ईश्वर सच्चिदानन्द स्वरुप - ধর্ম্মতত্ত্ব

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29 June, 2020

ईश्वर सच्चिदानन्द स्वरुप

ईश्वर का सच्चिदानन्द स्वरुप पर विचार

 ईश्वर के अनेक नामों में से एक नाम सच्चिदानन्द भी है। प्रायः हम सुनते हैं कि जयघोष करते हुए धार्मिक आयोजनों में कहा जाता कि श्री सच्चिदानन्द भगवान की जय हो। यह सच्चिदानन्द नाम ईश्वर का क्यों व किसने रखा है? इसका तात्पर्य व अर्थ क्या है? इसी पर विचार करने के लिए कुछ पंक्तियां लिख रहे हैं। सृष्टि के समग्र ऐश्वर्य का स्वामी होने के कारण इस सृष्टि के रचयिता, पालन कर्ता व संहारकर्ता को ईश्वर कहा जाता है। इस संसार में जितना भी वैभव या धन, दौलत जो ऐश्वर्य के ही भिन्न नाम है, इसका स्वामी केवल एक सृष्टिकर्ता ईश्वर है। ईश्वर के तीन प्रमुख कार्यों सृष्टि की रचना, इसका पालन व प्रलय करने के कार्यों को करने वाला तथा सृष्टि की समस्त सम्पत्ति का स्वामी वही एक ईश्वर है, यह जान लेने पर अब सच्चिदानन्द शब्द व ईश्वर के स्वरूप पर विचार करते हैं। सच्चिदानन्द मुख्यतः तीन शब्दों व पदों को जोड़कर बनाया गया है जिसमें पहला पद है सत्य, दूसरा है चित्त और तीसना पद आनन्द है। यह ईश्वर का स्वाभाविक स्वरूप अनादि काल से है व अनन्त काल अर्थात् हमेशा ऐसे का ऐसा ही रहेगा, इसमें कोई परिवर्तन कभी नहीं होगा, देश-काल-परिस्थितियों का इस पर कोई प्रभाव नहीं होगा।
सत्य शब्द किसी के अस्तित्व की सत्यता को कहते हैं। ईश्वर सत्य है, यदि ऐसा कहें तो इसका अर्थ होता है कि ईश्वर का अस्तित्व वास्तविक व यथार्थ है अर्थात् सत्य है। इसका विपरीत अर्थ करें तो कहेंगे कि ईश्वर के अस्तित्व होना मिथ्या नहीं है। ऐसा नहीं है कि ईश्वर हो ही न और हम कहें कि उसका अस्तित्व इस संसार व जगत में विद्यमान व उपस्थित है। इसी प्रकार से जिन पदार्थों को भी सत्य कहा व माना जाता है उनका अस्तित्व होता है और जिनका अस्तित्व नहीं होता वह मिथ्या पदार्थ होते व कहे जाते हैं। इससे यह ज्ञात हुआ कि ईश्वर की सत्ता अवश्य विद्यमान है, यह सत्य है, झूठ नहीं है। अब दूसरे शब्द चित्त पर विचार करते हैं। चित्त का अर्थ है चेतन पदार्थ। चेतन का अर्थ है कि उसमें संवेदनशीलता है, जड़ता नहीं। ईश्वर जड़ या भौतिक पदार्थ नहीं है। वह जड़ के विपरीत चेतन गुण वाला तथा भौतिक के स्थान पर अभौतिक पदार्थ है। जड़ पदार्थों में स्वतः कोई क्रिया नहीं होती, वह चेतन की प्रेरणा या ईश्वर द्वारा निर्मित प्राकृतिक नियमों के अनुसार होती है जिन्हें भी हम ईश्वर की प्रेरणा कह सकते हैं। हम व हमारी आत्मा चेतन है, जड़ नहीं। यह मस्तिष्क जो कि हमारी आत्मा का साधन है, इसकी सहायता से सोचती है और विचार करने का सामर्थ्य सभी चेतन आत्माओं में होता है। यदि आत्मा न हो तो मस्तिष्ठ निष्क्रिय ही रहेगा। इसका कोई सकारात्मक उपयोग नहीं होगा। आत्मा न केवल मस्तिष्क अपितु शरीर के सभी अंगों व इन्द्रियों का मन व मस्तिष्क की सहायता से अपने उद्देश्य की पूर्ति में साधन रूप में उपयोग करती है। शरीर में आत्मा द्वारा पैर को इशारा या प्रेरणा करने पर पैर चलने लगते हैं, रूकने का इशारा करने पर रूक जाते हैं। ऐसी ही सब अंगों की स्थिति है। इसी प्रकार से ईश्वर भी मूल प्रकृति को प्रेरणा कर सृष्टि की रचना करते हैं और सृष्टि की अवधि पूरी होने पर इसकी प्रलय करते हैं। वह जीवात्माओं के कर्मों के साक्षी होकर उसके शुभाशुभ अर्थात पुण्य-पाप कर्मों के फल देते हैं। उन्हें सर्वव्यापक और सर्वान्तर्यामी होने के कारण सभी जीवों के अतीत व वर्तमान के कर्मों का पूरा-पूरा ज्ञान होता है। कोई भी जीव कर्म करने के बाद उसके फल को भोगे बिना छूटता नहीं है। पुण्य कर्मों का फल सुख व अशुभ अथवा पाप कर्मों का फल दुख होता है। जन्म व मरण भी हमारे शुभाशुभ कर्मों के अनुसार ईश्वर की व्यवस्था से प्राप्त होते हैं। यह था ईश्वर का चेतन स्वरूप और उस स्वरूप के द्वारा किये जाने वाले कुछ कार्य।
आनन्द भी ईश्वर का स्वाभाविक गुण है। वह आनन्द से युक्त व पूर्ण है। उसमें अपने लिये कोई इच्छा नहीं है। इच्छा का कोई उद्देश्य होता है। इच्छा तो तब हो जब कोई अपूर्णता या आवश्यकता हो। ऐसा ईश्वर में कुछ घटता नहीं है। वह सदा-सर्वदा-हर समय सुख की पराकाष्ठा से परिपूर्ण है और हमेशा रहेगा। आनन्द का गुण होने के कारण वह सदा शान्तचित्त रहता है। इसमें न क्रोध होता है, न कोई निजी कामना, न रोग, शोक और मोह अथवा राग व द्वेष। इस प्रकार से वह सदा स्थिर चित्त रहकर संसार का संचालन व पालन करता है। उसका यह आनन्द का गुण हम जीवों के लिए बहुत लाभदायक है। हम विधि पूर्वक स्तुति-प्रार्थना-उपासना करके उससे इच्छित कामनायें सिद्ध व पूरी कर सकते हैं। जीवात्मा का स्वरूप ईश्वर की तुलना में सत्य-चित्त-आनन्द की अपेक्षा सत्य-चित्त मात्र ही है। जीवात्मा में आनन्द का अभाव है। इसी कारण वह जन्म-जन्मान्तरों में सुख व आनन्द की खोज व प्राप्ति में भटकता रहता है। भौतिक पदार्थों जिनके पीछे वह भागता है, आधुनिक व वर्तमान युग में विवेकहीन होकर मनुष्य कुछ अधिक ही दौड़ लगा रहा है, उसमें क्षणिक सुख है जो कि अस्थाई है। वह ईश्वर से प्राप्त होने वाले आनन्द की तुलना में नगण्य हैं। ईश्वर व उसके आनन्द को विवेक से ही जाना जा सकता है। इसी कारण विवेकशील धार्मिक लोग धन व भौतिक पदार्थों के पीछे दौड़ने के स्थान पर ईश्वर की प्राप्ति के लिए प्रयत्न करते हैं। यही वास्तविक धर्म-कर्म होता है। स्तुति, प्रार्थना, उपासना, यज्ञ, अग्निहोत्र, सेवा, परोपकार, माता-पिता-अतिथियों का सत्कार आदि से आनन्द की प्राप्ति व दुःखों से छूटने के लक्ष्य की प्राप्ति होती है। ईश्वर का आनन्द कैसे प्राप्त होता है? इसका विधान कुछ ऐसा है कि जैसे स्विच आन करने पर हमारे घरों के बल्ब जल उठते हैं वैसे ही उपासना में ईश्वर से सम्पर्क व कनेक्शन लग जाने अर्थात् ध्यान में स्थिरता व निरन्तरता आ जाने पर उसका आनन्द हमारी आत्मा में प्रवाहित होने से हमारे दुःख व क्लेश दूर होकर हम आनन्द से भरपूर हो जाते है। सिद्ध योगियों को यह आनन्द मिलता है। योग में आंशिक सफलता मिलने पर भी कम मात्रा से यह आनन्द प्राप्ति का क्रम आरम्भ हो जाता है। योगी जितना आगे बढ़ता है उतना ही अधिक आनन्द उसको प्राप्त होता है। इस प्रकार हमने ईश्वर के आनन्द स्वरूप पर भी विचार किया और कुछ जानने का प्रयास किया
अतः सत्य, चित्त व आनन्द से युक्त होने के कारण ईश्वर के प्रमुख नामों में से एक नाम सच्चिदानन्द भी है। हम आशा करते हैं कि पाठक इसे जानने के बाद ईश्वर की स्तुति-प्रार्थना-उपासना अर्थात् क्रियात्मक योग की ओर प्रेरित हो सकते हैं और होना भी चाहिये। यौगिक जीवन ही आदर्श मानव जीवन है। इसके विपरीत तो भोगों से युक्त जीवन ही होता है जिसका परिणाम जन्म-जन्मान्तरों के बन्धन, रोग, दुःख व अवनति का मिलना होता है। मार्ग का चयन हमारे हाथ में है। जिसे योग मार्ग अच्छा लगे वह उस पर चले और जिसे भोग मार्ग अच्छा लगे वह उस पर चल सकता है, फल देना ईश्वर के हाथ में है। प्रसिद्ध सत्य लोकोक्ति है कि मनुष्य कर्म करने में स्वतन्त्र आफ फल भोगने में परतन्त्र है।
सच्चिदानन्द। यह शब्द तीन शब्दों से बना हैं। सत्+चित्+आनन्द। स्वामी दयानन्द ने सत्यार्थ प्रकाश के प्रथम समुल्लास में इस शब्द का प्रयोग ईश्वर के अनेक नामों की व्याख्या में किया हैं।
सत् शब्द पर विचार
स्वामी दयानन्द लिखते है- (अस भुवि) इस धातु से ‘सत्’ शब्द सिद्ध होता है। ‘यदस्ति त्रिषु कालेषु न बाधते तत्सद् ब्रह्म’ जो सदा वर्त्तमान अर्थात् भूत, भविष्यत्, वर्त्तमान कालों में जिसका बाध न हो, उस परमेश्वर को ‘सत्’ कहते हैं।

वे॒नस्तत्प॑श्य॒न्निहि॑तं॒ गुहा॒ सद्यत्र॒ विश्वं॒ भव॒त्येक॑नीडम्।
तस्मि॑न्नि॒दꣳ सं च॒ वि चै॑ति॒ सर्व॒ꣳ सऽ ओतः॒ प्रोत॑श्च वि॒भूः प्र॒जासु॑ ॥-यजुर्वेद32/8
पद पाठ वे॒नः। तत्। प॒श्य॒त्। निहि॑त॒मिति॒ निऽहि॑तम्। गुहा॑। सत्। यत्र॑। विश्व॑म्। भव॑ति। एक॑नीड॒मित्येकऽनीडम् ॥ तस्मि॑न्। इ॒दम। सम्। च॒। वि। च॒। ए॒ति॒। सर्व॑म्। सः। ओत॒ इत्याऽउ॑तः। प्रोत॒ इति॒ प्रऽउ॑तः। च॒। वि॒भूरिति॑ वि॒ऽभूः। प्र॒जास्विति॑ प्र॒ऽजासु॑ ॥ पदार्थान्वयभाषाः -हे मनुष्यो ! (यत्र) जिसमें (विश्वम्) सब जगत् (एकनीडम्) एक आश्रयवाला (भवति) होता (तत्) उस (गुहा) बुद्धि वा गुप्त कारण में (निहितम्) स्थित (सत्) नित्य चेतन ब्रह्म को (वेनः) पण्डित विद्वान् जन (पश्यत्) ज्ञानदृष्टि से देखता है, (तस्मिन्) उसमें (इदम्) यह (सर्वम्) सब जगत् (सम्, एति) प्रलय समय में संगत होता (च) और उत्पत्ति समय में (वि) पृथक् स्थूलरूप (च) भी होता है, (सः) वह (विभूः) विविध प्रकार व्याप्त हुआ (प्रजासु) प्रजाओं में (ओतः) ठाढ़े सूतों में जैसे वस्त्र (च) तथा (प्रोतः) आड़े सूतों में जैसे वस्त्र वैसे ओत-प्रोत हो रहा है, वही सबको उपासना करने योग्य है ॥
{he manushyo ! (yatr) jisamen (vishvam) sab jagat (ekaneedam) ek aashrayavaala (bhavati) hota (tat) us (guha) buddhi va gupt kaaran mein (nihitam) sthit (sat) nity chetan brahm ko (venah) pandit vidvaan jan (pashyat) gyaanadrshti se dekhata hai, (tasmin) usamen (idam) yah (sarvam) sab jagat (sam, eti) pralay samay mein sangat hota (ch) aur utpatti samay mein (vi) prthak sthoolaroop (ch) bhee hota hai, (sah) vah (vibhooh) vividh prakaar vyaapt hua (prajaasu) prajaon mein (otah) thaadhe sooton mein jaise vastr (ch) tatha (protah) aade sooton mein jaise vastr vaise ot-prot ho raha hai, vahee sabako upaasana karane yogy hai .}
भावार्थभाषाः -हे मनुष्यो ! विद्वान् ही जिसको बुद्धि बल से जानता, जो सब आकाशादि पदार्थों का आधार, प्रलय समय सब जगत् जिसमें लीन होता और उत्पत्ति समय में जिससे निकलता है और जिस व्याप्त ईश्वर के बिना कुछ भी वस्तु खाली नहीं है, उसको छोड़ किसी अन्य को उपास्य ईश्वर मत जानो ॥-स्वामी दयानन्द सरस्वती
[he manushyo ! vidvaan hee jisako buddhi bal se jaanata, jo sab aakaashaadi padaarthon ka aadhaar, pralay samay sab jagat jisamen leen hota aur utpatti samay mein jisase nikalata hai aur jis vyaapt eeshvar ke bina kuchh bhee vastu khaalee nahin hai, usako chhod kisee any ko upaasy eeshvar mat jaano .]
वेदों में सत् शब्द यजुर्वेद के 32/8 मन्त्र में मिलता है।
वेनस् तत् पश्यन् निहितम् गुहा सद् (सत्) अत्र विश्वं भवत्येकनिडम् .
अर्थात ब्रह्मज्ञानी पुरुष ही बुद्धिरूपी गुफा में स्थित उस ब्रह्मा को (सत्) "जो तीनों कालों में विद्यमान है" प्रत्यक्ष अनुभव करता है। जिस ब्रह्मा में सारा संसार एक आश्रय को प्राप्त होता है।
अगले मन्त्र में भी सत् शब्द आया है विभृतं गुहा सत् अर्थात वेद धारक विद्वान ही गुहा में (सत्) सदा विद्यमान भगवान् के विषय में उपदेश कर सकता है।
गीता श्लोक 17/26 में भी सत् शब्द का वर्णन मिलता है-
सद्भावे साधुभावे च सदित्येतत्प्रयुज्यते।
प्रशस्ते कर्मणि तथा सच्छब्दः (सत् शब्द:) पार्थ युज्यते।।17.26।।
अर्थात हे पार्थ सत्य भाव व साधुभाव में सत् शब्द का प्रयोग किया जाता है? और प्रशस्त (श्रेष्ठ शुभ) कर्म में सत् शब्द प्रयुक्त होता है।।
छान्दोग्योपनिषद 8/3/5 में तद्यत् सत् तदमृतम में सत् शब्द का प्रयोग ब्रह्मा के लिए हुआ है।
इस प्रकार से वैदिक वांग्मय में शब्द का प्रयोग हुआ है।
चित् शब्द पर विचार
स्वामी दयानन्द सत्यार्थ प्रकाश के प्रथम समुल्लास में लिखते है- (चिती संज्ञाने) इस धातु से ‘चित्’ शब्द सिद्ध होता है। ‘यश्चेतति चेतयति संज्ञापयति सर्वान् सज्जनान् योगिनस्तच्चित्परं ब्रह्म’ जो चेतनस्वरूप सब जीवों को चिताने और सत्याऽसत्य का जनानेहारा है, इसलिए उस परमात्मा का नाम ‘चित्’ है।
अथर्ववेद 18/4/14 में ईजानशिचितमारूक्षदग्निं नाकस्य में चित् शब्द आया है। यहाँ वेद सन्देश दे रहे है कि सुख के आधार से प्रकाश की ओर उठने की इच्छा करनेवाला परमात्मा भक्त सर्वाग्नि चित्=चेतन भगवान् को प्राप्त करना चाहता है।
निरुक्त 5/7 में चित् शब्द को निरुक्तकार ने निपात भी माना है और नाम भी। यहाँ पर नाम शब्द होने से यह शब्द भगवान् के लिए प्रयुक्त हुआ है।
आनन्द शब्द पर विचार
स्वामी दयानन्द सत्यार्थ प्रकाश में लिखते है-
(टुनदि समृद्धौ) आङ्पूर्वक इस धातु से ‘आनन्द’ शब्द बनता है। ‘आनन्दन्ति सर्वे मुक्ता यस्मिन् यद्वा यः सर्वाञ्जीवानानन्दयति स आनन्दः’ जो आनन्दस्वरूप, जिस में सब मुक्त जीव आनन्द को प्राप्त होते और सब धर्मात्मा जीवों को आनन्दयुक्त करता है, इससे ईश्वर का नाम ‘आनन्द’ है।
तैतरीय उपनिषद् 3/6 में आनन्दात् ह्रोव मिलता है। जिसका अर्थ है स्वयं आनंद स्वरुप होने से तथा अन्यों को आनंद प्रद होने से आनंद कहाने वाले भगवान् से ही यह सम्पूर्ण जगत उत्पन्न होता है। आनंद से ही इसकी स्थिति है और वे ही आनंद इसके प्रलय के कारण हैं और यह आनंद ब्रह्मा है।
वृहदारण्यक उपनिषद् 3/9/28 में विज्ञानं आनंद ब्रह्मा आनंदमय ब्रह्मा सबसे बड़ा है सन्देश दिया गया है।
वेदांतसूत्र 1/1/12 में आनंद मयो अभ्यासात में आनंद शब्द आया है।
इन तीनों शब्दों के विशेषण होने से परमेश्वर को ‘सच्चिदानन्दस्वरूप’ कहते हैं।
सत् प्रकृति को भी कहते है। कोई भी वह पदार्थ जो शाश्वत रहने वाला हो, वह जड़ हो या चेतन, सत् कहलाता है। प्रकृति भी अनादि और अजा है अत: सत् कहलाती है। जीवात्मा भी सत् है किन्तु साथ में चित् भी है। प्रकृति केवल मात्र जड़ पदार्थ है। जीवात्मा सत् और चेतन दोनों हैं। जीवात्मा अनादि, अमर, अजर आदि रूप के साथ चेतन भी है। इसलिए जीवात्मा सच्चित भी कहलाता है।
परमात्मा सच्चिदानन्द अर्थात सत्+चित्+आनन्द तीनों है। केवल ईश्वर ही आनंद स्वरुप है। इसलिए ईश्वर का नाम सच्चिदानन्द है। यही आर्यसमाज के दूसरे नियम में ईश्वर की परिभाषा में प्रयुक्त हुआ है। स्वामी विद्यानंद के अनुसार सच्चिदानन्द शब्द रमोत्तरतापिनी उपनिषद् में हुआ है। भावेश मेरजा जी के अनुसार
तेजोबिन्दु उपनिषद् में इस शब्द का प्रयोग हुआ है।
आईये सच्चिदानन्द स्वरुप परमात्मा की उपासना कर जीवन को आनंदमय बनाये।
सन्दर्भ ग्रन्थ-
सत्यार्थ प्रकाश- स्वामी दयानन्द
यजुर्वेद भाष्य- स्वामी दयानन्द
उपनिषद् रहस्य- महात्मा नारायण स्वामी
सत्यार्थ भास्कर-स्वामी विद्यानन्द
वैदिक सिद्धांत रत्नावली-प्रोफेसर सत्यपाल शास्त्री
अष्टोत्तरशतनाम मालिका- विद्यासागर शास्त्री

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