आत्मा साकार या निराकार - ধর্ম্মতত্ত্ব

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স্বাগতম

18 June, 2020

आत्मा साकार या निराकार

आत्मा के साकार या निराकार पर विवाद

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प्रिय आर्यजनो!

पिछले दिनों मेरे पास कई युवकों के फोन आये कि जीवात्मा साकार है वा निराकार है? इस पर मैंने उन्हें यही कहा कि मैं इन विषयों पर विवाद करने वालों की भाँति खाली नहीं बैठा हूँ। आज हमारे विद्वानों को इस बात की कोई चिन्ता नहीं कि हम लगभग 150 वर्षों में वेद को संसार में तो दूर, बल्कि अपने परिवार में भी प्रतिष्ठित नहीं कर पाये और न उसे समझ नहीं पाये। ब्राह्मण ग्रन्थ, निरुक्त व उपनिषदों के रहस्य भी समझने का पूर्ण प्रयत्न नहीं हुआ। आर्य समाज के तृतीय नियम को अंशमात्र भी सिद्ध नहीं कर पाये, अपने बच्चों व स्वयं को भी पाश्चात्य शिक्षा, विशेषकर विज्ञान का दास बनने से नहीं रोक पाये, ईसाहयत व इस्लाम के आक्रमणों का उत्तर भी केवल आदरणीय पण्डित महेन्द्रपाल जी आर्य एवं 2-4 युवा ही (प्रिय राहुल आर्य, प्रिय अंकुर आर्य, प्रिय सन्दीप आर्य आदि) अपने स्वयं के बल पर ही दे रहे हैं।

सांख्य दर्शन सूत्र से जीवात्मा की सिद्धि acharya agnivrat naishthik

{भाग - 2 सांख्य दर्शन सूत्र से जीवात्मा की सिद्धि | A Agnivrat - YouTube}👈

जीवात्मा की सिद्धि । भाग - 2 । A Agnivrat - YouTube👈

नास्तिकता के प्रहार का उत्तर देने वाला कोई दिखाई नहीं दे रहा, तब आत्मा के साकार व निराकार होने पर विवाद करने में समय नष्ट क्यों कर रहे हैं। जो शरीर में आत्मा और सृष्टि में परमात्मा को नहीं मानते, उन्हीं से पहले शास्त्रार्थ करके देख लें। इनमें से प्रायः अधिकांश आत्म साक्षात्कार का प्रयास करना तो दूर, बल्कि संध्या भी मन लगाकर नहीं करते होंगे परन्तु अपनी-2 प्रतिष्ठा के प्रश्न को लेकर आपस में लड़ रहे हैं। जो आज शास्त्रार्थ की बात कर रहे हैं, वे पहले बतायें कि उन्होंने किस-2 से किस-2 विषय पर अब तक शास्त्रार्थ किया है? कौन-2 से शास्त्र समझ लिये हैं। सत्यार्थ प्रकाश का आठवां समुल्लास भी कितना समझ लिया है, जो कोई मुझे शास्त्रार्थ की चुनौती देता है, वह इस बात को जान ले कि मेरी लेखनी ने 10-15 वर्ष विधर्मियों की लेखनी का उत्तर दिया है, जिनका कोई उत्तर नहीं देता था, उनसे मैंने ही लोहा लिया था। जो अभी बच्चे वा युवा हैं, वे 1992 से 2003-04 तक के सार्वदेशिक, दयानन्द सन्देश, परोपकारी, तपोभूमि आदि पत्रिकाओं में अंकों को देख सकते हैं। फिर मेरे लेखों को पढ़कर अपने जीवन के अब तक के कार्यों की तुलना करके देखें। जो मेरे इस समय के कार्य को जानना चाहते हैं, उन्हें बता दूँ कि जिस कार्य अर्थात् आर्य समाज के प्रथम व तृतीय नियम को वैज्ञानिकों के सामने सिद्ध करने के कार्य के विषय में आर्य समाज लगभग डेढ़ शताब्दी तक गम्भीरता से सोच भी नहीं पाया, उसे मैेंने वैज्ञानिक जगत् में पहुंचाया है। जो वीडियो व आॅडियो बनाकर सत्यार्थ प्रकाश के वाक्यों को तोड़-मरोड़ कर प्रस्तुत करते हुए अपनी वैज्ञानिकता भी दर्शाने की चेष्टा कर रहे हैं, वे सृष्टि विज्ञान के संसार के महान् ग्रन्थ ऐतरेय ब्राह्मण के 285 खण्डों में से किसी एक खण्ड का भी भाष्य करके बता दें, तो मैं उनसे बडे़ प्रेम से वार्तालाप करने को उद्यत हो जाऊंगा। वे मेरे भाष्य ‘वेदविज्ञान-आलोकः’ के 10 पृष्ठ पढ़कर समझ भी लें, तब भी मान लूंगा, वे कुछ योग्य हैं, अन्यथा मेरे पास किसी से बातचीत करने का अवकाश नहीं है। मैं इस समय निरुक्त का वैज्ञानिक भाष्य कर रहा हूँ, जो संसार में उपलब्ध भाष्यों से सर्वथा विशिष्ट और विशालकाय होगा तथा वेद की प्रतिष्ठा को विश्व में फैलाने में मात्र यही भाष्य सक्षम होगा। मैंने तो वीडियो बना दिया, यही बहुत है, उस पर भी मुझे कई हितैषियों ने कहा, ‘‘आपका समय महत्वपूर्ण है, आप तो निरुक्त भाष्य में ही लगे रहें।’’ उनका परामर्श उचित है, इस कारण मैं इस विषय को यहीं समाप्त करता हूँ। जिन्हें जीवात्मा साकार मानना है, वे मानें। आदरणीय स्वामी विवेकानन्द जी परिव्राजक व प्रिय ब्रह्मचारी निशान्त आर्य के प्रश्नों का उत्तर दें। उनसे ही शास्त्रार्थ करें, क्योंकि वेद विरोधियों से शास्त्रार्थ करने की न तो आज इच्छा रही है और न योग्यता, तब अपनों से ही सही। अब मुझे कोई इस विषय में फोन न करे और न मुझसे कोई अपेक्षा करे। मेरे तो दोनों ही अपने हैं और दोनों मिलकर काम करें, यही इच्छा है। एक-दूसरे का सम्मान करें और शिष्ट भाषा का प्रयोग करें। यही सब का कर्तव्य है और रही बात शास्त्रार्थ की, तो पहले उनसे शास्त्रार्थ करने की योग्यता बनाएं और योग्यता है, तो उसका पूरा उपयोग करते हुए उनसे शास्त्रार्थ करें, जो न वेद को मानते, न किसी ऋषि मुनि को, न ईश्वर और जीव को और निरन्तर वैदिक धर्म और भारतीय संस्कृति को अपमानित करने में लगे हैं। इसके साथ ही अपने-2 परिवारों से वेद विरोधी पाश्चात्य नास्तिक शिक्षा और कुसभ्यता को दूर करने में अपनी शक्ति और योग्यता का उपयोग करें। यही हम सब के लिए सर्वोच्च कर्तव्य है, शेष विषयों पर चर्चा तो बाद में भी शान्ति से मिल बैठ कर की जाती हैै।

आचार्य अग्निव्रत नैष्ठिक
श्री वैदिक स्वस्ति पन्था न्यास
(वैदिक एवं आधुनिक भौतिकी शोध संस्थान)
भीनमाल, राजस्थान
दूरभाष: 02969-222103, 9829148400

जीवात्मा का स्वरूप क्या है? क्या जीवात्मा निराकार है? LEAVE A COMMENT आत्मा ‘अणु-स्वरूप’ मतलब बहुत सूक्ष्म होती है। आत्मा एक जगह रहती है। वह स्थान नहीं घेरती। जीवात्मा निराकार है। नियम सुन लीजिये। जो वस्तु चेतन होती है, वो निराकार होती है। ईश्वर चेतन है या जड़? चेतन। ईश्वर साकार है या निराकार? निराकार। ईश्वर चेतन है, ईश्वर निराकार है। जीवात्मा चेतन है या जड़? उत्तर है- चेतन है। तो वो भी निराकार है, जैसे ईश्वर। और यह प्रकृति जड़ है या चेतन? जड़। प्रकृति जड़ है, तो वो साकार है। दोनों नियम साफ हैं। जो वस्तु चेतन होती है, वो निराकार होती है। जो वस्तु जड़ होती है, वो साकार होती है। प्रकृति जड़ है, वो साकार है। ईश्वर और जीव चेतन हैं, वो दोनों निराकार हैं। मन, आदि जड़ होने के कारण सब साकार हैं। इनका आकार बहुत छोटा है। हम देख नहीं पाते, वो अलग चीज है। लेकिन हैं ये सब साकार। प्रकृति- (सत्त्व, रज, तम( वो भी जड़ हैं, वो भी साकार हैं। महर्षि दयानंद जी ने ‘सत्यार्थ-प्रकाश’ में लिखा है कि- साकार वस्तु से ही साकार वस्तु उत्पन्न हो सकती है। निराकार से साकार नहीं हो सकती। एक संदर्भ में लिखा है- जहाँ पर ये लोग मानते हैं, कि यह जगत ईश्वर का ही रूपांतर है, मतलब ईश्वर से ही यह जगत बना है, इस जगत का रॉ-मटेरियल ईश्वर है। इसके संदर्भ में महर्षि दयांनद जी ने लिखा, कि- ईश्वर साकार है या निराकार? यदि ईश्वर निराकार है, और जगत का उपादान कारण ईश्वर होवे, तो जगत भी निराकार होना चाहिये, परंतु जगत तो साकार है। इससे सि( हुआ, कि इसका रॉ-मटेरियल भी साकार है। जगत साकार है, यह प्रत्यक्ष है। इससे अनुमान हुआ, कि जो इसका उपादान कारण प्रकृति है, वो भी साकार है। उसी प्रकृति से- (साकार सत्, रज, तम से( ही मन, इन्द्रियाँ, बु(ि, शरीर आदि सब पदार्थ बने हैं। इसलिये मन, बु(ि, इन्द्रियाँ जड़ भी हैं, साकार भी हैं।

काफी लंबे समय से कुछ लोगों द्वारा, इस बात का प्रचार किया जा रहा है कि *आत्मा साकार है।* 
     हम उन्हें अनेक वर्षों से समझा रहे हैं, कि *आपका विचार ऋषियों के अनुकूल नहीं है।* फिर भी वे इतने हठी लोग हैं, कि अपना हठ छोड़ने को तैयार नहीं हैं, और सत्य को स्वीकार करने को तैयार नहीं हैं।

मुझे अनेक विद्वानों तथा श्रद्धालु व्यक्तियों ने प्रेरित किया, कि आप इस विषय में ऋषियों का विचार प्रस्तुत करें। उनके सुझाव का सम्मान करते हुए, सर्वहित के लिए मैं कुछ निवेदन कर रहा हूं।

ऐसे लोगों का यह कहना है कि--
 *आत्मा साकार है। एकदेशी होने से । जो जो वस्तु एकदेशी होती है, वह वह साकार होती है। जैसे स्कूटर कार इत्यादि । आत्मा भी एकदेशी है। इसलिए आत्मा भी साकार है।*

इन लोगों ने जो अपनी बात रखी है, इसमें इनका हेतु गलत है। हेतु का अर्थ है, अपनी बात को सिद्ध करने के लिए सही कारण बताना। इन्होंने जो कारण बताया, वह गलत है। न्यायदर्शन की भाषा में, गलत कारण को हेत्वाभास कहते हैं। इन्होंने जो कारण बताया है, *यह सव्यभिचार नामक हेत्वाभास है।* अर्थात् जो हेतु दोनों पक्षों में चला जाए, वह सव्यभिचार हेत्वाभास कहलाता है। (इसी को अनैकांतिक हेत्वाभास के नाम से भी कहते हैं।)
 इनका हेतु यह था कि *एकदेशी होने से, आत्मा साकार है।* यह हेतु गलत इसलिये है, क्योंकि यह हेतु दोनों पक्षों में जाता है। अर्थात् एकदेशी वस्तुएं भी साकार हैं, और व्यापक वस्तुएं भी साकार हैं। ऐसी वस्तुएं भी हैं, जो पूरे ब्रह्मांड में व्यापक हैं, फिर भी वे साकार हैं। जैसे प्रकृति। *सत्यार्थ प्रकाश के नौवें समुल्लास में महर्षि दयानंद सरस्वती जी ने प्रकृति को विभु अर्थात व्यापक लिखा है।*
महर्षि दयानंद जी के वचन ये हैं --
"तीसरा कारण (शरीर) जिस में सुषुप्ति अर्थात् गाढ़ निद्रा होती है, वह *प्रकृति रूप होने से सर्वत्र विभु और सब जीवों के लिए एक है।*"
तो एकदेशी होने से साकार नहीं हुआ, व्यापक होने पर भी वस्तुएँ साकार हैं। इसलिए इनका हेतु गलत है। हेतु गलत होने से इनका पक्ष सिद्ध नहीं होता, कि आत्मा साकार है।

दूसरी बात - इनको अपने पक्ष की सिद्धि में कोई शब्द प्रमाण देना चाहिए था। इन्होंने आत्मा को साकार सिद्ध करने के लिए एक भी शब्द प्रमाण नहीं दिया। न कोई वेदवचन दिया, न कोई ऋषिवचन दिया, जिससे सीधा या अर्थापत्ति से सिद्ध होता हो, कि आत्मा साकार है। इसलिए इनकी बात सिद्ध नहीं होती। अर्थात् आत्मा को साकार कहना उचित नहीं है। 

तीसरी बात -- एक वस्तु में अनेक गुण कर्म होते हैं । वे सभी गुण कर्म एक वस्तु में होते हुए भी, एक दूसरे को सिद्ध नहीं करते। क्योंकि उन सभी गुण कर्मों में, परस्पर साध्यसाधनभाव (कार्यकारणसंबंध) नहीं होता। यहां लोग गलती यह करते हैं, कि किसी भी गुण को लेकर किसी भी बात को वे सिद्ध करना चाहते हैं। जो कि साध्यसाधनभाव नियम के विरुद्ध है। 
जैसे एक उदाहरण --- 
एक मनुष्य संगीत कला जानता है। वह पाक विद्या भी जानता है। वह भोजन भी बनाता है। वह सैर भी करता है। कार भी चलाता है। वह सो भी जाता है। तो उसमें इस प्रकार से अनेक गुण कर्म होते हैं।।  
अब कोई यह कहे कि *क्योंकि यह मनुष्य संगीत कला जानता है , इस कारण से यह बहुत अच्छा भोजन बनाता है।*
तो अब आप सोचिए, *यह अच्छा भोजन बनाने का जो कारण संगीत कला को बताया गया है, क्या यह ठीक है? क्या संगीत कला जानना, भोजन बनाने का कारण है?* 
इस सरल सी बात को छोटा बच्चा भी समझ लेगा, कि यह कारण गलत है। भले ही उस मनुष्य में भोजन बनाने की कला भी है, संगीत कला भी है, और वह अच्छा भोजन बनाता भी है। फिर भी भोजन बनाना जो कार्य है, उसका कारण संगीत कला नहीं है। उसका कारण पाकविद्या है। 
ठीक इसी प्रकार से आत्मा में भी अनेक गुण कर्म हैं। वह एकदेशी भी है, निराकार भी है, चेतन भी है, यज्ञादि कर्म भी करता है, खाता पीता सोता भी है। परंतु इन सबका आपस में कारण कार्य संबंध नहीं है। क्योंकि जहां जहां आप कारणकार्यसंबंध बताएंगे, वहां वहां उनमें साध्यसाधनभाव होना चाहिए, जैसा ऊपर के उदाहरण में बताया गया है। 
तो जैसे संगीत कला से भोजन नहीं बनता, वैसे ही एकदेशी होने से साकार भी नहीं होता। *यदि एकदेशी होने से साकार होता, तो अर्थापत्ति प्रमाण से व्यापक होने से निराकार होना चाहिए। जबकि प्रकृति व्यापक है, तो भी साकार है।* इसलिए एकदेशी होना और साकार होना, इन दोनों में कारणकार्यसंबंध या साध्यसाधनभाव नहीं है। इसलिए आत्मा को, एकदेशी होने से साकार मानना गलत है।

चौथी बात --- हम यह कहते हैं कि चलिये, थोड़ी देर के लिए मान भी लिया जाए, कि आत्मा साकार है। तो ऐसा मानने से एक समस्या उत्पन्न होती है। और वह है, कि - *साकार होने का, जड़ होने के साथ साध्यसाधनभावहै। इसलिए जितनी भी साकार वस्तुएं होती हैं, वे सब जड़ होती हैं। जैसे सूर्य पृथ्वी स्कूटर कार इत्यादि। और जितनी भी चेतन वस्तुएं होती हैं, वे सब निराकार होती हैं। जैसे ईश्वर।*
*यदि आत्मा को भी साकार माना जाए, तो क्या आप उसे स्कूटर कार आदि के समान जड़ वस्तु भी मानेंगे?* 
          हमारे इस प्रश्न का उत्तर वे कुछ नहीं देते। जब वे कुछ उत्तर नहीं देते, तो *इस स्थिति को न्यायदर्शन में निग्रहस्थान के नाम से कहा जाता है , अर्थात जब व्यक्ति, विपक्षी के प्रश्न का उत्तर नहीं देता, तो इसका अर्थ है उसका पक्ष झूठ है, और बात यहीं खत्म हो जाती है।*

परंतु वे हठ पकड़ कर बैठे हैं, वे मानते नहीं।
और हमें कहते हैं, आप आत्मा को निराकार सिद्ध करें।

ठीक है, हम आत्मा को निराकार सिद्ध करते हैं। कि ----
*आत्मा निराकार है। चेतन होने से। जो जो वस्तु चेतन होती है, वह निराकार होती है। जैसे ईश्वर। आत्मा भी ईश्वर के समान चेतन है। इसलिए चेतन होने से आत्मा निराकार है।*
           हमारी इस बात के उत्तर में वे लोग चालाकी से ऐसा कहते हैं। *यदि आप आत्मा को निराकार मानेंगे, तो उसे सर्वव्यापक भी मानना पड़ेगा। क्योंकि जैसे चेतन ईश्वर सर्वव्यापक है, ऐसे चेतन आत्मा भी सर्वव्यापक होना चाहिए। अब आप आत्मा को सर्वव्यापक सिद्ध करें।*

वास्तव में यह उनकी चालाकी है। इस चालाकी को समझने के लिए आपको थोड़ा न्याय दर्शन का अध्ययन करना होगा। क्योंकि बातचीत करने के नियम और बातचीत करने में 54 प्रकार की गलतियाँ भी विस्तार से न्याय दर्शन में ही लिखे हैं।

(न्यायदर्शन में बातचीत करने के चार प्रकार बताए हैं। वाद, जल्प, वितंडा और शंका समाधान।

बातचीत के प्रथम प्रकार - वाद में दोनों पक्ष वाले अपने अपने पक्ष की स्थापना करते हैं। प्रमाण एवं तर्क से अपने पक्ष की सिद्धि और दूसरे का खंडन करते हैं। अपने सिद्धांत के विरुद्ध नहीं बोलते। और आवश्यकता पड़ने पर पंचावयव का प्रयोग भी करते हैं।
वाद का उद्देश्य सत्य असत्य की खोज करना है। यह शुद्ध बातचीत होती है। इसमें कोई झूठ छल कपट चालाकी बेईमानी नहीं की जाती। ईमानदार लोगों के लिए इसी प्रकार से बातचीत करने का विधान है।

दूसरा प्रकार है - जल्प। इसमें ऊपर बताए वाद के सारे नियम लागू होते हैं , तथा इसके अतिरिक्त इसमें झूठ छल कपट चलाकी बेईमानी सब कुछ किया जाता है। और इसका उद्देश्य होता है - अपनी बात को जैसे-तैसे जिताना और दूसरे को हराना, चाहे कितना भी छल कपट बेईमानी चालाकी आदि करनी पड़े। बातचीत का यह प्रकार अच्छा नहीं है। न्याय दर्शन में सत्य की खोज करने वालों के लिए इसका निषेध है।

बातचीत का तीसरा प्रकार है - वितंडा। इसमें जल्प के सारे नियम लागू होते हैं । बस अंतर इतना है कि वितंडा करने वाला व्यक्ति अपने पक्ष की स्थापना स्पष्ट रूप से नहीं करता , कि वह क्या मानता है? केवल दूसरे पक्ष पर आक्रमण ही करता जाता है। यह भी अच्छी बातचीत नहीं है । इसका उद्देश्य भी वही है जो जल्प का है। न्याय दर्शन में सत्य की खोज करने वालों के लिए इसका भी निषेध है।
सत्य की खोज करने वाले सज्जन लोगों के लिए न्याय दर्शन में बताया है कि वे केवल वाद का ही प्रयोग करें । जल्प और वितंडा से बचें। क्योंकि वह शुद्ध बातचीत नहीं है।

बातचीत का चौथा प्रकार - शंका समाधान है। उसमें एक व्यक्ति नम्रता और जिज्ञासा भाव से प्रश्न पूछता जाता है, और दूसरा व्यक्ति भी सत्य को समझाने के उद्देश्य से उसका उत्तर देता जाता है। उसमें वादी प्रतिवादी बनकर बातचीत नहीं की जाती। केवल जिज्ञासा भाव से प्रश्नोत्तर किए जाते हैं। अस्तु।)

अब हम विवादित विषय के संबंध में पुनः विनम्र निवेदन करते हैं। जिन लोगों ने यह सिद्धांत चलाया है कि *आत्मा साकार है*, वे लोग न्याय दर्शन में कुशल नहीं हैं। न तो उन्होंने न्याय दर्शन का अध्ययन ठीक प्रकार से किया है। और न ही उन्हें वाद करना आता है। 
वे वाद नहीं कर रहे। जिससे बातचीत करनी चाहिए। क्योंकि यह बातचीत का शुद्ध प्रकार है।
बल्कि वे लोग जल्प का प्रयोग कर रहे हैं। जिसका निषेध है। क्योंकि इसमें झूठ छल कपट चालाकी का प्रयोग होता है।

तो न्याय दर्शन में बताया है, कि जल्प और वितंडा में बोलने में व्यक्ति 54 प्रकार की गलतियां करता है। 
उनमें से 24 प्रकार की जातियां (चालाकी) हैं.
22 प्रकार के निग्रहस्थान (बात का उत्तर गलत देना या चुप रहना) हैं.
 3 प्रकार का छल (वक्ता के अभिप्राय को तोड़ मरोड़ कर उसका खंडन करना) है.
और 5 प्रकार के हेत्वाभास (गलत कारण बताना) हैं. 
ये कुल मिलाकर 54 प्रकार की गलतियां होती हैं, जो न्याय दर्शन में बताई गई हैं। ( चालाक और बेईमान लोग जल्प और वितंडे में इस प्रकार की 54 में से कुछ गलतियां करते हैं। वाद में इनका प्रयोग नहीं किया जाता।)

  इन लोगों ने इन गलतियों में से जो गलती की है, वह है जाति = चालाकी = धोखाधड़ी। जिस कारण से उन्होंने सब लोगों में यह भ्रांति फैला दी, कि *आत्मा साकार है*.  

आप इसे पढ़ना चाहें तो न्याय दर्शन के पांचवें अध्याय में प्रथम आह्निक के सूत्र संख्या 4 में पढ़ सकते हैं। वहां पर एक जाति का नाम है, *उत्कर्षसमा जाति।*

इनके कथन में उत्कर्षसमा जाति का प्रयोग है।
 ये लोग जो कह रहे हैं कि *यदि आत्मा ईश्वर के समान निराकार है, तो वह ईश्वर के समान सर्वव्यापक भी होना चाहिए.* 

इसमें जाति मतलब चालाकी या धोखाधड़ी यह है, कि जो दृष्टांत ईश्वर का दिया गया है, उस दृष्टांत की एक विशेषता = व्यापकता को, साध्य अर्थात जीवात्मा में बढ़ा करके दिखलाना, यह *उत्कर्षसमा जाति* है।
उन्होंने यही आरोप लगाया है , कि
*दृष्टांत = ईश्वर के तुल्य, साध्य =आत्मा भी सर्वव्यापक होना चाहिए*. 
 यह उत्कर्षसमा जाति का प्रयोग है। चालाकी से सत्य का खंडन किया जा रहा है। जो कि ईमानदारी नहीं, बल्कि धोखाधड़ी है।

इसलिये इसे शुद्ध बातचीत नहीं कहा जा सकता।
 यदि आपकी इच्छा हो, तो न्याय दर्शन में अध्याय 5, आह्निक 1, सूत्र 4 में देख लीजिए। बुद्धिमानों को समझ में आ जाएगा, कि वास्तव में यह चालाकी से सत्य का खंडन किया जा रहा है। यह ईमानदारी नहीं है।

जीवात्मा साकार नहीं है; ~स्वामी विवेकानंद जी परिव्राजक 


अब *आत्मा निराकार है।* इस विषय में महर्षि दयानंद सरस्वती जी के प्रमाण प्रस्तुत किए जाते हैं।

प्रमाण -- 1.
महर्षि दयानंद सरस्वती जी ने पूना में कुछ प्रवचन किए थे । उन प्रवचनों की पुस्तक बनी, जिसे लोग "उपदेश मंजरी" के नाम से जानते हैं। उन प्रवचनों में उन्होंने *प्रथम उपदेश* में कहा कि *जीवात्मा निराकार है।* उनके शब्द इस प्रकार से हैं।
*क्योंकि शरीर स्थित जो जीव है, वह भी आकार रहित है। यह सब कोई मानते हैं, अर्थात वैसा आकार न होते हुए भी हम परस्पर एक-दूसरे को पहचानते हैं।*
इस वचन में महर्षि दयानंद सरस्वती जी ने स्पष्ट ही जीवात्मा को आकार रहित अर्थात् निराकार स्वीकार किया है । फोटो संलग्न है।

प्रमाण -- 2. 
इसी प्रकार से *उपदेश मंजरी के चतुर्थ उपदेश* में भी कहा है। वहां उनके वचन इस प्रकार से हैं।
*जीव का आकार नहीं, तो भी जीव का ध्यान होता है वा नहीं? ज्ञान सुख-दुख इच्छा द्वेष प्रयत्न ये नष्ट होते ही जीव निकल जाता है, यह किसान भी समझता है।*
इस वचन में भी महर्षि दयानंद जी ने जीव को आकार रहित अर्थात् निराकार ही माना है। फोटो संलग्न है।

प्रमाण -- 3. 
महर्षि दयानंद सरस्वती जी का एक हस्तलिखित पत्र का फोटो भी मैं प्रस्तुत कर रहा हूं। उनके पत्रों की कोई पुस्तक छपी होगी । उसका फोटो भी मैं भेज रहा हूं । उस पत्र में भी उन्होंने स्वीकार किया है, कि आत्मा निराकार है।
* यच्चेतनवत्त्वं तज्जीवत्त्वम्। जीवस्तु खलु चेतनस्वभावः। अस्येच्छादयो धर्मास्तु निराकारोsविनाश्यनादिश्च वर्तते।*
*अर्थात जो चैतन्य गुणवाला है, वह जीवात्मा है। जीवात्मा चेतन स्वभाव वाला है। इसके इच्छा आदि धर्म हैं। यह निराकार है, अविनाशी = नष्ट न होने वाला और अनादि है।*
इस पत्र में भी महर्षि दयानंद जी ने आत्मा को निराकार माना है।

प्रमाण -- 4.
महर्षि दयानंद सरस्वती जी ने सत्यार्थ प्रकाश के सातवें समुल्लास में यह लिखा है। फोटो संलग्न है।
*वहाँ प्रश्न है -- ईश्वर साकार है वा निराकार?*
 इसके उत्तर में -- उन्होंने लिखा है, निराकार। वह पूरा अनुच्छेद पढ़ें। वहाँ जिस वाक्य के नीचे लकीर लगी है, वह वाक्य यह है। 
*क्योंकि जो संयोग से उत्पन्न होता है उसको संयुक्त करने वाला निराकार चेतन अवश्य होना चाहिए।*
इस वाक्य को विशेष ध्यान से पढ़ें।
 यद्यपि वहां यह कथन ईश्वर के संबंध में है। परंतु यदि उसे ऊहा से जीवात्मा पर भी लागू करें, तो वह जीवात्मा पर भी लागू होता है।
इस वाक्य के अनुसार *यदि ईश्वर चेतन होते हुए परमाणुओं का संयोग करके सृष्टि को बनाता है, और वह निराकार है।*
तो इसी प्रकार से *आत्मा भी चेतन होते हुए लोहा लकड़ी आदि वस्तुओं का संयोग करके स्कूटर कार रेल आदि वस्तुएँ बनाता है, तो वह भी निराकार सिद्ध होता है। जब चेतन ईश्वर वस्तुओं का निर्माता होने से निराकार है, तो चेतन आत्मा, ईश्वर के समान वस्तुओं का निर्माता होने से निराकार क्यों नहीं?*
यहां स्पष्ट लिखा है *निराकार चेतन है।*
जब आत्मा चेतन है, तो सिद्ध हुआ कि वह निराकार है।

हमने आत्मा को निराकार सिद्ध करने के लिए महर्षि दयानंद सरस्वती जी के 4 प्रमाण प्रस्तुत किए हैं। परंतु साकार मानने वालों ने 1 भी प्रमाण प्रस्तुत नहीं किया, जिसमें सीधा साकार लिखा हो, अथवा अर्थापत्ति आदि से भी साकार सिद्ध होता हो।
ये लोग आत्मा को एकदेशी ही सिद्ध करते रहे, जिसकी कोई आवश्यकता नहीं थी। क्योंकि आत्मा को एकदेशी तो हम भी मानते हैं । इस विषय में तो कोई विवाद था ही नहीं । आत्मा को एकदेशी सिद्ध नहीं करना था, बल्कि साकार सिद्ध करना था, जो कि इन्होंने नहीं किया।
ये लोग एकदेशी होने से आत्मा को साकार कहते रहे। जो कि सिद्ध नहीं हो पाया।
क्योंकि यह अनैकांतिक हेत्वाभास है।

*इन लोगों की भ्रांति का कारण ---*

इसके अतिरिक्त एक और बात कहना चाहता हूँ, जिसके कारण ये लोग भ्रांति में हैं। 
इनको भ्रांति यह है, कि *ये लोग आकार गुण तथा परिमाण गुण दोनों में अंतर नहीं समझ रहे हैं।* ये परिमाण गुण को आकार गुण समझ रहे हैं। यह इनकी सबसे बड़ी भूल है, जिसके कारण इन्हें भ्रांति पैदा हुई। 
जबकि वैशेषिक दर्शन में 24 गुणों में, परिमाण गुण को अलग बताया है और आकार (रूप) गुण को अलग बताया है। 
आकार का अर्थ क्या है? श्री वामन शिवराम आप्टे, इस विद्वान का लिखा हुआ "संस्कृत हिंदी कोष", शिक्षा जगत में एक प्रामाणिक कोष है। इस कोष में आकार शब्द का अर्थ देखिए। वे लिखते हैं.... आ+ कृ + घञ् = आकारः। इस शब्द में आ उपसर्ग , कृ धातु, और घञ् प्रत्यय है। इस प्रकार से आकार शब्द बनता है। और इसका अर्थ आप्टे कोष में लिखा है= रूप, शक्ल, आकृति।
इस प्रकार से आकार शब्द का अर्थ हुआ कोई रूप हो, शक्ल हो, आकृति हो, उसका नाम आकार है। फोटो संलग्न है।
 ये लोग आत्मा को साकार बता रहे हैं। अब बुद्धिमान लोग विचार करें, क्या आत्मा का कोई रूप है, कोई शक्ल है, कोई आकृति है? यदि नहीं है, तो साकार कैसे हुआ?
इतनी मोटी बात भी ये लोग नहीं विचार कर सके। आप इसी बात से इनकी बुद्धि का अनुमान कर सकते हैं।
वैशेषिक दर्शन में रूप गुण को अलग बताया है, और परिमाण गुण को अलग बताया है। इस प्रकार से रूप का नाम जब आकार है, तो आकार और परिमाण दोनों अलग-अलग गुण हुए। 
अब ऋषियों का यह सिद्धांत है कि जिस वस्तु में रूप है, अर्थात आकार है, वह साकार वस्तु है। जिस वस्तु में रूप नहीं, आकार नहीं, वह निराकार वस्तु है। परंतु परिमाण गुण दोनों में है, साकार में भी और निराकार में भी।
जैसे कि पृथ्वी सूर्य आदि पदार्थों में आकार गुण भी है और बड़ा आकार होने से महत्परिमाण भी है। तो यह हो गया साकार द्रव्यों में परिमाण गुण।
 अब आत्मा और ईश्वर, ये दोनों निराकार द्रव्य हैं, इनमें किसी में भी रूप गुण या आकार गुण नहीं है, परंतु परिमाण गुण इन दोनों में भी है। 
कठोपनिषद में लिखा है.. अणोरणीयान् महतोमहीयान्...।। अर्थात ईश्वर अणु से भी अणु है और महत् से भी महत् है। अर्थात छोटे से छोटा है और बड़े से बड़ा पदार्थ है। इस प्रकार से निराकार ईश्वर में परिमाण गुण स्वीकार किया है। 
तथा निराकार आत्मा में भी परिमाण गुण है । मुंडक उपनिषद 3/1/9 में आत्मा को अणु कहा है। *एषोsणुरात्मा चेतसा वेदितव्यो यस्मिन्प्राणः पंचधा संविवेश।। यह आत्मा अणु अर्थात् सूक्ष्म/छोटा है। यहाँ परिमाण बताया है, न कि आकार।*
 वैशेषिक दर्शन में भी ईश्वर एवं आत्मा को परिमाण गुण वाला स्वीकार किया है। 
विभवान्महानाकाशः।। तथा चात्मा।। तदभावात् अणु मनः।। तथा चात्मा।।
अर्थात् व्यापक होने से आकाश महत्परिमाण वाला है।। और इसी हेतु से अर्थात व्यापक होने से ही ईश्वर भी महत्परिमाण वाला है।। व्यापक न होने से मन अणु अर्थात् एकदेशी है ।। और इसी हेतु से अर्थात व्यापक न होने से आत्मा भी अणु परिमाण अर्थात् एकदेशी है।।
इन सूत्रों में भी आत्मा तथा ईश्वर को परिमाण गुण वाला बताया है, साकार नहीं। यदि आप आत्मा को अणु का अर्थ एकदेशी, और एकदेशी होने से साकार कहेंगे, तो कठोपनिषद एवं वैशेषिक दर्शन के प्रमाणों के आधार पर आपको ईश्वर को भी साकार मानना पड़ेगा। क्योंकि परिमाण तो इन दोनों में बताया गया है।
*तो सार यह हुआ कि ये लोग परिमाण और आकार गुण में अंतर नहीं समझ रहे। इसलिए इन्होंने परिमाण को भ्रांति से आकार मानकर जीवात्मा को साकार कहना आरंभ कर दिया। ईश्वर इन लोगों को सद्बुद्धि दे, ये लोग सत्य को समझ सकें। हमारी ओर से इनके लिए बहुत शुभकामनाएं।*

 इसलिए सब बुद्धिमानों को इस विषय में गंभीरतापूर्वक विचार करना चाहिए, और यह निश्चय जानना चाहिए कि महर्षि दयानंद सरस्वती जी का सिद्धांत यही है कि *आत्मा निराकार है।*
विनम्रतापूर्वक धन्यवाद....।
*आत्मा निराकार है, साकार नहीं।* इस बात को हम अपने लेख के पिछले दो भागों में प्रमाण और तर्क से अच्छी प्रकार से सिद्ध चुके हैं। फिर भी आत्मा को साकार मानने वाले लोग गलत बातों का प्रचार करते रहते हैं। उनके निराकरण के लिए, तथा इस विषय में भ्रांतियां न फैलें, इस उद्देश्य से, आत्मा को निराकार सिद्ध करने वाले कुछ और प्रमाण व तर्क भी यहाँ प्रस्तुत किये जाते हैं।


1 - जैसे गंध गुण की परिभाषा है कि "जो नासिका इंद्रिय से जाना जाता है, वह गंध है।" स्पर्श गुण की परिभाषा है कि "जो त्वचा इंद्रिय से जाना जाता है, वह स्पर्श है।" 
इसी प्रकार से आकार गुण की परिभाषा पर भी हमें विचार करना होगा , जिस से हम इस बात का निर्णय कर सकें , कि *आत्मा साकार है या निराकार?*
          व्याकरण शास्त्र की दृष्टि से आकार और आकृति शब्दों का एक ही अर्थ है। 
साकार शब्द का अर्थ है आकार गुण सहित पदार्थ। और निराकार शब्द का अर्थ है आकार गुण से रहित पदार्थ।
अर्थात जो पदार्थ आकार गुण से सहित सिद्ध होगा, उसे साकार कहा जाएगा ; और जो पदार्थ आकार गुण से रहित सिद्ध होगा, उसे निराकार कहा जाएगा।

"दयानंद शास्त्रार्थ संग्रह तथा विशेष शंका समाधान" नामक पुस्तक (प्रकाशक - आर्ष साहित्य प्रचार ट्रस्ट) के पृष्ठ 119 पर आकृति के संबंध में महर्षि दयानंद सरस्वती जी की मान्यता लिखी है।
     *आकृति दो प्रकार की होती है - एक ज्ञान से ग्रहण होती है और एक चक्षु आदि इंद्रियों से। कारण में ही आकृति की स्थिति है, परंतु वह इंद्रियों द्वारा ग्रहण नहीं होती। क्योंकि जो सूक्ष्म वस्तु होती है, जब वह स्वयं ही दिखाई नहीं देती तो उसका आकार क्या दिखाई देगा? और जो कारण में आकृति न हो तो कार्य में नहीं आ सकती, क्योंकि जो कारण के गुण हैं वही कार्य में आते हैं।*
          जो महर्षि दयानंद जी की उक्त आकृति की परिभाषा है , वह कारण कार्य द्रव्यों पर लागू होती है । प्रकृति में आकृति आँखों से सिद्ध न भी हो, तो भी अनुमान ज्ञान से सिद्ध हो जाती है, क्योंकि वह जगत का उपादान कारण है । परंतु जीवात्मा तो किसी वस्तु का उपादान कारण भी नहीं है। इसलिए आत्मा के विषय में तो आकृति, अनुमान ज्ञान से भी सिद्ध नहीं हो सकती।
इसलिये महर्षि जी के उक्त कथन से भी यही सिद्ध होता है कि *आत्मा निराकार है, साकार नहीं।*
          यह तो उनकी केवल प्रतिज्ञा मात्र है कि - आत्मा में आकार है। आत्मा में आकार चक्षु आदि इंद्रियों से, या अनुमान ज्ञान से कैसे सिद्ध होता है ? वह सिद्ध तो कीजिये!


2- वैशेषिक दर्शन में रूप रस गंध स्पर्श संख्या परिमाण आदि 24 गुण बतलाए हैं। इनमें आकार गुण का नाम नहीं है। तो हमें इन्हीं 24 में से ही ढूंढना होगा कि वह कौन सा गुण है, जिसके अंतर्गत इस आकार गुण को लिया जा सकता है। इन 24 में कहीं ना कहीं तो आकार गुण का समावेश करना होगा, क्योंकि वैदिक शास्त्रों में ऋषियों ने आकार या आकृति शब्दों का प्रयोग प्रकृति आदि द्रव्यों के संबंध में किया है।
हमारी दृष्टि में इन 24 गुणों में से, *रूप गुण* ऐसा है जिसको हम आकार गुण के नाम से कह सकते हैं। क्योंकि सब वैदिक शास्त्रों में जहां भी (निराकार या साकार पदार्थों का प्रसंग है, वहाँ पर) *आकार या आकृति शब्दों का प्रयोग है, वह रूप गुण के अर्थ में ही किया गया है।* ऋषियों ने भौतिक जड़ पदार्थों के संबंध में आकार शब्द का प्रयोग किया है, जीव और ईश्वर के लिए नहीं। और वैदिक साहित्य के अनुसार प्रकृति आदि जड़ पदार्थों में रूप गुण विद्यमान है। इसलिये आकार शब्द का अर्थ रूप गुण ही बनता है। ईश्वर के लिए निराकार शब्द का प्रयोग किया है। ईश्वर में रूप गुण नहीं है, इसे सभी जानते हैं।
      अतः वैशेषिक दर्शन में बताए गए 24 गुणों में से जो *रूप गुण* है उसी का नाम *आकार गुण* समझना चाहिए।
       न्याय वैशैषिक आदि दर्शन शास्त्रों में, जहां-जहां भी आत्मा के गुण ऋषियों ने बताए हैं, वहां पर इच्छा द्वेष आदि गुणों का उल्लेख तो किया है, परंतु रूप या आकार गुण का कथन कहीं भी नहीं किया। इससे सिद्ध होता है कि *आत्मा निराकार है, साकार नहीं।*


3- आकार = आकृति (न्याय दर्शन)
न्याय सूत्र 2/2/62 (किसी अन्य पुस्तक में 2/2/64) में आकृति की परिभाषा की गई है । 
आकृतिः तदपेक्षत्वात् सत्त्वव्यवस्थानसिद्धेः।।

अर्थात् गौ बकरी आदि शब्द का अर्थ है आकृति। क्योंकि आकृति के आधार पर ही प्राणियों का व्यवहार किया जाता है। जैसे, यह गौ है, यह बकरी है। ऐसा व्यवहार बिना आकृति को देखे सिद्ध नहीं होता। गौ के शरीर में अंगों की रचना भिन्न प्रकार की होती है। और बकरी के शरीर में अंगों की रचना भिन्न प्रकार की होती है। इसी शरीर की भिन्न रचना = आकृति के आधार पर ही गौ बकरी आदि शब्दों का व्यवहार होता है। तो आकृति का अर्थ हुआ गौ बकरी आदि के शरीर के अंगों की रचना से बना विशेष आकार = रूप = Shape.
इसी आकृति को ही आकार कहा जाता है। *क्या गौ बकरी जैसा या कोई भी आकार आत्मा में होता है? यदि नहीं होता, तो इससे सिद्ध है कि आत्मा निराकार है।*


4- अब व्याकरण शास्त्र की दृष्टि से देखें , तो महर्षि पाणिनि जी के व्याकरण के अनुसार भी आकार शब्द की सिद्धि इस प्रकार से है।
आ + कृ + घञ् = आकारः। (अष्टाध्यायी 3/3/18,19) इसका अर्थ संस्कृत भाषा के प्रामाणिक कोष वाचस्पत्यम् में लिखा है -- 
*आकारः = मूर्तौ, अवयवसंस्थानविशेषे च।* अर्थात् *आकार शब्द मूर्ति (रूपवान् पदार्थ) अर्थ में प्रयोग किया जाता है, और ऐसी वस्तु के लिए प्रयोग किया जाता है जिसमें अनेक अवयवों को मिलाकर विशेष रचना अर्थात् आकृति बनाई गई हो।*
       अब इस व्याकरण शास्त्र की दृष्टि के अनुसार भी देखिये। जो मूल प्रकृति है, (सत्त्व रज और तम) उसमें आकार है। वहां पर आकार शब्द का ऊपर बताया हुआ मूर्ति अर्थ लागू होगा। अर्थात उसमें अपनी सूक्ष्म आकृति है। यदि प्रकृति में आकार नहीं मानेंगे, तो उससे उत्पन्न जगत में आकार नहीं आ सकता, जो कि प्रत्यक्ष है। (नियम यही है कि कारण द्रव्य के गुण ही कार्य द्रव्य में प्रकट होते हैं । ) 
और मूल प्रकृति से जो जो पदार्थ उत्पन्न होंगे, मन बुद्धि इंद्रियां पंच महाभूत पृथ्वी जल अग्नि और मेज कुर्सी लोहा सोना चांदी इत्यादि, ये सब पदार्थ अनेक अवयवों को मिलाकर बनाए जाते हैं, इनमें भी सब में अपनी अलग अलग आकृति या आकार है, जो स्थूल पदार्थों में हमें आंखों से दिखता है। इसी का नाम रूप है। स्थूल पदार्थों में आकार आँखों से दिखता है और सूक्ष्म पदार्थों में अनुमान से जाना जाता है। यही दो प्रकार का आकार महर्षि दयानंद सरस्वती जी ने भी बताया था, जिनका प्रमाण ऊपर लिखा है।
      तो इस प्रकार से यह सिद्ध हुआ कि आकार गुण सूक्ष्म या स्थूल जड़ पदार्थों में ही होता है। अब आत्मा तो चेतन पदार्थ है। इसलिए न तो उसमें प्रकृति के तुल्य सूक्ष्म आकार है। और न ही वह अवयवों से मिलकर बना है, इस कारण से आत्मा में पृथ्वी सूर्य आदि के तुल्य स्थूल आकार भी नहीं है। *इसलिए चेतन होने से आत्मा निराकार है, साकार नहीं।*


5 - द्वा सुपर्णा सयुजा सखाया...।। ऋग्वेद 1/164/20.
(द्वा) जो ब्रह्म और जीव दोनों (सुपर्णा) *चेतनता और पालनादि गुणों से सदृश* (सयुजा) व्याप्य व्यापक भाव से संयुक्त (सखाया) परस्पर मित्रता युक्त सनातन अनादि हैं।....... स.प्र. 8वाँ समुल्लास।। पृष्ठ 172.

इस मंत्र की व्याख्या में महर्षि दयानंद जी ने ईश्वर और जीव को *चेतनता और पालनादि गुणों से सदृश*, कहा है।

इससे यह अभिप्राय स्पष्ट है, कि ईश्वर और जीव, दोनों चेतन हैं, और दोनों पालन करते हैं। ईश्वर संसार का पालन करता है और जीव अपने संतानों का पालन करता है। *जब पालन करने वाला ईश्वर चेतन है, और निराकार भी है। तो जीव भी पालन करने वाला चेतन होते हुए साकार कैसे हो जाएगा? उसे भी निराकार ही मानना चाहिए।* क्योंकि कोई भी लकड़ी लोहा आदि साकार वस्तु चेतन नहीं है, और वह ईश्वर के समान किसी का पालन भी नहीं कर सकती। 

इसलिए यह बात इन प्रमाणों से अच्छी प्रकार से सिद्ध होती है कि *आत्मा साकार नहीं, बल्कि निराकार है.* 
       स्वाध्यायशील बुद्धिमान पाठक गण इन प्रमाणों को देखें और निष्पक्ष भाव से विचार करें। यदि कोई शंका बने, तो नम्रता से सभ्यता से पूछ सकते हैं। यदि कोई बिना तर्क प्रमाण के व्यर्थ में खंडन मंडन करेगा, तो उसकी बात पर कोई ध्यान नहीं दिया जाएगा, और न ही उसका कोई उत्तर दिया जाएगा।
*आत्मा को साकार मानने वाले लोग* कृपया इन प्रश्नों के उत्तर देवें।

मान लीजिए आपके सामने कोई प्राणी खड़ा है। और उसमें संशय हो रहा है कि यह प्राणी गाय है या घोड़ा है ? स्पष्ट नहीं हो पा रहा ।
तो आप इस बात का निर्णय कैसे करेंगे , कि सामने खड़ा हुआ प्राणी गाय है या घोड़ा है ? 
आप उस प्राणी के लक्षण गाय और घोड़े से मिला कर देखेंगे । 
यदि उसके लक्षण गाय से मिलते हैं , तो उसे गाय मान लेंगे ।
यदि उसके लक्षण घोड़े से मिलते हैं, तो उसको घोड़ा मान लेंगे।
*यदि सामने खड़े प्राणी में 2 सींग हैं, और गले में चादर सी लटकी है, जिसे गलकंबल कहते हैं. तो यह लक्षण गाय से मिलते हैं। इससे पता चलता है कि सामने वाला प्राणी गाय है। यदि ये लक्षण उसमें नहीं हैं और घोड़े वाले लक्षण हैं, तो यह निर्णय हो जाएगा कि सामने खड़ा हुआ प्राणी घोड़ा है।*

ठीक इसी प्रकार से अब जो संशय है, कि *आत्मा साकार है, या निराकार?*
 तो आत्मा का भी इसी तरह से निर्णय कर लीजिए। 
यदि आत्मा के लक्षण साकार वस्तुओं से मिलते हैं, तो आत्मा को साकार मान लेंगे।
यदि आत्मा के लक्षण निराकार वस्तुओं के साथ मिलते हैं, तो उसे निराकार मान लेंगे।

अब आप इन नीचे के तीन प्रश्नों को पढ़िए और ईमानदारी से उतर दीजिए।

 *पहला प्रश्न - ऋषियों ने, आत्मा में, क्या इच्छा ज्ञान प्रयत्न कर्म करना संतान उत्पन्न करना उसका पालन करना रोटी कार मकान आदि वस्तुएं बनाना इन्हें नष्ट करना, सुखी दुखी होना आदि गुण कर्म बताए हैं या नहीं?*
 यदि न्याय दर्शन तथा वैशैषिक दर्शन आदि शास्त्रों में ऋषियों ने आत्मा के ये गुण कर्म बताएं हैं, तो विचार कीजिये, कि इस प्रकार के गुण किसी भी पृथ्वी सूर्य रोटी लोहा लकड़ी कपड़ा सोना चांदी आदि साकार वस्तु में पाए जाते हैं? यदि नहीं पाए जाते, तो इससे सिद्ध होता है कि *आत्मा साकार नहीं है, बल्कि निराकार है।*

 *दूसरा प्रश्न - निराकार वस्तु (ईश्वर) में निराकारत्व के अतिरिक्त क्या इच्छा, ज्ञान, सृष्टि रचना, पालन, विनाश आदि गुण कर्म भी होते हैं या नहीं?*
यदि होते हैं, तो इससे ही मिलते जुलते गुण, इच्छा, ज्ञान, मकान बनाना रेल बनाना उनकी रक्षा करना उन्हें तोड़ना फोड़ना आदि गुण कर्म आत्मा में भी हैं। इससे यह सिद्ध होता है कि आत्मा के गुण ईश्वर के साथ मेल खाते हैं। तो इस कारण से, *जैसे ईश्वर निराकार है, वैसे ही आत्मा भी निराकार है।* क्योंकि ये गुण कर्म निराकार वस्तु में ही संभव हैं, किसी भी साकार वस्तु में न तो प्रत्यक्ष दिखाई देते, और न ही अनुमान प्रमाण से सिद्ध होते।

 *तीसरा प्रश्न - साकार वस्तुओं (पृथ्वी सूर्य लोहा लकड़ी कपड़ा भोजन वस्त्र फूल मिठाई आदि) में आकार (रूप) के अतिरिक्त रस गन्ध स्पर्श आदि गुण होते हैं या नहीं?* 
यदि इन साकार वस्तुओं में रस गंध स्पर्श आदि गुण होते हैं, तो ये गुण आत्मा में तो नहीं हैं। इससे भी यही सिद्ध हुआ कि *आत्मा साकार नहीं है, बल्कि निराकार है।*
 (पूर्वपक्ष - उत्तरपक्ष)

*आत्मा निराकार है, साकार नहीं है।* इस बात को हम अपने लेख के पिछले 4 भागों में प्रमाण और तर्क से अच्छी प्रकार से सिद्ध चुके हैं। फिर भी कुछ लोग, जो आत्मा को साकार मानते हैं, वे भी अपने कुछ तर्क और प्रमाण प्रस्तुत करते हैं।
       लेख के इस भाग में हम उनके विचारों के उत्तर देंगे । तथा कुछ प्रश्न हम अपनी ओर से भी उनसे पूछेंगे।
    आत्मा को साकार मानने वालों का पक्ष हम *पूर्वपक्ष* के नाम से प्रस्तुत करेंगे। और हमारा पक्ष हम *उत्तरपक्ष* के नाम से प्रस्तुत करेंगे।
       यदि आत्मा को साकार मानने वाले लोग ईमानदारी बुद्धिमत्ता और निष्पक्ष भाव से इन बातों पर विचार करेंगे, तो हमें आशा है, उनको भी यह बात ठीक प्रकार से समझ में आ जाएगी, कि *आत्मा साकार नहीं है, बल्कि निराकार ही है।*

 *हठ दुराग्रह का तो कोई समाधान नहीं है।*

   पूर्वपक्ष वालों की बातों का उत्तर हम विनम्रतापूर्वक दे रहे हैं। वे भी कृपया हमारी बातों का उत्तर सभ्यता पूर्वक देवें। अपनी भाषा में संयम का प्रयोग करें। आपकी भाषा में यदि उत्तेजना है, तो बुद्धिमान लोग आपकी भाषा से ही समझ लेंगे, कि आपमें कितनी बुद्धि और सभ्यता है!

1- पूर्वपक्ष - *आत्मा साकार है। एकदेशी होने से।*
  उत्तरपक्ष - *आपका हेतु अनैकांतिक होने से हेत्वाभास है।* अनैकांतिक का अर्थ है, दोनों पक्षों में जाने वाला हेतु। हेत्वाभास का अर्थ है, जो हेतु अर्थात् कारण बताया गया है, वह ठीक नहीं है, परंतु हेतु जैसा प्रतीत होता है। अर्थात् गलत कारण है। तो आपने जो हेतु बताया *एकदेशी होने से* , यह कारण दोनों पक्षों में जाता है। *जैसे कि, नींबू एकदेशी है, वह साकार है। जबकि प्रकृति व्यापक है, वह भी साकार है।*
 तो एकदेशी वस्तुएं भी साकार हैं और व्यापक वस्तुएं भी साकार हैं। *इस प्रकार से यह हेतु दोनों पक्षों में जाता है, इसलिए यह हेतु गलत है। कि एकदेशी होने से साकार है।* 
      जब हेतु गलत होता है, तो वह साध्य की सिद्धि नहीं कर पाता। इसलिए आपका पक्ष सिद्ध नहीं होता कि *एकदेशी होने से, आत्मा साकार है।*
        प्रकृति साकार है, और सारे ब्रह्मांड में व्यापक है। इन दोनों बातों को महर्षि दयानंद सरस्वती जी ने सत्यार्थ प्रकाश में स्वीकार किया है। आप देख सकते हैं।
*वह प्रकृति रूप होने से सर्वत्र विभु और सब जीवों के लिए एक है।* (सत्यार्थप्रकाश 9वाँ समुल्लास, पृष्ठ 201.)
इस वचन में महर्षि दयानंद जी ने प्रकृति को विभु अर्थात् पूरे ब्रह्मांड में व्यापक माना है। ब्रह्मांड का अर्थ है, जहां तक ये लोक लोकांतर फैले हुए हैं। अर्थात जहां तक आकाश गंगाएँ फैली हुई हैं, वहां तक के क्षेत्र को ब्रह्मांड कहते हैं। वहां तक प्रकृति (सत्त्व रज तम) प्रत्येक वस्तु में विद्यमान है। 

*और जो स्थूल होता है, वह प्रकृति और परमाणु जगत् का उपादान कारण है। और वे सर्वथा निराकार नहीं, किन्तु परमेश्वर से स्थूल और अन्य कार्य से सूक्ष्म आकार रखते हैं।* -(सत्यार्थ प्रकाश, अष्टम समुल्लास, पृष्ठ 177.)
महर्षि जी ने इस वचन में प्रकृति में सूक्ष्म आकार को स्वीकार किया है।
इसलिये आपका कथन सत्य नहीं है। कि *एकदेशी होने से आत्मा साकार है। क्योंकि प्रकृति व्यापक होते हुए भी साकार है।*
      कृपया सभी लोग इस बात पर शुद्ध मन से विचार करें, और सत्य को स्वीकार करें, कि *आत्मा साकार नहीं, बल्कि निराकार है।*
यह सारी चर्चा सत्य को समझने समझाने के उद्देश्य से की जा रही है, व्यर्थ लड़ाई झगड़ा करने के उद्देश्य से नहीं। क्योंकि ऐसा करना बुद्धिमता और मनुष्यता नहीं है।
पूर्वपक्ष वालों की बातों का उत्तर हम विनम्रतापूर्वक दे रहे हैं। वे भी या तो हमारी बातों का उत्तर सभ्यता पूर्वक देवें। अपनी भाषा में संयम का प्रयोग करें। आपकी भाषा में यदि उत्तेजना है, तो बुद्धिमान लोग आपकी भाषा से ही समझ लेंगे, कि आपमें कितनी बुद्धि और सभ्यता है! अथवा निष्पक्ष भाव से चिंतन मनन करके सत्य को हृदयंगम करें। 


 पूर्वपक्ष - *जिसका आकार कोई भी नहीं और न कभी शरीर धारण करता है, इसलिये परमेश्वर का नाम निराकार है।* (-सत्यार्थ प्रकाश, प्रथम समुल्लास, ईश्वर नाम संख्या 67.)

  उत्तरपक्ष - विषय था, *जीवात्मा साकार है या निराकार?* पूर्वपक्षी को प्रमाण तो वह देना चाहिए था, जिससे जीवात्मा साकार सिद्ध होता। परंतु प्रमाण दे रहे हैं, ईश्वर के निराकार होने का। अब आप विचार कीजिये, क्या यह प्रमाण आत्मा को साकार सिद्ध करता है? नहीं करता। प्रसंग से बाहर की बात कहने से, इस प्रमाण से मूल विषय की सिद्धि में कोई सहायता नहीं मिलती।

दूसरी बात- फिर भी पूर्वपक्षी ने आत्मा को साकार सिद्ध करने के लिए, जो भी प्रमाण दिया है, इस पर भी विचार कर लेते हैं। 
        *इस वचन में दो बातें कही हैं। एक तो, ईश्वर का कोई आकार नहीं है। और दूसरी बात, वह शरीर धारण नहीं करता, इसलिए ईश्वर निराकार है।*
      इनमें जो पहली बात कही है, वह तो निराकार शब्द का अर्थ ही है। वह तो कोई कारण नहीं है। दूसरी बात को यदि निराकार होने का कारण माना जाए, कि वह शरीर धारण नहीं करता, इसलिए निराकार है। 
      यहाँ पर यदि पूर्वपक्षी कहे कि, "ईश्वर शरीर को धारण नहीं करता, इसलिए निराकार है। तो अर्थापत्ति से यह सिद्ध हुआ कि जीवात्मा शरीर धारण करता है, इसलिए वह साकार है।"
        तो हमारा कहना यह है कि, *यदि शरीर धारण न करने से कोई वस्तु निराकार सिद्ध होती है, तो प्रकृति और जगत् के पदार्थ लोहा लकड़ी पृथ्वी जल अग्नि आदि भी शरीर धारण नहीं करते, तो ये सब भी निराकार होने चाहिएँ। क्या ये सब पदार्थ निराकार हैं?* बिल्कुल नहीं। प्रकृति आदि ये सब पदार्थ तो साकार हैं। इसलिये यह अर्थापत्ति ठीक नहीं है। इससे आत्मा साकार सिद्ध नहीं होता।
     वास्तव में पूर्वपक्षी द्वारा दिया गया यह उत्तर, न्याय दर्शन के अनुसार अर्थापत्तिसमा जाति का प्रयोग है। अर्थात इसमें चालाकी से सत्य का खंडन किया गया है। न्यायदर्शन के सूत्र 5/1/21 में अर्थापत्तिसमा जाति (चालाकी) का उल्लेख है। 
      *इसमें व्यक्ति अपने पक्ष की सिद्धि में कुछ भी नहीं कहता, किसी दूसरे वचन को लेकर सिर्फ उस वाक्य को उलट देता है, और अर्थापत्ति का नाम लेकर, सत्य का खंडन करता है। इसको अर्थापत्तिसमा जाति = चालाकी कहते हैं।* 
      यहां पर पूर्वपक्षी ने ईश्वर के संबंध में कहे गए वाक्य को केवल उलट दिया है, तथा उसे जीवात्मा के लिए लागू कर दिया। और अपने पक्ष (आत्मा साकार है), की सिद्धि में कुछ भी नहीं कहा। इसलिए यह अर्थापत्तिसमा जाति है। और चालाकी से किया गया, सत्य का अनुचित खंडन है। इससे आत्मा साकार सिद्ध नहीं होता।

(वास्तव में यह अर्थापत्ति भी नहीं है, बल्कि अर्थापत्ति का भ्रम है। पूर्वपक्षी को अर्थापत्ति में भ्रम कैसे हुआ? *पूर्वपक्षी ऐसा समझता है, कि किसी वाक्य को मात्र उलट दो, इसी का नाम अर्थापत्ति है।* जबकि यह सत्य नहीं है। किसी वाक्य को मात्र उलट देना, इतना ही अर्थापत्ति प्रमाण का स्वरूप नहीं है। *अर्थापत्ति से जो बात प्राप्त होती है वह, वाक्य को उलटने के साथ साथ, प्रत्यक्ष शब्द आदि अन्य प्रमाणों के अनुकूल भी सिद्ध होनी चाहिए। तभी वह अर्थापत्ति मानी जाती है। अन्यथा वह अर्थापत्ति का भ्रम है। {यह न्याय दर्शन का नियम है।}*
जैसे कि एक व्यक्ति ने कहा कि *भारी पत्थर पहाड़ से नीचे गिरते हैं.* अब कोई इसको मात्र उलट कर बोले कि *हल्के पत्थर पहाड़ के ऊपर चढ़ते हैं.* यह तो कोई अर्थापत्ति नहीं बनी। क्योंकि यह बात प्रत्यक्ष आदि प्रमाणों के विरुद्ध है। ठीक अर्थापत्ति इस प्रकार से होती है । किसी ने कहा, *तत्व ज्ञान से मोक्ष होता है.* तो इसकी अर्थापत्ति यह बनेगी कि *मिथ्या ज्ञान से बंधन होता है।* यह अर्थापत्ति ठीक है, क्योंकि यहाँ वाक्य को केवल उलटमात्र नहीं दिया, बल्कि उलटने के साथ साथ, यह बात प्रत्यक्ष, शब्द आदि प्रमाणों के अनुकूल भी है, और सब ऋषियों ने स्वीकार भी की है।)

         *इसलिए आत्मा को साकार सिद्ध करने के लिए जो प्रमाण पूर्वपक्षी ने प्रस्तुत किया है, = (जिसका आकार कोई भी नहीं और न कभी शरीर धारण करता है, इसलिये परमेश्वर का नाम निराकार है।) इससे आत्मा साकार सिद्ध नहीं होता।*
सत्य तो यही है कि, *आत्मा के जो गुण ऋषियों ने बताए हैं, इच्छा द्वेष प्रयत्न ज्ञान आदि, ये लोहा लकड़ी आदि किसी भी साकार वस्तु के साथ मेल नहीं खाते, बल्कि ये इच्छा आदि गुण चेतन ईश्वर के साथ मेल खाते हैं, इसलिये चेतन आत्मा, चेतन ईश्वर के समान निराकार है।*

             स्वाध्यायशील बुद्धिमान पाठक गण इन प्रमाणों को देखें और निष्पक्ष भाव से विचार करें। यदि कोई शंका बने, तो नम्रता से सभ्यता से पूछ सकते हैं। यदि कोई बिना तर्क प्रमाण के व्यर्थ में खंडन मंडन करेगा, तो उसकी बात पर कोई ध्यान नहीं दिया जाएगा, और न ही उसका कोई उत्तर दिया जाएगा।
 पूर्वपक्ष वालों की बातों का उत्तर हम विनम्रतापूर्वक दे रहे हैं। वे भी कृपया हमारी बातों का उत्तर सभ्यता पूर्वक देवें। अपनी भाषा में संयम का प्रयोग करें। आपकी भाषा में अभी भी कटुता, असभ्यता चल रही है, यह अनुचित है। बुद्धिमान लोग आपकी भाषा से समझ रहे हैं, कि आपमें कितनी बुद्धि और सभ्यता है!

 पूर्वपक्ष - *वैसे जीव परमेश्वर से स्थूल और परमेश्वर जीव से सूक्ष्म होने से परमेश्वर व्यापक और जीव व्याप्य है।* - सत्यार्थ प्रकाश, सप्तम समुल्लास, पृष्ठ 160. 

उत्तरपक्ष - यदि इस वाक्य के प्रसंग को देखें, तो इस प्रसंग में सत्यार्थप्रकाश के पूर्वपक्षी ने प्रश्न किया है कि , *जिस जगह में एक वस्तु होती है, उस जगह में दूसरी वस्तु नहीं रह सकती। इसीलिए जीव और ईश्वर का संयोग संबंध हो सकता है, व्याप्य व्यापक नहीं।*

इस के उत्तर में महर्षि दयानंद जी (जीव और ईश्वर के व्याप्य व्यापक संबंध को सिद्ध करने के लिए कहते हैं,) *यह नियम (अर्थात् - जिस जगह में एक वस्तु होती है, उस जगह में दूसरी वस्तु नहीं रह सकती।) समान आकार वाले पदार्थों में घट सकता है, असमानाकृति में नहीं।* 
फिर आगे उदाहरण दिया है, - *जैसे लोहा स्थूल, अग्नि सूक्ष्म होता है, इस कारण से लोहे में विद्युत, अग्नि व्यापक हो कर एक ही अवकाश में दोनों रहते हैं।*
           तो महर्षि दयानंद जी ने यहां लोहे और अग्नि का उदाहरण दिया है, तथा इनका व्याप्य व्यापक संबंध भी बताया है। और यह भी कहा है कि समान आकार वाले पदार्थों में यह नियम घटता है, असमान आकृति में नहीं। क्योंकि जैसे असमान आकृति वाले छोटे बड़े पदार्थ लोहा और अग्नि, एक दूसरे में प्रविष्ट होकर व्याप्य व्यापक संबंध से रह सकते हैं। वैसे ही जीव और परमेश्वर भी असमान हैं, वे भी स्थूल सूक्ष्म होने से व्याप्य व्यापक संबंध से रह सकते हैं। परमेश्वर व्यापक और जीव व्याप्य हो जाएगा।
    यदि दृष्टांत के अनुसार आप यहाँ जीव के लिए प्रयोग किए गए *स्थूल* शब्द का अर्थ *साकार* करेंगे, तो *सूक्ष्म* शब्द से परमात्मा को भी *साकार* मानना होगा। क्योंकि उदाहरण में अग्नि और लोहा दोनों साकार हैं। उसी उदाहरण से साध्य को सिद्ध किया गया है। कि परमेश्वर और जीव दोनों उसी तरह से व्याप्य व्यापक भाव से रहते हैं, जैसे लोहा और अग्नि।
*इस प्रकार से तो परमेश्वर भी साकार बनेगा। क्या आप परमेश्वर को साकार मानेंगे?*
         यदि ईश्वर को साकार नहीं मानेंगे , तो सिद्ध हुआ कि जीव को भी साकार नहीं कह सकते। क्योंकि दोनों एक जैसे, अर्थात् चेतन हैं। जब दोनों चेतन हैं, तो दोनों निराकार हैं। *दो में से एक चेतन को आप निराकार स्वीकार करें और दूसरे को साकार कहें, यह तो अन्याय है।*

(आप वहाँ *स्थूल* शब्द से तो साकार अर्थ का ग्रहण करें; और *सूक्ष्म* शब्द से निराकार अर्थ करें, यह तो न्याय नहीं हुआ। क्योंकि एक ही पंक्ति में दो पदार्थों की तुलना करते हुए, दो प्रतिपक्षी शब्दों का भिन्न भिन्न मापदंड से अर्थ लेना अनुचित है। और शास्त्रीय परंपरा के विरुद्ध भी है। {जब दो पदार्थोंं की तुलना की जाती है तो एक ही मापदंड से तुलना होती है। जैसे भारी और हल्का, इन दो विरोधी पदार्थों की तुलना करनी हो, तो यही कहा जाएगा कि तरबूज 2 किलो का है और नींबू 50 ग्राम का है। ऐसी तुलना नहीं की जाती कि तरबूज 2 किलो का है और गौशाला 1 किलोमीटर दूर है। यहां तरबूज़ और गौशाला के मापदंड अलग-अलग हैं, इसलिए यहां ऐसी तुलना नहीं हो सकती।} ठीक इसी प्रकार से, जब स्थूल और सूक्ष्म, दोनों शब्द विरोधी हैं, तो तुलना में एक ही मापदंड से अर्थ लेना उचित है। अर्थात् या तो दोनों को साकार मानो, या दोनों को निराकार मानो, तभी तो ठीक तुलना होगी। जब स्थूल और सूक्ष्म, ये दोनों शब्द आकारबोधक हैं। तो इन दोनों शब्दों से आत्मा और परमेश्वर के लिए आकार अर्थ ही लिया जाएगा। यदि आप परमेश्वर को साकार मानने को तैयार नहीं हैं, चेतन होने से। तो आत्मा को भी आकार वाला नहीं कह सकते, चेतन होने से। तब दोनों के लिए अर्थ बदलना होगा, क्योंकि दोनों ही निराकार हैं।)
 
पूर्वपक्ष - यदि जीव और ईश्वर दोनों को निराकार माना जाए तो, फिर जीव और ईश्वर की क्या स्थिति है, जिस आधार पर उन्हें व्याप्य व्यापक संबंध से रहने वाला कहा गया है।
उत्तरपक्ष - जैसे ब्रह्मांड से बाहर शून्य अवकाश में, ईश्वर रहता है। वहां ईश्वर व्यापक है, और शून्य आकाश व्याप्य है। और वह अवकाश सूक्ष्म है, तथा निराकार है; स्थूल नहीं, साकार भी नहीं है। जब ब्रह्मांड से बाहर निराकार ईश्वर, निराकार अवकाश के साथ व्याप्य व्यापक संबंध से रह सकता है, तो इसी प्रकार से जीवात्मा और ईश्वर भी दोनों निराकार होते हुए व्याप्य व्यापक संबंध से क्यों नहीं रह सकते? इसके लिए आत्मा को साकार होने की कोई आवश्यकता नहीं है।
दूसरी बात - ( शास्त्रों में अर्थ करते समय एक परंपरा चलती है कि *जब किसी शब्द का मुख्य अर्थ लागू न होता हो, तो वहां गौण अर्थ लागू किया जाता है। जैसे - किसी ने कहा - आज बरसात होगी। इसका मुख्य अर्थ है बादल से पानी बरसेगा। और यदि बड़ा भाई अपने छोटे भाई के से कहे, कि "बच्चू आज तू घर तो चल, देखना आज बरसात होगी।"*
          तो इस प्रसंग में बरसात शब्द का मुख्य अर्थ, पानी बरसना, लागू नहीं हो रहा। तो यहां अर्थ बदलना पड़ेगा, और यह अर्थ करना होगा कि "आज जूते चप्पल की बरसात होगी. अर्थात् आज तुम्हारी पिटाई होगी।"
       इस प्रक्रिया को शास्त्रों में अभिधावृत्ति और लक्षणावृत्ति के नाम से कहा जाता है । अर्थात शब्द का मुख्य अर्थ लेना *अभिधावृत्ति* है। और जब वह लागू न हो तब गौण अर्थ लेना *लक्षणावृत्ति* है। यही प्रक्रिया हमें ईश्वर और जीव के संबंध में स्थूल तथा सूक्ष्म शब्दों का अर्थ करते समय स्वीकार करनी पड़ेगी। क्योंकि, जैसे ठंडा गर्म, ये शब्द स्पर्श गुण के वाचक हैं। लाल पीला नीला ये शब्द रूप गुण के वाचक हैं। इसी प्रकार से, स्थूल और सूक्ष्म शब्द, मुख्य अर्थ में आकार के वाचक हैं। जैसे लोहा स्थूल एवं अग्नि सूक्ष्म है। यदि ईश्वर और जीव को मुख्य अर्थ में स्थूल एवं सूक्ष्म मानें, तो ये शब्द आकार के वाचक होने से, ईश्वर तथा आत्मा, ये दोनों साकार मानने पड़ेंगे। जो कि महर्षि दयानंद जी के सिद्धांत के विरुद्ध होगा। अतः जीव और ईश्वर पर स्थूल एवं सूक्ष्म शब्दों का मुख्य अर्थ लागू नहीं होता । इसलिए यहां गौण अर्थ करके स्थूल एवं सूक्ष्म शब्द का अर्थ बदलकर यह करना होगा, कि *जो वस्तु समझने में सरल हो उसे स्थूल कहेंगे, और जो वस्तु समझने में कठिन हो उसे सूक्ष्म कहेंगे। तो जीव को समझना सरल है इसलिए उसको स्थूल कहेंगे। तथा ईश्वर को समझना कठिन है, इसलिये उसको सूक्ष्म कहेंगे)।*

       पूर्वपक्षी द्वारा प्रस्तुत इस वाक्य में भी साकार शब्द भी नहीं है, स्थूल शब्द है। यहाँ भी आपके द्वारा सिर्फ यह कहा जा रहा है, कि जीव स्थूल होने से साकार है। इस प्रकार से स्थूल का अर्थ साकार करना, यह महर्षि दयानंद जी के अभिप्राय के विरुद्ध है। क्योंकि महर्षि दयानंद सरस्वती जी की दृष्टि में स्थूल एवं सूक्ष्म शब्द का प्रयोग, आकार से भिन्न अर्थ में भी किया गया है। विशेष रूप से निराकार द्रव्यों के संबंध में तो स्थूल का अर्थ साकार हो ही नहीं सकता , *क्योंकि वह द्रव्य चेतन होने से पहले ही निराकार है। तो उसे साकार कहना, यह तो महर्षि दयानंद जी के साथ ही अन्याय है।* महर्षि दयानंद जी की दृष्टि में ईश्वर और जीव दोनों चेतन और निराकार हैं। जब दोनों निराकार हैं, तो उनमें लोहा और अग्नि जैसे साकार द्रव्यों के तुल्य स्थूलता सूक्ष्मता नहीं हो सकती।

पूर्वपक्ष - तो फिर यहां, *जीव स्थूल है,* इसका अर्थ आप क्या करेंगे?

उत्तरपक्ष - महर्षि दयानंद सरस्वती जी स्थूल और सूक्ष्म शब्दों का प्रयोग अन्य अर्थ में भी करते हैं। जैसे उन्होंने सत्यार्थप्रकाश के 9वें समुल्लास में श्रवण चतुष्टय के प्रसंग में लिखा है। *विशेष ब्रह्मविद्या के सुनने में अत्यंत ध्यान देना चाहिए कि यह सब विद्याओं में सूक्ष्म विद्या है।*
         अब यहां "सूक्ष्म विद्या", शब्द का अर्थ, आकार में पतली विद्या तो नहीं बनता। क्योंकि विद्या द्रव्य नहीं, बल्कि गुण है। जबकि पतले मोटे या सूक्ष्म स्थूल तो द्रव्य होते हैं। जैसे अग्नि और लोहा आदि। *इसलिये यहाँ पर "सूक्ष्म विद्या" शब्द का अर्थ "समझने में कठिन विद्या" करना होगा।* इस से यह अभिप्राय निकलता है, कि ईश्वर को समझना अधिक कठिन है। इस अर्थ में ईश्वर सूक्ष्म है। तथा जीव को समझना, ईश्वर की तुलना में सरल है। इस अर्थ में जीव स्थूल है। आकार तो दोनों में से किसी में भी नहीं है। इसलिए जीव को स्थूल शब्द से साकार बताना असिद्ध और असंगत है।

लोक व्यवहार में भी सरल विषय को कहा जाता है, *स्थूल विषय या मोटी मोटी बातें।* और कठिन विषय को *सूक्ष्म विषय या बारीक बात* के नाम से कहा जाता है।

तीसरी बात - सत्यार्थप्रकाश के सातवें समुल्लास में ही महर्षि दयानंद सरस्वती जी ने जीव के गुण कर्म बताते हुए लिखा है , *ये जीवात्मा के गुण परमात्मा से भिन्न हैं। इन्हीं से आत्मा की प्रतीति करनी, क्योंकि वह स्थूल नहीं है।*
   यहां तो महर्षि जी ने स्पष्ट ही लिखा है कि *जीव स्थूल नहीं है।* सत्यार्थप्रकाश में इस स्थल पर लिखे पूरे प्रसंग को देखेंगे तो यही अर्थ बनेगा कि जीव स्थूल नहीं है, अर्थात् साकार नहीं है। क्योंकि आप उसको, खाना पीना चलना फिरना इत्यादि शरीर में दिखने वाले स्थूल लक्षणों से ही जान सकते हैं। साकार न होने से आंखों से नहीं जान सकते।
इसलिए यह बात इन प्रमाणों से अच्छी प्रकार से सिद्ध होती है कि *आत्मा साकार नहीं, बल्कि निराकार है.* 
       स्वाध्यायशील बुद्धिमान पाठक गण इन प्रमाणों को देखें और निष्पक्ष भाव से विचार करें। यदि कोई शंका बने, तो नम्रता से सभ्यता से पूछ सकते हैं। यदि कोई बिना तर्क प्रमाण के व्यर्थ में खंडन मंडन करेगा, तो उसकी बात पर कोई ध्यान नहीं दिया जाएगा, और न ही उसका कोई उत्तर दिया जाएगा।
*आत्मा स्थान नहीं घेरती। और रेलगाड़ियों की तरह टकराती भी नहीं।*

1 - *आत्मा स्थान नहीं घेरती।*
साधर्म्य से पंचावयव --- 
 *आत्मा स्थान नहीं घेरती। चेतन वस्तु होने से। जो जो चेतन वस्तु होती है , वह वह स्थान नहीं घेरती। जैसे ईश्वर। आत्मा भी ईश्वर के तुल्य चेतन है। इसलिए चेतन होने से आत्मा स्थान नहीं घेरती।*

वैधर्म्य से पंचावयव ----
*आत्मा स्थान नहीं घेरती। चेतन वस्तु होने से। जो जो जड़ वस्तु होती है, वह वह स्थान घेरती है। जैसे ईंट पत्थर इत्यादि। आत्मा ईंट पत्थर के समान जड़ वस्तु नहीं है। इसलिए चेतन वस्तु होने से, आत्मा स्थान नहीं घेरती।*

सार यह हुआ कि, 
 आत्मा चेतन है, ईश्वर भी चेतन है, दोनों चेतन हैं। दोनों में से कोई भी वस्तु स्थान नहीं घेरती। ईंट पत्थर आदि पदार्थ (प्रकृति) जड़ हैं। ये स्थान घेरते हैं। इस कारण से तीनों वस्तुएं एक ही स्थान पर इकट्ठी रह सकती हैं, और रहती हैं।

      *यदि आत्मा चेतन होते हुए स्थान घेरेगी, तो ईश्वर भी चेतन होते हुए स्थान घेरेगा।
यदि चेतन ईश्वर स्थान घेरता होता, तो ईश्वर अनन्त होने से, सारा स्थान ईश्वर ही घेर लेता। तब आत्मा और प्रकृति = (भौतिक पदार्थों) को निवास करने का स्थान ही नहीं मिलता। अब बताइए, ईश्वर के अतिरिक्त क्या आत्मा और प्रकृति भी जगत में निवास कर रहे हैं या नहीं?*
        यदि हां। अर्थात आत्मा और प्रकृति भी जगत में निवास कर रहे हैं। तो इससे सिद्ध हुआ कि ईश्वर ने कोई स्थान नहीं घेरा । जब चेतन ईश्वर कोई स्थान नहीं घेरता, तो चेतन आत्मा क्यों स्थान घेरेगी? *इसलिए यह मानना गलत है कि आत्मा स्थान घेरती है।*

2 - यजुर्वेद अध्याय 40 मंत्र 8. "स पर्यगाच्छुक्रमकायमव्रणमस्नाविरं......" इस मंत्र के भाष्य में महर्षि दयानंद सरस्वती जी ने अव्रणम्, इस शब्द की व्याख्या में लिखा है-- 
*"छिद्र रहित, न ही छेद करने योग्य." अर्थात्
 ईश्वर में न कोई छिद्र है, और न कोई छिद्र हो सकता है।* 
     इस बात को ध्यान में रखते हुए कृपया विचार करें। यदि आत्मा स्थान घेरती है, तो जितना स्थान आत्मा घेरती है, उतने स्थान पर ईश्वर की उपस्थिति होगी या नहीं होगी? उतने स्थान पर ईश्वर की उपस्थिति नहीं होनी चाहिए। क्योंकि जैसे एक ईंट (जो कि जड़ एवं भौतिक पदार्थ है,) स्थान घेरती है। जितना स्थान वह एक ईंट घेरती है, उतने स्थान में दूसरी ईंट प्रवेश नहीं कर सकती। क्योंकि पहली ईंट ने वह स्थान घेर लिया है। इसी प्रकार से यदि आत्मा भी स्थान घेरेगी, तो वहां पर ईश्वर को प्रवेश नहीं करने देगी। ऐसी स्थिति में जहां-जहां पर जितनी आत्माएं विद्यमान होंगी, वहां वहां पर ईश्वर उपस्थित नहीं रह पाएगा। उनके चारों ओर ईश्वर विद्यमान रहेगा। ऐसा होने पर ईश्वर में असंख्य छिद्र हो जाएंगे। क्योंकि असंख्य आत्माएं उतना उतना स्थान घेर लेंगी, और वहां ईश्वर को प्रवेश नहीं करने देंगी। ऐसी स्थिति में महर्षि दयानंद जी और वेद से विरोध उत्पन्न होगा। 
       वेद तो यह कह रहा है कि ईश्वर में कोई भी छिद्र न है, और न हो सकता है। आत्मा को स्थान घेरने वाली मानने पर , ईश्वर में असंख्य छिद्र मानने होंगे। यह दोष आएगा।

पूर्वपक्ष - प्रकृति भी तो स्थान घेरती है। उसमें भी ईश्वर प्रवेश कर जाता है। तो आत्मा द्वारा स्थान घेरने पर आत्मा में ईश्वर प्रवेश क्यों नहीं कर पाएगा?
उत्तरपक्ष - प्रकृति स्थान क्यों घेरती है? 
पूर्वपक्ष - क्योंकि वह जड़ पदार्थ है, इसलिए प्रकृति स्थान घेरती है। 
उत्तरपक्ष - तो क्या आत्मा भी जड़ है? 
पूर्वपक्ष - नहीं ।
उत्तरपक्ष - तो फिर आत्मा क्यों स्थान घेरेगी? आपके ही कथन से आपकी बात विरुद्ध हो रही है। यदि जड़ प्रकृति स्थान घेरती है, तो चेतन आत्मा स्थान नहीं घेरेगी, जैसे चेतन ईश्वर स्थान नहीं घेरता है। *इसलिए यही सिद्ध हुआ कि आत्मा स्थान नहीं घेरती है।*
     इस स्थिति में जैसे ईश्वर चेतन है। वह स्थान नहीं घेरता, और वह जड़ प्रकृति में प्रविष्ट हो जाता है। ऐसे ही चेतन ईश्वर, स्थान न घेरने वाली चेतन आत्मा में भी प्रविष्ट हो जाएगा। इस प्रकार से आत्मा में भी ईश्वर का प्रवेश होने से, ईश्वर में छिद्र होने का दोष नहीं आएगा। ईश्वर तथा आत्मा, दोनों व्याप्य व्यापक भाव से एक ही स्थान पर रह भी लेंगे।


*आत्मा रेलगाड़ियों की तरह टकराती भी नहीं।*

साधर्म्य से पंचावयव --- 
     *दो आत्माएं टकराती नहीं हैं। चेतन होने से। जो जो वस्तु चेतन होती है, वह वह टकराती नहीं है। जैसे आत्मा और ईश्वर। तो जैसे आत्मा और ईश्वर दोनों चेतन हैं, इसी प्रकार से दो आत्माएं भी चेतन हैं। इसलिए चेतन होने से, दो आत्माएं टकराती नहीं हैं।*

वैधर्म्य से पंचावयव ----
        *दो आत्माएं टकराती नहीं हैं। चेतन होने से। जो जो वस्तु जड़ होती है, वह वह टकराती है। जैसे 2 रेलगाड़ियां। दो आत्माएं, 2 रेलगाड़ियों की तरह जड़ नहीं हैं। इसलिए चेतन होने से, दो आत्माएं टकराती नहीं हैं।*   
         यह टक्कर वाली बात भी तभी आती है, जब कोई वस्तु भौतिक हो, जड़ हो, स्थान घेरती हो। भौतिक पदार्थों, जड़ पदार्थों, स्थान घेरने वाली चीजों में टक्कर होती है। जैसे 2 रेलगाड़ियां स्थान घेरती हैं, जड़ हैं, भौतिक हैं, उनमें टक्कर होती है। दो आत्माएं तो चेतन हैं, वे स्थान नहीं घेरती, भौतिक नहीं हैं, जड़ नहीं हैं, इसलिए टकराती भी नहीं।

      जो चेतन निराकार वस्तु है, उसमें कोई जड़त्व, भौतिकत्व है ही नहीं, तो टक्कर कैसे होगी? *इसलिए यह मानना भी गलत है, कि दो आत्माओं में टक्कर होती है।*

           जैसे आत्मा और ईश्वर चेतन एवं निराकार होने से, स्थान नहीं घेरते, इसलिये दोनों एक दूसरे में रह लेते हैं, कभी टकराते नहीं। ऐसे ही 2 आत्माएँ भी चेतन एवं निराकार होने से, स्थान नहीं घेरती, तथा एक दूसरे में रह सकती हैं। न वे स्थान घेरती हैं , और न ही उन दोनों आत्माओं में कोई टक्कर होती है।

पूर्वपक्ष - कुछ लोग कहते हैं, सत्यार्थ प्रकाश में लिखा है कि *मुक्ति के स्थान में बहुत सा भीड़ भड़क्का हो जाएगा, क्योंकि वहां आगम अधिक और व्यय कुछ भी नहीं होने से बढ़ती का पारावार न रहेगा।*
(सत्यार्थप्रकाश 9 वाँ समुल्लास, पृष्ठ 199.)
ऐसा प्रमाण देकर वे यह कहना चाहते हैं कि आत्मा यदि मुक्ति में भीड़ भड़क्का करेंगी, तो इसका अर्थ है कि आत्माएँ स्थान घेरती हैं।

उत्तरपक्ष - यदि आप वहां पूर्वपक्षी एवं उत्तरपक्षी का पूरा प्रसंग देखें तो यह पता चलेगा, पूर्वपक्षी कह रहा है, कि *जितनी आत्माओं का मोक्ष हो जाएगा उतनी आत्माएँ, ईश्वर नई बनाकर संसार में रख देगा। इसलिए संसार कभी भी खाली नहीं होगा, और आत्मा मुक्ति से कभी भी वापस नहीं लौटेगी।*
 ऐसा पूर्वपक्ष है।
     तो इस पूर्वपक्ष का खंडन करने के लिए महर्षि दयानंद सरस्वती जी वहां अभ्युपगम सिद्धांत से यह बात कह रहे हैं, कि - *यदि ईश्वर नई आत्माएँ बनाएगा। तो इस पक्ष में, कोई भी वस्तु जब बनाई जाती है, तो किसी न किसी उपादान कारण से बनाई जाती है। वह उपादान कारण जड़ ही होता है, और वह स्थान भी घेरता है। यदि आप ऐसा मानेंगे कि ईश्वर नई आत्माएँ बनाएगा, तो वे जड़ भी होंगी, तथा स्थान भी घेरेंगी। यदि वे स्थान घेरेंगी, तो फिर वे भीड़ भड़क्का भी पैदा करेंगी। और तब तो उनमें टक्कर भी हो सकती है।*
       परंतु यह तो अभ्युपगम सिद्धांत के आधार पर पूर्वपक्ष में दोष दिखाया गया है । यह महर्षि दयानंद जी का स्वमत नहीं है। क्योंकि आज जो नित्य निराकार अल्पज्ञ चेतन आत्माएँ विद्यमान हैं। उन आत्माओं को महर्षि दयानंद जी न तो जड़ मानते, न साकार मानते, और न ही स्थान घेरने वाला मानते। उनके पूरे शास्त्रों में ऐसी झलक कहीं भी नहीं मिलती। 
         आत्मा के जो लक्षण इच्छा द्वेष प्रयत्न ज्ञान आदि महर्षि दयानंद जी ने स्वीकार किए हैं, उनसे यह सिद्ध नहीं होता कि आत्मा जड़ है, साकार है, स्थान घेरती है, या आपस में टकराती है। ये सब इच्छा द्वेष प्रयत्न ज्ञान आदि लक्षण तो चेतन निराकार आत्मा में ही सिद्ध होते हैं। इसलिए उस भीड़ भड़क्के वाली बात से "आत्मा को स्थान घेरने वाली कहना, और टकराने वाली बताना" यह महर्षि दयानंद जी के सिद्धांत के विरुद्ध एवं असंगत है।
         जैसे अभ्युपगम सिद्धांत से यह कहा जाता है कि *यदि ईश्वर अवतार लेगा, तो उसे भूख प्यास गर्मी ठंडी रोग वियोग जन्म मृत्यु आदि सब चीजें दुखी करेंगी।* यह तो पूर्व पक्ष में दोष दिखाया गया है, न कि सिद्धांती का अपना मत है, कि ईश्वर इन भूख प्यास रोग वियोग आदि से दुखी होता है। 
ऐसी ही बात भीड़ भड़क्के वाली है। वह भी पूर्व पक्ष में दोष दिखाया गया है, न कि सिद्धांती का स्वमत है।

*इसलिए ये दोनों बातें गलत हैं, कि आत्मा स्थान घेरती है , और आत्माओं में टक्कर होती है।*
 (पूर्वपक्ष - उत्तरपक्ष)

    आत्मा को साकार मानने वालों का पक्ष हम *पूर्वपक्ष* के नाम से प्रस्तुत करेंगे। और हमारा पक्ष हम *उत्तरपक्ष* के नाम से प्रस्तुत करेंगे।
       यदि आत्मा को साकार मानने वाले लोग ईमानदारी बुद्धिमत्ता और निष्पक्ष भाव से इन बातों पर विचार करेंगे, तो हमें आशा है, उनको भी यह बात ठीक प्रकार से समझ में आ जाएगी, कि *आत्मा साकार नहीं है, बल्कि निराकार ही है।*
         पूर्वपक्ष वालों से विनम्रतापूर्वक हमारे ये प्रश्न हैं, वे भी कृपया इन प्रश्नों का उत्तर सभ्यता पूर्वक देवें।

1 - पूर्वपक्ष - *जो स्थूल होते हैं,... वे सर्वथा निराकार नहीं होते किन्तु परमेश्वर से स्थूल और अन्य कार्य से सूक्ष्म आकार रखते हैं।* -सत्यार्थ प्रकाश, अष्टम समुल्लास, पृष्ठ 177.
यहाँ पर स्थूल वस्तु में सूक्ष्म आकार महर्षि दयानंद जी ने स्वीकार किया है। और आत्मा को सत्यार्थ प्रकाश में स्थूल लिखा है। इसलिए आत्मा में आकार है।

उत्तरपक्ष - यहां पर पूर्वपक्षी की चालाकी देखिए। महर्षि दयानंद जी के मूल पाठ को तोड़ मरोड़ दिया। कुछ का कुछ बना दिया। केवल अपना स्वार्थ सिद्ध करने के लिए। महर्षि के जो शब्द प्रकृति के संबंध में थे, उन्हें जानबूझकर गायब कर दिया। और तोड़ मरोड़ के पूर्वपक्षी ने महर्षि दयानंद जी के इन शब्दों को जीवात्मा के संबंध में प्रस्तुत कर दिया। आप देखिए उसकी मानसिकता कितनी खराब है? महर्षि के साथ भी अन्याय, और जनता को भी भ्रमित करना। सोचिए यह कितना बड़ा अपराध है?  
महर्षि दयानंद जी के सत्यार्थ प्रकाश के मूल शब्द ये हैं।
*और जो स्थूल होता है, वह प्रकृति और परमाणु जगत् का उपादान कारण है। और वे सर्वथा निराकार नहीं, किन्तु परमेश्वर से स्थूल और अन्य कार्य से सूक्ष्म आकार रखते हैं।* -(सत्यार्थ प्रकाश, अष्टम समुल्लास, पृष्ठ 177.)
        यहां तो प्रसंग ही प्रकृति का है , आत्मा का तो प्रसंग ही नहीं है । *इस वचन में तो महर्षि दयानंद जी ने प्रकृति को साकार बताया है, जीवात्मा को नहीं । इस प्रमाण को देकर आत्मा को साकार सिद्ध करने का असफल प्रयास करना, तो सिर्फ धोखा देना मात्र है।*


2 - पूर्वपक्ष - सातवें समुल्लास में निराकारिता का आधार सर्वव्यापकता बताया गया है , न कि स्वामी विवेकानन्द परिव्राजक जी के अनुसार चेतनता।
ईश्वर सर्वव्यापक है इसलिये निराकार है।
सम्पूर्ण सत्यार्थप्रकाश में निराकारिता का आधार चेतनता अथवा अन्य गुण नहीं बताये। किन्तु जो जो वस्तु सर्वव्यापक होगी सिर्फ वही निराकार होगी।

उत्तरपक्ष - यह कहना गलत है कि महर्षि दयानंद जी ने सत्यार्थ प्रकाश में निराकार होने का आधार चेतनता को नहीं बताया है। यह ऋषि वचन देखिए।
 *क्योंकि जो संयोग से उत्पन्न होता है उसको संयुक्त करने वाला निराकार चेतन अवश्य होना चाहिए।* सत्यार्थप्रकाश सप्तम समुल्लास। पृष्ठ 149.

यदि ईश्वर सर्वव्यापक होने से निराकार है ।
तो महर्षि दयानंद जी ने सत्यार्थ प्रकाश के नौवें समुल्लास में प्रकृति को भी विभु अर्थात् व्यापक बताया है । 
क्या प्रकृति निराकार है? वह तो साकार है। *इसलिए व्यापक होने से निराकार कहना भी गलत है। जब व्यापक होने से निराकार कहना गलत है, तो एकदेशी होने से साकार कहना भी गलत है। इसलिये आत्मा एकदेशी होने से साकार सिद्ध नहीं होता।*

 (महर्षि का अभिप्राय है जितना बड़ा ब्रह्मांड है, उतने पूरे ब्रह्मांड में प्रकृति विभु है अर्थात व्यापक है.)
      यहां पर पूर्वपक्षी लोग छल का प्रयोग करते हैं । *प्रकृति को कहते हैं, व्यापक है, सर्वव्यापक नहीं । इसलिये सर्वव्यापक न होने से एकदेशी है। ईश्वर सर्वव्यापक है।* यह छल का प्रयोग है।
*क्या प्रकृति, जीवात्मा के समान एकदेशी है? अर्थात् जितना फैलाव आत्मा का है, क्या उतना ही प्रकृति का है? यदि नहीं । तो ब्रह्मांड की सीमा तक व्यापक प्रकृति को, बहुत छोटे आत्मा के समान एक देशी कहना छल ही तो है।*

और मैं जो कहता हूं कि *आत्मा निराकार है, चेतन होने से।* तो मेरा पंचावयव मैं अपने पूर्व लेख में लिख ही चुका हूँ। फिर से याद दिला देता हूँ, पढ़ लीजिये।

*आत्मा निराकार है। चेतन होने से। जो जो वस्तु चेतन होती है, वह वह निराकार होती है। जैसे ईश्वर। आत्मा भी ईश्वर के समान चेतन है। इसलिए चेतन होने से आत्मा निराकार है।*

मेरे पंचावयव का खंडन तो प्रमाण तर्क से पूर्वपक्षी लोग कर नहीं पाए। और तर्क प्रमाण के बिना, सिर्फ इतना कह देने मात्र से कुछ नहीं होता, कि *चेतन होने से निराकार की सिद्धि नहीं होती।*

दूसरी बात -- क्या आप लोग सिर्फ सत्यार्थ प्रकाश को ही प्रमाण मानते हैं ? पंचावयव को किसी विषय की सिद्धि का साधन नहीं मानते? केवल सत्यार्थ प्रकाश का ही प्रमाण क्यों माँगते हैं? यह भी अन्याय है। जबकि अपने पक्ष की सिद्धि करने के लिए महर्षि गौतम जी और महर्षि दयानंद जी ने अनेक सुविधाएं दे रखी हैं। प्रत्यक्ष आदि 8 प्रमाण , तर्क और पंचावयव। इतने साधनों से कोई भी व्यक्ति अपने पक्ष की सिद्धि कर सकता है। *फिर यह आग्रह करना कि, "सत्यार्थप्रकाश में तो ऐसा कहीं नहीं लिखा," बातचीत करने की अपनी अज्ञानता को प्रकाशित करना है।*

3 - पूर्वपक्ष - *जीवात्मा निराकार नहीं, इसीलिये व्यापक नहीं है।*

उत्तर - यही तो विषय सिद्ध करना था कि जीवात्मा साकार है या निराकार ? और आपके इस कथन में , जो बात सिद्ध नहीं है, उसी को आप हेतु बना रहे हैं , और सिद्धि कर रहे हैं जीवात्मा व्यापक नहीं है, इस बात की। *यह तो हमारी चर्चा का विषय ही नहीं है, कि जीवात्मा एकदेशी है या व्यापक है?* यह विषय से बाहर की बात है। इसलिये आपका कथन अशुद्ध है। *इससे आत्मा साकार सिद्ध नहीं होता।*

इसलिए यह बात इन प्रमाणों एवं तर्क से अच्छी प्रकार से सिद्ध होती है कि *आत्मा साकार नहीं, बल्कि निराकार है.*
*आत्मा निराकार है, साकार नहीं।* इस बात को हम अपने लेख के पिछले अनेक भागों में प्रमाण और तर्क से अच्छी प्रकार से सिद्ध कर चुके हैं। और पूर्वपक्षियों के अनेक प्रश्नों और आक्षेपों का उत्तर भी भली प्रकार से दे चुके हैं। 
       फिर भी, पूर्व पक्षी लोगों का आग्रह है कि सत्यार्थ प्रकाश से ही इस बात को सिद्ध किया जाए। यद्यपि यह आग्रह ऋषियों के सिद्धांत के विरुद्ध तथा अनुचित है। (क्योंकि महर्षि गौतम जी एवं महर्षि दयानंद सरस्वती जी, अपनी किसी भी बात को सिद्ध करने के लिए, प्रत्यक्ष आदि 8 प्रमाण, तर्क तथा पंचावयव प्रक्रिया को स्वीकार करते हैं।)
     फिर भी दुर्जन दोष न्याय से हम अनेक प्रमाण सत्यार्थ प्रकाश में से यहां प्रस्तुत करेंगे और उनके आधार पर भी हम यह सिद्ध करेंगे, कि *आत्मा निराकार है, साकार नहीं।* आत्मा को निराकार सिद्ध करने वाले कुछ और प्रमाण व तर्क यहाँ प्रस्तुत किये जाते हैं।

प्रमाण 1 - सत्यार्थ प्रकाश के सातवें समुल्लास में पृष्ठ 158 पर प्रश्न लिखा है।
*प्रश्न - जीव स्वतंत्र है वा परतंत्र?*
*उत्तर - अपने कर्तव्य कर्मों में स्वतंत्र और ईश्वर की व्यवस्था में परतंत्र है। "स्वतंत्रः कर्ता" यह पाणिनीय व्याकरण का सूत्र है। जो स्वतंत्र अर्थात स्वाधीन है, वही कर्ता है।*

महर्षि दयानंद सरस्वती जी ने इन वाक्यों में जीव को स्वतंत्र, स्वाधीन और कर्ता बताया है। इससे सिद्ध है कि जीव (आत्मा) निराकार है। क्योंकि जितनी भी साकार वस्तुएं हैं, उनमें से कोई भी स्वतंत्र, स्वाधीन अथवा कर्ता नहीं है। बल्कि वे तो जड़, पराधीन और साधन आदि के रूप में हैं। जैसे स्कूटर कार रेलगाड़ी लकड़ी लोहा मेज कुर्सी रोटी कपड़ा आदि। 

फिर इसके आगे लिखा है।
*प्रश्न - स्वतंत्र किसको कहते हैं?*
*उत्तर - जिसके आधीन शरीर, प्राण, इंद्रिय और अंतःकरण आदि हों।*

इन वाक्यों में भी महर्षि दयानंद जी ने स्वतंत्र की परिभाषा में यह बताया है कि *शरीर प्राण इंद्रिय और अंतःकरण आदि जिसके आधीन हों, वह स्वतंत्र है।* ये लक्षण भी चेतन और निराकार वस्तु के ही सिद्ध होते हैं।
लोहा लकड़ी कार स्कूटर आदि जड़ और साकार वस्तुओं के आधीन तो शरीर प्राण इंद्रिय अंतःकरण आदि नहीं होते। वे तो स्वयं जड़ पदार्थ हैं, तथा दूसरे चेतन पदार्थों के आधीन हैं।


प्रमाण 2 - सत्यार्थप्रकाश के सप्तम समुल्लास में पृष्ठ 159 पर लिखा है।
*प्रश्न - जीव और ईश्वर का स्वरूप गुण कर्म और स्वभाव कैसा है? उत्तर - दोनों चेतन स्वरूप हैं । स्वभाव दोनों का पवित्र अविनाशी और धार्मिकता आदि है। ......जीव के संतानोत्पत्ति उनका पालन शिल्पविद्या आदि अच्छे बुरे कर्म हैं।....... (जीवन) प्राण का धारण करना (मन:) निश्चय स्मरण और अहंकार करना (गति) चलना (इंद्रिय) सब इंद्रियों को चलाना (अंतर्विकार) भिन्न भिन्न क्षुधा तृषा हर्ष शोक आदि युक्त होना, ये जीवात्मा के गुण परमात्मा से भिन्न हैं। इन्हीं से आत्मा की प्रतीति करनी, क्योंकि वह स्थूल नहीं है।*

        अब महर्षि जी के इन वचनों के आधार पर कुछ प्रश्न उठते हैं। *जो लोग आत्मा को साकार कहते हैं, वे कृपया उत्तर दें, कि महर्षि दयानंद जी ने जो ऊपर जीवात्मा के लक्षण बताएं हैं , क्या ये लक्षण साकार वस्तुओं में उपलब्ध होते हैं?* यदि नहीं होते, तो इससे सिद्ध होता है कि *आत्मा साकार नहीं है, निराकार है*. वे प्रश्न इस प्रकार से हैं।

(क) - *क्या पृथ्वी लोहा लकड़ी कार रेल विमान आदि साकार वस्तु का स्वभाव पवित्र, और धार्मिकता आदि भी हो सकता है?*

(ख) - *क्या पृथ्वी लोहा लकड़ी कार रेल विमान आदि साकार वस्तु संतानोत्पत्ति उनका पालन और शिल्पविद्या आदि का काम भी कर सकती है?* 

(ग) - *क्या पृथ्वी लोहा लकड़ी कार रेल विमान आदि साकार वस्तु में इच्छा ज्ञान प्रयत्न सुख दुख का अनुभव करना, प्राण धारण करना, निश्चय स्मरण करना भूख प्यास लगना आदि गुण कर्म भी हो सकते हैं?*
हमारे चारों ओर लोहा लकड़ी स्कूटर कार मेज कुर्सी आदि हजारों साकार वस्तुएं विद्यमान हैं, इनमें से किसी भी साकार वस्तु में ऊपर बताए जीवात्मा वाले लक्षण उपलब्ध नहीं हैं। *इससे सिद्ध होता है कि जीवात्मा साकार नहीं है, निराकार है।*


प्रमाण 3 - सत्यार्थ प्रकाश के अष्टम समुल्लास में महर्षि दयानंद जी ने पृष्ठ 175 पर लिखा है, 
 *जो ब्रह्म से पृथिव्यादि कार्य उत्पन्न होवे, तो पृथिव्यादि कार्य के जड़ आदि गुण ब्रह्म में भी होवें, अर्थात् जैसे पृथिव्यादि जड़ हैं, वैसा ब्रह्म भी जड़ हो जाय।*

       इन वाक्यों में महर्षि दयानंद जी ने पृथ्वी आदि साकार पदार्थों को जड़ वस्तु बतलाया है। इससे सिद्ध होता है कि यदि आत्मा को भी साकार मानेंगे, तो उसे भी जड़ मानना होगा। क्या पूर्व पक्षी लोग आत्मा को जड़ मान लेंगे? यदि नहीं मानेंगे, तो क्यों व्यर्थ में हठ किए बैठे हैं ? उन्हें ईमानदारी से सत्य को स्वीकार कर लेना चाहिए। तो सार यह हुआ कि

*आत्मा चेतन वस्तु होने से निराकार है, साकार नहीं।*


प्रमाण 4 - सत्यार्थ प्रकाश के सातवें समुल्लास में पृष्ठ 166 पर सगुण निर्गुण के प्रसंग में महर्षि दयानंद जी एक प्रश्न के उत्तर में ऐसा लिखते हैं ।
*प्रश्न - भला एक म्यान में दो तलवार कभी नहीं रह सकती हैं। एक पदार्थ में सगुणता और निर्गुणता कैसे रह सकती हैं?*

*उत्तर - जैसे जड़ के रूप आदि गुण हैं, और चेतन के ज्ञान आदि गुण, जड़ में नहीं हैं। वैसे चेतन में इच्छा आदि गुण हैं, और रूपादि, जड़ के गुण नहीं हैं।*

       इन वाक्यों में महर्षि दयानंद जी ने जड़ वस्तु में रूप आदि गुण स्वीकार किए हैं, और चेतन के इच्छा आदि गुण, जड़ वस्तु में स्वीकार नहीं किए । 
       इसी प्रकार से चेतन वस्तु में इच्छा आदि गुण स्वीकार किए हैं, और रूप आदि जड़ वस्तु के गुण, चेतन वस्तु में स्वीकार नहीं किए ।
      इसका अर्थ यह हुआ कि आत्मा में इच्छा आदि गुण हैं, तो वह चेतन हुआ। और *जैसे ईश्वर इच्छा आदि गुणों से युक्त होने के कारण चेतन है, वह निराकार है। तो आत्मा भी इच्छा आदि गुणों से युक्त होने के कारण चेतन है, वह भी निराकार है।*
      रूप आदि गुण पृथ्वी आदि जड़ वस्तु के होते हैं । आत्मा तो जड़ नहीं है। इसलिए उसमें रूप आदि गुण नहीं हैं। जब रूप आदि नहीं हैं, तो आकार सिद्ध नहीं हुआ। *इसलिए आत्मा निराकार है , साकार नहीं।*

       हमने इस लेख में चार प्रमाण महर्षि दयानंद सरस्वती जी के सत्यार्थ प्रकाश से प्रस्तुत किए हैं। अब एक प्रमाण महर्षि कणाद जी का वैशैषिक दर्शन से भी देख लीजिए।

प्रमाण 5 - *विभवान्महानाकाशः। तथा चात्मा।।
तदभावात् अणु मनः। तथा चात्मा।।*
(वैशैषिक दर्शन 7-2-22,23.)
 अर्थात व्यापक होने से आकाश महत् परिमाण वाला है। इसी प्रकार से व्यापक होने से परमात्मा भी महत् परिमाण वाला है। व्यापकत्व का अभाव होने से मन अणु अर्थात छोटा (एकदेशी) है। इसी प्रकार से व्यापक न होने से आत्मा भी अणु अर्थात् छोटा (एकदेशी) है।
      वैशैषिक दर्शन में, इस प्रसंग में, परिमाण गुण की परीक्षा चल रही है। इस दर्शन में दो प्रकार से महत्परिमाण और अणुपरिमाण स्वीकार किया गया है। 
          एक- जिस वस्तु में बहुत सारे परमाणु अर्थात् अवयव हों, और वह आँखों से भी दिखती हो, उसमें महत्परिमाण होता है। जैसे पृथ्वी। 
        दूसरा - परमाणु भले ही न हों, परंतु वह व्यापक हो, तो भी उसमें महत्परिमाण माना जाता है। जैसे आकाश।
      तो इन सूत्रों में कहा है, कि आकाश और ईश्वर दोनों व्यापक हैं। *व्यापक होने से ये दोनों महत्परिमाण वाले हैं। न कि इनमें अवयव अधिक होने से, ये दोनों महत्परिमाण वाले हैं।*
          जैसे यहां ईश्वर को व्यापक होने के कारण महत्परिमाण वाला स्वीकार किया, अवयव या परमाणु अधिक होने से महत्परिमाण वाला नहीं माना, इसीलिए वह निराकार है।

       इसी प्रकार से उक्त सूत्रों में आत्मा को भी अणु परिमाण वाला कहा गया है। क्यों? उसका भी कारण यही है कि आत्मा भी व्यापक न होने से अणु अर्थात छोटा (एकदेशी) है। आत्मा के एकदेशी होने में भी व्यापकता न होना कारण है। न कि अवयव कम होना। *यदि आत्मा साकार होता, तो उसके एकदेशी होने में अवयवों की न्यूनता को कारण बताया जाता ; व्यापकता का अभाव कारण नहीं बताया जाता।* इसलिये इन सूत्रों से सिद्ध है कि *आत्मा और ईश्वर दोनों निराकार हैं।*

      इसलिए यह बात इन प्रमाणों एवं तर्क से अच्छी प्रकार से सिद्ध होती है कि *आत्मा साकार नहीं, बल्कि निराकार है.*

 जीवात्मा’ का स्थान मनुष्य ‘शरीर’ के अंदर कहाँ है?
समाधान :-
कठोपनिषद् में लिखा है, कि- ‘हृदि ह्येष आत्मा’ अर्थात् आत्मा हृदय में रहता है। लेकिन वो हमेशा एक जगह नहीं रहता। उपनिषदों में अनेक स्थानों पर ऐसी चर्चा आती है। जीवात्मा चौबीस घंटे एक जगह नहीं रहता, वो स्थान भी बदलता रहता है। जैसे आप अपने घर में क्या एक ही कमरे में बैठे रहते हैं, बदलते रहते हैं न। कभी बेडरूम में चले गए, कभी किचन में चले गए, कभी बाथरूम में चले गए, कभी ड्राइंगरूम में चले गए। ऐसे ही यह शरीर जीवात्मा का घर है। वो जब इच्छा होती है, तो अपनी जगह बदल लेता है।
जीवात्मा के सोने के लिए लिखा है, कि हृदय में से बहुत सारी नाड़ियाँ निकलती हैं, उनमें से एक नाड़ी का नाम है- ‘पुरीतत’। जब जीवात्मा सोता है, तो पुरीतत नाम की नाड़ी में जाकर सोता है, यह उसका बेडरूम है। एक उपनिषद् है- ”ऐतरेय’ उपनिषद्, उसमें जीवात्मा के स्थान की चर्चा आई है। उसमें एक वाक्य लिखा है- ‘त्रयः आवसथाः’ अर्थात् जीवात्मा के शरीर में निवास के तीन स्थान हैं- ‘त्रयः’ तीन। फिर आगे लिखा है-‘अयं आवसथ, अयं आवसथ, अयं आवसथा।’ इसका मतलब होता है- यह स्थान है, यह स्थान है और यह स्थान है। अब कौन सा स्थान है, उसका नाम तो लिखा नहीं। दरअसल, विद्यार्थियों को कोई गुरूजी पढ़ा रहे होंगे, जैसे अब आप मेरे सामने बैठे हैं। और मैं कहूँ देखो, जीवात्मा शरीर में तीन जगह रहता है, एक यहाँ रहता है, एक यहाँ रहता है, और एक यहाँ रहता है। अब मैंने ऐसे इशारे से बता दिया और नाम नहीं बोला, तो किसी लिखने वाले ने यूँ का यूँ लिख दिया, कि- यहाँ रहता है, यहाँ रहता है, यहाँ रहता है। अब भई! सामने दिखता हो तो समझ भी जाए, किताब में लिखने से क्या पता चले, कि कहाँ रहता है? ‘यहाँ’ का मतलब क्या? इसलिए पता नहीं चला, कहाँ रहता है। पर तीन जगह लिखा है, यह तो स्पष्ट है। तीन जगह कौन सी? यह स्पष्ट नहीं है।
जीवात्मा के तीन अलग-अलग स्थान हैं। जाग्रत में जीवात्मा कहीं और होता है, स्वप्न में कहीं और होता है, सुषुप्ति में कहीं और होता है। मतलब स्थान बदलता रहता है। इतनी बात तो स्पष्ट है।
एक उपनिषद् है- ‘ब्रह्मोपनिषद्’। वैसे तो वो प्रमाणिक उपनिषद् नहीं है। पर कुछ लोग दूसरे उपनिषदों को भी पढ़ लेते हैं। कुछ अच्छी बातें वहाँ भी मिल जाती हैं। ‘ब्रह्मोपनिषद््’ में एक जगह पर आत्मा के तीन स्थान बताए गए- एक नेत्र, एक कंठ, और एक हृदय। ये तीन स्थान उसमें नामपूर्वक लिखें हैं। वैसे प्रमाणिक तो नहीं है, फिर भी हो सकता है, वो भी अनुकूल हो। इसलिए कुछ कह नहीं सकते, लेकिन जीवात्मा जगह बदलता है, इसमें कोई संशय नहीं है।-[स्वामी विवेकानन्द परिव्राजक ]
शंका :- जीवात्मा एक शरीर को छोड़ दे, तो दूसरे शरीर में जाने के लिए उसको कितना समय लगता है?

समाधान :-
उपनिषद् में लिखा है, कि एक कीड़ा अपने दो अगले पाँव उठाकर के ऐसे रख देता है और पीछे के पाँव उठा करके यूँ आगे चलता रहता है। जैसे वो अगले पाँव उठाकर यूँ चलता है, बस इतनी देर में जीवात्मा एक शरीर छोड़कर दूसरा शरीर धारण कर लेता है।
मोटे-तौर पर यह मानना चाहिए कि उसको बहुत ज्यादा देर नहीं लगती, क्योंकि हर आत्मा का कर्मों का बही-खाता (एकाउंट( तैयार ही रहता है।-[स्वामी विवेकानन्द परिव्राजक ]

 शंका :- जीवात्मा निराकार है या साकार? इस प्रश्न के उत्तर में आपने जीवात्मा को निराकार बतलाया था और कहा था कि वो चेतन है। जो चेतन होता है, वो निराकार होता है और जो जड़ होता है वो साकार होता है। अब प्रश्न बना कि ईश्वर निराकार होने से एक है, परंतु जीवात्मा निराकार होने से अनेक क्यों है? क्या कठोपनिषद् के आचार्य ने जीवात्मा को आकारवान माना है?
समाधान कर्ता :- स्वामी विवेकानन्द परिव्राजक 

समाधान :-
निराकार होने से वो वस्तु एक ही होगी, ऐसा कोई नियम नहीं है, और न ही मैंने ऐसा बताया। निराकार होने से वो चेतन है, यह तो मैंने बताया था। ईश्वर निराकार है, वो चेतन है। जीवात्मा निराकार है, वो भी चेतन है। ये दोनों निराकार हैं, दोनों चेतन हैं। दूसरी बात यह है कि- निराकार वस्तु एक भी हो सकती है, अनेक भी हो सकती हैं। जीवात्मा अनेक हैं और ईश्वर एक है। ईश्वर स्वभाव से एक है और जीवात्मा स्वभाव से अनेक हैं। जिस वस्तु का जो स्वभाव होता है, उसके स्वभाव पर ‘क्यों’ का प्रश्न करना अनुचित है। स्वभाव है, सो है। स्वभाव का मतलब क्या हुआ? ‘स्व’ ‘भाव’, यानि उसकी ओरीजिनैलटी, वो उसका स्वभाव है। अनादिकाल से उसका वैसा ही धर्म है। जो है सो है, अब हम उसमें तोड़-मरोड़ कैसे कर सकते हैं। हमने कहा था- जो निराकार है, वो चेतन है, जिसका आकार है, वो जड़ है। बताइये नियम कहाँ टूटा। पृथवीजड़ है, पृथवी का आकार है, कहाँ नियम टूटा। वायु और आकाश भी जड़ हैं। उनका आकार भी सूक्ष्म है, हम इनको आँखों से देख नहीं सकते। वायु और आकाश तो स्थूल भूत हैं। अभी इससे छोटी सूक्ष्म चीजें और बहुत सारी हैं। मन है, इन्द्रियाँ हैं, बु(ि है। बिल्कुल नीचे चले जाओ, सत्त्व, रज और तम नामक प्रकृति के मूल तत्त्व, वो भी साकार हैं। पर उनमें आकार सूक्ष्म है। इनको आँखों से नहीं देख सकते, माइक्रोस्कोप से भी नहीं देख सकते। फिर भी वो साकार हैं। सत्यार्थ-प्रकाश में महर्षि दयानंद जी ने लिखा है- यदि प्रकृति निराकार होती, तो उस निराकार प्रकृति से साकार जगत कैसे बनता? जगत साकार है या निराकार? साकार है न। जब साकार जगत है तो प्रकृति भी साकार होगी। जैसे गुण कारण द्रव्य में होते हैं, वैसे कार्य द्रव्य में आते हैं। यह नियम है। प्रकृति साकार है इसलिये जगत साकार है। भले ही प्रकृति का आकार सूक्ष्म है, वो हमको इन आँखों से नहीं दिखता, तो भी साकार है। आत्मा एक नहीं अनेक है, पर वो निराकार होने से चेतन है। और ईश्वर भी निराकार होन से चेतन है। सूक्ष्म शरीर जड़ है। वो निराकार नहीं है। वह साकार है। पर वो सूक्ष्म इतना है, कि हम आँख से नहीं देख पाते। जिन चीजों को हम आँख से देख नहीं पाते, उनको मोटी भाषा में निराकार कह देते हैं। वास्तव में वो पूरी तरह निराकार नहीं है। पूरी तरह निराकार वस्तुयें वो ही हैं, जो ‘चेतन’ वस्तुएं हैं।
।प्रकृति साकार है। परन्तु जड़ होने से वह बन्धन का अनुभव नहीं करती। इसलिये प्रकृति की मुक्ति का कोई प्रश्न ही नहीं है। जीवात्मायें निराकार हैं और वे बंधन में आती रहती हैं। इसलिये उनको मुक्ति की आवश्यकता पड़ती है। ईश्वर निराकार है, परन्तु योगदर्शन व्यास-भाष्य में लिखा है, कि ईश्वर तो हमेशा से ही मुक्त है। वो बंधन में आया ही नहीं। इसलिए उसके लिये कैसे कहेंगे, कि उसको मुक्ति की आवश्यकता है। उसको आवश्यकता नहीं है, वो पहले से ही मुक्त है। अनादिकाल से मुक्त है, आज भी मुक्त है और आगे अनंतकाल तक मुक्त रहेगा। इसलिये ईश्वर को तो मुक्ति की आवश्यकता नहीं है। जीवात्माओं को ही मुक्ति की आवश्यकता है, क्योंकि वो बंधन में आते रहते हैं।
- स्वामी विवेकानंद परिव्राजक, दर्शन योग महाविद्यालय 

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