मनुष्य मांसाहारी या शाकाहारी ? - ধর্ম্মতত্ত্ব

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22 October, 2020

मनुष्य मांसाहारी या शाकाहारी ?

मनुष्य मांसाहारी या शाकाहारी ?
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हवा-पानी-भोजन सभी जीवधारियों के जीवन आधार हैं। हवा-पानी साफ हों प्रदूषित न हों, यह भी सर्वमान्य है। मनुष्य को छोड़ कर शेष सभी शरीरधारी अपने भोजन के बारे में भी स्पष्ट हैं उनका भोजन क्या है? यह कितनी बड़ी विड़म्बना है कि सबसे बुद्धिमान् शरीरधारी मनुष्य अपने भोजन के बारे में स्पष्ट नहीं है। मैं अपने मनुष्य बन्धुओं से यह बात कहते हुए क्षमा चाहूँगा कि भोजन के निर्णय में मनुष्य की स्थिति एक गधे से भी नीचे है। मनुष्य को भोजन के बारे में बताने वाले डाॅक्टर, वैज्ञानिक, अर्थशास्त्री, धर्मगुरु दोगली बातें करते हैं। स्पष्ट निर्णय किससे लें? भोजन के बारे में स्पष्ट निर्णय हमें सिद्धान्त से ही मिल सकता है, क्योंकि सिद्धान्त सर्वोपरी होता है। हम यह निर्णय करें कि मनुष्य का भोजन क्या है?, कुछ आधारभूत बातों के आधार पर करेंगे। ये आधारभूत बातें इस प्रकार हैं -

1. किसी मशीन के बारे में जानकारी, प्रयोग करने वाले से बनाने वाले को अधिक होती है।

2. मशीन का ईंधन और शरीर का भोजन उसकी बनावट के अनुसार निश्चित होता है।

3. उपयुक्त (बनावट के अनुसार) ईंधन वा भोजन से मशीन वा शरीर अच्छा काम करेंगे व देर तक कार्य करेंगे अन्यथा ईंधन या भोजन से कम काम करेंगे और शीघ्र खराब हो जायेंगे।

4. ईंधन या भोजन वह पदार्थ है, जिससे मशीन कार्य करे और शरीर जीवित रहे। जिस पदार्थ को शरीर में भोजन रूप में डाला जाये और शरीर जीवित न रहे, वह भोजन नहीं हो सकता।

5. सभी शरीर (आस्तिकों के लिए) ईश्वर ने बनाए या (नास्तिकों के लिए) प्रकृति ने बनाये। एक भी शरीर किसी डाॅक्टर, वैज्ञानिक, अर्थशास्त्री या धर्मगुरु ने नहीं बनाया।

6. हम सृष्टि में अपने चारों ओर दो प्रकार के शरीर देख रहे हैं - मांसाहारी और शाकाहारी।


यहाँ हम 1, 2, 5 और 6 के आधार पर निर्णय करेंगे कि मनुष्य का भोजन मांसाहार है या शाकाहार है?


सभी शरीर ईश्वर या प्रकृति ने बनाये, ईश्वर या प्रकृति की जानकारी मनुष्य से अधिक है और भोजन बनावट के हिसाब से होता है। हमारे सामने दो प्रकार के शरीर मांसाहारी (शेर, चीता, तेंदूआ, भेड़िया आदि) और शाकाहारी (गाय, बकरी, घोड़ा, हाथी, ऊँट आदि) उपस्थित हैं, तो सबसे आधारभूत बात है कि भोजन शरीर की बनावट के हिसाब से शरीर बनाने वाले ईश्वर या प्रकृति ने निश्चित किया है और ईश्वर या प्रकृति की बात मनुष्य के मुकाबले ज्यादा ठीक होगी, इस आधार का प्रयोग करके हम मनुष्य का भोजन निश्चित करेंगे। उस निर्णय के लिये हम शाकाहारी और मांसाहारी के शरीरों की बनावट की तुलना करते हैं और देखते हैं कि मनुष्य शरीर की बनावट किससे मेल खाती है? मनुष्य शरीर की रचना शाकाहारी शरीरों जैसी है, तो मनुष्य का भोजन शाकाहार और यदि रचना मांसाहारी शरीरों से मेल खाती है, तो मनुष्य का भेाजन मांसाहार होगा। यह अन्तिम निर्णय होगा और हमें किसी धर्मगुरु, वैज्ञानिक या डाॅक्टर से पूछने की आवश्यकता नहीं हैं, क्योंकि ईश्वर या प्रकृति के मुकाबले इनकी कोई औकात नहीं होती और वैसे भी मनुष्य का निष्पक्ष होना बड़ा मुश्किल होता है। निम्न. तालिका में मांसाहारी-शाकाहारी शरीरों की रचना की तुलनात्मक जानकारी दी जा रही है -


1. मांसाहारी - आँखें गोल होती हैं, अंधेरे में देख सकती हैं, अंधेरे में चमकती हैं और जन्म के 5-6 दिन बाद खुलती हैं।

शाकाहारी - आँखे लम्बी होती हैं, अंधेरे में चमकती नहीं और अंधेरे में देख नहीं सकती और जन्म के साथ ही खुलती हैं।


2. मांसाहारी - घ्राण शक्ति (सूंघने की शक्ति) बहुत अधिक होती है।

शाकाहारी - घ्राण शक्ति मांसाहारियों से बहुत कम होती है।


3. मांसाहारी - बहुत अधिक आवृत्ति वाली आवाज को सुन लेते हैं।

शाकाहारी - बहुत अधिक आवृत्ति वाली आवाज को नहीं सुन पाते हैं।


4. मांसाहारी - दांत नुकीले होते हैं। सारे मुँह में दांत ही होते हैं, दाढ़ नहीं होती हैं और दांत एक बार ही आते हैं।

शाकाहारी - दांत और दाढ़ दोनों होते हैं, चपटे होते हैं और एक बार गिर कर दोबारा आते हैं।


5. मांसाहारी - ये मांस को फाड़ कर निगलते हैं, तो इनका जबड़ा केवल ऊपर-नीचे चलता है।

शाकाहारी - ये भोजन को पीसते हैं, तो इनका जबड़ा ऊपर-नीचे और बायें-दायें चलता है।


6. मांसाहारी - मांस खाते समय बार-बार मुँह को खोलते व बन्द करते हैं।

शाकाहारी - भोजन करते समय एक बार भोजन मुँह में लेने के बाद निगलने तक मुँह बन्द रखते हैं।


7. मांसाहारी - जीभ आगे से चपटी, व पतली होती है और आगे से चैड़ी होती है।

शाकाहारी - जीभ आगे से चैड़ाई में कम व गोलाईदार होती है।


8. मांसाहारी - जीभ पर टैस्ट बड्ज (Teste Buids), जिनकी सहायता से स्वाद की पहचान की जाती है, संख्या में काफी कम होते हैं (500 - 2000)

शाकाहारी - जीभ पर टैस्ट बड्ज की संख्या बहुत अधिक होती है (20,000 - 30,000) मनुष्य की जीभ पर यह संख्या (24,000 - 25,000) तक होती है।

9. मांसाहारी - मुँह की लार अम्लीय होती है। (acidic)

शाकाहारी - मुँह की लार क्षारीय होती है। (alkaline)


10. मांसाहारी - पेट की बनावट एक कक्षीय होती है।

शाकाहारी - पेट की बनावट बहुकक्षीय होती है। मनुष्य का पेट दो कक्षीय होता है।


11. मांसाहारी - पेट के पाचक रस बहुत तेज (सान्द्र) होते हैं। शाकारियों के पाचक रसों से 12-15 गुणा तेज होते हैं।

शाकाहारी - शाकाहारियों के पेट के पाचक रस मांसाहारियों के मुकाबले बहुत कम तेज होते हैं। मनुष्य के पेट के पाचक रसों की सान्द्रता शाकाहारियों वाली होती है।


12. मांसाहारी - पाचन संस्थान (मुँह से गुदा तक) की लम्बाई कम होती है। आमतौर पर शरीर लम्बाई का 2.5 - 3 गुणा होती है।

शाकाहारी - पाचन संस्थान की लम्बाई अधिक होती है। प्रायः शरीर की लम्बाई का 5-6 गुणा होती है।


13. मांसाहारी - छोटी आंत व बड़ी आंत की लम्बाई-चैड़ाई में अधिक अन्तर नहीं होता।

शाकाहारी - छोटी आंत चैड़ाई में काफी कम और लम्बाई में बड़ी आंत से काफी ज्यादा लम्बी होती है।


14. मांसाहारी - इनमें कार्बोहाईड्रेट नहीं होता, इस कारण मांसाहारियों की आंतों में किण्वन बैक्टीरिया (Fermentation bacteria) नहीं होते हैं।

शाकाहारी - इनकी आंतों में किण्वन बैक्टीरिया (Fermentation bacteria) होते हैं, जो कार्बोहाइडेªट के पाचन में सहायक होते हैं।


15. मांसाहारी - आंते पाईपनुमा होती है अर्थात् अन्ददर से सपाट होती हैं।

शाकाहारी - आंतों में उभार व गड्ढे (grooves) अर्थात् अन्दर की बनावट चूड़ीदार होती है।


16. मांसाहारी - इनका लीवर वसा और प्रोटीन को पचाने वाला पाचक रस अधिक छोड़ता है। पित को स्टोर करता है। आकार में बड़ा होता है।

शाकाहारी - इनके लीवर के पाचक रस में वसा को पचाने वाले पाचक रस की न्यूनता होती है। पित को छोड़ता है। तुलनात्मक आधार में छोटा होता है।


17. मांसाहारी - पैंक्रियाज (अग्नाशय) कम मात्रा में एन्जाईम छोड़ता है।

शाकाहारी - मांसाहारियों के मुकाबले अधिक मात्रा में एन्जाईम छोड़ता है।


18. मांसाहारी - खून की प्रकृति अम्लीय (acidic) होती है।

शाकाहारी - खून की प्रकृति क्षारीय (alkaline) होती है।


19. मांसाहारी - खून (blood) के लिपो प्रोटीन एक प्रकार के हैं, जो शाकाहारियों से भिन्न होते हैं।

शाकाहारी - मनुष्य के खून के लिपो प्रोटीन (Lipo - Protein) शाकाहारियों से मेल खाते हैं।


20. मांसाहारी - प्रोटीन के पाचन से काफी मात्रा में यूरिया व यूरिक अम्ल बनता है, तो खून से काफी मात्रा में यूरिया आदि को हटाने के लिये बड़े आकार के गुर्दे (Kidney) होते हैं।

शाकाहारी - इनके गुर्दें मांसाहारियों की तुलना में छोटे होते हैं।


21. मांसाहारी - इनमें (रेक्टम) गुदा के ऊपर का भाग नहीं होता है।

शाकाहारी - इनमें रेक्टम होता है।


22. मांसाहारी - इनकी रीढ़ की बनावट ऐसी होती है कि पीठ पर भार नहीं ढो सकते।

शाकाहारी - इनकी पीठ पर भार ढो सकते हैं।


23. मांसाहारी - इनके नाखून आगे से नुकीले, गोल और लम्बे होते हैं।

शाकाहारी - इनके नाखून चपटे और छोटे होते हैं।


24. मांसाहारी - ये तरल पदार्थ को चाट कर पीते हैं।

शाकाहारी - ये तरल पदार्थ को घूंट भर कर पीते हैं।


25. मांसाहारी - इनको पसीना नहीं आता है।

शाकाहारी - इनको पसीना आता है।


26. मांसाहारी - इनके प्रसव के समय (बच्चे पैदा करने में लगा समय) कम होता है। प्रायः 3-6 महिने।

शाकाहारी - इनके प्रसव का समय मांसाहारियों से अधिक होता है। प्रायः 6 महिने से 18 महिने।


27. मांसाहारी - ये पानी कम पीते हैं।

शाकाहारी - ये पानी अपेक्षाकृत ज्यादा पीते हैं।


28. मांसाहारी - इनके श्वांस की रफ्तार तेज होती है।

शाकाहारी - इनके श्वांस की रफ्तार कम होती है, आयु अधिक होती है।


29. मांसाहारी - थकने पर व गर्मी में मुँह खोल कर जीभ निकाल कर हाँफते हैं।

शाकाहारी - मुँह खोलकर नहीं हाँफते और गर्मी में जीभ बाहर नहीं निकालते।


30. मांसाहारी - प्रायः दिन में सोते हैं, रात को जागते व घूमते-फिरते हैं।

शाकाहारी - रात को सोते हैं, दिन में सक्रिय होते हैं।


31. मांसाहारी - क्रूर होते हैं, आवश्यकता पड़ने पर अपने बच्चे को भी मार कर खा सकते हैं।

शाकाहारी - अपने बच्चे को नहीं मारते और बच्चे के प्रति हिंसक नहीं होते।


32. मांसाहारी - दूसरे जानवर को डराने के लिए गुर्राते हैं।

शाकाहारी - दूसरे पशु को डराने के लिए गुर्राते नहीं।


33. मांसाहारी - इनके ब्लड में रिस्पटरों की संख्या अधिक होती है, जो ब्लड में कोलेस्ट्राॅल को नियन्त्रित करते हैं।

शाकाहारी - इनके ब्लड में रिस्पटरों की संख्या कम होती है। मनुष्य के ब्लड में भी संख्या कम होती है।


34. मांसाहारी - ये किसी पशु को मारकर उसका मांस कच्चा ही खा जाते हैं।

शाकाहारी - मनुष्य जानवर को मारकर उसका कच्चा मांस नहीं खाता।

35. मांसाहारी - इनके मल-मूत्र में दुर्गन्ध होती है।

शाकाहारी - इनके मल-मूत्र में दुर्गन्ध नहीं होती (मनुष्य यदि शाकाहारी है और उसका पाचन स्वस्थ है, तो मनुष्य के मल-मूत्र में भी बहुत कम दुर्गन्ध होती है।)


36. मांसाहारी - इनके पाचन संस्थान में पाचन के समय ऊर्जा प्राप्त करने के लिये अलग प्रकार के प्रोटीन उपयोग में लाये जाते हैं, जो शाकाहारियों से भिन्न हैं।

शाकाहारी - इनके ऊर्जा प्राप्ति के लिये भिन्न प्रोटीन प्रयोग होते हैं।


37. मांसाहारी - इनके पाचन संस्थान, जो एन्जाइम बनाते हैं, वे मांस का ही पाचन करते हैं।

शाकाहारी - इनके पाचन संस्थान, जो एन्जाइम बनाते हैं, वे केवल वनस्पतिजन्य पदार्थों को ही पचाते हैं।


38. मांसाहारी - इनके शरीर का तापमान कम होता है, क्योंकि मांसाहारियों का BMR (Basic Metabolic Rate) शाकाहारियों से कम होता है।

शाकाहारी - मनुष्य के शरीर का तापमान शाकाहारियों के आस-पास होता है।


39. मांसाहारी - दो बर्तन लें, एक में मांस रख दें और दूसरे में शाकाहार रख दें, तो मांसाहारी जानवर मांस को चुनेगा।

शाकाहारी - मनुष्य का बच्चा शाकाहार को चुनेगा।


उपर्युक्त तथ्यों के अनुसार मनुष्य शरीर की बनावट बिना किसी अपवाद के शत-प्रतिशत शाकाहारी शरीरों की बनावट से मेल खाती है और भोजन को बनावट के अनुसार निश्चित किया जाता है, तो मनुष्य का भोजन शाकाहार है, मांसाहार कतई नहीं। हमें निश्चिन्त होकर शाकाहार करना चाहिये और मांसाहार से होने वाली अनेक प्रकार की हानियों से बचना चाहिये।


शाकाहार में मानव का कल्याण है और मांसाहार विनाशकारी है। प्राकृतिक सिद्धान्त की उपेक्षा करके होने वाले विनाश से बचने का कोई मार्ग नहीं है।


✍️ डाॅ. भूपसिंह, रिटायर्ड एसोशिएट प्रोफेसर, भौतिक विज्ञान

भिवानी (हरियाणा)

 वेदों में मांसाहार का भ्रम


एतद्वा उ स्वादीयो यदधिगवं क्षीरं वा मांसं वा तदेव नाश्नीयात्।। 9।।
                                                                                                        (अथर्व.का. 9, पर्याय-3, सूक्त 6 मं.9)

इस मंत्र पर आचार्य सायण ने भाष्य नहीं किया है।

पं. श्रीपाद दामोदर सातवलेकर भाष्य
पदार्थ- एतत् वै उ स्वादीयः = वह जो स्वादयुक्त है यत् अधिगवं क्षीरं वा मांसं वा= जो गौ से प्राप्त होने वाले दूध या अन्य मांसादि पदार्थ हैं तत् एव न आश्नीयात्= उसमें से कोई पदार्थ अतिथि के पूर्व भी न खावे।।9।।

इस पर मेरा मत
इसके भाष्य में आर्य विद्वान् प्रो. विश्वनाथ विद्यालंकार ने यहा मांस का अर्थ पनीर किया है, तो पं. क्षेमकरणदास त्रिवेदी ने मनन साधक (बुद्धिवर्धक) पदार्थ को मांस कहा है। सभी ने इस मंत्र तथा सूक्त के अन्य मंत्रों का विषय अतिथि सत्कार बताया है। इस मंत्र का देवता पं. क्षेमकरणदास त्रिवेदी की दृष्टि में अतिथि व अतिथिपति है, जबकि पं. सातवलेकर ने अतिथि विद्या माना है। पं. सातवलेकर ने इसका ऋषि ब्रह्मा माना है। छन्द पिपीलिका मध्या गायत्री है। {ब्रह्मा = मनो वै यज्ञस्य ब्रह्मा (श.14.6.1.7), प्रजापतिर्वै ब्रह्मा (गो.उ.5.8)। अतिथिः = यो वै भवति यः श्रेष्ठतामश्नुते स वा अतिथिर्भवति (ऐ.आ.1.1.1)। अतिथिपतिः = अतिथिपतिर्वावातिथेरीशे (क.46.4 - ब्रा.उ.को. से उद्धृत)। पिपीलिका = पिपीलिका पेलतेर्गतिकर्मणः (दै.3.9)। स्वादु = प्रजा स्वादु (ऐ.आ.1.3.4), प्रजा वै स्वादुः (जै.ब्रा.2.144), मिथुनं वै स्वादु (ऐ.आ.1.3.4)। क्षीरम् = यदत्यक्षरत् तत् क्षीरस्य क्षीरत्वम् (जै.ब्रा.2.228)। मांसम् = मांसं वै पुरीषम् (श.8.6.2.14), मांसं माननं वा मानसं वा मनोऽस्मिन् सीदतीति वा (नि.4.3), मांसं सादनम् (श.8.1.4.5)}

मेरा आधिदैविक भाष्य
(एतत् वा स्वादीयः) ये अतिथि अर्थात् सतत गन्त्री प्राण, व्यान रश्मियां एवं अतिथिपति अर्थात् प्राणोपान रश्मियों की नियन्त्रक सूत्रात्मा वायु रश्मियां स्वादुयुक्त होती हैं अर्थात् ये विभिन्न छन्दादि रश्मियों के मिथुन बनाकर नाना पदार्थों को उत्पन्न करने में सहायक होती हैं। (यत्) जो प्राणव्यान व सूत्रात्मा वायु रश्मियां (अधिगवं क्षीरं वा मांसं वा) गो अर्थात् ‘ओम्’ छन्द रश्मि रूपी सूक्ष्मतम वाक् तत्व में आश्रित होती हैं, साथ ही अपने पुरीष= पूर्ण संयोज्य बल {पुरीषम्= पूर्णं बलम् (म.द.य.भा.12.46), ऐन्द्रं हि पुरीषम् (श.8.7.3.7), अन्नं पुरीषम् (श.8.1.4.5)} के साथ निरन्तर नाना रश्मि वा परमाणु आदि पदार्थों के ऊपर झरती रहती हैं। इन ‘ओम्’ रश्मियों का झरना ही क्षीरत्व तथा पूर्ण संयोज्यता ही मांसत्व कहलाता है। यहाँ ‘मांस’ शब्द यह संकेत देता है, कि ये ‘ओम्’ रश्मियां मनस्तत्व से सर्वाधिक रूप से निकटता से सम्बद्ध होती हैं किंवा मनस्तत्व इनमें सर्वाधिक मात्रा में बसा हुआ रहता है। ये ‘ओम्’ रश्मियां प्राणव्यान एवं सूत्रात्मा वायु रश्मियों के ऊपर झरती हुई अन्य स्थूल पदार्थों पर गिरती रहती हैं। (तत् एव न अश्नीयात्) इस कारण से विभिन्न रश्मि वा परमाणु आदि पदार्थों के मिथुन बनने की प्रक्रिया नष्ट नहीं होती। यह प्रक्रिया अतिथिरूप प्राणव्यान के मिथुन बनने किंवा इनके द्वारा विभिन्न मरुदादि रश्मियों को आकृष्ट करने की प्रक्रिया शान्त होने से पूर्व नष्ट नहीं होती है, बल्कि उसके पश्चात् अर्थात् दो कणों के संयुक्त होने के पश्चात् और मिथुन बनने की प्रक्रिया नष्ट वा बन्द हो सकती है, यह जानना चाहिए।

इस ऋचा का सृष्टि पर प्रभाव-
आर्ष व दैवत प्रभाव- इसका ऋषि ब्रह्मा होने से संकेत मिलता है कि इसकी उत्पत्ति मन एवं ‘ओम्’ रश्मियों के मिथुन से ही होती है। यह मिथुन इस छन्द रश्मि को निरन्तर व निकटता से प्रेरित करता रहता है। इसके दैवत प्रभाव से प्राण, व्यान तथा सूत्रात्मा वायु रश्मियां विशेष सक्रिय होकर नाना संयोग कर्मों को समृद्ध करती हैं।

छान्दस प्रभाव- इसका छन्द पिपीलिका मध्या गायत्री होने से यह छन्द रश्मि विभिन्न पदार्थों के संयोग के समय उनके मध्य तीव्र तेज व बल के साथ सतत संचरित होती है। इससे उन पदार्थों के मध्य विभिन्न पदार्थ तेज एवं बल को प्राप्त होते रहते हैं।

ऋचा का प्रभाव- जब दो कणों का संयोग होता है, तब उनके मध्य प्राण, व्यान व सूत्रात्मा वायु रश्मियों का विशेष योगदान होता है। ये रश्मियां विभिन्न मरुद् रश्मियों द्वारा आकुंचित आकाश तत्व को व्याप्त कर लेती हैं। इसी समय इन रश्मियों के ऊपर सूक्ष्म ‘ओम्’ रश्मियां अपना सेचन करके इन्हें अधिक बल से युक्त करती हैं। इससे दोनों कणों के मध्य फील्ड निरन्तर प्रभावी होता हुआ उन दोनों कणों को परस्पर संयुक्त कर देता है।

मेरा आधिभौतिक भाष्य
(एतत् वा स्वादीयः) ये जो स्वादिष्ट भोज्य पदार्थ होते हैं। (यदधिगवं क्षीरं वा) जो गाय से प्राप्त होने वाले दूध, घृत, मक्खन, दही आदि पदार्थ हैं अथवा (मांसम् वा) मनन, चिन्तन आदि कार्यों में उपयोगी फल, मेवे आदि पदार्थ। (तदेव न अश्नीयात्) उन पदार्थों को अतिथि के खिलाने से पूर्व न खावे अर्थात् अतिथि को खिलाने के पश्चात् ही खाना चाहिए। यहाँ अतिथि से पूर्व न खाने का प्रसंग इसके पूर्व मंत्र से सिद्ध होता है, जहाँ लिखा है- ‘‘अशितावत्यतिथावश्नीयात्’’ = अशितावति अतिथौ अश्नीयात्। इस प्रकरण को पूर्व आधिदैविक भाष्य में भी समझें।
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{‘मांसम्’ पद की विवेचनाः- इस विषय में सर्वप्रथम आर्य विद्वान् पं. रघुनन्दन शर्मा कृत ‘‘वैदिक सम्पत्ति’’ नामक ग्रन्थ से आयुर्वेद के कुछ ग्रन्थों को उद्धृत करते हुए कहते हैं-

‘‘सुश्रुत में आम के फल का वर्णन करते हुए लिखा है कि-
अपक्वे चूतफले स्नाय्वस्थिमज्जानः सूक्ष्मत्वान्नोपलभ्यन्ते पक्वे त्वाऽविर्भूता उपलभ्यन्ते।
अर्थात् आम के कच्चे फल में नसें, हड्डियाँ और मज्जा आदि प्रतीत नहीं होती, किन्तु पकने पर सब आविर्भूत हो जाती हैं।

यहाँ गुठली के तन्तु रोम, गुठली हड्डियाँ, रेशे नसें और चिकना भाग मज्जा कहा गया है। इसी प्रकार का वर्णन भावप्रकाश में भी आया है। वहाँ लिखा है कि-
आम्रास्यानुफले भवन्ति युगपन्मांसास्थिमज्जादयो लक्ष्यन्ते न पृथक् पृथक् तनुतया पुष्टास्त एव स्फुटाः। 
एवं गर्भसमु˜वे त्ववयवाः सर्वे भवन्त्येकदा लक्ष्याः सूक्ष्मतया न ते प्र्रकटतामायान्ति वृद्धिग्ताः।
अर्थात् जिस प्रकार कच्चे आम के फल में मांस, अस्थि और मज्जादि पृथक्-पृथक् नहीं दिखलाई पड़ते, किन्तु पकने पर ही ज्ञात होते हैं उसी प्रकार गर्भ के आरम्भ में मनुष्य के अंग भी ज्ञात नहीं होते, किन्तु जब उनकी वृद्धि होती है, तब स्पष्ट हो जाते हैं।

इन दोनों प्रमाणों से प्र्रकट हो रहा है कि फलों में भी मांस, अस्थि, नाड़ी और मज्जा आदि उसी प्रकार कहे गये हैं, जिस प्रकार प्राणियों के शरीर में। वैद्यक के एक ग्रन्थ में लिखा है कि-
प्रस्थं कुमारिकामांसम्।
अर्थात् एक सेर कुमारिका का मांस। यहाँ घीकुवार को कुमारिका और उसके गूदे को मांस कहा गया है।

कहने का तात्पर्य यह कि जिस प्रकार औषधियों और पशुओं के नाम एक ही शब्द से रखे गये हैं उसी प्रकार औषधियों और पशुओं के शरीरावयव भी एक ही शब्द से कहे गये हैं। इस प्रकार का वर्णन आयुर्वेद के ग्रन्थों में भरा पड़ा है। श्रीवेंकटेश्वर प्रेस, मुम्बई में छपे हुए ‘औषधिकोष’ में नीचे लिखे समस्त पशुसंज्ञक नाम और अवयव वनस्पतियों के लिए भी आये हुए दिखलाये गये हैं। हम नमूने के लिए कुछ शब्द उद्धृत करते हैं-
वृषभ- ऋषभकन्द 
सिंही- कटेली, वासा 
हस्ति- हस्तिकन्द
श्वान- कुत्ताघास, ग्रन्थिपर्ण 
खर- खरपर्णिनी 
वपा-झिल्ली= बक्कल के भीतर का जाला
मार्जार- बिल्लीघास, चित्ता 
काक- काकमाची अस्थि- गुठली
मयूर- मयूरशिखा 
वाराह- वाराहीकन्द 
मांस- गूदा, जटांमासी 
बीछू- बीछूबूटी 
महिष- महिषाक्ष, गुग्गुल 
चर्म- बक्कल
सर्प- सर्पिणीबूटी 
श्येन- श्येनघंटी (दन्ती) 
स्नायु- रेशा
अश्व- अश्वगन्धा, अजमोदा 
मेष- जीवशाक 
नख- नखबूटी
नकुल- नाकुलीबूटी 
कुक्कुट (टी) शाल्मलीवृक्ष 
मेद-मेदा
हंस- हंसपदी 
नर- सौगन्धिक तृण 
लोम(शा)- जटामासी 
मत्स्य- मत्स्याक्षी 
मातुल- घमरा 
हृद- दारचीनी
मूषक- मूषाकर्णी 
मृग- सहदेवी, इन्द्रायण, जटामासी, कपूर 
पेशी- जटामासी 
गो- गौलोमी पशु- अम्बाड़ा, मोथा 
रुधिर- केसर 
महाज- बड़ी अजवायन 
कुमारी- घीकुमार 
आलम्भन- स्पर्श

इस सूची में समस्त पशु पक्षियों और उनके अवयवों के नाम तथा समस्त वनस्पतियों और उनके अवयवों के नाम एक ही शब्द से सूचित किये गये हैं। ऐसी दशा में किसी शब्द से पशु और उसका अवयव ही ग्रहण नहीं किया जा सकता।

विज्ञ पाठक यहाँ विचारें कि ऐसी स्थिति में यहाँ ‘मांसम्’ पद से गौ आदि पशुओं वा पक्षियों का मांस ग्रहण करना क्या मूर्खता नहीं है? यहाँ कोई पाश्चात्य शिक्षा से अभिभूत तथा वैदिक वा भारतीय संस्कृति व इतिहास का उपहासकर्ता कथित प्रबुद्ध किंवा मांसाहार का पोषक संस्कृत भाषा के ऐसे नामों पर व्यंग्य न करें, इस कारण हम उन्हें अंग्रेजी भाषा के भी कुछ उदाहरण देते हैं-

1. Lady Finger भिण्डी को कहते हैं। यदि भोजन विषय में कोई इसका अर्थ किसी महिला की अंगुली करे, तब क्या उसका अपराध नहीं होगा?
2. Vegetable किसी भी शाक वा वनस्पति को कहते हैं। उधर Chamber dictionary में इसका अर्थ dull understanding person भी दिया है। यदि Vegetable खाते हुए किसी व्यक्ति को देखकर कोई उसे मन्दबुद्धि मनुष्य को खाद्य पदार्थ कहे, तब क्या यह मूर्खता नहीं होगी।
3. आयुर्वेद में एक पौधा है, गोविष, जिसे हिन्दी में काकमारी तथा अंग्रेजी में Fish berry कहा जाता है। यदि कोई इसका अर्थ मछली का रस लगाये, तो उसे क्या कहा जाए?
4. Potato आलू को कहते हैं, उधर इसका अर्थ A mentally handicaped person भी होता है, तब क्या आलू खाने वाले को मानसिक रोगी मनुष्य को खाने वाला माना जाये?
5. Hag यह एक प्रकार का फल है, उधर An ugly old woman को भी hag कहा जाता है, तब क्या यहाँ भी कोई hag फल का अर्थ उलटा ही लगाने का प्रयास करेगा?

अब हम इस पर विचार करते हैं कि फलों के गूदे को मांस क्यों कहा? जैसा कि अपने आधिदैविक भाष्य में लिख चुके हैं कि पूर्णबलयुक्त वा पूर्णबलप्रद पदार्थ को मांस कहा जाता है। संसार में सभी मनुष्य फलों के गूदे का ही प्रयोग करते हैं, अन्य भागों का नहीं, क्योंकि फल का सार भाग वही है। वही भाग बल-वीर्य का भण्डार है अर्थात् उसके भक्षण से बल-वीर्य-बुद्धि आदि की वृद्धि होती है। अब कोई प्रश्न करे कि प्राणियों के शरीर का मांस क्यों मांस कहलाया? इसका उत्तर यह है कि किसी भी प्राणी के शरीर का बल उसकी मांसपेशियों के अन्तर्गत ही निहित है, इस कारण से यह भी मांस कहलाया जाता है। जैसे शाकाहारी प्राणी फलों के गूदे का ही विशेष भक्षण करते हैं, वैसे ही सिंहादि मांसाहारी प्राणी, प्राणी के मांस भाग को ही विशेष रूप से खाते हैं। यह दोनों में समानता है। जो स्थान फलों में गूदे का है, वही स्थान प्राणियों के शरीर में मांस का है। मनुष्य प्राकृतिक रूप से केवल शाकाहारी व दुग्धाहारी प्राणी है, इस कारण वेदादि शास्त्रों में प्राणियों के मांस खाने की चर्चा वेदादि शास्त्रों की परम्परा से सर्वथा अनभिज्ञता का परिचायक है। ऐसी चर्चा करने वाले कथित वेदज्ञ, चाहे विदेशी हों वा स्वदेशी, हमारी दृष्टि में वे वेदादि शास्त्रों की वर्णमाला भी नहीं जानते, भले वे व्याकरणादि शास्त्रों के कितने ही बड़े अध्येता-अध्यापक क्यों न हों। मांसाहार के विषय में हम पृथक् से एक ग्रन्थ लिखने पर फिर कभी विचार करेंगे, जिसमें विश्वभर के मांसाहारियों की सभी शंकाओं का समाधान होगा।

प्रश्न- वेद में ‘मांसम्’ पद का अर्थ प्राणियों का मांस कदापि नहीं हो सकता, इसे आपका पूर्वाग्रह क्यों न माना जाये; जो केवल शाकाहार के आग्रहवश ही किया गया है?

उत्तर- जिस परम्परा में सामान्य योगसाधक के लिए अहिंसा को प्रथम सोपान कहा गया हो, जहाँ मन, वचन, कर्म से कहीं भी व कभी भी सभी प्राणियों के प्रति वैर त्याग अर्थात् प्रीति का संदेश दिया गया हो, वहाँ सिद्धपुरुष योगियों एवं उसी क्रम में अपनी योगसाधना द्वारा ईश्वर व मंत्रों के साक्षात्कृतधर्मा महर्षियों, उनके ग्रन्थों एवं वेदरूप ईश्वरीय ग्रन्थों से हिंसा का संदेश देना मूर्खता व दुष्टता नहीं है, तो क्या है? जो विद्वान् वैदिक अहिंसा का स्वरूप देखना चाहे, वे पातंजल योगदर्शन के व्यासर्षि भाष्य को स्वयं पढ़ कर देखें। इस ऐतरेय ब्राह्मण में जहाँ प्रायः सभी भाष्यकारों ने पशुओं का नृशंस वध एवं उसके अंगों के भक्षण का विधान किया है, वहाँ हमने उसका कैसा गूढ़ विज्ञान प्रकाषित किया है, यह पाठक इस ग्रन्थ के सम्पूर्ण अध्ययन से जान सकते हैं। पाठकों की जानकारी के लिए हम वेद से ही कुछ प्रमाण देते हैं-

यदि नो गां हंसि यद्यश्वं यदि पूरुषम। तं त्वा सीसेन विध्यामः।। (अथर्व.1.16.4)

अर्थात् तू यदि हमारी गाय, घोड़ा वा मनुष्य को मारेगा, तो हम तुझे सीसे से बेध देंगे।

मा नो हिंसिष्ट द्विपदो मा चतुष्पदः।। (अथर्व.11.2.1)
अर्थात् हमारे मनुष्यों और पशुओं को नष्ट मत कर। अन्यत्र वेद में देखें-
इमं मा हिंसीद्र्विपाद पशुम्। (यजु.13.47)
अर्थात् इस दो खुर वाले पशु की हिंसा मत करो। 
इमं मा हिंसीरेकशफं पशुम्। (यजु.13.48)
अर्थात् इस एक खुर वाले पशु की हिंसा मत करो। 
यजमानस्य पशुन् पाहि। (यजु.1.1)
यजमान के पशुओं की रक्षा कर।
आप कहेंगे यह बात यजमान वा किसी मनुष्य विशेष के पालतू पशुओं की हो रही है, न कि हर प्राणी की।
इस भ्रम के निवारणार्थ अन्य प्रमाण-
मित्रस्याहं चक्षुषा सर्वाणि भूतानि समीक्षे। (यजु.36.18)
अर्थात् मैं सब प्राणियों को मित्र की भांति देखता हूँ।
मा हिंसीस्तन्वा प्रजाः। (यजु.12.32)
इस शरीर से प्राणियों को मत मार।
मा स्रेधत। (ऋ.7.32.9) अर्थात् हिंसा मत करो।
महर्षि जैमिनी के पश्चात् सबसे महान् वेदवेत्ता महर्षि दयानन्द के मांसाहार के विषय में विचारों को भी पाठक पढ़ें-
‘‘मद्यमांसाहारी म्लेच्छ कि जिनका शरीर मद्यमांस के परमाणुओं से ही पूरित है, उनके हाथ का न खावें।’’
‘‘इन पशुओं को मारने वाले को सब मनुष्यों की हत्या करने वाले जानियेगा।’’
‘‘जब से विदेशी मांसाहारी इस देश में आकर गो आदि पशुओं को मारने वाले मद्यपायी राज्याधिकारी हुए हैं, तब से क्रमशः आर्यों के दुःख की सीमा बढ़ती जाती है। -सत्यार्थ प्रकाश, दशम समुल्लास

देखिये दया के सागर ऋषि दयानन्द क्या कहते हैं-

‘‘पशुओं के गले छुरे से काटकर जो अपना पेट भरते हैं, सब संसार की हानि करते हैं। क्या संसार में उनसे भी अधिक कोई विश्वासघाती, अनुपकारी, दुःख देने वाले पापीजन होंगे?’’
‘‘हे मांसाहारियो! तुम लोग जब कुछ काल के पश्चात् पशु न मिलेंगे, तब मनुष्यों का मांस भी छोड़ोगे वा नहीं?’’
‘‘हे धार्मिक लोगो! आप इन पशुओं की रक्षा तन, मन और धन से क्यों नहीं करते?’’ (गोकरुणानिधि) 
आशा है बुद्धिमान् एवं निष्पक्ष पाठकों की मांसाहार की भ्रांति निर्मूल हो चुकी होगी। 
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मेरा आध्यात्मिक भाष्य
{मांसम् = मन्यते ज्ञायतेऽनेन तत् मांसम् (उ.को.3.64), मांसं पुरीषम् (श.8.7.4.19), (पुरीषम् = पुरीषं पृणातेः पूरयतेर्वा - नि.2.22; सर्वत्राऽभिव्याप्तम् - म.द.य.भा.38.21; यत् पुरीषं स इन्द्रः - श.10.4.1.7; स एष प्राण एव यत् पुरीषम् - श.8.7.3.6)}

(एतत् वा उ स्वादीयः) योगी पुरुष के समक्ष परमानन्द का आस्वादन कराने वाले ये पदार्थ विद्यमान रहते हैं, जिनके कारण जीव का परमात्मा के साथ सायुज्य रहता है, (यदधिगवं क्षीरं वा मांसं वा) वे पदार्थ योगी की मन आदि इन्द्रियों में प्रतिष्ठित होते हैं। वे पदार्थ क्या हैं, इसका उत्तर यह है कि सर्वत्र अभिव्याप्त परमैश्वर्य सम्पन्न इन्द्ररूप परमात्मा से झरने वाली ‘ओम्’ वा गायत्री आदि वेदों की ऋचाएं ही वे पदार्थ हैं, जो योगी की इन्द्रियों व अन्तःकरण में निरन्तर स्रवित होती रहती हैं। योगी उन आनन्दमयी ऋचाओं का रसास्वादन करने लगता है, तब वह परमानन्द का अनुभव करने लगता है। (तदेव न अश्नीयात्) योगी उन ऋचाओं के आनन्द को उस समय तक अनुभव नहीं कर पाता, जब तक कि अतिथिरूप प्राण तत्व, जो योगी के मस्तिष्क व शरीर में सतत संचरित होते हैं, उन ऋचाओं के साथ संगत नहीं होते हैं। यहाँ अतिथि से पूर्व का प्रकरण पूर्ववत् समझें।

भावार्थ- जब कोई योगी योगसाधना करता है और एतदर्थ प्रणव वा गायत्री आदि का यथाविध जप करता है, तब सर्वत्र अभिव्याप्त परमैश्वर्यवान् इन्द्ररूप ईश्वर से निरन्तर प्रवाहित ‘ओम्’ रश्मियां उस योगी के अन्तःकरण तथा प्राणों के अन्दर स्रवित होती रहती है। इससे वह योगी उन रश्मियों का रसास्वादन करता हुआ आनन्द में निमग्न हो जाता है।
                                         वेदविज्ञान-आलोकः से उद्घृत (पूर्वपीठिका - वेद का यर्थाथ स्वरूप, नवमोध्याय)

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