*कर्मों के प्रकार।*
मूल रूप से कर्म दो प्रकार के होते हैं, और विस्तार से चार प्रकार के।
मूल दो प्रकार ये हैं -- निष्काम कर्म और सकाम कर्म।
1- *निष्काम कर्म उन्हें कहते हैं , जो शुभ कर्म मोक्ष प्राप्ति के उद्देश्य से किए जाते हैं।* जैसे वेद आदि उत्तम शास्त्र पढ़ना पढ़ाना, ईश्वर का ध्यान करना, सत्य बोलना, सेवा करना परोपकार करना, दान देना इत्यादि ।
2- सकाम कर्म - *और जो शुभ अशुभ कर्म सांसारिक सुख (धन सम्मान प्रसिद्धि आदि प्राप्त करने) के उद्देश्य से किए जाते हैं, वे सकाम कर्म कहलाते हैं।*
ये सकाम कर्म तीन प्रकार के होते हैं।
(1) शुभ (2) अशुभ और (3) मिश्रित।
1- शुभ कर्म - जिन कर्मों के करने से अपना भी सुख बढ़े, और दूसरों का भी। और वेदों में उनके करने का विधान किया हो, वे शुभ कर्म कहलाते हैं।
जैसे यज्ञ करना, वेदप्रचार करना, ईश्वर की उपासना करना, किसी रोगी की सेवा करना, किसी समाज सेवा के कार्य में दान देना, सत्य बोलना, मीठा बोलना, अच्छा सुझाव देना, शाकाहारी भोजन खाना आदि।
2- अशुभ कर्म - जिन कर्मों के करने से अपना भी दुख बढ़े, और दूसरों का भी। और वेदों में उनके करने का निषेध किया हो, वे अशुभ कर्म कहलाते हैं। जैसे चोरी करना, लूटमार करना, हत्या करना,कठोर बोलना, बिना प्रसंग के बोलना, निंदा चुगली करना, या गालियाँ देना, अंडे मांस खाना, शराब आदि नशीले पदार्थों का सेवन करना आदि।
3- मिश्रित कर्म - जिन कर्मों के करने से अपना और दूसरों का कुछ सुख बढ़े और कुछ दुख बढ़े, और वेदों में उनके करने का विधान भी किया हो, वे मिश्रित कर्म कहलाते हैं। जैसे खेती करना, व्यापार करना, किसी को दुखी होकर भोजन खिलाना, या दुखी मन से माता पिता की सेवा करना आदि।
खेती व्यापार और दुखी होकर भोजन खिलाना इत्यादि कर्मों में कुछ पाप और कुछ पुण्य दोनों मिले-जुले रहते हैं। इससे कुछ सुख भी मिलता है, तथा थोड़ा दुख भी मिलता है। इसलिए इनको मिश्रित कर्म कहा जाता है।
इस प्रकार से ये सब मिलाकर चार प्रकार के कर्म (निष्काम, शुभ, अशुभ और मिश्रित) वेद आदि शास्त्रों में बताए हैं ।
*विशेष सूचना* -- एक ही शुभ कर्म, सकाम भी हो सकता है और निष्काम भी। कैसे?
*उस शुभ कर्म को करते समय मन में जो आपकी भावना होगी, उस भावना से उसका निर्णय होगा, कि आपने जो कर्म किया है, वह निष्काम है, या सकाम है।*
जैसी की परिभाषा ऊपर लिखी है, यदि वही शुभ कर्म आप मोक्ष प्राप्ति की भावना से करते हैं, जैसे विद्या पढ़ाना , वेद प्रचार करना, दान देना इत्यादि , तो यह शुभकर्म, निष्काम कर्म कहलाएगा ।
और यदि यही शुभ कर्म विद्या पढ़ाना , वेद प्रचार करना, दान देना इत्यादि, आप सांसारिक सुख प्राप्ति की भावना से करेंगे, तो यही शुभ कर्म, सकाम कर्म बन जाएगा।
कर्म वही रहेगा, केवल भावना बदल जाएगी। भावना बदल जाने से कर्म की कोटि भी बदलेगी , और उसका फल भी बदलेगा। निष्काम कर्म का फल मोक्ष में आनंद मिलेगा। और सकाम कर्म का फल सांसारिक सुख दुख मिलेगा। अर्थात् संसार में जन्म लेकर सुख दुख भोगने होंगे।
(भावना से कर्म कैसे बदलता है, और उसका फल कैसे बदलता है, इसका एक उदाहरण इस प्रकार से है।
एक सैनिक 4 शत्रुओं को मारता है , उसकी भावना अच्छी है , देश की रक्षा करने की है, इसलिए वह *शुभ कर्म* माना जाता है, और इसका उसे प्रशासन की ओर से पुरस्कार भी मिलता है।
एक आतंकवादी 4 नागरिकों को मार देता है। उसकी भावना बुरी है, वह देश में आतंक फैलाना चाहता है, इसलिए वह *अशुभ कर्म* माना जाता है, और उसे प्रशासन की ओर से दंड भी मिलता है।)
सकाम कर्मों में जो शुभ कर्म हैं, केवल वे ही भावना बदल जाने से निष्काम कर्म के रूप में परिवर्तित हो सकते हैं , अशुभ कर्म और मिश्रित कर्म कभी भी निष्काम नहीं बन सकते। क्योंकि अशुभ कर्म और मिश्रित कर्म का फल तो दुख, या सुख दुख मिला जुला, ही होगा। जैसा कर्म, वैसा फल। अशुभ कर्म और मिश्रित कर्म का फल मोक्ष कभी नहीं होता। क्योंकि मोक्ष तो सदा शुभ कर्मों से ही मिलता है, वह तो शुभ कर्मों का ही फल है। इसलिए केवल सकाम शुभ कर्मों को ही निष्काम कर्म के रूप में परिवर्तित किया जा सकता है।
तो सारी चर्चा का सार -- यह हुआ कि हमें सबसे पहले (1) निष्काम कर्म करने का प्रयत्न करना चाहिए, ताकि जल्दी से जल्दी मोक्ष प्राप्त हो जाए।
(2) यदि इतनी योग्यता न हो, और सकाम कर्म भी करें, तो शुभ कर्म ही करने चाहिएँ। साथ साथ अपनी योग्यता बढ़ाते हुए, थोड़े थोड़े निष्काम कर्म करने का प्रयत्न भी करना चाहिए।
(3) इतनी भी योग्यता न हो, तो और कम योग्यता वाले लोग, मिश्रित कर्म करते हुए अपनी योग्यता को बढ़ाएँ। और धीरे-धीरे वे शुभ कर्म और निष्काम कर्म करने की क्षमता प्राप्त करें, फिर वैसे ही कर्म करें।
(4) अशुभ कर्म तो बिल्कुल नहीं करने चाहिएँ। क्योंकि वेद आदि शास्त्रों में तो इनके करने का निषेध ही है। यदि फिर भी चोरी डकैती लूटमार धोखा अन्याय रिश्वतखोरी आदि अशुभ कर्म करेंगे, तो पशु पक्षी वृक्षादि योनियों में जाना पड़ेगा और बहुत भयानक दंड या दुख भोगना पड़ेगा।
ईश्वर आप सबको विद्या बुद्धि शक्ति देवे, कि आप इस कर्म फल व्यवस्था को समझकर अपनी तथा सबकी उन्नति करें। और अपने जीवन को पवित्र बनाते हुए शीघ्र ही अपने अंतिम लक्ष्य मोक्ष को प्राप्त करें। आप सबका शुभ हितैषी -----
✍लेखक -- स्वामी विवेकानंद परिव्राजक
सुख दुख का कारण मनुष्य के कर्म (काम या कार्य) हैं, ग्रह नहीं। मनुष्य जैसा काम करता है वैसा ही फल पाता है। ऐसा काम जिससे किसी का भला हुआ हो उसके बादले में ईष्वर की व्यवस्था से सुख प्राप्त होता है और ऐसा काम जिससे किसी का बुरा हुआ हो उसके बदले में मनुष्य को दुख मिलता है। ईष्वर पूर्ण रूप से न्यायकारी है। वह किसी की सिफारिष नहीं मानता। वह रिष्वत नहीं लेता। उसका कोई एजेंट या पीर, पैगम्बर या अवतार नहीं है।
अच्छे और बुरे दोनों प्रकार के कामों का फल अलग अलग भोगना पड़ता है। वे एक दूसरे को काटकर बराबर नहीं करते। अच्छे और बुरे दोनों प्रकार के कामों का अलग अलग हिसाब रहता है। ऐसा नहीं है कि एक अच्छा काम कर दिया और एक उतना ही बुरा काम कर दिया ओर वे बराबर होकर कट गए और हमें कोई फल न मिले। दोनों का अलग अलग फल भोगना पड़ता है। अच्छे और बुरे कामों के फलस्वरूप सुख और दुख साथ साथ भी चल सकते हैं। कुछ अच्छे कामों का फल हम भोग रहे हैं, साथ ही कुछ बुरे कार्यों का फल भी भोग रहे हैं।
मनुष्य जन्म में किए कामों के अनुसार ही आगे का जन्म मिलता है। अगर बुरे काम की बजाए अच्छे काम ज्यादा हों तो अगला जन्म मनुष्य का ही मिलता है। अगर बुरे काम ज्यादा हों तो अगला जन्म कामों के अनुसार पषु, पक्षी, कीड़ा, मकौड़ा आदि कुछ भी हो सकता है। यह बात सही नहीं है कि चैरासी लाख योनियों में से होकर ही मनुष्य जन्म फिर से मिलता है। हमारे सामने ऐसे बहुत से उदाहरण हैं जहां बच्चों को अपने पूर्व के जन्म का ज्ञान है और वे पूर्व जन्म में भी मनुष्य योनि में ही थे।
भाग्य या प्रारब्ध क्या है। मनुष्य जो भी अच्छा या बुरा काम करता है उसके बदले में उसके अनुसार उसे जो फल मिलता है वही उसका भाग्य है। इस प्रकार अपना भाग्य मनुष्य खुद बनाता है, कोई और नहीं। कोई भी किसी दूसरे का भाग्य न बना सकता है और न ही बिगाड़ सकता है। किसान ने खेती करके जो फसल घर में लाकर रखली वह उसका भाग्य है, उसकी अपनी मेहनत का फल।
किसी भी अच्छे या बुरे काम का फल षासन-प्रषासन भी दे सकता है। अगर षासन-प्रषासन न दे तो ईष्वर तो देता ही है। कोई भी कर्म बिना फल के नहीं रहता।
जैसे माता पिता अपनी सन्तानों को बुरे कार्यों से हटाकर अच्छे कामों में लगाने की कोषिष करते हैं वैसे ही ईष्वर भी करता है। जब मनुष्य कोई बुरा काम करने लगता है तब उसे अन्दर से भय, षंका, लज्जा महसूस होती है और जब वह कोई अच्छा काम करने लगता है उसे आनन्द, उत्साह, अभय, निषंका महसूस होती है। ये दोनों प्रकार की भावनाएं ईष्वर की प्ररेणा होती हैं।
मनुष्य कुकर्म क्यों करता है। अविद्या अर्थात मान लेना कि कुकर्म के फल से बचने का उपाय कर लेंगे तथा राग, द्वेष और लालच के कारण ही मनुष्य कुकर्म कर बैठता है।
अथर्ववेद (12-3-48) - कर्म का फल करने वाले को ही मिलता है। इसमें किसी और का सहारा नहीं होता, न मित्रों का साथ मिलता है। कर्म फल प्राप्ति में कमी या अधिकता नहीं होती। जिसने जैसा कर्म किया उसको वैसा ही और उतना ही फल मिलता है।
महाभारत में युद्ध की समाप्ति पर गन्धारी श्री कृष्ण से कहती है - निष्चय ही पूर्व जन्म में मैंने पाप कर्म किए हैं जो मैं अपने पुत्रों, पौत्रों और भाईयों को मरा हुआ देख रही हूँ।
महाभारत में ही षान्ति पर्व में कहा गया है - जैसे बछड़ा हजारों गउÿओं के बीच में अपनी माँ के पास ही जाता है ऐसे ही कर्म फल कर्म के करने वाले के पास ही जाता है।
महाभारत में ही षान्ति पर्व में कहा गया है - जैसे बछड़ा हजारों गउÿओं के बीच में अपनी माँ के पास ही जाता है ऐसे ही कर्म फल कर्म के करने वाले के पास ही जाता है।
मनुस्मृति (4-240) - जीव अकेला ही जन्म और मरण को प्राप्त होता है। अकेला ही अच्छे कर्मों का फल सुख और बुरे कामों की फल दुख के रूप में भोगता है।
ब्रह्मवैवत्र्त पुराण (प्रकृति 37-16) - करोड़ों कल्प बीत जाने पर भी बिना कर्म फल को भोगे उनसे छुटकारा नहीं मिल सकता।
चाणक्य नीति - किए हुए अच्छे और बुरे कर्मों का फल अवष्य भोगना पड़ता है।
गीता (5-15) - हमारे सुखों और दुखों के लिए परमात्मा उत्तरदायी नहीं है, बल्कि हमारे अच्छे और बुरे कर्म उत्तरदायी हैं। अज्ञानता के कारण हम अपने सुख दुख के लिए परमात्मा को उत्तरदायी ठहराते हैं, जबकि वह न हमारे पापों के लिए जिम्मेदार है और न ही पुण्यों के लिए जिम्मेदार है।
वाल्मीकि रामायण (युद्ध काण्ड 63-22) - रावण के मारे जाने के बाद जब हनुमान लंका में सीता को राम की विजय का समाचार सुनाने गए तब सीता ने हनुमान से कहा - मैंने यह सब दुख पूर्व जन्म में किए हुए कामोें के कारण ही पाया है क्यांेकि अपना किया हुआ ही भोगा जाता है।
वाल्मीकि रामायण (अरण्य काण्ड 35-17,18,19,20) - सीताहरण के पष्चात श्री राम सीता के वियोग में विलाप करते हुए कहते हैं - हे लक्ष्मण! मैं समझता हूँ इस सारी भूमि पर मेरे समान बुरे काम करने वाला पापी पुरुष और कोई नहीं है क्योंकि एक के पष्चात एक दुखों की परस्परा मेरे हृदय और मन को चीर रही है। पूर्व जन्म में निष्चय ही मैंने एक के पष्चात एक बहुत से पाप किए हैं। उन्हीं पापों का फल आज मुझे मिल रहा है। राज्य हाथ से छिन गया, अपने लोगों से वियोग हो गया, पिता जी परलोक सिधार गए, माता जी से बिछोड़ा हो गया। इन घटनाओं को याद करके मेरा हृदय षोक से भर जाता है। है लक्ष्मण, ये सारे दुख इस रमणीक वन में आने पर षान्त हो गए थे। परन्तु आज सीता के वियोग से वे सभी भूले हुए दुख उसी प्रकार फिर से ताजा हो गए हैं जैसे लकड़ी डालने से आग जल उठती है।
पष्चाताप (मनुस्मृति 11-230) - पाप कर्म होने पर उस पर पष्चाताप करके मनुष्य उस पाप भावना से छूट जाता है। फिर वह पाप कर्म नहीं करता। यही पष्चाताप का फल है। जो कर चुका उसका फल तो भोगना ही पड़ेगा। किए कर्म के फल से बचने का षास्त्रों में कहीं कोई उपाय नहीं बताया। पाप का फल अवष्य मिलेगा यह सोचकर मनुष्य को पाप कर्म नहीं करना चाहिए।
कुकर्म से बचने के उपाय - अपने आप को ईष्वर के साथ जोड़ने से मनुष्य पाप कर्म से बच सकता है। यह जानकर कि ईष्वर हर समय मेरे साथ है, मेरे सभी कामों को देखता है तथा उसके अनुसार मुझे फल भी देता है मनुष्य दुष्कर्म से बच सकता है।
महाभारत - धर्म का सर्वस्व जानना चाहते हो तो सुनो। दूसरों का जो व्यवहार आपको अपने प्रतिकूल (विरुद्ध) लगता है अर्थात दूसरों का जो व्यवहार आपको पसन्द नहीं वैसा व्यवहार आप दूसरों के साथ मत करो।
जैसे अग्नि अपने पास आई लकड़ी को जला देती है ऐसे ही वेद का ज्ञान मनुष्य में पाप की भावना को जला देता है अर्थात वेद के स्वाध्याय से मनुष्य में पापकर्म करने की भावना समाप्त हो जाती है।
यजुर्वेद (40,3) - जो मनुष्य अपनी आत्मा का हनन करते हैं अर्थात मन में और जानते हैं, वाणी से और बोलते हैं और करते कुछ ओर हैं, वे ही मनुष्य असुर (दैत्य, राक्षस, पिषाच आदि) हैं। वे कभी भी आनन्द को प्राप्त नहीं करते। जो आत्मा, मन, वाणी और कर्म से कपट रहित एक सा आचरण करते हैं वे ही देवता हैं, वे इस लोक और परलोक मंे सुख भोगते हैं।
यजुर्वेद (40,3) - जो मनुष्य अपनी आत्मा का हनन करते हैं अर्थात मन में और जानते हैं, वाणी से और बोलते हैं और करते कुछ ओर हैं, वे ही मनुष्य असुर (दैत्य, राक्षस, पिषाच आदि) हैं। वे कभी भी आनन्द को प्राप्त नहीं करते। जो आत्मा, मन, वाणी और कर्म से कपट रहित एक सा आचरण करते हैं वे ही देवता हैं, वे इस लोक और परलोक मंे सुख भोगते हैं।
सत्यमेव जयते नानृतं, सत्येन पन्था विततो देवयानः। - सत्य की ही जीत होती है, झूठ की नहीं। सत्य पर चलकर ही मनुष्य देवता बनता है। ऋृिष लोग सत्य पर चलकर ही परमात्मा को पाकर आनन्द प्राप्त करते हैं।
ईष्वर की न्याय व्यवस्था में जो किसी का जितना भला करेगा उसको उतना ही सुख मिलेगा और जितना किसी का बुरा करेगा उतना ही उसे दुख मिलेगा। इस प्रकार सत्य और पक्षपात रहित न्याय का आचरण तथा परोपकार के कार्य ही सुख रूप फल देने वाले हैं।
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