ब्रम्हांड क्यों बना ? - ধর্ম্মতত্ত্ব

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স্বাগতম

15 July, 2021

ब्रम्हांड क्यों बना ?

जब हम इस ब्रम्हांड को देखते हैं इसकी विभिन्न क्रियाओ को देखते हैं यह सवाल हम सब के मन में उठता कि आखिर यह ब्रम्हांड कैसे बना ? इस एक सवाल की खोज में सालों से वैज्ञानिक लगे हुए हैं ,लेकिन इस सवाल के अलावा एक और सवाल है जो इस से भी ज्यादा महत्वपूर्ण है कि यह ब्रम्हांड क्यों बना ? क्यों का महत्व कैसे से अधिक है , सबसे बड़ा सवाल ही “क्यों” है आपके घर में कोई व्यक्ति आता है तो आप सबसे पहले पूछते हो – क्यों आये , आप यह नहीं पूछते कि कैसे आये ? क्यों का महत्व कैसे से अधिक है , इसीलिए विज्ञान में यह भी एक सवाल आता है कि why the universe exist ?
“क्यों” को जानना दर्शन का क्षेत्र है और “कैसे” को जानना विज्ञान का क्षेत्र है , ब्रम्हांड कैसे बना यह विज्ञान बताएगा ? लेकिन ब्रम्हांड क्यों बना ये दर्शन बताएगा |
यदि यह माना जाये कि ब्रम्हांड अपने आप बना है तब इस प्रश्न का कोई महत्व नहीं रह जाता है कि ब्रम्हांड क्यों बना ? क्यों कि अपने आप बनने की Theory में इसे या तो इसे आकस्मिक रूप से बना हुआ माना जाता है या  स्वाभाविक रूप से यानि Naturally , दोनों ही संभावनाओं में कोई प्रयोजन या उद्देश्य नहीं होगा और बिना उद्देश्य के यह प्रश्न निराधार होगा , ब्रम्हांड में हर जगह नियम कार्य कर रहे हैं और ये नियम पूर्णता के साथ संचालित है |
ब्रम्हांड में हर जगह वैज्ञानिकता दिखाई देने के कारण अनेकों वैज्ञानिकों ने स्वीकार किया कि इस ब्रम्हांड को बनाने वाली एक बुद्धिमान सत्ता जरूर है , वे सब वैज्ञानिक प्रचलित religions के ईश्वर को अवैज्ञानिक मानते हैं लेकिन वे एक बुद्धिमान सत्ता को जरूर स्वीकार करते हैं जिसका एक वैज्ञानिक स्वरूप(Scientific Form) है , वैज्ञानिकों के इन विचारों को जानने के लिए आप निम्न लेख पढ़ सकते हैं |
इसलिए यह बात सिद्ध है कि ब्रम्हांड को किसी ने बनाया है और ऐसा होने पर यह प्रश्न बिलकुल उचित बैठता है कि ब्रम्हांड को क्यों बनाया ? इसका अस्तित्व क्यों है ?
दर्शन के क्षेत्र में उतरकर इस सवाल का जवाब हम एक विद्वान् की लेखनी से ही आपको दे रहे हैं , जिसे पढ़कर आप स्वयं उनकी विद्वता का अनुमान लगा लेंगे इसलिए उन विद्वान् का नाम लेना आवश्यक नहीं , लेख के अंत में ही उनका नाम पता चलेगा , तो चलिए शुरू करते हैं –
आज हमारे एक मेहरबान ने कहा कि
दिल में मेरे ये खयाल उत्पन्न होता है जब वह अपने आप में कोई कमी नहीं रखता | पूर्ण है !! Perfect है !!! तो दुनिया क्यों बनाई ?
मैंने कहा कि
यही दलील बनाने कि जरूरत को साबित करती है यानी उसका हर तरह से पूर्ण होना |
आप कहेंगे – कैसे ? जिसके अंदर कोई ख्वाहिश नहीं , कोई इच्छा नहीं ,कोई कमी नहीं , लेकिन पूर्णता है हर प्रकार की , इल्म भी उसका पूरा है , शक्ति भी उसमे पूरी है और व्यापकता भी उसकी पूरी है , तीनों प्रकार से जो पूरा है यानि परमात्मा ! तो बतलाइये वह अपनी पूर्णता को किस प्रकार सफल करे ? अपने इस कमाल को किस प्रकार बाकार करे ?
क्यों कि किसी शय का होना महज होने के लिए हो तो उसका होना न होने के बराबर होता है , जरा गौर कीजिये मेरे शब्दों पर , किसी वस्तु का होना महज होने के लिए हो तो उसका होना न होने के बराबर होता है | परमात्मा पूर्ण है अपनी पूर्णता का क्या लाभ ? अपने पुरे आलिम(काबिल) होने का क्या लाभ ? सूरज से प्रकाश हमको मिलता है , इस बल्ब से भी प्रकाश हमें मिलता है | हम पूछते है कि इसका इसके आलावा और कोई लाभ है कि आपको रोशनी दे रहा है ?
पूर्णता का होना इसी चीज में पूरा होगा कि जितना ज्यादा फायदा उसकी पूर्णता का यानी कमाल से दूसरे को हो जाये उतना ही उसका वजूद सफल है , और जितना न पहुंचे उतना असफल है |
आप कल्पना कीजिये कि – एक वजूद (अस्तित्व) है और उसके अलावा और कोई नहीं है तथा वही तो मैं कहूंगा उसका होना न होने के बराबर है |

उदाहरण के तौर पर अगर एक बड़ा डॉक्टर है , लेकिन बीमार कोई नहीं है और न दुनिया में दवाइयां है तो मुझे बताइये कि डॉक्टर के होने का क्या फायदा है ?
इसलिए विद्वान् लोगों ने कहा है कि जो अपने अंदर कोई गुण रखता है , उस गुण कि सफलता अन्य को लाभ पहुँचाने में है | अपनी आवश्यकता तो हम पूरी करते ही हैं , लेकिन अपने कमाल से गैरों की आवश्यकता को पूरा करना और उनके लिए सहारा बनना , यह ऊँचे दर्जे की बात है |
एक अंग्रेजी का बहुत छोटा सा जुमला है
Every opportunity to help is a duty.
प्रत्येक अवसर जो हमें सहायता का मिल जाये वह हमारा कर्त्तव्य है , जो मौका भी हमें मिल जाए किसी की मदद करने का वह हमारा फर्ज है , क्यों कि हम अपने गुण से कुछ तो फायदा पहुंचाए , अपने कमाल से उनको लाभान्वित करें |
मेरा बोलना तभी सफल है जब सुनने वाले हो , श्रोताओं के बिना मेरा बोलना सफल नहीं है , इसी तरह परमात्मा का वजूद कहाँ सफल होगा ? परमात्मा सर्वज्ञ है |
ज्ञान हमेशा अनपढ़ों में सफल होता है , ताकत हमेशा कमजोरों की रक्षा में सफल होती है , याद रखिये रोशनी हमेशा अँधेरे में सफल होती है , जहाँ अँधेरा है वही उसको ले जाइये रोशनी सफल हो जाएगी , जो ज्ञानी है , पढ़े लिखे है , वे अपनी जिंदगी को वहीँ सफल कर सकते हैं जहाँ अज्ञानी , अनपढ़ है , ताकि उनको कुछ पढ़ा सके , इस से पढ़े लिखे लोग सफल हो जायेंगे |
ईश्वर सर्वज्ञ है , सर्वज्ञ होने से उसकी जिम्मेदारी अपने आप सिद्ध है उसकी responsibility का आगाज स्वयं सिद्ध है , जब ईश्वर जानता है कि जीवात्मा अल्पज्ञ है , ज्ञान में कमजोर है , कम जानने वाला है और मैं (ईश्वर) सर्वज्ञ हूँ , सब कुछ जानने वाला हूँ तो इस से बेहतर और कौन सा मौका होगा ईश्वर के लिए कि वो अपने अस्तित्व को सफल कर सके , अपने ज्ञान को सफल कर सके , बेकार न जाने दे useful बनाये , unuseful न रहने दे |
सोचने की बात है कि इस हिसाब से ईश्वर ने क्या किया ? जीवात्मा हमेशा से उसके साथ है अनादि काल से तो अनादि काल से ईश्वर ने क्या समझा ? कि मेरी Duty है अब मेरा कर्त्तव्य है – Every opportunity to help is a duty और ये मौका ईश्वर को अनादि काल से मिला हुआ है वो अनादि काल – There is no beginning at all जहाँ कोई शुरुआत नहीं है तब से मिला हुआ है ,इसलिए ईश्वर सृष्टि रचना करके , जीवात्मा को ज्ञान प्रदान करता है और अपने अस्तित्व को सफल करता है |
परिवार में पिता के लिए बड़ा पछतावा होता है जब कोई उनको कहे कि आप इतने विद्वान और आपका बेटा जाहिल रह गया , क्या वजह ? इसलिए कहते हैं परमात्मा हमेशा से जानता है कि मेरा अपना ज्ञान जीवात्मा के होने से ही सफल है , यदि जीवात्मा न हो और प्रकृति न हो तो ईश्वर भी नही होगा , बल्कि न होने के बराबर होगा | किसके लिए होगा फिर वह ? अगर प्रकृति नहीं तो अपनी कारीगरी किसमें दिखाए ?


इसलिए ईश्वर के पास जीवात्मा हमेशा से है और प्रकृति भी हमेशा से है , यह देखकर वह खली कैसे बैठा रहे ? खली बैठने के लिए लोग क्या कहा करते हैं ?
An idle mind is devil’s workshop
यानि कि खाली दिमाग शैतान का घर , इसलिए यह सवाल हम मुसलमानों से किया करते हैं , आप यह बताइये कि जब अकेला खुदा ही था और कोई नहीं था तब खुदा किसके लिए था ? वे कहते हैं कि अपनी कुदरत दिखाने के लिए दुनिया पैदा की हम पूछते हैं किसको दिखाने के लिए ? जिसको दिखाना है वह तो पैदा ही नहीं हुआ था , जिसको दिखाना है वह पहले से होना चाहिए , नहीं है तो किसको दिखाता ?
इसलिए यहाँ एक कारण स्पष्ट है कि ईश्वर ने दुनिया को , ब्रम्हांड को जीवात्मा के लिए बनाया , इस कारण की विवेचना को आप ने ऊपर पढ़ा , यह पंडित रामचंद्र देहलवी जी की पुस्तक से लिया गया है , जिस पुस्तक का नाम ही है ” ईश्वर ने दुनिया क्यों बनाई “
आइये हम इस सवाल का एक दूसरा पक्ष देखते हैं , महर्षि दयानन्द अपने अमर ग्रन्थ सत्यार्थप्रकाश में इस प्रश्न का जवाब देते है
(प्रश्नजगत् के बनाने में परमेश्वर का क्या प्रयोजन है?
(उत्तरनहीं बनाने में क्या प्रयोजन है?
(प्रश्नजो न बनाता तो आनन्द में बना रहता और जीवों को भी सुख-दुःख प्राप्त न होता।
(उत्तरयह आलसी और दरिद्र लोगों की बातें हैं पुरुषार्थी की नहीं और जीवों को प्रलय में क्या सुख वा दुःख है? जो सृष्टि के सुख दुःख की तुलना की जाय तो सुख कई गुना अधिक होता और बहुत से पवित्रात्मा जीव मुक्ति के साधन कर मोक्ष के आनन्द को भी प्राप्त होते हैं।
प्रलय में निकम्मे जैसे सुषुप्ति में पडे़ रहते हैं वैसे रहते हैं और प्रलय के पूर्व सृष्टि में जीवों के किये पाप पुण्य कर्मों का फल ईश्वर कैसे दे सकता और जीव क्यों कर भोग सकते? जो तुम से कोई पूछे कि आंख के होने में क्या प्रयोजन है? तुम यही कहोगे कि देखना |
तो जो ईश्वर में जगत् की रचना करने का विज्ञान, बल और क्रिया है उस का क्या प्रयोजन ? विना जगत् की उत्पत्ति करने के ? दूसरा कुछ भी न कह सकोगे। और परमात्मा के न्याय, धारण, दया आदि गुण भी तभी सार्थक हो सकते हैं जब जगत् को बनावे। उस का अनन्त सामर्थ्य जगत् की उत्पत्ति, स्थिति, प्रलय और व्यवस्था करने ही से सफल है। जैसे नेत्र का स्वाभाविक गुण देखना है वैसे परमेश्वर का स्वाभाविक गुण जगत् की उत्पत्ति करके सब जीवों को असंख्य पदार्थ देकर परोपकार करना है।
यहाँ ऋषि ने स्पष्ट कर दिया कि इस सृष्टि के बनाने में ईश्वर का क्या उद्देश्य है , आशा है आपको यहाँ एक नई जानकारी मिली होगी इसलिए लेख को अपने दोस्तों के साथ share जरूर करें |
वेद मन्त्रों से सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड के निर्माण होने का प्रमाण और वेद का यथार्थ वैज्ञानिक स्वरूप
हम सभी यह जानते हैं कि चार संहिताओं क्रमशः ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद, अथर्ववेद को वेद कहा जाता है अर्थात् इन चार संहिताओं में केवल मन्त्र ही हैं। इन्ही चारों संहिताओं के मन्त्रों को वेद कहा जाता है। वेद ईश्वरकृत है। वेद सभी सत्य विद्याओं की पुस्तक है और सभी ज्ञान-विज्ञान का मूल वेद में विद्यमान है। यह तो हम सभों को भली-भांति ज्ञात है। किन्तु क्या ईश्वरीय वेद का यथार्थ स्वरूप केवल यही है? ईश्वरकृत वेद का यथार्थ स्वरूप क्या है यह ऋषिकृत ग्रँथों के प्रमाणों के साथ इस लेख में बताया जाएगा, जिसे वस्तुतः ऋषियों के अतिरिक्त संसार का कोई अन्य मनुष्य नही जानता।
ऋषि दयानन्द जी के पश्चात ईश्वर की कृपा से एक बहुत ही लंबी अवधि के पश्चात वर्तमान में हमारे इस आर्यावर्त देश का भाग्य उदय हुआ है और विश्व के एकमात्र वैदिक वैज्ञानिक व सम्पूर्ण विश्व में वर्तमान काल के वेदों के सबसे बड़े महाप्रकाण्ड ज्ञाता ऋषि अग्निव्रत नैष्ठिक जी ने विश्व को ईश्वरकृत वेद के उस यथार्थ वैज्ञानिक स्वरूप से परिचित कराया है जिससे अब तक संसार के सभी लोग अनभिज्ञ थे। इस लेख के माध्यम से वेद के यथार्थ स्वरूप वेद मन्त्रों से सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड का निर्माण होने का ऋषिकृत ग्रँथों के प्रमाणों के साथ प्रस्तुत किया जाएगा।
ऋषियों ने जिस सांकेतिक व गूढ़ भाषा में वेद के यथार्थ वैज्ञानिक स्वरूप को अपने ग्रँथों में लिखा था, उसे ऋषि अग्निव्रत नैष्ठिक जी ने अपने कठोर योगबल, तपोबल, साधना, तपस्या, पुरुषार्थ, तर्क शक्ति, ऊहा शक्ति व दिव्य दृष्टि से जानकर वेद के इस यथार्थ स्वरूप को संसार में प्रतिष्ठित किया, जिससे अब तक संसार के लोग अनभिज्ञ थे।
अब जो हम आगे बतलाने जा रहे हैं, वह अत्यंत महत्वपूर्ण, जटिल व ज्ञानवर्धक है अतएव यह अत्यावश्यक है कि आप सभी प्रियजन अपने मन, बुद्धि को एकाग्र वा तीव्र रखें ताकि इससे आगे हम जो भी बतलायेंगे, उसे जानने व समझने में आपको कठिनाई ना हो और उसे समझने में आप सभी समर्थ हो सकें। तभी आप सभी ईश्वरकृत वेद के यथार्थ वैज्ञानिक स्वरूप को प्रमाणों के साथ समझ पाएंगे।
ईश्वरकृत वेद के यथार्थ स्वरूप व अनेक ऋषिकृत ग्रँथों के यथार्थ स्वरूप को समझने में ऋषियों के अतिरिक्त सभी बड़े-बड़े वैदिक विद्वानों, आचार्यों, वैयाकरणों से भूल हुई अथवा हो रही हैं। हमें यह कहने में कोई संकोच नही कि वेद व अन्य ऋषिकृत ग्रँथों के सत्य स्वरूप को समझ पाने में वे असमर्थ हैं अथवा असमर्थ रहें हैं। इसका सबसे बड़ा कारण यह है कि उनमें उच्च कोटि की वैज्ञानिक तर्क शक्ति, ऊहा शक्ति, वैज्ञानिक बुद्धि, तीव्र बुद्धि, पवित्र आत्मा, तप, साधना वा ईश्वरीय प्रेरणा का अभाव है। यही कारण है कि वे सभी वेद व ऋषिकृत ग्रँथों के वास्तविक सत्य यथार्थ स्वरूप से नितांत अनभिज्ञ हैं अथवा अब तक अनभिज्ञ रहें हैं। हम यह दृढ़तापूर्वक कहना चाहते हैं कि वेद व सभी ऋषिकृत ग्रन्थ विज्ञान के ग्रन्थ हैं। अंग्रेजी भाषा का कोई कितना भी बड़ा विद्वान् क्यों न हो वह रसायन शास्त्र के पुस्तक को, जो अंग्रेजी में लिखी हुई हो, उसे कदापि नही समझ सकता। ठीक उसी प्रकार संस्कृत व संस्कृत व्याकरण का कोई कितना भी बड़ा विद्वान् क्यों न हो, वह केवल संस्कृत व वैदिक संस्कृत व्याकरण के बल पर वेद और ऋषिकृत ग्रँथों के सत्य यथार्थ वैज्ञानिक स्वरूप को कदापि नही समझ सकता और यही कारण बना कि वे ईश्वरकृत वेद व ऋषिकृत ग्रँथों को केवल कर्मकाण्ड के ग्रन्थ अथवा केवल लोक-व्यवहार व अध्यात्म के ज्ञान का स्रोत वाले ग्रन्थ समझते हैं। वे यह भी अवश्य मानतें हैं कि सभी ज्ञान-विज्ञान का मूल स्रोत वेद में तो है अथवा ज्ञान-विज्ञान की अनेक बातें ऋषिकृत ग्रँथों में विद्यमान तो हैं परंतु क्या वेद व ऋषिकृत ग्रँथों में वह ज्ञान-विज्ञान वास्तव में हैं? यह आज तक वे सभी जान व समझ नही पाएं अथवा समझने में असमर्थ रहें हैं। हम यह स्पष्ट कर दें कि ईश्वरकृत वेद व ऋषिकृत ग्रँथों के यथार्थ स्वरूप को जानने व समझने के लिए वैदिक संस्कृत व्याकरण, निरुक्त, निघण्टु, ब्राह्मण ग्रन्थ, आरण्यक, वेदांग, शाखाएँ व अनेक आर्ष ग्रँथों का पूर्ण ज्ञान इसके साथ ही उच्च कोटि की वैज्ञानिक तर्क शक्ति, ऊहा शक्ति, वैज्ञानिक बुद्धि से सम्पन्न, विज्ञान का यथावत ज्ञान, ईश्वर प्रदत्त प्रतिभा, निष्काम भाव, तप, साधना, पवित्र बुद्धि, पवित्र आत्मा वा ईश्वरीय प्रेरणा का होना अनिवार्य है। अन्यथा ईश्वरकृत वेद व ऋषिकृत ग्रँथों के यथार्थ स्वरूप को कोई भी कदापि नही समझ सकता।
इस लेख को लिखने का उद्देश्य यह है कि जो लोग ऐसा कहते हैं कि वेद मन्त्रों से ब्रह्माण्ड का निर्माण नही हो सकता, तो ऐसे लोगों के लिए वेद मन्त्रों से सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड के निर्माण होने का प्रमाण ऋषिकृत ग्रँथों से दे कर इसे सिद्ध करना। वस्तुतः ऐसे कुछ लोग इस भूमंडल पर हैं, जो कहने को तो अपने आप को बहुत बड़े दर्शनाचार्य, वैदिक विद्वान व अपने को सर्वज्ञानी समझते हैं और ऋषि अग्निव्रत जी नैष्ठिक के शोध व अनुसंधान को वे लोग अपनी घोर अज्ञानता से गलत व मिथ्या बतलातें हैं। वे लोग ऐसा सोचते हैं कि भला वेद मन्त्रों से भी कभी ब्रह्माण्ड का निर्माण हो सकता है क्या? हम ऐसे लोगों को दृढ़तापूर्वक कहना चाहते हैं कि जो लोग अपनी अज्ञानता से इसे मिथ्या, असत्य, कपोल, काल्पनिक बतलातें हैं। ऐसे लोगों को वेद का शून्य ज्ञान है। ऐसे लोगों को वैदिक विज्ञान का शून्य ज्ञान है। ऐसे लोग वेद के यथार्थ वैज्ञानिक स्वरूप से नितांत अनभिज्ञ हैं। यहां तक कि प्रमाणिक ऋषिकृत ग्रँथों में लिखी हुई बातों को भी यह लोग प्रक्षिप्त, मिलावट घोषित कर उसे मिथ्या बतलाने में तनिक भी संकोच नही करते। जबकि ऐसे लोगों के पास उसे मिथ्या, असत्य, काल्पनिक बतलाने का कोई भी प्रमाण नही होता। जो बात आपकी समझ से परे की है अथवा जो बात आपके बुद्धि में नही आती, जो बात आपको समझ नही आती आप उसे मिथ्या, असत्य, मिलावट, प्रक्षिप्त घोषित कर दें। अतएव यह विद्वता नही अपितु घोर अज्ञानता का सूचक है।
स्मरण रहे कि केवल दर्शन पढ़ने अथवा पढ़ा लेने से कोई वेद का विद्वान् नही बन जाता। वेद का विद्वान् वही कहलाता है, जो वेद के यथार्थ वैज्ञानिक स्वरूप को जानता हो, जो शब्दों के पीछे छुपी हुई ऊर्जा, पदार्थों के यथार्थ विज्ञान तथा गूढ़ रहस्यों को जानता हो। वस्तुतः हमने लेख के आरम्भ में ही यह स्पष्ट रूप से बतला दिया था कि वेद व ऋषिकृत ग्रँथों के यथार्थ स्वरूप को समझने के लिए अनेक ऋषिकृत ग्रँथों का पूर्ण ज्ञान इसके साथ ही उच्च कोटि की वैज्ञानिक तर्क शक्ति, ऊहा शक्ति, वैज्ञानिक बुद्धि से सम्पन्न, विज्ञान का यथावत ज्ञान, ईश्वर प्रदत्त प्रतिभा, निष्काम भाव, तप, साधना, पवित्र बुद्धि, पवित्र आत्मा वा ईश्वरीय प्रेरणा का होना अनिवार्य है। अन्यथा संसार का कोई मनुष्य वेद व ऋषिकृत ग्रँथों को कदापि नही समझ सकता।
ऋषिकृत ग्रँथों से वेद मन्त्रों द्वारा सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड का निर्माण होने का प्रमाण
जैसा कि हमने पूर्व ही यह बतलाया कि आप सभी प्रियजन अपने मन व बुद्धि को एकाग्र व तीव्र रखें तभी आप वेद का यथार्थ वैज्ञानिक स्वरूप व वेद मन्त्रों से ब्रह्माण्ड का निर्माण होना इसे प्रमाणों के साथ समझ पाने में समर्थ हो सकेंगे।
1. छन्द
छन्द शब्द से लोग यह समझते हैं कि वेद में जो सभी मन्त्र हैं, उनमें से किसी वाक्य को छन्द कहा जाता है। जैसे गायत्री, उष्णिक्, अनुष्टुप आदि ये सभी छन्द हैं। यह बात निःसन्देह सत्य है। किंतु अनेक लोग यह नही जानतें कि छन्दों को ही वेद कहा जाता है। वेद ही छन्द रूप हैं। वेद में आए हुए शब्दों के समूहों को ही छन्द कहा जाता है अर्थात् वेद छन्द रूप हैं। वेद में अनेक छन्द हैं। सरल शब्दों में कहा जाय तो वेद के किसी भी एक मन्त्र में जितने भी शब्द हैं, उनमें से कुछ निर्धारित शब्दों के समूह को ही छन्द कहा जाता है अर्थात् एक मन्त्र में एक से अधिक अथवा कई छन्द हो सकते हैं।
(क) छन्दों के वेद होने का प्रमाण
वेदः वेदांश् छन्दांसि। (गोपथ ब्राह्मण 1/32)
अर्थात् छन्दों को ही वेद कहा जाता है।
छन्द केवल मन्त्रों को अथवा शब्दों को ही नही कहा जाता। छन्द एक पदार्थ है अर्थात् वेद मन्त्रों में जितने भी छन्द हैं, वे सभी छन्द पदार्थ कहलाते हैं।
(ख) छन्दों के पदार्थ होने का प्रमाण
महर्षि पिङ्गल जी द्वारा रचित छन्द शास्त्र जिसे महर्षि दयानन्द जी ने आर्ष पाठ विधि के अंतर्गत इसे सम्मिलित किया है और छन्द शास्त्र, जिसे वेद का अंग माना जाता है। महर्षि पिङ्गल ने छन्द शास्त्र के अध्याय ३ में विभिन्न छन्दों के विभिन्न रंग (colour) बतलाएं हैं।
सितसारङ्गपिशङ्गकृष्णनीललोहितगौरा वर्णाः । (पिङ्गलछन्दःसूत्रम् 3/65)
अर्थात् गायत्री छन्द का रंग - श्वेत (सित)
उष्णिक् छन्द का रंग - रंगीन, रंग-बिरंगा (सारङ्ग)
अनुष्टुप छन्द का रंग - लाल मिश्रित भूरा रंग (पिशङ्ग)
बृहती छन्द का रंग - काला (कृष्ण)
पंक्ति छन्द का रंग - नीला (नीला)
त्रिष्टुप छन्द का रंग - लाल (लोहित)
जगती छन्द का रंग - गोरा (गौरा)
यदि छन्द केवल शब्द रूप हैं, तो उनमें प्रकाश (रंग) कहाँ से आ गयें? इससे क्या सिद्ध हुआ? इससे यह सिद्ध हुआ कि छन्द को पदार्थ कहते हैं। यदि छन्द कोई पदार्थ नही होता तो उसमें रंग (प्रकाश) का होना कदापि संभव नही होता। यद्यपि महर्षि पिङ्गल जी ने यहां केवल प्रमुख ७ छन्दों का ही उल्लेख किया है, परंतु वेद में ऐसे अनेक प्रकार के विभिन्न छन्द हैं।
अब विज्ञान से अनभिज्ञ लोग यह कदापि नही समझ सकते कि छन्दों में विभिन्न रंग (प्रकाश) का होना ही छन्दों के पदार्थ होने का प्रमाण है, जो महर्षि पिङ्गल द्वारा रचित छन्द शास्त्र के प्रमाणों से सर्वथा सिद्ध है।
महर्षि दयानन्द जी ने यजुर्वेद भाष्य में छन्द का अर्थ करते हुए लिखा है-
(क) परिग्रहणम् (यजुर्वेद भाष्य 14/5)
(ख) बलम् (यजुर्वेद भाष्य 14/9)
(ग) बलकारि, प्रयत्नम् (यजुर्वेद भाष्य 14/18)
(घ) ऊर्जनम्, प्रकाशकरम् (यजुर्वेद भाष्य 15/4)
(ङ) प्रकाशनम्, प्रकाशरूप (यजुर्वेद भाष्य 15/5)
(च) स्वच्छन्दता (यजुर्वेद भाष्य 19/74)
इन प्रमाणों से यह सिद्ध होता है कि छन्द रश्मियां स्वच्छंद रूप से विचरण करती हुई विभिन्न प्राण रश्मियों को सब ओर से ग्रहण कर लेती हैं व बल, ऊर्जा, प्रकाश उत्पन्न करती हुई नाना पदार्थों को धारण व सक्रिय करती हैं। इन्ही छन्दों से इस ब्रह्माण्ड में विभिन्न प्रकार के कण व क्वांटाज़ की उत्पत्ति होती है।
अतएव महर्षि दयानन्द जी के इन प्रमाणों से यह सिद्ध हुआ कि छन्द पदार्थ को कहते हैं। छन्द अर्थात् पदार्थ अर्थात वेद मन्त्र।
छन्द के विषय में अन्य ऋषियों का प्रमाण
(1) छन्दांसि च्छादनात् (निरुक्त 7/12)
अर्थात् छन्द किसी कणों को, किसी पदार्थों को, किसी किरणों को, लोक-लोकान्तरों को आच्छादित करते हैं, इसलिए छन्द पदार्थ कहलाते हैं।
(2) छन्द वे हैं, जो सभी का आच्छादन करते हैं। (दैवत ब्राह्मण 3/19)
अर्थात् ब्रह्माण्ड में उपस्थित समस्त पदार्थों, कणों धातुओं, द्रव्यों, गैसों, इलेक्ट्रॉनस, प्रोटोनस, न्यूट्रॉनस, क्वार्कस, अग्नि, वायु, जल, आकाश, अंतरिक्ष, ग्रहों, उपग्रहों, सौरमण्डलों, सूर्यों, चन्द्रों, तारों, उल्का-पिंडों, धूमकेतुओं, आदि समस्त पदार्थ छन्दों से आच्छादित हैं। हमारे शरीर की एक-एक कोशिका छन्दों से आच्छादित हैं। ब्रह्माण्ड में उपस्थित जितने भी पदार्थ हैं, वो छन्दों से आच्छादित हैं। इसका क्या अर्थ हुआ? इसका अर्थ हुआ हमारे शरीर की एक-एक कोशिका छन्दों से निर्मित हैं। विभिन्न क्वार्क, इलेक्ट्रान, प्रोटोन, न्यूट्रॉन आदि सभी छन्दों से निर्मित हैं। ब्रह्माण्ड के सभी सूक्ष्म से सूक्ष्म, स्थूल से स्थूल व विशाल से विशाल पदार्थ, छन्दों से बने हैं। इन सबका निर्माण छन्दों से अर्थात वेद मंत्रों से हुआ है और छन्द क्या है? छन्द पदार्थ है। छन्द अर्थात् वेद मन्त्र। इसलिए छन्द पदार्थ कहलाते हैं। छन्द क्या है? छन्द अर्थात् मन्त्र।
इसी प्रकार छन्दों के विषय में अन्य ऋषि कहते हैं
​छन्दः स्तोतृनाम (निघण्टु 3/16)
छन्दति अर्चतिकर्मा (निघण्टु 3/14)
छन्दांसि छन्दयन्तीति वा (दै. 3/19)
छन्दांसि वै वाजिनः (गोपथ ब्राह्मण 1/20)
छन्दांसि वै धुरः (जैमिनीय ब्राह्मण 3/210)
छन्दोभिर्यज्ञस्तायते (जैमिनीय ब्राह्मण 2/431)
उपबर्हणं ददाति। एतदै छन्दांसि रूपम् (कपिष्ठल संहिता 44/4)
छन्दोभिहीदः सर्व वयुनं नद्धम् (शतपथ ब्राह्मण 8/2/2/8)
इन प्रमाणों से छन्द रश्मियों के कई गुण स्पष्ट होते हैं।
(क) छन्द रश्मियां प्रकाश को उत्पन्न करने वाली होती हैं।
(ख) छन्द रश्मियां किसी कण, परमाणु, क्वांटाज़ आदि को सब ओर से आच्छादित करने वाली होती हैं।
(ग) छन्द रश्मियां बलों की संयोजित व उत्पादिका होती हैं।
(घ) छन्द रश्मियां विभिन्न कण, क्वांटाज़ एवं सभी लोकों के आधार रूप को धारण करती है।
(ङ) छन्द रश्मियां सम्पूर्ण सृष्टि में सभी संयोग-वियोग आदि क्रियाओं को संपादित व समृद्ध करती हैं व फैलाती हैं।
(च) सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड छन्द रश्मियों से बंधा हुआ है।
(2) रश्मि
छन्द को रश्मि कहा जाता है और छन्द मन्त्र को कहा जाता है। वस्तुतः वेद मन्त्रों को रश्मियां कहा जाता है अर्थात् छन्द रश्मि को ही वेद मन्त्र कहा जाता है। यह रश्मि प्राण स्वरूप होती हैं इसलिए इन्हें प्राण रश्मि भी कहा जाता है। अतएव मन्त्र को ही पदार्थ कहा जाता है, छन्द को ही पदार्थ कहा जाता है, छन्द ही मन्त्र है और मन्त्र ही छन्द है, मन्त्र ही छन्द रश्मि है।
(क) छन्द का प्राण रश्मि होने का प्रमाण
(1) प्राणा वै छन्दांसि (कौ.बा.17/2)
अर्थात् छन्द प्राण रश्मियों के रूप में होते हैं इसलिए इन्हें प्राण रश्मि कहा जाता है।
रश्मि को प्राण क्यों कहा जाता है?
प्राण शब्द की उत्पत्ति करते हुए महर्षि वेद व्यास जी ब्रह्मसूत्र में कहते हैं कि कम्पन करने से प्राण शब्द बनता है।
(1) प्राणा कम्पनात्। (ब्रह्मसूत्र 1/3/39)
अर्थात् कम्पन करने से प्राण कहलाता है। प्राण रश्मि मनस्तत्व में उत्पन्न होने वाला सूक्ष्म कम्पन है।
(2) प्राणा रश्मयः (तैत्तिरीय ब्राह्मण 3/2/5/2)
अर्थात् रश्मि को प्राण कहा जाता है। छन्द प्राण है और कम्पन करने से यह प्राण कहलाता है।
(3) प्राण एव रज्जु (काण्वीय शतपथ ब्राह्मण 3/1/4/2)
अर्थात् प्राण रज्जु (रस्सी) है। रज्जु किसी दूसरे पदार्थ को नियंत्रित करती है इसलिए प्राण रश्मि कहलाती हैं अर्थात् वेद मन्त्र किसी दूसरे रश्मियों, पदार्थ, कण को नियंत्रित करती है इसलिए वेद मन्त्र रज्जु, रश्मियां कहलाती हैं अर्थात् वेद मन्त्र प्राण रश्मियां कहलाती हैं।
इन सभी प्रमाणों से सिद्ध होता है कि
कम्पन स्वरूप वेद मन्त्र हैं।
छन्द स्वरूप वेद मन्त्र हैं।
छन्द पदार्थ है।
छन्द प्राण रश्मियां हैं।
छन्द वेद है।
वेद रश्मियां स्वरूप है।
वेद प्राण रश्मियां स्वरूप हैं।
वेद मन्त्र पदार्थ हैं।
अर्थात् वेद मन्त्र = छन्द स्वरूप = रश्मि = छन्द रश्मि = प्राण रश्मि = पदार्थ
महर्षि दयानन्द जी रचित ऋग्वेवादिभाष्यभूमिका का प्रमाण
महर्षि दयानन्द जी ने ऋग्वेवादिभाष्यभूमिका के अध्याय ३ (वेदानां नित्यत्वविचारःसम्पाद्यताम्) में यह स्पष्ट कहा है कि
वेद मन्त्र नित्य एक ही रस बनी रहती है। वैदिक शब्द नित्य हैं। वैदिक शब्द कूटस्थ अर्थात् विनाशरहित हैं। वैदिक शब्द सदा अखण्ड एकरस ही बने रहते हैं और इन वैदिक शब्दों (वेद मन्त्रों) का निवास स्थान आकाश है।
महर्षि के इन वचनों से सिद्ध होता है कि वैदिक शब्द अर्थात् वेद मन्त्र सर्वत्र आकाश में विद्यमान है। जो कभी भी नष्ट व क्षीण नही होते। अर्थात् ब्रह्माण्ड में उपस्थित समस्त पदार्थों, कणों धातुओं, द्रव्यों, गैसों, इलेक्ट्रानस, प्रोटोनस, न्यूट्रॉनस, क्वार्कस, अग्नि, वायु, जल, आकाश, अंतरिक्ष, ग्रहों, उपग्रहों, सौरमण्डलों, सूर्यों, चन्द्रों, तारों, उल्का-पिंडों, धूमकेतुओं, आदि समस्त पदार्थ छन्दों से आच्छादित हैं। ब्रह्माण्ड में उपस्थित जितने भी पदार्थ हैं वो छन्दों से आच्छादित हैं। तब यह कहेंगे कि वेद मन्त्र अखण्ड एकरस बना हुआ है।
महर्षि के ये वचन सांकेतिक व गूढ़ हैं, जिसका आशय यह है कि वेद मन्त्रों के कम्पनों से ही यह आकाश निर्मित है। आकाश में सर्वत्र वेद मन्त्र गुंजायमान हैं जो सदा एकरस बने रहते हैं। तर्क शक्ति, ऊहा शक्ति व वैज्ञानिक बुद्धि के अभाव होने के कारण ऋषि दयानन्द के इस भावार्थ को सभी विद्वान जन अब तक नही समझ सके। ऋषि दयानन्द जी के इस सांकेतिक कथन को ऋषि अग्निव्रत नैष्ठिक जी के अतिरिक्त अन्य कोई भी मानव इसे नही समझ पाया।
वेद मन्त्रों से सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड व इस सृष्टि के समस्त पदार्थों के निर्माण होने का प्रमाण
शैली की दृष्टि से वेद 3 हैं और विषय की दृष्टि से वेद 4 हैं।
शैली की दृष्टि से वेद 3 हैं।
ऋक्
यजुः
साम
विषय की दृष्टि से वेद 4 हैं।
ऋग्वेद
यजुर्वेद
सामवेद
अथर्वेद
अर्थात् ऋग्वेद के सभी मन्त्रों में ऋक् रश्मियां होती हैं, इसलिए ऋग्वेद का दूसरा नाम ऋक् है। यजुर्वेद के सभी मन्त्रों में यजुः रश्मियां होती हैं, इसलिए इसे यजुः। सामवेद के सभी मन्त्रों में साम रश्मियां होती हैं, इसलिए इसे साम और अथर्ववेद के सभी मन्त्रों में इन तीनों प्रकार की रश्मियां (ऋक्, यजुः, साम) होती हैं। इसलिए ऋषियों के प्रायः सभी ग्रँथों में हमें ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद, अथर्वेद लिखा होने के स्थान पर हमें सर्वत्र ऋक्, यजुः, साम ही लिखा देखने को मिलता है।
(1) ऋग्भ्यो जाताँ सर्वशो मूर्तिमाहुः। (तैत्तिरीय ब्राह्मण 3/12/9/1)
अर्थात् इस सृष्टि में जितने भी मूर्तिमान पदार्थ और जड़ पदार्थ हैं वे सभी ऋक् रश्मियों (ऋग्वेद मन्त्रों) से उत्पन्न हुए हैं।
(2) ऋक् अर्चनी । (निरुक्त 1/8)
ऋक् रश्मियां सूक्ष्म दीप्ति युक्त होती हैं।
(3) जैमिनीय ब्राह्मण 2/380 ब्रह्माण्ड में जितने भी अप्रकाशित लोक हैं, सूक्ष्म कण हैं, असुर तत्व (dark matter) हैं उनमें ऋक् रश्मियों की प्रधानता होती है। वे सभी ऋक् रश्मियों से बने हैं।
(4) ज्योतिस् तद् यद् ऋक् (जैमिनीय ब्राह्मण 1/76)
ऋक् रश्मियां ज्योति स्वरूप होती हैं।
(5) काठक संहिता 23/3 ऋक् रश्मियां जब अप्रकाशित व सघन रूप धारण करती हैं तब उसमें आकर्षण बल की प्रधानता होती है।
(6) काठक संहिता 27/1 किसी भी पदार्थ को संयुक्त करने में यजु: रश्मियों (यजुर्वेद मन्त्रों) की अहम भूमिका होती है।
(7) निरुक्त 7/12 पदार्थों के संयोजन-वियोजन में यजु: रश्मियों की प्रधानता होती है।
(😎 अन्तरिक्षं वै यजुषाम् आयतनम् (गोपथ ब्राह्मण पूर्वार्द्ध 2/24)
अंतरिक्ष यजु: रश्मियों का आयतन है। अर्थात् अंतरिक्ष यजु: रश्मियों (यजुर्वेद मंत्रों) से निर्मित है। अंतरिक्ष यजु: रश्मियों का जाल है। अंतरिक्ष यजु: रश्मियों का विस्तार है। अंतरिक्ष यजु: रश्मियों का फैलाव है।
(9) अन्वाहार्य्यपचनोऽन्तरिक्षलोको यजुर्व्वेदः। (षड्विंश ब्राह्मण 1/5)
यजु: रश्मियों से अर्थात् यजुर्वेद के मन्त्रों से अंतरिक्ष निर्मित है।
(10) सर्वा गतिर्याजुषी हैव शश्वत् । (तैत्तरीय ब्राह्मण 3/12/9/1)
अर्थात् इस सम्पूर्ण सृष्टि में जितने भी प्रकार के गति हैं उनके गति होने का कारण यजु: रश्मियों से ही हैं।
(11) शतपथ ब्राह्मण 10/5/1/5 सूर्य की किरणों में साम रश्मियों (सामवेद मन्त्रों) की प्रधानता होती है।
(12) तैत्तिरीय संहिता 7/5/1/6 इस सृष्टि में सभी प्रकार के कण क्वांटाज़, फील्ड पार्टिकल्स, मीडिएटर पार्टिकल्स में साम रश्मियों की प्रधानता होती है। ये सभी साम रश्मियों (सामवेद मन्त्रों) से निर्मित है।
(13) तैत्तिरीय ब्राह्मण 3/12/9/2 इस ब्रह्माण्ड में जो भी प्रकाश है उसमे साम रश्मियां विद्यमान हैं, साम रश्मियों से ही उनमें प्रकाश है। अर्थात् ब्रह्माण्ड में जितने भी प्रकार के तरंगे जैसे विद्युत चुम्बकीय तरंगे (Electromagnetic Waves) आदि हैं उनमें साम रश्मियों की प्रधानता होती है।
(14) शतपथ ब्राह्मण 12/8/3/23 साम रश्मियों की भेदन क्षमता सबसे अधिक होती है।
(15) शतपथ ब्राह्मण 8/1/3/5 साम रश्मियां ऋक् रश्मियों का रक्षण करने वाली होती हैं।
(16) शतपथ ब्राह्मण 8/1/3/3 साम रश्मियां ऋक् रश्मियों के भीतर प्रकाशित की जाती हैं। जैसे फोटोन स्वयं प्रकाशित नही होता किन्तु जैसे ही वह किसी कणों (Particles) में गिरता है उसके द्वारा अवशोषित होता है वह पार्टिकल्स प्रकाशित होने लगता है। अर्थात् पार्टिकल्स में ऋक् रश्मियां है और फोटोन में साम रश्मियां हैं तो ऋक् रश्मियों के अंदर साम रश्मियां प्रकाशित होती हैं।
(17) ताण्ड्य महाब्राह्मण 6/4/13 जब विद्युत चुम्बकीय तरंगे अंतरिक्ष में गमन करती हैं तो जो विकिरण आतें हैं वह अंतरिक्ष से साम रश्मियों का भक्षण करते हैं। अर्थात् जितने भी प्रकाशित कण व मूल कण हैं वे भी साम रश्मियों का भक्षण करते रहते हैं।
(18) निरुक्त 7/12 मनस्तत्व में जब सूक्ष्म प्रकाश होने ही वाला होता है अर्थात् ओम रश्मियां जब मनस्तत्व को प्रेरित करना प्रारम्भ ही करती हैं तब जो सर्वप्रथम स्पन्दन मनस्तत्व में होती है उन्हें गायत्री छन्द कहा जाता है। अर्थात इस सृष्टि में सर्वप्रथम उत्पन्न कम्पन (स्पन्दन) गायत्री छन्द ही है और सर्वप्रथम उत्पन्न स्पन्दन जो ओम है वह भी गायत्री ही है। गायत्री छन्द से ही सृष्टि बनने की प्रक्रिया प्रारंभ होती है। परा ओम रूप गायत्री ही मनस्तत्व को आगे अन्य स्पंदनों को उत्पन्न करने के लिए प्रेरित करती है और मनस्तत्व में भी जो पश्यन्ति ओम रश्मि स्पंदन करती है वह भी सर्वप्रथम गायत्री छन्द रश्मियों को ही उत्पन्न करती है।
(19) शतपथ ब्राह्मण 8/2/3/9 गायत्री छन्द रश्मि अन्य छन्द रश्मियों की अपेक्षा सूक्ष्मतम परन्तु सर्वाधिक तेजस्वनी होती है और इन सात छन्दों में इसकी गति ही सर्वाधिक होती है।
(20) जैमिनीय ब्राह्मण 2/101 सृष्टि प्रक्रिया में सर्वप्रथम जो रश्मियां उत्पन्न होती हैं वह गायत्री छन्द रश्मियां ही होती हैं और जो संयोग-वियोग की क्रिया होती है वह आकस्मात तेजी से इनमे ही होती है। सृष्टि प्रक्रिया के प्रथम चरण में गायत्री छन्द रश्मियों की संख्या अन्य रश्मियों से सर्वाधिक होती हैं।
(21) ताण्ड्य ब्राह्मण 13/7/2 सृष्टि में प्रकाश, विद्युत, अग्नि, ऊष्मा, आवेश आदि की उत्पति जहां भी होती है वहां अन्य छन्द रश्मियों की अपेक्षा गायत्री छन्द रश्मियों की प्रधानता सर्वाधिक होती है। अर्थात् प्रकाश, अग्नि, विद्युत, ऊष्मा, फोटोन में सबसे अधिक मात्रा गायत्री छन्द रश्मियों की ही होती है। इन सबको उत्पन्न करने में सबसे प्रथम भूमिका गायत्री छन्द रश्मियों की होती है। सृष्टि में जहाँ भी किसी कणों के बीच संयोग-वियोग होती है और उनमें जो प्रकाश, विद्युत, अग्नि, ऊष्मा, आवेश होती हैं वहां गायत्री छन्द होती हैं। सृष्टि में जितने भी प्रकाशित व अप्रकाशित लोक, पृथ्वीआदि, ग्रह, उपग्रह, तारें, उल्का-पिंड, धूमकेतु, अंतरिक्ष आदि में गायत्री छन्द रश्मियां सर्वत्र सदैव इस सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड में विद्यमान रहती हैं।
(22) ऐतरेय आरण्यक 2/1/6 गायत्री छन्द रश्मियां प्राण रश्मियों को त्वचा के समान आच्छादित कर लेती हैं। अर्थात् गायत्री छन्द रश्मियां प्राण रश्मियों को सैदव ढकी हुईं रहती हैं।
(23) शतपथ ब्राह्मण 1/4/1/2 गायत्री छन्द रश्मियां प्राण रश्मियों को चारों तरफ से आच्छादित कर (ढक) लेती हैं अर्थात् प्राण रश्मियों और छन्द रश्मियों (गायत्री आदि) के मिथुन (जोड़े) नही बनेंगे तो सृष्टि भी नही बनेगी।
(24) ताण्ड्य महाब्राह्मण 7/3/7 गायत्री छन्द रश्मियां अन्य छन्द रश्मियों की मुख होती हैं। अर्थात् यह अन्य छन्द रश्मियों को विभिन्न कार्य के लिए प्रेरित करती हैं।
(25) शतपथ ब्राह्मण 1/3/5/4 गायत्री छन्द रश्मियां इस सृष्टि का वीर्य रूप हैं क्योंकि सृष्टि को बनाने के लिए मनस्तत्व में यही छन्द रश्मियां अन्य छन्द रश्मियों की उत्पति के लिए बीज बोने का कार्य करती हैं।
(26) शतपथ ब्राह्मण 1/3/4/6 गायत्री छन्द रश्मियों में प्रकाश होता है और यह अन्य छन्द रश्मियों को भी प्रकाशित करती हैं।
(27) निरुक्त 7/12, दैवत ब्राह्मण 3/4 उष्णिक् छन्द रश्मियां गायत्री छन्द रश्मियों को आवृत् करती हैं और अन्य छन्द रश्मियों में पारस्परिक आकर्षण का भाव समृद्ध करती हैं व अधिक कान्तियुक्त (प्रकाशमय) बनाती हैं।
(28) ऐतरेय ब्राह्मण 1/5, कौषीतकि ब्राह्मण 17/2 उष्णिक् छन्द रश्मियां विभिन्न छन्द रश्मियों में संयोजकता के गुण बढ़ा देती हैं। अर्थात् जो भी संयोज्य कण है उनके क्रिया को समृद्ध करती हैं।
(29) शतपथ ब्राह्मण 8/6/2/11 उष्णिक् छन्द रश्मियां अन्य छन्द रश्मियों से उत्सर्जित जितने भी सूक्ष्म छन्द रश्मियां है उन्हें अवशोषित करने में सहायक होती हैं।
(30) ऐतरेय आरण्यक 2/1/6 विभिन्न छन्द रश्मियां जैसे गायत्री छन्द रश्मियां होती हैं जो सभी छन्द रश्मियों को ढकने का कार्य करती हैं तो यह उष्णिक् छन्द रश्मियां उन ढके हुए रश्मियों पर रोम की भांति उन सभी छन्द रश्मियों को सुरक्षा प्रदान करने हेतु उन्हें ढकने का कार्य करती हैं।
(31) शतपथ ब्राह्मण 10/3/1/1 उष्णिक् छन्द रश्मियां विभिन्न छन्द रश्मियों को प्रकाशशील बनाती हैं।
(32) जैमिनीय ब्राह्मण 1/209 उष्णिक् छन्द रश्मियां वज्र स्वरूप होती हैं यह अन्य छन्द रश्मियों को तीक्ष्ण बनाने में सहयोग करती हैं।
(33) निरुक्त 7/12, दैवत ब्राह्मण 3/7 अनुष्टुप छन्द रश्मियां अन्य छन्द रश्मियों को अनुकूलता पूर्वक थामती हैं अर्थात् ब्रह्माण्ड में विभिन्न रश्मियां अपना कार्य करती हैं और यदि ऐसी स्थिति उत्पन्न हो जिसमें उन रश्मियों में शीतलता आ जाए उनका बल क्षीण होने लगे तो ऐसी स्थिति में अनुष्टुप छन्द रश्मियां उन्हें सहारा देकर उनके कार्यों को करने में सफलता प्रदान करती हैं।
(34) ताण्ड्य महाब्राह्मण 11/5/17 अनुष्टुप छन्द रश्मियां सभी छन्द रश्मियों की योनि है अर्थात् सभी छन्द रश्मियां इन्ही में प्रतिष्ठित होती हैं। यह सभी छन्द रश्मियों के उत्पन्न होने का मार्ग है।
(35) ऐतरेय आरण्यक 2/1/6, 1/1/3अनुष्टुप छन्द रश्मियों की किसी पदार्थ के भेदन करने की क्षमता अन्य छन्द रश्मियों की अपेक्षा अधिक होती है।
(36) काठक संहिता 19/3 अनुष्टुप छन्द रश्मियां यज्ञ रूप होती हैं। अर्थात् समस्त सृष्टि का संगतिकरण, संयोगिकरण व संघनात में इनकी मुख्य भूमिका होती है।
(37) काठक संहिता 19/5 अनुष्टुप छन्द रश्मियों के द्वारा अग्नि तत्व को धारण किया जाता है व अग्नि तत्व इनके अंदर विद्यमान रहता है। सृष्टि में जहां भी उष्णता, तापमान है वहां अनुष्टुप छन्द रश्मियों की प्रमुख भूमिका होती है।
(38) निरुक्त 7/12 बृहती छन्द रश्मियां अन्य सभी रश्मियों को, विभिन्न लोकों को, सूक्ष्म कणों को, फोटोन्स को घेरकर अपनी वृद्धि करती रहती है अर्थात् ब्रह्माण्ड में जब इन पदार्थों का निर्माण हो रहा होता है तो प्राण और छन्द रश्मियां घनीभूत हो रही होती हैं तो उसे संयोजित करने में सूत्रात्मा वायु की अहम भूमिका रहती है तब बृहती छन्द रश्मियां उसमे संयोजित व घनीभूत होकर पिंड का निर्माण करती हैं।
(39) ताण्ड्य महाब्राह्मण 7/4/3 विभिन्न रश्मियों का जब संपीडन व संघनात होता है तो उस संपीडन में बृहती छन्द रश्मियां की अहम भूमिका होती है।
(40) ताण्ड्य महाब्राह्मण 7/3/9 अंतरिक्ष (आकाश महाभूत) में बृहती छन्द रश्मियों की मुख्य भूमिका होती है। बृहती छन्द रश्मियों के कारण ही अंतरिक्ष किसी भी पदार्थ को संपीडित करता है।
(41) जैमिनीय ब्राह्मण 1/290, 2/7 शतपथ ब्राह्मण 10/5/4/6 ब्रह्माण्ड में सभी तारों (सूर्य) के घनत्व के निर्माण में बृहती छन्द रश्मियों की मुख्य भूमिका होती है।
(42) जैमिनीय ब्राह्मण 1/316, 1/254सभी छन्द रश्मियां बृहती छन्द रश्मियों के कारण ही एकत्रित बनी रहती हैं, उन सभी छन्द रश्मियों को बांधने का कार्य बृहती छन्द रश्मियां करती हैं।
(43) महर्षि दयानन्द यजुर्वेद भाष्य 23/33 गोपथ ब्राह्मण पूर्वार्द्ध 5/4, शतपथ ब्राह्मण 12/2/4/6 पंक्ति छन्द रश्मियां फैलती हुई उत्पन्न होती हैं। यह नाना प्रकार की क्रियाओं को विस्तृत करती हैं। विभीन्न रश्मियों के क्रियाओं को यह विस्तार प्रदान कर उसे फैला देती हैं।
(44) ऐतरेय ब्राह्मण 5/18, 6/20 पंक्ति छन्द रश्मियां पांच प्रकार की गति से युक्त होती हैं।
(45) मैत्रायणी संहिता 3/3/9 पंक्ति छन्द रश्मियां यज्ञमान स्वरूप होती हैं। अर्थात् यह रश्मियां पदार्थों में संयोग-वियोग की प्रक्रिया को सम्पन्न करती हैं।
(46) ऐतरेय आरण्यक 2/1/6 पंक्ति छन्द रश्मियां मज्जा की तरह ब्रह्माण्ड में कार्य करती हैं।
(47) शतपथ ब्राह्मण 10/3/1/1, काठक संहिता 39/8 पंक्ति छन्द रश्मियां अन्य छन्द रश्मियों को विस्तार प्रदान करके संयोग-वियोग आदि की क्रिया को विस्तृत करती हैं।
(48) जैमिनीय ब्राह्मण 1/254 त्रिष्टुप छन्द रश्मियां अन्य सभी रश्मियों की नाभि रूप होती हैं। त्रिष्टुप छन्द रश्मियां बृहती छन्द रश्मियों के साथ मिलकर सम्पूर्ण पदार्थों, सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड को बांधे रखती हैं।
(49) ऐतरेय ब्राह्मण 6/12 त्रिष्टुप रश्मियां उत्पादक क्षमता से विशेष युक्त होती हैं। ब्रह्माण्ड में सभी कणों, पदार्थों, लोक-लोकान्तरों के निर्माण में अन्य रश्मियों की जो अपनी-अपनी भूमिका होती है उन रश्मियों को त्रिष्टुप रश्मियां बल, ऊर्जा प्रदान करती हैं और उनकी तीव्रता को बढ़ा देती हैं।
(50) ताण्ड्य महाब्राह्मण 7/3/9 तारों के केंद्रीय भाग में जो संलयन क्रिया होती है उसमें त्रिष्टुप छन्द रश्मियों की अहम भूमिका होती हैं।
(51) शतपथ ब्राह्मण 6/6/2/7, जैमिनीय ब्राह्मण 1/132, 3/206 ब्रह्माण्ड में जो तीक्ष्ण विद्युत तरंगे (तड़ित) होती हैं उस विद्युत की गड़गड़ाहट व चमक में त्रिष्टुप छन्द रश्मियों की भूमिका होती हैं।
(52) ताण्ड्य महाब्राह्मण 20/16/8 जितने भी छन्द रश्मियां हैं उनमें से दो छन्द रश्मियां (त्रिष्टुप और गायत्री) सबसे अधिक वीर्यवान, तेजस्वनी, भेदन क्षमता अत्यधिक व प्रेरक क्षमता सर्वाधिक होती हैं।
(53) तैत्तिरीय ब्राह्मण 1/1/9/6 ब्रह्माण्ड में जहां भी जितनी त्रिष्टुप छन्द रश्मियां होती हैं वहां उतना ही प्रकाश, तेज, बल व भेदन शक्ति होती है।
(54) दैवत ब्राह्मण 3/14, 3/15 ब्रह्माण्ड में सभी छन्द रश्मियां जो अपना-अपना कार्य करती हैं उनमें से कुछ छन्द रश्मियां दुर्बल होने लगती हैं उन्हें त्रिष्टुप छन्द रश्मियां सहारा देकर बल व ऊर्जा प्रदान कर देती हैं।
(55) निरुक्त 7/12 त्रिष्टुप छन्द रश्मियां विभिन्न कणों, रश्मियों व तरंगों को तीन प्रकार से थामे रखती हैं।
(56) ऐतरेय ब्राह्मण 2/16 त्रिष्टुप छन्द रश्मियां वज्र रूप होती हैं।
(57) जैमिनियोपनिषद ब्राह्मण 1/17/3/3 त्रिष्टुप छन्द रश्मियां अंतरिक्ष में प्रचुर मात्रा में होती हैं। यह रश्मियां अंतरिक्ष को बांधती हैं।
(58) शतपथ ब्राह्मण 8/3/4/11 अंतरिक्ष में त्रिष्टुप छन्द रश्मियों की प्रधानता होती हैं।
(59) निरुक्त 7/13 जगती छन्द रश्मियां सर्वाधिक दूर गति करने वाली होती हैं व इनकी गति जल की लहरों के समान होती हैं। यह रश्मियां सबसे अंत में उत्पन्न होती हैं। अर्थात् जगती छन्द रश्मियों की कम्पन दूरगामी होती हैं किंतु इनकी कम्पन करने की गति अन्य छन्द रश्मियों की अपेक्षा मन्द होती हैं। अर्थात् व्यापक किन्तु मन्द।
(60) शतपथ ब्राह्मण 1/8/2/11 सम्पूर्ण जगत् इन्ही जगती छन्द रश्मियों में प्रतिष्ठित हैं।
(61) ऐतरेय ब्राह्मण 3/47 जगती छन्द रश्मियां विभिन्न कणों व क्वांटाज़ को बांधती व संयोग क्रिया हेतु उन्हें प्रेरित करती हैं।
(62) ताण्ड्य महाब्राह्मण 21/10/9 जगती छन्द रश्मियां विभिन्न पदार्थों को पुष्ट बनाती हैं। वे रश्मियां जो पदार्थों का संयोग व वियोग करती हैं यह उन्हें अवशोषित करके उन्हें पुष्ट करती हैं।
(63) जैमिनीय ब्राह्मण 1/93, षड्विंश ब्राह्मण 2/3 जगती छन्द रश्मियां विभिन्न प्रकार के पदार्थों की उत्पती में सहायक होती हैं।
(64) गोपथ ब्राह्मण उत्तरार्द्ध 2/9 तारें आदि (सूर्य) लोक में जो अवशोषण-उत्सर्जन की क्रिया होती है उनमें जगती छन्द रश्मियों की प्रमुख भूमिका होती है।
(65) शतपथ ब्राह्मण 8/6/2/3, ऐतरेय आरण्यक 2/1/6, मैत्रायणी संहिता 3/13/17सभी प्रकार के कण व क्वांटाज़ को ले जाने, उन्हें गति प्रदान करने में जगती छन्द रश्मियां की अहम भूमिका होती हैं।
(66) ऐतरेय ब्राह्मण 19/4/23 ईश्वर ने सृष्टि के निर्माण के लिए मनस्तत्व में स्पंदन उत्पन्न किये। सर्वप्रथम पश्यन्ति ओम रश्मि के स्पंदन हुए और उनकी तीव्रता (intensity) बढ़ने लगी और उनसे १२ पदार्थ उत्पन्न हुए।
(67) निरुक्त 13/12 वैदिक शब्द कभी छिन्न (नष्ट) नही होते। वैदिक शब्दों (मन्त्रों/ऋचाओं/छंदों) से सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड बना है व उन्ही अक्षरों से उत्पन्न विभिन्न रश्मियों के द्वारा यह सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड बना है। सृष्टि के प्रलय के पश्चात भी जब कुछ नही रहता तब भी यह अक्षर अव्यक्त रूप में मूल पदार्थ (प्रकृति) में विद्यमान रहते हैं। वाणी में अक्षरों का निवास होता है। अक्षर रूप रश्मियां सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड का (अक्ष) आधार होती है अर्थात इस सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड में उपस्थित पदार्थ (सूर्य, चन्द्र, आकाश, अंतरिक्ष, उल्का-पिंड, धूमकेतु, ग्रह, उपग्रह, तारें, सौरमण्डल) इन्ही वैदिक अक्षरों (वेद मंत्रों) से निर्मित है तथा इन सभी पदार्थों में यह वैदिक अक्षर सर्वत्र विद्यमान हैं।
(68) महर्षि दयानन्द ऋग्वेद भाष्य 3/55/1 जो महत तत्व की अवस्था है उसमें ही अक्षर होते हैं अर्थात् महत तत्व अक्षर रूप ही है। अक्षर रूप पदार्थ महत तत्व का एक सूक्ष्म अंश (परमाणु) है।
(69) ऐतरेय ब्राह्मण 3/6, गोपथ ब्राह्मण 3/2, तैत्तिरीय ब्राह्मण 3/3/6/11,मैत्रायणी संहिता 4/3/8
व्याहृति रश्मियां अन्य रश्मियों का सुगमता व अच्छी प्रकार से धारण व नियंत्रित करने में सहायक होती हैं। विभिन्न प्राण रश्मियां इस रश्मि में प्रतिष्ठित होती हैं और प्रतिष्ठित होकर ये रश्मियां अपने-अपने कर्मों को अच्छी प्रकार से करने में समर्थ होती हैं। यह रश्मियां अन्य रश्मियों से संगत होकर व उनमे पूर्ण व्याप्त होकर उन्हें आधार प्रदान करती हुई उनके बाहरी भाग में स्थित हो जाती है और जो भी क्रियाएं हो रही हैं उनको पूर्ण गति व बल प्रदान करती है।
(70) गोपथ ब्राह्मण 3/23, ताण्ड्य ब्राह्मण 6/8/6, कौषीतकि ब्राह्मण 3/2, जैमिनीयोपनिषद् ब्राह्मण 1/3/3/5, 1/11/1/9
हिम् तथा घृम् रश्मियां विभिन्न रश्मियों के लिए पुरुष रूप व्यवहार करती है। यह उनको प्रेरित करती हैं और निरन्तर उनको बल प्रदान करती रहती हैं तथा दो छन्द रश्मियों को बांधने (जोड़ने) में सहायक होती हैं और न केवल सन्धि का ही कार्य करती हैं अपितु उन दो रश्मियों में संगत होकर उसे निरंतर बल प्रदान करती रहती हैं और उसे नियंत्रित करती हैं। यह रश्मियां अन्य रश्मियों को संकुचित करती हैं व उन्हें बांधकर कम्पन करती रहती हैं जिससे वे पृथक न हो सके।
(71) तैत्तिरीय संहिता 2/2/9/4, 2/3/10/1 मैत्रायणी संहिता 1/6/8, 2/3/4 हिम् तथा घृम् रश्मियां पदार्थों से रिसती रहती हैं।यह रश्मियां तेज स्वरूप हैं, इनसे तेज उत्पन्न होता है।
(72) शतपथ ब्राह्मण 7/5/1/3 हिम् तथा घृम् रश्मियां अंतरिक्ष का रूप हैं। अंतरिक्ष में जो विशेष सूक्ष्म दीप्ति (प्रकाश) है उनमें यह रश्मियां विद्यमान हैं।
(73) काठक संहिता 27/1, कपिष्ठ संहिता 42/1 मनस्तत्व के द्वारा ही प्राण तत्व को धारण किया हुआ है। अर्थात् मन रूपी महासागर में ये रश्मियां तरंगों के रूप में उत्पन्न होती रहती हैं इनसे ही सम्पूर्ण सृष्टि बना है।
(74) काषकृष्ण शतपथ 3/1/4/2 प्राण ही रज्जु के समान है। प्राण ही सब को बांधे हुए है, सबको नियंत्रित किये हुए है इसलिए प्राण ही रश्मियां कहलाती हैं।
(75) तैत्तिरीय ब्राह्मण 3/2/5/2 प्राण रश्मि रूप होते हैं। प्राण तरंग रूप में होते हैं।
(76) ऐतरेय आरण्यक 3/1/6 वाक और प्राण तत्व साथ-साथ रहते हैं।
(77) शतपथ ब्राह्मण 1/4/1/2 प्राण और वाक तत्व एक जोड़े में रहते हैं। इन दोनों के मिथुन से ही सृष्टि बनती है। अर्थात् केवल धनात्मक चार्ज अथवा केवल ऋणात्मक चार्ज से सृष्टि नही बन सकती। इन दोनों के मिथुन से ही सृष्टि बनती है।
(78) ब्रह्मसूत्र 2/4/5, 2/4/14 सात प्रकार की भिन्न-भिन्न गतियों के कारण प्राण मुख्यतः सात प्रकार के होते हैं व उनके गुण व्यवहार भी भिन्न-भिन्न होते हैं और यह सभी प्राण रश्मियां ज्योति, विद्युत व प्रकाश का मूल कारण है। इस सृष्टि में जहां भी प्राण रश्मियां है वहां विद्युत है और इन प्राण तत्व के कारण ही विद्युत चार्ज ठहरा हुआ है और इन्ही प्राण तत्व के कारण विद्युत चार्ज उत्पन्न होता है।
(79) महर्षि दयानन्द यजुर्वेद भाष्य 17/32 गंधर्व शब्द का अर्थ सूत्रात्मा वायु किया है और इसकी उत्त्पत्ति 10 प्राणों से पूर्व होती है ऐसा लिखा है।
(80) महर्षि दयानन्द ऋग्वेद भाष्य 6/ 21/9 और यजुर्वेद 27/25 के भावार्थ में सूत्रात्मा वायु के लिए एक विशेषण का प्रयोग किया है सर्वधर्म। अर्थात् यह सूत्रात्मा वायु अन्य 10 प्राण रश्मियों को धारण करने वाला है उनका आधार है और उनका पालन करने वाला है उनको निरन्तर बल प्रदान करने वाला भी है।
(81) मैत्रायणी संहिता 3/8/4, कपिष्ठ संहिता 38/6, कौषीतकि ब्राह्मण 17/7, तैत्तिरीय आरण्यक 10/64/1
विभिन्न प्राण रश्मियां रूपी देवों का यज्ञन कराने में सर्वोपरि भूमिका निभाती है और ओम रश्मि के पश्चात सम्पूर्ण सृष्टि में विभिन्न रश्मियों और कणों को जोड़ने में सर्वोच्च भूमिका इन्हीं की होती हैं।
(82) ऐतरेय ब्राह्मण 2/40 सूत्रात्मा वायु विभिन्न प्राण रश्मियों में मिश्रित है। यह मिश्रित होता हुआ ही प्रकट होता है व पदार्थों में मिश्रित होकर उन्हें संयुक्त करता है।
(83) ऐतरेय ब्राह्मण 2/41प्राण रश्मियां अंतरिक्ष को सामर्थ्यवान बनाती हैं।
(84) महर्षि दयानन्द ने प्राण शब्द के लिए अनेक विशेषण का प्रयोग किया है। ऋग्वेद भाष्य 6/1/50 में प्राण शब्द के लिए प्रियम का प्रयोग किया है।
अर्थात् प्राण नामक प्राण रश्मियों में आकर्षण बल की प्रधानता होती है। सृष्टि में जहां भी आकर्षण बल है उन प्राण रश्मियों में आकर्षण बल की प्रधानता सबसे अधिक होती है।
(85) महर्षि दयानन्द ने ऋग्वेद 1/15/6 के भाष्य में प्राण के लिए लिखा है सर्वमित्रो बाह्यगति।
अर्थात् यह प्राण रश्मि सब की मित्र होकर सबको आकर्षित करती हुई भीतर से बाहर गति करती है।
(86) जैमिनीय ब्राह्मण 1/272 प्राण रश्मियों से प्रिय अर्थात् आकर्षण बल युक्त इस स्तर की कोई भी अन्य रश्मि नही होती।
(87) गोपथ ब्राह्मण पूर्वार्द्ध 1/33, शतपथ ब्राह्मण 12/9/1/16प्राण ही प्रत्येक पदार्थ का प्रेरक और उत्पादक है।
(88) तैत्तिरीय आरण्यक 7/5/3, तैत्तिरीय उपनिषद 1/5/3भूः रश्मियां प्रचुर मात्रा में उत्पन्न हो गयी हो तब प्राण रश्मियां उत्पन्न होती हैं।
(89) तैत्तिरीय संहिता 2/5/2/4 प्राण रश्मियां बल प्रधान होती हैं और अपान रश्मियां क्रिया प्रधान होती हैं। अर्थात् पदार्थों में जहां भी बल अधिक है वहां प्राण रश्मियों की प्रधानता है और जहां क्रिया अधिक है वहां अपान रश्मियों की प्रधानता है।
(90) जैमिनीय ब्राह्मण 1/37 प्राण रश्मियां किसी रश्मि के बाहर और अपान रश्मियां किसी रश्मि के अंदर रहकर उनको बल प्रदान करती हैं। अर्थात् प्राण रश्मियां प्रत्येक कणों व तरंगों के भीतर बाहर की तरफ स्पंदित होती हैं और अपान रश्मियां प्रत्येक कणों व तरंगों के फोटोन के भीतर स्पंदित होती हैं।
(91) जैमिनीय ब्राह्मण 1/254, कौषीतकि ब्राह्मण 13/2, तैत्तिरीय आरण्यक 7/5/3, तैत्तिरीय उपनिषद 1/5/3बृहती और पंक्ति छन्द रश्मियां प्राण रश्मियों के समान व्यवहार करती हैं। अर्थात गुरुत्व बल में प्राण रश्मियों की प्रधानता होती हैं।
(92) छान्दोग्योपनिषद 1/3/3 व्यान रश्मियां के बिना प्राण अपान रश्मियां परस्पर जुड़ी नही रह सकती।
(93) शतपथ ब्राह्मण 12/9/1/16 व्यान रश्मियां वरुण के समान होती हैं। यह व्यान रश्मियां प्राण व अपान रश्मियों को बांधे रखती हैं अर्थात् व्यान रश्मियां सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड को बांधने में सूत्रात्मा वायु की भी सहयोग करती हैं।
(94) मैत्रायणी संहिता 3/4/4, काठक संहिता 21/12व्यान रश्मियां प्राण व अपान रश्मियों को तीन प्रकार से थामे व बांधें रखती हैं और उन्हें तीव्र बल व तेज से संपन्न करने में सहायक होती हैं।
(95) तैत्तिरीय आरण्यक 7/5/3, तैत्तिरीयोपनिषद 1/5/3जब ब्रह्माण्ड में स्वः रश्मियों की प्रधानता होती है तब इनकी उत्पत्ति होती है और व्यान प्राण के अनेक गुण स्वः व्याहृति रश्मियों के गुणों से भी मिलते-जुलते हैं।
(96) काठक संहिता 39/8 व्यान रश्मियां अपान रश्मियों को फैलाकर क्वांटाज़ को कणों की अपेक्षा अति न्यून संघनता प्रदान करने में सहयोग देती है।
(97) महर्षि दयानन्द ऋग्वेद भाष्य 1/131/2 में समान रश्मियों के बारे में कहते हैं
सर्वत्रैव स्वव्याप्तयैकरसम अर्थात् समान रश्मियां विभिन्न प्राण रश्मियों में सर्वत्र एकरस होकर व्याप्त रहती हैं।
(98) महर्षि दयानन्द यजुर्वेद भाष्य 22/32 में समान रश्मियों के बारे में कहते हैं
समानयति रसं येन सः अर्थात् समान रश्मियां न केवल स्वयं लयबद्ध होकर स्पंदित (कंपित) होती हैं बल्कि प्राण अपान आदि अन्य रश्मियों को भी लयबद्ध बनाई रखती हैं।
(97) महर्षि यास्क निरुक्त 4/25 समान रश्मियां विभिन्न रश्मियों की मर्यादा में ही संचित होकर उन्हें बनाये रखने में सहायक होती हैं अर्थात् यह रश्मियां विभीन्न प्राण रश्मियों की सीमा में ही रहकर स्पंदित होती रहती हैं।
(98) शतपथ ब्राह्मण 6/2/2/6 उदान रश्मियां अन्य रश्मियों को नियंत्रित करती हैं, नियमित करती हैं और एक दूसरे से संयुक करती हैं अर्थात् यह रश्मियां व्यान को प्राण से तथा व्यान को आपान से जोड़ने में इनकी मुख्य भूमिका होती है।
(99) जैमिनय ब्राह्मण 1/229 उदान रश्मियां विभिन्न प्रकार के पदार्थों के गुणों में वृद्धि करती हैं अर्थात् यह रश्मियां विभिन्न पदार्थों जैसे कणों, अणुओं, परमाणुओं, फोटोन, सौरमंडल आदि सभी पदार्थों के गुणों में वृद्धि करने के लिए सहायक होती हैं।
(100) षड्विंश ब्राह्मण 2/7 उदान रश्मियां विभिन्न रश्मियों को परस्पर संयुक्त करने में सहायक होती हैं।
(101) महर्षि दयानन्द ने ऋग्वेद भाष्य 6/50/1 में उदान के लिए लिखा है
उदान रश्मियां उत्कृष्ट है। यह रश्मियां अन्य रश्मियों को उत्कृष्ट बल प्रदान करने वाली व अन्य रश्मियों की क्रियाओं को उत्कृष्ट रूप प्रदान करने वाली है और यह प्राण रश्मियां, विभिन्न रश्मियों, कणों, अणुओं, परमाणुओं की गति व बल को समृद्ध करने में सहायक होती हैं।
(102) महर्षि दयानन्द ऋग्वेद भाष्य 1/23/4 में लिखते हैं
ऊर्ध्वगमनबलहेतुमुदानं अर्थात् किसी बल के विरुद्ध कार्य करने में उदान रश्मियों की प्राथमिक भूमिका होती है।
(103) महर्षि दयानन्द ने उणादिकोष 5/1 के भाष्य में लिखा है
जो दहन करता है अथवा जो दहन किया जाता है वह नाग रश्मि कहलाता है अर्थात् ब्रह्माण्ड में जहां कहीं भी ऊष्मा है वहां नाग रश्मियों की प्रधानता होती है। नाग रश्मियों के स्पंदन अति सूक्ष्म होते हैं। विभिन्न प्राण रश्मियों में नाग रश्मियों की गति सबसे मन्द होती है। इनकी गति सबसे मन्द होते हुए भी यह प्राण रश्मियों को निर्वाद्ध गति व बल प्रदान करने की क्षमता रखती है यह इसकी विशेषता है।
(104) शतपथ ब्राह्मण 7/5/1/1 ब्रह्माण्ड में कूर्म प्राण रश्मियां रसरूप होकर अपान रश्मियों को प्रेरण व बल प्रदान करती हैं।
(105) शतपथ ब्राह्मण 7/5/1/5 ब्रह्माण्ड के निर्माण में प्राण अपान रश्मियां जब कार्य कर रहें होते हैं तो मनस्तत्व अन्य सूक्ष्म रश्मियों को भी उत्पन्न करता है। व्यान को अपान से संयुक्त करने में कूर्म प्राण रश्मियों की भूमिका होती है।
(106) शतपथ ब्राह्मण 7/5/1/35 कूर्म प्राण अपान रश्मियों को नियंत्रित करके, अपान रश्मियों को व्यान से संयुक्त करके व्यान के द्वारा प्राण रश्मियों को नियंत्रित करता है।
(107) तैत्तिरीय संहिता 5/2/8/5 कूर्म प्राण रश्मियां मरुद व छ्न्द रश्मियों को तथा सूक्ष्म कणों को परस्पर संयुक्त करने में सहायक होता है।
विशेष ज्ञातव्य
हमारे इस सम्पूर्ण लेख में वेद मन्त्रों से ब्रह्माण्ड के निर्माण होने का प्रमाण, प्रमाणिक ऋषिकृत ग्रँथों से 170 से अधिक प्रमाणों को हमने उदधृत किया है, जो वस्तुतः ऋषि अग्निव्रत जी के कठोर तप व पुरुषार्थ से ही उन्होंने ऋषिकृत ग्रँथों से इसे जाना और उनकी वैज्ञानिक व्याख्या भी ऋषि अग्निव्रत जी की ही है, जिसे हमने केवल बहुत ही संक्षिप्त में उन सभी प्रमाणों की वैज्ञानिक व्याख्या को इस लेख के माध्यम से प्रस्तुत किया है। हमने जितने भी ऋषिकृत ग्रँथों के प्रमाणों को इस लेख में उदधृत किया है वह प्रमाणों का केवल एक छोटा सा नमूना भर है। लेख ज्यादा विस्तृत न हो इसलिए हमने इतने ही प्रमाणों (लगभग 170 से अधिक प्रमाणों) को उदधृत किया।
हम यह भी स्पष्ट कर दें कि वेद के प्रत्येक मन्त्रों के आधिदैविक अर्थ/भाष्य (वैज्ञानिक अर्थ/भाष्य) होते हैं और इस सृष्टि में जहाँ भी जो भी पदार्थ का निर्माण हो रहा होता है तथा जिन मन्त्रों से वह पदार्थ बनता है, उन मन्त्रों की उत्पत्ति भी उस पदार्थ के निर्माण होने के साथ-साथ होता है इसलिए वेद के प्रत्येक मन्त्र के आधिदैविक अर्थ अर्थात् उस मन्त्र के वैज्ञानिक भाष्य/अर्थ होते हैं और उसी से ही ज्ञात होता है। किसी पदार्थ के निर्मित होने का सम्पूर्ण क्रियाविज्ञान। वर्तमान में इस सम्पूर्ण भूमंडल पर केवल एक ही महात्मा हैं -ऋषि अग्निव्रत जी नैष्ठिक। जिनके पास वेद मन्त्रों के वैज्ञानिक भाष्य (आधिदैविक भाष्य) करने की सामर्थ्यता, योग्यता, क्षमता है। वेद मन्त्रों से ब्रह्माण्ड के निर्माण होने का ऐसे असंख्य प्रमाण ऋषिकृत ग्रँथों में विद्यमान है किन्तु ईश्वर प्रदत्त तर्क-शक्ति, ऊहा-शक्ति, वैज्ञानिक बुद्धि के अभाव के कारण लोग वेद और ऋषिकृत ग्रँथों के वास्तविक स्वरूप को समझने में असमर्थ रहें और यह भी अटल सत्य है कि ऋषियों के अतिरिक्त वेद तथा ऋषिकृत ग्रँथों के वास्तविक यथार्थ स्वरूप और उनमें विद्यमान गूढ़ रहस्यों को कोई अन्य मनुष्य कदापि नही समझ सकता। वर्तमान में ऋषि अग्निव्रत जी ने संसार को इस सत्य से परिचित कराया जिसके लिए यह संसार हमेशा उनका ऋणी रहेगा। वेद की व्याख्या करने वाले ऋषिकृत ग्रँथ ब्राह्मण ग्रँथों में केवल विज्ञान ही विद्यमान है तथा सभी ऋषिकृत ग्रँथों में भी विज्ञान ही विद्यमान है।
हमारा इस लेख को लिखने का उद्देश्य केवल ब्रह्माण्ड के निर्माण होने का प्रमाण वेद मन्त्रों द्वारा होना, इसे ऋषिकृत ग्रँथों के प्रमाणों से सिद्ध करने का था, जो हम कर चुके। अतएव यदि अब भी कोई यह कहे कि वेद मन्त्रों से सृष्टि का निर्माण नही हो सकता तो ऐसे लोग वेद के सत्य वास्तविक यथार्थ स्वरूप से नितांत अनभिज्ञ हैं। यदि आप वैदिक विज्ञान को जानना व समझना चाहते हैं, वेद मन्त्रों से सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड और समस्त पदार्थों का निर्माण कैसे होता है, किस प्रकार होता है, इसका क्रियाविज्ञान क्या है, यह सब जानना और समझना चाहते हैं तो ऋषि अग्निव्रत जी रचित वेदविज्ञान-आलोकः ग्रन्थ का अध्यन करें।
अतः वैदिक भाषा के प्रत्येक शब्द अपने अर्थ के साथ नित्य संबंध रहता है अर्थात् वाचक और वाच्य का नित्य संबंध है। जहां भी वाचक है वहां वाच्य अवश्य है और जहां भी वाच्य है वहां वाचक अवश्य है। यह वैदिक विज्ञान की सबसे बड़ी विशेषता है, जिसे हमारे ऋषियों ने योगसाधना व योगबल से इसे जाना था और वर्तमान में विश्व के एकमात्र वैदिक वैज्ञानिक ऋषि अग्निव्रत जी ने सम्पूर्ण विश्व को वेद के इस यथार्थ वैज्ञानिक स्वरूप से न केवल परिचित ही कराया अपितु सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड के निर्माण होने की सम्पूर्ण क्रियाविज्ञान, क्रियाप्रणाली, प्रक्रिया एवम् वैज्ञानिक व्याख्या को वैदिक विज्ञान द्वारा बड़े ही विस्तृत रूप से और बहुत ही सूक्ष्मता से अपने वेदविज्ञान-आलोकः ग्रँथ में बतलाया, जिसे आज का वर्तमान विज्ञान कई सौ वर्षों के पश्चात भी नही जान सकता क्योंकि वर्तमान विज्ञान जहां से समाप्त होता, वहां से वैदिक विज्ञान प्रारम्भ होता है। वेद मन्त्र छन्द रश्मियों के रूप में हैं और ये छन्द रश्मियां पदार्थ कहलाते हैं, जो अति सूक्ष्म ध्वनि ऊर्जा के रूप में हैं। अतएव न केवल वेद की ऋचाएं अपितु वेद के एक-एक पद (शब्द) इस सृष्टि का एक अव्यय, अंग, अंश है और इन वेद मन्त्रों से ही यह सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड, लोक-लोकांतर, सूर्य, चन्द्र, तारे, पृथ्वी, ग्रह, उपग्रह, उल्का-पिंड, धूमकेतु, सौरमण्डल, आकाश महाभूत, अंतरिक्ष, अग्नि, वायु, जल, कण, अणु, परमाणु, क्वांटाज़, इलेक्ट्रान, प्रोटोन, न्यूट्रॉन, क्वार्क आदि इस ब्रह्माण्ड में उपस्थित समस्त भौतिक व जड़ पदार्थों का निर्माण वेद मन्त्रों के संघनन से ही हुआ है तथा इन सभी पदार्थों में जो भी इनके गति, बल, त्वरण, गुरुत्व बल, विद्युत चुम्बकीय बल, तरंगे, प्रकाश आदि है यह वेद मन्त्रों से ही है क्योंकि इन सब की उत्पत्ति भी वेद मन्त्रों से ही होती है। यह सभी वेद मन्त्र ब्रह्माण्ड के समस्त पदार्थों के भीतर वाणी अर्थात् ध्वनि की परा व पश्यन्ति अवस्था में निरंतर सर्वत्र गूंज रहें हैं।
वेद मन्त्र मनस्तत्व में स्पन्दन (कम्पन) रूप हैं। जब ये स्पन्दन किसी पदार्थ में होते हैं तो उनपर अपना प्रभाव डालते हैं और उन्हें विकृत करके किसी नए पदार्थ को उत्पन्न करते हैं। अर्थात् ये स्पंदन मनस्तत्व में विकार उत्पन्न करके किसी दूसरे पदार्थ में रूपांतरित करती है। इसी प्रकार से नए-नए पदार्थ इन स्पंदनों से उत्पन्न होते हैं और यह सृष्टि का निर्माण होता है। वेद मन्त्रों के संघनन से ही यह समस्त ब्रह्माण्ड बना है और इसलिए वेद मन्त्र उपादान कारण भी है सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड के निर्माण होने का। आज वर्तमान विज्ञान यह तो मानता हैं की Cosmic Background Radiation में Fluctuation ध्वनि तरंगों के कारण होता है और Dark Matter के सूक्ष्म Particles में भी ध्वनि तरंगे होती हैं परन्तु वर्तमान विज्ञान अभी यह नहीं जानता कि ये ध्वनि तरंगे कौन सी हैं। वे ध्वनि तरंगे वेद मन्त्र ही हैं। यदि कभी भविष्य में ऐसी कोई तकनीक बनती है जो वाणी अर्थात् ध्वनि की पश्यन्ति अवस्था को ध्वनि की वैखरी अवस्था में रूपांतरित अथवा परिवर्तित कर सके तो हम वेद मन्त्रों को सुनने में सक्षम हो सकेंगे। ब्रह्माण्ड के प्रत्येक पदार्थों के भीतर से हमें सर्वत्र वेद मन्त्र ही सुनाई देंगे जिन वेद मन्त्रों से यह सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड और समस्त पदार्थ बना है। हमारे शरीर की एक-एक कोशिका से यही वेद मन्त्र ही सुनाई देंगे। वही वेद मन्त्र जिनसे यह कोशिकाएं निर्मित हैं। वही वेद मन्त्र जिनसे इलेक्ट्रॉन, प्रोटॉन, न्यूट्रॉन, क्वार्क, अणु, परमाणु, सभी कण, क्वांटाज़, अंतरिक्ष, आकाश महाभूत, जल, वायु, अग्नि, ग्रह, उपग्रह, सूर्य तारें, सौरमण्डल और यह समस्त ब्रह्माण्ड बना है और उन सभी पदार्थों में ध्वनि की परा और पश्यन्ति अवस्था में ये वेद मन्त्र कम्पन करते हुए निरन्तर गूँज रहें हैं।
ऋषि अग्निव्रत नैष्ठिक जी ने अपने कठोर तपोबल, योगबल, तपस्या, तप, साधना, पुरुषार्थ, तर्क शक्ति, ऊहा शक्ति, ईश्वरीय प्रदत दिव्य दृष्टि वा ईश्वरीय प्रेरणा से ईश्वरकृत वेद के इस यथार्थ स्वरूप को जानकर वेद व ऋषिकृत ग्रँथों के गूढ़ रहस्यों को संसार के समक्ष लाकर एवम् वेद तथा ऋषिकृत ग्रँथों पर शोध-अनुसन्धान करके उस वैदिक विज्ञान को पुनः खोजकर इस संसार को दिया जो वस्तुतः महाभारत काल के पश्चात लुप्त हो चुकी थी। ऋषि अग्निव्रत जी ने वेद के उस यथार्थ वैज्ञानिक स्वरूप की ज्योति को संसार में प्रज्वलित किया जिसे ऋषियों के अतिरिक्त अन्य कोई भी नही कर सकता और न ही ऋषियों के अतिरिक्त संसार का कोई अन्य मनुष्य ईश्वरकृत वेद के इस सत्य यथार्थ स्वरूप और रहस्यों को कभी जान सकता है।
हमने बहुत ही सरल शब्दों, सरल भाषा और बहुत ही संक्षिप्त में ही वेद मन्त्रों से ब्रह्माण्ड के निर्माण होने का प्रमाण ऋषिकृत ग्रँथों से बतलाने का प्रयास किया है। आशा करता हूँ कि ईश्वरकृत वेद के इस यथार्थ वैज्ञानिक स्वरूप से अब आप सभी प्रियजन भली-भाँति विदित हो गए होंगे।--इंजीनियर संदीप आर्य
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