মহামৃত্যুঞ্জয় মন্ত্র - ধর্ম্মতত্ত্ব

ধর্ম্মতত্ত্ব

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धर्म मानव मात्र का एक है, मानवों के धर्म अलग अलग नहीं होते-Theology

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20 April, 2020

মহামৃত্যুঞ্জয় মন্ত্র

মহামৃত্যুন্জয়ী মন্ত্র

।।মহামৃত্যুনঞ্জয় মন্ত্র।।
ও৩ম্ এ‍্যম্বকং য়জামহে সুগন্ধিং পুষ্টিবর্ধনম্। উর্বারুকমিব বন্ধনান্মৃত্যোর্মুক্ষীয় মামৃতাৎ ।।
ঋগ্বেদ০মন্ডল ৭ সূক্ত ৫৯ মন্ত্র ১২
ভাবার্থঃ-হে সৃষ্টিকর্তা,ধর্তা ও হর্তা পরমাত্মন্ ! আমাদের জন্য সুগন্ধিত,পুষ্টিকারক তথা বলবর্ধক ভোগ্য বস্তু দান কর ! আমরা অত্যন্ত শ্রদ্ধা ও ভক্তিসহকারে তোমার ভজন করি। হে দেব ! আমরা পূর্ণাযু ও পূর্ণভোগ করেই যেন শরীর রূপী বন্ধন থেকে মুক্ত হতে পারি। আমরা যেন এই জন্ম-মৃত্যু চক্র থেকে মুক্ত হয়ে যাই কিন্তু তোমার অমৃতময়ী স্নেহ থেকে যেন বিমুখ না হই।
त्र्य॑म्बकं यजामहे सु॒गन्धिं॑ पुष्टि॒वर्ध॑नम्।
 उ॒र्वा॒रु॒कमि॑व॒ बन्ध॑नान्मृ॒त्योर्मु॑क्षीय॒ मामृता॑त् ॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण
tryambakaṁ yajāmahe sugandhim puṣṭivardhanam |
 urvārukam iva bandhanān mṛtyor mukṣīya māmṛtāt ||

पद पाठ
त्र्य॑म्बकम्। य॒जा॒म॒हे॒। सु॒गन्धि॑म्। पु॒ष्टि॒ऽवर्ध॑नम्। उ॒र्वा॒रु॒कम्ऽइ॑व। बन्ध॑नात्। मृ॒त्योः। मु॒क्षी॒य॒। मा। अ॒मृता॑त् ॥१२॥

पदार्थान्वयभाषाः -हे मनुष्यो ! जिस (सुगन्धिम्) अच्छे प्रकार पुण्यरूपय यशयुक्त (पुष्टिवर्धनम्) पुष्टि बढ़ानेवाले (त्र्यम्बकम्) तीनों कालों में रक्षण करने वा तीन अर्थात् जीव, कारण और कार्य्यों की रक्षा करनेवाले परमेश्वर को हम लोग (यजामहे) उत्तम प्रकार प्राप्त होवें उसकी आप लोग भी उपासना करिये और जैसे मैं (बन्धनात्) बन्धन से (उर्वारुकमिव) ककड़ी के फल के सदृश (मृत्योः) मरण से (मुक्षीय) छूटूँ, वैसे आप लोग भी छूटिये जैसे मैं मुक्ति से न छूटूँ, वैसे आप भी (अमृतात्) मुक्ति की प्राप्ति से विरक्त (मा, आ) मत हूजिये ॥

भावार्थभाषाः -इस मन्त्र में उपमालङ्कार है। हे मनुष्यो ! हम सब लोगों का उपास्य जगदीश्वर ही है, जिसकी उपासना से पुष्टि, वृद्धि, उत्तम यश और मोक्ष प्राप्त होता है, मृत्यु सम्बन्धि भय नष्ट होता है, उस का त्याग कर के अन्य की उपासना हम लोग कभी न करें ॥१२॥ इस सूक्त में वायु के दृष्टान्त से विद्वान् और ईश्वर के गुण और कृत्य के वर्णन करने से इस सूक्त के अर्थ की इससे पूर्व सूक्त के अर्थ के साथ सङ्गति जाननी चाहिये ॥ यह ऋग्वेद में पाँचवे अष्टक में चौथा अध्याय तीसवाँ वर्ग तथा सप्तम मण्डल में उनसठवाँ सूक्त समाप्त हुआ ॥-स्वामी दयानन्द सरस्वती


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