ऋग्वेद में वायु का स्वरूप - ধর্ম্মতত্ত্ব

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29 October, 2020

ऋग्वेद में वायु का स्वरूप

वेद वस्तुतः एक ही हैं, स्वरूप भेद के कारण त्रयी नाम से जाना जाता है; ऋक्, यजु और साम। जिन मन्त्रों में अर्थवशात् पादों की व्यवस्था है उन छन्दोबद्ध मन्त्रों को ऋचा या ऋक् कहते हैं। जैसा कि जैमिनी सूत्र में कहा गया है- ‘‘तेषामृगयत्रार्थवशेन पादव्यवस्था” और ऋचाओं के समूहों को संहिता कहा जाता है। 

            ऋक् संहिता या ऋग्वेद का गौरव या उसका महत्व सर्वाधिक माना जाता है। पाश्चात्य विद्वानों ने भाषा एवं भाव की दृष्टि से ऋग्वेद को अन्य वेदों की तुलना में प्राचीन माना है। अतएव उनकी दृष्टि से ऋग्वेद विशेष उपयोगी हैं। भारतीय विद्वान् भी ऋग्वेद को प्राचीन मानते है। तैत्तरीय संहिता के अनुसार साम तथा यजु के द्वारा जो विधान किया जाता है वह शिथिल होता है परन्तु ऋक् के द्वारा विहित अनुष्ठान ही दृढ़ होता है। यह प्रमाण ऋग्वेद की प्राचीनता को स्पष्ट कर रहा है। पुरूष सूक्त में भी सहस्त्रशीर्षा यज्ञरूपी परमेश्वर से ऋचाओं का आविर्भाव सर्वप्रथम बताया गया है।   

          ऋग्वेद स्तोत्रों की एक विशाल राशि है; जो यज्ञीय अनुष्ठानों पर आहूत देवों की प्रार्थनाओं और उपदेशों से भरा हुआ है, सराबोर है। नाना देवताओं की भिन्न-भिन्न ऋषियों ने बड़े ही सुंदर तथा भावाभिव्यंजक शब्दों में स्तुतियाँ की हैं साथ ही अपने अभीष्ट सिद्धि के निमित्त से प्रार्थनायें की हैं। उन प्रार्थनाओं में देवों की शक्ति और स्थिति, उनके कार्य और विशेषताओं को भिन्न-भिन्न विशेषणों से आभूषित किया है, व्यक्त किया है। ये विशेषण ही देवों की स्वरूप भिन्नता को व्यक्त करते हैं।        

     प्रस्तुत आलेख में प्रयास किया गया है ‘‘ऋग्वेद में वायु के स्वरूप पर’’ दृष्टि डालने का। स्वरूप तीन दृष्टिकोणों पर आधारित हैं- आधिदैविक, अधिभौतिक और आध्यात्मिक। 

            आधिदैविक शब्द अधि उपसर्ग पूर्वक दिव् धातु से निष्पन्न हैं। दिव् का अर्थ है प्रकाशित करना या चमकना। अधि उपसर्ग अधिकृत का बोधक है। अतः स्वीर्गीय, आकाशीय, अलौकिक दिव्यगुण को प्रकाशित करने की क्षमता जिनमें हो, वे देव हैं। उपरोक्त गुणों को अभिव्यक्त करने का अधिकार जिनके पास हो या जो अधिकृत हों वह उनका आधिदैविक स्वरूप है।      

       ऋग्वेद में वायु शब्द देवता का बोधक है। भौतिक वात से भिन्न वायु की देव के रूप में भी स्थिति है। वायु को ‘‘आदेवासोवाताय’’ देवयुक्त अर्थात् दिव्य गुणों से युक्त कहा गया है। ऐसे दैवीय गुण सम्पन्न वायु देव का यज्ञों में बारम्बार आह्नान किया गया है कि- हे वायु देव तुम सोम पान के लिये आयो। यहाँ तक कि अनेक स्थानों पर अन्य देवों की तुलना में सोमपान का प्रथम अधिकार वायु को ही दिया गया है। ‘‘देवदधिषेपूर्वपेयम्’’ हे वायु सोमपान के तुम प्रथम अधिकारी हो। इतना ही नहीं वायु देव उस सोम के रक्षक भी हैं। अपने इष्ट को सोम की रक्षा का दायित्व देकर उसको सर्वप्रथम सोम का पान करवाकर यजमान तो आनन्दित होता है, वायु देव भी उस शुद्ध और मधुर सोम का पान कर आनन्दित होते हैं।       

      आहूत वायु देव की व्यक्तिगत विशेषतायें अनिश्चित हैं। इन विशेषताओं में ही वायु में पाये जाने वाले दैवीगुण स्पष्ट दिखाई देते हैं। वायु देव को त्वष्टा का जामाता कहा गया है। वायु ने ही मरूत् को जन्म दिया है। वह मरूत् जो गणों में रहते हैं, जिनकी अन्तरिक्ष में द्युतिमान, अयोदंष्ट्रान के रूप में स्थिति है, जो अद्भुत शक्ति संपन्न हैं, जिनमें वर्षा, विद्युत्, मेघ एवं संसार के नियमन जैसे गुण विद्यमान हैं। प्रकाश देना तथा मरना और मारना ये मरूत् के कार्य हैं। ऐसे मरूतों के रथ पर वायु देव अश्व रूप में जुड़े सम्राट हैं। ऐसे इन्द्र के वायु देव सारथि भी बने हुए हैं।          

   वायु देव समस्त देवों के जीवन रूप हैं, आत्मरूप प्राण हैं, और भुवनों की संतान हैं। वायु समस्त देवताओं में मुख्य देव हैं ‘‘वायोमन्दानो अग्रिमः।’’ इतना ही नहीं एकेश्वरवाद की स्थापना करते हुए वायु को ही ईश्वर मान लिया गया है। ‘‘ईशानाय प्रहुर्तियस्त।’’ वायु मुख्य देव हैं संभवतः इसीलिये उनका रूप भी अतीव सुन्दर है। सम्पूर्ण अग विशिष्ट महिमा मण्डित हैं।       

      वायु देव सम्राज्य करने वाले राजा भी हैं तभ कहा गया है कि वायु ने उचश्य और वपु नाम के राजाओं से अधिक राज्य किया है। वायु शत्रुओं को कँपाने वाले राजा के समान हैं। ये युद्ध कार्य में भी निपुण हैं। विशुद्ध सोम का पान करके वायु देव युद्ध के लिये उपस्थित रहते हैं। शत्रुओं के विनाश में भी समर्थ हैं अतः शत्रु हन्ता भी हैं । समाज के विपत्तिग्रस्त मनुष्यों के उद्धारक भी हैं। प्रार्थना के साथ-साथ ऋषि वायु देव को उपदेश भी दे रहा है, उससे अपेक्षा भी कर रहा है कि हे वायु देव तुम विपत्तियों से हमारा उद्धार भी करते हो अतः हमारे रक्षक हो इसलिये कभी तुम हिंसा नहीं करना। पाप विमोचक वायु समस्त पापों से मुक्ति दिलाने वाले हैं ‘‘विमुमुक्तमस्मे।’’             द्यावा पृथिवी ने धन के लिये वायु को उत्तम किया है, श्रेष्ठ किया है। अतः ऐसे उत्तम धन एवं अन्न, गौ, पुत्र समस्त कार्यों को सम्पन्न करने के लिये वायु देव स्वर्णमय रथ का उपयोग करते हैं। वह रथ बड़ा उज्जवल है, आकाश का स्पर्श करने वाला है। रथ में जोते जाने वाले अश्वों की संख्या अलग-अलग स्थानों पर भिन्न-भिन्न है। कहीं यह संख्या नवतिनव है ‘‘युक्तासो नवतिनव”, कहीं शत और कहीं सहस्त्र है। ‘‘शतीनिभिरह वरं सहस्त्रिणीभिः’’ कहीं-कहीं यह संख्या दो भी कही गई है। रथसहा (रथसहौ) वायु के ये जो अश्व हैं वे बड़े बलशाली हैं, शीघ्रगामी हैं। उनकी गति को रोकना उतना ही कठिन है जितना सूर्य की किरणों को रोकना।  

           असीम शक्तियों के अधिपति होने के साथ-साथ वायु अमृत तुल्य भी हैं अतः वायु से प्रार्थना की गई है कि तुम्हारी जो अमरण की शक्ति है वह हमारे जीवन के लिये दो क्योंकि, तुम हमारे पिता, भ्राता और बन्धु हो। इस अमरण शक्ति के कारण ही हे वायु देव तुम लोक कल्याण कारी कर्म में नियुक्त किये गये हो। 

            इस प्रकार हम देखते हैं कि समस्त देवों के प्राण रूप, सर्वशक्तिमान ईश्वर, अमृत शक्तिसंपन्न, लोक का कल्याण करने वाले, पापों से मुक्ति दिलाने वाले समृद्धि दाता वायु दैवी गुण सम्पन्न देव हैं; जो सैंकडों हजारों घोड़ों से जुते स्वर्णमय रथ पर सवारी करते हैं।

            देव रहित भौतिक जगत की पृथक सत्ता संभव ही नहीं है। भौतिक सृष्टि के लिये वही दिव्य गुण नाना भाव में परिवर्तित होता है। देवों की स्तुति में ही उनका भौतिक रूप स्पष्ट हो जाता है। कई विशेषणों के द्वारा इन देवताओं का वैज्ञानिक रूप भी संकेतित है। आधिभौतिक शब्द अधि और भौतिक तथ्यों को बताने वाला भूत जगत, जहाँ स्वभाविक घटनायें घटित होती हों ऐसा भूत जगत ही भौतिक है। भौतिक घटनाओं और तथ्यों को व्यक्त करने में जो अधिकृत है वह आधिभौतिक है।

             ऋग्वेद में वायु को वात भी कहा गया है। संभवतः यह भौतिक वायु का बोधक है। कहीं-कहीं एक ही मन्त्र में दोनों नाम आते हैं। वायु स्वशक्ति से, अपनी व्यक्तिगत विशेषताओं से इस भौतिक जगत् में तो विद्यमान है ही साथ ही में इन्द्र, मरूत् पर्जन्य के साथ मिलकर भी अनेक प्राकृतिक घटनाओं को, कार्यों को सिद्ध करते हैं।             ळमारी पृथिवी के चारों ओर जो गैस युक्त वायु मंडल व्याप्त है वह चाक्षुज नहीं है अपितु अनुभूत है केवल स्पर्श द्वारा। वेदों में भी यही कहा गया है कि वायु का रूप दिखाई नहीं देता पर वह गतिशील है। वायु में जा गतिशीलता है उसका कारण सूर्य है। सूर्य किरणों की प्रेरणा से ही वायु में क्रिया होती है। वायु स्थान घेरती है और उस स्थान में वह निरन्तर चलायमान है, गतिशील है। गति इतनी तीव्र है कि पर्वत तक काँप जाते हैं, पृथिवी की धूल बिखर जाती है यहाँ तक कि प्रकृति का सारा रूप विकृत हो जाता है वात की क्रियाओं का उल्लेख मुख्यतः स्तनयित्नु तूफान के संबंध में आता है। झंझा के झोंके विद्युत की दमक के साथ अपृथक रूप से संबद्ध हैं और वे सूर्य के पुनरावर्तन के पूर्व ही आ जाते हैं। फलतः कहा गया है कि वात, लोहित रंग की विद्युत् को प्रकट करते हैं और उषाओं को प्रतिभासित करते हैं।

             वायु मंडल का विस्तार धरातल से सैंकड़ों किलोमीटर की ऊँचाई तक है जिसे अन्तरिक्ष कहते हैं। अन्तरिक्ष अर्थात् मध्यम स्थान। वैदिक ऋषि वात को अन्तरिक्ष का देवता मानता है। अतः वह प्रार्थना करता है कि वात अन्तरिक्ष से हमारी रक्षा करे। मध्यम स्थान में होने वाले जितनी बाधायें हैं जो जनजीवन को अस्तव्यस्त कर सकती हैं उनसे वात हमारी रक्षा करे। अतः प्रकृति का वह तत्व जो मध्यम स्थान का रक्षक है वह हमारे लिये पूजनीय है- सूर्यः नः पातु दिवः वातः अन्तरिक्षात्।

             अग्निः नः पार्थिवेभ्यः।। वायुमण्डल में नाइट्रोजन, ऑक्सीजन, ऑर्गन, कार्बनडाइऑक्साइड, नीऑन, हीलियम, क्रिप्अन, जीनन अनेक गैसें भिन्न-भिन्न मात्रा में विद्यमान हैं पर मुख्य रूप से नाइट्रोजन एवं ऑक्सीजन हैं। ऋग्वेद में नाइट्रोजन का वर्णन नियुत शब्द के द्वारा किया गया है। वायु के लिये ‘‘नियुत्वन्ता’’ ‘‘नियुत्वान’’ जैसे शब्दों का प्रयोग किया गया है। ऋषि नियुत गणों से युक्त वायु को ही आमन्त्रित करता है। ‘‘नि’’ अर्थात् निंश्चित रूप से युत जो वायु के साथ रहता है वह नियुत है। यहाँ नियुत शब्द नाइट्रोजन का ही बोधक है क्योंकि वायु में नाइट्रोजन ही मुख्य रूप से है, अधिक मात्रा में है। इसी लिये नियुत शक्ति को सैकड़ों हजारों शक्तियों से युक्त कहा गया है।वायु के गुणों का वर्णन करते हुये कहा गया है कि उसमें प्राण शक्ति है अर्थात् ऑक्सीजन है। वायु में अमृत का खजाना है अर्थात् उसमें भेषज शक्ति है इसीलिये वह औषधि का काम करता है। रक्त को शुद्ध कर हृदय रोगों को दूर करता है। आयु का विस्तार कर दीर्घ आयुष प्रदान करता है। वह प्राण शक्ति का हेतु है इसी कारण वह हमारा पिता, भ्राता और बन्धु है। वह जीवन शक्ति प्रदाता है। इन गुणों से निस्संदेह वायु की शोधक शक्ति ही अभिप्रेत हो सकती है।वायु इस जगत् का रक्षक भी है इसीलिये उत्तम रक्षा के निमित्त से ही वायु को आमन्त्रित कर रक्षा की प्रार्थना की गई है। वायु मंडल में स्थित ओजोन वायु रक्षक वायु है जो पूरे वायुमंडल को सुरक्षित करती है। वेदों में वायु की उत्पत्ति पर प्रश्न चिन्ह लगा है। वायु कहां जन्मा कहां से आया कोई नहीं जानता। ऑक्सीजन एवं ओजोन की उत्पत्ति का पता आज भी वैज्ञानिक नहीं लगा पाये हैं।

             वर्षा देने वाले मेघ पर्जन्य हैं। पर्जन्य और वायु दोनोंसे एक साथ प्रार्थना की गई है कि ये दोनों हमारे अन्न को बढ़ायें। वृष्टि के द्वारा वायु अन्न का कारण होता है। सब प्राणियों को बल भी वायु से मिलता है। वायु जब मरूतों के साथ जाते हैं जब मेघ जल देते हैं। जल ही जीवन है जल से ही वनस्पतियों में प्रस्फुटन और वर्धन होता है। उस जीवन रूपी जल को वहन कर लाने का कार्य वायु का होता है। प्रकारान्तर से यह कह सकते हैं कि वायु में ऐसे तत्व हैं जो एक निश्चित प्रक्रिया एवं तापमान से जल में परिवर्तित हो जाते हैं इसीलिये वायु को जल का बन्धु कहा गया है। अन्तरिक्ष से नीला दिखाई देने के कारण पृथ्वी को अक्सर नील ग्रह कहते हैं। धरातल का प्रमुख नीला रंग तथा वायुमंडल के सफेद बादल दोनों ही जल हैं। वायु मंडल में जल गैसीय अवस्था में अर्थात् जल वाष्प के रूप में पाया जाता है। जल अपना रूप बदल सकता है। यह द्रव से ठोस या गैस में बदल जाता है। जल में निहित गैस के कारण वायु मंडल में कई मौसमी घटनायें घटित होती हैं जैसे बादल बनना, वर्षा होना, हितपात होना, कुहरा छाना आदि। इसीलिये कहा है कि मरूत जब हवा के साथ भागते हैं तब कुहरा बिछा देते हैं।इस प्रकार हम देखते हैं कि वायु में जलीय शक्ति है, शोधक शक्ति है भैषज शक्ति है तभी वायु से प्रार्थना की गई है कि अपनी इन समस्त शक्तियों के साथ द्युलोक में कल्याण ले जाओ। 

वायु में ध्वनि की भी शक्ति है। तभी कहा गया है कि वायु का शब्द (ध्वनि) वज्र के समान है और वह शब्द अनेक प्रकार से सुनाई देता है। वायु जब जाते हैं तब गर्जन होता है। वायु के कुछ गुण मरूतों में होने के कारण मरूत को ही वायु समझ लेना भ्रान्ति है। अनेक उदाहरण ऐसे मिलते हैं जिनसे वायु और मरूत् का उपमानोपमेय भाव लक्षित होता है। जैसे मरूत वायु के समान वेगशाली हैं, मरूतों का घोष वायु के समान है, मरूत् वायु के समान शत्रुओं को कँपाने वाले और गतिशील, हैं अतः इस भौतिक जगत के दोनों पदार्थ भिन्न-भिन्न तत्व हैं। मरूतों को अरेणवः मरूतः भी कहा गया है। अर्थात् मरूत गणों में रेणु या धूलि के कण नहीं हैं। आधुनिक विज्ञान का कथन है कि सूर्य के चारों ओर धूल के कण नहीं हैं क्योंकि सूर्य अपनी ऊष्मा के द्वारा सभी ठोस कणों को वाष्प के रूप में परिणात कर देता है। मरूत् अन्तरिक्ष स्थानीय है जबकि वायु का स्थान पृथिवी के चारों ओर का वातावरण है, अन्तरिक्ष और द्युलोक के बीच का मध्य स्थान है। वायु में धूल के कण भी व्याप्त रहते हैं अतः मरूत् और वायु दोनों भिन्न तत्व हैं। जो देव, जो शक्ति आत्म कहे जाने के लिये, प्राण माने जाने के लिये अधिकृत हो वह उसका आध्यात्मिक रूप है। वायु का एक स्वरूप आध्यात्मिक भी है। ऋग्वेद में वायु की उत्पत्ति विराट् पुरूष के प्राणों से कही गई है- चन्द्रमा ममनसो जातश्वक्षोः सूर्यो अजायत।  मुखादिन्दुश्वाग्निश्वा प्राणाद्वायुरजायत।

             अर्थात् उस विश्व पुरूष वा विराट पुरूष का जो प्राण है वह वायु है। अतः वायु का आध्यात्मिक रूप प्राणात्मक है। यह प्रणों के रूप में प्रत्येक शरीरधारी में रहता हुआ उनकी आयु का निर्धारण करता है। अतः उपनिषदों में कहा गया है कि प्राणो ही भूतानामायुः। सर्वमेव ते आयुर्यन्ति ये प्राणं ब्रह्मोपासते।  छान्दोग्य उपनिषद् में भी वायु को प्राण के रूप में ब्रह्म का चतुर्थ पाद कहा गया है। ‘प्राण एव ब्रह्मणश्वतुर्थः पादः स वायुना ज्योतिषाभाति च तपति च।”अतः उस प्राणरूपी सत की ही एकमात्र सत्ता है। उसकी शक्तियों की प्रवृत्तियाँ भिन्न-भिन्न हैं। एकं सद् विप्रा बहुधा वदन्ति। इस प्रकार हम देखते हैं कि त्रिविध स्वरूपा वायु शरीर धारियों की आत्मा के रूप में स्थित होकर, भौतिक जगत् का विस्तार करते हुये सर्वशक्तिमान ईश्वर के रूप में विद्यमान है।                                                                                     इति                                                                                                             सहात्र प्राध्यापक संस्कृत                                                                                                 शास. महाकोशल कला एवं वाणि.,                                                                                                 म्हाविद्यालय, जबलपुर (म. प्र.) ।। पादटिप्पण्यिां।।             १. जै. सू. २-१-३५                                         २.  तैन्त. सं. ६-५-१०-३             ३. ऋ. १०-९०-९                                           ४. ऋग् ७-९२-४             ५. ऋग् ७-९२-१                                            ६. ऋग् १०-८५-५             ७. ऋग् ७-९०-१                                            ८. ऋग् ८-२६-२१, २२             ९. ऋग् १-१३४-४                                         १०. ऋग् ५-५८-७             ११. ऋग् ४-४६-२, ४-४८-२                                    १२. ऋग् १०-१०८-४             १३. ऋग् ८-२६-२५                                      १४. ऋग् ७-९०-२             १५. ऋग् ८-२६-२४                                      १६. ऋग् ८-४६-२८             १७. ऋग् ४-४८-१                                         १८. ऋग् ७-९२-४१             १९. ऋग् ७-९१-१                                         २०. ऋग् ७-९१-२             २१. ऋग् ७-९१-५                                         २२. ऋग् ७-९०-३             २३. ऋग् ७-९२-३                                         २४. ऋग् ४-४६-, ४-४८-२             २५. ऋग् ४-४८-४                                         २६. ऋग् ७-९२-५             २७. ऋग् ८-२६-२०                                      २८. ऋग् १-१३५-९             २९. ऋग् १०-१८६-३                                               ३०. ऋग् १०-१८६-२             ३१. ऋग् ४-४६-२                                         ३२. ऋग् १०-१६८-१             ३३. ऋग् ६-५०-१२                                      ३४. ऋग् १-१६४-४४             ३५. ऋग् १०-१६८-४                                               ३६. ऋग् १-१६८-२             ३७. ऋग् ४-१७-१२                                      ३८. ऋग् ५-८३-४, १-९७-५२, १०,१८६-३             ३९. ऋग् १०-१५८-१                                               ४०. ऋग् ४-४७-३             ४१. ऋग् १-१३५-१ से ८ तक                                   ४२. ऋग् २-४१-१             ४३. ऋग् १-१३५-१ से आठ                          ४४. ऋग् १०-१८६-१ से ३ तक             ४५. ऋग् ७-९०-७                                         ४६. ऋग् १०-१६८-३             ४७. ऋग् ६-५०-१२                                      ४८. ऋग् ८-७-४             ४९. ऋग् ८-७-४                                            ५०. ऋग् ८-२६-२३             ५१. ऋग् १-१६८-१                                      ५२. ऋग् १०-१६८-४             ५३. ऋग् ७-५६-३                                         ५४. ऋग् ९-५७-५२             ५५. ऋग् ७-५६-३                                         ५६. ऋग् ७-५६-३             ५७. ऋग् १-१६८-४                                      ५८. ऋग् १०-९०-१३             ५९. तै. उप. २/३                                           ६०. छान्दो उप. ३/१८/४


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