হিন্দুদের দাস দাসী প্রথা মিথ্যাচার - ধর্ম্মতত্ত্ব

ধর্ম্মতত্ত্ব

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05 October, 2018

হিন্দুদের দাস দাসী প্রথা মিথ্যাচার

 মুমিনের রেফারেন্সগুলো -

➡1.(ঋগ্বেদ-১০/৯০/১১)
➡2.(যজুর্বেদ -৩১/৬)
➡3.(মনুস্মৃতি-১/১-৩ এবং ৮/৪১৩-৪১৫)
➡4. (ঋগ্বেদ-৬/২৭/৮)
➡5.(মনুস্মৃতি-৩/৫৩, ৯/৪, ৯/৯০-৯৪)
➡6.(গীতা-১৮/৪১-৪৪, ১৮/৪৭, ৩/৩৫)
বাংলাদেশের সনাতনীদের কাছে গীতা ছাড়া তেমন কোন গ্রন্থ নেই, মাত্র কয়েকজন ছাড়া, আর তারই সুযোগ নিচ্ছে এই হুজুরের মতো মিথ্যুক গুজবীরা। প্রথমে আমি প্রত্যেকটা রেফারেন্স অনুযায়ী মন্ত্র এবং শ্লোক লিখতেছি দেখে নিন কি লিখা রয়েছে এবং প্রক্ষিপ্ত শ্লোক সম্পর্কেও বলবো তারপর কুলাঙ্গার হুজুর এর জবাবে কিছু উপস্থাপন করবো ইসলামের দাসী লীলা নিয়ে।
➡1.(ঋগ্বেদ-১০/৯০/১১)
यत्पुरुषं व्यदधुः कतिधा व्यकल्पयन्।
मुखं किमस्य कौ बाहू का ऊरू पादा उच्येते ॥
যৎপুরুষং ব্যদধুঃ কতিধা ব্যকল্পয়ন্।
মুখং কিমস্য কৌ বাহূ কা উরু পাদা উচ্যেতে।। (ঋগ্বেদ-১০/৯০/১১)
পদার্থঃ- (যত্ পুরুষং ব্যদধুঃ) যে পরমাত্মাকে পুরুষ রূপে কল্পিত করেছে, দেহ রূপে নির্ধারিত করেছে (কতিধা ব্যকল্পয়ন্) কতো প্রকারে কল্পিত করেছে (অস্য মুখং কিম্-আসীত্) এর মুখ কি (কৌ বাহূ) কোনটি হস্ত (কৌ উরু পাদা উচ্যেতে) কোনটি উরু, কোনটি পদ বলা হয়।।
ভাবার্থঃ- রূপকালঙ্কারে সমষ্টি পুরুষকে দেহরূপে কল্পিত করেছে। প্রশ্ন হলো তাঁহার কোন মুখ, কোনটি বাহু, কোনটি উরু, আর কোনটি পা। এর উত্তর পরবর্তী মন্ত্রে রয়েছে।
ভাষ্যকারঃ শ্রী স্বামী ব্রহ্মমুনি পরিব্রাজক বিদ্যামার্তণ্ড
প্রকাশকঃ বৈদিক পুস্তকালয় (দয়ানন্দ আশ্রম, কেসরগঞ্জ)
➡2.(যজুর্বেদ -৩১/৬)
तस्मा॑द्य॒ज्ञात् स॑र्व॒हुतः॒ सम्भृ॑तं पृषदा॒ज्यम्।
प॒शूँस्ताँश्च॑क्रे वाय॒व्या᳖नार॒ण्या ग्रा॒म्याश्च॒ ये ॥६ ॥
তস্মাদ্যজ্ঞাত্ সর্বহুতঃ সম্ভৃতং পৃষদাজ্যম্।
পশুংস্তাংশ্চক্রে বায়ব্যানারণ্যা গ্রাম্যাশ্চ যে।। (যজুর্বেদ-৩১/৬)
পদার্থঃ- হে মনুষ্য! (তস্মাত্) সেই পূর্বোক্ত (সর্বহুতঃ) যিনি সর্বাধিক গ্রহণযোগ্য সেই (যজ্ঞাত্) পূজনীয় পুরুষ পরমাত্মা থেকে সকল (পৃষদাজ্যম্) ব্যবহারযোগ্য বস্তু (সম্ভৃতম্) সম্যক্ সিদ্ধ উৎপন্ন হয়েছে (যে) যে (আরণ্যাঃ) বনের সিংহ আদি (চ) আর (গ্রাম্যাঃ) গ্রামে জন্মিত গৌ আদি রয়েছে (তান্) সেগুলো (বায়ব্যান্) বায়ু তুল্য গুণযুক্ত (পশুন্) পশুদের যিনি (চক্রে) উৎপন্ন করেন, তাঁহাকে তোমরা জানো।
ভাবার্থঃ- যিনি সকলের গ্রহণ করার যোগ্য, পূজনীয় পরমেশ্বর - সারা বিশ্বের কল্যাণের জন্য দই আদি ভোজন যোগ্য পদার্থ আর গ্রামের তথা বনের পশু বানিয়েছেন, সকলে তাঁহার উপাসনা করো।
ভাষ্যকারঃ ঋষি দয়ানন্দ সরস্বতী
প্রকাশকঃ শ্রদ্ধানন্দ অনুসন্ধান প্রকাশন কেন্দ্র
➡3.(মনুস্মৃতি-১/১-৩ এবং ৮/৪১৩-৪১৫)
मनुं एकाग्रं आसीनं अभिगम्य महर्षयः।
प्रतिपूज्य यथान्यायं इदं वचनं अब्रुवन् । ।1/1
মনুং একাগ্রং আসীনং অভিগম্য মহর্ষয়ঃ।
প্রতিপুজ্য যথান্যায়ং ইদং বচনং অব্রুবন্।। (মনুস্মৃতি- ১/১)
পদার্থঃ- (মহর্ষয়ঃ) মহর্ষিগন (একাগ্রম্ আসীনম্) একাগ্রপূর্বক বসে থাকা (মনুম্) মনুর (অভিগম্য) নিকটে গিয়ে, তাদের (যথান্যায়ম্) যথোচিত (প্রতিপূজ্য) প্রণাম করে (ইদম্) এই কথা (অব্রুবন্) জিজ্ঞেস করেন।
ভাবার্থঃ- মহর্ষি মনু একাগ্রচিত্তে বসে, ঈশ্বরের চিন্তন করছিলেন, সেই সময় অনেকজন ঋষি আর্য আসলেন তারপর পরস্পর অভিবাদন সেরে জানার উদ্দেশ্যে ঋষি আর্যগন মহর্ষি মনুকে জিজ্ঞাসা শুরু করলেন।
भगवन्सर्ववर्णानां यथावदनुपूर्वशः।
अन्तरप्रभवानां च धर्मान्नो वक्तुं अर्हसि । ।1/2
ভগবনসর্ববর্ণানাং যথাবদনুপুর্বশঃ।
অন্তরপ্রভবানাং চ ধর্মান্নো বক্তুং অর্হসি।। (মনুস্মৃতি-১/২)
পদার্থঃ- (ভগবন্) হে ভগবান! আপনি (সর্ববর্ণানাম্) সমস্ত বর্নের (যথাবত্) সঠিকভাবে (অনুপূর্বশঃ) ক্রমানুসারে (অন্তরপ্রভবাণাম্ চ) এবং সমস্ত বর্নের মধ্যে থাকা বর্নাশ্রমের (ধর্মান) কর্তব্য সম্পর্কে (নঃ) আমাদের (বক্তুম্) বলার (অর্হসি) সামর্থবান।
ভাবার্থঃ- হে ভগবান মনু আপনি বর্ণ অর্থাৎ - ব্রাহ্মণ, ক্ষত্রিয়,বৈশ্য,শূদ্র সম্পর্কে এবং এই চার বর্নের মধ্যে থাকা বর্ণাশ্রম অর্থাৎ - ব্রহ্মচর্য, গৃহস্থ,বানপ্রস্থ ও সন্যাসের কর্তব্য সম্পর্কে আমাদেরকে যথাযথ বলুন।
त्वं एको ह्यस्य सर्वस्य विधानस्य स्वयंभुवः।
अचिन्त्यस्याप्रमेयस्य कार्यतत्त्वार्थवित्प्रभो । ।1/3
ত্বং একো হ্যাস্য সর্বস্য বিধানস্য স্বয়ংভুবঃ।
অচিন্ত্যস্যাপ্রমেযস্য কার্যতক্ত্বার্থবিতপ্রভো। (মনুস্মৃতি- ১/৩)
পদার্থঃ- (প্রভো) হে প্রভু (ত্বম একঃ হি) কেবল আপনি (অস্ত্য সর্বস্য বিধানস্য) এই সব বেদ শাস্ত্রের বিধান সম্পর্কে (স্বয়ংভুবঃ) ঈশ্বর প্রদত্ত যা অপৌরুষেয় (অচিন্তস্য) সত্য, যুক্তিযুক্ত যা ভাবনার বাহিরে (অপ্রমেয়স্য) যেথায় সব অর্থাৎ অপরিমিত সত্য বিদ্যার বিধান রয়েছে (কার্যতক্ত্বার্থবিত) ব্যবহারিক তথ্য সম্পর্কে জানেন।
ভাবার্থঃ- হে প্রভু - অপৌরুষেয়, অনাদি বেদে যে কর্মের অর্থাৎ যজ্ঞাদি কার্য্য ও ব্রহ্মতত্ত্ব সম্পর্কে যা বর্ননা করা হয়েছে , তার যথার্থ ভাব কেবল আপনি জানেন। আমরাও তা সম্পর্কে অবগত হতে চাই।
📚মনুস্মৃতি- ৮/৪১০ থেকে ৪২০ পর্যন্ত প্রক্ষিপ্ত, আর তা কেন প্রক্ষিপ্ত বিশুদ্ধ মনুস্মৃতিতে খুব সুন্দর করে উপস্থাপন করা হয়েছে। যারা হিন্দি জানেন পড়ে নিন -
মনুস্মৃতি- ৯/৯২-৯৫ পর্যন্ত প্রক্ষিপ্ত। বিস্তারিত
ये चार (9/92-95) श्लोक निम्नलिखित कारणों से प्रक्षिप्त है—
1. विषयविरोध- मनु के (9/1, 103) में विषय का निर्देश करने वाले श्लोकों से स्पष्ट है कि प्रस्तुत विषय स्त्री-पुरुषों के संयोग-वियोगकालीन धर्मों के कथन का है । किन्तु स्वयंवर विवाह करने वाली कन्या का पिता, माता तथा भाई के धन को लेने पर चोर के समान दोष (92) ऋतुमती कन्या का हरण= लेने वाला पिता को शुल्क न देवें (93) विवाह की वर-वधू की आयु का निर्धारण (94) इत्यादि बातों का वर्णन प्रस्तुत विषय़ से भिन्न होने से विषय़-विरुद्ध है ।
2. अन्तर्विरोध- (क) मनु ने स्वयंवर-विवाह का ही विधान किया है और विवाह में माता-पिता आदि कन्या को अलंकारादि से भूषित करे, यह मनु ने (3/55,59) में विधान किया है किन्तु इस 9/92 में पितृ-ग्रह से मिलने वाले आभूषणों को लेने वाली कन्या को चोर कहना पूर्वोक्त विधान से विरुद्ध है ।
(ख) 93-94 श्लोकों में विवाह के लिये वर-वधू की आयु का निर्धारण मनु के विधान से विपरीत है । इन श्लोकों में कन्या के ऋतुमती होने पर पिता का स्वामित्व समाप्त होना माना है, परन्तु 9/90 श्लोक में मनु ने ऋतुमती होने के बाद तीन वर्ष तक विवाह का निषेध किया है और विवाह की आयु वर की 30 वर्ष और कन्या की 12 वर्ष, वर की 24 वर्ष और कन्या की आठ वर्ष मनु के (3/1-2) विधान से विरुद्ध है । मनु ने (4/1) में आयु के द्वितीय भाग को विवाह के लिये लिखा है । अतः वर-वधू का युवावस्था में विवाह करना चाहिये । 8 अथवा 12 वर्ष की कन्या युवति नहीं होती । ऋतुमती होने के तीन वर्ष बाद कन्या के विवाह का विधान किया है । (9/90) । अतः कन्या के विवाह की आयु का निर्धारण इन श्लोकों में मनु की मान्यता से विरुद्ध है
মনুস্মৃতি- ৮/৪১০-৪২০ পর্যন্ত শ্লোক প্রক্ষিপ্ত। কেন প্রক্ষিপ্ত তা নিম্নে উদ্ধৃত করা হলো, বিশুদ্ধ মনুস্মৃতি- থেকে।
ये ग्यारह (८।४१०-४२०) श्लोक निम्नलिखित कारणों से प्रक्षिप्त हैं -
१. प्रसंग - विरोध - मनु ने ८।४ - ८ श्लोकों में अष्टम - नवम अध्यायों के विषयों का निर्देश किया है । तदनुसार १८ विवादों का निर्णय ही प्रसंगानुकूल है । और इन विवादों की समाप्ति ९।२५० में होती है । किन्तु इन विवादों के निर्णय से पूर्व ही ८।४२० में व्यवहारों की समाप्ति तथा उनके फल का कथन करना असंगत है ।
२. विषय - विरोध - मनु द्वारा निर्धारित (८।४-८ में) विषयों से बाह्य होने के कारण ये श्लोक विषयविरूद्ध हैं । क्यों कि विषय निर्देश के अनुसार १८ व्यवहारों का ही वर्णन होना चाहिए । किन्तु इनमें चारों वर्णों के अपूर्ण कर्मों का (४१० में) क्षत्रिय और वैश्य की आजीविका स्वकर्मों से न हो रही हो तो ब्राह्मण उनका पोषण करे (४११ में) शूद्र को दास्यवृत्ति के लिए बनाना (४१३ - ४१४) में दास योनियों का वर्णन (४१५ में) स्त्री, पुत्र तथा दास को धन के अयोग्य कहना (४१६ में) शूद्र के धन को ब्राह्मण द्वारा लेना (४१७ में) वैश्य शूद्र के स्वकर्म न करने पर जगत् की स्थिति का वर्णन (४१८ में) और (४१९ - ४२० में) राजा के कत्र्तव्यों का वर्णन करना विषयविरूद्ध होने से प्रक्षिप्त है ।
३. अन्तर्विरोध - (क) ४१२ - ४१६ श्लोकों में दासप्रथा का उल्लेख और उनसे बलात् काम कराने का विधान मनु - सम्मत नहीं है । मनु की वर्णव्यवस्था में दास का कोई अस्तित्व ही नहीं है । मनु ने शूद्र को भी स्वेच्छा से द्विजों की सेवा कार्य का अधिकार दिया है । इस विषय में १।९१, ९।३३४ - ३३५, १०।९९ ये श्लोक द्रष्टव्य हैं ।
(ख) और ४१३ श्लोक में क्रीत - दास को भी शूद्र लिखा है । क्रीत - दास की प्रथा बहुत ही परवत्र्ती समय की है । मनु के विधान में ऐसी कहीं व्यवस्था नहीं है । जन्मना वर्णव्यवस्था के प्रचलित होने पर किसी ने शूद्रों की हीन भावना के कारण इन श्लोकों का मिश्रण किया है । ४१४ श्लोक में शूद्र का दासत्व निसर्गज - स्वाभाविक कहकर जन्मना वर्णव्यवस्था की ही पुष्टि की है । किन्तु यह मनु - सम्मत विधान नहीं है ।
(ग) ४१५ श्लोक में सात प्रकार के दासों का परिगणन किया है । जिनमें पैतृकदास - पिता की परम्परा से बना हुआ । दण्डजदास - ऋणादि न चुकाने के कारण दास बना हुआ, गृहजः - दासी से उत्पन्न दास इत्यादि बातें मुस्लिम - कालीन युग के प्रभाव के कारण प्रक्षेप हुई हैं ।
(घ) और ४१६ में स्त्रियों को धन का अधिकार ही नहीं दिया है । यह भी शूद्र की भांति स्त्री - जाति के प्रति हीनभावना ही प्रकट की है । मनु ने भार्या को गृहस्वामिनी, सम्राज्ञी आदि शब्दों से सम्मानित किया है जिसे धन आदि का अधिकार ही नहीं हो, क्या वह गृहस्वामिनी या सम्राज्ञी कहला सकती हैं ? इत्यादि अन्तर्विरोधों के कारण ये श्लोक प्रक्षिप्त हैं ।
४. शैली - विरोध - इन श्लोकों की शैली पक्षपात, दुराग्रह एवं घृणायुक्त है । मुन की शैली समभाव एवं न्याययुक्त होती है । ४१७ में शूद्र के धन पर ब्राह्मण का बिना किसी कारण के अधिकार बताना और ४१२ श्लोक में द्विजों से भी ब्राह्मण की दासता कराना पक्षपातपूर्ण ही है । और (४१३ श्लोक में) ‘ब्राह्मणस्य स्वयंभुवा’ इस वाक्य से स्पष्ट है कि प्रक्षेप करने वाले ने अपने श्लोकों को ब्रह्मा के नाम से प्रामाणिक कराने की चेष्टा की है । और इस शास्त्र को ब्रह्मा से प्रोक्त माना है । यह वस्तुतः असत्य कल्पना मात्र है । अतः मनु के शैली के न होने से ये श्लोक प्रक्षिप्त हैं ।
সাথে একটি গ্রন্থের পিডিএফ দেওয়া হলো যেটা পড়লে মনুস্মৃতি- সম্পর্কে ধারণা নিতে পারবেন।
বিষয়টা হলো শূদ্র নিয়ে। শূদ্র শব্দের অনেক অর্থ হয় যেমন বৈদিক কোষে এর কয়েকটি অর্থ পাওয়া যায়।
শূদ্র = ১.শূদ্রবর্ণ ২.দ্রুত গতিতে যিনি যান ৩.শ্রমশীল পুরুষ। (আরও একটা অর্থ হলো বিদ্যাহীন)
এখানে শূদ্র বর্ণ নিয়েই মতবিরোধ। এ নিয়ে যে কেবল এই কুলাঙ্গার দাঙ্গাবাজ হুজুর বলেছে তা নয়, নামদ্বারি ব্রাহ্মণরাও বলে। বর্ণ বিষয় নিয়ে বিস্তারিত বলতে গেলে অনেক লিখা যাবে কিন্তু আমি শূদ্র বিষয় নিয়ে কিছু ধারণা দিতেছি আর তাছাড়া মুসলিম হুজুর গীতা থেকে যে রেফারেন্স দিয়েছে তারমধ্যেও কর্মানুযায়ী বর্ণ উল্লেখ করা হয়েছে।
শূদ্র কাকে বলে এবং কি তাদের কর্ম?
एकं एव तु शूद्रस्य प्रभुः कर्म समादिशत्।
एतेषां एव वर्णानां शुश्रूषां अनसूयया । ।1/91
এতমেব তু শূদ্রস্য প্রভুঃ কর্ম সমাদিশৎ।
এতেষামেব বর্ণানাং শুশ্রূষামনসূয়য়া।। (মনুস্মৃতি-১/৯১)
পদার্থ+ভাবার্থঃ- (প্রভুঃ) পরমেশ্বর (শূদ্রস্য) যে বিদ্যাহীন - যাহার পড়া লেখা দ্বারা বিদ্যা অর্জন হয় না, শরীর পুষ্ট, সেবায় কুশলি সেই শূদ্রের জন্য (এতেষামেব) এই ব্রাহ্মণ, ক্ষত্রিয়, বৈশ্য, এই তিন বর্ণের (অনসূয়য়া) নিন্দারহিত প্রীতি দ্বারা (শুশ্রূষাম্) সেবা করা (একমেব কর্ম) এই এক কর্ম (সমাদিশত্) করার আজ্ঞা দিয়েছেন।
অর্থাৎ এই কর্ম যে করেন তাঁকেই শূদ্র বলা হয়।
শূদ্র কি ব্রাহ্মণ হতে পারে? ব্রাহ্মণ কি শূদ্র হয়?
উত্তরঃ- হ্যাঁ অবশ্যই , যে যেমন গুণ ধারণ করবে সে সেই বর্নের অন্তর্গত হবে। এ বিষয়ে মনুস্মৃতিতে বলা হয়েছেঃ –
शूद्रो ब्राह्मणतां एति ब्राह्मणश्चैति शूद्रताम्।
क्षत्रियाज्जातं एवं तु विद्याद्वैश्यात्तथैव च ।।10/65
শূদ্রো ব্রাহ্মণতামেতি ব্রাহ্মণশ্চৈতি শূদ্রতাম্।
ক্ষত্রিয়াজ্জাতমেবং তু বিদ্যাদ্বৈশ্যাত্তথৈব চ।। (মনুস্মৃতি- ১০/৬৫)
পদার্থ+ভাবার্থঃ— (শূদ্রঃ ব্রাহ্মণতাম্ + এতি) শূদ্র ব্রাহ্মণ (চ) আর (ব্রাহ্মণঃ শূদ্রতাম্ + এতি) ব্রাহ্মণ শূদ্র হয়ে যায় অর্থাৎ গুণ কর্ম অনুসারে যদি ব্রাহ্মণ হয় তো ব্রাহ্মণ থাকে তথা যে ব্রাহ্মণ ক্ষত্রিয়, বৈশ্য, শূদ্রের গুণ ধারণ করে সে ক্ষত্রিয়, বৈশ্য, শূদ্র হয়ে যায়। তেমনি শূদ্রও যদি মূঢ় হয় তো সে শূদ্রই রয় যদি উত্তম গুণযুক্ত হয় তো যথাযোগ্য ব্রাহ্মণ, ক্ষত্রিয়, বৈশ্য হয়ে যায়। (ক্ষত্রিয়াত্ জানম্ + এবং তু তথৈব বৈশ্যাত্ বিদ্যাত্) তেমনিই ক্ষত্রিয় এবং বৈশ্যের বিষয়কেও জেনো।
সনাতন ধর্মাবলম্বী সকলেই আর্য, আর আর্যদের ব্যবহার সম্পর্কে বলা হয়েছে —
अनार्यता निष्ठुरता क्रूरता निष्क्रियात्मता।
पुरुषं व्यञ्जयन्तीह लोके कलुषयोनिजम् ।।10/58
অনার্যতা নিষ্ঠুরতা ক্রূরতা নিষ্ক্রিয়াত্মতা।
পুরুষং ব্যঞ্জয়ন্তীহ লোকে কলুষযোনিজম্।। ১০/৫৮
পদার্থ+ভাবার্থঃ— (অনার্যতা) অশ্রেষ্ঠ ব্যবহার (নিষ্ঠুরতা) কঠোরতা স্বভাব (ক্রূরতা) নির্দয়তা (নিষ্ক্রিয়াত্মতা) ধার্মিক ক্রিয়ার [যজ্ঞ আদির] প্রতি উপেক্ষাভাব = না করার ভাবনা, এই লক্ষণ (লোকে) লোকে (পুরুষং কলুষযোনিজম্ ব্যঞ্জয়ন্তীহ) পুরুষকে দুষ্টপ্রভৃতি বা অনার্য হওয়ার ইঙ্গিত করে, কারণ তা আর্য অন্তর্গত নয় ,কেননা এ আর্যদের জন্য নিষিদ্ধ।
এরপর আর কোন প্রশ্নই থাকতে পারেনা শূদ্র নিয়ে।
মনুস্মৃতির ভাষ্যকারঃ ডাঃ সুরেন্দ্র কুমার আচার্য
প্রকাশকঃ আর্য সাহিত্য প্রচার ট্রষ্ট
➡4.(ঋগ্বেদ-৬/২৭/৮)
द्वयाँ अग्ने रथिनो विंशतिं गा वधूमन्तो मघवा मह्यं सम्राट्। अभ्यावर्ती चायमानो ददाति दूणाशेयं दक्षिणा पार्थवानाम् ॥८॥
দ্বয়াং অগ্নে রথিনো বিংশন্তি গা বধুমন্তো মঘবা মহ্যং সম্রাট্।
অভ্যাবর্তী চায়মানো দদাতি দূণাশেয়ং দক্ষিণা পার্থবানাম্।। (ঋগ্বেদ-৬/২৭/৮)
পদার্থঃ- হে (অগ্নে) অগ্নিসম বর্ত্তমান! যে (বধুমন্তঃ) শ্রেষ্ঠ বধূ আর (রথিনঃ) শ্রেষ্ঠ রথ যাঁহার হবে (দ্বয়ান্) প্রজা আর সৈন্যদের (মধবা) প্রসংশিত ধনশালী (সম্রাট্) উত্তম প্রকারে শোভিত আর (অথ্যাবর্তী) চারো দিকে বিজয় বর্তমান (চায়মানঃ) সম্মানিত হোন আপনি (বিংশতিম্) বিংশ (গাঃ) গৌকে যেভাবে (দদাতি) আপনি দিয়ে থাকেন (মদ্যম্) আমার জন্য যে (পার্থবানাম্) রাজাদের (ইয়ম্) এই (দুণাশা) দুর্লভ নাশ যাহার এমন (দক্ষিণা) দক্ষিণা আপনাকে দেওয়া হয়েছে, তা দ্বারা তাঁকে প্রসন্ন করুন।
ভাবার্থঃ- যে রাজা কুলীন, বিদ্যা এবং ব্যাবহারে নিপুণ ধার্মিক রাজা আর প্রজাদেরকে ভয়রহিত করেন, সে অতুল প্রতিষ্ঠা প্রাপ্ত হয়।
[এই সুক্তে ইন্দ্র, ঈশ্বর, রাজা এবং প্রাজাদের গুণবর্ণন করায় এই সুক্তের অর্থ এর পূর্বোক্ত সুক্তের অর্থের সাথে সঙ্গতি জানা প্রয়োজন বা উচিত)
ভাষ্যকারঃ ঋষি দয়ানন্দ সরস্বতী
প্রকাশকঃ শ্রদ্ধানন্দ অনুসন্ধান প্রকাশন কেন্দ্র
➡5.(মনুস্মৃতি-৩/৫৩, ৯/৪, ৯/৯০-৯৪)
आर्षे गोमिथुनं शुल्कं केचिदाहुर्मृषैव तत्।
अल्पोऽप्येवं महान्वापि विक्रयस्तावदेव सः 3/53
আর্ষ গৌমিথুনং শুক্লং কেচিদাহুমৃষৈব তত্।
অল্পোহ্যপ্যেবং মহান্ বাপি বিক্রয়স্তাদেব সঃ।। (মনুস্মৃতি- ৩/৫৩)
পদার্থ+ভাবার্থঃ- (কেচিত্) কিছু লোক (আর্ষ) আর্ষ বিবাহে (গৌমিথুনং শুল্কম্) এক জোড়া ষাঁড় শুল্ক নেওয়ার (আহুঃ) কথন করে (তত্) তা (মৃষা+এব) ভুল তথা মিথ্যা (অপি+এবম্) কেননা এই প্রকার (অল্পঃ+অপি বা মহান্) কিছু অথবা অধিক ধন লেনা-দেনা (সঃ তাবত্) সে অবশ্যই (বিক্রয়ঃ এব) বিক্রয়ের মতোই হয়ে যায়।
এখানে মেয়েদের দাসী কিংবা বেচাকেনার কথা দূরে থাক বরং যৌতুক নেওয়ার জন্য নিষেধ করা হয়েছে, বলদ হুজুরের উল্টো পাল্টা বলার স্বভাব।
कालेऽदाता पिता वाच्यो वाच्यश्चानुपयन्पतिः।
मृते भर्तरि पुत्रस्तु वाच्यो मातुररक्षिता ।।9/4
কালেহদাতা পিতা বাচ্যো বাচ্যশ্চানুপয়ন্ পতিঃ।
মৃতে ভর্তরি পুত্রস্তু বাচ্যো মাতুররক্ষিতা।। (মনুস্মৃতি- ৯/৪)
পদার্থ+ ভাবার্থঃ- (কালে) বিবাহযোগ্য অবস্থায় (অদাতা) কন্যাকে যিনি দেয় না অর্থাৎ বিবাহ দেয় না সে (পিতা বাচ্যঃ) পিতা নিন্দনীয় হয় (চ) আর (অনুপয়ন্ পতিঃ) [বিবাহ-পশ্চাৎ ঋতুদিনের অনন্তর] যে পতি স্ত্রীর সহিত সঙ্গম করে না সে নিন্দনীয় হয় (ভর্তরি মৃতে) পতির মৃত্যুর পর (মাতুঃ+অরক্ষিতা পুত্রঃ বাচ্যঃ) যে পুত্র মায়ের [ভরণপোষণ আদি দ্বারা] রক্ষা করে না সে নিন্দনীয় হয়।
त्रीणि वर्षाण्युदीक्षेत कुमार्यृतुमती सती।
ऊर्ध्वं तु कालादेतस्माद्विन्देत सदृशं पतिम् ।।9/90
ত্রীণি বর্ষাণ্যুদীক্ষেত কুমার্য্যৃতুমতী সতী।
ঊদ্ধন্ত কালাদেতস্মাদ্বিন্দেত সদৃশং পতিম্।। (মনুস্মৃতি- ৯/৯০)
পদার্থ+ভাবার্থঃ- (কুমারী) কন্যা (ঋতুমতী সতী) ঋতুস্রাবের পর (এতস্মাত্ কালাত্+ঊর্ধ্বম্) এই সময়ের পরে (ত্রীণি বর্ষাণি+উদীক্ষেত) তিন বর্ষ পর্যন্ত বিবাহের প্রতিক্ষা করে, তদনন্তর (সদৃশং পতি বিন্দেত) নিজ যোগ্য পতি বরণ করবে।
এই শ্লোকে মেয়েদের বেচাকেনা কিংবা দাসী বানানোর কথা নেই বরং মেয়েদেরকে বলা হচ্ছে নিজ যোগ্য পতি বরণ করার জন্য।
अदीयमाना भर्तारमधिगच्छेद् यदि स्वयम्।
नैनः किञ्चिदवाप्नोति न च यं साधिगच्छति ।।9/91
অদীয়মানা ভর্তারমধিগচ্ছেদ্ যদি স্বয়ম্।
নৈনঃ কিঞ্চিদবাপ্নোতি ন চ যং সাধিগচ্ছতি।। (মনুস্মৃতি- ৯/৯১)
পদার্থ+ভাবার্থঃ- (অদীয়মানা) পিতা আদি অভিভাবক দ্বারা বিবাহ না করে (যদি স্বয়ম্ ভর্তারম্+অধিগচ্ছেদ্) কন্যা যদি স্বয়ং পতিকে বরণ করে নেয় তাহলে (কিচিত্ এনঃ ন অবাপ্নোতি) সেই কন্যা কোন পাপের ভাগী হয় না (চ) আর (ন সা যম্ অধিগচ্ছতি) না তাহার কোন পাপ দোষ হয় যে পতিকে সে বরণ করে।
এখানে মুসলিম কুলাঙ্গার হুজুর দাস দাসীর মেয়ে বেচা কেনার কি পেলো? গুজবী হুজুর।
মনুস্মৃতি- ৯/৯২-৯৫ পর্যন্ত প্রক্ষিপ্ত কারণ। কেন প্রক্ষিপ্ত বিস্তারিত জানতে -
কিন্তু এই প্রক্ষিপ্ত শ্লোকেও দাস দাসী কিংবা মেয়ে বেচাকেনার কথন নেই।
৯/৯২ শ্লোকে লিখা হয়েছে যে মেয়েরা যদি নিজের মতো করে পতি বরণ করে তাহলে পিতার দেয়া এবং ভ্রাতার দেওয়া আভূষণ নিবেনা যদি নেয় তাহলে সে চোর এর মতো। কিন্তু এই শ্লোকও প্রক্ষিপ্ত।
৯/৯৩ শ্লোকেও দাস দাসী বেচাকেনার কথন নেই, যৌতুক বিষয়ক কথন রয়েছে তাও প্রক্ষিপ্ত। কেননা ৩/৫২ শ্লোকে বলেছেন স্ত্রীর ধন ভোগ করা পাপ।
৯/৯৪ শ্লোকে বলা হয়েছে বিবাহের বয়স নিয়ে যা কিনা বাল্যবিবাহের পর্যায়। আর সংস্কারবিধিতে ঋষি দয়ানন্দ উল্লেখ করেছেন মেয়ের বয়স কমপক্ষে ১৬ এবং ছেলের বয়স ২৫ আর এই বয়সে বিবাহ করাও অধম। আরও বেশি হলে ভালো।
➡6.(গীতা-১৮/৪১-৪৪, ১৮/৪৭, ৩/৩৫)
ব্রাহ্মণক্ষত্রিয়বিশাং শূদ্রাণাং চ পরংতপ৷
কর্মাণি প্রবিভক্তানি স্বভাবপ্রভবৈর্গুণৈঃ৷৷ (গীতা-১৮/৪১)
অনুবাদঃ- হে পরন্তপ, ব্রাহ্মণ, ক্ষত্রিয়, বৈশ্য ও শুদ্রদিগের কর্মসকল স্বভাবজাত গুণানুসারে বিভক্ত হইয়াছে।
শমো দমস্তপঃ শৌচং ক্ষান্তিরার্জবমেব চ৷
জ্ঞানং বিজ্ঞানমাস্তিক্যং ব্রহ্মকর্ম স্বভাবজম্৷৷ (গীতা-১৮/৪২)
অনুবাদঃ- শম, দম, তপ, শৌচ, ক্ষমা,সরলতা, জ্ঞান, বিজ্ঞান ও সাত্ত্বিকী শ্রদ্ধা এই সমস্ত ব্রাহ্মণের স্বভাবজাত কর্ম। (লক্ষণ)
শৌর্যং তেজো ধৃতির্দাক্ষ্যং যুদ্ধে চাপ্যপলায়নম্৷
দানমীশ্বরভাবশ্চ ক্ষাত্রং কর্ম স্বভাবজম্৷৷ (গীতা-১৮/৪৩)
অনুবাদঃ- পরাক্রম, তেজ, ধৈর্য, কার্যকুশলতা, যুদ্ধে অপরাঙ্মুখতা, দানে মুক্তহস্ততা, শাসন-ক্ষমতা এইগুলি ক্ষত্রিয়ের স্বভাবজাত কর্ম । (লক্ষণ)
কৃষিগৌরক্ষ্যবাণিজ্যং বৈশ্যকর্ম স্বভাবজম্৷
পরিচর্যাত্মকং কর্ম শূদ্রস্যাপি স্বভাবজম্৷৷৪৪
অনুবাদঃ- কৃষি, গোরক্ষা ও বাণিজ্য বৈশ্যেদিগের এবং সেবাত্বক কর্ম শুদ্রদিগের স্বভাবজাত কর্ম।
[ যে ভাষ্যকারের ভাষ্য ব্যবহার করা হয়েছে তাঁদের নাম একত্রে দেওয়া হলো-
ঋগ্বেদ – ব্রহ্মমুনি পরিব্রাজক
মনুস্মৃতি- সুরেন্দ্রকুমার আচার্য
ঋগ্বেদ- ঋষি দয়ানন্দ
মনুস্মৃতি- সুরেন্দ্রকুমার আচার্য
গীতা— জগদীশ চন্দ্র ঘোষ ]
➡এবার আসুন ইসলামে মেয়েদের সম্মান এবং দাসী লীলা। কুলাঙ্গার হুজুর বলেছে ইসলামে তা নেই এবং সনাতন ধর্মে রয়েছে। তারজন্যই এই লেখনী।
প্রথমেই দেখে নিন দাসী নিয়ে কি বলছেন ইসলামের হুজুর https://www.facebook.com/101844401296683/posts/190433009104488/
বুখারী শরীফ
চতুর্থ খণ্ড (ইসলামি ফাউন্ডেশন বাংলাদেশ)
হাদিস নং ২০৮৮ (দাসীর সাথে যৌন সঙ্গম এবং দাসী বিক্রয়ের উল্লেখ)
আবূ সাঈদ খুদরী (রাঃ) হতে বর্ণিত যে, একদা তিনি নাবী সাল্লাল্লাহু আলাইহি ওয়াসাল্লাম -এর নিকট উপবিষ্ট ছিলেন, তখন তিনি বললেন, হে আল্লাহর রাসূল! আমরা বন্দী দাসীর সাথে সঙ্গত হই। কিন্তু আমরা তাদের (বিক্রয় করে) মূল্য হাসিল করতে চাই। এমতাবস্থায় আযল- (নিরুদ্ধ সঙ্গম করা) সম্পর্কে আপনি কী বলেন? তিনি বললেন, আর তোমরা কি এরূপ করে থাক! তোমরা যদি তা (আযল) না কর তাতে তোমাদের কোন ক্ষতি নেই। কারণ আল্লাহ তা‘আলা যে সন্তান জন্ম হওয়ার ফায়সালা করে রেখেছেন, তা অবশ্যই জন্ম গ্রহণ করবে।
হাদিস নং ২০৯১ (দাসী বিক্রির উল্লেখ)
যুহাইর ইবন হারব (র.)... যায়দ ইবন খালিদ ও আবু হুরায়রা (রা.) বলেন, রাসূলুল্লাহ্কে অবিবাহিত ব্যভিচারীণি দাসী সম্পর্কে জিজ্ঞাসা করা হলে তাঁকে বলতে শুনেছেন যে, ব্যভিচারিণীকে বেত্রাঘাত কর।সে আবার ব্যভিচার করলে আবার বেত্রাঘাত কর। এরপর তাকে বিক্রি করে দাও তৃতীয় বা চতুর্থবারের পর।
হাদিস নং ২০৯২ (দাসী এবং দাসী বিক্রির উল্লেখ)
আবদুল আযীয ইবন আবদুল্লাহ (র.)... আবু হুরায়রা (রা.) থেকে বর্ণিত, তিন বলেন, নবী করীমকে আমি বলতে শুনেছি, তোমাদের কোন দাসী ব্যভিচার করলে এবং তার ব্যভিচার প্রমাণিত হলে তাকে 'হদ' স্বরূপ বেত্রাঘাত করবে এবং তাকে ভৎর্সনা করবে না। এরপর যদি সে আবার ব্যভিচার করে তাকে 'হদ' হিসেবে বেত্রাঘাত করবে কিন্তু তাকে ভৎর্সনা করবে না। তারপর সে যদি তৃতীয়বার ব্যভিচার করে এবং তার ব্যভিচার প্রমাণিত হয় তবে তাকে বিক্রি করে দেবে, যদিও তা চুলের রশির (তুচ্ছ মূল্যের) বিনিময়েও হয়।
১৩৮৬ পরিচ্ছেদ.(দাসীর সাথে সহবাস এবং বিক্রির উল্লেখ)
ইসতিবরা অর্থাৎ জরায়ু গর্ভমুক্ত কি-না তা জানার পূর্বে বাঁদীকে নিয়ে সফর করা। হাসান (বাসরী) (র.) তাকে চুম্বন করা বা তার সাথে মিশামিশি করায় কোন দোষ মনে করেন না। ইবন উমর (রা.) বলেন সহবাসকৃত দাসীকে দান বা বিক্রি বা আযাদ করলে এক হায়য পর্যন্ত জরায়ু মুক্ত কি-না দেখতে হবে। কুমারীর বেলায় ইসতিবরার প্রয়োজন নেই। আতা (র.) বলেন (অপর কতৃক) গর্ভবতী নিজ দাসীকে যৌনাঙ্গ ব্যতীত ভোগ করতে পারবে। আল্লাহ তা'আলার বাণীঃ নিজেদের স্ত্রী অথবা অধিকারভুক্ত বাঁদী ব্যতীত, এতে তারা নিন্দীয় হবে না...। (২৩ঃ ৬)
➡ ২. ইসলাম ধর্মে নিজ স্ত্রী ব্যতীত ক্রীতদাসীর সাথেও যৌন সঙ্গম করার অধিকার দিয়েছে —
কোর'আন - সূরা ২৩ (আল মু'মিনুন) আয়াত নং ৬
إِلَّا عَلَى أَزْوَاجِهِمْ أوْ مَا مَلَكَتْ أَيْمَانُهُمْ فَإِنَّهُمْ غَيْرُ مَلُومِينَ
তবে তাদের স্ত্রী ও মালিকানাভুক্ত দাসীদের ক্ষেত্রে (যৌনাঙ্গ) সংযত না রাখলে তারা তিরস্কৃত হবে না।
➡কুরআন - সূরা ৩৩( আল আহযাব) আয়াত নং ৫০ এবং ৫১ —
يَا أَيُّهَا النَّبِيُّ إِنَّا أَحْلَلْنَا لَكَ أَزْوَاجَكَ اللَّاتِي آتَيْتَ أُجُورَهُنَّ وَمَا مَلَكَتْ يَمِينُكَ مِمَّا أَفَاء اللَّهُ عَلَيْكَ وَبَنَاتِ عَمِّكَ وَبَنَاتِ عَمَّاتِكَ وَبَنَاتِ خَالِكَ
وَبَنَاتِ خَالَاتِكَ اللَّاتِي هَاجَرْنَ مَعَكَ وَامْرَأَةً مُّؤْمِنَةً إِن وَهَبَتْ نَفْسَهَا لِلنَّبِيِّ إِنْ أَرَادَ النَّبِيُّ أَن يَسْتَنكِحَهَا خَالِصَةً لَّكَ مِن دُونِ الْمُؤْمِنِينَ
قَدْ عَلِمْنَا مَا فَرَضْنَا عَلَيْهِمْ فِي أَزْوَاجِهِمْ وَمَا مَلَكَتْ أَيْمَانُهُمْ لِكَيْلَا يَكُونَ عَلَيْكَ حَرَجٌ وَكَانَ اللَّهُ غَفُورًا رَّحِيمًا (50
হে নবী! আপনার জন্য আপনার স্ত্রীগণকে হালাল করেছি, যাদেরকে আপনি মোহরানা প্রদান করেন। আর দাসীদেরকে হালাল করেছি, যাদেরকে আল্লাহ আপনার করায়ত্ব করে দেন এবং বিবাহের জন্য বৈধ করেছি আপনার চাচাতো ভগ্নি, ফুফাতো ভগ্নি, মামাতো ভগ্নি, খালাতো ভগ্নিকে যারা আপনার সাথে হিজরত করেছে। কোন মুমিন নারী যদি নিজেকে নবীর কাছে সমর্পন করে, নবী তাকে বিবাহ করতে চাইলে সেও হালাল। এটা বিশেষ করে আপনারই জন্য-অন্য মুমিনদের জন্য নয়। আপনার অসুবিধা দূরীকরণের উদ্দেশে। মুমিনগণের স্ত্রী ও দাসীদের ব্যাপারে যা নির্ধারিত করেছি আমার জানা আছে। আল্লাহ ক্ষমাশীল, দয়ালু।
تُرْجِي مَن تَشَاء مِنْهُنَّ وَتُؤْوِي إِلَيْكَ مَن تَشَاء وَمَنِ ابْتَغَيْتَ مِمَّنْ عَزَلْتَ فَلَا جُنَاحَ عَلَيْكَ ذَلِكَ أَدْنَى أَن تَقَرَّ أَعْيُنُهُنَّ
وَلَا يَحْزَنَّ وَيَرْضَيْنَ بِمَا آتَيْتَهُنَّ كُلُّهُنَّ وَاللَّهُ يَعْلَمُ مَا فِي قُلُوبِكُمْ وَكَانَ اللَّهُ عَلِيمًا حَلِيمًا (51
আপনি তাদের মধ্যে যাকে ইচ্ছা দূরে রাখতে পারেন এবং যাকে ইচ্ছা কাছে রাখতে পারেন। আপনি যাকে দূরে রেখেছেন, তাকে কামনা করলে তাতে আপনার কোন দোষ নেই। এতে অধিক সম্ভাবনা আছে যে, তাদের চক্ষু শীতল থাকবে; তারা দুঃখ পাবে না এবং আপনি যা দেন, তাতে তারা সকলেই সন্তুষ্ট থাকবে। তোমাদের অন্তরে যা আছে, আল্লাহ জানেন। আল্লাহ সর্বজ্ঞ, সহনশীল।
📖 সনাতন ধর্মে, নিজ স্ত্রী ব্যতীত অন্য নারীদেরকে মায়ের মতো মান্য করাকেই যথার্থ বলা হয়েছে—
মাতৃবৎ পরদারাংশ্চ পরদ্রব্যাণি লোষ্ঠবৎ।
আত্মবৎ সর্বভূতানি যঃ পশ্যতি স পশ্যতি।। (চাণক্য নীতি - ১২/১৩)
অনুবাদঃ- যে ব্যক্তি [নিজ স্ত্রী ব্যতীত] অন্য নারীকে মাতার সমান দেখেন, [নিজ ধন ব্যতীত ] অন্যের ধনকে মাটির ঢেলার সমান মনে করেন, আর সংসারের সমস্ত প্রাণীকে নিজ আত্মার সমান দেখেন বাস্তবে সেই যথার্থ দেখেন।
নিজ স্ত্রী ব্যতীত অন্যের সাথে যৌন সঙ্গম করলে এর কঠিন শাস্তির বিধানও রয়েছে —
পুমাংসং দাহয়েৎ পাপং শয়নে তপ্ত আয়সে।
অথ্যাদধ্যুশ্চ কাষ্ঠানি তত্র দহ্যেত পাপকৃত্।। (বিশুদ্ধ, মনুস্মৃতি- ৮/৩৭২)
পদার্থঃ- (পাপং পুমাংসম্) নিজ স্ত্রীকে ছেড়ে পরস্ত্রী বা বেশ্যাগমন করে সেই পাপী কে (আয়সে তপ্ত শয়নে) উত্তপ্ত লোহার পালঙ্কে শায়িত করে (তত্র পাপকৃত্ দহ্যেত) বহু পুরুষের সম্মুখে ভস্ম করে দেবে।
অনুবাদঃ- নিজ স্ত্রীকে ছেড়ে পরস্ত্রী বা বেশ্যাগমন করে সেই পাপীকে উত্তপ্ত লোহার পালঙ্কে শায়িত করে বহু পুরুষের সম্মুখে ভস্ম করে দেবে অর্থাৎ অগ্নি দ্বারা পুড়িয়ে মারবে।
কিছুমাত্র দিলাম। আর হাদিস থেকে যেগুলো দিয়েছি সেগুলোর ছবিও দেওয়া হলো, কেননা ভিবিন্ন প্রকাশনি থেকে প্রকাশিতের ভিবিন্ন রেফারেন্স। গ্রন্থ থেকে দেখতে 👇👇👇👇https://m.facebook.com/story.php?story_fbid=190958515718604&id=101844401296683
এতকিছু লিখতে হলো কেবল ঐ কুলাঙ্গার, মিথ্যাবাদী হুজুরের এর জন্য।
(সংগৃহীতঃআর্য_কল্যাণ_ফাউন্ডেশন)

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অথর্ববেদ ২/১৩/৪

  ह्यश्मा॑न॒मा ति॒ष्ठाश्मा॑ भवतु ते त॒नूः। कृ॒ण्वन्तु॒ विश्वे॑ दे॒वा आयु॑ष्टे श॒रदः॑ श॒तम् ॥ ত্রহ্যশ্মানমা তিষ্ঠাশ্মা ভবতুতে তনূঃ। কৃণ্বন্তু...

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