हिंदू नववर्ष - ধর্ম্মতত্ত্ব

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01 January, 2020

हिंदू नववर्ष

 चैत्र प्रतिपदा यानी गुड़ी पड़वा। हिंदू नव वर्ष। हिंदू धर्मग्रंथों के अनुसार दुनिया इसी दिन बनी थी। हिंदू नव वर्ष, पश्चिम में मनाए जा रहे नए साल की तरह रात के अंधेरे में नहीं आता बल्कि हम सूरज की पहली किरण के साथ नव वर्ष का स्वागत करते हैं। हिंदू नव वर्ष का तारीख से उतना सम्बन्ध नहीं है, जितना मौसम से है। उसका आना सिर्फ कैलेण्डर से पता नहीं चलता। प्रकृति झकझोर कर हमें चौतरफा फूट रही नवीनता का अहसास  कराती है। पुराने पीले पत्ते पेड़ से गिरते हैं। नयी कोपलें फूटती हैं। प्रकृति अपने श्रृंगार की प्रक्रिया में होती है। लाल, पीले, नीले, गुलाबी फूल खिलते हैं। यूं लगता है कि पूरी की पूरी सृष्टि नयी हो गयी है। ऐसा लगता है नव गति, नव लय, ताल, छन्द, नव। सब नवीनता से लबालव हैं।    

इस बड़े देश में हर वक्त हर कहीं एक सा मौसम नहीं रहता। इसलिए अलग-अलग राज्यों में स्थानीय मौसम में आने वाले बदलाव के साथ नया साल आता है। वर्ष प्रतिप्रदा भी अलग-अलग थोड़े अंतराल पर मनायी जाती है। कश्मीर में इसे ‘नवरोज’, तो आन्ध्र और कर्नाटक में ‘उगादि’ महाराष्ट्र में ‘गुड़ी पड़वा’ केरल में ‘विशु’ कहते हैं। सिन्धी इसे झूलेलाल जयंती के रूप में ‘चेटीचण्ड’ के तौर पर मनाते हैं। तमिलनाडू में पोंगल, बंगाल में पोएला बैसाख और गुजरात में दिपावली पर नया साल अलग से मनाते हैं।

मान्यता है कि ब्रह्मा ने चैत्र प्रतिप्रदा के दिन ही दुनिया बनाई। भगवान राम का राज्यभिषेक इसी रोज हुआ था। महाराज युधिष्ठिर भी इसी दिन गद्दी पर बैठे थे। छत्रपति शिवाजी महाराज ने हिन्दू पद पादशाही की स्थापना भी इसी दिन की। परम्परा से धड़कते पोएला वैशाख कि महिमा लाल से लाल मार्क्सवादी भी मानते हैं। बंगाल की संस्कृति में रचे बसे इस पर्व के रास्ते कभी मार्क्स ने बाधा नहीं डाली। सैकड़ों सालों तक भारत में विभिन्न प्रकार के सम्वत् प्रयोग में आते रहे। इससे काल निर्णय में अनेक भ्रम हुए। अरब यात्री अल बरुनी ने अपने वृतांत में पांच सम्वतों का जिक्र किया है। श्री हर्ष, विक्रमादित्य, शक, वल्लभ और गुप्त सम्वत्। प्रो. पांडुरंग वामन काणे अपने धर्मशास्त्र के इतिहास में लिखते हैं कि ‘विक्रम सम्वत् के बारे में कुछ कहना कठिन है। वे विक्रमादित्य को परम्परा मानते हैं। पर कहते हैं यह जो विक्रम सम्वत् है। वह ई.पू. 57 से चल रहा है। और सबसे वैज्ञानिक है। अगर न होता तो, पश्चिम के कैलेण्डर में यह तय नहीं है कि सूर्यग्रहण और चन्द्रग्रहण कब लगेंगे। पर हमारे कैलेण्डर में तय है कि चन्द्रग्रहण पूर्णिमा को और सूर्यग्रहण अमावस्या को लगेंगे।

हम दुनिया में सबसे पुरानी संस्कृति के लोग हैं। इसलिए हम समझते हैं ऋतुचक्र का घूमना ही शाश्वत है, जीवन है। तभी हम इस नए साल के आने पर वैसी उछल कूद नहीं करते। जैसी पश्चिम में होती है। हमारे स्वभाव में इस परिवर्तन की गरिमा है। वजह हम साल के आने और जाने दोनों पर विचार करते हैं। पतझड़ और बसंत साथ-साथ। इस व्यवस्था के गहरे संकेत हैं। आदि-अंत। अवसान-आगमन। मिलना-बिछुड़ना। पुराने का खत्म होना नए का आना। सुनने में चाहे भले यह असगंत लगे। पर हैं साथ-साथ। एक ही सिक्के के दो पहलू। जीवन का सार। यही है नया साल।

काल को पकड़ उसे बांटने का काम हमारे पुरखों ने ही सबसे पहले किया। उसे बांट दिन, महीना, साल बनाने का काम पहली बार भारत में ही हुआ। जर्मन दार्शनिक मैक्समूलर भी मानते हैं ‘आकाश मण्डल की गति, ज्ञान, काल निर्धारण का काम पहले पहल भारत में हुआ था।’ ऋग्वेद कहता है ‘ऋषियों ने काल को बारह भागों और तीन सौ साठ अंशों में बांटा है।’ वैज्ञानिक चिंतन के साथ हुए इस बांटवारे को बाद में ग्रेगोरियन कैलेंडर ने भी माना। आर्यभट्ट, भास्कराचार्य, वराहमिहिर और बह्मगुप्त ने छोटी से छोटी और बड़ी से बड़ी काल की इकाई की पहचान की। बारह महीने का साल और सात रोज का सप्ताह रखने का रिवाज विक्रम सम्वत् से शुरु हुआ। वीर विक्रमादित्य उज्जैयनी का राजा था। शको को जिस रोज उसने देश से खदेड़ा उसी रोज से विक्रम सम्वत् बना। इतिहास देखने से लगता है कि कई विक्रमादित्य हुए। बाद में तो यह पदवी हो गयी। पर लोक जीवन में उसकी व्याप्ति न्यायपाल के नाते ज्यादा है। उसकी न्यायप्रियता का असर उस सिंहासन पर भी आ गया था जिस पर वह बैठता था। बाद में तो जो उस सिंहासन पर बैठा गजब का न्यायप्रिय हुआ। लोक में शको से उसके युद्ध की कथा नहीं सिंहासन की चलती है।

विक्रम सम्वत् से 6676 ईसवीं पहले सप्तर्षी सम्वत् यहां सबसे पुराना सम्वत माना जाता था। फिर कृष्ण जन्म से कृष्ण कैलेण्डर, उसके बाद कलि सम्वत् आया। विक्रम सम्वत् की शुरुआत 57 ईसा पूर्व में हुई। इसके बाद 78 ईसवीं में शक सम्वत् शुरु हुआ। भारत सरकार ने शक सम्वत् को ही माना है। विक्रम सम्वत् का प्रारंभ सूर्य के मेष राशि में प्रवेश से माना जाता है। चैत्र शुक्ल प्रतिपदा से ही चंद्रमा का ‘ट्रांजिशन’ भी शुरू होता है। इसलिए चैत्र प्रतिपदा चन्द्रकला का पहला दिन होता है। मानते हैं इस रोज चन्द्रमा से जीवनदायी रस निकलता है। जो औषधियों और वनस्पतियों के लिए जीवनप्रद होता है। इसीलिए वर्ष प्रतिपदा के बाद वनस्पतियों में जीवन भर आता है। 

चैत्र शुक्ल प्रतिपदा से ही हुआ सृष्टि का प्रारंभ

भारत का सर्वमान्य संवत विक्रम सम्वत् है, जिसका प्रारंभ चैत्र शुक्ल प्रतिपदा से होता है। ब्रह्म पुराण के अनुसार चैत्र शुक्ल प्रतिपदा को ही सृष्टि का प्रारंभ हुआ था और इसी दिन भारत वर्ष में काल गणना प्रारंभ हुई थी। कहा है कि :-

चैत्र मासे जगद्ब्रह्म समग्रे प्रथमेऽनि

शुक्ल पक्षे समग्रे तु सदा सूर्योदये सति- ब्रह्म पुराण

अर्थात – ब्रह्म पुराण में वर्णित इस श्लोक के मुताबिक चैत्र मास के प्रथम दिन प्रथम सूर्योदय पर ब्रह्माजी ने सृष्टि की रचना की थी। इसी दिन से संवत्सर की शुरूआत होती है।

नव वर्ष का आवाहन  मन्त्र :

ॐ भूर्भुवः स्वः संवत्सर अधिपति आवाहयामि पूजयामि च

आवाहन पश्चात :

यश्चेव शुक्ल प्रतिपदा धीमान श्रुणोति वर्षीय फल पवित्रम भवेद धनाढ्यो बहुसश्य  भोगो जाह्यश पीडां तनुजाम, च वार्षिकीम

अर्थात – जो व्यक्ति चैत्र शुक्ल प्रतिपदा को इस पवित्र वर्ष फल को श्रृद्धा से सुनता है तो धन धान्य से युक्त होता है ।चैत्र शुक्ल प्रतिपदा को ब्राह्मण या ज्योतिषी को बुलाकर नव संवत्सर का फल  सुनने की  परम्परा प्राचीन काल से चली आ रही है ।

चैत्र शुक्ल की प्रतिपदा वसंत ऋतु में आती है। वसंत ऋतु में वृक्ष, लता फूलों से लदकर आह्लादित होते हैं जिसे मधुमास भी कहते हैं। इतना ही यह वसंत ऋतु समस्त चराचर को प्रेमाविष्ट करके समूची धरती को विभिन्न प्रकार के फूलों से अलंकृत कर जन मानस में नववर्ष की उल्लास, उमंग तथा मादकाता का संचार करती है।

इस नव संवत्सर का इतिहास बताता है कि इसके आरंभकर्ता महाराज विक्रमादित्य थे। कहा जाता है कि देश की अक्षुण्ण भारतीय संस्कृति और शांति को भंग करने के लिए उत्तर पश्चिम और उत्तर से विदेशी शासकों एवं जातियों ने इस देश पर आक्रमण किए और अनेक भूखंडों पर अपना अधिकार कर लिया और अत्याचार किए जिनमें एक क्रूर जाति के शक तथा हूण थे। शक लोग पारस कुश (ईरान देश ) सिंध (भारत) आए थे। सिंध से सौराष्ट्र, गुजरात एवं महाराष्ट्र में फैल गए और दक्षिण गुजरात से इन लोगों ने उज्जयिनी पर आक्रमण किया। शकों ने समूची उज्जयिनी को पूरी तरह विध्वंस कर दिया और इस तरह इनका साम्राज्य शक विदिशा और मथुरा तक फैल गया। इनके क्रूर अत्याचारों से जनता में त्राहि-त्राहि मच गई तो मालवा के प्रमुख नायक विक्रमादित्य के नेतृत्व में देश एक हुआ और इन विदेशियों को खदेड़ कर बाहर कर दिया गया। इस तरह महाराज विक्रमादित्य ने शकों को पराजित कर एक नए युग का सूत्रपात किया जिसे विक्रमी शक संवत्सर कहा जाता है।

वर्ष प्रतिपदा का महत्व

  • चैत्र शुक्ल प्रतिपदा से नए वर्ष का आरंभ माना जाता है।
  • प्रतिपदा से प्रारंभ कर नौ दिन में छह मास के लिए शक्ति संचय ।
  • हमारे सामाजिक और  कार्यों के अनुष्ठान की धुरी के रूप में तिथि।
  • माँ दुर्गा की उपासना की नवरात्र व्रत का प्रारम्भु ।
  • चैत्र शुक्ल प्रतिपदा से नए वर्ष का आरंभ माना जाता है।
  • ब्रह्म पुराण में ऐसे संकेत मिलते हैं कि इसी तिथि को ब्रह्माजी ने सृष्टि की रचना की थी।
  • सृष्टि की रचना का उल्लेख अथर्ववेद तथा शतपथ ब्राह्मण में भी मिलता है।
  • सतयुग का आरंभ भी इसी दिन से हुआ था।
  • सृष्टि के संचालन का दायित्व इसी दिन से सारे देवताओं ने संभाल लिया था।
  • ‘स्मृत कौस्तुभ’ के मतानुसार भगवान विष्णु ने वर्ष प्रतिपदा के दिन ही प्रथम अवतार (मत्स्यावतार) लिया था।
  • एक प्राचीन मान्यता है कि आज के दिन ही भगवान राम जानकी माता को लेकर अयोध्या लौटे थे।
  • इस दिन अयोध्या में भगवान राम के स्वागत में विजय पताका के रूप में ध्वज लगाए, इसे ब्रह्म ध्वज कहा गया।
  • युगाब्द  (युधिष्ठिवर संवत्) का आरम्भे तथा उनका राज्याभिषेक ।
  • उज्जबयिनी सम्राट- विक्रमादित्यस द्वारा विक्रमी संवत् प्रारम्भन ।
  • शालिवाहन शक संवत् (भारत सरकार का राष्ट्रीवय पंचांग) का प्रारम्भर ।
  • महर्षि दयानन्द द्वारा आर्य समाज की स्थाकपना का दिवस ।
  • राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के संस्थाीपक केशव बलिराम हेडगेवार का जन्म दिवस ।
  • सिख परंपरा के द्वितीय गुरु अंगद देव जी के जन्म दिवस ।
  • मराठी भाषियों की एक मान्यता यह भी है कि मराठा साम्राज्य के अधिपति छत्रपति शिवाजी महाराज ने वर्ष प्रतिपदा के दिन ही हिन्दू पदशाही का भगवा विजय ध्वज लगाकर हिंदवी साम्राज्य की नींव रखी।

शक सम्वत और विक्रम सम्वत् में अंतर क्या है…

सम्वत को समय की गणना का भारतीय मापदंड माना जाता है… भारत में दो सम्वत प्रचलित हैं, शक सम्वत् और विक्रम सम्वत्…

संवत् का इतिहास: इतिहास में इस बात के तथ्य मौजूद हैं जिनसे पता चलता है कि भारत में सम्वत् का प्रयोग लगभग 2000 वर्ष से ही होना शुरू हुआ है। इससे पहले शासन वर्ष का उपयोग समय की गणना के लिए किया जाता था। महान शासक अशोक, कौटिल्य, कुषाण और सातवाहन तक यह गणना चलती रही। इससे इतिहासकारों में भ्रम की स्थिति बनी रही। हिंदुओं का सबसे प्राचीन संवत् ‘सप्तऋषि संवत्’…

सप्तऋषि- माना जाता है जिसका आरंभ विक्रम सम्वत् से पूर्व 6676 ई.पू. हुआ था और इसकी शुरुआत 3076 ई. पू. हुई थी। इसके बाद कृष्ण कैलेंडर और फिर कलियुग संवत् का प्रचलन हुआ था। इसके बाद 78 ई.पू. शक संवत् और 57 ई. पू. विक्रम संवत् का आरंभ हुआ था।

शक संवत्- शक संवत् भारत का राष्ट्रीय कैलंडर है. इस सम्वत् का आरंभ 78 ई. से हुआ था. इस संवत् का आरंभ कुषाण राजा ‘कनिष्क महान’ ने अपने राज्य आरोहण को उत्सव के रूप में मनाने और उस तिथि को यादगार बनाने के लिए किया था। इस सम्वत् के पहली तिथि चैत्र के शुक्ल पक्ष की प्रतिपदा है और इसी तिथि पर कनिष्क ने राज्य सत्ता संभाली थी। यह सम्वत् अन्य संवतों की तुलना में कहीं अधिक वैज्ञानिक और त्रुटिहीन है। यह सम्वत् प्रत्येक वर्ष में मार्च की 22 तारीख को शुरू होता है और इस दिन सूर्य विषुवत रेखा के ऊपर होता है और इसी कारण दिन और रात बराबर के समय के होते हैं। शक सम्वत् के दिन 365 होते हैं और इसका लीप ईयर भी अंग्रेजी ग्रेगोरियन कैलेंडर के साथ ही होता है। लीप ईयर होने पर शक सम्वत् 23 मार्च को शुरू होता है और उसमें 366 दिन होते हैं। भारत में इस सम्वत् का प्रयोग वराहमिरि द्वारा 500 ई. से किया जा रहा है।

विक्रम संवत्: विक्रम संवत हिन्दू पंचांग में समय गणना की प्रणाली का नाम है। यह संवत 57 ईसा पूर्व आरम्भ होती है। इसका प्रणेता सम्राट विक्रमादित्य को माना जाता है। जिस अंग्रेजी कैलेंडर को आज के समय में हम इस्तेमाल कर रहे हैं, विक्रम संवत उस कैलेंडर से 56.7 साल आगे चल रहा है। विक्रम सम्वत् में समय की पूरी गणना सूर्य और चाँद के आधार पर की गयी है यानि दिन, सप्ताह, मास और वर्ष की गणना पूरी तरह से वैज्ञानिक है। पौराणिक कथा के अनुसार चैत्र मास की शुक्ल पक्ष की प्रतिपदा को ब्रह्माजी ने सृष्टि की रचना आरंभ करी थी इसलिए हिन्दू इस तिथि को ‘नववर्ष का आरंभ’ मानते हैं। इसके अतिरिक्त इस तिथि से नवरात्रे भी शुरू होते हैं।

  • ऐसा कहा जाता है कि आजकल विक्रम संवत कैलेंडर को कोई नहीं पूछता, प्रत्येक हिन्दू भी ‘शक कैलेंडर’ की मदद से ही सभी कार्य करता है। किंतु ऐसा बिलकुल भी नहीं है, आज भी विक्रम संवत के हिसाब से ही व्रत-त्यौहार की तिथियों की गणना की जाती है।
  • शायद बहुत कम लोग इस बात को जानते हैं कि जब पहली बार भारतीय संविधान बनाया गया तब वहां हिन्दी तारीख विक्रम संवत के हिसाब से ही लिखी गई थी। इससे प्रतीत होता है कि आज भी विक्रम संवत कैलेंडर का काफी महत्व है। इसी महत्व को समझते हुए आज हम आपको हिन्दू नववर्ष की कुछ खास बातें बताने जा रहे हैं।
  • जिस प्रकार से तारीखें बदलती हैं उसी प्रकार से ग्रहों की दशाएं भी बदलती हैं। विक्रम संवत कैलेंडर जो कि सूर्य एवं चंद्रमा को आधार मानकर तैयार किया जाता है, उसके अनुसार इस साल का हिन्दू नववर्ष आपके लिए कैसा रहेगा, इसके लिए हम यहां ज्योतिषीय परिणाम देने जा रहे हैं।

विक्रम संवत् और शक संवत् में अंतर: वैसे तो शक संवत और विक्रम संवत के महीनों के नाम एक ही हैं और दोनों संवतों में शुक्ल पक्ष और कृष्ण पक्ष भी हैं। अंतर सिर्फ दोनों पक्षों के शुरू होने में है। विक्रम संवत में नया महीना पूर्णिमा के बाद आने वाली कृष्ण पक्ष से होता है जबकि शक संवत में नया महीना अमावस्या के बाद शुक्ल पक्ष से शुरू होता है। इसी कारण इन संवतों के शुरू होने वाली तारीखों में भी अंतर आ जाता है। शक संवत में चैत्र के शुक्ल पक्ष की प्रतिपदा, उस महीने की पहली तारीख है जबकि विक्रम संवत में यह सोलहवीं तारीख है।

नवसंवत्सर का हर्षोल्लास

इस बड़े देश में हर वक्त हर कहीं एक सा मौसम नहीं रहता। इसलिए अलग-अलग राज्यों में स्थानीय मौसम में आने वाले बदलाव के साथ नया साल आता है। वर्ष प्रतिप्रदा भी अलग-अलग थोड़े अंतराल पर मनायी जाती है। कश्मीर में इसे ‘नवरोज’, तो आन्ध्र और कर्नाटक में ‘उगादि’ महाराष्ट्र में ‘गुड़ी पड़वा’ केरल में ‘विशु’ कहते हैं। सिन्धी इसे झूलेलाल जयंती के रूप में ‘चेटीचण्ड’ के तौर पर मनाते हैं। तमिलनाडू में पोंगल, बंगाल में पोएला बैसाख और गुजरात में दिपावली पर नया साल अलग से मनाते हैं।

  • आंध्रप्रदेश में युगदि या उगादि तिथि कहकर इस सत्य की उद्घोषणा की जाती है। वीर विक्रमादित्य की विजय गाथा का वर्णन अरबी कवि जरहाम किनतोई ने अपनी पुस्तक ‘शायर उल ओकुल’ में किया है।
    • उन्होंने लिखा है वे लोग धन्य हैं जिन्होंने सम्राट विक्रमादित्य के समय जन्म लिया। सम्राट पृथ्वीराज के शासन काल तक विक्रमादित्य के अनुसार शासन व्यवस्था संचालित रही जो बाद में मुगल काल के दौरान हिजरी सन् का प्रारंभ हुआ। किंतु यह सर्वमान्य नहीं हो सकाक्योंकि ज्योतिषियों के अनुसार सूर्य सिद्धांत का मान गणित और त्योहारों की परिकल्पना सूर्य ग्रहणचंद्र ग्रहण का गणित इसी शक संवत्सर से ही होता है। जिसमें एक दिन का भी अंतर नहीं होता।
  • सिंधु प्रांत में इसे नव संवत्सर को ‘चेटी चंडो’ चैत्र का चंद्र नाम से पुकारा जाता है जिसे सिंधी हर्षोल्लास से मनाते हैं।
  • कश्मीर में यह पर्व ‘नौरोज’ के नाम से मनाया जाता है जिसका उल्लेख पंडित जवाहरलाल नेहरू ने अपनी आत्मकथा में लिखा है कि वर्ष प्रतिपदा ‘नौरोज’ यानी ‘नवयूरोज’ अर्थात्‌ नया शुभ प्रभात जिसमें लड़के-लड़कियां नए वस्त्र पहनकर बड़े धूमधाम से मनाते हैं।
  • हिंदू संस्कृति के अनुसार नव संवत्सर पर कलश स्थापना कर नौ दिन का व्रत रखकर मां दुर्गा की पूजा प्रारंभ कर नवमीं के दिन हवन कर मां भगवती से सुख-शांति तथा कल्याण की प्रार्थना की जाती है। जिसमें सभी लोग सात्विक भोजन व्रत उपवास, फलाहार कर नए भगवा झंडे तोरण द्वार पर बांधकर हर्षोल्लास से मनाते हैं।
  • इस तरह भारतीय संस्कृति और जीवन का विक्रमी संवत्सर से गहरा संबंध है लोग इन्हीं दिनों तामसी भोजन, मांस मदिरा का त्याग भी कर देते हैं।

सर्वर्तुपरिवर्त्तस्तु स्मृतः संवत्सरो बुधैः’ (क्षीरस्वामी कृत अमरकोश) 

अर्थात- भारतीय मनीषा ने सभी ऋतुओं के एक पूरे चक्र को संवत्सर के नाम से अभिहित किया है, अर्थात् किसी ऋतु से आरम्भ कर पुनः उसी ऋतु की आवृति तक का समय एक संवत्सर होता है।

संवसन्ति ऋतवः अस्मिन् संवत्सरः’(क्षीरस्वामी कृत अमरकोश,कालवर्ग,20)

अर्थात- सम +वस्ति +ऋतवः भाव -अच्छी ऋतु जिसमें है ,उस काल गणना के प्रमाण को संवत्सर कहते हैं “रितुभिहि संवत्सरः शक्प्नोती स्थातुम”

दूसरे अर्थों में संवत्सर के अन्दर सभी ऋतुओं का निवास होता है- निरुक्त ने तो सभी प्राणियों की आयु की गणना इन्हीं संवत्सरों के द्वारा होने के कारण कहा है कि जिसमें सभी प्राणियों का वास हो, समय के उस विभाग को संवत्सर कहते हैं—

संवत्सरः संवसन्ते अस्मिन् भूतानि’ (निरुक्त, अ.4, पा.4, खं.27)

चैत्रे मासि जगद् ब्रह्मा ससर्ज प्रथमे अहनि।

शुक्लपक्षे समग्रं तु तदा सूर्योदये सति।।’ (ब्रह्मपुराण)

अर्थात्- ब्रह्माजी ने चैत्रमास के शुक्लपक्ष के प्रथम दिन सूर्योदय होने पर संसार की सृष्टि की।

“कृते च प्रभवे चैत्रे प्रतिपच्छुक्लपक्षगा ।

रेवत्यां योग-विष्कुम्भे दिवा द्वादश-नाड़िका: ।।

मत्स्यरूपकुमार्यांच अवतीर्णो हरि: स्वयम् ।।

अर्थात् इसी दिन चैत्र शुक्ल प्रतिपदा को रेवती नक्षत्र में विष्कुम्भ योग में दिन के समय भगवान विष्णु ने मत्स्य अवतार लिया था।

इसी दिन से शक्ति की आराधना के पर्व नवरात्र की शुरुआत भी मानी जाती है- हिंदू संस्कृति के अनुसारनवसंवत्सर पर कलश स्थापना कर नौ दिन का व्रत रखकर मां दुर्गा की पूजा प्रारंभ कर नवमीं के दिन हवन कर मांभगवती से सुख- शांति तथा कल्याण की प्रार्थना की जाती है। जिसमें सभी लोग सात्विक भोजन व्रत उपवास,फलाहार कर नए भगवा झंडे तोरण द्वार पर बांधकर हर्षोल्लास से मनाते हैं। इन्हीं दिनों तामसी भोजन, मांसमदिरा का त्याग भी कर देते हैं।

इस दिन से दुर्गा सप्तशती या रामायण का नौ-दिवसीय पाठ आरंभ करें। सभी जीव मात्र तथा प्रकृति के लिए मंगल कामना करें।

चैत्र में आने वाले नवरात्र में अपने कुल देवी-देवताओं की पूजा का विशेष प्रावधान माना गया है। मान्यता है किनवरात्र में महाशक्ति की पूजा कर श्रीराम ने अपनी खोई हुई शक्ति पाई, इसलिए इस समय आदिशक्ति कीआराधना पर विशेष बल दिया गया है। मार्कण्डेय पुराण के अनुसार, दुर्गा सप्तशती में स्वयं भगवती ने इस समयशक्ति-पूजा को महापूजा बताया है।

संवत्सर-चक्र के अनुसार सूर्य इस ऋतु में अपने राशि-चक्र की प्रथम राशि मेष में प्रवेश करता है। शास्त्रीयमान्यता के अनुसार चैत्र शुक्ल प्रतिपदा की तिथि के दिन प्रात: काल स्नान आदि के द्वारा शुद्ध होकर घर कोस्वच्छ सुशोभित करना चाहिए तथा अपने से बड़ों का गुरु, माता-पिता, दादा-दादी एवं अन्य पूजनीय व्यक्तियोंको प्रणाम कर आशीर्वाद लेना चाहिए। और हाथ में गंध, अक्षत, पुष्प और जल लेकर

 भूर्भुवस्वसंवत्सर– अधिपति आवाहयामि पूजयामि च “

अर्थात् इस मंत्र से नव संवत्सर की पूजा करनी चाहिए तत्पश्चात संवत्सर फल का श्रवण करना चाहिए। इसके बादकाली मिर्च, नीम की पत्ती, मिश्री, अजवाइन व जीरा का चूर्ण बनाकर खाना चाहिए।

चैत्र शुक्ल प्रतिपदा एक स्वयं सिद्ध अमृत तिथि है एवं इस दिन यदि शुद्ध चित से किसी भी कार्य की शुरुआत की जाए एवं संकल्प किया जाए तो वह अवश्य सिद्ध होता है ।

चैत्र शुक्ल प्रतिपदा को ब्राह्मण या ज्योतिषी को बुलाकर नव संवत्सर का फल  सुनना चाहिए, नव संवत्सर का फल सुनने की परम्परा प्राचीन काल से चली आ रही है ।

यश्चेव शुक्ल प्रतिपदा धीमान श्रुणोति वर्षीय फल पवित्रम भवेद

धनाढ्यो बहुसश्य भोगो जाह्यश पीडां तनुजाम वार्षिकीम।।

अर्थात जो व्यक्ति चैत्र शुक्ल प्रतिपदा को इस पवित्र वर्ष फल को श्रृद्धा से सुनता है तो धन धान्य से युक्त होता है ।

भारतीय कालगणना के अनुसार- भारतवर्ष वह पावन भूमि है जिसने संपूर्ण ब्रह्माण्ड को अपने ज्ञान से आलोकित किया है। इसने जो ज्ञान का निदर्षन प्रस्तुत किया है वह केवल भारतवर्ष में ही नहीं अपितु संपूर्ण विश्वञ के कल्याण का पोषक है। यहाँ संस्कृति का प्रत्येक पहलू प्रकृति व विज्ञान का ऐसा विलक्षण उदाहरण है जो कहीं और नहीं मिलता। नये वर्ष का आरम्भ अर्थात् भारतीय परम्परा के अनुसार ‘वर्ष प्रतिपदा’ भी एक ऐसा ही विलक्षण उदाहरण है।भारतीय कालगणना के अनुसार इस पृथ्वी के सम्पूर्ण इतिहास की कुंजी मन्वन्तर विज्ञान मे है। इस ग्रह के संपूर्ण इतिहास को 14 भागों अर्थात् मन्वन्तरों में बाँटा गया है। एक मन्वन्तर की आयु 30 करोड़ 67 लाख और 20 हजार वर्ष होती है। इस पृथ्वी का संपूर्ण इतिहास 4 अरब 32 करोड़ वर्ष का है। इसके 6 मन्वन्तर बीत चुके हैं। और सातवाँ वैवस्वत मन्वन्तर चल रहा है। हमारी वर्तमान नवीन सृष्टि 12 करोड़ 5 लाख 33 हजार 1 सौ 4 वर्ष की है। ऐसा युगों की भारतीय कालगणना बताती है। पृथ्वी पर जैव विकास का संपूर्ण काल 4,32,00,00,00 वर्ष है। इसमें बीते 1 अरब 97 करोड़ 29 लाख 49 हजार 1 सौ 11 वर्षों के दीर्घ काल में 6 मन्वन्तर प्रलय, 447 महायुगी खण्ड प्रलय तथा 1341 लघु युग प्रलय हो चुके हैं। पृथ्वी व सूर्य की आयु की अगर हम भारतीय कालगणना देखें तो पृथ्वी की शेष आयु 4 अरब 50 करोड़ 70 लाख 50 हजार 9 सौ वर्ष है तथा पृथ्वी की संपूर्ण आयु 8 अरब 64 करोड़ वर्ष है। सूर्य की शेष आयु 6 अरब 66 करोड़ 70 लाख 50 हजार 9 सौ वर्ष तथा सूर्य की संपूर्ण आयु 12 अरब 96 करोड़ वर्ष है।

विश्व की प्रचलित सभी कालगणनाओं मे भारतीय कालगणना प्राचीनतम है। इसका प्रारंभ पृथ्वी पर आज से प्राय: 198 करोड़ वर्ष पूर्व वर्तमान श्वेत वराह कल्प से होता है। अत: यह कालगणना पृथ्वी पर प्रथम मानवोत्पत्ति से लेकर आज तक के इतिहास को युगात्मक पद्वति से प्रस्तुत करती है। काल की इकाइयों की उत्तरोत्तर वृद्धि और विकास के लिए कालगणना के हिन्दू विषेषज्ञों ने अंतरिक्ष के ग्रहों की स्थिति को आधार मानकर पंचवर्षीय, 12वर्षीय और 60 वर्षीय युगों की प्रारम्भिक इकाइयों का निर्माण किया। भारतीय कालगणना का आरम्भ सूक्ष्मतम् इकाई त्रुटि से होता है। इसके परिमाप के बारे में कहा गया है कि सूई से कमल के पत्ते में छेद करने में जितना समय लगता है वह त्रुटि है। यह परिमाप 1 सेकेन्ड का 33750वां भाग है। इस प्रकार भारतीय कालगणना परमाणु के सूक्ष्मतम इकाई से प्रारम्भ होकर काल की महानतम इकाई महाकल्प तक पहँचती है।

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