महर्षि दयानंद सरस्वती का वेद-विषयक दृष्टिकोण
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- भावेश मेरजा
- भावेश मेरजा
आर्यसमाज के प्रवर्तक महर्षि दयानंद सरस्वती (१८२५-१८८३) ने वर्तमान युग में वेदों के संबंध में कई मूलभूत वातों की ओर संसार का ध्यान आकर्षित किया है। जैसे कि -
१. ऋक्, यजुः, साम और अथर्व - ये चार मंत्र संहिताएं ही ‘वेद’ हैं। इन चार मंत्र संहिताएं ही ईश्वर-प्रणीत अथवा अपौरुषेय ज्ञान-पुस्तकें हैं। इन चार के अतिरिक्त जो भी पुस्तकें हैं - मान्य या अमान्य, वे सब मनुष्यों द्वारा रचित अर्थात् पौरुषेय हैं।
२. वेदों में ज्ञान, विज्ञान, कर्म और उपासना - ये चार विषयों का अथवा ईश्वर, जीव और प्रकृति (तथा प्रकृति से उत्पन्न सृष्टि) के संबंध में निर्भ्रान्त ज्ञान वर्णित है। वेद-ज्ञान की सहायता से मनुष्य अपने जीवन के चरम लक्ष्य मोक्ष की प्राप्ति कर सकता है।
३. वेदों में किसी राजा, प्रजा, देश, व्यक्ति आदि का बिलकुल इतिहास नहीं है। वेदों तो सृष्टि के आरंभ में प्रकाशित हुए हैं। उनमें किसी मनुष्य का इतिहास नहीं है। मनुष्यों ने वेदाविर्भाव के पश्चात् अपनी आवश्यकता अनुसार व्यक्तिओं, देशों, पर्वतों, नदियों तथा समुद्रों आदि के नाम वेदों के शब्दों के आधार पर निश्चित किए हैं। वेदों के शब्दों के आधार पर नाम रखने की यह परंपरा आज पर्यंत चली आ रही है। परंतु इससे वेदों में इन नामों वाले व्यक्तियों का इतिहास वर्णित है, ऐसा मान लेना तो बिलकुल ही अयोग्य समझा जाएगा। वेदों में मानवीय अनित्य इतिहास का नितान्त अभाव है। हां, सृष्टि की रचना कैसे होती है, प्रथम क्या बनता है, बाद में क्या बनता है, इसका चक्र कैसे चलता है, किन नियमों से सृष्टि चलती है, इत्यादि प्रश्नों के वैज्ञानिक समाधान के रूप में सृष्टि का नित्य इतिहास तो वेदों में है, परंतु उनमें किसी प्रकार का अनित्य मानवीय इतिहास बिल्कुल नहीं है। समस्त वैदिक साहित्य इस बात को प्रमाणित करता है कि वेदों में किसी भी देश, समाज या व्यक्ति का इतिहास नहीं है। इसलिए वे लोग जो वेदों में मानवीय इतिहास की कड़ियाँ या संकेत ढूंढने में विश्वास रखते हैं और इसी हेतु से कार्यरत हैं, वे वास्तव में वेदों के यथार्थ स्वरूप को समझने में भारी भूल कर रहे हैं।
४. वेदों में तीन पदार्थों को अनादि, अनुत्पन्न, नित्य स्वीकार किए गए हैं - ईश्वर, जीव और प्रकृति। इन तीनों पदार्थ की सत्ता सदैव बनी ही रहती है। इसलिए उनका कभी भी अभाव नहीं होता है। ये तीनों सत्ताएं अनादि हैं, वे कभी भी उत्पन्न नहीं होतीं हैं। ये तीनों तो बस ऐसे ही सदा से हैं और आगे भी सदैव बनी रहेंगी। ये तीनों सत्ताएं अनादि - अनंत काल से अपना अस्तित्व रखती आयी हैं और अनंत काल तक ऐसे ही विद्यमान रहने वाली हैं। उनका कभी भी अभाव होने वाला नहीं है। इसके अतिरिक्त, ये तीनों सत्ताएं एक में से दूसरी ऐसे परिवर्तित भी कभी नहीं होती हैं। अर्थात् ईश्वर कभी जीव या प्रकृति नहीं बनता है; जीव कभी ईश्वर या प्रकृति नहीं बनता है; और प्रकृति कभी ईश्वर या जीव नहीं बनती है। ये तीनों सत्ताएं अपने-अपने स्वाभाविक गुणों के आधार पर एक-दूसरे से सदैव भिन्न ही बनी रहती हैं; कभी भी अभिन्न - समान - एक नहीं हो जातीं। ईश्वर और जीव चेतन हैं, जबकि प्रकृति जड़ है। ईश्वर जीवों के कल्याण के लिए - उनकों उन्नति का - मोक्ष-प्राप्ति का अवसर प्रदान करने के लिए प्रकृति में से सृष्टि बनाता है। यह सृष्टि आज पर्यंत अनंत बार बनी-बिगड़ी है, और भविष्य में भी अनंत बार बनने-बिगड़ने वाली है। सृष्टि-प्रलय का यह क्रम भी अनंत है।
५. वेदों में मनुष्य के चरम विकास एवं उन्नति के लिए अपेक्षित समस्त ज्ञान वर्णित है। वेदों में सर्व प्रकार का ज्ञान-विज्ञान निहित है। वेदों में ईश्वर-प्राप्ति अथवा मोक्ष-प्राप्ति को मानव जीवन का चरम लक्ष्य बताया गया है। वेदों का प्रधान विषय यही अध्यात्म विज्ञान है। वेदों में भौतिक जीवन के प्रति भी अनादर के भाव नहीं हैं, उसके उत्कर्ष के लिए भी पर्याप्त सामग्री वेदों में उपलब्ध है; फिर भी आध्यात्मिक ऐश्वर्य की तुलना में भौतिक ऐश्वर्य को गौण जरूर बताया गया है।
६. वेद जगत् को वास्तविक एवं सप्रयोजन मानते हैं। जगत् को स्वप्नवत् मिथ्या मानते हुए अपने शारीरिक, सामाजिक, आर्थिक, राजनैतिक अभ्युदय की प्राप्ति के लिए बिल्कुल कामना या यत्न ही न करना - इस प्रकार के निराशावादी चिंतन का वेदों में अभाव है। वेद हमें ज्ञान-कर्म-उपासनामय कर्मठ जीवन के पाठ पढ़ाते हैं।
७. वेदों में विशुद्ध एकेश्वरवाद का प्रतिपादन किया गया है। एक ही सच्चिदानंद-स्वरूप, सर्वव्यापक, निराकार, अनंत, सर्वशक्तिमान, चेतन ईश्वर के गुण-कर्म-स्वभाव का ज्ञान कराने के लिए वेदों में उसकी अनेकानेक नामों से स्तुति - यथार्थ वर्णन किया गया है। इसलिए वेदों में ईश्वर के लिए प्रयुक्त इन्द्र, वरुण, प्रजापति, सविता, विधाता, अग्नि, गणपति इत्यादि नामों को देखकर ऐसा निष्कर्ष निकाल लेना कि वेदों में तो अनेक ईश्वर की स्तुति है, वेदों तो बहुदेवतावादी हैं, एक गंभीर भूल ही मानी जाएगी। वेद एक ही ईश्वर की स्तुति-प्रार्थना-उपासना करने की शिक्षा देते हैं।
८. वेद मानवोपयोगी समस्त विद्याओं के मूल हैं। वेदों में मानव जीवन के सभी अंगो के विषय में - व्यष्टि एवं समष्टि दोनों के विषय में ज्ञान प्रस्तुत किया गया है। वेदों में भौतिक विज्ञान के रहस्य भी उपलब्ध हैं, परंतु वेदों में ये सब विद्याएं मूलवत् अर्थात् बीज या सूत्र रूप में वर्णित हैं। वेदों में किसी ‘शास्त्र’ के रूप में अमुक विद्या या विज्ञान-शाखा का सांगोपांग विस्तार या विशद विवेचन प्रस्तुत नहीं किया गया है। परंतु वेदों में से भौतिक जगत् विषयक संकेतों को ठीक से समझ कर उनके अवलंबन से सृष्टि का गहन वैज्ञानिक अध्ययन करके मनुष्य भौतिक जगत् की भी अनेक सच्चाइयों का अन्वेषण कर सकते हैं।
९. वेदों में यज्ञ, संस्कार आदि कर्मकांड का भी यथोचित वर्णन किया गया है। वेदों में वेदार्थ आधारित सार्थक एवं वैज्ञानिक कर्मकांड को समुचित स्थान दिया गया है। वेदों में ‘यज्ञ’ शब्द को अत्यंत विस्तृत अर्थ में प्रयुक्त किया गया है, जिसकी अर्थ-परिघि में उन सभी प्रकार के उत्तम कर्मों का समावेश हो जाता है, जो किसी सद्भावना से प्रेरित होकर किए जाते हैं और जिनके द्वारा सुखों की वृद्धि और दुःखो तथा क्लेशों का शमन होता हैं। फिर भी यह नहीं भूलना चाहिए वेद केवल द्रव्यमय यज्ञों या कर्मकांड के लिए ही प्रवृत्त नहीं हुए हैं। वेद ज्ञान के - सत्य विद्याओं के ग्रंथ हैं; ये याज्ञिक कर्मकांड के ही या मानवीय अनित्य इतिहास के ग्रंथ नहीं हैं। कर्मकांड में भी जो विनियोग होता है वह मंत्र के अर्थ के आधीन होना अपेक्षित है।
१०. वेद और सृष्टि दोनों ईश्वरीय हैं। जैसे वेद ईश्वर-प्रणीत हैं, ईश्वरीय ज्ञान के ग्रंथ हैं, वैसे ही यह सृष्टि अथवा जगत् भी वही ईश्वर द्वारा रचित एवं संचालित है। इसलिए इन दोनों में अर्थात् वेद तथा सृष्टि में अ-विरोध है, दोनों में पूरी संगति है, पक्का समन्वय है। सृष्टि विषयक जो बातें वेदों में वर्णित हैं, वही बातें हमें सृष्टि में उपस्थित व कार्यरत दिखाई पड़ती हैं। इसलिए वेद सर्वथा वैज्ञानिक हैं। वेदों में ऐसी एक भी बात नहीं है, जो सृष्टिक्रम के विरुद्ध हो या जिसका सृष्टि-विज्ञान से मेल न बैठता हो। इस तरह वेदों की रचना बुद्धिपूर्वक - ज्ञान-विज्ञानपूर्वक है, जो उनका ईश्वरीय होना सिद्ध करता है।
११. वेदों में मानव समाज का ब्राह्मण आदि चार वर्णों में विभाजन किया गया है; परंतु इस विभाजन का आधार व्यक्ति का जन्म नहीं, बल्कि उसके गुण-कर्म-स्वभाव हैं। जन्म आधारित जाति प्रथा न केवल वेदबाह्य है, बल्कि वेद-विरुद्ध भी है।
१२. वेदों को यथार्थ रूप में समझने के लिए ब्राह्मण-ग्रंथ, वेदांग, उपांग, उपवेद, प्रमुख – मौलिक उपनिषद् तथा मनुस्मृति आदि पुरातन वैदिक ग्रंथो का अध्ययन अत्यंत आवश्यक है। पाणिनि मुनि कृत अष्टाध्यायी, पतंजलि मुनि कृत महाभाष्य तथा यास्क मुनि कृत निरुक्त तथा निघंटु के अध्ययन से वेदों की भाषा तथा वेदों के अर्थ समझने में अनन्य सहायता प्राप्त हो सकती है।
१३. वेदों की शिक्षाएं - उपदेश सर्वथा उदात्त, सार्वभौम, सर्वजनोपयोगी और प्राणीमात्र के लिए हितकारी हैं। वेद मानवमात्र का ही नहीं, जीवमात्र का हित करने वाली बातों का उपदेश करते हैं। वेदों में जिसे संकीर्ण, एकांगी या सांप्रदायिक कहा जा सके ऐसा कुछ भी नहीं है। सभी का कल्याण और सर्वविध उन्नति कराने वाली सुभद्र बातों को प्रकाशित करने वाले वेद वैश्विक धर्म के प्रतिनिधि हैं। वेदों में उन समस्त विषयों का उल्लेख पाया जाता है, जिनका स्वीकार व आचरण कर कोई भी देश, समाज या व्यक्ति उन्नति के शिखर पर पहुंच सकता है और सभी लोग विश्व, देश, समाज या परिवार में सुख एवं शांतिपूर्वक रहकर जीवन व्यतीत कर सकते हैं। मनुष्यों को आज पर्यंत जिन-जिन सत्य विद्याओं की आवश्यता अनुभव हुई है और भविष्य में उन्हें जिन-जिन सत्य विद्याओं की आवश्यकता अनुभव होगी, उन सब सत्य विद्याओं का बीज रूप में समावेश वेदों में हुआ है।
१४. वेद ईश्वरीय ज्ञान है। अतः उन पर मानवमात्र का समान मौलिक अधिकार है। किसी को भी यह अधिकार नहीं है कि वह अन्य किसी को उसके वेदाधिकार से वंचित कर सके।
१५. मनुष्य के आत्मा में अपना जीवस्थ स्वाभाविक ज्ञान तो होता ही है, परंतु वह इतना अल्प होता है कि केवल उससे वह उन्नति नहीं कर सकता है। उन्नति तो होती है - नैमित्तिक ज्ञान से जिसे अर्जित या प्राप्त किया जाता है। वेद ईश्वर-प्रदत्त नैमित्तिक ज्ञान है। वह सर्वज्ञ ईश्वर का ज्ञान होने से निर्भ्रांत है और इसीलिए ‘परम-प्रमाण’ अथवा ‘स्वतः-प्रमाण’ है। वह सूर्य अथवा प्रदीप के समान स्वयं प्रमाणरूप है। उसके प्रमाण होने के लिए अन्य ग्रंथों की अपेक्षा नहीं होती है। चार वेदों के अतिरिक्त समस्त वैदिक अथवा वेदानुकूल साहित्य अति महत्त्वपूर्ण होते हुए भी मानवीय - पौरुषेय होने के कारण परत-प्रमाण है। इन ग्रंथों में जो कुछ वेदानुकूल है वह प्रमाण और ग्राह्य है, और जो कुछ वेदविरुद्ध है वह अप्रमाण और अग्राह्य है।
१६. वेदों के समस्त शब्द यौगिक या योगरूढ हैं, इसलिए वे आख्यातज हैं; रूढ या यदृच्छारूप नहीं हैं। इसलिए वैदिक शब्दों का तात्पर्य जानने के लिए व्याकरणशास्त्र के अनुसार यथायोग्य धातु-प्रत्यय संबंध पूर्वक अर्थ समझने का प्रयत्न करना चाहिए। धातुएं अनेकार्थक होने से मंत्र भी अनेकार्थक होते हैं और उनके आधिदैविक, आधिभौतिक और आध्यात्मिक अर्थ किए जा सकते हैं। दूसरे शब्दों में - प्रकरण आदि का विचार करके वेदमंत्रों के पारमार्थिक तथा व्यावहारिक दोनों प्रकार के अर्थ करने का प्रयास करना चाहिए।
१७. पिछली दो शताब्दियों में पश्चिम के अनेक विद्वानों ने वेदों पर कार्य किया है और तत्संबंधी ग्रंथ आदि भी लिखे हैं, जिनमें मेक्समूलर, मोनियर विलियम्स, ग्रिफिथ इत्यादि के नाम प्रसिद्ध हैं। ये पाश्चात्य विद्वान् वेदों को वास्तविक रूप में प्रस्तुत नहीं कर सके हैं; क्योंकि एक तो वे वेद तथा वेदार्थ की पुरातन आर्ष परंपरा से अपरिचित थे और दूसरा यह कि वे लोग अपने ईसाई मत के प्रति आग्रह रखते थे और विकासवाद को अंतिम सत्य मानकर चलते थे। इसलिए पाश्चात्यों का वेद विषयक कार्य प्रायः वेदों की प्रतिष्ठा को हानि पहुंचाने वाला ही सिद्ध हुआ है। इसी प्रकार सायण, महीधर आदि मध्ययुगीन भारतीय पंडित भी अपनी कुछ गंभीर मिथ्या धारणाओं के कारण वेदों को यथार्थ रूप में व्याख्यायित करने में असफल रहे हैं।
१८. वेदों में सत्य में श्रद्धा और असत्य में अश्रद्धा रखने की प्रेरणा दी गई है। वेद हमें विद्या की वृद्धि और अविद्या का नाश करने के लिए तथा वैज्ञानिक चिंतन को जाग्रत करने के लिए प्रोत्साहित करते हैं। मूर्तिपूजा, अवतारवाद, अद्वैतवाद, पयगंबरवाद, मृतक-श्राद्ध, फलित ज्योतिष, जन्म आधारित जातिप्रथा, चमत्कारवाद, नास्तिकवाद इत्यादि वेदविरुद्ध होने से खंडनीय एवं त्याज्य हैं।
वेद ईश्वर की सत्ता में विश्वास रखते हैं और आस्तिकता के प्रचारक हैं। वेद नास्तिकता के विरोधी हैं। परन्तु संसार में कुछ व्यक्ति हैं जो ईश्वर की सत्ता को स्वीकार नहीं करते। वेद ऐसे लोगों की बुद्धि पर आश्चर्य प्रकट करता है और उनकी भर्त्सना करता है।
न तं विदाथ य इमा जजानाऽन्यद्युष्माकमन्तरं बभूव ।
नीहारेण प्रावृता जल्प्या चाऽसुतृप उक्थशासश्चयन्ति ।।
―(ऋ० १०/८२/७)
नीहारेण प्रावृता जल्प्या चाऽसुतृप उक्थशासश्चयन्ति ।।
―(ऋ० १०/८२/७)
भावार्थ― तुम उसको नहीं जानते जो इन सबको उत्पन्न करता है। तुम्हारा अन्तर्यामी तुमसे भिन्न है। किन्तु मनुष्य अज्ञान से ढके हुए होने के कारण वृथा जल्प करते हैं और बकवादी प्राण-मात्र की तृप्ति में लगे रहते हैं।
अब हम तर्क और सृष्टि-क्रम में आधार पर ईश्वर की सत्ता को सिद्ध करने का प्रयत्न करेंगे।
संसार और संसार के जितने पदार्थ हैं, वे परमाणुओं के संयोग से बने हैं, इस तथ्य को नास्तिक भी स्वीकार करता है। ये परमाणु संयुक्त कैसे हुए? नास्तिक कहता है कि ये परमाणु अपने-आप संयुक्त हुए। नास्तिक की यह धारणा मिथ्या है। परमाणुओं का संयोग अपने-आप नहीं हो सकता। संयोग करने वाली इस शक्ति का नाम परमात्मा है। जैसे सृष्टि और सृष्टि के पदार्थों के निर्माण के लिए परमाणुओं का संयोग होता है, वैसे ही वियोग भी होता है। परमाणुओं का यह वियोग अपने-आप नहीं होता। इन परमाणुओं के वियोग करने वाला भी परमात्मा ही है। जड़ और बुद्धिशून्य परमाणुओं में अपने-आप संयोग कैसे हो हो सकता है? इन जड़ परमाणुओं में इतना विवेक कैसे उत्पन्न हुआ कि उन्होंने अपने-आप को विभिन्न पदार्थों में परिवर्तित कर लिया?
यदि यह कहा जाए कि प्रकृति के नियमों एवं सिद्धान्तों से ही संसार की रचना हो जाती है, तो प्रश्न यह है कि जड़ प्रकृति में नियम और सिद्धान्त किसने लागू किए? नियमों के पीछे कोई-न-कोई नियामक होता है। इन नियमों और सिद्धान्तों के स्थापित करने वाली सत्ता का नाम परमेश्वर है।
संसार की वस्तुएँ एक-दूसरे की पूरक हैं। उदाहरणार्थ―हम दूषित वायु छोड़ते हैं, वह पौधों और वृक्षों के काम आती है; और पौधे एवं वृक्ष जिस वायु को छोड़ते हैं वह मनुष्यों के काम आती है। इस प्रक्रिया के कारण संसार नरक होने से बच जाता है। किसने वस्तुओं का यह पारस्परिक सम्बन्ध स्थापित किया है? वस्तुओं के पारस्परिक सम्बन्ध को स्थापित करने वाली शक्ति का नाम ईश्वर है।
विज्ञान और आस्तिकता में कोई विरोध नहीं। विज्ञान जिन नियमों की खोज करता है, उन नियमों को स्थापित करने वाली ज्ञानवान् सत्ता का नाम ही तो ईश्वर है। यदि विकास के कारण ही सृष्टि-रचना को माना जाए तो विकास का कारण कौन है? डार्विन के पितृ-नियम, अर्थात् एक वस्तु से उसी के समान वस्तु का उत्पन्न होना, परिवर्तन का नियम अर्थात् उपयोग तथा अनुपयोग के कारण वस्तुओं में परिवर्तन, अधिक उत्पत्ति का नियम और योग्यतम की विजय―यदि इन चारों नियमों को भी सत्य माना जाए तो प्रश्न यह है कि नियमों को स्थापित करने वाला कौन है?
वैज्ञानिक, धातुओं का आविष्कार तो करता है, परन्तु उनका निर्माण नहीं करता। उनका निर्माण करने वाली कोई और शक्ति है जिसे परमात्मा कहते हैं। इसी प्रकार वैज्ञानिक, सृष्टि में विद्यमान नियमों की खोज करता है; वह नियमों का निर्माता नहीं है। इन नियमों का निर्माता एवं स्थापितकर्त्ता परमात्मा है।
संसार में सोना, चाँदी, लोहा, सीसा, कांस्य, पीतल आदि अनेक धातुएँ पाई जाती हैं। हीरे, मोती, जवाहर आदि अनेक बहुमूल्य रत्न पाए जाते हैं। ये सब ईश्वर के द्वारा बनाए गए हैं; किसी मनुष्य के द्वारा नहीं बनाए गए।
इस ब्रह्माण्ड की असीम वायु, अनन्त जल, पृथिवी, सूर्य, चन्द्रमा, नक्षत्र―ये सब किसी महान् सत्ता का परिचय दे रहे हैं। आस्तिक इसी महान् सत्ता को ईश्वर के नाम से पुकारता है।
फल-फूल, वनस्पतियों और ओषधियों के संसार को देखकर भी मनुष्य को बहुत आश्चर्य होता है। गुलाब के पौधे वा नीम की पत्तियाँ देखने में कितनी सुन्दर लगती हैं। उनके किनारे बिना मशीन के एक-जैसे कटे होते हैं। गुलाब के फूल में सुन्दर रंग, मधुर मोहक सुगन्ध और उसके अन्दर इत्र का प्रवेश―ये किसी बुद्धिमान् कारीगर की कारीगरी को दिखा रहे हैं। अनार की अद्भुत रचना देखिए। ऊपर कठोर छिलका, छिलके के अन्दर झिल्ली, झिल्ली के अन्दर दानों का एक निश्चित क्रम में फँसा होना, दानों में सुमधुर रस का भरा होना, उन रसभरे दानों में छोटी-सी गुठली और गुठली में सम्पूर्ण वृक्ष को उत्पन्न करने की शक्ति। वट का विशाल वृक्ष और सरसों के बीज में एक विशाल वृक्ष का समाविष्ट होना, ये सब उस अद्भुत रचयिता को सिद्ध करते हैं।
चींटी से लेकर हाथी तक जीव-जन्तुओं की शरीर-रचना, वन्य-जन्तुओं के आकार और विभिन्न पक्षियों और कीट-पतंगों की रचना―ये सब किसके कारण है? क्या जड़ प्रकृति में इतनी सूझ-बूझ है कि वह विभिन्न आकृतियों का सृजन कर दे? ये विभिन्न शरीर-रचनाएँ परमपिता परमात्मा की ओर संकेत कर रही हैं।
इस समय धरती पर पाँच अरब व्यक्ति निवास करते हैं। सृष्टि के रचयिता की अद्भुत कारीगरी देखिए कि एक व्यक्ति की आकृति दूसरे व्यक्ति से नहीं मिलती।
इस संसार की विशालता भी आश्चर्यकारी है। ऐसा कहते हैं कि पृथिवी की परिधि २५ हजार मील है। पाँच अथवा छ: फुट लम्बे शरीरवाले मनुष्य के लिए यह परिधि आश्चर्यजनक है। पर्वत की विशालता भी कुछ कम आश्चर्यकारी नहीं―पत्थरों की एक विशाल राशि, जिसके आगे मनुष्य तुच्छ प्रतीत होता है। समुद्र की विशालता को लीजिए। कितनी अथाह-जलराशि होती है। सूर्य पृथिवी से १३ लाख गुणा बड़ा है। पृथिवी की परिधि आश्चर्यकारी है, परन्तु पृथिवी से १३ लाख गुणा बड़ा सूर्य विशालता की दृष्टि से क्या कम विस्मयकारी है? और फिर सूर्य के समान ब्रहाण्ड में करोड़ों सूर्य हैं। क्या यह संसार किसी अद्भुत रचयिता की ओर संकेत नहीं कर रहा है?
जहाँ संसार की विशालता आश्चर्यकारी है, वहाँ सृष्टि की सूक्ष्मता भी कम विस्मयकारी नहीं। बड़े-से-बड़े हाथी को देखकर जहाँ आश्चर्य होता है, वहाँ चींटी-जैसे सूक्ष्म प्राणियों को देखकर भी विस्मय होता है। संसार की यह सूक्ष्मता भी किसी रचयिता की ओर संकेत कर रही है।
कुछ लोग कहते हैं कि यह संसार अकस्मात् बना है। कोई भी घटना पूर्व-परामर्श अथवा पूर्व-प्रबन्ध के बिना नहीं होती। बाजार में दो व्यक्तियों का अकस्मात् मिलन उनकी इच्छा-शक्ति से प्रेरित होकर किसी उद्देश्य के लिए घर से निकलने का परिणाम है। अकस्मात् वाद का आश्रय लेकर यदि कोई कहे कि देवनागरी के अक्षरों को उछालते रहने से 'रामचरित मानस' की रचना हो जाएगी तो उनकी यह कल्पना असम्भव है। 'रामचरित मानस' की रचना के पीछे किसी ज्ञानवान् चेतन सत्ता की आवश्यकता है।
कुछ लोग कहते हैं कि संसार का बनाने वाला कोई नहीं। जो कुछ बनता है वह नेचर अथवा कुदरत से बनता है। प्रश्न यह है कि नेचर अथवा कुदरत किसे कहते हैं? यदि नेचर का अर्थ सृष्टिनियमों से है तो सृष्टियों का कोई नियामक चाहिए। कुदरत अरबी भाषा का शब्द है। इसका अर्थ है सामर्थ्य। सामर्थ्य, बिना सामर्थ्यवान् के टिक नहीं सकता। सामर्थ्यवान् कोई चेतन सत्ता ही हो सकती है।
स्वभाववादी, स्वभाव से ही संसार को बना हुआ मानते हैं। किन्तु तथ्य यह है कि यदि परमाणुओं में मिलने का स्वभाव होगा तो वे अलग नहीं होंगे, सदा मिले रहेंगे। यदि अलग रहने का स्वभाव है तो परमाणु मिलेंगे नहीं; सृष्टि-रचना नहीं हो पाएगी। यदि मिलने वाले परमाणुओं की प्रबलता होगी तो वे सृष्टि को कभी बिगड़ने नहीं देंगे। यदि अलग-अलग रहने वाले परमाणुओं की प्रबलता होगी तो सृष्टि कभी नहीं बन पाएगी। यदि बराबर होंगे तो सृष्टि न बन पाएगी, न बिगड़ेगी।
जैनी ऐसी शंका करते हैं कि ईश्वर तो क्रियाशून्य है, अत: वह जगत् को नहीं बना सकता। वे इस यथार्थ को भूल जाते हैं कि क्रिया की आवश्यकता एकदेशीय कर्त्ता को पड़ती है। जो परमात्मा सर्वदेशी है उसे क्रिया की आवश्यकता ही नहीं होती। वह सर्वव्यापक होने से ही संसार की रचना करने में समर्थ होता है, जैसे शरीर में आत्मा के स्थित होने के कारण शरीर सब प्रकार की चेष्टाएँ करता है।
जब परमात्मा आनन्दस्वरुप है तो वह आनन्द छोड जगत् के प्रपंच में क्यों फँसता है?―यह बात निर्मूल है क्योंकि, प्रपंच में फँसने की बात एकदेशी पर लागू होती है, सर्वदेशी पर नहीं।
साभार―
["वैदिक धर्म का स्वरुप" पुस्तक से, लेखक-प्रा० रामविचार]
["वैदिक धर्म का स्वरुप" पुस्तक से, लेखक-प्रा० रामविचार]
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