वैदिक गीता - ধর্ম্মতত্ত্ব

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স্বাগতম

31 August, 2021

वैदिक गीता

वैदिक गीता

महाभारत में आ पड़े कूड़ा-कर्कट का दिग्दर्शन कराया है। उसके बाद उससे निकले गीता-रत्न पर आई मलिनता का सप्रमाण निरूपण किया है। यह सब कुछ करते हुये स्वामी जी ने साम्प्र दायिक भावना के भूत को सर्वथा दूर रखा है। इसका प्रमाण पाठकों को स्थान स्थान पर इस गीता भाष्य में मिलेगा । पण्डित जी के अर्थ करने तथा आशय स्पष्ट करने का प्रकार बहुत ही मनोहर है।


इससे पूर्व भी स्वामी जी ने 'संध्या अष्टांगयोग' नामक अत्यन्त गवेषणापूर्ण एक लघुग्रन्थ का निर्माण किया है जो कि प्रकाशित हो चुका है। स्वामी जी ऐसे कृतविद्य ने अब जब लेखनी को व्याप्त करना आरम्भ किया है, तो अवश्यमेव आशा करनी चाहिये, कि साहित्य की श्री शोभा में पर्याप्त वृद्धि होगी। स्वामी जी के इस ग्रन्थ से गीता भक्तों, गीता आलोचकों गीता के अनुशीलकों; सभी को लाभ होगा।


स्वामी वेदानन्द तीर्थ

 

 ओ३म् 

प्रस्तावना


यातं यस्तनिमानमेनमखिलं विश्वायुषः पर्यये ।

|तन्तु 'सृष्टिमयम्पुनर्वितनुते यज्ञाभिघंकेवलः ॥

कर्मैतत्खलुका मनाविरहितन्तस्यानिशं चिन्तयन् । 

त्राचर्तु म्प्रभवेयमित्यतितरामभ्यर्थये तम्प्रभुम् ॥


श्रीमद्भगवद्गीता के अनेक भाष्य लिखे गये हैं। प्राचीन तथा अर्वाचीन सभी प्रकार के विद्वानों ने गीता के अभिप्राय को प्रकट करने के लिए, अपनी अपनी लेखनी का कौशल दिखाया है । लेखन-कला कुशल इन गम्भोर विद्वानों के भाष्यों की विद्यमानता में यद्यपि मेरे इस साधारण से लेख की कुछ आव श्यकता प्रतीत नहीं होती, परन्तु फिर भी, "हृदय के उद्गारों को छिपाना पाप है” यह भाव कुछ लिखने की प्रेरणा कर ही रहा है।


गीता का स्वाध्याय करते हुए, गीता में पर्याप्त संख्या में प्रक्षिप्त लोक प्रतीत हुआ करते थे। इन प्रक्षिप्तश्लोकों के कारण गीता में से किसी एक निर्णीत सिद्धान्त को ढूंढ़ निकालना भी कठिन हो जाता था। साम्प्रदायिक लोगों के जितने भाग्य पढ़े, सव में गीता के कुछ अंशों को ठोक-पीट और खींचतान कर, अपने सिद्धान्त को पुष्ट करने की चेष्टा पाई गई। लोग कर भी क्या सकते थे ? वर्तमान गीता में कई प्रकार के दार्शनिक विचार मिलते है। इनमें से किसी एक विचार को पुष्ट करने के लिए, उसके 4 विरुद्ध दूसरे विचार का गला घोट कर सीधा करना उस विचारक के लिए अनिवार्य ही था। यद्यपि इस प्रकार की छीना-झपटी का बाजार गरम था और इसमें कारण थे वे ही प्रक्षिप्त श्लोक; परन्तु जिस गीता को अनेक विद्वानों ने इसी रूप में यथार्थ माना हो, उसके विषय में सहसा बुछ लिखने का कितने ही दिनों से विचार होते हुए भी साहस नहीं हुआ ।


इसी अवसर में लोकमान्य तिलक का 'गीता रहस्य' पढ़ते हुए निम्न पंक्तियां सामने आई___


“बर्तमान गीता को महाभारतकार ने पहिले प्रन्थों के आधार पर ही लिखा है। नई रचना नहीं की है तथापि यह भी निश्चय पूर्वक नहीं कहा जा सकता कि मूल गीता में महाभारतकार ने कुछ भी हेर-फेर न किया होगा ।” (गी०र०पृ० ५२५) इन पंक्तियों में मुझे अपने विचार के लिए कुछ आश्रय दीख पड़ा, और कुछ लिखने के लिए हृदय में उत्साह को जन्म मिला ।


रावबहादुर चिन्तामणि वैद्य ने महाभारत के तीन कर्ता माने हैं-व्यास, वैशम्पायन और सौति । उनके विवेचन के अनुसार व्यास जी ने 'जय' नामक प्रन्थ बनाया था। उसके श्लोकों की कितनी संख्या थी, यह निश्चय करने के लिए कोई आधार न मिलने पर इसके बारे में उन्होंने अपनी कोई सम्मति प्रकट नहीं की। इसके बाद उसमें वैशम्पायन ने कुछ बढ़ाकर उसे 'भारत' नाम दिया। उनके 'भारत' की श्लोक संख्या वैद्य जी ने २४००० हजार मानी है उनका यह अनुमान आदि पर्व में लिखी सौति की अनुक्रमणिका के आधार पर है। वहा भारत संहिता की श्लोक संख्या २४००० बतलाई गई है। और शेष ७६००० हजार आख्यानों के श्लोक बतला कर सम्पूर्ण महाभारत की एक लखि श्लोक संख्या लिखी है। वैद्य जी का अनुमान है कि ये ७६००० ई लोक सौति ने रचकर मिलाए, और तब से ही बड़ा होने के कारण इसका नाम 'महाभारत' हुआ। यद्यपि महाभारत के शब्दों से ऐसा प्रतीत नहीं होता कि ये ७६००० श्लोक सौति के बनाए हुये हैं-वहां तो विषय विभाग के ढंग से आख्यानों और संहिता की संख्या को अलग अलग किया प्रतीत होता है-परन्तु १४००० श्लोकों के भारत संहिता नाम, और भाषा तथा भाव आदि के भेद को देखकर उन्होंने'ऐसा अनुमान किया है।


यद्यपि वैद्य जी ने वैशम्पायन को व्यास का साक्षात् शिष्य नहीं माना, क्योंकि वैशम्पायन सर्प-सत्र के समय जनमेजय के काल में थे. और व्यास जी का काल महाभारत काल है। इसलिए उनकी धारणा है कि वैशम्पायन व्यास जी की शिष्य परम्परा में होंगे परन्तु महाभारत में उन्हें व्यास जी का साक्षात् शिष्य हो लिखा है। यहां तक लिखा है कि सुमन्तु, जैमिनि, पैल, शुकदेव और वैशम्पायन पर्वत पर व्यास जी से वेद पढ़ा करते थे। और उन्हीं की आज्ञा से वेदों का विस्तार करने के लिये नीचे उतरे। यह  भी सम्भव है कि व्यास जी के समय के और जनमेजय के समय के वैशम्पायन भिन्न हों। अस्तु जो भी हो, साक्षात् या परम्परा से वैशम्पायन जी का व्यास जी से गुरु-शिष्य सम्बन्ध अवश्य था । आदि पर्व (६३।६०) में यह भी लिखा है कि इन पांचों शिष्यों ने व्यास जी से महाभारत पढ़ कर पांच भारत सहि  ताओं की रचना की। यह सम्भव है कि शेष चार संहिताएँ लुप्त  हो गई हों, और वैशम्पायन को भारत संहिता शेष रह गई हो। परन्तु फिर भी शिष्य होने के कारण वैशम्पायन की भारत संहिता का आधार व्यास जी का भारत ही रहा होगा । इसीलिये व्यास जी के और वैशम्पायन के प्रन्य में मतभेद का होना सम्भव नहीं। वैशम्पायन के प्रन्थ में वेदों और उपनिषदों से भी मतभेद नहीं )  हो सकता, क्योंकि उन्होंने वेदों को पढ़कर ही संहिता की रचना की है। हां सौति एक कथा-वाचक थे। महाभारत के सब आख्यान उन्हीं के लिखे हुए माने जाते हैं इसीलिए यह सम्भव है कि श्रोताओं के मनोरञ्जन के लिए आख्यानों की रचना करते हुए सिद्धान्त का ध्यान न रक्खा गया हो। श्रोताओं के तत्काल किए हुए प्रश्नों का उत्तर देते समय भी ऐसी त्रुटियों का हो जाना सम्भव है। परन्तु महाभारत में तो विरोध ऐसे स्थानों पर भी मिलता है, जो न तो सौति के दिए हुए प्रश्नों के उत्तर ही हैं, और न आख्यान ही। ऐसे पूर्वापर विरोधों और शास्त्र विरोधों को सौति के हो कहने के लिए भी कोई प्रमाण नहीं। अतः विवश यह ही कहना पड़ेगा कि विभिन्न कालों में साम्प्रदायिक लोगों ने भी प्रक्षेप किए हैं। ऐसा भी प्रतीत होता है कि लोग महाभारत में जहां अपने अनुकूल विचारों को डालते रहे हैं, अपने प्रतिकूल विचारों को वे निकालते भी रहे हैं। यही कारण है कि सौति के काल से अब तक महाभारत की श्लोक संख्या में वृद्धि नहीं हुई। ‘महाभारत से श्लोक निकाले भी जाते रहे हैं, इसमें प्रमाण 'महाभारत की आज कल की श्लोक-गणना है। सौति ने महाभारत की श्लोक संख्या एक लाख गिनी है। परन्तु महाभारत में इस संख्या की अपेक्षा १५००० और ४००० के बीच श्लोक कम हैं। क्योंकि कुम्भवोण संस्करण में लगभग ६६००० श्लोक हैं। और कलिकाता संस्करण में ८५००० श्लोक। इस संख्या की कमी से स्पष्ट है कि महाभारत में से श्लोक निकाले भी जाते रहे हैं।


महाभारत में प्रक्षेप की इस भरमार को देख कर मेरी यह धारणा और भी दृढ़ हो गई कि वर्तमान गीता में समय समय पर श्लोक मिलाये जाते रहे हैं। और अपनी इस धारणा के दृढ़ हो जाने पर ही भूमिका की ये कुछ पंक्तियें लिखने का साहस किया है जो कि पाठकों के सामने हैं। सम्पूर्ण महाभारत के प्रक्षेप का विवरण इस छोटी सी पुस्तक की भूमिका में लिखा नहीं जा सकता। इस लिये महाभारत के शान्ति पर्व में से एक ही प्रकरण "सृष्टि रचनाक्रम" के प्रक्षेप का ही दिग्दर्शन कराने की यहां चेष्टा करूंगा। और यह भी इसलिए कि पाठक इस निर्णय पर पहुँच सकें कि गीता हो में नहीं, सारे ही महाभारत में पर्याप्त मात्रा में प्रक्षेप है।


इसके बाद गीता के प्रक्षेप का स्पष्टीकरण किया जावेगा। शेष गीता के श्लोकों का अर्थ भी आर्य-भाषा में लिख कर इस भूमिका के साथ ही प्रकाशित कर दिया जावेगा। प्रक्षिप्त श्लोकों के कारण गीता के अध्यायों का विषय-विभाग भी संकीर्ण सा हो गया था । जैसे कि दूसरे अभ्याय के विषय का नाम सांख्य योग था, परन्तु उसमें सांख्य योग और कर्मयोग दोनों विषय आ गये हैं। इसलिए शेष मूज-गीता का विषय विभाग भी अभ्यायों के अनुसार कर दिया है।


गीता के उपदेशक योगिराज कृष्ण और गीता के सम्पादक वेदों के प्रगल्भ विद्वान् महर्षि वेदव्यास के लिए मेरे हृदय में अगाध श्रद्धा और प्रेम है। मैं समझता हूँ कि योगिराज कृष्ण जैसे प्रौढ़ वक्ता के उपदेश में, पुनरुक्ति और विरोध हूँ ढ़ने पर भी नहीं मिलने चाहिए। और फिर उस उपदेश के व्यास जी जैसे गम्भीर सम्पादक द्वारा सम्पादित होने पर तो उसमें और भी सोने में सुगन्धि आ जानी परन्तु फिर भी वर्तमान गीता में ये दोष दृष्टिगोचर होते हैं। और इन दोषों से गीता को बचाने के लिए उसमें से प्रक्षिप्त भाग को पृथक कर देने के अतिरिक्त और कोई चारा नहीं है। इसलिए यद्यपि यह साहस है, परन्तु फिर भी भक्तिभावना से प्रेरित होकर, जिन भागों को मैंने प्रक्षिप्त समझा । उन्हें गीता से पृथक् कर ही दिया है। मेरे इस विवेचन में कितनी हो ऐसी टियें होंगी जिनका कि मुझे ज्ञान भी न होगा । अतः  नतमस्तक होकर कृपालु विद्वानों की सेवा में प्रार्थना करता हूँ कि उन त्रुटियों से मुझे सूचित कर अनुगृहीत करें, जिससे कि भविष्य में संशोधन किया जा सके। जो कुछ मैंने लिखा है, उस सब का आधार तर्क है। यह निश्चय नहीं कहा जा सकता कि जिसे मैंने प्रक्षिप्त कहा है, गीता में वह ही प्रक्षिप्त भाग है और नहीं। और यह भी दावे से नहीं कहा जा सकता कि यह प्रक्षिप्त भाग सारा हो प्रक्षिप्त है। यह निर्णय नहीं किया जा सकता कि गीता के सदा से ये अठारह ही अध्याय थे जो कि आजकल गीता में हैं। क्योकि वैष्णव सम्प्रदाय जिसकी ओर से गीता में प्रक्षेपों को विशेष भरमार है, महाभारत के समय में था ही नहीं। और वैष्णव सम्प्रदाय का प्रक्षेप निकाल देने पर गीता में अठारह अध्याय शेष रह हो नहीं जाते । और यह भी निश्चय पूर्वक कह नहीं सकते कि विषय विभाग के अनुसार जिन अठारह अध्यायों को हमने शेष रख लिया है, बही उसी प्रकार आरम्भ की गीता में होंगे ।


॥ इत्यलम् ॥


विद्वानों का अनुचर मुक्तिराम उपाध्याय

॥ भूमिका ॥

यह मान लिया गया है कि महाभारत वेदव्यास, वैशम्पायन और सौति तीन विद्वानों की रचना है। यह मी निश्चित है कि । गीता महाभारत का ही अंग है। और यह भी निर्णय स्वीकार कर लिया गया है कि गीता के उपदेशक योगिराज कृष्ण, और उनके विचारों को प्रन्थ का रूप देने वाले महर्षि वेदव्यास हैं। हमारी 4 धारणा है कि वर्तमान महाभारत और गीता जैसे ब्यास जी की लेखनी से निकले थे, वैसे ही आज हमारे सामने नहीं हैं। उनमें कितने ही प्रक्षेप और बहिष्कार मध्यकाल में किए गये हैं। बहि ष्कार किस विषय, और किन श्लोकों का किया गया है, इसका पता लगाना असम्भव है। हां, प्रक्षेप के लिये वर्तमान प्रन्थ में से ही कुछ आधार ढूंढ़ निकाले जा सकते हैं। गीता के प्रक्षेप को युक्तियुक्त सिद्ध करने के लिये यह आवश्यक प्रतीत होता है। कि गीता जिस महाभारत का अंग है, उसमें भी पहिले युक्ति और प्रमाणों से प्रक्षेप सिद्ध किया जावे। इसके अनन्तर हो गीता में प्रक्षेप का सिद्ध करमा युक्तियुक्त होगा। इसी दृष्टि से हम यहां पहले महाभारत के शान्ति पर्व में से एक ही प्रकरण 'सृष्टि रचनाक्रम' को उद्धृत कर उसमें से बहुत से अंश को प्रक्षिप्त सिद्ध करने का यत्न करेंगे।


शान्ति पर्व में 'सृष्टि रचनाक्रम का प्रसंग ६ विभिन्न स्थानों पर आया है। उन सारे ही प्रसंगों को पाठकों के सुभीते के लिए पहिले हम महाभारत से उद्धृत करेंगे। प्रत्येक प्रसंग के साथ ही अपने विशेष वक्तव्य में, उन प्रसंगों के पूर्वापर विरोध और उपक्रम उपसंहार आदि के दोष भी प्रकट कर दिये जायेंगे। और अन्त में सामान्य विवेचन से यह निर्णय कर दिया जावेगा कि 5 इन ६ में से कौन से आठ प्रसङ्ग प्रक्षिप्त हैं और कौन-सा मूल महाभारत का है।

महाभारत में प्रक्षेप

सृष्टि-रचना प्रकार संख्या १

ऋषि भरद्वाज को भृगु का उपदेश

महाभारत शान्तिपर्व अ० १८०


प्रकृति से परे, निर्लेप और व्यापक भगवान् ने, सृष्टि रचना की इच्छा होने पर, अपने हजारवें अंश से पुरुष को उत्पन्न किया। इसे ऋषियों ने मानस आदि पुरुष कहा है। उस अनादि अवि नाशी अजर अमर देव ने पहले महान् को उत्पन्न किया। महत् से अहंकार को, अहंकार से आकाश को. आकाश से जल को और जल से अग्नि तथा वायु को उत्पन्न किया। फिर अग्नि और वायु के संयोग से पृथिवी उत्पन्न हुई और इसके बाद स्वयम्भू ने दिव्य तेजोमय पद्म उत्पन्न किया। उस पद्म से वेदों का कोष ब्रह्मा उत्पन्न हुआ। इसका अहंकार नाम है। यह सब भूतों का उत्पन्न करने बाला है। पांच धातुएँ ही ब्रह्मा हैं। उसकी हड्डी-पर्वत, मेदा और मांस-पृथिवी, समुद्र-रक्त, आकाश-पेट, वायु-निश्वास, तेज और अग्नि-नाड़िएँ, सूर्य और चन्द्रमा-नेत्र, ऊपर का आकाश-शिर, पृथिवी-पैर और दिशाएँ उसकी भुजाएँ हैं। इसी ने अहंकार और सब भूतों को उत्पन्न किया।


इस प्रक्रिया में अपने हज्जावें अंश से भगवान ने जिस आदि पुरुष को उत्पन्न किया वह कौन है ? इसका पता नहीं चलता। निबन्ध के लेखक ने आगे चलकर, इस पुरुष से महत् से लेकर पृथिवी पर्यन्त तत्वों की रचना कराई है। इसलिए सृष्टिकर्ता होने से यह पुरुष ब्रह्मा होना चाहिए। परन्तु आगे चलकर पद्म से ब्रह्मा की उत्पत्ति बतलाई गई है, इसलिए यह पुरुष ब्रह्मा भी नहीं हो सकता । विष्णु भी इसे कह नहीं सकते क्योंकि विष्णु भगवान् से विष्णु की ही उत्पत्ति कहने का कोई अर्थ नहीं।


पद्म से उत्पन्न होने वाले ब्रह्मा का नाम आगे चलकर अहङ्कार कहा है। इस अंश में रचना का यह प्रकार अध्याय ३२७ सं० ८ के रचना प्रकार से मिलता है। परन्तु इसका और कोई मी माग उसके साथ या किसी अन्य प्रक्रिया के साथ नहीं मिलता। उस प्रक्रिया में अहङ्कार से पांचों भूतों की उत्पत्ति मानी गई है और वहां केवल आकाश की। इस प्रक्रिया में आकाश से जल की, जल से अग्नि और वायु की, तथा अग्नि और वायु के संयोग से पृथिवी की उत्पत्ति मानी गई है। परन्तु तैत्तिरीय उपनिषद् में, आकाश वायु, अग्नि, जल और पृथिवी के क्रम से भूतों की उत्पत्ति मानी गई है। इसलिए यह प्रक्रिया उपनिषद् के बिरुद्ध है।


आगे चलकर पांच धातुओं के समुदाय को ब्रह्मा कहा है। परन्तु धातुएँ, हड्डी, मेदा, मांस और रक्त चार ही गिनाई हैं।


और भी आगे चलकर, इसी ब्रह्मा के सूर्य और चन्द्रमा नेत्र ऊपर का आकाश शिर. पृथिबो पैर और दिशाएँ भुजाएँ बतलाई हैं। यह विराट् रूप हड्डो मांस आदि धातुओं से बने हुए ब्रह्मा का नहीं हो सकता ।


पहिले से वर्णन तो ब्रह्मा का करते चले आ रहे थे और अन्त मे उपसंहार करते हुए यह लिख दिया, "ऐसा यह अनन्त भगवान् विष्णु है।" कितना असम्बद्ध वर्णन है।

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सृष्टि रचना प्रकार संख्या २ 

मेरु पर्वत पर ब्रह्मा का भृगु को उपदेश

महाभारत शा० ५० अ० १८१


पहिले आकाश, शब्द के बिना, निश्चल, चन्द्रमा सूर्य और वायु से रहित सोया हुआ जैसा था। उससे जल उत्पन्न हुआ यह ऐसा ही दृश्य था, जैसे कि एक अन्धकार में दूसरा अन्धकार आ गया हो। उस जल के ही भण्डार से वायु उत्पन्न हुआ। फिर उस जल और वायु के सङ्घर्ष से, चमकता हुआ, अन्धकार को दूर करता हुआ, अग्नि उत्पन्न हुआ। अग्नि से मिला हुआ वायु आकाश से जल फेंकने लगा और उसका आकाश से गिरता हुआ जो स्नेह एक जगह ठहर गया, वह ही कठिन होकर पृथिवी बन गया। सब रसों, गन्धों, स्नेहों और प्राणियों को उत्पन्न करने वाली यह पृथिवी ही है।


विशेष वक्तव्य


१. इस प्रक्रिया में महत् और अहंकार के क्रम से सृष्टि की उत्पत्ति नहीं कही। इसके लिए यह कहा जा सकता है कि यह सृष्टि-रचना का आंशिक (एक भाग का) वर्णन होगा। आंशिक वर्णन भी कई स्थानों पर मिलते हैं। जैसे कि "तैत्तिरीय उ० ब्रह्मानन्दवल्ली अ० १" में पहिले-पहिले आकाश की उत्पत्ति बतलाकर यहां से ही सृष्टि-रचना का क्रम चलाया गया है।


२. इस प्रक्रिया में प्रलय में आकाश का संहार नहीं माना । आकाश तत्व को शेष रख लिया गया है। यह विचार वेदों और उपनिषदों के विरुद्ध है। "ऋग्वेद मं० १० सूक्त १२६ मं० १९ में "नो व्योमा परोयत्” (उस समय आकाश भी नहीं था) यह प्रकट किया गया है। और "तैत्तिरीय उ० प्र० अ० १ ” में मी "तस्माद्वा एतस्मादात्मन आकाशः सम्भूतः” (उस आत्मा से आकाश उत्पन्न हुआ) यह कहा गया है। इन प्रमाणों से यह समझ में आ जाता है कि वेद और उपनिषद्, प्रलय में आकाश को बचा हुआ नहीं मानते। इस लिए इस रचना के प्रकार को वेद और उपनिषद् के विरुद्ध कहना ही पड़ेगा।


इस प्रक्रिया में आकाश से जल की और जल से वायु की ई उत्पत्ति कही है। परन्तु "तै० उ० प्र० ब० अ० १" में आकाश से वायु की वायु से अग्नि की और अग्नि से जल की उत्पत्ति कही है। इसलिए भी यह क्रम उपनिषदों के विरुद्ध है।

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सृष्टि-रचना का प्रकार संख्या ३

राम, परशुराम, नारद, व्यास, असित, देवल और वाल्मीकि का संवाद भीष्म ने युधिष्ठिर को सुनाया ।

महाभारत शां० प० अ० २०६


पुरुषोत्तम भूतात्मा ने वायु, अग्नि, जल, आकाश और पृथिवी इन महाभूतों को उत्पन्न किया। पृथिवी को पैदा करने के बाद वह भगवान् जल में सो गया। उसने मन से सब भूतों में श्रेष्ठ सङ्कर्षण का स्मरण किया। उस चिन्तन के बाद उससे सब तेजों का प्रकाश करने वाला प्रद्युम्न उत्पन्न हुआ। जल में योग निद्रा में सोए हुये महाराज ने, संसार को उत्पत्ति, स्थिति और प्रलय करने वाले, ब्रह्मा, विष्णु और महेश्वर तीन देव उत्पन्न किये। उस महापुरुष की नाभि में सूर्य की 4 तरह का विचिन्न कमल पैदा हुआ । कमल से दिशाओं को प्रकाशित करता हुआ ब्रह्मा उत्पन्न हुआ। उसके उत्पन्न होने के बाद तमोगुण की महिमा से मधु नाम का असुर पैदा हुआ। उसे पैदा होते को ही पुरुषोत्तम ने मार दिया, और इसलिए भगवान् को, देवता, राक्षस और मनुष्य सब मधु सूदन कहने लगे।


ब्रह्मा के दक्ष, मरीचि, अत्रि, अङ्गिरा, पुलस्त्य, पुलह और ऋतु सात पुत्र हुए। ये सब उसकी मानस सन्तान थे। मरीचि से कश्यप और दक्ष से १३ कन्याएँ उत्पन्न हुई। उन कन्याओं में सब से बड़ी दिति थी। इन तेरहों कन्याओं के पति कश्यप हुए। दक्ष ने उनसे छोटी दश कन्याएँ और उत्पन्न कीं, और वे धर्म को दे दीं। धर्म के आठ पुत्र, रुद्र. विश्वेदेव, साध्य और मरुत्वान् उत्पन्न हुए। दक्ष ने उनसे छोटी २७ कन्याएँ और उत्पन्न कीं, और वे सोम को दे दीं। औरों से, गन्धर्ब घोड़े, पक्षी, गौ, किम्पुरुष, 4 मछलिएँ, वृक्ष और वनस्पति ये सब उत्पन्न हुए। आदित्य नामक श्रेष्ठ देवताओं को अदिति ने उत्पन्न किया। उनमें से विष्णु जिनके बामन और गोविन्द भी नाम हैं, प्रधान हुए। उस विष्णु के पराक्रम से देवताओं की लक्ष्मी बढ़ी, दानवों और दिति की आसुरी प्रजा का पराभव हुआ। 

दानवों को दनु ने और असुरों को दिति ने पैदा किया था। इसके बाद मधुसुदन ने, मृत्यु और दिन रात, दिन के पहिले भाग, दूसरं भाग तथा ऋऋतुकाल को उत्पन्न किया। उसी भगवान् ने जल से मेघों और स्थावर जङ्गमों को उत्पन्न किया। इसी प्रकार विशाल तेज से युक्त पृथिवी को उत्पन्न किया। फिर कृष्ण ने मुख से सौ ब्राह्मण, भुजाओं से सौ क्षत्रिय, जवाओं से सौ वैश्य और पैरों से सौ शूद्र उत्पन्न किये 4 और इन सब का अधिष्ठाता, ब्रह्मा को बनाया। उसने भूत और मातृगण के स्वामी विरूपाक्ष को तथा कुवेर, वरुण और इन्द्र को उत्पन्न किया। इन सब में से इन्द्र को राजा बनाया। उस समय लोगों को जबतक शरीर रखने की इच्छा होती थी जीते रहते थे । मृत्यु का डर नहीं था। सतयुग और त्रेता में मैथुन धर्म से नहीं था। सतयुग में सङ्कल्प से ही और त्रेता में छूने मात्र से सन्तान पैदा हो जाती थी। द्वापर में मैथुन धर्म का आरम्भ हुआ है।


विशेष वक्तव्य


१ - इस सृष्टि रचना के प्रकार में, भूत-सृष्टि के बाद महन और अहंकार की सृष्टि बतलाई गई है। यह रचना-क्रम, वेद. उपनिषद् और स्मृति इनमें से किसी के भी रचना-क्रम के अनुकूल नहीं।


२ - विष्णु ही जल में सोये हुए थे, उनसे ब्रह्मा, विष्णु और महेश तीनों की उत्पत्ति, इस रचना क्रम में कही है। विष्णु से ही विष्णु की उत्पत्ति कहना युक्ति-सङ्गत प्रतीत नहीं होता। और 5 फिर आगे चलकर इसी प्रकरण में दूसरी बार अदिति से भी 5 विष्णु की उत्पत्ति कही गई है। दो बार उत्पत्ति क्यों ? ३- दनु ने दानवों को उत्पन्न किया। दनु कहां से आ गया, 4 इसका कोई पता नहीं ।


४- दक्ष ने १० कन्याएँ धर्म को और २७ कन्याएँ सोम को दीं। धर्म और सोम कहां से उत्पन्न हुए इसका कोई पता नहीं।

 ५ - काल की उत्पत्ति के बाद यहां, जल से, मेघों, स्थावर जङ्गर्मा और विशाल तेज से युक्त पृथिवी की उत्पत्ति कही है। परन्तु सृष्टि के आरम्भ में भी पांच भूतों की रचना महाराज कर चुके हैं, जिनमें कि पृथिवी भी आ गई है।


६- दक्ष, मरीचि, अत्रि आदि मनुष्यों, रुद्र विश्वेदेव आदि देवताओं, दैत्यों और दानवों की उत्पत्ति पहिले कह चुके हैं। कश्यप आदि ऋषियों के साथ दक्ष की कन्याओं का विवाह होने के बाद योनिज सृष्टि का आरम्भ भी हो चुका है। इसके बाद अब फिर कृष्ण के मुख से सौ ब्राह्मणों, भुजाओं से सौ क्षत्रियों, जवाओं से सौ वैश्यों और पैरों से सौ शूद्रों की अयोनिज १ सृष्टि का प्रसंग कहां तक युक्तिसंगत है, इसका निर्णय पाठक स्वयं कर लें।


७- इस निबन्ध में लिखा है कि सतयुग में मृत्यु का भय नहीं था। परन्तु इससे पहिले दैत्यों को उत्पत्ति के बाद मृत्यु की उत्पत्ति कर दी गई थी। और मृत्यु की उत्पत्ति से तात्पर्य है, लोगों का इस लोक से परलोक चला जाना । इसलिए उस समय मृत्यु का भय नहीं था, यह कथन न्याय के अनुकूल नहीं है।


८—इस लेख में कहा है कि सतयुग और त्रेता में मैथुन धर्म नहीं था। सतयुग में संकल्प से ही और त्रेता में छूने मात्र से सन्तान पैदा हो जाती थी। यह प्रसङ्ग हरिश्चन्द्र आदि की कथाओं और त्रेतायुग के समायण के इतिहास से सर्वथा विरुद्ध है।

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सृष्टि-रचना प्रकार सं० ४

व्यास जी का शुकदेव जी को उपदेश


म० भा० शा० ० ० २३८ सृष्टि के आरम्भ में अजर अमर परब्रह्म और त्रिगुणात्मक प्रधान थे। इस प्रधान के ही वैष्णवी प्रकृति महामाया आदि नाम 9 हैं। यह सत्व, रज और तम इन तीन गुणों का समुदाय ही है। अनेक प्रकार के जीवों को कर्म भोग देने के लिए इसका प्रादुर्भाव हुआ है। । भगवान् का समीप होना ही इसमें क्षोभ (हरकत) पैदा करने के लिए पर्याप्त है। भगवान् ने उसे उत्पत्ति के अनुकूल बनाते हुए उसमें प्रविष्ट होकर, क्षोभ उत्पन्न किया । क्षोभ होने पर उस प्रकृति से महान् की उत्पत्ति हुई। इस तत्व से को बड़ा होने के कारण ही महान कहते हैं। इसमें भी सत्व, रज और तम तीनों गुणों का मेल है। इस महान् को भी चारों + ओर से प्रकृति ने व्याप्त कर लिया। और उसके प्रभाव से उस महान् से सत्वगुणी, रजोगुणी और तमोगुणी तीन प्रकार का अहंकार पैदा हुआ। इनमें से तमोगुणी अहङ्कार से शब्दतन्मात्रा और उससे आकाश. आकाश से स्पर्शतन्मात्रा और उसले वायु, वायु से रूप तन्मात्रा और उससे अग्नि, अग्नि से रसतन्मात्रा और उससे जल उत्पन्न हुआ। जल से गन्ध तन्मात्रा की उत्पत्ति हुई, और फिर वह जल धीरे २ बरफ की तरह जम कर कठिन में होता हुआ पृथिवी बन गया। इस प्रकार पांच भूतों की उत्पत्ति हुई, इन भूतों की ही परस्पर मेल से उत्पन्न हुई विशेष अवस्था का नाम अन्न है। ग्यारह इन्द्रियें और मन ये देवता तेजस है। इन सब परिवर्तनों में अनेक भेदों में बँटा हुआ काल भी कारण है। गुग्ण भेद से परमात्मा के भी तीन रूप और क्रियाएँ हैं। सृष्टि की रचना करने वाला होने से उसे ब्रह्मा, पालन करने वाला होने से विष्णु और संहार करने वाला होने से शिव कहते हैं


विशेष वक्तव्य


सृष्टि रचना की इस प्रक्रिया में ग्यारह इंद्रियों और मन तैजस (तेज से पैदा होने वाले) कहा है। तेज के दो काम है प्रकाश और प्रवृत्ति और इन्द्रियें भी प्रकाश और प्रवृत्ति के ही करने वाली हैं। कर्मेन्द्रियें प्रवृत्ति (कर्म) करने वाली हैं, और ज्ञानेद्रिन्य तथा मन प्रकाश (विषयों का ज्ञान) करने वाली है। प्रकाश और 6 प्रवृत्ति सत्वगुण और रजोगुण के काम हैं। इसलिये कर्मेन्द्रियों में रजोगुण और ज्ञानेन्द्रियों में सत्वगुण प्रधान समझना चाहिए। पहिले तमोगुण प्रधान अहङ्कार से पांचों की उत्पत्ति कह आये हैं। रजोगुणी और सत्वगुणी अहङ्कार शेष है, उसका २ कोई कार्य अभी तक नहीं बतलाया गया। इस लिए रजोगुणी ↑ अहङ्कार का कर्मेन्द्रियें और सत्वगुणी अहङ्कार का ज्ञानेन्द्रियें, तथा मन कार्य समझने चाहिए। व्यास जी ने इनकी उत्पत्ति इकट्ठी हो कही है। इसलिए इन्हें एक "तैजस" शब्द से ही कहा गया। उनकी पहिली प्रक्रिया के अनुसार, उनके इस शब्द का ऊपर लिखा अर्थ अनायास समझ में आ जाता है।


इस प्रक्रिया में ब्रह्मा, विष्णु और शिव कोई शरीरधारी देव प्रकट नहीं किये गये। यहाँ पर गुण-कर्म के भेद से एक ही परमात्मा के ये सब नाम कहे गये हैं।

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सृष्टि रचना प्रकार संख्या ५

देवल और नारद का संवाद

महा० शा०प० प्र० २१८ ।


पृथिवी, जल, तेज, वायु और आकाश पांच महाभूत है। आत्मा से प्रेरित हुआ २ काल इन पांचों से ही प्राणियों को उत्पन्न करता है। जो इससे अधिक कहता है वह झूठ कहता है। हे  नारद ! काल को और इन पांचों भूतों को, सदा रहने वाले, अविनाशी और स्थिर समझो। ये सब महान् तेज की राशि है, और स्वभाव से ही ऐसे है। जल, आकाश, पृथिवी, वायु और अग्नि इन पाँच भूतों से परे किसी की, न प्रमाण से और न १ युक्ति से ही सिद्धि हो सकती है, इसमें कोई संशय नहीं। मनुष्य का शरीर पृथिवी से, श्रोत्र आकाश से, चतु सूर्य से, प्राण वायु से, और शरीर खून पानी से बना है।

विशेष वक्तव्य


इस प्रक्रिया में प्रकृति, महत् और अहङ्कार के क्रम से सृष्टि का आरम्भ नहीं किया गया। महाभूतों से सृष्टि का आरम्भ किया है। परन्तु उन महाभूतों को भी स्थिर, अविनाशी और सदा स्वभाव से ही ऐसे रहने वाले माना गया है। यदि इन्हें स्थिर और स्वभाव से ही सदा रहने वाल न माना गया होता और प्रलय काल में नष्ट होकर, सूक्ष्म रूप में जाकर, पृथ्वी के जल में. जल के अग्नि में, अग्नि के वायु में, और वायु के, आकाश में लीन हो जाने का निर्देश किया गया होता, तो इसे भी वैशेषिक और न्याय के ढङ्ग की, आंशिक (एक भाग की) सृष्टि रचना का नाम दिया जा सकता था। परन्तु यहां ऐसा नहीं किया गया। इसलिये इस प्रक्रिया को आंशिक नहीं माना जा सकता। इस प्रक्रिया में निम्न दोष हैं—


१-यहां भूर्ती को स्थिर और अविनाशी माना गया है, परन्तु वेद इन सब का प्रलय के समय अभाव मानते हैं। प्रमाण के लिए देखिए "ऋऋग्वेद, मण्डल १० सूक्त १२६


२-भूर्ती का प्रलयकाल में स्थिर रहना उपनिषद् नहीं मानते परन्तु इस प्रक्रिया में माना गया है। 

देखिए-तैत्तिरीय उपनिषद् ब्रह्मानन्दवल्ली अ० १ ।"


३- इस प्रक्रिया में कहा गया है कि भर्ती से है। परन्तु भूर्ती से परे भी सृष्टि विज्ञान के विद्वान् कपिल और कुछ नहीं मनु अहंकार, महत् और प्रकृति की सत्ता मानते हैं। उपरोक्त दोषों के कारण यह प्रक्रिया वेदों और उपनिषदों के विरुद्ध है और जिस वैशेषिक प्रक्रिया का रूप लेखक ने इसे देना चाहा है। 4 उसके भी यह विरुद्ध है।

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सृष्टि-रचना प्रकार सं० ६ 

जनक और वशिष्ठ का संवाद

म० मा० शा० १० प्र० ३०८


मूर्ति से रहित शम्भु भगवान् ने मूर्तिधारी स्वयम्भू को उत्पन्न किया। हिरण्यगर्भ, बुद्धि, महान् और विरचि इसी के नाम हैं। इसने अनेक रूप संसार को पैदा किया इसलिए इसका विश्वरूप भी नाम है। इसने दो प्रकार के अहङ्कार को उत्पन्न किया। उनमें से एक का नाम विद्यासर्ग और दूसरे का नाम अविद्यासर्ग है । वह प्रजापति अपने आपको (अव्यक्त) निराकार रूप से, अहङ्कार से युक्त, व्यक्त (साकार) रूप में परिणत करता है, इसी का नाम विद्यासगं है। और महत् से अहङ्कार को भी उत्पन्न करता है। इसी का नाम अविद्यासर्ग है । इस अहङ्कार से, वायु, अग्नि, जल आकाश, पृथिवी, शब्द, स्पर्श, रूप, रस और गन्ध दशों इकट्ठ उत्पन्न हुए। इसके बाद दस इन्द्रियें और मन भो इकट्ठे ही उत्पन्न हुए। इस प्रकार यह चौबीस तत्वों की उत्पत्ति कही है। पचीसवां तत्व अव्यक्त है। वह ज्ञान से व्यवहार करने वाला चेतन है।


विशेष वक्तव्य


इस प्रक्रिया में विद्यासर्ग और अविद्यासर्ग दो प्रकार के अहङ्कार की उत्पत्ति ब्रह्मा ने की है। अविद्यासर्ग से तो आगे चल कर भूतों को उत्पन्न किया गया। पर विद्यासर्ग का कोई उपयोग इस प्रक्रिया में नहीं दिखलाया गया। विद्यासर्ग नाम से भी, और प्रजापति ने स्वयं अहङ्कार का रूप धारण किया है इसलिए भी यह परिणाम प्रतीत तो चेतन ही होता है। परन्तु यह चेतन क्या है और इसका क्या उपयोग है उसका स्पष्टीकरण नहीं किया गया। उपनिषदों, स्मृतियों और दर्शनों में भी इस प्रकार के विद्यासर्ग अहङ्कार का कहीं उल्लेख नहीं है। इसके विषय में यह भी कहा है कि "प्रजापति अपने निराकार रूप से साकार" 'अहङ्कार से युक्त' रूप में परिणत (तबदील) हुआ। परन्तु आरम्भ में ही मूर्ति से रहित भगवान् ने इसे मूर्तिधारी पैदा किया है, फिर यह अव्यक्त कैसे रहा ?


महाभूतां और शब्द आदि पांच तन्मात्राओं की अहंकार से यहां इकट्ठी ही उत्पत्ति कही है। परन्तु सृष्टि रचना के चौथे प्रकार में इनकी उत्पत्ति क्रम से कही गई है। उस प्रक्रिया का उपनिषदों, दर्शनों और स्मृतियों से समर्थन होता है, इसलिए उसे ही ठोक मानना उचित प्रतीत होता है।

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सृष्टि-रचना प्रकार संख्या ७ 

ऋषि याज्ञवल्क्य का जनक को उपदेश


महाभारत शा० १० अ० ३१५ आठ प्रकृतियें हैं, सोलह विकार हैं। यह सामान्यतया सांख्य और योग का और विशेष रूप से सांख्य का मत है। इन चौबीसों में से ७ व्यक्त और शेष अव्यक्त हैं। अव्यक्त, महान्, अहङ्कार, पृथिवी, वायु, आकाश, ज्योति और जल ये आठ प्रकृतियें हैं। श्रोत्र, त्वचा, चक्षु, जिह्वा, नासिका. शब्द, स्पर्श, रूप रस, गन्ध, बाणी हाथ, पैर, अपान; जननेन्द्रिय और मन ये सोलह विकार हैं। इससे आगे ६ सर्ग कहते हैं । अव्यक्त से महान् की उत्पत्ति पहिला सर्ग। महान् से अहंकार को उत्पत्ति दूसरा सर्ग। अहङ्कार से से मन की उत्पति तीसरा सर्ग। मन से पांच महाभूतों की उत्पति चौथा सर्ग। महाभूतों से शब्द, स्पर्श, रूप, रस और गन्ध को उत्पत्ति पांचवां सर्ग। श्रोत्र चतु, जिह्वा और नासिका की उत्पत्ति छठा सर्ग। इसे चिन्तात्मक सर्ग कहते हैं। इससे आगे श्रोत्र • इन्द्रियों का समुदाय उत्पन्न होता है। यह सातवां सर्ग है। इसे ऐन्द्रियक कहते हैं। ऊपर का स्रोत और टेढ़ा स्रोत और नीचे का स्रोत उत्पन्न होते हैं यह नवां सर्ग है, इसे आर्जवक कहते हैं।


विशेष वक्तव्य


इस रचना प्रकार को "सृष्टि-रचना प्रकार सं० ४" के ढङ्ग से लिखा गया है। परन्तु उसके साथ भी यह मिलता •हीं। उस प्रकार में पांच भूतों की उत्पत्ति अहङ्कार से मानी है और यहां मन से । शब्द आदि तन्मात्राओं की उत्पत्ति चौथे प्रकार में 6 भूतों से पहिले मानी गई है और यहां भूतों के बाद में। इन्द्रियों 4 की उत्पत्ति वहां अहङ्कार से कही गई हैं और यहां भूतों से । चौथा प्रकार ऋषि कपिल और मन के रचना-क्रम से मिलता है, उपनिषदों से भी उसकी सङ्गति ठीक बैठती है। इसलिये उस प्रकार को ही युक्त और इसे अयुक्त समझना चाहिए।


इस प्रक्रिया में श्रोत्र आदि इन्द्रियों की उत्पत्ति दो बार कही है। सम्भवत: दूसरी बार इन्द्रियों के गोलकों की उत्पत्ति का ई उल्लेख किया गया हो। परन्तु इन्द्रियों के गोलक तो शरीर के 4 दी भाग है। अतः शरीर की रचना के वर्णन में उनकी रचना का वर्णन आना चाहिए था, यहां नहीं।


इस रचना प्रकार में आर्जवक नाम से कहे गये, ऊपर का नीचे का और टेढ़ा स्रोत क्या चीजें हैं, यह समझ में नहीं आता। इस स्रोत का अर्थ आकाश भी कहा नहीं जा सकता, क्योंकि आकाश की उत्पत्ति पहिले कहीं जा चुकी है। और यदि यह स्रोत शून्य (खाली स्थान) का नाम है, तो उसकी उत्पत्ति कहना असङ्गत है, क्योंकि वह नित्य है। इस सृष्टि क्रम को लेखक ने श्रुति के अनुकूल कहा है इसकी प्रतिपादक श्रुति कौन है इसका कोई पता नहीं। कपिल और मनु को तो ऐसी श्रुति कोई नहीं मिली, अन्यथा वे भी इसी रीति से रचना क्रम का व्याख्यान करते ।

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सृष्टि-रचना प्रकार संख्या ८  

सुरमुनिको ऋषि कपिल का उपदेश ।

 महाभारत शान्तिपर्व अ० ३२७ ।


उत्तम रज, सत्व, प्रधान, तत्व, अजर, अक्षर इत्यादि अव्यक्त के नाम हैं। अव्यक्त से पहिला तत्व व्यक्त उत्पन्न हुआ। पुरुष, महत्, बुद्धि, स्मृति, धृति, मेधा, व्यवसाय, समाधि, प्राप्ति आदि इस व्यक्त के नाम हैं। इस व्यक्त से अहङ्कार की उत्पत्ति होती है, वह व्यक्ततर ( अधिक व्यक्त ) है । विरचि, अभिमान, अविवेक, ईर्ष्या, काम, क्रोध, लोभ, मद, दर्प ओर ममता ये सब इस व्यक्ततर 'अहंकार' के काम है। अहंकार से, शब्द, स्पर्श रूप । रस और गन्ध वाले पांच महाभूतों को उत्पन्न किया गया। इसके साथ ही, श्रोत्र, नासिका, चतु, जिह्वा और त्वचा ये पांच ज्ञानेन्द्रियें, और वाणी, हाथ, पैर, अपान और जननेन्द्रिय ये कर्म-इन्द्रियें उत्पन्न हुई।


विशेष वक्तव्य


यह सृष्टि रचना का प्रकार भी औरों की अपेक्षा विलक्षण ही है। यहां प्रकृति को अव्यक्त कहा गया है। परन्तु उसी अव्यक्त शब्द से चेतना शक्ति को भी ग्रहण किया गया है। इस मूल तत्व ई से उत्पन्न हुए महत् और उससे उत्पन्न हुये अहंकार को भी यहां, 5 जड़ चेतन का मिला हुआ परिणाम हो माना है और इसी लिए इन दोनों तत्वों को दो दो प्रकार के नाम दिये गये हैं। दूसरे परिणाम का नाम पुरुष भी है और महत भी। तीसरे परिणाम को विरखि (ब्रह्मा भी कहा है और अहंकार भी। विरचि शब्द का ब्रह्मा अर्थ हमने अपनी ओर से नहीं किया । यह मत्त इस प्रक्रिया के लेखक का ही है। इस अपने कथन के प्रमाण में हम इसी अध्याय का तेहरवां श्लोक उद्धृत करते हैं।


अहं कर्तव्यहंकर्ता ससृजे विश्वमीश्वरः ।

 तृतीय मेन म्पुरुष मभिमानगुणं विदुः ॥


म० भा० शा० प० प्र० ३२० श्लो० १३ मैं करता हूँ मैं करता हूं इस अहंकार की भावना से भाव ईश्वर ने संसार को उत्पन्न किया। यह अभिमान गुण वाला तीसरा पुरुष है।


यह श्लोक यहां अहंकार की रचना के प्रसंग में दिया गया है। अहंकार प्रकृति से तीसरा है इसौलिये इस पुरुष को भी तीसरा कहा गया है। इस पुरुष को यहां सृष्टि की रचना करने वाला कहा गया है. इस लिये इस तीसरे पुरुष विरचि शब्द का अर्थ ब्रह्मा ही होना चाहिये। अहंकार में इस जड़चेतन के मेल को देखकर, दूसरे परिणाम महत के लिये प्रयुक्त हुआ पुरुष शब्द भी किसी चेतन का ही कहने वाला मानना पड़ेगा। यह दूसरा पुरुष है कौन इसका कुछ पता नहीं, क्योंकि इससे इस प्रक्रिया में कोई काम नहीं लिया गया। परिणामों के इस स्वरूप को देखकर आरम्भ के अव्यक्त शब्द के अर्थ भी जड़ और चेतन दोनों ही समझने पढ़ेंगे।


इस प्रकार अहंकार तक चेतन जड़ को मिला कर ही सृष्टि रचना की गई है। परन्तु आगे चल कर भूर्ती और इन्द्रियों की रचना में चेतन को छोड़ दिया गया है। जब कि पहिले सब परि गाम जड़ चेतन मिश्रित तत्व के हैं तो आगे भी ऐसी ही प्रक्रिया चलनी चाहिये थी ।


सृष्टि रचना के चौथे प्रकार में तन्मात्राओं के क्रम से भूतों की उत्पत्ति कही गई है और यहां शब्द आदि गुणों के सहित आकाश आदि भूतों को इकट्ठे ही उत्पन्न किया गया है। वहां आकाश से वायु, वायु से अग्नि; इस क्रम से भूतों की उत्पत्ति क कही गई है, और यहां सब भूतों की उत्पत्ति इकट्ठी ही मानी गई है। यह सारी ही प्रक्रिया चौथी प्रक्रिया के विरुद्ध है, और चौथी प्रक्रिया श्रुति-स्मृति के अनुकूल है, इसलिए उसे ही यथार्थं मानना उचित प्रतीत होता है।


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सृष्टि-रचना प्रकार संख्या ६ 

विष्णु का नारद को उपदेश । महाभारत शां०प०अ० ३४७


हे नारद ! यह जगत् को धारण करने वाली पृथिवी जल में लीन हो जाती है। जल ज्योति में, ज्योति वायु में, वायु आकाश  में, आकाश मन में, मन अव्यक्त में और अव्यक्त पुरुष में लीन ( हो जाता है । उस सनातन पुरुष से परे कोई नहीं और न उसके बिना कोई नित्य है । वह ही वासुदेव है, सनातन है।


पृथिवी, जल, वायु, ज्योति और आकाश ये सब मिलकर डी शरीर बनता है। उस शरीर में प्रविष्ट होकर उसका संचालन करने वाला जीव है। उसी का नाम शेष और उसी का नाम सङ्कर्षण है। वह अपने कर्मानुसार ही सनत्कुमार बना । जिस मन में सब 4 भूतों का लब होता है। उसीका नाम प्रद्युम्न है। उससे जिस कार्य क कारण सङ्घात की उत्पत्ति हुई उसका नाम अनिरुद्ध है। जीव ही बासुदेव, क्षेत्रज्ञ और सङ्कर्षण है। सङ्कर्षण प्रद्युम्न नामक मन और उससे अनिरुद्ध नामक अहङ्कार उत्पन्न होता है। उसी का नाम ईश्वर है। नारद ! यह सब स्थावर जङ्गम जगत् मुझ से ही उत्पन्न होता है। यह न समझना कि मैं रूपवान् हूं। मैं एक क्षरण में ही तेरी आंखों से ओझल हो सकता हूं। जो भक्त, योग युक्त होते हैं वे मेरे अन्दर ही प्रवेश करते हैं। इन तत्त्वों में पचीसवां पुरुष मैं ही हूं।


विशेष वक्तव्य


सृष्टि रचना के इस प्रकार की समता कई अंशों में "सृष्टि रचना प्रकार सं० ३" से है। इन दोनों ही प्रक्रियाओं में जीव को सङ्कर्षण या वासुदेव, प्रकृति के पहिले परिणाम महत्' को प्रद्युम्न और प्रकृति के दूसरे परिणाम 'अहंकार' को अनिरुद्ध कहा है। इस प्रक्रिया में जीव को ही सङ्कर्षण, वासुदेव और क्षेत्रज्ञ कहा है। और तीसरे परिणाम अहंकार को अनिरुद्ध तथा ईश्वर कहा है। ये विचार वैदिक, स्मार्त और दार्शनिक किसी भी सृष्टि प्रक्रिया के अनुकूल नहीं हैं। गम्भीर दृष्टि से देखें तो यह बान समझ में आ जाती है कि इन दोनों ही प्रक्रियाओं में, योगिराज कृष्ण के ऐतिहासिक रूप को उड़ाकर उसे केवल कल्पना की बीज सिद्ध करने का यत्न किया गया है। जीव का ही नाम बासुदेव तथा संकर्षण रख देने से वसुदेव के पुत्र वासुदेव की सत्ता में सन्देह पड़ जाना सम्भव ही है और फिर विशेषता यह कि उनकी सन्तान प्रद्युम्न और अनिरुद्ध को महत् तत्व और अहंकार तत्व के पर्याय बतला कर इस पा और भी सम्भव बना दिया है। इस संबाद को बनाया भी गया है। विष्णु और नारद के नाम से जिससे कि सीधी भगवान् की बारणी १ होने के कारण कोई इस पर अश्रद्धा भी न कर सके। सम्भवतः इस प्रक्षेप काल में कृष्ण भगवान् को अवतार मानने वाले और इसके विरोधी दोनों ही पक्ष होंगे। और विरोधी पक्ष वालों ने कृष्ण भगवान् की सत्ता को सर्वथा ही मिटा देने के लिए यह प्रक्षेप महाभारत में किया होगा।


ऐसे प्रक्षिप्त भाग ही, महाभारत के ऐतिहासिक पुरुषों के विषय में, ऐतिहासिक लोगों की दृष्टि को बदल देते हैं और ऐसे प्रमाणों के आधार पर ही सम्भवतः उन्हें महाभारत को काल्पनिक कहने का अवसर मिलता है।


महाभारत के ऊपर के प्रकरणों को पाठकों ने ध्यान से पढ़ा होगा। इनमें से प्रत्येक के विषय में हम अपने विचार विशेष वक्तव्य में प्रकट कर आये हैं अब इन सब के ही सम्बन्ध में सामान्य विचार किया जावेगा ।


सृष्टि रचना के नौ प्रकार शान्ति पर्व में नौ विभिन्न स्थानों में ↑ आये हैं। ये सारे ही प्रसंग व्यास जी के अपने नहीं हैं। इस निर्णय के लिये पाठक नीचे लिखे हेतु पढ़ें


१ - यदि ये सब प्रकरण व्यास जी के अपने होते तो इनमें परम्पर विरोध न होता ।


२–व्यास जी जैसे वेदों के अनन्य भक्त, सुयोग्य सम्पादक अपने ग्रन्थ में पूर्वापर विरुद्ध और श्रुति-स्मृति विरुद्ध मतों को स्थान नहीं दे सकते थे।


३-सृष्टि रचना के एक ही विषय को नौ बार नौ स्थानों में प्रकट करने की आवश्यकता न थी ।


यह कहा जा सकता है कि ये सब विभिन्न ऋषियों के मत दिखलाए गये होंगे। परन्तु इस विचार को भी नीचे लिखी युक्तियें । अयुक्त सिद्ध कर देती हैं-----------

१- यदि एक ही विषय में नौ मत व्यास जो को दिखाने अभीष्ट होते तो इन सब को एक ही स्थान पर दिखला कर अन्त में वे अपना निश्चित मत लिखते


२ – इनमें से तीन प्रसङ्गों का वर्णन करने वाले ब्रह्मा, विष्णु और व्यास हैं। वर्तमान महाभारत के अनुसार, ब्रह्मा सृष्टि की रचना करने वाले हैं। विष्णु स्वयं हैं ही ईश्वर और व्यास जी विष्णु के अवतार हैं। इसलिए इन तीनों के मतों में तो विरोध होना ही नहीं चाहिए। परन्तु इनके मतों में भी विरोध मिलता है।


३–इन नौ मतों में से एक मत, राम, परशुराम, नारद, व्यास असित और वाल्मीकि इन ऋषियों का परस्पर संवाद है। इनमें से राम, परशुराभ, बाल्मीकि और व्यास समानकालीन नहीं हैं, इसलिए यह प्रसंग स्पष्ट ही कल्पित प्रतीत होता है। और यदि यह कल्पना की जावे कि राम आदि कोई व्यास के समय के ऋषि ही होंगे तो इस संवाद में व्यास जी की प्रधानता होने से यह मत व्यास जी के "व्यास शुक संवाद" के अनुकूल ही होना चाहिए था, परन्तु है विरुद्ध |


अब पाठक समझ गए होंगे कि इनमें से आठ मत न व्यास  जी के हैं, और न अन्य ऋषियों के, किन्तु कल्पित और प्रक्षिप्त हैं। अब यह देखना है कि इनमें से मूल महाभारत का कौन सा मत है जिसे कि व्यास जी का अपना मत कहा जा सके। हमारा निश्चय है कि इन में से व्यास जी का अपना मत "व्यास शुक्र संवाद" सृष्टि का चौथा प्रकार है। इसी का श्रुति-स्मृति और । दर्शन अनुमोदन करते हैं। शेष प्रसंग प्रक्षिप्त हैं। इस निर्णय पर पहुँचने के लिए पाठक सृष्टिक्रम के प्रतिपादक ऋग्वेद के तीन मन्त्रों की व्याख्या आगे पढ़ें

ओं ऋतञ्चसत्यञ्चाभीद्धात्तपसोऽध्यजायत । ततो रायजायत. S ततः समुद्रो अर्णवः ||१|| 

समुद्रादर्शवादधि संवत्सरो अजायत । 4 अहोरात्राणि विदधद्विश्वस्य मिषतोवशी ॥२॥

 सूर्याचन्द्रमसौ धाता यथा पूर्वमकल्पयत् । दिवञ्च पृथिवींञ्चान्तरिक्षमथोस्वः । || ऋ० १० ११६०|१|२|३||


भावार्थ - (अभीद्धात्तपसः) ज्ञान के भण्डार भगवान् के समुन्नत तप ( ईक्षण द्वारा प्रकृति में उत्पन्न किए क्षोभ) से (ऋतच सत्यश्व अजायत) ज्ञान और सत्य की उत्पत्ति हुई।


यहां सत्य शब्द से सत्वगुण प्रधान प्रकृति का पहला परिणाम महत् तत्व लिया गया है। अन्तःकरण में सत्वगुण के प्रधान होने पर ही सत्य का आभास होता है इसलिये इसे सत्य कहा है। सत्यज्ञान की उत्पत्ति भी तप से ही होती है इसलिए यहां यह आलङ्कारिक वर्णन है। अर्थात् जिस प्रकार तप से सत्य ज्ञान की उत्पत्ति होती है इसी प्रकार भगवान् के द्वारा प्रकृति में क्षोभ या ताप होने पर सत्य की या महत् तत्व की उत्पत्ति होती है। (ततो राज्यजायत उसके बाद रात्रि उत्पन्न हुई। यहाँ यह भी सृष्टि रचना का आलङ्कारिक वर्णन ही है। जिस प्रकार सत्वगुण प्रधान 4 दिन के बाद, तमोगुण प्रधान रात्रि की उत्पत्ति होती है उसी प्रकार सत्वगुण प्रधान महत् तत्व के बाद तमोगुण प्रधान अहङ्कार की उत्पत्ति होती है। जिस प्रकार रात्रि निद्रा और आलस्य के देने वाली है, इसी प्रकार अहङ्कार भी प्रमाद और आलस्य का देने वाला है। रात्रि को भी कुछ देने वाली होने से रात्रि कहा जाता है, और अहङ्कार को भी यहां आलस्य तथा प्रमाद का देने वाला होने से रात्रि कह दिया गया है। लोक व्यवहार में भी गुणों के आधार पर यह समता देखने में आती है। मनुष्य में सत्वगुण के प्रधान होने पर उसे महत्व या बड़प्पन मिलता है। परन्तु उस महत्व के मिलने के बाद दी उसके अन्दर तमोगुण प्रधान अभिमान उत्पन्न हो जाता है। अ कार को यदि भगवान् यहां रात्रि न कहते तो इस अलङ्कार की दृष्टि से प्राप्त होने वाले ऊपर लिखे उपदेश हमें नहीं मिल सकते थे । (तत्तः समुद्रो अर्णवः) इसके बाद समुद्र अव बन गया। समुद्र नाम वेद की परिभाषा में आकाश का भी है और जल के भण्डार का भी । “जल के भण्डार" अर्थ को प्रकट करने वाला यहां दूसरा शब्द अर्णव है, इसलिये पहले समुद्र शब्द का अर्थ आकाश तत्व ही करना पड़ेगा। इसलिय इस वाक्य का यह अर्थ हो गया- "इसके बाद आकाश तत्व जल का भण्डार बन गया।"


यहां अहंकार को उत्पत्ति के बाद आकाश की और आकाश की उत्पत्ति के बाद आकाश को जल की अवस्था तक पहुंचने के लिये किन किन सूक्ष्म अवस्थाओं को पार करना पड़ा इस का बिस्तृत वर्णन नहीं किया गया ।


वेद हैं भी सूत्र रूप । उन में यदि प्रत्येक ज्ञान का पूरे विस्तार से व्याख्यान किया जाता, तो वेद इतने बड़े पुस्तक बन जाते कि मनुष्य कई जन्मों में भी उसका पारायण न कर सकता। भगवान् ने मनुष्य को बुद्धि इसलिये दी है कि वह उसके द्वारा ज्ञान के अंकुरों को ग्रहण कर, उसका विस्तार करता हुआ, शाखा प्रशा-  खाओं को बढ़ाकर उसे फल फूल देने वाला वृक्ष बना सके बीच की इन दोनों अवस्थाओं का व्याख्यान ऋषियों ने किया है। अहंकार को आकाश की अवस्था तक पहुंचने के लिये, महर्षि कपिल ने और भगवान् मनु ने बीच में शब्दतन्मात्रा (आकाश की सूक्ष्म अवस्था) की आवश्यकता बतलाई है। और आकाश को जल की अवस्था तक पहुंचने के लिये, महर्षि तित्तिर ने तैत्तिरीय उपनिषद् में और प्रशस्तदेव आचार्य ने वैशेषिक दर्शन के भाष्य में बीच में वायु और अग्नि की आवश्यकता बतलाई है। और महर्षि कपिल तथा मनु, वायु और अग्नि से भी प्रथम, उन दोनों के सूक्ष्मरूप स्पर्शतन्मात्रा और रूपतन्मात्रा की आवश्यकता बतलाते हैं। और + महर्षि वेदव्यास ने पूर्व लिखे गये "सृष्टि रचना के प्रकार संख्या ४” में इन महर्षियों के प्रकाशित किये हुए, सृष्टि रचना के इन सब अंगों का सुन्दर संग्रह किया है। (समुद्रादर्शवादधि संवत्सरो अजायत) उस जल के रूप में परिणत (तबदील) हुए, आकाश से, सब लोकों को अपने अन्दर बसाने वाली, अथवा पूरे वर्ष में रहने वाली कोई वस्तु उत्पन्न हुई ।


जल के अन्दर यह क्या चीज्र उत्पन्न हुई इसे “शतपथ ब्राह्मण काण्ड ११ ब्राह्मण काण्डिका १" में एक साल तक जल में रहने वाला एक बड़ा भारी प्रकाशमय अण्डा कहा है। मनु भगवान् ने भी प्रथम अध्याय के नवें श्लोक में इसका यह ही आकार और यह ही नाम कहा है।


हम पहिले लिख आये हैं कि इस अण्डे का नाम अधिसंवत्सर इसलिए है कि इसमें लोक-लोकान्तर बसे हुए हैं, और इसलिए भी कि एक साल पानी के अन्दर ही रह कर बढ़ता और पकता रहा है हमारे ये दोनों ही अर्थ व्याकरण की दृष्टि से तो ठोक है ही अब हम इन्हें युक्ति और प्रमाणों से भी उपपन्न कर देना उचित समझते हैं। ऋग्वेद के इन मन्त्रों में आगे चलकर पृथिवी सूर्य आदि लोकों की उत्पत्ति कही है। वे लोक लोकान्तर किस चीज में से उत्पन्न हुए यह जानने के लिए शतपथ ब्राह्मण को पढ़िए।


"तदिदं हिरण्मयाण्डं यावत्संवत्सरस्य वेला तावत्पर्यप्लवत"-शतपथ का० ११। ६। १॥

भावार्थ-यह प्रकाशमय अण्डा एक साल तक जल के अन्दर तैरता रहा। इस प्रकार यहाँ जल से इस अण्डे की उत्पत्ति बतला कर आगे चलकर इसी अण्डे को तोड़ कर इससे पृथिवी आदि लोकों की उत्पत्ति कही है।


इन मन्त्रों में भी आगे लोक लोकान्तरों की उत्पत्ति कही है, और संवत्सर के अन्दर रहने वाली कोई चीज भी कही है, इसलिये इस अधिसंवत्सर को लोकों की उत्पत्ति का बीज वह शतपथ वाला अण्डा ही कहना पड़ेगा। हमारे इसी विचार को मनु के प्रथम अध्याय का नवां श्लोक भी पुष्ट कर रहा है।


जल की उत्पत्ति हो चुकी। उसके अन्दर अधिसंवत्सर नामक महान अण्डा भी उत्पन्न हो गया। इसके आगे चलकर इस अण्डे से स्थूल पृथिवी लोक की उत्पत्ति होने वाली है। जिस प्रकार आकाश, अग्नि, वायु और जल के सूक्ष्म रूप उनकी तन्मात्राएँ हैं और उनकी उत्पत्ति से पहिले, ऋषियों ने उनके सूक्ष्म रूपों १ की उत्पत्ति का व्याख्यान किया है। उसी प्रकार पृथिवी की उत्पत्ति से पहिले, जल से, इस अण्डे में-पृथिवी का सूक्ष्म रूप गन्ध तन्मात्रा भी उत्पन्न होनी चाहिए। इसका भी स्पष्टीकरण यहां इन मन्त्रों में नहीं किया गया है। परन्तु ऋषि कपिल और मनु  ने इस अंश का व्याख्यान किया है, और पृथिवी से पहिले उन्होंने गन्धतन्मात्रा की उत्पत्ति मानी है। इसलिये जल भण्डार में से इस अण्डे में, गन्धतन्मात्रा की भी उत्पत्ति हो गई। इस प्रकार इस अण्डे में पृथिवी, जल, तेज, वायु और आकाश पांचों तत्वों का मेल था और इन पांचों तत्वों के मेल से ही आगे चल कर लोक-लोकान्तरों की उत्पत्ति हुई।


ग्यारहों इन्द्रियें भी शब्दतन्मात्रा की तरह सूक्ष्म है। उनकी उत्पत्ति का भी यहां वर्णन नहीं है। ऋषि कंपिल और मनु ने सृष्टि रचना के इस अंग का भी व्याख्यान किया है। इनको उत्पत्ति भी उन्होंने शब्दतन्मात्रा की तरह अहंकार से मानी है। । महर्षि वेदव्यास ने भी अपने सृष्टि-रचनाक्रम में जो "सृष्टि रचना प्रकार सं० ४ में है सृष्टि रचना के इन सब अङ्गों का संग्रह किया है।


यह बतलाने की आवश्यकता नहीं कि ये ग्यारहों इन्द्रियें भी आकाश आदि तत्वों के साथ उस महान अण्डे में विद्यमान थीं। तन्मात्राओं की उत्पत्ति में कुछ मतभेद है। किसी महर्षि ने इनको उत्पत्ति सीधी अहंकार से मानी है। और किसी ने अहंकार  से शब्द तन्मात्रा की, उससे आकाश की, आकाश से स्पर्शतन्मात्रा की और उससे वायु की, इस क्रम से उत्पत्ति मानी है। परन्तु यह कोई मौलिक मतभेद नहीं। सृष्टि क्रम के मुख्य नियम (सूक्ष्म से स्थूल की ओर जाने) का ध्यान दोनों मतों में रक्खा गया है। और अवस्थाएँ भी सभी दोनों मतों से मानी गई है।


सृष्टि रचना के दो भाग है, भूत सृष्टि और लोक सृष्टि । पाँच भूतों और इन्द्रियों की उत्पत्ति भूत सृष्टि के अन्दर आ  जाती है। और पृथ्वी, चन्द्र, सूर्य, अन्तरिक्ष आदि लोकों की सृष्टि लोक सृष्टि है।


सृष्टि रचना का कहीं कहीं आंशिक (एक भाग का) और कहीं कहीं पूरा वर्णन मिलता है। ऋषि याज्ञवल्क्य ने शतपथ में जल से सृष्टि-रचना का आरम्भ किया है उन्होंने प्रकृति, महत्, अहं कार और पचतन्मात्राओं के क्रम से भूतों की रचना का व्याख्यान न करते हुए, लोक सृष्टि का व्याख्यान किया है। और इसी लिये जल से श्रारम्भ कर अण्डे के क्रम से लोकों की रचना कही है। तैत्तिरीय उपनिषद् और वैशेषिक दर्शन में आकाश से लेकर भूत सृष्टि का व्याख्यान किया है। प्रकृति से लेकर तन्मा त्राओं तक के क्रम को उन्होंने छोड़ दिया है। महर्षि कपिल और वेदव्यास ने प्रकृति से लेकर अन्त तक भूत सृष्टि का वर्णन किया है, लोक सृष्टि को छोड़ दिया है। महर्षि मनु ने लोक सृष्टि और भूत सृष्टि दोनों का वर्णन किया है। इस प्रकार सृष्टि रचना के विषय में किसी ऋषि का पूरा और किसी का एक भाग का व्याख्यान मिलता है। परन्तु क्रम सब का एक ही है, विरोध से किसी में नहीं है। यह दूसरी बात है कि उन्होंने अपनी रुचि के अनुसार भिन्न भिन्न अंशों का व्याख्यान किया। यहां इस मन्त्र में अब तक भूत सृष्टि का व्याख्यान किया गया है। अब लोक सृष्टि का व्याख्यान करते हैं।


अहोरात्राणि विदधद्विश्वस्य मिषतो वशी सूर्याचन्द्रमसौ घाता

यथा पूर्वमकल्पयत्, दिवञ्च पृथिवींचान्तरिक्षमथो स्वः । 

भावार्थ—सब को वश में करने वाले और धारण करने वाले भगवान् ने, जगत् के लिये दिन और रात्रि का निर्माण करते हुए पहली सृष्टि की तरह, सूर्य, चन्द्रमा, दिव, पृथ्वी और स्वर् लोकों को बनाया ।


तात्पर्य यह है कि अधिसंवत्सर नामक अण्डे को अपनी इच्छा शक्ति से तोड़ कर भगवान् ने उसमें से इन सब लोकों को अलग अलग कर दिया। इन लोकों में अन्तरिक्ष का भी नाम आया है। अन्तरिक्ष नाम आकाश का है और आकाश की उत्पत्ति पहिले भी बतला चुके हैं और अब भी कह रहे हैं, यह पुनरुक्ति प्रतीत होती है। परन्तु यथार्थ में पुनरुक्ति नहीं है। श्राकाश दो हैं, एक मत आकाश और एक लोक आकाश । भूत आकाश शब्द का आधार पृथिवी और जल की तरह का, एक तत्व है और लोक आकाश खालो जगह का नाम है। पहिले कहे गये महान भएडे के अन्दर, लोक लोकान्तर और खाली स्थान भी विद्यमान थे। जब इन लोकों का विभाग किया, तो उनके बीच जो खाली स्थान रहा, उसी का नाम अन्तरिक्ष लोक पढ़ा। यद्यपि यह स्थान पैदा होने वाली चीज नहीं, पहिले भी विद्यमान था परन्तु यह व्यवहार में लोक लोकान्तरों की उत्पत्ति के बाद आया है, इसलिये लोक लोकान्तरों की उत्पत्ति के साथ हो इसका निर्देश किया गया। भगवान् ने इसीलिये यहां शब्द भी 'कल्पयत्' दिया है। यह शब्द उत्पन्न होने वालों और बिना उत्पत्ति के ही व्यवहार में आने वालों, दोनों के साथ लग सकता है।


सृष्टि रचना के इस वैदिक प्रकार को पढ़कर, और इसके साथ ही अन्य ऋषियों के मतों को जानकर, मेरी तरह ही पाठक भी अवश्य इस निर्णय पर पहुंचेंगे कि पहिले दिखाये गये सृषि रचना के नौ प्रकारों में से "ब्यासशुकसंवाद" नामक चौया प्रकार ही व्यास जी का अपना और मूल भारत का है। शेष सम प्रकार श्रुति-स्मृति विरुद्ध होने से प्रक्षिप्त हैं, पीछे के मिलाये हुए हैं।


जिस प्रक्षेप का हमने उल्लेख किया है वह महाभारत के अठारह पर्वों में से एक पर्व में और उसके भी एक प्रकरण में है। सारे महाभारत में कितनी मिलावट होगी, इसका अनुमान पाठक इसी से कर लें।


गोता भी इसी महाभारत का एक अंग है। इसलिये उसमें भी इसी प्रकार से प्रक्षेप अवश्य किया गया होगा, यह अनुमान अनायास ही किया जा सकता है। परन्तु इस अनुमान से यह निर्णय होना कठिन है कि वास्तव में गीता में प्रक्षेप है कितना । इस विषय का निर्णय करने के लिये दम पाठकों के सामने "गीता में प्रष" नामक दूसरा उपस्थित करते हैं।


निष्काम-कर्म का उपदेश

कुर्वन्नेवेह कर्माणि जिजीविपेच्छत समाः ॥ यजुर्वेद, अ० ४०, मं० २ ।।

★ भाव - कर्म करते हुये ही सौ वर्ष जीने की इच्छा करें । 

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कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन ॥ गीता. अ० २, श्लो० ४७ ॥ 

★ भाव - कर्म करने में ही तेरा अधिकार है - फल की आकांक्षा न कर ।


गीता में प्रक्षेप द्वितीय अध्याय


(१) गीता के दूसरे अध्याय का चौबीसवां श्लोक प्रक्षेप है। इसके प्रक्षिप्त होने में कारण है पुनरुक्ति । इस श्लोक का आवश्यक सब विषय पिछले श्लोकों में आ चुका है। श्लोक नीचे पढ़िए--


अच्छेद्योऽयमदाह्योऽयमविकार्योऽयमुच्यते ।

नित्यः सर्वगतः स्थाणुरवलोऽयं सनातनः ॥२४॥

 भावार्थ - यह आत्मा काटा और जलाया नहीं जा सकता नित्य, सर्वव्यापक, स्थिर और अधिकारी है ||२४|| यह


आत्मा के काटने और जलाये न जा सकने का विधान तेईसवें श्लोक में आ चुका है। इसे नित्य और अविकारी इक्की सवें श्लोक में कहा गया है। इसे नित्य और अविकारी कह देने 4 पर स्थिर कहने की कोई आवश्यकता रह ही नहीं जाती। अतः स्पष्ट है कि आत्मा को सर्वव्यापक कहने के लिए ही इस श्लोक की रचना की गई है और यह भी गीताकार का सिद्धान्त नहीं। इससे प्रथम महाराज कह आये हैं “पुराने शरीर को छोड़ कर देहधारी अन्य नये शरीर में चला जाता है" (अ० २ श्लोक २२) एक शरीर को छोड़ कर दूसरे शरीर में जाना सर्वव्यापक का  काम नहीं। वह तो पहिले से ही सर्वत्र विद्यमान है। अतः यह श्लोक प्रक्षिप्त है।

💧-स्वामी आत्मानन्द सरस्वती

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