ঋগ্বেদ মন্ডল ১০ সূক্ত১০ মন্ত্র ২ - ধর্ম্মতত্ত্ব

ধর্ম্মতত্ত্ব

ধর্ম বিষয়ে জ্ঞান, ধর্ম গ্রন্থ কি , হিন্দু মুসলমান সম্প্রদায়, ইসলাম খ্রীষ্ট মত বিষয়ে তত্ত্ব ও সনাতন ধর্ম নিয়ে আলোচনা

धर्म मानव मात्र का एक है, मानवों के धर्म अलग अलग नहीं होते-Theology

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স্বাগতম

18 October, 2020

ঋগ্বেদ মন্ডল ১০ সূক্ত১০ মন্ত্র ২

 ऋग्वेद  मण्डल:10 सूक्त:10

देवता: यमो वैवस्वतः ऋषि: यमी वैवस्वती छन्द: पादनिचृत्त्रिष्टुप् स्वर: धैवतः
devata: yamo vaivasvatah rshi: yamee vaivasvatee chhand: paadanichrttrishtup svar: dhaivatah

न ते॒ सखा॑ स॒ख्यं व॑ष्ट्ये॒तत्सल॑क्ष्मा॒ यद्विषु॑रूपा॒ भवा॑ति ।

 म॒हस्पु॒त्रासो॒ असु॑रस्य वी॒रा दि॒वो ध॒र्तार॑ उर्वि॒या परि॑ ख्यन् ॥

ऋग्वेद  मण्डल:10 सूक्त:10 मन्त्र:2

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

na te sakhā sakhyaṁ vaṣṭy etat salakṣmā yad viṣurūpā bhavāti | mahas putrāso asurasya vīrā divo dhartāra urviyā pari khyan ||

पद पाठ

न । ते॒ । सखा॑ । स॒ख्यम् । व॒ष्टि॒ । ए॒तत् । सऽल॑क्ष्मा । यत् । विषु॑ऽरूपा । भवा॑ति । म॒हः । पु॒त्रासः॑ । असु॑रस्य । वी॒राः । दि॒वः । ध॒र्तारः॑ । उ॒र्वि॒या । परि॑ । ख्य॒न् ॥ १०.१०.२

पदार्थान्वयभाषाः -हे रात्रि ! (ते) तेरा (सखा) ‘मैं’ यह दिन पति (एतत् सख्यम्) इस गर्भाधानसम्बन्धी मित्रता को (न वष्टि) नहीं चाहता (यत्) क्योंकि गर्भाधान में पत्नी (सलक्ष्मा) समान लक्षणवाली अर्थात समान गुण की और (विषुरूपा) विशेष रूपवती अर्थात् सुन्दरी (भवाति) होनी चाहिये, किन्तु आप सुन्दरी नहीं हैं, बल्कि काले रङ्ग की हैं, तथा न मेरे जैसी समानगुणवाली हैं, क्योंकि मैं प्राणियों को चेतानेवाला हूँ और आप निद्रा में मूढ बनाती हैं। ऐसा होते हुए फिर भी यदि मैं गर्भाधान करके मैत्री का स्थापन करूँ, तो ये (उर्विया) पृथिवी और द्युलोक के मध्य में (दिवः-धर्तारः) जो प्रकाश को धारण कर रहे हैं, तथा (महः-पुत्रासः) महान् प्रजापति के पुत्र और (असुरस्य वीराः) सूर्य के वीर सैनिक, सेना में व्यूहनियम के समान चलनेवाले ये नक्षत्रादि तारागण महानुभाव (परिख्यन्) निन्दा कर डालें, यह एक बड़ी आशङ्का है ॥

Translate{he raatri ! (te) tera (sakha) ‘main’ yah din pati (etat sakhyam) is garbhaadhaanasambandhee mitrata ko (na vashti) nahin chaahata (yat) kyonki garbhaadhaan mein patnee (salakshma) samaan lakshanavaalee arthaat samaan gun kee aur (vishuroopa) vishesh roopavatee arthaat sundaree (bhavaati) honee chaahiye, kintu aap sundaree nahin hain, balki kaale rang kee hain, tatha na mere jaisee samaanagunavaalee hain, kyonki main praaniyon ko chetaanevaala hoon aur aap nidra mein moodh banaatee hain. aisa hote hue phir bhee yadi main garbhaadhaan karake maitree ka sthaapan karoon, to ye (urviya) prthivee aur dyulok ke madhy mein (divah-dhartaarah) jo prakaash ko dhaaran kar rahe hain, tatha (mahah-putraasah) mahaan prajaapati ke putr aur (asurasy veeraah) soory ke veer sainik, sena mein vyoohaniyam ke samaan chalanevaale ye nakshatraadi taaraagan mahaanubhaav (parikhyan) ninda kar daalen, yah ek badee aashanka hai .}

भावार्थभाषाः -स्त्री-पुरुष का विवाह समान गुण-कर्म-स्वभाव और रूप के अनुसार होना चाहिये, विपरीत विवाह असंतोषजनक और समाज में अपवाद और अनादर करनेवाला होता है ॥२॥ समीक्षा (सायणभाष्य)−“सखा=गर्भवासलक्षणेन” यहाँ सखिपद मुख्यवृत्ति से भ्राता की ओर न घटते हुए देखकर सायण को खींचातानी करके उक्त विशेषण लगाना पड़ा तथा “सलक्ष्मा= समानयोनित्वलक्षण; विषुरूपा भगिनीत्वात् विषमरूपा” यहाँ से ‘योनित्व’ और ‘भगिनीत्वात्’ ये अध्याहार पद निकाल दें, तो सायण के मत में एक ही वस्तु के लिये ‘समानलक्षण’ और ‘विषमरूपा’ विपरीत अर्थ होंगे। वास्तव में अपने कल्पनाजन्य अर्थ को सिद्ध करने के लिये उन्होंने यह अनावश्यक अध्याहार किया ॥

Translate{stree-purush ka vivaah samaan gun-karm-svabhaav aur roop ke anusaar hona chaahiye, vipareet vivaah asantoshajanak aur samaaj mein apavaad aur anaadar karanevaala hota hai .2. sameeksha (saayanabhaashy)−“sakha=garbhavaasalakshanen” yahaan sakhipad mukhyavrtti se bhraata kee or na ghatate hue dekhakar saayan ko kheenchaataanee karake ukt visheshan lagaana pada tatha “salakshma= samaanayonitvalakshan; vishuroopa bhagineetvaat vishamaroopa” yahaan se ‘yonitv’ aur ‘bhagineetvaat’ ye adhyaahaar pad nikaal den, to saayan ke mat mein ek hee vastu ke liye ‘samaanalakshan’ aur ‘vishamaroopa’ vipareet arth honge. vaastav mein apane kalpanaajany arth ko siddh karane ke liye unhonne yah anaavashyak adhyaahaar kiya }

ন তে সখা সখ্যং বষ্টয়েৎসলক্ষমা যদ্বিপুরুপা ভবাতি।

মহস্পত্রাসো অসুরস্্য বীরা দিবো ধর্তার উর্বিয়া পরি খ্যন্ ।। ২।।
পদার্থঃ হে রাত্রি (তে) তোমার (সখা) আমি এই দিন পতি (এতত্ সখ্যম্) এই গর্ভধান সম্বন্ধী মিত্রতাকে (ন বষ্টি) চাচ্ছি না (য়ত্) এমন কি গর্ভধানে পতী (সলক্ষমা) সমান লক্ষণযুক্ত অর্থাৎ সমান গুণের এবং (বিষুরূপা) বিশেষ রূপবতী অর্থাৎ সুন্দরী (ভবাতি) হওয়া উচিত, কিন্তু আপনি সুন্দরী নয় বরং কালো রঙ্গের, তথা আপনি আমার সমান রঙযুক্ত নও, এমন কি আমি প্রাণী কূলের চেতন কর্তা কিন্তু তুমি নিদ্রা দ্বারা মূঢ় বানিয়ে থাক। এরূপ হাবর পরেও যদি গর্ভাধান করে মৈত্রীর স্থাপন করো তো ইহা (উর্বিয়া) পৃথিবী এবং দ্যুলোক মধ্যে (দিবঃ ধতরি) যে প্রকাশের ধারণ করে রেখেছে, তথা (মহঃ পুত্রাসঃ) মহান প্রজাপতির পুত্র, এবং (অসুরস্যবীরাঃ) সূর্যের বীর সৈনিক, সেনাদের বূহ্য নিয়মের সমান চলমান যে নক্ষত্র আদি তারাগণ, মহানুভব (পরিখ্যান্) নিন্দা করে থাকে, ইহা এক বৃহৎ আশংকা ।। ২।।

ভাবার্থঃ স্ত্রী পুরুষের বিবাহ সম গুণ কর্ম স্বভাব এবং রূপের অনুসারে হওয়া উচিত। বিপরীত বিবাহ অসন্তোষজনক এবং সমাজে অপবাদ এবং অনাদরকারী হয়ে থাকে।। ২।।

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