पशुओं आदि के साथ चम्बल के बीहड़ों में निकल जाते। राज्य के कानूनों एवं आदेशों की खुलेआम अवहेलना करना इनके लिए एक सामान्य बात थी। इनके इस प्रकार के व्यवहार पर भी यदा-कदा तत्कालीन शासन ने इन पर अपनी उदारता दिखाई थी। इसे उदारता कहा जाए अथवा सनक कि इसी व्यवहार के कारण एक जमींदार को भूमिकर से मुक्ति मिल गई थी। इस घटना का वर्णन करते हुए पण्डित रामप्रसाद बिस्मिल ने अपनी आत्मकथा में लिखा है-
“एक जमींदार के संबंध में एक कथा प्रचलित है कि मालगुजारी न देने के कारण ही उनको कुछ भूमि माफी में मिल गई। पहले तो कई साल तक भागे रहे। एक बार धोखे से पकड़ लिए गए तो तहसील के अधिकारियों ने उन्हें खूब सताया। कई दिन तक बिना खाना पानी बंधा रहने दिया। अन्त में जलाने की धमकी दे पैरों पर सूखी घास डालकर आग लगवा दी। किन्तु उन जमींदार महोदय ने भूमिकर देना स्वीकार नहीं किया और यही उत्तर दिया कि ग्वालियर महाराज के कोष में मेरे कर न देने से घाटा न पड़ जाएगा। संसार क्या जानेगा कि अमुक व्यक्ति उद्दण्डता के कारण ही अपना समय व्यतीत करता है। राज्य को लिखा गया, जिसका परिणाम यह हुआ कि उतनी भूमि उन महाशय को माफी में दे दी गई।”
इस प्रकार की उद्दण्डता करना यहां के निवासी अपने लिए बड़े गौरव की बात समझते थे। एक बार इन लोगों ने राज्य के ऊंटों की चोरी की और इस पर भी राजकोप से बच गए। इस घटना का वर्णन शहीद बिस्मिल ने निम्नलिखित शब्दों में किया है-
“.....एक समय इन ग्रामों के निवासियों को एक अद्भुत खेल सूझा। उन्होंने महाराज के रिसाले के साठ ऊंट चुराकर बीहड़ों में छिपा दिए। राज्य को लिखा गया, जिस पर राज्य की ओर से आज्ञा हुई कि दोनों ग्राम तोप लगाकर उड़वा दिए जाएं। न जाने किस प्रकार समझाने-बुझाने से ऊंट वापस कर दिए गए और अधिकारियों को समझाया गया कि इतने बड़े राज्य में थोड़े से वीर लोगों का निवास है, इनका विध्वंस न करना ही उचित होगा। तब तोपें लौटाई गईं और ग्राम उड़ाए जाने से बचे।”
देसी रियासतें आन्तरिक प्रशासन के लिए उसके शासन के अधीन थीं। इस रियासत के ये निवासी लूट-पाट आदि की घटनाएं प्रायः अपनी रियासत में नहीं करते थे। इस प्रकार की घटनाओं के लिए इन लोगों का कार्यक्षेत्र समीप का अंग्रेजी राज्य होता था। ये लोग अंग्रेजी राज्य के समीपवर्ती क्षेत्र के धनवान लोगों के घरों में डकैतियां डाल रातों-रात चम्बल के बीहड़ों में जा छिपते और इस प्रकार पुलिस इनका कुछ भी नहीं बिगाड़ पाती। ये दोनों गांव अंग्रेजी राज्य की सीमा से प्रायः पन्द्रह मील की दूरी पर हैं। यहीं एक गांव में पण्डित श्री नारायण लाल रहते थे। पण्डितजी की पारिवारिक परिस्थिति अत्यंत सामान्य स्तर की थी। घर में उनकी भाभी का एकाधिकार चलता था, जो एक स्वार्थी प्रवृत्ति की महिला थी। पण्डित नारायण लाल के लिए धीरे-धीरे भाभी का दुर्व्यवहार असहनीय हो गया। इसलिए उन्होंने घर छोड़ देने का निर्णय लिया और अपनी धर्मपत्नी तथा दो अबोध पुत्रों को साथ लेकर घर से निकल पड़े। इस समय उनके बड़े पुत्र मुरलीधर की अवस्था आठ वर्ष तथा छोटे पुत्र कल्याणमल की केवल छः वर्ष थी।
घर छोड़ने के बाद पण्डित नारायण लाल कई दिनों तक आजीविका की तलाश में इधर-उधर भटकते रहे तथा अन्त में शाहजहांपुर उत्तर प्रदेश पहुंचे और यहीं अरहिया नामक गांव में रहने लगे। इस समय देश में भयंकर अकाल पड़ा था। अत्यधिक प्रयत्न करने पर शाहजहांपुर में एक अतार महोदय के यहां पण्डित नारायण लाल को एक मामूली सी नौकरी मिली, जिसमें नाममात्र के लिए तीन रुपए प्रतिमास वेतन मिलता था। भयंकर अकाल में परिवार के चार प्राणियों का भरण-पोषण कर पाना अत्यधिक कठिन कार्य था। दादीजी एक समय, वह भी केवल आधा पेट भोजन करतीं, तब भी परिवार का निर्वाह न हो पाता। अत्यधिक निर्धनता एवं कठिनाइयों का सामना करना पड़ता था। इसका उल्लेख करते हुए पण्डित रामप्रसाद बिस्मिल ने लिखा है-
“दादीजी ने बहुत प्रयत्न किया कि अपने आप केवल एक समय आधे पेट भोजन करके बच्चों का पेट पाला जाए, किन्तु फिर भी निर्वाह न हो सका। बाजरा, कुकनी, सामा, ज्वार इत्यादि खाकर दिन काटने चाहे, किन्तु फिर भी गुजारा न हुआ। तब आधा बथुवा, चना या कोई दूसरा साग, जो सबसे सस्ता हो उसको लेकर, सबसे सस्ता अनाज उसमें आधा मिलाकर थोड़ा सा नमक डालकर उसे स्वयं खातीं, लड़कों को चना या जौ की रोटी देती और इसी तरह दादाजी भी समय व्यतीत करते थे। बड़ी कठिनता से आधा पेट खाकर दिन तो कट जाता, किन्तु पेट में घोटूं दबाकर रात काटना कठिन हो जाता।”
भोजन के साथ ही वस्त्र एवं रहने के लिए मकान की समस्या भी विकट थी। अतः दादीजी ने कुछ घरों में कुटाई-पिसाई का काम करने का विचार किया, परंतु इस अकाल के समय में यह काम मिलना भी सरल नहीं था। बड़ी ही कठिनाई के साथ कुछ घरों में इस तरह का काम मिल पाया, परंतु इसे भी उन्हीं लोगों के घर में करना पड़ता था, जो लोग काम देते थे। यह काम भी बहुत ही कम मिल पाता था-मुश्किल से दिन में पांच-छः सेर जिसका पारिश्रमिक उन दिनों एक पैसा प्रति पसेरी मिलता था। अपनी पारिवारिक विवशताओं के कारण उन्हें इन्हीं एक डेढ़ पैसों के लिए तीन-चार घंटे काम करना पड़ता था। इसके बाद ही घर आकर बच्चों के भोजन की व्यवस्था करनी पड़ती। फिर भी दादीजी संतोष और धैर्य के साथ विपत्ति का सामना करतीं। वह बड़ी ही साहसी महिला थीं। पण्डित नारायण लाल कभी-कभी पत्नी एवं बच्चों के कष्टों को देखकर दुःखी हो जाते और अपनी पत्नी से पुनः अपने मूल निवास स्थान ग्वालियर चल पड़ने को कहते, किन्तु दादी बड़ी स्वाभिमानी महिला थीं। ऐसे अवसरों पर वे अपने पति का साहस बढ़ाती और कहती कि जिन लोगों के कारण घर छोड़ना पड़ा, फिर उन्हीं की शरण में जाना एक स्वाभिमानी व्यक्ति को शोभा नहीं देता। स्वाभिमान की रक्षा करते हुए प्राणों का परित्याग कर देना अच्छा है, किंतु स्वाभिमान का परित्याग मृत्यु से भी बढ़कर है। दुःख-सुख सदा लगे रहते हैं। दुःख के बाद सुख भी प्राप्त होता है। ये दिन भी सदा नहीं रहेंगे। अतः दादीजी फिर कभी लौटकर ग्वालियर राज्य नहीं गईं।
धीरे-धीरे चार-पांच वर्ष बीत गए। पण्डित नारायण लाल का कुछ स्थानीय लोगों से परिचय भी बढ़ गया। अकाल भी बीत गया। पण्डितजी के परिवार पर लोगों का विश्वास एवं स्नेह भी बढ़ गया। ब्राह्मण होने के कारण लोग सम्मान भी देने लगे। दादाजी को कभी-कभी कुछ लोग अपने घर भोजन के लिए आमंत्रित करने लगे। पहले की तुलना में काम भी अधिक मिलने लगा। कभी कुछ दान दक्षिणा भी मिल जाती। इस प्रकार धीरे-धीरे कठिनाइयां कुछ कम होने लगीं।
पण्डित नारायण लाल भी ब्राह्मणवृत्ति करने लगे। कठिन परिश्रम से घर की स्थिति में कुछ सुधार हुआ। धीरे-धीरे बच्चे भी कुछ बड़े हो गए थे। बड़ा पुत्र पाठशाला में पढ़ने जाने लगा। पण्डितजी के कठिन परिश्रम से अब उनका वेतन भी बढ़कर सात रुपए प्रतिमाह हो गया था। परिवार की स्थिति को सुधारने में दादीजी के परिश्रम की भी महत्त्वपूर्ण भूमिका रही। ऐसे दुर्दिनों में उन्होंने जिस साहस का परिचय दिया, एक सामान्य ग्रामीण महिला से ऐसी अपेक्षा प्रायः कम ही की जाती है।
दादी का सामाजिक परिवेश
दादीजी ने ग्वालियर में कभी अपने घर से बाहर पांव भी नहीं रखा था। उन्होंने जिस परिवेश में जन्म लिया, वह एक रूढ़िवादी परंपराओं वाला परिवेश था। उस समाज में जात-पांत, छुआ-छूत आदि रूढ़ियां पूरी तरह व्याप्त थी। इन प्रथाओं का पालन करने में वहां के लोग नियम-कानून आदि की कोई परवाह नहीं करते थे। इसके लिए किसी के प्राण लेने में भी उन्हें किसी प्रकार का संकोच नहीं होता था। कोई भी महिला बिना घूंघट निकाले एक घर से दूसरे घर नहीं जा सकती थी। अनुसूचित जाति की महिलाओं की दशा तो और भी अधिक दयनीय थी। इन सब प्रथाओं का पालन कराने के लिए सवर्ण लोग तरह-तरह के अत्याचार करते थे। किसी भी महिला पर व्यभिचार का संदेह होने पर उसे काट कर चम्बल में बहा देना एक मामूली बात थी, जिसकी किसी को कानों कान खबर भी नहीं होती थी। अनुसूचित जातियों पर सवर्णों के अत्याचारों की कोई सीमा नहीं थी। इस संबंध में बिस्मिल ने एक घटना का उल्लेख किया है-
“एक समय किसी चमार की वधू, जो अंग्रेजी राज्य से विवाह करके गई थी, कुलप्रथानुसार जमींदार के घर पैर छूने के लिए गई। वह पैरों में बिछुए (नूपुर) पहने हुई थी। और सब पहनावा चमारों का पहने थी। जमींदार महोदय की नजर उसके पैरों पर पड़ी। पूछने पर मालूम हुआ कि चमार की बहू है। जमींदार साहब जूता पहनकर आए और उसके पैरों पर खड़े होकर इतने जोर से दबाया कि उसकी अंगुलियां कट गईं। उन्होंने कहा कि यदि चमारों की बहुएं बिछुवा पहनेंगी तो ऊंची जाति के घर की स्त्रियां क्या पहनेंगी?”
इस समाज का केवल एक ही उज्ज्वल पक्ष था, वह था यहां के लोगों का सदाचरण। सभी लोगों का आचरण उच्च था। गांव में किसी भी जाति की महिलाओं को कोई भी बुरी नजर से नहीं देख सकता था। स्त्रियों के सम्मान की रक्षा के लिए लोग अपने प्राणों की भी परवाह नहीं करते थे। अन्यथा यह समाज पूर्णतया एक सामन्तवादी समाज था, जिसे सोलहवीं सदी का समाज कहा जा सकता है।
इस प्रकार के परिवेश में जन्म लेकर भी विपत्ति के दिनों का दादीजी ने जिस साहस के साथ सामना किया, उसे उनका एक क्रान्तिकारी कार्य ही कहा जाएगा। उनके इस साहस एवं त्याग ने अन्ततः इन विपत्तियों पर विजय पा ली। कठिन परिश्रम तथा कुछ ब्राह्मण कार्य करके पण्डित नारायण लाल की आर्थिक स्थिति में सुधार हुआ। इसके बाद उन्होंने नौकरी छोड़ दी। तथा पैसे दुअन्नी आदि सिक्के बेचने का कार्य करने लगे। बुरे दिनों ने विदा ले ली। खुशियों के दिन आए। बड़ा पुत्र मुरलीधर कुछ शिक्षा भी पा गया। पहले किसी दूसरे के घर में रहते थे, अब एक मकान भी खरीद लिया। एक के बाद दूसरे मकान में आश्रय पाने वाले परिवार को अपना घर प्राप्त हो गया, जहां वे शांति एवं आराम से रह सकते थे, जिसे अपना कह सकते थे। मकान हो जाने पर उन्होंने अपने बड़े पुत्र का विवाह करने का विचार किया। यद्यपि उस समय उसकी अवस्था पन्द्रह-सोलह वर्ष से अधिक नहीं थी, किंतु उस समय समाज में बाल विवाह की प्रथा थी। अतः पति-पत्नी अपने बच्चों को लेकर बच्चों के ननिहाल गए। वहीं रिश्ता तय हुआ और विवाह हो गया। पूरा परिवार तीन-चार महीने वहीं रहा तथा फिर नववधू को लेकर शाहजहांपुर आ गया।
अब परिवार में एक नवीन सदस्य का आगमन हो चुका था। पण्डित मुरलीधर पर भी गृहस्थी का उत्तरदायित्व आ गया था। उन्हें भी स्थानीय नगरपालिका में नौकरी मिल गई, जिसमें उन्हें पन्द्रह रुपये मासिक वेतन मिलने लगा। शिक्षा अधिक न होने पर भी उस समय पन्द्रह रुपये प्रतिमास की यह नौकरी कोई कम नहीं थी। फिर भी उन्होंने यह नौकरी लगभग दो वर्षों तक की, क्योंकि उन्हें यह नौकरी करना पसंद न था। वे कोई स्वतंत्र व्यवसाय करना चाहते थे। इसलिए उन्होंने नौकरी से त्यागपत्र दे दिया। इसके बाद क्या किया जाए, यह प्रश्न सामने था। खाली घर में तो बैठा नहीं जा सकता था। घर की स्थिति भी ऐसा काम करने की आज्ञा नहीं देती थी। इस सब को देखते हुए उन्होंने कचहरी में स्टाम्प बेचने का कार्य प्रारम्भ कर दिया। यह व्यवसाय उनके लिए अत्यन्त शुभ रहा। इससे घर की आर्थिक स्थिति अत्यधिक सुधर गई।
इस व्यवसाय से पण्डित मुरलीधर ने अपने समाज में अपना एक विशेष स्थान बना लिया। वे अपने मुहल्ले के संभ्रान्त एवं सम्मानित लोगों में गिने जाने लगे। उन्होंने इसी व्यवसाय से तीन बैलगाड़ियां बनाईं, जिन्हें किराए पर लगा दिया गया। वे पैसे के लेन-देन का काम भी करने लगे। इस प्रकार उनकी आय के स्रोत भी बढ़ गए। यह व्यवसाय वास्तव में उनके जीवन में एक सुनहरा अध्याय सिद्ध हुआ। पहले जिस परिवार के पास पेट भरने के लिए भोजन भी नहीं था, वही परिवार अब साहूकारी का काम करने लगा था। पण्डित मुरलीधर अपने जीवन में प्रायः अन्त तक सरकारी स्टाम्प बेचने का व्यवसाय करते रहे। इसी व्यवसाय से उन्होंने अपनी संतान को शिक्षा-दीक्षा दी, किंतु सम्पन्न हो जाने पर भी वह एक साधारण गृहस्थ की तरह ही रहते थे, दिखावा उन्हें पसंद नहीं था। इसके साथ ही वह अखाड़े में जाने के भी बड़े शौकीन थे। उन्हें कसरत-व्यायाम आदि से बड़ा लगाव था। वह एक स्वस्थ-सुदृढ़ शरीर के व्यक्ति थे। उनका चरित्र बड़ा ही उत्तम था। वह इस विषय में बड़े सख्त व्यक्ति थे।
अपने परिवार की पूर्व स्थिति को सुधारने का सारा श्रेय पण्डित मुरलीधर को ही जाता है। वह वास्तव में एक सपूत सिद्ध हुए। उन्होंने अपने माता-पिता की सारी कठिनाइयों को दूर कर दिया। वह अपने माता-पिता द्वारा उठाए गए कष्टों को भूले नहीं थे, इसी से उन्होंने सदा परिश्रम एवं ईमानदारी की शिक्षा ग्रहण की थी। सवंत् 1953 में पण्डित मुरलीधर के घर में एक पुत्र ने जन्म लिया। दुर्भाग्य से यह पुत्र जीवित न रहा।
रामप्रसाद बिस्मिल का जन्म
ज्येष्ठ शुक्ला 11 संवत् 1954 सन् 1897 में पण्डित मुरलीधर की धर्मपत्नी ने द्वितीय पुत्र को जन्म दिया। इस पुत्र का जन्म मैनपुरी में हुआ था। संभवतः वहां बालक का ननिहाल रहा हो। इस विषय में श्री व्यथित हृदय ने लिखा है-“यहां यह बात बड़े आश्चर्य की मालूम होती है कि बिस्मिल के दादा और पिता ग्वालियर के निवासी थे। फिर भी उनका जन्म मैनपुरी में क्यों हुआ? हो सकता है, मैनपुरी में बिस्मिल जी का ननिहाल रहा हो।”
इस पुत्र से पूर्व एक पुत्र की मृत्यु हो जाने से माता-पिता का इसके प्रति चिन्तित रहना स्वाभाविक था। अतः बालक के जीवन की रक्षा के लिए जिसने जो उपाय बताया, वही किया गया। बालक को अनेक प्रकार के गण्डे ताबीज आदि भी लगाए गए। बालक जन्म से ही दुर्बल था। जन्म के एक-दो माह बाद इतना दुर्बल हो गया कि उसके बचने की आशा ही बहुत कम रह गई थी। माता-पिता इससे अत्यन्त चिन्तित हुए। उन्हें लगा कि कहीं यह बच्चा भी पहले बच्चे की तरह ही चल न बसे। इस पर लोगों ने कहा कि संभवतः घर में ही कोई बच्चों का रोग प्रवेश कर गया है। इसके लिए उन्होंने उपाय भी सुझाया। बताया गया कि एक बिल्कुल सफेद खरगोश बालक के चारों ओर घुमाकर छोड़ दिया जाए। यदि बालक को कोई रोग होगा तो खरगोश तुरंत मर जाएगा। माता-पिता बालक की रक्षा के लिए कुछ भी करने को तैयार थे, अतः ऐसा ही किया गया। आश्चर्य की बात कि खरगोश तुरंत मर गया। इसके बाद बच्चे का स्वास्थ्य दिन पर दिन सुधरने लगा। यही बालक आगे चलकर प्रसिद्ध क्रान्तिकारी अमर शहीद रामप्रसाद बिस्मिल के नाम से प्रसिद्ध हुआ।
शिक्षा
सात वर्ष की अवस्था हो जाने पर बालक रामप्रसाद को पिता पण्डित मुरलीधर घर पर ही हिन्दी अक्षरों का ज्ञान कराने लगे। उस समय उर्दू का बोलबाला था। अतः घर में हिन्दी शिक्षा के साथ ही बालक को उर्दू पढ़ने के लिए एक मौलवी साहब के पास मकतब में भेजा जाता था।
पण्डित मुरलीधर पुत्र की शिक्षा पर विशेष ध्यान देते थे। पढ़ाई के मामले में जरा भी लापरवाही करने पर बालक रामप्रसाद को पिता की मार भी पड़ती रहती थी। हिन्दी अक्षरों का ज्ञान कराते समय एक बार उन्हें बंदूक के लोहे के गज से इतनी मार पड़ी थी कि गज टेढ़ा पड़ गया था। अपनी इस मार का वर्णन करते हुए उन्होंने लिखा है-
“बाल्यकाल से पिताजी मेरी शिक्षा का अधिक ध्यान रखते थे और जरा-सी भूल करने पर बहुत पीटते थे। मुझे अब भी भली-भांति स्मरण है कि जब मैं नागरी के अक्षर लिखना सीख रहा था तो मुझे ‘उ’ लिखना न आया। मैंने बहुत प्रयत्न किया। पर जब पिताजी कचहरी चले गए तो मैं भी खेलने चला गया। पिताजी ने कचहरी से आकर मुझसे ‘उ’ लिखवाया, मैं न लिख सका। उन्हें मालूम हो गया कि मैं खेलने चला गया था। इस पर उन्होंने मुझे बंदूक के लोहे के गज से इतना पीटा कि गज टेढ़ा पड़ गया। मैं भागकर दादाजी के पास चला गया, तब बचा।”
इसके बाद बालक रामप्रसाद ने पढ़ाई में कभी असावधानी नहीं की। वह परिश्रम से पढ़ने लगे। वह आठवीं कक्षा तक सदा अपनी कक्षा में प्रथम आते थे, किंतु कुसंगति में पड़ जाने के कारण उर्दू मिडिल परीक्षा में वह लगातार दो वर्ष अनुत्तीर्ण हो गए। बालक की इस अवनति से घर में सभी को बहुत दुःख हुआ। दो बार एक ही परीक्षा में अनुत्तीर्ण होने पर बालक रामप्रसाद का मन उर्दू की पढ़ाई से उठ गया। उन्होंने अंग्रेजी पढ़ने की इच्छा व्यक्त की, किंतु पिता पण्डित मुरलीधर अंग्रेजी पढ़ाने के पक्ष में नहीं थे। वह रामप्रसाद को किसी व्यवसाय में लगाना चाहते थे। अन्ततः मां के कहने पर उन्हें अंग्रेजी पढ़ने भेजा गया। अंग्रेजी में आठवीं पास करने के बाद नवीं में ही वह आर्यसमाज के सम्पर्क में आए, जिससे उनके जीवन की दिशा ही बदल गई।
दादा-दादी की छत्रछाया में
बच्चों को घर में अपने माता-पिता से भी अधिक स्नेह अपने दादा-दादी से होता है। बालक रामप्रसाद भी इसके अपवाद नहीं थे। पिताजी अत्यधिक सख्त अनुशासन वाले व्यक्ति थे। इसका उल्लेख ऊपर किया जा चुका है। अतः पिताजी के गुस्से से बचने का उपाय रामप्रसाद के लिए अपने दादा श्री नारायण लाल ही थे। दादाजी सीधे-सादे, सरल स्वभाव के प्राणी थे। मुख्यरूप से सिक्के बेचना ही उनका व्यवसाय था। उन्हें अच्छी नस्ल की दुधारू गायें पालने का बड़ा शौक था। दूर-दूर से दुधारू गायें खरीदकर लाते थे और पोते को खूब दूध पिलाते थे। गायें इतनी सीधी थीं कि बालक रामप्रसाद जब-तब उनका थन मुंह में लेकर दूध पिया करते थे। दादाजी रमप्रसाद के स्वास्थ्य पर सदा ध्यान देते थे। इसके साथ ही दादा जी धार्मिक स्वभाव के पुरुष थे। वे सदा सांयकाल शिव मंदिर में जाकर लगभग दो घण्टे तक पूजा-भजन इत्यादि करते थे, जिसका बालक रामप्रसाद पर गहरा प्रभाव पड़ा। दादाजी का देहावसान लगभग पचपन वर्ष की आयु में हुआ।
दादीजी कठिन परिश्रमी महिला थीं। उन्होंने अपने जीवन में बड़े अभाव देखे थे, जिनका उन्होंने बड़ी दृढ़ता से सामना किया था। इसका वर्णन पहले ही किया जा चुका है।
ममतामयी मां
पण्डित रामप्रसाद बिस्मिल की मां पूर्णतया एक अशिक्षित ग्रामीण महिला थी। विवाह के समय उनकी अवस्था केवल ग्यारह वर्ष की थी। ग्यारह वर्ष की नववधू को घरेलू कामों की शिक्षा देने के लिए दादीजी ने अपनी छोटी बहिन को बुला लिया था। संभवतः दादीजी अभी तक कुटाई-पिसाई का काम करती रहती थीं, जिससे उन्हें बहू को काम सिखाने का समय नहीं मिल पाता था। कुछ ही दिनों में उन्होंने घर का सारा काम भोजन बनाना आदि अच्छी तरह से सीख लिया था। रामप्रसाद जब छः-सात वर्ष के हो गए तो माताजी ने भी हिन्दी सीखना शुरू किया। उनके मन में पढ़ने की तीव्र इच्छा थी। घर के कामों को निबटाने के बाद वह अपनी किसी शिक्षित पड़ोसिन से लिखना-पढ़ना सीखने लगीं। अपनी तीव्र लगन से वह कुछ ही समय में हिन्दी की पुस्तकें पढ़ना सीख गईं। अपनी सभी पुत्रियों को भी स्वयं उन्होंने ही हिन्दी अक्षरों का ज्ञान कराया था।
बालक रामप्रसाद की धर्म में भी रुचि थी, जिसमें उन्हें अपनी माताजी का पूरा सहयोग मिलता था। वह पुत्र को इसके लिए नित्य प्रातः चार बजे उठा देती थीं। इसके साथ ही जब रामप्रसाद की अभिरुचि देशप्रेम की ओर हुई, तो मां उन्हें हथियार खरीदने के लिए यदा-कदा पैसे भी देती रहती थीं। वह सच्चे अर्थों में एक देशप्रेमी महिला थीं। बाद में जब रामप्रसाद आर्य समाज के सम्पर्क में आए, तो उनके पिताजी ने इसका बहुत अधिक विरोध किया, किंतु मां ने उनकी (रामप्रसाद की) इस भावना का सम्मान किया। आर्यसमाज के सिद्धांतों का उन पर पर्याप्त प्रभाव पड़ा। पहले वह एक पारंपरिक ब्राह्मण महिला थीं, किंतु अब उनके विचारों में काफी उदारता आ गई थी।
पण्डित रामप्रसाद की माताजी एक साहसी महिला थीं। महानतम विपत्ति में भी धैर्य न खोना उनके चरित्र का एक सबसे बड़ा गुण था। वह किसी भी विपत्ति में सदा अपने पुत्र का उत्साह बढ़ाती रहती थीं। पुत्र के दुःखी अथवा अधीर होने पर वह अपनी ममतामयी वाणी से सदा उन्हें सांत्वना देती थीं।
रामप्रसाद के परिवार में कन्याओं को जन्म लेते ही मार देने की एक क्रूर परंपरा रही थी। इस परंपरा को उनकी माताजी ने ही तोड़ा था। इसके लिए उन्हें अपने परिवार के विरोध का भी सामना करना पड़ा था। दादा और दादी दोनों कन्याओं को मार देने के पक्ष में थे और बार-बार अपनी पुत्रवधू को कन्याओं को मार देने की प्रेरणा देते थे, किंतु माताजी ने इसका डटकर विरोध किया और अपनी पुत्रियों के प्राणों की रक्षा की। उन्हीं के कारण इस परिवार में पहली बार कन्याओं का पालन-पोषण तथा विवाह हुआ था।
अपनी मां के व्यक्तित्व का रामप्रसाद बिस्मिल पर गहरा प्रभाव पड़ा। अपने जीवन की सभी सफलताओं का श्रेय उन्होंने अपनी मां को ही दिया है। मां के प्रति अपनी श्रद्धा व्यक्त करते हुए उन्होंने लिखा है-
“यदि मुझे ऐसी माता न मिलती तो मैं भी अतिसाधारण मनुष्यों की भांति संसार चक्र में फंसकर जीवन निर्वाह करता। शिक्षादि के अतिरिक्त क्रांतिकारी जीवन में भी उन्होंने मेरी वैसी ही सहायता की, जैसी मेजिनी की उनकी माता ने की थी।.....माताजी का मेरे लिए सबसे बड़ा उपदेश यही था कि किसी की प्राण हानि न हो। उनका कहना था कि अपने शत्रु को भी कभी प्राण दण्ड न देना। उनके इस आदेश की पूर्ति करने के लिए मुझे मजबूरन एक-दो बार अपनी प्रतिज्ञा भंग भी करनी पड़ी।
जन्म दात्री जननी! इस जीवन में तो तुम्हारा ऋण परिशोध करने का प्रयत्न करने का भी अवसर न मिला। इस जन्म में तो क्या यदि अनेक जन्मों में भी सारे जीवन प्रयत्न करूं तो भी तुमसे उऋण नहीं हो सकता। जिस प्रेम तथा दृढ़ता के साथ तुमने इस तुच्छ जीवन का सुधार किया है, वह अवर्णनीय है। मुझे जीवन की प्रत्येक घटना का स्मरण है कि तुमने किस प्रकार अपनी देव वाणी का उपदेश करके मेरा सुधार किया है। तुम्हारी दया से ही मैं देश सेवा में संलग्न हो सका। धार्मिक जीवन में भी तुम्हारे ही प्रोत्साहन ने सहायता दी। जो कुछ शिक्षा मैंने ग्रहण की उसका भी श्रेय तुम्हीं को है। जिस मनोहर रूप से तुम मुझे उपदेश करती थी, उसका स्मरण कर तुम्हारी मंगलमयी मूर्ति का ध्यान आ जाता है और मस्तक नत हो जाता है। तुम्हें यदि मुझे ताड़ना भी देनी हुई, तो बड़े स्नेह से हर बात को समझा दिया। यदि मैंने धृृष्टतापूर्वक उत्तर दिया, तब तुमने प्रेम भरे शब्दों में यही कहा कि तुम्हें जो अच्छा लगे, वह करो, किंतु ऐसा करना ठीक नहीं, इसका परिणाम अच्छा न होगा। जीवनदात्री! तुमने इस शरीर को जन्म देकर केवल पालन-पोषण ही नहीं किया, किन्तु आत्मिक, धार्मिक तथा सामाजिक उन्नति में तुम्हीं मेरी सदैव सहायक रहीं। जन्म-जन्मान्तर परमात्मा ऐसी ही माता दे।
महान-से-महान कष्ट में भी तुमने मुझे अधीर नहीं होने दिया। सदैव अपनी प्रेमभरी वाणी सुनाते हुई मुझे सांत्वना देती रही। तुम्हारी दया की छाया में मैंने जीवनभर कोई कष्ट अनुभव न किया। इस संसार में मेरी किसी से भोग-विलास तथा ऐश्वर्य की इच्छा नहीं। केवल एक तृष्णा है, वह यह कि एक बार श्रद्धापूर्वक तुम्हारे चरणों की सेवा करके अपने जीवन को सफल बना लेता। किंतु यह इच्छा पूर्ण होती दिखाई नहीं देती और तुम्हें मेरी मृत्यु का दुःखद संवाद सुनाया जाएगा। मां! मुझे विश्वास है कि तुम यह समझकर धैर्य धारण करोगी कि तुम्हारा पुत्र माताओं की माता-भारत माता-की सेवा में अपने जीवन को बलिवेदी पर भेंट कर गया और उसने तुम्हारे कुल को कलंकित नहीं किया, अपनी प्रतिज्ञा पर दृढ़ रहा। जब स्वाधीन भारत का इतिहास लिखा जाएगा, तो उसके किसी पृष्ठ पर उज्जवल अक्षरों में तुम्हारा भी नाम लिखा जाएगा। गुरु गोविन्द सिंह की धर्मपत्नी ने जब अपने पुत्रों की मृत्यु का संवाद सुना था, तो बहुत हर्षित हुई थीं और गुरु के नाम पर धर्म-रक्षार्थ अपने पुत्रों के बलिदान पर मिठाई बांटी थी। जन्म दात्री वर दो कि अंतिम समय भी मेरा हृदय किसी प्रकार विचलित न हो और तुम्हारे चरण कमलों को प्रणाम कर मैं परमात्मा का स्मरण करता हुआ शरीर त्याग करूं।”
स्पष्ट है कि रामप्रसाद के जीवन पर उनकी मां का सबसे अधिक प्रभाव पड़ा था। उन्होंने अपने जीवन में अपनी मां को ही सबसे बड़े आदर्श के रूप में देखा था।
भाई-बहिन
पण्डित रामप्रसाद के जन्म से पूर्व ही उनके एक भाई की जन्म के कुछ ही समय बाद मृत्यु हो गई थी। रामप्रसाद के बाद उनके घर में पांच बहनों तथा तीन भाइयों का जन्म हुआ। इनमें से दो भाई तथा दो बहनें कुछ ही समय बाद मृत्यु को प्राप्त हो गए। इसके बाद परिवार में दो भाई तथा तीन बहनें रहीं। पहले ही उल्लेख हो चुका है कि उनके परिवार में कन्याओं की हत्या कर दी जाती थी। उनकी मां के कारण ही पहली बार इस परिवार में कन्याओं का पालन-पोषण हुआ। मां की ही प्रेरणा से तीनों पुत्रियों को अपने समाज के अनुसार अच्छी शिक्षा दी गई तथा उनका विवाह भी बड़ी धूम-धाम से किया गया।
पण्डित रामप्रसाद बिस्मिल के बलिदान के समय उनके छोटे भाई सुशीचन्द्र की अवस्था केवल दस वर्ष थी। बाद में उसे तपेदिक हो गई थी, जो चिकित्सा के अभाव में कुछ ही समय बाद दुनिया से चल बसा था। तीन बहनों का विवाह हो गया था, जिनमें से एक की विवाह के बाद मृत्यु हो गई थी। एक अन्य बहन बड़े भाई रामप्रसाद की मृत्यु का दुःख सहन नहीं कर सकी। उसने विष खाकर आत्महत्या कर ली। केवल एक बहन शास्त्रीदेवी ही शेष बचीं। इस करुणकथा का वर्णन श्रीमती शास्त्रीदेवी ने इस प्रकार किया है-
“.....दो बहनें विवाह के बाद मर गई। एक छोटी बहिन तो जहर खाकर मर गई। भाई को फांसी का हुक्म हुआ सुनकर उसने जहर खा लिया। उसकी शादी भाई ने एक जमींदार के साथ की थी। वह हम से छः मील की दूरी पर थी कुचेला के मौजे में। छोटा भाई बीमार हो गया तपेदिक हो गई थी। पिताजी अस्पताल में भर्ती कर आए। डॉक्टर ने कहा कि दो सौ रुपये दो, हम ठीक कर सकते हैं। पिताजी ने कहा कि मेरे पास रुपये होते तो यहां क्यों आता? मुझे तो गवर्नमेण्ट ने भेंट दिया। लड़का भी गया, पैसा भी गया। अब तो बहुत दिन हो गए। गणेशशंकर विद्यार्थी पन्द्रह रुपये मासिक देते हैं, उनसे गुजर करता हूं। एक हफ्ता अस्पताल में रहा, उसे खून के दस्त हुए, चौबीस घण्टे में खत्म हो गया। दसवां दर्जा पास था। वह भी बोलने में बहुत अच्छा था। लोग कहते थे कि यह भी रामप्रसाद की तरह काम करेगा। अब इस समय मायके के सारे खानदान में मैं ही अकेली अभागिन रह गई हूं।”
उद्दण्ड स्वभाव बालक रामप्रसाद
रामप्रसाद बिस्मिल अपने बचपन में बहुत शरारती तथा उद्दण्ड स्वभाव के थे। दूसरों के बागों से फल तोड़ने तथा अन्य शरारतें करने में उन्हें बड़ा आनंद आता था। इस पर उन्हें अपने पिताजी के क्रोध का भी सामना करना पड़ता था। वह बुरी तरह पीटते थे, किंतु इसका भी उन पर (रामप्रसाद पर) कोई प्रभाव नहीं पड़ता था। एक बार किसी के पेड़ से आड़ू तोड़ने पर उन्हें इतनी मार पड़ी थी कि वह दो दिन तक बिस्तर से नहीं उठ सके थे। अपनी आत्मकथा में इस घटना का वर्णन करते हुए उन्होंने लिखा है-
“छोटेपन में मैं बहुत ही उद्दण्ड था। पिताजी के पर्याप्त शासन रखने पर भी बहुत उद्दण्डता करता था। एक बार किसी के बाग में जाकर आड़ू के वृक्षों में से सब आड़ू तोड़ डाले। माली पीछे दौड़ा किंतु उसके हाथ न आया। माली ने सब आड़ू पिताजी के सामने ला रखे। उस दिन पिताजी ने मुझे इतना पीटा कि मैं दो दिन तक उठ न सका। इसी प्रकार खूब पिटता था, किंतु उद्दण्डता अवश्य करता था। शायद उस बचपन की मार से ही यह शरीर बहुत कठोर तथा सहनशील बन गया।”
किशोर अवस्था और बुरी आदतें
पण्डित मुरलीधर को पहलवानी से बड़ा प्रेम था। उनका शरीर बड़ा ही स्वस्थ एवं बलवान था। वह अपने से डेढ़ गुना बलवान पहलवानों को कुश्ती में हरा देते थे। बालक रामप्रसाद के सात वर्ष के होने पर उन्हें उर्दू मकबत में भेजा जाने लगा। इसके कुछ दिनों बाद पण्डित मुरलीधर का किसी चटर्जी महाशय से परिचय हुआ जो एक कैमिस्ट थे; उनकी अंग्रेजी दवाओं की दुकान थीं। चटर्जी महाशय अनेक प्रकार के नशे के आदी थे, बाद में उन्हें शराब की भी लत पड़ गई थी। अन्ततः ये नशे उन्हें ले डूबे। उन्हें बीमारी ने जकड़ लिया और वह दुनिया से अकाल ही चल बसे।
इन्हीं चटर्जी महाशय से पण्डित मुरलीधर का परिचय धीरे-धीरे प्रगाढ़ प्रेम में परिवर्तित हो गया। फलतः मित्र के सभी दुर्गुण उनमें भी आ गए। मुरलीधर भी चरस पीने लगे, जिससे उनके स्वास्थ्य की भयंकर हानि हुई। उनका सुन्दर बलवान शरीर सूखकर कांटा हो गया। उनके मित्रों तथा घरवालों को इससे बड़ी चिंता हुई। सभी ने उन्हें तरह-तरह से समझाया। तब कहीं जाकर बहुत दिनों बाद उनकी चरस पीने की आदत छूट पाई।
यह एक कटु सत्य है कि अभिभावकों की हर अच्छी-बुरी आदतों का प्रभाव उनके बच्चों पर अवश्य पड़ता है। भले ही अबोध बच्चे अपने बड़ों की बुरी आदतों का विरोध नहीं कर पाते; परंतु इससे उनके अचेतन मन में एक विरोध की भावना घर कर जाती है कभी-कभी बच्चे स्वयं भी उन बुरी आदतों की ओर आकृष्ट हो जाते हैं, क्योंकि उनका स्वभाव ही जिज्ञासु होता है। इसके साथ ही बच्चे के साथ मार-पीट और कठोर व्यवहार उसे जिद्दी बना देता है। कदाचित् अपने पिता की नशे की आदत तथा कठोर व्यवहार का बालक रामप्रसाद पर भी दुष्प्रभाव पड़े बिना नहीं रह सका।
चौदह वर्ष की अवस्था में रामप्रसाद उर्दू की चौथी कक्षा में उत्तीर्ण होकर पांचवीं में पहुंचे। अपनी इस किशोर अवस्था में उनमें अनेक दुर्गुण आ गए। वह घर से पैसों की चोरी करना सीख गए। इन पैसों से वह उपन्यास खरीदते। उपन्यास पढ़ना उनका प्रिय शौक बन गया। इसके साथ ही शृंगारिक साहित्य तथा उर्दू की गजलों का भी उन्हें चस्का लग गया। वह सिगरेट पीना भी सीख गए। यही नहीं भांग का भी स्वाद लिया जाने लगा। इन्हीं बुरी आदतों के कारण वह उर्दू मिडिल परीक्षा में दो साल अनुत्तीर्ण हो गए। बालक रामप्रसाद बुरी आदतों के दलदल में फंसते गए। इससे बच पाना उनके लिए कठिन हो गया। वह जिस पुस्तक विक्रेता से उपन्यास आदि खरीदते थे, वह पण्डित मुरलीधर का परिचित था। रामप्रसाद का अधःपतन देखकर उसे दुःख हुआ। अतः इसकी शिकायत रामप्रसाद के पिता से कर दी। पिता जी सावधान रहने लगे। बालक रामप्रसाद भी सावधान थे। उन्होंने उसकी दुकान से उपन्यास खरीदना ही बंद कर दिया।
संभवतः भगवान को रामप्रसाद का यह पतन स्वीकार नहीं था। एक बार वह भांग के नशे में डूबे हुए पिताजी के संदूक में हाथ साफ कर रहे थे। इतने में असावधानी से संदूक की कुण्डी जोर से खटक पड़ी। इसे उनकी माताजी ने सुन लिया और रंगे हाथों पकड़े गए। उन्होंने पिताजी के संदूक के ताले की दूसरी चाबी बना ली थी। इस पर उनके अपने संदूक में देखा गया। उसमें अनेक उपन्यास, ग़ज़लों की किताबें तथा रुपये भी रखे मिले। सभी पुस्तकें फाड़कर जला दी गईं। इसके बाद उनकी सभी गतिविधियों पर विशेष ध्यान दिया जाने लगा। पिताजी ने अपने संदूक का ताला ही बदल लिया। रामप्रसाद बुरी आदतों के शिकार हो चुके थे। आदतों का छूटना इतना आसान नहीं होता। यद्यपि वह सुधरने का पूरा प्रयत्न करते, किंतु सिगरेट छोड़ पाना उनके लिए बड़ा कठिन हो गया था। जब भी उन्हें मौका मिलता, वह अपनी मां के पैसों पर हाथ साफ करने से नहीं चूकते। परंतु मां के पास इतने पैसे नहीं रहते थे कि उनके पहले की तरह सभी शौक पूरे हो सकें। साथ ही मां भी सावधान रहती थीं। और रामप्रसाद को भी अब स्वतः अपनी बुराई का आभास होने लगा कि ऐसा करना अच्छा नहीं था।
बुराइयों से मुक्ति
अपनी इन बुरी आदतों के कारण रामप्रसाद मिडिल में दो वर्ष अनुत्तीर्ण हो गए। उनकी इच्छा पर उन्हें अंग्रेजी स्कूल में प्रवेश दिला दिया गया। उनके घर के पास ही एक मंदिर था। इन्हीं दिनों इस मंदिर में एक नए पुजारीजी आ गए; जो बड़े ही उदार और चरित्रवान व्यक्ति थे। रामप्रसाद अपने दादा जी के साथ पहले से ही मंदिर में जाने लगे थे। नए पुजारीजी से भी रामप्रसाद प्रभावित हुए। वह नित्य मंदिर में आने-जाने लगे। पुजारीजी के सम्पर्क में वह पूजा-पाठ आदि भी सीखने लगे। पुजारीजी पूजा-पाठ के साथ ही उन्हें संयम-सदाचार, ब्रह्मचर्य आदि का भी उपदेश देते थे। इस सबका रामप्रसाद पर गहरा प्रभाव पड़ा। वह समय का सदुपयोग करने लगे। उनका अधिकतर समय पढ़ने तथा ईश्वर उपासना में बीतने लगा। उन्हें इस कार्य में आनंद आने लगा। इसके साथ ही वह व्यायाम भी नियमित रूप में करने लगे। उनकी सभी बुरी आदतें छूट गईं, किंतु सिगरेट छोड़ना उन्हें बहुत कठिन लगा। इस समय वह प्रतिदिन लगभग पचास-साठ सिगरेट पी जाते थे। इस बुराई को न छोड़ पाने का उन्हें दुःख था। वह समझते थे संभवतः उनकी यह बुरी आदत कभी नहीं छूट पाएगी।
उर्दू स्कूल छोड़कर उन्होंने मिशन स्कूल की पांचवी कक्षा में नाम लिखा लिया। यहां उनको अपने एक सहपाठी सुशीलचन्द्र सेन से विशेष प्रेम हो गया। अपने इसी सहपाठी के संपर्क में आने पर उनकी सिगरेट पीने की लत भी छूट गई।
द्वितीय अध्याय
नये विश्वास-नया जीवन
जिन दिनों रामप्रसाद अपने घर के पास वाले मंदिर में ईश्वर की आराधना करते थे, तभी उनका परिचय मुंशी इन्द्रजीत से हुआ, जो आर्यसमाजी विचारधारा के थे। उनका मंदिर के पास ही रहने वाले किसी सज्जन के घर आना-जाना था। रामप्रसाद की धर्म में अभिरुचि देखकर मुंशी इन्द्रजीत ने उन्हें संध्या उपासना करने का परामर्श दिया। रामप्रसाद ने संध्या के विषय में उनसे विस्तार में पूछा। मुंशीजी ने संध्या का महत्त्व तथा उपासना की विधि उन्हें समझाई। इसके बाद उन्होंने रामप्रसाद को आर्य सामाज के सिद्धांतों के बारे में भी बताया और पढ़ने के लिए सत्यार्थ प्रकाश दिया।
सत्यार्थ प्रकाश पढ़ने पर रामप्रसाद के विचार में एक अभूतपूर्व परिवर्तन आया। उन्हें वैदिक धर्म को जानने का सुअवसर प्राप्त हुआ। इससे उनके जीवन में नए विचारों और विश्वासों का जन्म हुआ, उन्हें एक नया जीवन मिला, उन्होंने सत्य, संयम, ब्रह्मचर्य का महत्त्व आदि विषयों को जाना। उन्होंने अखण्ड ब्रह्मचर्य व्रत का प्रण किया। इसके लिए उन्होंने अपनी पूरी जीवनचर्या ही बदल डाली। भूमि में तख्ते पर सोना, सात्विक आचार-विचार, संयम से रहना यही सब उनका जीवन बन गया। इससे उनका शरीर अपूर्व कांतिमय एवं सुदृढ़ बन गया। सत्यार्थ प्रकाश के अध्ययन ने उनके जीवन की दशा ही बदल डाली। इस प्रभाव के विषय में उन्होंने स्वयं लिखा है-
“इसके बाद मैंने सत्यार्थ प्रकाश पढ़ा। इससे तख्ता ही पलट गया। सत्यार्थ प्रकाश के अध्ययन ने मेरे जीवन के इतिहास में एक नवीन पृष्ठ खोल दिया। मैंने उसमें उल्लिखित ब्रह्मचर्य के कठिन नियमों का पालन करना प्रारंभ कर दिया। मैं एक कंबल को तख्त पर बिछाकर सोता और प्रातःकाल चार बजे से ही शय्या त्याग कर देता। स्नान-संध्यादि से निवृत्त होकर व्यायाम करता, किंतु मन की वृत्तियां ठीक न होतीं। मैंने रात्रि के समय भोजन करना त्याग दिया। केवल थोड़ा सा दूध ही रात के समय पीने लगा। सहसा ही बुरी आदतों को छोड़ा था, इस कारण कभी-कभी स्वप्नदोष हो जाता। तब किसी सज्जन के कहने पर मैंने नमक खाना भी छोड़ दिया। केवल उबालकर साग या दाल से एक समय भोजन करता। मिर्च खटाई तो छूता भी न था। इस प्रकार पांच वर्ष तक बराबर नमक न खाया। नमक न खाने से शरीर के दोष दूर हो गए और मेरा स्वास्थ्य दर्शनीय हो गया। सब लोग मेरे स्वास्थ्य को आश्चर्य की दृष्टि से देखा करते थे।”
इस प्रकार जो बालक अपनी किशोर अवस्था में एक बार अनेक बुरी लतों का आदी हो गया था, सत्यार्थ प्रकाश के अध्ययन ने उसका पूरा जीवन ही बदल डाला। वह एक आदर्श किशोर बन गया। उसका यह परिवर्तन सभी को आश्चर्य में डाल देता था।
विचारों का विरोध
आर्य समाज के प्रति रामप्रसाद की जिज्ञासा दिन-प्रतिदिन बढ़ती गई। वह आर्य समाज की सभाओं में जाने लगे। वहां आर्य समाज के विषय में दिए गए व्याख्यानों को वह बड़े मनोयोग से सुनते। आर्य समाज के साधु-महात्माओं के प्रति उनके हृदय में अपार श्रद्धा उत्पन्न हो गई। साधु-महात्माओं की सेवा करने में उन्हें बड़ा आनंद मिलता। इन्हीं दिनों वह योग के प्रति भी आकर्षित हुए, उन्हें प्राणायाम सीखने की तीव्र इच्छा थी। अपनी इस इच्छा की पूर्ति के लिए वह किसी भी साधु-महात्मा के आगमन का समाचार सुनकर उसी के पास पहुंच जाते।
आर्य समाज हिन्दू धर्म में फैली सभी बुराइयों का विरोध करके इसे एक विशुद्ध वैज्ञानिक स्वरूप देना चाहता है। इसकी इस विचारधारा के कारण पुरातनपंथी, अंधविश्वासी हिन्दू इसके विरोधी रहे हैं। जब रामप्रसाद मिशन स्कूल में सातवीं कक्षा के विद्यार्थी थे, उन्हीं दिनों सनातन हिन्दू मत के अनुयायी पण्डित जगत प्रसाद आर्य समाज का खण्डन कर रहे थे। इसी सिलसिले में वह शाहजहांपुर पहुंचे। उन्होंने आर्य समाज का विरोध करना प्रारंभ कर दिया। आर्य समाजियों ने उनके इस कार्य का विरोध किया और उनसे शास्त्रार्थ करने के लिए प्रसिद्ध विद्वान पण्डित अखिलानन्द को बुलाया गया। दोनों में शास्त्रार्थ हुआ, किंतु यह शास्त्रार्थ संस्कृत भाषा में हुआ था। संभवतः इसमें आर्य समाज की ही विजय हुई थी।
रामप्रसाद पूर्णतया आर्य समाज के रंग में रंग चुके थे स्वाभाविक रूप में वह समाज में फैली बुराइयों का विरोध करने लगे। इससे उनके मुहल्ले के कुछ लोगों के विचारों को ठेस लगी। अतः उन्होंने रामप्रसाद की शिकायत उनके पिताजी से की। पिताजी ने रामप्रसाद से तुरंत आर्य समाज छोड़ देने के लिए कहा, किंतु उन्हें आर्य समाज के सिद्धांतों पर दृढ़ आस्था थी। वह ऐसा करने के लिए तैयार नहीं हुए। इस पर पिता पुत्र में विवाद बढ़ गया। कोई भी अपनी बात पर पीछे हटने को तैयार नहीं था। पिताजी ने अंतिम चेतावनी दे दी-“आर्य समाज छोड़ दो या घर से निकल जाओ, अन्यथा रात में सोते समय तुम्हारी हत्या कर दी जाएगी।”
रामप्रसाद को पिताजी के इस व्यवहार से भारी दुःख हुआ। उन्होंने अपने मन में विचार किया-“पिताजी जिद्दी स्वभाव के हैं। हो सकता है वह कोई अनुचित व्यवहार कर बैठें। इससे घर की ही बदनामी होगी। ऐसी परिस्थिति में घर छोड़ देना ही उचित होगा।” वह इसी विषय में चिंतन कर रहे थे और धोती पहनने का उपक्रम कर रहे थे। पिताजी का क्रोध अपने आपे से बाहर हो चुका था। उन्होंने क्रोध में आकर रामप्रसाद की धोती हाथ से छीन ली तथा आदेशात्मक स्वर में कहा, “जाओ घर से निकल जाओ।” पिताजी के इस असंभावित व्यवहार से रामप्रसाद को अकल्पनीय दुःख हुआ। उन्होंने पिताजी के चरण स्पर्श किए और घर से निकल पड़े। इस समय उनके शरीर पर केवल एक कमीज तथा लंगोट के सिवाय कुछ भी न था।
आवेश में वह घर से निकल गए, किंतु अब समस्या सामने खड़ी थी कि कहां जाएं? शहर में कोई ऐसा परिचित नहीं था कि शरण दे पाता। उनकी समझ में कुछ न आया। पग स्वयं ही जंगल की ओर बढ़ गए। एक रात और एक दिन पूरे चौबीस घंटे रास्ते में किसी बाग के एक पेड़ पर गुजारे। भूख पर किसी का वश नहीं चलता, अतः भूख से व्याकुल होने पर पास के खेतों से कच्चे चने तोड़कर खा लिए। पास ही में बहने वाली नदी में नहाया भी और पानी भी पिया। इसके दूसरे दिन आर्य समाज मंदिर में पंडित अखिलानन्द का व्याख्यान था, अतः व्याख्यान सुनने के लिए वहां पहुंच गए और एक पेड़ के नीचे खड़े होकर व्याख्यान सुनने लगे।
यद्यपि पण्डित मुरलीधर ने क्रोध के आवेश में पुत्र को घर से निकाल तो दिया, किंतु बाद में स्वयं उन्हें अपने व्यवहार पर भारी ग्लानि हुई। रामप्रसाद के घर से निकल जाने पर घर में सभी दुःखी थे। इस बीच घर में किसी ने भोजन नहीं किया। सबके मन में तरह-तरह की शंकाएं उभरने लगीं। कहीं वह रेल से कटकर अथवा नदी में डूबकर आत्महत्या न कर ले। क्रोध में मनुष्य अपना विवेक खो बैठता है, किंतु बाद में उसे स्वयं अपने कृत्य पर पछतावा होता है, सभी लोग उसे भला-बुरा कहते हैं। अतः रामप्रसाद की खोज होने लगी। सबने विचार किया कि वह आर्य समाज मंदिर में ही मिल सकते हैं। रामप्रसाद वहां व्याख्यान सुन रहे थे। इतने में उनके पिताजी दो अन्य व्यक्तियों के साथ वहां पर पहुंच गए। उन्हें वहां से समझा-बुझाकर ले आए। सबसे पहले उन्हें मिशन स्कूल के प्रधान अध्यापक के पास ले गए, जहां रामप्रसाद पढ़ते थे। प्रधान अध्यापक महोदय स्वयं एक ईसाई थे। उन्हें सारी बातें बताई गई। उन्होंने पण्डित मुरलीधर को समझाया कि “लड़का समझदार है; वह अपना भला बुरा स्वयं समझ सकता है, अगर वह आर्य समाज के सिद्धांतों को उचित समझता है, तो उसे बलपूर्वक इससे विमुख नहीं किया जा सकता, ऐसा करना उचित भी नहीं होगा। इससे उसके मन में विद्रोह की भावना का जन्म लेना स्वाभाविक ही है और फिर इतने बड़े लड़के के साथ मार-पीट करना उचित नहीं है।”
इसके बाद घर वालों ने आर्य समाज के प्रति उनके दृष्टिकोण का विरोध करना छोड़ दिया। पिताजी ने फिर उनके ऊपर कभी हाथ नहीं उठाया। हां, दादीजी को यह कदापि पसंद नहीं था कि उनका पोता आर्य समाजी बने। वह बार-बार आर्य समाज के कार्यकलापों में भाग न लेने की सलाह देती रहतीं, किंतु मां पुत्र की भावनाओं का सम्मान करती थी। वह सदा पुत्र का उत्साह बढ़ातीं, जिसके कारण उन्हें कई बार पति की डांट-फटकार भी सुननी पड़ती थी। रामप्रसाद अपने मार्ग पर आगे बढ़ते रहे।
कुमार सभा में
आर्य समाज से प्रभावित युवकों ने आर्य समाज मंदिर में कुमार सभा की स्थापना की थी। प्रत्येक शुक्रवार को कुमार सभा की एक बैठक होती थी। यह सभा धार्मिक पुस्तकों पर बहस, निबंध लेखन, वाद-विवाद आदि का आयोजन करती थी। रामप्रसाद भी इसके सदस्य थे। यहीं से उन्होंने सार्वजनिक रूप में बोलना प्रारंभ किया। कुमार सभा के सदस्य शहर तथा उसके आस-पास लगने वाले मेलों में आर्य समाज के सिद्धांतों का प्रचार करते थे तथा बाजारों में भी इस विषय में व्याख्यान देते थे। इस प्रकार का प्रचार कार्य मुसलमानों को सहन नहीं हुआ। सांप्रदायिक वैमनस्य बढ़ने का खतरा दिखाई देने लगा। अतः बाजारों में व्याख्यान देने पर प्रशासन ने प्रतिबंध लगा दिया। आर्य समाज के बड़े-बड़े नेता लोग कुमार सभा के सदस्यों को अपने संकेतों पर नचाना चाहते थे, परंतु युवक उनका नियंत्रण स्वीकार करने को किसी प्रकार तैयार न थे। अतः कुमार सभा के लिए आर्य समाज मंदिर में ताला लगा दिया गया। उन्हें मंदिर में सभा न करने के लिए बाध्य कर दिया गया। साथ ही चेतावनी दी गई की यदि उन्होंने मंदिर में सभा की तो उन्हें पुलिस द्वारा बाहर निकलवा दिया जाएगा। इससे युवकों को बड़ी निराशा हुई, उन्हें ऐसी आशा नहीं थी। फिर भी वे दो-तीन महीनों तक मैदान में ही अपनी साप्ताहिक बैठक करते रहे। सदा ऐसा करना संभव नहीं था, अतः कुमार सभा समाप्त हो गई। बुजुर्ग आर्यसमाजियों ने अपनी नेतागिरी दिखाने के लिए युवकों की भावनाओं की हत्या कर दी।
कुमार सभा के टूट जाने पर भी उसका शहर की जनता पर अच्छा प्रभाव पड़ चुका था। लखनऊ में सम्पन्न होने वाले कांग्रेस के अधिवेशन के साथ ही अखिल भारतीय कुमार सभा का भी वार्षिक सम्मेलन होने वाला था। राम प्रसाद इसमें भाग लेने के इच्छुक थे। इसमें भाग लेने पर कांग्रेस का अधिवेशन देखने का भी अवसर मिल जाता। उन्होंने अपनी यह इच्छा अपने घर वालों के सामने रखी, किंतु उनके पिताजी तथा दादीजी इससे सहमत न हुए। दोनों ने इसका प्रबल विरोध किया, केवल उनकी माताजी ने ही उन्हें वहां भेजने का समर्थन किया। उन्होंने पुत्र को वहां जाने के लिए खर्चा भी दिया, जिसके कारण उन्हें पति की डांट-फटकार का भी सामना करना पड़ा। इस सम्मेलन में लाहौर तथा शाहजहांपुर की कुमार सभाओं को ही सबसे अधिक पुरस्कार प्राप्त हुए। देश के सभी प्रमुख समाचारपत्रों ने इस समाचार को प्रकाशित किया था।
लखनऊ कांग्रेस अधिवेशन में लोकमान्य बालगंगाधर तिलक के स्वागत में रामप्रसाद ने विशेष भूमिका निभाई। इसका वर्णन अगले अध्याय में यथास्थान किया जाएगा।
आर्य समाज का प्रभाव
यद्यपि रामप्रसाद बिस्मिल का जन्म एक परंपरागत रूढ़िवादी ब्राह्मण परिवार में हुआ था, किंतु आर्य समाज के प्रभाव ने उनके जीवन को आमूल बदल कर रख दिया। सत्यार्थ प्रकाश के अध्ययन से वह एक सच्चे सत्यशोधक बन गए आर्य समाज के सिद्धांतों को उन्होंने अपने व्यावहारिक जीवन में अपना लिया। इस विषय में उनके जीवन की एक-दो घटनाएं विशेष उल्लेखनीय हैं।
एक बार रामप्रसाद बिस्मिल अपने कुछ साथियों के साथ ट्रेन से कहीं जा रहे थे। इस यात्रा में उन्होंने तृतीय श्रेणी के टिकट लिए थे, परंतु वह अपने अन्य साथियों के साथ द्वितीय श्रेणी के डिब्बे में जा बैठे। यात्रा पूरी होने पर अपने इस कृत्य पर उन्हें अत्यंत खेद हुआ। उन्होंने अपने साथियों से कहा कि उन्हें इस यात्रा का बाकी भाड़ा स्टेशन मास्टर के पास जमा कर देना चाहिए। संभवतः शेष भाड़ा जमा कर दिया गया। इसी प्रकार दूसरी बार उनके पिताजी को किसी के साथ दीवानी का दावा करना था। इसके लिए वह एक वकील रख गए थे तथा उससे कह गए थे कि इस विषय में जो भी काम करना हो, रामप्रसाद से करा लें। पिताजी कहीं बाहर चले गए थे। वकील ने दावे के कागज तैयार किए। उन पर हस्ताक्षर कराने के लिए रामप्रसाद बिस्मिल को बुलाया और वकालत नामे पर उनके पिता के हस्ताक्षर करने के लिए कहा, किंतु रामप्रसाद सच्चे आर्य समाजी थे उन्हें पिताजी के जाली हस्ताक्षर करना धर्म विरुद्ध प्रतीत हुआ। अतः उन्होंने ऐसा करने से मना कर दिया। इस विषय में उन्होंने स्वयं लिखा है।-
प्रथम अध्याय
रामप्रसाद बिस्मिल
पारिवारिक पृष्ठभूमि व प्रारम्भिक जीवन
वर्तमान मध्य प्रदेश में अंग्रेजों के शासन में एक देशी रियासत थी, ‘ग्वालियर’। यहीं चम्बल नदी के तट पर दो गांव हैं। इन दोनों गांवों के निवासी उस समय बड़े ही उद्दंड स्वभाव के थे। यहां के लोगों पर राज्य के कानूनों का कोई प्रभाव नहीं था। जमींदार लोग जब चाहें, अपनी इच्छा से भूमिकर देते थे, जब इच्छा नहीं होती, नहीं देते थे। इस संबंध में जब कभी कोई राज्य का अधिकारी इन गांवों में पहुंचता, तो जमींदार लोग अपनी समस्त सम्पत्ति को लेकर अपने पशुओं आदि के साथ चम्बल के बीहड़ों में निकल जाते। राज्य के कानूनों एवं आदेशों की खुलेआम अवहेलना करना इनके लिए एक सामान्य बात थी। इनके इस प्रकार के व्यवहार पर भी यदा-कदा तत्कालीन शासन ने इन पर अपनी उदारता दिखाई थी। इसे उदारता कहा जाए अथवा सनक कि इसी व्यवहार के कारण एक जमींदार को भूमिकर से मुक्ति मिल गई थी। इस घटना का वर्णन करते हुए पण्डित रामप्रसाद बिस्मिल ने अपनी आत्मकथा में लिखा है-
“एक जमींदार के संबंध में एक कथा प्रचलित है कि मालगुजारी न देने के कारण ही उनको कुछ भूमि माफी में मिल गई। पहले तो कई साल तक भागे रहे। एक बार धोखे से पकड़ लिए गए तो तहसील के अधिकारियों ने उन्हें खूब सताया। कई दिन तक बिना खाना पानी बंधा रहने दिया। अन्त में जलाने की धमकी दे पैरों पर सूखी घास डालकर आग लगवा दी। किन्तु उन जमींदार महोदय ने भूमिकर देना स्वीकार नहीं किया और यही उत्तर दिया कि ग्वालियर महाराज के कोष में मेरे कर न देने से घाटा न पड़ जाएगा। संसार क्या जानेगा कि अमुक व्यक्ति उद्दण्डता के कारण ही अपना समय व्यतीत करता है। राज्य को लिखा गया, जिसका परिणाम यह हुआ कि उतनी भूमि उन महाशय को माफी में दे दी गई।”
इस प्रकार की उद्दण्डता करना यहां के निवासी अपने लिए बड़े गौरव की बात समझते थे। एक बार इन लोगों ने राज्य के ऊंटों की चोरी की और इस पर भी राजकोप से बच गए। इस घटना का वर्णन शहीद बिस्मिल ने निम्नलिखित शब्दों में किया है-
“.....एक समय इन ग्रामों के निवासियों को एक अद्भुत खेल सूझा। उन्होंने महाराज के रिसाले के साठ ऊंट चुराकर बीहड़ों में छिपा दिए। राज्य को लिखा गया, जिस पर राज्य की ओर से आज्ञा हुई कि दोनों ग्राम तोप लगाकर उड़वा दिए जाएं। न जाने किस प्रकार समझाने-बुझाने से ऊंट वापस कर दिए गए और अधिकारियों को समझाया गया कि इतने बड़े राज्य में थोड़े से वीर लोगों का निवास है, इनका विध्वंस न करना ही उचित होगा। तब तोपें लौटाई गईं और ग्राम उड़ाए जाने से बचे।”
देसी रियासतें आन्तरिक प्रशासन के लिए उसके शासन के अधीन थीं। इस रियासत के ये निवासी लूट-पाट आदि की घटनाएं प्रायः अपनी रियासत में नहीं करते थे। इस प्रकार की घटनाओं के लिए इन लोगों का कार्यक्षेत्र समीप का अंग्रेजी राज्य होता था। ये लोग अंग्रेजी राज्य के समीपवर्ती क्षेत्र के धनवान लोगों के घरों में डकैतियां डाल रातों-रात चम्बल के बीहड़ों में जा छिपते और इस प्रकार पुलिस इनका कुछ भी नहीं बिगाड़ पाती। ये दोनों गांव अंग्रेजी राज्य की सीमा से प्रायः पन्द्रह मील की दूरी पर हैं। यहीं एक गांव में पण्डित श्री नारायण लाल रहते थे। पण्डितजी की पारिवारिक परिस्थिति अत्यंत सामान्य स्तर की थी। घर में उनकी भाभी का एकाधिकार चलता था, जो एक स्वार्थी प्रवृत्ति की महिला थी। पण्डित नारायण लाल के लिए धीरे-धीरे भाभी का दुर्व्यवहार असहनीय हो गया। इसलिए उन्होंने घर छोड़ देने का निर्णय लिया और अपनी धर्मपत्नी तथा दो अबोध पुत्रों को साथ लेकर घर से निकल पड़े। इस समय उनके बड़े पुत्र मुरलीधर की अवस्था आठ वर्ष तथा छोटे पुत्र कल्याणमल की केवल छः वर्ष थी।
घर छोड़ने के बाद पण्डित नारायण लाल कई दिनों तक आजीविका की तलाश में इधर-उधर भटकते रहे तथा अन्त में शाहजहांपुर उत्तर प्रदेश पहुंचे और यहीं अरहिया नामक गांव में रहने लगे। इस समय देश में भयंकर अकाल पड़ा था। अत्यधिक प्रयत्न करने पर शाहजहांपुर में एक अतार महोदय के यहां पण्डित नारायण लाल को एक मामूली सी नौकरी मिली, जिसमें नाममात्र के लिए तीन रुपए प्रतिमास वेतन मिलता था। भयंकर अकाल में परिवार के चार प्राणियों का भरण-पोषण कर पाना अत्यधिक कठिन कार्य था। दादीजी एक समय, वह भी केवल आधा पेट भोजन करतीं, तब भी परिवार का निर्वाह न हो पाता। अत्यधिक निर्धनता एवं कठिनाइयों का सामना करना पड़ता था। इसका उल्लेख करते हुए पण्डित रामप्रसाद बिस्मिल ने लिखा है-
“दादीजी ने बहुत प्रयत्न किया कि अपने आप केवल एक समय आधे पेट भोजन करके बच्चों का पेट पाला जाए, किन्तु फिर भी निर्वाह न हो सका। बाजरा, कुकनी, सामा, ज्वार इत्यादि खाकर दिन काटने चाहे, किन्तु फिर भी गुजारा न हुआ। तब आधा बथुवा, चना या कोई दूसरा साग, जो सबसे सस्ता हो उसको लेकर, सबसे सस्ता अनाज उसमें आधा मिलाकर थोड़ा सा नमक डालकर उसे स्वयं खातीं, लड़कों को चना या जौ की रोटी देती और इसी तरह दादाजी भी समय व्यतीत करते थे। बड़ी कठिनता से आधा पेट खाकर दिन तो कट जाता, किन्तु पेट में घोटूं दबाकर रात काटना कठिन हो जाता।”
भोजन के साथ ही वस्त्र एवं रहने के लिए मकान की समस्या भी विकट थी। अतः दादीजी ने कुछ घरों में कुटाई-पिसाई का काम करने का विचार किया, परंतु इस अकाल के समय में यह काम मिलना भी सरल नहीं था। बड़ी ही कठिनाई के साथ कुछ घरों में इस तरह का काम मिल पाया, परंतु इसे भी उन्हीं लोगों के घर में करना पड़ता था, जो लोग काम देते थे। यह काम भी बहुत ही कम मिल पाता था-मुश्किल से दिन में पांच-छः सेर जिसका पारिश्रमिक उन दिनों एक पैसा प्रति पसेरी मिलता था। अपनी पारिवारिक विवशताओं के कारण उन्हें इन्हीं एक डेढ़ पैसों के लिए तीन-चार घंटे काम करना पड़ता था। इसके बाद ही घर आकर बच्चों के भोजन की व्यवस्था करनी पड़ती। फिर भी दादीजी संतोष और धैर्य के साथ विपत्ति का सामना करतीं। वह बड़ी ही साहसी महिला थीं। पण्डित नारायण लाल कभी-कभी पत्नी एवं बच्चों के कष्टों को देखकर दुःखी हो जाते और अपनी पत्नी से पुनः अपने मूल निवास स्थान ग्वालियर चल पड़ने को कहते, किन्तु दादी बड़ी स्वाभिमानी महिला थीं। ऐसे अवसरों पर वे अपने पति का साहस बढ़ाती और कहती कि जिन लोगों के कारण घर छोड़ना पड़ा, फिर उन्हीं की शरण में जाना एक स्वाभिमानी व्यक्ति को शोभा नहीं देता। स्वाभिमान की रक्षा करते हुए प्राणों का परित्याग कर देना अच्छा है, किंतु स्वाभिमान का परित्याग मृत्यु से भी बढ़कर है। दुःख-सुख सदा लगे रहते हैं। दुःख के बाद सुख भी प्राप्त होता है। ये दिन भी सदा नहीं रहेंगे। अतः दादीजी फिर कभी लौटकर ग्वालियर राज्य नहीं गईं।
धीरे-धीरे चार-पांच वर्ष बीत गए। पण्डित नारायण लाल का कुछ स्थानीय लोगों से परिचय भी बढ़ गया। अकाल भी बीत गया। पण्डितजी के परिवार पर लोगों का विश्वास एवं स्नेह भी बढ़ गया। ब्राह्मण होने के कारण लोग सम्मान भी देने लगे। दादाजी को कभी-कभी कुछ लोग अपने घर भोजन के लिए आमंत्रित करने लगे। पहले की तुलना में काम भी अधिक मिलने लगा। कभी कुछ दान दक्षिणा भी मिल जाती। इस प्रकार धीरे-धीरे कठिनाइयां कुछ कम होने लगीं।
पण्डित नारायण लाल भी ब्राह्मणवृत्ति करने लगे। कठिन परिश्रम से घर की स्थिति में कुछ सुधार हुआ। धीरे-धीरे बच्चे भी कुछ बड़े हो गए थे। बड़ा पुत्र पाठशाला में पढ़ने जाने लगा। पण्डितजी के कठिन परिश्रम से अब उनका वेतन भी बढ़कर सात रुपए प्रतिमाह हो गया था। परिवार की स्थिति को सुधारने में दादीजी के परिश्रम की भी महत्त्वपूर्ण भूमिका रही। ऐसे दुर्दिनों में उन्होंने जिस साहस का परिचय दिया, एक सामान्य ग्रामीण महिला से ऐसी अपेक्षा प्रायः कम ही की जाती है।
दादी का सामाजिक परिवेश
दादीजी ने ग्वालियर में कभी अपने घर से बाहर पांव भी नहीं रखा था। उन्होंने जिस परिवेश में जन्म लिया, वह एक रूढ़िवादी परंपराओं वाला परिवेश था। उस समाज में जात-पांत, छुआ-छूत आदि रूढ़ियां पूरी तरह व्याप्त थी। इन प्रथाओं का पालन करने में वहां के लोग नियम-कानून आदि की कोई परवाह नहीं करते थे। इसके लिए किसी के प्राण लेने में भी उन्हें किसी प्रकार का संकोच नहीं होता था। कोई भी महिला बिना घूंघट निकाले एक घर से दूसरे घर नहीं जा सकती थी। अनुसूचित जाति की महिलाओं की दशा तो और भी अधिक दयनीय थी। इन सब प्रथाओं का पालन कराने के लिए सवर्ण लोग तरह-तरह के अत्याचार करते थे। किसी भी महिला पर व्यभिचार का संदेह होने पर उसे काट कर चम्बल में बहा देना एक मामूली बात थी, जिसकी किसी को कानों कान खबर भी नहीं होती थी। अनुसूचित जातियों पर सवर्णों के अत्याचारों की कोई सीमा नहीं थी। इस संबंध में बिस्मिल ने एक घटना का उल्लेख किया है-
“एक समय किसी चमार की वधू, जो अंग्रेजी राज्य से विवाह करके गई थी, कुलप्रथानुसार जमींदार के घर पैर छूने के लिए गई। वह पैरों में बिछुए (नूपुर) पहने हुई थी। और सब पहनावा चमारों का पहने थी। जमींदार महोदय की नजर उसके पैरों पर पड़ी। पूछने पर मालूम हुआ कि चमार की बहू है। जमींदार साहब जूता पहनकर आए और उसके पैरों पर खड़े होकर इतने जोर से दबाया कि उसकी अंगुलियां कट गईं। उन्होंने कहा कि यदि चमारों की बहुएं बिछुवा पहनेंगी तो ऊंची जाति के घर की स्त्रियां क्या पहनेंगी?”
इस समाज का केवल एक ही उज्ज्वल पक्ष था, वह था यहां के लोगों का सदाचरण। सभी लोगों का आचरण उच्च था। गांव में किसी भी जाति की महिलाओं को कोई भी बुरी नजर से नहीं देख सकता था। स्त्रियों के सम्मान की रक्षा के लिए लोग अपने प्राणों की भी परवाह नहीं करते थे। अन्यथा यह समाज पूर्णतया एक सामन्तवादी समाज था, जिसे सोलहवीं सदी का समाज कहा जा सकता है।
इस प्रकार के परिवेश में जन्म लेकर भी विपत्ति के दिनों का दादीजी ने जिस साहस के साथ सामना किया, उसे उनका एक क्रान्तिकारी कार्य ही कहा जाएगा। उनके इस साहस एवं त्याग ने अन्ततः इन विपत्तियों पर विजय पा ली। कठिन परिश्रम तथा कुछ ब्राह्मण कार्य करके पण्डित नारायण लाल की आर्थिक स्थिति में सुधार हुआ। इसके बाद उन्होंने नौकरी छोड़ दी। तथा पैसे दुअन्नी आदि सिक्के बेचने का कार्य करने लगे। बुरे दिनों ने विदा ले ली। खुशियों के दिन आए। बड़ा पुत्र मुरलीधर कुछ शिक्षा भी पा गया। पहले किसी दूसरे के घर में रहते थे, अब एक मकान भी खरीद लिया। एक के बाद दूसरे मकान में आश्रय पाने वाले परिवार को अपना घर प्राप्त हो गया, जहां वे शांति एवं आराम से रह सकते थे, जिसे अपना कह सकते थे। मकान हो जाने पर उन्होंने अपने बड़े पुत्र का विवाह करने का विचार किया। यद्यपि उस समय उसकी अवस्था पन्द्रह-सोलह वर्ष से अधिक नहीं थी, किंतु उस समय समाज में बाल विवाह की प्रथा थी। अतः पति-पत्नी अपने बच्चों को लेकर बच्चों के ननिहाल गए। वहीं रिश्ता तय हुआ और विवाह हो गया। पूरा परिवार तीन-चार महीने वहीं रहा तथा फिर नववधू को लेकर शाहजहांपुर आ गया।
अब परिवार में एक नवीन सदस्य का आगमन हो चुका था। पण्डित मुरलीधर पर भी गृहस्थी का उत्तरदायित्व आ गया था। उन्हें भी स्थानीय नगरपालिका में नौकरी मिल गई, जिसमें उन्हें पन्द्रह रुपये मासिक वेतन मिलने लगा। शिक्षा अधिक न होने पर भी उस समय पन्द्रह रुपये प्रतिमास की यह नौकरी कोई कम नहीं थी। फिर भी उन्होंने यह नौकरी लगभग दो वर्षों तक की, क्योंकि उन्हें यह नौकरी करना पसंद न था। वे कोई स्वतंत्र व्यवसाय करना चाहते थे। इसलिए उन्होंने नौकरी से त्यागपत्र दे दिया। इसके बाद क्या किया जाए, यह प्रश्न सामने था। खाली घर में तो बैठा नहीं जा सकता था। घर की स्थिति भी ऐसा काम करने की आज्ञा नहीं देती थी। इस सब को देखते हुए उन्होंने कचहरी में स्टाम्प बेचने का कार्य प्रारम्भ कर दिया। यह व्यवसाय उनके लिए अत्यन्त शुभ रहा। इससे घर की आर्थिक स्थिति अत्यधिक सुधर गई।
इस व्यवसाय से पण्डित मुरलीधर ने अपने समाज में अपना एक विशेष स्थान बना लिया। वे अपने मुहल्ले के संभ्रान्त एवं सम्मानित लोगों में गिने जाने लगे। उन्होंने इसी व्यवसाय से तीन बैलगाड़ियां बनाईं, जिन्हें किराए पर लगा दिया गया। वे पैसे के लेन-देन का काम भी करने लगे। इस प्रकार उनकी आय के स्रोत भी बढ़ गए। यह व्यवसाय वास्तव में उनके जीवन में एक सुनहरा अध्याय सिद्ध हुआ। पहले जिस परिवार के पास पेट भरने के लिए भोजन भी नहीं था, वही परिवार अब साहूकारी का काम करने लगा था। पण्डित मुरलीधर अपने जीवन में प्रायः अन्त तक सरकारी स्टाम्प बेचने का व्यवसाय करते रहे। इसी व्यवसाय से उन्होंने अपनी संतान को शिक्षा-दीक्षा दी, किंतु सम्पन्न हो जाने पर भी वह एक साधारण गृहस्थ की तरह ही रहते थे, दिखावा उन्हें पसंद नहीं था। इसके साथ ही वह अखाड़े में जाने के भी बड़े शौकीन थे। उन्हें कसरत-व्यायाम आदि से बड़ा लगाव था। वह एक स्वस्थ-सुदृढ़ शरीर के व्यक्ति थे। उनका चरित्र बड़ा ही उत्तम था। वह इस विषय में बड़े सख्त व्यक्ति थे।
अपने परिवार की पूर्व स्थिति को सुधारने का सारा श्रेय पण्डित मुरलीधर को ही जाता है। वह वास्तव में एक सपूत सिद्ध हुए। उन्होंने अपने माता-पिता की सारी कठिनाइयों को दूर कर दिया। वह अपने माता-पिता द्वारा उठाए गए कष्टों को भूले नहीं थे, इसी से उन्होंने सदा परिश्रम एवं ईमानदारी की शिक्षा ग्रहण की थी। सवंत् 1953 में पण्डित मुरलीधर के घर में एक पुत्र ने जन्म लिया। दुर्भाग्य से यह पुत्र जीवित न रहा।
रामप्रसाद बिस्मिल का जन्म
ज्येष्ठ शुक्ला 11 संवत् 1954 सन् 1897 में पण्डित मुरलीधर की धर्मपत्नी ने द्वितीय पुत्र को जन्म दिया। इस पुत्र का जन्म मैनपुरी में हुआ था। संभवतः वहां बालक का ननिहाल रहा हो। इस विषय में श्री व्यथित हृदय ने लिखा है-“यहां यह बात बड़े आश्चर्य की मालूम होती है कि बिस्मिल के दादा और पिता ग्वालियर के निवासी थे। फिर भी उनका जन्म मैनपुरी में क्यों हुआ? हो सकता है, मैनपुरी में बिस्मिल जी का ननिहाल रहा हो।”
इस पुत्र से पूर्व एक पुत्र की मृत्यु हो जाने से माता-पिता का इसके प्रति चिन्तित रहना स्वाभाविक था। अतः बालक के जीवन की रक्षा के लिए जिसने जो उपाय बताया, वही किया गया। बालक को अनेक प्रकार के गण्डे ताबीज आदि भी लगाए गए। बालक जन्म से ही दुर्बल था। जन्म के एक-दो माह बाद इतना दुर्बल हो गया कि उसके बचने की आशा ही बहुत कम रह गई थी। माता-पिता इससे अत्यन्त चिन्तित हुए। उन्हें लगा कि कहीं यह बच्चा भी पहले बच्चे की तरह ही चल न बसे। इस पर लोगों ने कहा कि संभवतः घर में ही कोई बच्चों का रोग प्रवेश कर गया है। इसके लिए उन्होंने उपाय भी सुझाया। बताया गया कि एक बिल्कुल सफेद खरगोश बालक के चारों ओर घुमाकर छोड़ दिया जाए। यदि बालक को कोई रोग होगा तो खरगोश तुरंत मर जाएगा। माता-पिता बालक की रक्षा के लिए कुछ भी करने को तैयार थे, अतः ऐसा ही किया गया। आश्चर्य की बात कि खरगोश तुरंत मर गया। इसके बाद बच्चे का स्वास्थ्य दिन पर दिन सुधरने लगा। यही बालक आगे चलकर प्रसिद्ध क्रान्तिकारी अमर शहीद रामप्रसाद बिस्मिल के नाम से प्रसिद्ध हुआ।
शिक्षा
सात वर्ष की अवस्था हो जाने पर बालक रामप्रसाद को पिता पण्डित मुरलीधर घर पर ही हिन्दी अक्षरों का ज्ञान कराने लगे। उस समय उर्दू का बोलबाला था। अतः घर में हिन्दी शिक्षा के साथ ही बालक को उर्दू पढ़ने के लिए एक मौलवी साहब के पास मकतब में भेजा जाता था।
पण्डित मुरलीधर पुत्र की शिक्षा पर विशेष ध्यान देते थे। पढ़ाई के मामले में जरा भी लापरवाही करने पर बालक रामप्रसाद को पिता की मार भी पड़ती रहती थी। हिन्दी अक्षरों का ज्ञान कराते समय एक बार उन्हें बंदूक के लोहे के गज से इतनी मार पड़ी थी कि गज टेढ़ा पड़ गया था। अपनी इस मार का वर्णन करते हुए उन्होंने लिखा है-
“बाल्यकाल से पिताजी मेरी शिक्षा का अधिक ध्यान रखते थे और जरा-सी भूल करने पर बहुत पीटते थे। मुझे अब भी भली-भांति स्मरण है कि जब मैं नागरी के अक्षर लिखना सीख रहा था तो मुझे ‘उ’ लिखना न आया। मैंने बहुत प्रयत्न किया। पर जब पिताजी कचहरी चले गए तो मैं भी खेलने चला गया। पिताजी ने कचहरी से आकर मुझसे ‘उ’ लिखवाया, मैं न लिख सका। उन्हें मालूम हो गया कि मैं खेलने चला गया था। इस पर उन्होंने मुझे बंदूक के लोहे के गज से इतना पीटा कि गज टेढ़ा पड़ गया। मैं भागकर दादाजी के पास चला गया, तब बचा।”
इसके बाद बालक रामप्रसाद ने पढ़ाई में कभी असावधानी नहीं की। वह परिश्रम से पढ़ने लगे। वह आठवीं कक्षा तक सदा अपनी कक्षा में प्रथम आते थे, किंतु कुसंगति में पड़ जाने के कारण उर्दू मिडिल परीक्षा में वह लगातार दो वर्ष अनुत्तीर्ण हो गए। बालक की इस अवनति से घर में सभी को बहुत दुःख हुआ। दो बार एक ही परीक्षा में अनुत्तीर्ण होने पर बालक रामप्रसाद का मन उर्दू की पढ़ाई से उठ गया। उन्होंने अंग्रेजी पढ़ने की इच्छा व्यक्त की, किंतु पिता पण्डित मुरलीधर अंग्रेजी पढ़ाने के पक्ष में नहीं थे। वह रामप्रसाद को किसी व्यवसाय में लगाना चाहते थे। अन्ततः मां के कहने पर उन्हें अंग्रेजी पढ़ने भेजा गया। अंग्रेजी में आठवीं पास करने के बाद नवीं में ही वह आर्यसमाज के सम्पर्क में आए, जिससे उनके जीवन की दिशा ही बदल गई।
दादा-दादी की छत्रछाया में
बच्चों को घर में अपने माता-पिता से भी अधिक स्नेह अपने दादा-दादी से होता है। बालक रामप्रसाद भी इसके अपवाद नहीं थे। पिताजी अत्यधिक सख्त अनुशासन वाले व्यक्ति थे। इसका उल्लेख ऊपर किया जा चुका है। अतः पिताजी के गुस्से से बचने का उपाय रामप्रसाद के लिए अपने दादा श्री नारायण लाल ही थे। दादाजी सीधे-सादे, सरल स्वभाव के प्राणी थे। मुख्यरूप से सिक्के बेचना ही उनका व्यवसाय था। उन्हें अच्छी नस्ल की दुधारू गायें पालने का बड़ा शौक था। दूर-दूर से दुधारू गायें खरीदकर लाते थे और पोते को खूब दूध पिलाते थे। गायें इतनी सीधी थीं कि बालक रामप्रसाद जब-तब उनका थन मुंह में लेकर दूध पिया करते थे। दादाजी रमप्रसाद के स्वास्थ्य पर सदा ध्यान देते थे। इसके साथ ही दादा जी धार्मिक स्वभाव के पुरुष थे। वे सदा सांयकाल शिव मंदिर में जाकर लगभग दो घण्टे तक पूजा-भजन इत्यादि करते थे, जिसका बालक रामप्रसाद पर गहरा प्रभाव पड़ा। दादाजी का देहावसान लगभग पचपन वर्ष की आयु में हुआ।
दादीजी कठिन परिश्रमी महिला थीं। उन्होंने अपने जीवन में बड़े अभाव देखे थे, जिनका उन्होंने बड़ी दृढ़ता से सामना किया था। इसका वर्णन पहले ही किया जा चुका है।
ममतामयी मां
पण्डित रामप्रसाद बिस्मिल की मां पूर्णतया एक अशिक्षित ग्रामीण महिला थी। विवाह के समय उनकी अवस्था केवल ग्यारह वर्ष की थी। ग्यारह वर्ष की नववधू को घरेलू कामों की शिक्षा देने के लिए दादीजी ने अपनी छोटी बहिन को बुला लिया था। संभवतः दादीजी अभी तक कुटाई-पिसाई का काम करती रहती थीं, जिससे उन्हें बहू को काम सिखाने का समय नहीं मिल पाता था। कुछ ही दिनों में उन्होंने घर का सारा काम भोजन बनाना आदि अच्छी तरह से सीख लिया था। रामप्रसाद जब छः-सात वर्ष के हो गए तो माताजी ने भी हिन्दी सीखना शुरू किया। उनके मन में पढ़ने की तीव्र इच्छा थी। घर के कामों को निबटाने के बाद वह अपनी किसी शिक्षित पड़ोसिन से लिखना-पढ़ना सीखने लगीं। अपनी तीव्र लगन से वह कुछ ही समय में हिन्दी की पुस्तकें पढ़ना सीख गईं। अपनी सभी पुत्रियों को भी स्वयं उन्होंने ही हिन्दी अक्षरों का ज्ञान कराया था।
बालक रामप्रसाद की धर्म में भी रुचि थी, जिसमें उन्हें अपनी माताजी का पूरा सहयोग मिलता था। वह पुत्र को इसके लिए नित्य प्रातः चार बजे उठा देती थीं। इसके साथ ही जब रामप्रसाद की अभिरुचि देशप्रेम की ओर हुई, तो मां उन्हें हथियार खरीदने के लिए यदा-कदा पैसे भी देती रहती थीं। वह सच्चे अर्थों में एक देशप्रेमी महिला थीं। बाद में जब रामप्रसाद आर्य समाज के सम्पर्क में आए, तो उनके पिताजी ने इसका बहुत अधिक विरोध किया, किंतु मां ने उनकी (रामप्रसाद की) इस भावना का सम्मान किया। आर्यसमाज के सिद्धांतों का उन पर पर्याप्त प्रभाव पड़ा। पहले वह एक पारंपरिक ब्राह्मण महिला थीं, किंतु अब उनके विचारों में काफी उदारता आ गई थी।
पण्डित रामप्रसाद की माताजी एक साहसी महिला थीं। महानतम विपत्ति में भी धैर्य न खोना उनके चरित्र का एक सबसे बड़ा गुण था। वह किसी भी विपत्ति में सदा अपने पुत्र का उत्साह बढ़ाती रहती थीं। पुत्र के दुःखी अथवा अधीर होने पर वह अपनी ममतामयी वाणी से सदा उन्हें सांत्वना देती थीं।
रामप्रसाद के परिवार में कन्याओं को जन्म लेते ही मार देने की एक क्रूर परंपरा रही थी। इस परंपरा को उनकी माताजी ने ही तोड़ा था। इसके लिए उन्हें अपने परिवार के विरोध का भी सामना करना पड़ा था। दादा और दादी दोनों कन्याओं को मार देने के पक्ष में थे और बार-बार अपनी पुत्रवधू को कन्याओं को मार देने की प्रेरणा देते थे, किंतु माताजी ने इसका डटकर विरोध किया और अपनी पुत्रियों के प्राणों की रक्षा की। उन्हीं के कारण इस परिवार में पहली बार कन्याओं का पालन-पोषण तथा विवाह हुआ था।
अपनी मां के व्यक्तित्व का रामप्रसाद बिस्मिल पर गहरा प्रभाव पड़ा। अपने जीवन की सभी सफलताओं का श्रेय उन्होंने अपनी मां को ही दिया है। मां के प्रति अपनी श्रद्धा व्यक्त करते हुए उन्होंने लिखा है-
“यदि मुझे ऐसी माता न मिलती तो मैं भी अतिसाधारण मनुष्यों की भांति संसार चक्र में फंसकर जीवन निर्वाह करता। शिक्षादि के अतिरिक्त क्रांतिकारी जीवन में भी उन्होंने मेरी वैसी ही सहायता की, जैसी मेजिनी की उनकी माता ने की थी।.....माताजी का मेरे लिए सबसे बड़ा उपदेश यही था कि किसी की प्राण हानि न हो। उनका कहना था कि अपने शत्रु को भी कभी प्राण दण्ड न देना। उनके इस आदेश की पूर्ति करने के लिए मुझे मजबूरन एक-दो बार अपनी प्रतिज्ञा भंग भी करनी पड़ी।
जन्म दात्री जननी! इस जीवन में तो तुम्हारा ऋण परिशोध करने का प्रयत्न करने का भी अवसर न मिला। इस जन्म में तो क्या यदि अनेक जन्मों में भी सारे जीवन प्रयत्न करूं तो भी तुमसे उऋण नहीं हो सकता। जिस प्रेम तथा दृढ़ता के साथ तुमने इस तुच्छ जीवन का सुधार किया है, वह अवर्णनीय है। मुझे जीवन की प्रत्येक घटना का स्मरण है कि तुमने किस प्रकार अपनी देव वाणी का उपदेश करके मेरा सुधार किया है। तुम्हारी दया से ही मैं देश सेवा में संलग्न हो सका। धार्मिक जीवन में भी तुम्हारे ही प्रोत्साहन ने सहायता दी। जो कुछ शिक्षा मैंने ग्रहण की उसका भी श्रेय तुम्हीं को है। जिस मनोहर रूप से तुम मुझे उपदेश करती थी, उसका स्मरण कर तुम्हारी मंगलमयी मूर्ति का ध्यान आ जाता है और मस्तक नत हो जाता है। तुम्हें यदि मुझे ताड़ना भी देनी हुई, तो बड़े स्नेह से हर बात को समझा दिया। यदि मैंने धृृष्टतापूर्वक उत्तर दिया, तब तुमने प्रेम भरे शब्दों में यही कहा कि तुम्हें जो अच्छा लगे, वह करो, किंतु ऐसा करना ठीक नहीं, इसका परिणाम अच्छा न होगा। जीवनदात्री! तुमने इस शरीर को जन्म देकर केवल पालन-पोषण ही नहीं किया, किन्तु आत्मिक, धार्मिक तथा सामाजिक उन्नति में तुम्हीं मेरी सदैव सहायक रहीं। जन्म-जन्मान्तर परमात्मा ऐसी ही माता दे।
महान-से-महान कष्ट में भी तुमने मुझे अधीर नहीं होने दिया। सदैव अपनी प्रेमभरी वाणी सुनाते हुई मुझे सांत्वना देती रही। तुम्हारी दया की छाया में मैंने जीवनभर कोई कष्ट अनुभव न किया। इस संसार में मेरी किसी से भोग-विलास तथा ऐश्वर्य की इच्छा नहीं। केवल एक तृष्णा है, वह यह कि एक बार श्रद्धापूर्वक तुम्हारे चरणों की सेवा करके अपने जीवन को सफल बना लेता। किंतु यह इच्छा पूर्ण होती दिखाई नहीं देती और तुम्हें मेरी मृत्यु का दुःखद संवाद सुनाया जाएगा। मां! मुझे विश्वास है कि तुम यह समझकर धैर्य धारण करोगी कि तुम्हारा पुत्र माताओं की माता-भारत माता-की सेवा में अपने जीवन को बलिवेदी पर भेंट कर गया और उसने तुम्हारे कुल को कलंकित नहीं किया, अपनी प्रतिज्ञा पर दृढ़ रहा। जब स्वाधीन भारत का इतिहास लिखा जाएगा, तो उसके किसी पृष्ठ पर उज्जवल अक्षरों में तुम्हारा भी नाम लिखा जाएगा। गुरु गोविन्द सिंह की धर्मपत्नी ने जब अपने पुत्रों की मृत्यु का संवाद सुना था, तो बहुत हर्षित हुई थीं और गुरु के नाम पर धर्म-रक्षार्थ अपने पुत्रों के बलिदान पर मिठाई बांटी थी। जन्म दात्री वर दो कि अंतिम समय भी मेरा हृदय किसी प्रकार विचलित न हो और तुम्हारे चरण कमलों को प्रणाम कर मैं परमात्मा का स्मरण करता हुआ शरीर त्याग करूं।”
स्पष्ट है कि रामप्रसाद के जीवन पर उनकी मां का सबसे अधिक प्रभाव पड़ा था। उन्होंने अपने जीवन में अपनी मां को ही सबसे बड़े आदर्श के रूप में देखा था।
भाई-बहिन
पण्डित रामप्रसाद के जन्म से पूर्व ही उनके एक भाई की जन्म के कुछ ही समय बाद मृत्यु हो गई थी। रामप्रसाद के बाद उनके घर में पांच बहनों तथा तीन भाइयों का जन्म हुआ। इनमें से दो भाई तथा दो बहनें कुछ ही समय बाद मृत्यु को प्राप्त हो गए। इसके बाद परिवार में दो भाई तथा तीन बहनें रहीं। पहले ही उल्लेख हो चुका है कि उनके परिवार में कन्याओं की हत्या कर दी जाती थी। उनकी मां के कारण ही पहली बार इस परिवार में कन्याओं का पालन-पोषण हुआ। मां की ही प्रेरणा से तीनों पुत्रियों को अपने समाज के अनुसार अच्छी शिक्षा दी गई तथा उनका विवाह भी बड़ी धूम-धाम से किया गया।
पण्डित रामप्रसाद बिस्मिल के बलिदान के समय उनके छोटे भाई सुशीचन्द्र की अवस्था केवल दस वर्ष थी। बाद में उसे तपेदिक हो गई थी, जो चिकित्सा के अभाव में कुछ ही समय बाद दुनिया से चल बसा था। तीन बहनों का विवाह हो गया था, जिनमें से एक की विवाह के बाद मृत्यु हो गई थी। एक अन्य बहन बड़े भाई रामप्रसाद की मृत्यु का दुःख सहन नहीं कर सकी। उसने विष खाकर आत्महत्या कर ली। केवल एक बहन शास्त्रीदेवी ही शेष बचीं। इस करुणकथा का वर्णन श्रीमती शास्त्रीदेवी ने इस प्रकार किया है-
“.....दो बहनें विवाह के बाद मर गई। एक छोटी बहिन तो जहर खाकर मर गई। भाई को फांसी का हुक्म हुआ सुनकर उसने जहर खा लिया। उसकी शादी भाई ने एक जमींदार के साथ की थी। वह हम से छः मील की दूरी पर थी कुचेला के मौजे में। छोटा भाई बीमार हो गया तपेदिक हो गई थी। पिताजी अस्पताल में भर्ती कर आए। डॉक्टर ने कहा कि दो सौ रुपये दो, हम ठीक कर सकते हैं। पिताजी ने कहा कि मेरे पास रुपये होते तो यहां क्यों आता? मुझे तो गवर्नमेण्ट ने भेंट दिया। लड़का भी गया, पैसा भी गया। अब तो बहुत दिन हो गए। गणेशशंकर विद्यार्थी पन्द्रह रुपये मासिक देते हैं, उनसे गुजर करता हूं। एक हफ्ता अस्पताल में रहा, उसे खून के दस्त हुए, चौबीस घण्टे में खत्म हो गया। दसवां दर्जा पास था। वह भी बोलने में बहुत अच्छा था। लोग कहते थे कि यह भी रामप्रसाद की तरह काम करेगा। अब इस समय मायके के सारे खानदान में मैं ही अकेली अभागिन रह गई हूं।”
उद्दण्ड स्वभाव बालक रामप्रसाद
रामप्रसाद बिस्मिल अपने बचपन में बहुत शरारती तथा उद्दण्ड स्वभाव के थे। दूसरों के बागों से फल तोड़ने तथा अन्य शरारतें करने में उन्हें बड़ा आनंद आता था। इस पर उन्हें अपने पिताजी के क्रोध का भी सामना करना पड़ता था। वह बुरी तरह पीटते थे, किंतु इसका भी उन पर (रामप्रसाद पर) कोई प्रभाव नहीं पड़ता था। एक बार किसी के पेड़ से आड़ू तोड़ने पर उन्हें इतनी मार पड़ी थी कि वह दो दिन तक बिस्तर से नहीं उठ सके थे। अपनी आत्मकथा में इस घटना का वर्णन करते हुए उन्होंने लिखा है-
“छोटेपन में मैं बहुत ही उद्दण्ड था। पिताजी के पर्याप्त शासन रखने पर भी बहुत उद्दण्डता करता था। एक बार किसी के बाग में जाकर आड़ू के वृक्षों में से सब आड़ू तोड़ डाले। माली पीछे दौड़ा किंतु उसके हाथ न आया। माली ने सब आड़ू पिताजी के सामने ला रखे। उस दिन पिताजी ने मुझे इतना पीटा कि मैं दो दिन तक उठ न सका। इसी प्रकार खूब पिटता था, किंतु उद्दण्डता अवश्य करता था। शायद उस बचपन की मार से ही यह शरीर बहुत कठोर तथा सहनशील बन गया।”
किशोर अवस्था और बुरी आदतें
पण्डित मुरलीधर को पहलवानी से बड़ा प्रेम था। उनका शरीर बड़ा ही स्वस्थ एवं बलवान था। वह अपने से डेढ़ गुना बलवान पहलवानों को कुश्ती में हरा देते थे। बालक रामप्रसाद के सात वर्ष के होने पर उन्हें उर्दू मकबत में भेजा जाने लगा। इसके कुछ दिनों बाद पण्डित मुरलीधर का किसी चटर्जी महाशय से परिचय हुआ जो एक कैमिस्ट थे; उनकी अंग्रेजी दवाओं की दुकान थीं। चटर्जी महाशय अनेक प्रकार के नशे के आदी थे, बाद में उन्हें शराब की भी लत पड़ गई थी। अन्ततः ये नशे उन्हें ले डूबे। उन्हें बीमारी ने जकड़ लिया और वह दुनिया से अकाल ही चल बसे।
इन्हीं चटर्जी महाशय से पण्डित मुरलीधर का परिचय धीरे-धीरे प्रगाढ़ प्रेम में परिवर्तित हो गया। फलतः मित्र के सभी दुर्गुण उनमें भी आ गए। मुरलीधर भी चरस पीने लगे, जिससे उनके स्वास्थ्य की भयंकर हानि हुई। उनका सुन्दर बलवान शरीर सूखकर कांटा हो गया। उनके मित्रों तथा घरवालों को इससे बड़ी चिंता हुई। सभी ने उन्हें तरह-तरह से समझाया। तब कहीं जाकर बहुत दिनों बाद उनकी चरस पीने की आदत छूट पाई।
यह एक कटु सत्य है कि अभिभावकों की हर अच्छी-बुरी आदतों का प्रभाव उनके बच्चों पर अवश्य पड़ता है। भले ही अबोध बच्चे अपने बड़ों की बुरी आदतों का विरोध नहीं कर पाते; परंतु इससे उनके अचेतन मन में एक विरोध की भावना घर कर जाती है कभी-कभी बच्चे स्वयं भी उन बुरी आदतों की ओर आकृष्ट हो जाते हैं, क्योंकि उनका स्वभाव ही जिज्ञासु होता है। इसके साथ ही बच्चे के साथ मार-पीट और कठोर व्यवहार उसे जिद्दी बना देता है। कदाचित् अपने पिता की नशे की आदत तथा कठोर व्यवहार का बालक रामप्रसाद पर भी दुष्प्रभाव पड़े बिना नहीं रह सका।
चौदह वर्ष की अवस्था में रामप्रसाद उर्दू की चौथी कक्षा में उत्तीर्ण होकर पांचवीं में पहुंचे। अपनी इस किशोर अवस्था में उनमें अनेक दुर्गुण आ गए। वह घर से पैसों की चोरी करना सीख गए। इन पैसों से वह उपन्यास खरीदते। उपन्यास पढ़ना उनका प्रिय शौक बन गया। इसके साथ ही शृंगारिक साहित्य तथा उर्दू की गजलों का भी उन्हें चस्का लग गया। वह सिगरेट पीना भी सीख गए। यही नहीं भांग का भी स्वाद लिया जाने लगा। इन्हीं बुरी आदतों के कारण वह उर्दू मिडिल परीक्षा में दो साल अनुत्तीर्ण हो गए। बालक रामप्रसाद बुरी आदतों के दलदल में फंसते गए। इससे बच पाना उनके लिए कठिन हो गया। वह जिस पुस्तक विक्रेता से उपन्यास आदि खरीदते थे, वह पण्डित मुरलीधर का परिचित था। रामप्रसाद का अधःपतन देखकर उसे दुःख हुआ। अतः इसकी शिकायत रामप्रसाद के पिता से कर दी। पिता जी सावधान रहने लगे। बालक रामप्रसाद भी सावधान थे। उन्होंने उसकी दुकान से उपन्यास खरीदना ही बंद कर दिया।
संभवतः भगवान को रामप्रसाद का यह पतन स्वीकार नहीं था। एक बार वह भांग के नशे में डूबे हुए पिताजी के संदूक में हाथ साफ कर रहे थे। इतने में असावधानी से संदूक की कुण्डी जोर से खटक पड़ी। इसे उनकी माताजी ने सुन लिया और रंगे हाथों पकड़े गए। उन्होंने पिताजी के संदूक के ताले की दूसरी चाबी बना ली थी। इस पर उनके अपने संदूक में देखा गया। उसमें अनेक उपन्यास, ग़ज़लों की किताबें तथा रुपये भी रखे मिले। सभी पुस्तकें फाड़कर जला दी गईं। इसके बाद उनकी सभी गतिविधियों पर विशेष ध्यान दिया जाने लगा। पिताजी ने अपने संदूक का ताला ही बदल लिया। रामप्रसाद बुरी आदतों के शिकार हो चुके थे। आदतों का छूटना इतना आसान नहीं होता। यद्यपि वह सुधरने का पूरा प्रयत्न करते, किंतु सिगरेट छोड़ पाना उनके लिए बड़ा कठिन हो गया था। जब भी उन्हें मौका मिलता, वह अपनी मां के पैसों पर हाथ साफ करने से नहीं चूकते। परंतु मां के पास इतने पैसे नहीं रहते थे कि उनके पहले की तरह सभी शौक पूरे हो सकें। साथ ही मां भी सावधान रहती थीं। और रामप्रसाद को भी अब स्वतः अपनी बुराई का आभास होने लगा कि ऐसा करना अच्छा नहीं था।
बुराइयों से मुक्ति
अपनी इन बुरी आदतों के कारण रामप्रसाद मिडिल में दो वर्ष अनुत्तीर्ण हो गए। उनकी इच्छा पर उन्हें अंग्रेजी स्कूल में प्रवेश दिला दिया गया। उनके घर के पास ही एक मंदिर था। इन्हीं दिनों इस मंदिर में एक नए पुजारीजी आ गए; जो बड़े ही उदार और चरित्रवान व्यक्ति थे। रामप्रसाद अपने दादा जी के साथ पहले से ही मंदिर में जाने लगे थे। नए पुजारीजी से भी रामप्रसाद प्रभावित हुए। वह नित्य मंदिर में आने-जाने लगे। पुजारीजी के सम्पर्क में वह पूजा-पाठ आदि भी सीखने लगे। पुजारीजी पूजा-पाठ के साथ ही उन्हें संयम-सदाचार, ब्रह्मचर्य आदि का भी उपदेश देते थे। इस सबका रामप्रसाद पर गहरा प्रभाव पड़ा। वह समय का सदुपयोग करने लगे। उनका अधिकतर समय पढ़ने तथा ईश्वर उपासना में बीतने लगा। उन्हें इस कार्य में आनंद आने लगा। इसके साथ ही वह व्यायाम भी नियमित रूप में करने लगे। उनकी सभी बुरी आदतें छूट गईं, किंतु सिगरेट छोड़ना उन्हें बहुत कठिन लगा। इस समय वह प्रतिदिन लगभग पचास-साठ सिगरेट पी जाते थे। इस बुराई को न छोड़ पाने का उन्हें दुःख था। वह समझते थे संभवतः उनकी यह बुरी आदत कभी नहीं छूट पाएगी।
उर्दू स्कूल छोड़कर उन्होंने मिशन स्कूल की पांचवी कक्षा में नाम लिखा लिया। यहां उनको अपने एक सहपाठी सुशीलचन्द्र सेन से विशेष प्रेम हो गया। अपने इसी सहपाठी के संपर्क में आने पर उनकी सिगरेट पीने की लत भी छूट गई।
द्वितीय अध्याय
नये विश्वास-नया जीवन
जिन दिनों रामप्रसाद अपने घर के पास वाले मंदिर में ईश्वर की आराधना करते थे, तभी उनका परिचय मुंशी इन्द्रजीत से हुआ, जो आर्यसमाजी विचारधारा के थे। उनका मंदिर के पास ही रहने वाले किसी सज्जन के घर आना-जाना था। रामप्रसाद की धर्म में अभिरुचि देखकर मुंशी इन्द्रजीत ने उन्हें संध्या उपासना करने का परामर्श दिया। रामप्रसाद ने संध्या के विषय में उनसे विस्तार में पूछा। मुंशीजी ने संध्या का महत्त्व तथा उपासना की विधि उन्हें समझाई। इसके बाद उन्होंने रामप्रसाद को आर्य सामाज के सिद्धांतों के बारे में भी बताया और पढ़ने के लिए सत्यार्थ प्रकाश दिया।
सत्यार्थ प्रकाश पढ़ने पर रामप्रसाद के विचार में एक अभूतपूर्व परिवर्तन आया। उन्हें वैदिक धर्म को जानने का सुअवसर प्राप्त हुआ। इससे उनके जीवन में नए विचारों और विश्वासों का जन्म हुआ, उन्हें एक नया जीवन मिला, उन्होंने सत्य, संयम, ब्रह्मचर्य का महत्त्व आदि विषयों को जाना। उन्होंने अखण्ड ब्रह्मचर्य व्रत का प्रण किया। इसके लिए उन्होंने अपनी पूरी जीवनचर्या ही बदल डाली। भूमि में तख्ते पर सोना, सात्विक आचार-विचार, संयम से रहना यही सब उनका जीवन बन गया। इससे उनका शरीर अपूर्व कांतिमय एवं सुदृढ़ बन गया। सत्यार्थ प्रकाश के अध्ययन ने उनके जीवन की दशा ही बदल डाली। इस प्रभाव के विषय में उन्होंने स्वयं लिखा है-
“इसके बाद मैंने सत्यार्थ प्रकाश पढ़ा। इससे तख्ता ही पलट गया। सत्यार्थ प्रकाश के अध्ययन ने मेरे जीवन के इतिहास में एक नवीन पृष्ठ खोल दिया। मैंने उसमें उल्लिखित ब्रह्मचर्य के कठिन नियमों का पालन करना प्रारंभ कर दिया। मैं एक कंबल को तख्त पर बिछाकर सोता और प्रातःकाल चार बजे से ही शय्या त्याग कर देता। स्नान-संध्यादि से निवृत्त होकर व्यायाम करता, किंतु मन की वृत्तियां ठीक न होतीं। मैंने रात्रि के समय भोजन करना त्याग दिया। केवल थोड़ा सा दूध ही रात के समय पीने लगा। सहसा ही बुरी आदतों को छोड़ा था, इस कारण कभी-कभी स्वप्नदोष हो जाता। तब किसी सज्जन के कहने पर मैंने नमक खाना भी छोड़ दिया। केवल उबालकर साग या दाल से एक समय भोजन करता। मिर्च खटाई तो छूता भी न था। इस प्रकार पांच वर्ष तक बराबर नमक न खाया। नमक न खाने से शरीर के दोष दूर हो गए और मेरा स्वास्थ्य दर्शनीय हो गया। सब लोग मेरे स्वास्थ्य को आश्चर्य की दृष्टि से देखा करते थे।”
इस प्रकार जो बालक अपनी किशोर अवस्था में एक बार अनेक बुरी लतों का आदी हो गया था, सत्यार्थ प्रकाश के अध्ययन ने उसका पूरा जीवन ही बदल डाला। वह एक आदर्श किशोर बन गया। उसका यह परिवर्तन सभी को आश्चर्य में डाल देता था।
विचारों का विरोध
आर्य समाज के प्रति रामप्रसाद की जिज्ञासा दिन-प्रतिदिन बढ़ती गई। वह आर्य समाज की सभाओं में जाने लगे। वहां आर्य समाज के विषय में दिए गए व्याख्यानों को वह बड़े मनोयोग से सुनते। आर्य समाज के साधु-महात्माओं के प्रति उनके हृदय में अपार श्रद्धा उत्पन्न हो गई। साधु-महात्माओं की सेवा करने में उन्हें बड़ा आनंद मिलता। इन्हीं दिनों वह योग के प्रति भी आकर्षित हुए, उन्हें प्राणायाम सीखने की तीव्र इच्छा थी। अपनी इस इच्छा की पूर्ति के लिए वह किसी भी साधु-महात्मा के आगमन का समाचार सुनकर उसी के पास पहुंच जाते।
आर्य समाज हिन्दू धर्म में फैली सभी बुराइयों का विरोध करके इसे एक विशुद्ध वैज्ञानिक स्वरूप देना चाहता है। इसकी इस विचारधारा के कारण पुरातनपंथी, अंधविश्वासी हिन्दू इसके विरोधी रहे हैं। जब रामप्रसाद मिशन स्कूल में सातवीं कक्षा के विद्यार्थी थे, उन्हीं दिनों सनातन हिन्दू मत के अनुयायी पण्डित जगत प्रसाद आर्य समाज का खण्डन कर रहे थे। इसी सिलसिले में वह शाहजहांपुर पहुंचे। उन्होंने आर्य समाज का विरोध करना प्रारंभ कर दिया। आर्य समाजियों ने उनके इस कार्य का विरोध किया और उनसे शास्त्रार्थ करने के लिए प्रसिद्ध विद्वान पण्डित अखिलानन्द को बुलाया गया। दोनों में शास्त्रार्थ हुआ, किंतु यह शास्त्रार्थ संस्कृत भाषा में हुआ था। संभवतः इसमें आर्य समाज की ही विजय हुई थी।
रामप्रसाद पूर्णतया आर्य समाज के रंग में रंग चुके थे स्वाभाविक रूप में वह समाज में फैली बुराइयों का विरोध करने लगे। इससे उनके मुहल्ले के कुछ लोगों के विचारों को ठेस लगी। अतः उन्होंने रामप्रसाद की शिकायत उनके पिताजी से की। पिताजी ने रामप्रसाद से तुरंत आर्य समाज छोड़ देने के लिए कहा, किंतु उन्हें आर्य समाज के सिद्धांतों पर दृढ़ आस्था थी। वह ऐसा करने के लिए तैयार नहीं हुए। इस पर पिता पुत्र में विवाद बढ़ गया। कोई भी अपनी बात पर पीछे हटने को तैयार नहीं था। पिताजी ने अंतिम चेतावनी दे दी-“आर्य समाज छोड़ दो या घर से निकल जाओ, अन्यथा रात में सोते समय तुम्हारी हत्या कर दी जाएगी।”
रामप्रसाद को पिताजी के इस व्यवहार से भारी दुःख हुआ। उन्होंने अपने मन में विचार किया-“पिताजी जिद्दी स्वभाव के हैं। हो सकता है वह कोई अनुचित व्यवहार कर बैठें। इससे घर की ही बदनामी होगी। ऐसी परिस्थिति में घर छोड़ देना ही उचित होगा।” वह इसी विषय में चिंतन कर रहे थे और धोती पहनने का उपक्रम कर रहे थे। पिताजी का क्रोध अपने आपे से बाहर हो चुका था। उन्होंने क्रोध में आकर रामप्रसाद की धोती हाथ से छीन ली तथा आदेशात्मक स्वर में कहा, “जाओ घर से निकल जाओ।” पिताजी के इस असंभावित व्यवहार से रामप्रसाद को अकल्पनीय दुःख हुआ। उन्होंने पिताजी के चरण स्पर्श किए और घर से निकल पड़े। इस समय उनके शरीर पर केवल एक कमीज तथा लंगोट के सिवाय कुछ भी न था।
आवेश में वह घर से निकल गए, किंतु अब समस्या सामने खड़ी थी कि कहां जाएं? शहर में कोई ऐसा परिचित नहीं था कि शरण दे पाता। उनकी समझ में कुछ न आया। पग स्वयं ही जंगल की ओर बढ़ गए। एक रात और एक दिन पूरे चौबीस घंटे रास्ते में किसी बाग के एक पेड़ पर गुजारे। भूख पर किसी का वश नहीं चलता, अतः भूख से व्याकुल होने पर पास के खेतों से कच्चे चने तोड़कर खा लिए। पास ही में बहने वाली नदी में नहाया भी और पानी भी पिया। इसके दूसरे दिन आर्य समाज मंदिर में पंडित अखिलानन्द का व्याख्यान था, अतः व्याख्यान सुनने के लिए वहां पहुंच गए और एक पेड़ के नीचे खड़े होकर व्याख्यान सुनने लगे।
यद्यपि पण्डित मुरलीधर ने क्रोध के आवेश में पुत्र को घर से निकाल तो दिया, किंतु बाद में स्वयं उन्हें अपने व्यवहार पर भारी ग्लानि हुई। रामप्रसाद के घर से निकल जाने पर घर में सभी दुःखी थे। इस बीच घर में किसी ने भोजन नहीं किया। सबके मन में तरह-तरह की शंकाएं उभरने लगीं। कहीं वह रेल से कटकर अथवा नदी में डूबकर आत्महत्या न कर ले। क्रोध में मनुष्य अपना विवेक खो बैठता है, किंतु बाद में उसे स्वयं अपने कृत्य पर पछतावा होता है, सभी लोग उसे भला-बुरा कहते हैं। अतः रामप्रसाद की खोज होने लगी। सबने विचार किया कि वह आर्य समाज मंदिर में ही मिल सकते हैं। रामप्रसाद वहां व्याख्यान सुन रहे थे। इतने में उनके पिताजी दो अन्य व्यक्तियों के साथ वहां पर पहुंच गए। उन्हें वहां से समझा-बुझाकर ले आए। सबसे पहले उन्हें मिशन स्कूल के प्रधान अध्यापक के पास ले गए, जहां रामप्रसाद पढ़ते थे। प्रधान अध्यापक महोदय स्वयं एक ईसाई थे। उन्हें सारी बातें बताई गई। उन्होंने पण्डित मुरलीधर को समझाया कि “लड़का समझदार है; वह अपना भला बुरा स्वयं समझ सकता है, अगर वह आर्य समाज के सिद्धांतों को उचित समझता है, तो उसे बलपूर्वक इससे विमुख नहीं किया जा सकता, ऐसा करना उचित भी नहीं होगा। इससे उसके मन में विद्रोह की भावना का जन्म लेना स्वाभाविक ही है और फिर इतने बड़े लड़के के साथ मार-पीट करना उचित नहीं है।”
इसके बाद घर वालों ने आर्य समाज के प्रति उनके दृष्टिकोण का विरोध करना छोड़ दिया। पिताजी ने फिर उनके ऊपर कभी हाथ नहीं उठाया। हां, दादीजी को यह कदापि पसंद नहीं था कि उनका पोता आर्य समाजी बने। वह बार-बार आर्य समाज के कार्यकलापों में भाग न लेने की सलाह देती रहतीं, किंतु मां पुत्र की भावनाओं का सम्मान करती थी। वह सदा पुत्र का उत्साह बढ़ातीं, जिसके कारण उन्हें कई बार पति की डांट-फटकार भी सुननी पड़ती थी। रामप्रसाद अपने मार्ग पर आगे बढ़ते रहे।
कुमार सभा में
आर्य समाज से प्रभावित युवकों ने आर्य समाज मंदिर में कुमार सभा की स्थापना की थी। प्रत्येक शुक्रवार को कुमार सभा की एक बैठक होती थी। यह सभा धार्मिक पुस्तकों पर बहस, निबंध लेखन, वाद-विवाद आदि का आयोजन करती थी। रामप्रसाद भी इसके सदस्य थे। यहीं से उन्होंने सार्वजनिक रूप में बोलना प्रारंभ किया। कुमार सभा के सदस्य शहर तथा उसके आस-पास लगने वाले मेलों में आर्य समाज के सिद्धांतों का प्रचार करते थे तथा बाजारों में भी इस विषय में व्याख्यान देते थे। इस प्रकार का प्रचार कार्य मुसलमानों को सहन नहीं हुआ। सांप्रदायिक वैमनस्य बढ़ने का खतरा दिखाई देने लगा। अतः बाजारों में व्याख्यान देने पर प्रशासन ने प्रतिबंध लगा दिया। आर्य समाज के बड़े-बड़े नेता लोग कुमार सभा के सदस्यों को अपने संकेतों पर नचाना चाहते थे, परंतु युवक उनका नियंत्रण स्वीकार करने को किसी प्रकार तैयार न थे। अतः कुमार सभा के लिए आर्य समाज मंदिर में ताला लगा दिया गया। उन्हें मंदिर में सभा न करने के लिए बाध्य कर दिया गया। साथ ही चेतावनी दी गई की यदि उन्होंने मंदिर में सभा की तो उन्हें पुलिस द्वारा बाहर निकलवा दिया जाएगा। इससे युवकों को बड़ी निराशा हुई, उन्हें ऐसी आशा नहीं थी। फिर भी वे दो-तीन महीनों तक मैदान में ही अपनी साप्ताहिक बैठक करते रहे। सदा ऐसा करना संभव नहीं था, अतः कुमार सभा समाप्त हो गई। बुजुर्ग आर्यसमाजियों ने अपनी नेतागिरी दिखाने के लिए युवकों की भावनाओं की हत्या कर दी।
कुमार सभा के टूट जाने पर भी उसका शहर की जनता पर अच्छा प्रभाव पड़ चुका था। लखनऊ में सम्पन्न होने वाले कांग्रेस के अधिवेशन के साथ ही अखिल भारतीय कुमार सभा का भी वार्षिक सम्मेलन होने वाला था। राम प्रसाद इसमें भाग लेने के इच्छुक थे। इसमें भाग लेने पर कांग्रेस का अधिवेशन देखने का भी अवसर मिल जाता। उन्होंने अपनी यह इच्छा अपने घर वालों के सामने रखी, किंतु उनके पिताजी तथा दादीजी इससे सहमत न हुए। दोनों ने इसका प्रबल विरोध किया, केवल उनकी माताजी ने ही उन्हें वहां भेजने का समर्थन किया। उन्होंने पुत्र को वहां जाने के लिए खर्चा भी दिया, जिसके कारण उन्हें पति की डांट-फटकार का भी सामना करना पड़ा। इस सम्मेलन में लाहौर तथा शाहजहांपुर की कुमार सभाओं को ही सबसे अधिक पुरस्कार प्राप्त हुए। देश के सभी प्रमुख समाचारपत्रों ने इस समाचार को प्रकाशित किया था।
लखनऊ कांग्रेस अधिवेशन में लोकमान्य बालगंगाधर तिलक के स्वागत में रामप्रसाद ने विशेष भूमिका निभाई। इसका वर्णन अगले अध्याय में यथास्थान किया जाएगा।
आर्य समाज का प्रभाव
यद्यपि रामप्रसाद बिस्मिल का जन्म एक परंपरागत रूढ़िवादी ब्राह्मण परिवार में हुआ था, किंतु आर्य समाज के प्रभाव ने उनके जीवन को आमूल बदल कर रख दिया। सत्यार्थ प्रकाश के अध्ययन से वह एक सच्चे सत्यशोधक बन गए आर्य समाज के सिद्धांतों को उन्होंने अपने व्यावहारिक जीवन में अपना लिया। इस विषय में उनके जीवन की एक-दो घटनाएं विशेष उल्लेखनीय हैं।
एक बार रामप्रसाद बिस्मिल अपने कुछ साथियों के साथ ट्रेन से कहीं जा रहे थे। इस यात्रा में उन्होंने तृतीय श्रेणी के टिकट लिए थे, परंतु वह अपने अन्य साथियों के साथ द्वितीय श्रेणी के डिब्बे में जा बैठे। यात्रा पूरी होने पर अपने इस कृत्य पर उन्हें अत्यंत खेद हुआ। उन्होंने अपने साथियों से कहा कि उन्हें इस यात्रा का बाकी भाड़ा स्टेशन मास्टर के पास जमा कर देना चाहिए। संभवतः शेष भाड़ा जमा कर दिया गया। इसी प्रकार दूसरी बार उनके पिताजी को किसी के साथ दीवानी का दावा करना था। इसके लिए वह एक वकील रख गए थे तथा उससे कह गए थे कि इस विषय में जो भी काम करना हो, रामप्रसाद से करा लें। पिताजी कहीं बाहर चले गए थे। वकील ने दावे के कागज तैयार किए। उन पर हस्ताक्षर कराने के लिए रामप्रसाद बिस्मिल को बुलाया और वकालत नामे पर उनके पिता के हस्ताक्षर करने के लिए कहा, किंतु रामप्रसाद सच्चे आर्य समाजी थे उन्हें पिताजी के जाली हस्ताक्षर करना धर्म विरुद्ध प्रतीत हुआ। अतः उन्होंने ऐसा करने से मना कर दिया। इस विषय में उन्होंने स्वयं लिखा है।-
प्रथम अध्याय
रामप्रसाद बिस्मिल
पारिवारिक पृष्ठभूमि व प्रारम्भिक जीवन
वर्तमान मध्य प्रदेश में अंग्रेजों के शासन में एक देशी रियासत थी, ‘ग्वालियर’। यहीं चम्बल नदी के तट पर दो गांव हैं। इन दोनों गांवों के निवासी उस समय बड़े ही उद्दंड स्वभाव के थे। यहां के लोगों पर राज्य के कानूनों का कोई प्रभाव नहीं था। जमींदार लोग जब चाहें, अपनी इच्छा से भूमिकर देते थे, जब इच्छा नहीं होती, नहीं देते थे। इस संबंध में जब कभी कोई राज्य का अधिकारी इन गांवों में पहुंचता, तो जमींदार लोग अपनी समस्त सम्पत्ति को लेकर अपने पशुओं आदि के साथ चम्बल के बीहड़ों में निकल जाते। राज्य के कानूनों एवं आदेशों की खुलेआम अवहेलना करना इनके लिए एक सामान्य बात थी। इनके इस प्रकार के व्यवहार पर भी यदा-कदा तत्कालीन शासन ने इन पर अपनी उदारता दिखाई थी। इसे उदारता कहा जाए अथवा सनक कि इसी व्यवहार के कारण एक जमींदार को भूमिकर से मुक्ति मिल गई थी। इस घटना का वर्णन करते हुए पण्डित रामप्रसाद बिस्मिल ने अपनी आत्मकथा में लिखा है-
“एक जमींदार के संबंध में एक कथा प्रचलित है कि मालगुजारी न देने के कारण ही उनको कुछ भूमि माफी में मिल गई। पहले तो कई साल तक भागे रहे। एक बार धोखे से पकड़ लिए गए तो तहसील के अधिकारियों ने उन्हें खूब सताया। कई दिन तक बिना खाना पानी बंधा रहने दिया। अन्त में जलाने की धमकी दे पैरों पर सूखी घास डालकर आग लगवा दी। किन्तु उन जमींदार महोदय ने भूमिकर देना स्वीकार नहीं किया और यही उत्तर दिया कि ग्वालियर महाराज के कोष में मेरे कर न देने से घाटा न पड़ जाएगा। संसार क्या जानेगा कि अमुक व्यक्ति उद्दण्डता के कारण ही अपना समय व्यतीत करता है। राज्य को लिखा गया, जिसका परिणाम यह हुआ कि उतनी भूमि उन महाशय को माफी में दे दी गई।”
इस प्रकार की उद्दण्डता करना यहां के निवासी अपने लिए बड़े गौरव की बात समझते थे। एक बार इन लोगों ने राज्य के ऊंटों की चोरी की और इस पर भी राजकोप से बच गए। इस घटना का वर्णन शहीद बिस्मिल ने निम्नलिखित शब्दों में किया है-
“.....एक समय इन ग्रामों के निवासियों को एक अद्भुत खेल सूझा। उन्होंने महाराज के रिसाले के साठ ऊंट चुराकर बीहड़ों में छिपा दिए। राज्य को लिखा गया, जिस पर राज्य की ओर से आज्ञा हुई कि दोनों ग्राम तोप लगाकर उड़वा दिए जाएं। न जाने किस प्रकार समझाने-बुझाने से ऊंट वापस कर दिए गए और अधिकारियों को समझाया गया कि इतने बड़े राज्य में थोड़े से वीर लोगों का निवास है, इनका विध्वंस न करना ही उचित होगा। तब तोपें लौटाई गईं और ग्राम उड़ाए जाने से बचे।”
देसी रियासतें आन्तरिक प्रशासन के लिए उसके शासन के अधीन थीं। इस रियासत के ये निवासी लूट-पाट आदि की घटनाएं प्रायः अपनी रियासत में नहीं करते थे। इस प्रकार की घटनाओं के लिए इन लोगों का कार्यक्षेत्र समीप का अंग्रेजी राज्य होता था। ये लोग अंग्रेजी राज्य के समीपवर्ती क्षेत्र के धनवान लोगों के घरों में डकैतियां डाल रातों-रात चम्बल के बीहड़ों में जा छिपते और इस प्रकार पुलिस इनका कुछ भी नहीं बिगाड़ पाती। ये दोनों गांव अंग्रेजी राज्य की सीमा से प्रायः पन्द्रह मील की दूरी पर हैं। यहीं एक गांव में पण्डित श्री नारायण लाल रहते थे। पण्डितजी की पारिवारिक परिस्थिति अत्यंत सामान्य स्तर की थी। घर में उनकी भाभी का एकाधिकार चलता था, जो एक स्वार्थी प्रवृत्ति की महिला थी। पण्डित नारायण लाल के लिए धीरे-धीरे भाभी का दुर्व्यवहार असहनीय हो गया। इसलिए उन्होंने घर छोड़ देने का निर्णय लिया और अपनी धर्मपत्नी तथा दो अबोध पुत्रों को साथ लेकर घर से निकल पड़े। इस समय उनके बड़े पुत्र मुरलीधर की अवस्था आठ वर्ष तथा छोटे पुत्र कल्याणमल की केवल छः वर्ष थी।
घर छोड़ने के बाद पण्डित नारायण लाल कई दिनों तक आजीविका की तलाश में इधर-उधर भटकते रहे तथा अन्त में शाहजहांपुर उत्तर प्रदेश पहुंचे और यहीं अरहिया नामक गांव में रहने लगे। इस समय देश में भयंकर अकाल पड़ा था। अत्यधिक प्रयत्न करने पर शाहजहांपुर में एक अतार महोदय के यहां पण्डित नारायण लाल को एक मामूली सी नौकरी मिली, जिसमें नाममात्र के लिए तीन रुपए प्रतिमास वेतन मिलता था। भयंकर अकाल में परिवार के चार प्राणियों का भरण-पोषण कर पाना अत्यधिक कठिन कार्य था। दादीजी एक समय, वह भी केवल आधा पेट भोजन करतीं, तब भी परिवार का निर्वाह न हो पाता। अत्यधिक निर्धनता एवं कठिनाइयों का सामना करना पड़ता था। इसका उल्लेख करते हुए पण्डित रामप्रसाद बिस्मिल ने लिखा है-
“दादीजी ने बहुत प्रयत्न किया कि अपने आप केवल एक समय आधे पेट भोजन करके बच्चों का पेट पाला जाए, किन्तु फिर भी निर्वाह न हो सका। बाजरा, कुकनी, सामा, ज्वार इत्यादि खाकर दिन काटने चाहे, किन्तु फिर भी गुजारा न हुआ। तब आधा बथुवा, चना या कोई दूसरा साग, जो सबसे सस्ता हो उसको लेकर, सबसे सस्ता अनाज उसमें आधा मिलाकर थोड़ा सा नमक डालकर उसे स्वयं खातीं, लड़कों को चना या जौ की रोटी देती और इसी तरह दादाजी भी समय व्यतीत करते थे। बड़ी कठिनता से आधा पेट खाकर दिन तो कट जाता, किन्तु पेट में घोटूं दबाकर रात काटना कठिन हो जाता।”
भोजन के साथ ही वस्त्र एवं रहने के लिए मकान की समस्या भी विकट थी। अतः दादीजी ने कुछ घरों में कुटाई-पिसाई का काम करने का विचार किया, परंतु इस अकाल के समय में यह काम मिलना भी सरल नहीं था। बड़ी ही कठिनाई के साथ कुछ घरों में इस तरह का काम मिल पाया, परंतु इसे भी उन्हीं लोगों के घर में करना पड़ता था, जो लोग काम देते थे। यह काम भी बहुत ही कम मिल पाता था-मुश्किल से दिन में पांच-छः सेर जिसका पारिश्रमिक उन दिनों एक पैसा प्रति पसेरी मिलता था। अपनी पारिवारिक विवशताओं के कारण उन्हें इन्हीं एक डेढ़ पैसों के लिए तीन-चार घंटे काम करना पड़ता था। इसके बाद ही घर आकर बच्चों के भोजन की व्यवस्था करनी पड़ती। फिर भी दादीजी संतोष और धैर्य के साथ विपत्ति का सामना करतीं। वह बड़ी ही साहसी महिला थीं। पण्डित नारायण लाल कभी-कभी पत्नी एवं बच्चों के कष्टों को देखकर दुःखी हो जाते और अपनी पत्नी से पुनः अपने मूल निवास स्थान ग्वालियर चल पड़ने को कहते, किन्तु दादी बड़ी स्वाभिमानी महिला थीं। ऐसे अवसरों पर वे अपने पति का साहस बढ़ाती और कहती कि जिन लोगों के कारण घर छोड़ना पड़ा, फिर उन्हीं की शरण में जाना एक स्वाभिमानी व्यक्ति को शोभा नहीं देता। स्वाभिमान की रक्षा करते हुए प्राणों का परित्याग कर देना अच्छा है, किंतु स्वाभिमान का परित्याग मृत्यु से भी बढ़कर है। दुःख-सुख सदा लगे रहते हैं। दुःख के बाद सुख भी प्राप्त होता है। ये दिन भी सदा नहीं रहेंगे। अतः दादीजी फिर कभी लौटकर ग्वालियर राज्य नहीं गईं।
धीरे-धीरे चार-पांच वर्ष बीत गए। पण्डित नारायण लाल का कुछ स्थानीय लोगों से परिचय भी बढ़ गया। अकाल भी बीत गया। पण्डितजी के परिवार पर लोगों का विश्वास एवं स्नेह भी बढ़ गया। ब्राह्मण होने के
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