ঋগ্বেদ ১০ম মণ্ডল ১২৫ সূক্ত - ধর্ম্মতত্ত্ব

ধর্ম্মতত্ত্ব

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08 September, 2020

ঋগ্বেদ ১০ম মণ্ডল ১২৫ সূক্ত

                                                     দেবীসূক্তম্
ঋগ্বেদের দশম মণ্ডলের দশম অনুবাকের ১২৫তম সূক্তকে বৈদিক দেবীসূক্ত বা আত্মাসূক্ত বলা হয়ে থাকে।
অহং রুদ্রেভিরিত্যাদিমন্ত্রস্য ব্রহ্মাদ্যা ঋষয়ো গায়ত্র্যাদীনি
ছন্দাংসি, আদ্যা দেবী দেবতা, দেবীসূক্তজপে বিনিয়োগঃ।
‘অহম্‌’ ইত্যাদি অষ্ট-মন্ত্রাত্মক ঋগ্বেদীয় দেবীসূক্তের মন্ত্রদ্রষ্ট্রী ঋষি-অম্ভৃণ মহর্ষির কন্যা বাক্‌,
দেবতা-পরব্রহ্মময়ী আদ্যাশক্তি, কেবল দ্বিতীয় মন্ত্রটি জগতীছন্দে এবং অবশিষ্ট সপ্ত মন্ত্র ত্রিষ্টুপ্‌ছন্দে নিবদ্ধ।
শ্রীজগদম্বার প্রীতির নিমিত্ত সপ্তশতীচণ্ডীপাঠান্তে দেবীসূক্ত-পাঠের বিনিয়োগ হয়।
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ওঁ অহং রুদ্রেভির্ব্বসুভিশ্চরাম্যহ

মাদিত্যৈরুত বিশ্বদেবৈঃ।
অহং মিত্রাবরুণোভা বিভর্ম্ম্যহ
মিন্দ্রাগ্নী অহমশ্বিনোভা।। ১

पदार्थान्वयभाषाः -(अहम्) मैं महान् परमेश्वर की वाक्-ज्ञानशक्ति (वसुभिः) पृथिवी आदि आठ वसुओं से (रुद्रेभिः) ग्यारह प्राणों से (आदित्यैः) बारह मासों के साथ (उत) और (विश्वदेवैः) ऋतुओं के साथ (चरामि) प्राप्त होती हूँ (अहम्) मैं (उभा-मित्रा वरुणा) दोनों दिन रात को (इन्द्राग्नी) अग्नि विद्युत् को (उभा-अश्विना) दोनों द्युलोक पृथिवीलोक को (बिभर्मि) धारण करती हूँ ॥१॥
भावार्थभाषाः -परमेश्वर की प्रतिनिधि मैं पारमेश्वरी ज्ञानशक्ति पृथिवी आदि आठ वस्तुओं, प्राणरूप ग्यारह रुद्रों, बारह मासों, अग्नि, विद्युत्, दिन रातों और द्युलोक पृथिवीलोक को धारण करती हूँ ॥१॥-ब्रह्ममुनि
ऋग्वेद » मण्डल:10» सूक्त:125» मन्त्र:1


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অহং সোমমাহনসং বিভর্ম্ম্যহং

ত্বষ্টারমুত পূষণং ভগম্‌।
অহং দধামি দ্রবিণং হবিষ্মতে
সুপ্রাব্যে যজমানায়  সুন্বতে।। ২

पदार्थान्वयभाषाः -(अहम्) मैं (आहनम्) दृष्टिदोष को नष्ट करनेवाले या अशान्तिनाशक (सोमं बिभर्मि) चन्द्रमा को धारण करती हूँ (अहं त्वष्टारम्) मैं सूर्य को (उत) और (पूषणं भगम्) वायु तथा भजनीय यज्ञ को धारण करती हूँ (अहम्) मैं (हविष्मते) हवि देनेवाले के लिये (सुप्राव्ये) विद्वानों को भोजनादि से अच्छी प्रकार प्रकृष्टता से तृप्त करनेवाले के लिये (सुन्वते) विद्वानों के पानार्थ सोमरस निकालनेवाले के लिये (यजमानाय) यजमान आत्मा-के लिये (द्रविणं दधामि) धन को धारण करती हूँ दान के लिये ॥२॥
भावार्थभाषाः -पारमेश्वरी ज्ञानशक्ति चन्द्रमा सूर्य वायु और यज्ञ को धारण करती है तथा होम करनेवाले विद्वानों को तृप्त करनेवाले और उनके लिये सोमरस निकालनेवाले के लिये यजमान आत्मा के लिये धन को धारण करती है ॥२॥-ब्रह्ममुनि
                                                                                                        ऋग्वेद » मण्डल:10» सूक्त:125» मन्त्र:2

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অহং রাষ্ট্রী সংগমনী বসূনাং

চিকিতুষী প্রথমা যজ্ঞিয়ানাম্‌।
তাং মা দেবা ব্যদধুঃ পুরুত্রা
ভূরিস্থাত্রাং ভূর্য্যাবেশয়ন্তীম্‌।। ৩

पदार्थान्वयभाषाः -(अहं राष्ट्री) मैं जगद्रूप राष्ट्र की स्वामिनी हूँ (वसूनां सङ्गमनी) समस्त धनों की सङ्गति करानेवाली-प्राप्त करानेवाली (यज्ञियानाम्) श्रेष्ठ कर्मों की (प्रथमा) प्रथम-प्रमुख (चिकितुषी) चेतानेवाली हूँ (भूरिस्थात्राम्) बहुरूप स्थितिवाली (भूरि-आवेशयन्तीम्) जड़ जङ्गम पदार्थों में बहुरूप से आवेश करती हुई (तं मा) उस ऐसी मुझको (देवाः) विद्वान् जन (पुरुत्रा) बहुत रूपों में (व्यदधुः) वर्णन करते हैं ॥३॥
भावार्थभाषाः -पारमेश्वरी ज्ञानशक्ति जगद्रूप राष्ट्रस्वामिनी है, धनों की प्राप्ति भी वह कराती है, यज्ञसम्बन्धी कर्मों का विधान बतानेवाली है। बहुत विद्यास्थानवाली सब पदार्थों में प्रविष्ट को विद्वान् जन बहुत रूपों में वर्णन करें जानें ॥३॥-ब्रह्ममुनि
                                                                                                        ऋग्वेद » मण्डल:10» सूक्त:125» मन्त्र:3

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ময়া সো অন্নমত্তি যো বিপশ্যতি

যঃ প্রাণিতি য ঈং শৃণোত্যুক্তম্‌।
অমন্তবো মাং ত উপক্ষিয়ন্তি
শ্রুধি শ্রুত শ্রদ্ধিবং তে বদামি।। ৪

पदार्थान्वयभाषाः -(मम) मेरे द्वारा अनुमोदित (सः-अन्नम्-अत्ति) वह भोजन खाता है (यः-विपश्यति) जो विशेष देखता है (यः प्राणिति) जो प्राण लेता है (यः-ईम्-उक्तं शृणोति) जो ही कहे हुए को सुनता है (माम्) मुझे (अमन्तवः) न माननेवाले हैं (ते) वे (उप क्षियन्ति) उपक्षय-नाश को प्राप्त होते हैं (ते) तुझे (श्रद्धिवम्) श्रद्धायुक्त सत्यवचन (वदामि) कहती हूँ (श्रुत-श्रुधि) हे विश्रुत-प्रसिद्ध सुन ॥४॥
भावार्थभाषाः -जो खानेवाली-देखनेवाली, सुननेवाली पारमेश्वरी ज्ञानशक्ति को नहीं मानते, तदनुसार आचरण नहीं करते, वे क्षीण हो जाते हैं, यह सत्य है ॥४॥-ब्रह्ममुनि
                                                                                                        ऋग्वेद » मण्डल:10» सूक्त:125» मन्त्र:4

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অহমেব স্বয়মিদং বদামি জুষ্টং

দেবেভিরুত মানুষেভিঃ।
যং কাময়ে তং তমুগ্রং কৃণোমি
তং ব্রহ্মাণং তমৃষিং তং সুমেধাম্‌।। ৫

पदार्थान्वयभाषाः -(अहम्-एव स्वयम्) मैं ही स्वयं (इदं वदामि) यह कहती हूँ (देवेभिः) ऋषियों द्वारा (उत) और (मानुषेभिः) मनुष्यों द्वारा (जुष्टम्) सेवन करने योग्य को (यं कामये) जिसको चाहती हूँ, पात्र मानती हूँ, (तं तम्) उस-उस को (उग्रम्) उत्कृष्ट (तं ब्रह्माणम्) उसे ब्रह्मा (तम्-ऋषिम्) उसे ऋषि (तं सुमेधाम्) उसे अच्छी मेधावाला (कृणोमि) करती हूँ, बनाती हूँ ॥५॥
भावार्थभाषाः -पारमेश्वरी ज्ञान शक्ति ही देवों और साधारण मनुष्यों के द्वारा सत्सङ्ग में आये मनुष्य को तेजस्वी बनाती है, ब्रह्मा बनाती है, ऋषि बनाती है, अच्छी मेधावाला बनाती है ॥५॥-ब्रह्ममुनि
                                                                                                        ऋग्वेद » मण्डल:10» सूक्त:125» मन्त्र:5

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অহং রুদ্রায় ধনুরাতনোমি

ব্রহ্মদ্বিষে শরবে হন্তবা উ।
অহং জনায় সমদং কৃণোম্যহং
দ্যাবাপৃথিবী আ বিবেশ।। ৬

पदार्थान्वयभाषाः -(ब्रह्मद्विषे) ब्राह्मणों के प्रति द्वेष करनेवाले (रुद्राय) क्रूर (शरवे) हिंसक को (हन्तवै-उ) हनन करने के हेतु (अहं धनुः-आ तनोमि) मैं धनुषशस्त्र को साधती हूँ (अहं जनाय) जनहितार्थ (समदं कृणोमि) मैं अहङ्कारी के साथ संग्राम करती हूँ (अहं द्यावापृथिवी) मैं द्यावापृथिवी में भलीभाँति (आ विवेश) प्रविष्ट होकर रहती हूँ ॥६॥
भावार्थभाषाः -पारमेश्वरी ज्ञानशक्ति ब्राह्मण के प्रति द्वेष करनेवाले क्रूर हिंसक जन को हनन करने के लिये धनुषशस्त्र को सिद्ध करना चाहिये और संग्राम में चलाना चाहिये। वह द्यावापृथिवीमय सब जगत् में आविष्ट होकर वर्त्तमान है ॥६॥-ब्रह्ममुनि
                                                                                                        ऋग्वेद » मण्डल:10» सूक्त:125» मन्त्र:6

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অহং সুবে পিতরমস্য মূর্দ্ধন্‌

মম যোনিরপ্‌ স্বন্তঃ সমুদ্রে।
ততো বিতিষ্ঠে ভুবনানু বিশ্বো-
তামুং দ্যাং বর্ষ্মণোপস্পৃশামি।। ৭

पदार्थान्वयभाषाः -(अस्य) इस जगत् के (मूर्धन्) मूर्धारूप उत्कृष्ट भाग में स्थित (पितरम्) पालक सूर्य को (अहं सुवे) मैं उत्पन्न करती हूँ (मम योनिः) मेरा घर (अप्सु-समुद्रे-अन्तः) व्यापनशील परमाणुओं में तथा अन्तरिक्ष महान् आकाश में (ततः-विश्वा भुवना) तत एव सारे लोकलोकान्तरों को (अनु वि तिष्ठे) व्याप्त होकर रहती हूँ (इत उ द्याम्) इसी कारण द्युलोक के प्रति (वर्ष्मणा) वर्षणधर्म से (उप स्पृशामि) सङ्गत होती हूँ ॥७॥
भावार्थभाषाः -पारमेश्वरी ज्ञानशक्ति जगत् के ऊपर वर्त्तमान पालक सूर्य को उत्पन्न करती है और वह परमाणुओं तथा महान् आकाश के अन्दर व्याप्त है, सब लोक-लोकान्तरों में निविष्ट है, द्युलोक से मेघमण्डल से वर्षा कराती है ॥७॥-ब्रह्ममुनि
                                                                                                        ऋग्वेद » मण्डल:10» सूक्त:125» मन्त्र:7

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অহমেব বাত ইব প্রবাম্যা-

রভমাণা ভুবনানি বিশ্বা।
পরো দিবা পর এনা পৃথিব্যৈ-
তাবতী মহিনা সম্‌ বভূব।। ৮

पदार्थान्वयभाषाः -(अहम्) मैं (विश्वा भुवनानि) सब लोक-लोकान्तरों को (आरभमाणा) निर्माण करती हुई या निर्माण के हेतु (वातः-इव) वेगवाली वायु के समान (प्र वामि) प्रगति करती हूँ (दिवा परः) द्युलोक से परे (एना पृथिव्या परः) इस पृथ्वी से परे (महिना) अपने महत्त्व से (एतावती) इतने गुण सम्पन्नवाली (सं बभूव) आम्भृणी वाणी हूँ, सम्यक् सिद्ध हूँ ॥८॥

भावार्थभाषाः -पारमेश्वरी ज्ञानशक्ति लोक-लोकान्तरों को उत्पन्न करने के हेतु वायुवेग के समान वेग से गति करती है, द्युलोक से परे और पृथिवीलोक से परे अपनी महिमा से विराजमान है ॥८॥-ब्रह्ममुनि
                                                                                                        ऋग्वेद » मण्डल:10» सूक्त:125» मन्त्र:8

বঙ্গানুবাদ

‘অহং রুদ্রেভি’ ইত্যাদি আট মন্ত্রবিশিষ্ট ঋগ্বেদীয় দেবীসূক্তের মন্ত্রদ্রষ্টা ঋষি বাক্, যিনি মহর্ষি অম্ভৃণের কন্যা; এই সূক্তের দেবতা পরব্রহ্মময়ী আদ্যাশক্তি; সূক্তের দ্বিতীয় মন্ত্রটি জগতী ছন্দে ও অবশিষ্টাংশ ত্রিষ্টুপ ছন্দে নিবব্ধ। শ্রীজগদম্বার প্রীতির নিমিত্ত সপ্তশতী চণ্ডীগ্রন্থ পাঠান্তে দেবীসূক্তম্ পাঠ করা হয়।
আমি (একাদশ) রুদ্র ও (অষ্ট) বসুরূপে বিচরণ করি; আমি (দ্বাদশ) আদিত্য ও বিশ্বদেবগণের রূপে বিচরণ করি; আমি মিত্র ও বরুণকে ধারণ করছি; আমি ইন্দ্র ও অগ্নিকে ধারণ করছি; আমিই ধারণ করছি অশ্বিনীকুমারদ্বয়কে।।১।।
আমি দেবগণের শত্রুনাশকারী সোম, ত্বষ্টা, পূষা ও ভগকে ধারণ করছি; দেবতাদের উদ্দেশ্যে হবি-প্রদানকারী ও বিধি অনুযায়ী সোমরস প্রস্তুতকারী যজমানকে আমি ধন প্রদান করি।।২।।
আমি সকল লোকের ঈশ্বরী, ধনপ্রদানকারিণী; আমি পরব্রহ্মজ্ঞানী; যাঁদের যজ্ঞ করা হয়, তাঁদের মধ্যে আমি সর্বশ্রেষ্ঠা (অর্থাৎ, দেবশ্রেষ্ঠা); বহু দেশের অধিবাসীরা সর্বরূপে সর্বত্র বিরাজমানা আমাকে আরাধনা করে থাকেন।।৩।।
আমার শক্তিতেই লোকে ভোজন করে, আমার শক্তিতেই দর্শন, শ্রবণ ও জীবন ধারণ করে; আমাকে যথাযথরূপে না জানলে দুঃখভোগ করতে হয়; হে কীর্তিমান সখা, শোনো, যে কথা শ্রদ্ধার দ্বারা লাভ করা যায়, তাই তোমাকে বলছি।।৪।।
সকল দেবতা ও মানুষেরা যে পরম তত্ত্বকে সেবা করে, সেই তত্ত্ব আমি স্বয়ং বললাম। আমি যাকে রক্ষা করতে ইচ্ছা করি, তাকে সর্বশ্রেষ্ঠ করে থাকি এবং তাকে ব্রহ্মত্ব, ঋষিত্ব ও উত্তম জ্ঞান প্রদান করি।।৫।।
রুদ্র যখন ব্রহ্মদ্বেষী [ত্রিপুরাসুরকে] বধ করতে যান, তখন আমি নিজ শক্তি দ্বারা তাঁর ধনুকে জ্যা পরিয়ে দিই। সৎ ব্যক্তিদের রক্ষা করার জন্য আমি প্রতি মুহুর্তে সংগ্রাম করি। স্বর্গ ও মর্ত্যে আমিই অন্তর্যামিনী রূপে পরিচিতা।।৬।।
আমি এই পরমাত্মার উপরিভাগে পরিব্যাপ্ত আকাশকে প্রসব করেছি। আমি চৈতন্যরূপে ত্রিভুবন জুড়ে অবস্থান করছি। আমি সকল প্রাণীর দেহে প্রবেশ করে নানা রূপে আছি। আবার আমি স্বর্গকেও নিজের মায়াদেহ দ্বারা পরিব্যাপ্ত করে আছি।।৭।।
আমিই পঞ্চভূতকে সৃষ্টি করে বায়ুর ন্যায় স্বাধীনভাবে রয়েছি। আমি বিশ্বের যাবতীর বিকারের উর্ধ্ব অবস্থান করি। আমি স্বয়ং নির্লিপ্তা।।৮।।
ঋগ্বেদোক্ত দেবীসূক্তের বঙ্গানুবাদ সমাপ্ত।

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