ঋগ্বেদ মন্ডল ১০ সূক্ত ১০ মন্ত্র ৬ - ধর্ম্মতত্ত্ব

ধর্ম্মতত্ত্ব

ধর্ম বিষয়ে জ্ঞান, ধর্ম গ্রন্থ কি , হিন্দু মুসলমান সম্প্রদায়, ইসলাম খ্রীষ্ট মত বিষয়ে তত্ত্ব ও সনাতন ধর্ম নিয়ে আলোচনা

धर्म मानव मात्र का एक है, मानवों के धर्म अलग अलग नहीं होते-Theology

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স্বাগতম

18 October, 2020

ঋগ্বেদ মন্ডল ১০ সূক্ত ১০ মন্ত্র ৬

को अ॒स्य वे॑द प्रथ॒मस्याह्न॒: क ईं॑ ददर्श॒ क इ॒ह प्र वो॑चत् ।

 बृ॒हन्मि॒त्रस्य॒ वरु॑णस्य॒ धाम॒ कदु॑ ब्रव आहनो॒ वीच्या॒ नॄन् ॥

ऋग्वेद 0 मण्डल:10 सूक्त:10 मन्त्र:6


अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

ko asya veda prathamasyāhnaḥ ka īṁ dadarśa ka iha pra vocat | bṛhan mitrasya varuṇasya dhāma kad u brava āhano vīcyā nṝn ||


पद पाठ

कः । अ॒स्य । वे॒द॒ । प्र॒थ॒मस्य॑ । अह्नः॑ । कः । ई॒म् । द॒द॒र्श॒ । कः । इ॒ह । प्र । वो॒च॒त् । बृ॒हत् । मि॒त्रस्य॑ । वरु॑णस्य । धाम॑ । कत् । ऊँ॒ इति॑ । ब्र॒वः॒ । आ॒ह॒नः॒ । वीच्या॑ । नॄन् ॥ १०.१०.६

पदार्थान्वयभाषाः -हे दिवस ! यद्यपि द्यावापृथिवी मिथुन हमारा साक्षी है, प्रत्युत हा ! (इह) हमारे साथ सम्बन्ध रखनेवाले इस अन्तरिक्ष में (अस्य प्रथमस्य-अह्नः) इस प्रथम दिन अर्थात् सृष्टि के आरम्भ में हुए इस विवाह को (कः) कौन (वेद) जानता है ? अर्थात् कोई नहीं जानता और (ईम्) उस गत विवाह को (कः) किसने (ददर्श) देखा है, तथा (कः) कौन ही (प्रवोचत्) सुनकर कह सके कि हाँ इनका विवाह हुआ, अर्थात् कोई नहीं, क्योंकि संसार प्रत्यक्षवादी है। जो कुछ प्रत्यक्ष देखता है, उसी को कहता है। (मित्रस्य) मित्र का और (वरुणस्य) वरुण का (धाम) स्थान (बृहत्) दूर है। (आहनः) हे हृदयपीडक पते ! (कत्) कैसे (उ) ही कोई उस स्थान को जाकर वहाँ के (नॄन्) मनुष्यों को (वीच्य) सम्मुख करके उनको (ब्रवः) हमारा यह दुःख-वृत्तान्त कहे। मित्र अर्थात् सूर्य तेरा पिता पूर्व दिशा में और वरुण मेरा पिता पश्चिम में है। इस प्रकार अत्यन्त दूर हम दोनों के इन पितृकुलों में जाकर जो इस दुःखवृत्तान्त को सुना सके, ऐसा हमें कोई नहीं दिखलाई पड़ता। दिन का पिता मित्र ‘सूर्य’ और रात्रि का पिता वरुण है ॥

Translate-(he divas ! yadyapi dyaavaaprthivee mithun hamaara saakshee hai, pratyut ha ! (ih) hamaare saath sambandh rakhanevaale is antariksh mein (asy prathamasy-ahnah) is pratham din arthaat srshti ke aarambh mein hue is vivaah ko (kah) kaun (ved) jaanata hai ? arthaat koee nahin jaanata aur (eem) us gat vivaah ko (kah) kisane (dadarsh) dekha hai, tatha (kah) kaun hee (pravochat) sunakar kah sake ki haan inaka vivaah hua, arthaat koee nahin, kyonki sansaar pratyakshavaadee hai. jo kuchh pratyaksh dekhata hai, usee ko kahata hai. (mitrasy) mitr ka aur (varunasy) varun ka (dhaam) sthaan (brhat) door hai. (aahanah) he hrdayapeedak pate ! (kat) kaise (u) hee koee us sthaan ko jaakar vahaan ke (nrn) manushyon ko (veechy) sammukh karake unako (bravah) hamaara yah duhkh-vrttaant kahe. mitr arthaat soory tera pita poorv disha mein aur varun mera pita pashchim mein hai. is prakaar atyant door ham donon ke in pitrkulon mein jaakar jo is duhkhavrttaant ko suna sake, aisa hamen koee nahin dikhalaee padata. din ka pita mitr ‘soory’ aur raatri ka pita varun hai .)

भावार्थभाषाः -स्त्री-पुरुषों के विवाहसम्बन्ध दूर स्थान पर होना चाहिए, निकट स्थानवालों का विवाहसम्बन्ध उपयोगी नहीं होता। कभी संकट होने पर पितृकुलों को सहायक बनना चाहिए ॥६॥ समीक्षा (सायणभाष्य)-“मित्रस्य वरुणस्य मित्रावरुणयोर्बृहन्महद्धाम स्थानमहोरात्रं यदस्ति।” यहाँ “दिन और रात मित्रावरुण के धाम हैं” यह सायण का कथन उनकी अभीष्ट व्याख्या से विपरीत है, क्योंकि ‘दिन-रात’ स्थान नहीं हैं। दूसरे यहाँ इस प्रकार कहने की क्या आवश्यकता है, क्योंकि यदि दिन-रात के पितृकुल मित्रावरुण के धाम माने जावें, तब तो यहाँ दिन-रात का अपने संवाद दुःखवृत्तान्त को सुनाना उचित ही है, जो हमारी अर्थयोजना के साथ सम्बन्ध रखता है ॥

Translate-[stree-purushon ke vivaahasambandh door sthaan par hona chaahie, nikat sthaanavaalon ka vivaahasambandh upayogee nahin hota. kabhee sankat hone par pitrkulon ko sahaayak banana chaahie .6. sameeksha (saayanabhaashy)-“mitrasy varunasy mitraavarunayorbrhanmahaddhaam sthaanamahoraatran yadasti.” yahaan “din aur raat mitraavarun ke dhaam hain” yah saayan ka kathan unakee abheesht vyaakhya se vipareet hai, kyonki ‘din-raat’ sthaan nahin hain. doosare yahaan is prakaar kahane kee kya aavashyakata hai, kyonki yadi din-raat ke pitrkul mitraavarun ke dhaam maane jaaven, tab to yahaan din-raat ka apane sanvaad duhkhavrttaant ko sunaana uchit hee hai, jo hamaaree arthayojana ke saath sambandh rakhata hai .]

কো অস্য বেদ প্রথমস্যাহ্ন ক ই দদর্শ ক ইহ প্র বোচত্।

বৃহমগ্নিত্রস্য বরুণস্য ধাম কদু ব্রত আহনো বীচ্যা নৃন্ ।। ৬।।
পদার্থঃ হে দিবস! (য়দ্যপি দ্যাবাপৃথিবী) মিথুন আমাদের সাক্ষী ইহা প্রত্যুত হ্যা! (ইহ) আমাদের সাথে সম্বন্ধ বিদ্যমান এই অন্তরিক্ষে (অস্য প্রথমস্য অহ্ন) এই প্রথম দিন অর্থাৎ সৃষ্টির আরম্ভে হওয়া বিবাহকে (কঃ) কে (বেদ) জানে? অর্থাৎ কেহ জানে না এবং (ইম্) সেই গত বিবাহকে (কঃ) কে (দদর্শ) দেখেছে? তথা (কঃ) কে ই বা (প্রবোচত্) শুনিয়া বলতে পারবে যে, হ্যা ইহাদের বিবাহ হয়েছে, অর্থাৎ কেহ নাই ; এমনকি সংসার প্রত্যক্ষবাদী। কোন কিছু হতে দেখে তবে তাহা লোকে বলিতে পারে। (মিত্রস্য) মিত্রের দিকে (বরুণস্য) বরুনের স্থান (ধাম্) স্থান (বৃহত) দূর (আহনঃ) হে হৃদয়পিন্ডক পতে! (কত্) কিভাবে (উ) ই সেই স্থানে গিয়ে বংশকে (নূন্) মনুষ্যের (বীচ্য) সম্মূখ করে তাহাকে (ব্রবঃ) আমাদের এই দুঃখ বৃতান্ত বলব। মিত্র অর্থাৎ সূর্য তোমার পিতা পূর্ব দিশায় এবং বরুণ আমার পিতা পশ্চিম দিশায়। এই প্রকার অত্যান্ত দূর আমাদের দুজনকে পিতৃকূলে গিয়ে এই দুঃখ বৃত্তান্তকে শুনিয়া থাকে, এরূপ কেহ আমাদের দেখাতে পারে না। দিনের পিতা মিত্র সূর্য এবং রাত্রির পিতা বরুন।। ৬।।

ভাবার্থঃ স্ত্রী পুরুষের বিবাহ সন্বন্ধ দূর স্থানে হওয়া উচিত, নিকট স্থানে বিবাহ সম্বন্ধের জন্য উপযোগী নয়। যখন কোন সংঙ্কট আসবে তখন পিতৃকূলকে সহায়ক বানানো উচিত।। ৬।।


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