वैदिकवैज्ञानिकआचार्यअग्निव्रतजीद्वाराकुंताप
सूक्तकाभाष्य
अथर्ववेद कांड 20, सूक्त 132, मंत्र संख्या 13, 14, 15, 16 का भाष्य वैदिक वैज्ञानिक आचार्य अग्निव्रत नैष्ठिक जी के द्वारा ईश्वर कृपा व अपनी दिव्य प्रतिभा व से हम सब मानवों के मध्य वैदिक विज्ञान को पुनर्स्थापित करने हेतु किया गया।
कुंताप सूक्त का अर्थ आज तक कोई नहीं कर पाया महर्षि दयानन्द का जल्द ही परलोकगमन होने की वजह से उन्हें इसका अर्थ करने का मौका नहीं मिला, जबकि सायण जैसे विद्वानों ने इसे छोडना ही उचित समझा। इसके आध्यात्मिक और सामान्य अर्थ तो किये गए लेकिन उनमे भी कुछ कमियां है।
त्रीण्युष्ट्रस्य नामानि ||13||
पदार्थ - (उष्ट्रस्य) प्रतापी [परमात्मा] के (त्रीणि) तीन (नामानि) नाम ॥१३॥
भावार्थ - परमात्मा अपने अनन्त गुण, कर्म, स्वभाव के कारण नामों की गणना में नहीं आ सकता है, जो मनुष्य उसके केवल “हिरण्य” आदि नाम बताते हैं, वे बालक के समान थोड़ी बुद्धिवाले हैं ॥
आर्यभाषा - पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी
टिप्पणी : पण्डित सेवकलाल कृष्णदास संशोधित पुस्तक में मन्त्र १३-१६ का पाठ इस प्रकार है ॥ त्रीण्युष्ट्र॑स्य॒ नामा॑नि ॥१३॥ (उष्ट्रस्य) प्रतापी [परमात्मा] के (त्रीणि) तीन (नामानि) नाम हैं ॥१३॥१३−(त्रीणि) त्रिसंख्याकानि (उष्ट्रस्य) उषिखनिभ्यां कित्। उ० ४।१६२। उष दाहे वधे च-ष्ट्रन् कित्। प्रतापिनः परमेश्वरस्य (नामानि) संज्ञाः ॥
हिरण्य इत्येके अब्रवीत ||14|-|অথর্ববেদ0 কান্ড২০ সূক্ত১৩২ মন্ত্র১৪
पदार्थ - (हिरण्यः) हिरण्य [तेजोमय], (वा) और (द्वौ) दो (नीलशिखण्डवाहनः) नीलशिखण्ड [नीलों निधियों वा निवास स्थानों का पहुँचानेवाला] तथा वाहन [सब का लेचलनेवाला] है, (इति) ऐसा (ये शिशवः) बालक हैं, (एके) वे कोई-कोई (अब्रवीत्) कहते हैं ॥
भावार्थ - परमात्मा अपने अनन्त गुण, कर्म, स्वभाव के कारण नामों की गणना में नहीं आ सकता है, जो मनुष्य उसके केवल “हिरण्य” आदि नाम बताते हैं, वे बालक के समान थोड़ी बुद्धिवाले हैं ॥
आर्यभाषा - पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी
टिप्पणी : पण्डित सेवकलाल कृष्णदास संशोधित पुस्तक में मन्त्र १३-१६ का पाठ इस प्रकार है ॥ हिर॑ण्य॒मित्येक॑मब्रवीत् ॥१४॥ (एकम्) एक (हिरण्यम्) हिरण्य [तेजोमय], (वा) और (द्वे) दो (यशः) यश [कीर्ति] तथा (शवः) बल है, (इति) ऐसा (अब्रवीत्) [वह, मनुष्य] कहता है ॥१४, १॥१४−(हिरण्यः) हिरण्यः=हिरण्यमयः-निरु० १०।२३। तेजोमयः (इति) एवम् (एके) केचित्। (अब्रवीत्) लडर्थे लङ्, बहुवचनस्यैकवचनम् अब्रुवन्। ब्रुवन्ति ॥
द्वौ वा ये शिशवः ||15||
पदार्थ - (हिरण्यः) हिरण्य [तेजोमय], (वा) और (द्वौ) दो (नीलशिखण्डवाहनः) नीलशिखण्ड [नीलों निधियों वा निवास स्थानों का पहुँचानेवाला] तथा वाहन [सब का लेचलनेवाला] है, (इति) ऐसा (ये शिशवः) बालक हैं, (एके) वे कोई कोई (अब्रवीत्) कहते हैं ॥
भावार्थ - परमात्मा अपने अनन्त गुण, कर्म, स्वभाव के कारण नामों की गणना में नहीं आ सकता है, जो मनुष्य उसके केवल “हिरण्य” आदि नाम बताते हैं, वे बालक के समान थोड़ी बुद्धिवाले हैं ॥
आर्यभाषा - पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी
टिप्पणी : पण्डित सेवकलाल कृष्णदास संशोधित पुस्तक में मन्त्र १३-१६ का पाठ इस प्रकार है ॥ द्वे वा॒ यशः॒ शवः॑ ॥१॥ (एकम्) एक (हिरण्यम्) हिरण्य [तेजोमय], (वा) और (द्वे) दो (यशः) यश [कीर्ति] तथा (शवः) बल है, (इति) ऐसा (अब्रवीत्) [वह, मनुष्य] कहता है ॥१४, १॥१−(द्वौ) (वा) समुच्चये (ये) (शिशवः) वासाः। बालसमानस्वबुद्धयः। (नीलशिखण्डवाहनः) नीलशिखण्डश्च वाहनश्च। [नीलशिखण्डः-अथ० २।२७।६] स्फायितञ्चिवञ्चि०। उ० २।१३। णीञ् प्रापणे-रक्, रस्य लः। यद्वा नि+इल अतौ-कः। अण्डन् कृसृभृवृञः। उ० १।२९। शिखि गतौ-अण्डन् कित्। नीलानां निधीनां यद्वा नीलानां नीडानां निवासानां शिखण्डः प्रापकः [वाहनः] वह प्रापणे-ल्यु स च णित्। वोढा। सर्ववहनशीलः परमेश्वरः ॥
नीलशिखण्डवाहनः ||16||
पदार्थ - (हिरण्यः) हिरण्य [तेजोमय], (वा) और (द्वौ) दो (नीलशिखण्डवाहनः) नीलशिखण्ड [नीलों निधियों वा निवास स्थानों का पहुँचानेवाला] तथा वाहन [सब का लेचलनेवाला] है, (इति) ऐसा (ये शिशवः) बालक हैं, (एके) वे कोई कोई (अब्रवीत्) कहते हैं ॥
भावार्थ -परमात्मा अपने अनन्त गुण, कर्म, स्वभाव के कारण नामों की गणना में नहीं आ सकता है, जो मनुष्य उसके केवल “हिरण्य” आदि नाम बताते हैं, वे बालक के समान थोड़ी बुद्धिवाले हैं ॥
आर्यभाषा - पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी
टिप्पणी : पण्डित सेवकलाल कृष्णदास संशोधित पुस्तक में मन्त्र १३-१६ का पाठ इस प्रकार है ॥ नील॑शिखण्डो वा हनत् ॥१६॥ (नीलशिखण्डः) नील शिखण्ड [नीलों निधियों वा निवास स्थानों का पहुँचानेवाला परमेश्वर] (वा) निश्चय करके (हनत्) व्यापक है [हन गतौ, गच्छति व्याप्नोति] ॥१६॥
वैदिक वैज्ञानिक आचार्य अग्निव्रत नैष्ठिक जी के अर्थ को देखने से पहले कुछ बेसिक बातें जान ली जाये, वेद ईश्वर का ज्ञान है, लेकिन वेद के मंत्र इस सृष्टि में विशेष प्रकार की छंद रश्मियों के रूप में सर्वत्र विद्यमान हैं, यह रश्मियां सूक्ष्म वाइब्रेटिंग entities होती है
सृष्टि की प्रत्येक क्रिया में इनका योगदान होता है | यह रश्मियां quarks जैसे particles से भी सूक्ष्म होती हैं।
इस मंत्र में सूर्य के केंद्र में होने वाली nuclear reaction में सूक्ष्म प्राण रश्मि के प्रभाव को दर्शाया गया है |
कुन्ताप
यह एक ऐसा सूक्ष्म प्राण है, जो वज्र रूप वा वज्र युक्त विकिरणों को और अधिक तपाता है। जो डार्क एनर्जी को नष्ट करती हैं, उन्हें Heat देता है और excite करता है अर्थात बलशाली और ऊष्ण बनाता है। तारों के अंदर होने वाली विभिन्न क्रियाएं, बिजली की क्रियाएं इसके प्रभाव को तीक्ष्ण बनाती हैं यह ऋषि का प्रभाव है।
इस मंत्र का देवता प्रजापति है, यानि इसका विषय प्रजापति है, अब प्रजापति क्या है?
स एष संवत्सरः प्रजापतिः (श.१४. ४. ३. २२.),
सर्वाणि छन्दांसि प्रजापतिः (श. ६.२.१.३०)
प्राणो हि प्रजापतिः (श.४.५. ५. १३ )
इसके दैवत प्रभाव से तारों के अंदर विभिन्न प्राण व छंद रश्मियाँ तपने व देदीप्यमान होने लगती है, जिससे तारों के अंदर उनके बलों में वृद्धि होने लगती है | अब मन्त्र के छंद का प्रभाव देखते हैं
इसका छंद दैवी जगती है इसके प्रभाव से विभिन्न देवों अर्थात प्राण व छंद रश्मियों के पारस्परिक संयोजन व वियोजन की प्रक्रियाएं समृद्ध होती है, ये रश्मियाँ तारों में दूर दूर तक व्याप्त होकर अपना प्रभाव दर्शाती है |
त्रीणि उष्ट्रस्य नामानि इसके सम्बन्ध में कुछ प्रमाण (उष्ट्रस्य) उष्ट्रः - ओजति दहतीति (उ.को. ४,१६३) ( उष दाहे - जलाना , उपभोग करना ,खपाना , पीटना , मार डालना - आप्टे संस्कृत हिंदी कोष ) अब इसका अर्थ देखते हैं |
तारों के अंदर विभिन्न प्राण व छंद आदि रश्मियां नाना प्रकार की EM waves और कणों को उत्तेजित और प्रेरित करते हुए ताड़ती है , इस से उनकी ऊर्जा में वृद्धि होती है | दूसरी तरफ उन कणों के संलयन में बाधक बनी असुर रश्मियों किंवा डार्क एनर्जी को ताड़ती है यानी नष्ट या नियंत्रित करती हैं।
ऐसी प्रक्रियाओं या उन्हें संचालित करने वाली रश्मियों को ही उष्ट्र कहा जाता है , ऐसी उष्ट्र संज्ञक रश्मियाँ तीन प्रकार की छंद रश्मियों के रूप में होती है। ये तीनों प्रकार की छंद रश्मियां अन्य छंद रश्मियों को नाना बाधाओं से पार लगाने में समर्थ होती है।
भावार्थ - तारों के अंदर तीन प्रकार की छंद रश्मियाँ अन्य छंद रश्मियों को प्रेरित करके ऊष्मा में वृद्धि करने के साथ डार्क एनर्जी आदि के दुष्प्रभावों को नष्ट करती है।
हिरण्य इत्येक अब्रवीत (एके) दूर दूर तक व्याप्त होने वाली { एका - एका इता संख्या -(नि. ३.१०.) , एति प्राप्नोतिति एकः (उ. को. ३. ४३ ) } एक छंद रश्मि तारे के अंदर दूर दूर तक व्याप्त होने वाली (हिरण्य) सुनहरे रंग वाली होती है।
{हिरण्यम - क्षत्रस्यैतद रूपं यद्धिरण्यम (श. १३. २. २. १७.) ज्योतिर्वै हिरण्यम ( तां. ६. ६. १०.) प्राण वै हिरण्यम (श. ७. ५. २. ८.) रेतो हिरण्यम ( तै. ब्रा। ३.८.२. ४.)
यह रश्मि तीक्ष्ण भेदक व आकर्षण बलों वाली होकर नाना प्राण रश्मियों को समृद्ध करके विभिन्न परमाणुओं के संलयन संयोजन के द्वारा नाना अणुओं के निर्माण का बीजारोपण करने वाली होती है इति अब्रवीत - वह ऐसी छंद रश्मि सर्वतः प्रकाशित व सक्रीय होती है।
भावार्थ - तारों के अंदर सुनहरे रंग की रश्मियाँ तारों में दूर तक व्याप्त होकर अपनी भेदन क्षमता के द्वारा डार्क एनर्जी को नष्ट वा नियंत्रित करके अपनी संयोजन क्षमता के द्वारा विभिन्न कणों के संलयन में सहयोग करती हैं।
तीन प्रकार की उष्ट्र रश्मियों में से एक का वर्णन ऊपर आ गया, अब उसी एक उपरोक्त रश्मि की ही तरह अन्य दो रश्मियां जो शिशु रूप होती है उनका वर्णन अगले मंत्र में है - "द्वौ वा ये शिशवः"
अन्य दो रश्मियाँ भी वज्ररूप कार्य करके असुर पदार्थ को नष्ट वा नियंत्रित करके उपरोक्त संयोजन वा संलयन कर्मों को समृद्ध करती है , ये अन्य दो रश्मियां (शिशवः) शिशु रूप होती है।
इस मंत्र में आये शिशु शब्द को प्रमाण { शिशुः - अयं वा शिशुर्यो अयं मध्यमः प्राणः (श. १४. ५. २. २.) मध्यम - त्रिष्टुप छंद इन्द्रो देवता मध्यम - श. (१०. ३. २. ५.) }
इंद्र देवता वाली दो त्रिष्टुप छंद रश्मियाँ होती है , ये रश्मियाँ तारों के अंदर विध्यमान पदार्थ को तीक्ष्ण व खंडित करती है |भावार्थ - उपरोक्त छंद रश्मि के अलावा दो त्रिष्टुप छंद रश्मियाँ डार्क एनर्जी को अपनी तीक्ष्णता से काटकर नष्ट व नियंत्रित करती तथा संयोज्य कणों को अपेक्षित ऊर्जा प्रदान करती है।
अब तक हमने उष्ट्र रश्मि के एक प्रकार के बारे में जाना है , उसी एक प्रकार जिसमे एक मुख्य और 2 शिशु रूप होती है , अब आगे के मंत्र में अन्य दो प्रकार की उष्ट्र रश्मियों का वर्णन है आगे के मंत्र में 2 अन्य प्रकार की रश्मियों का वर्णन है , इन पूर्व 2 शिशु रूप रश्मियों को तीक्ष्ण बनाने के लिए दो अन्य छंद रश्मियां उत्पन्न होती है |
नीलशिखण्डवाहनः शिखंडवाहनः -
{शिखण्ड - मोर की पूँछ(आप्टे कोष)} आचार्य पिंगल ने पक्ति छंद का रंग नीला बताया है | इसलिए दो अन्य रश्मियां जो उत्पन्न होती है वे है - नीलवाहन और शिखंडवाहन नीलवाहन एक पंक्ति रश्मि होती है , और शिखंडवाहन उष्णिक रश्मि होती है।
भावार्थ - पूर्व 2 शिशु रश्मियों को 1-1 करके पंक्ति व उष्णिक रश्मि वहन करती है इससे नीले और चितकबरे रंगों का प्राकट्य होता है,इसके साथ पूर्व 2 शिशु रश्मियों का लाल रंग भी प्रकट होता है, डार्क एनर्जी का प्रतिकर्षक प्रभाव शांत होकर कणों के संलयन की क्रिया में विशेष सहयोग मिलता है।
conclusion -जब किसी तारे के केंद्रीय भाग में नाभिकीय संलयन होता है तब वहां पर अनेकों बल कार्य करते हैं , डार्क एनर्जी यानि असुर ऊर्जा का कार्य यजन क्रिया यानि संयोग की क्रिया को रोकना होता है, इसलिए असुर ऊर्जा को रोककर ,संलयन को तीव्र करने वाली 3 प्रकार की रश्मियां होती है।
जिस तरह EM Force में डार्क एनर्जी के प्रभाव को नष्ट किये बिना संयोग नहीं हो पाता उसी तरह तारे के केंद्रीय भाग में असुर ऊर्जा को उष्ट्रसंज्ञक रश्मियां नष्ट करती है , यह यहाँ EM Force के वीडियो से समानता दर्शायी गयी है , न की यह प्रक्रिया पूरी तरह वैसी ही है |
Finally इस thread में कुंताप सूक्त के उन मन्त्रों का भाष्य अभी भी limit sense में दिया है , वैदिक विज्ञान की सभी terminology को समझे बिना इसे पूरी तरह समझना मुश्किल होगा।
जैसे पंक्ति रश्मि , त्रिष्टुप रश्मि, उष्णिक रश्मि , और इनके अनेकों प्रकार भी होते हैं जिन्हे समझे बिना इसे पूरा नहीं समझा जायेगा।
इन मन्त्रों का भाष्य वैदिक वैज्ञानिक आचार्य अग्निव्रत द्वारा ऐतरेय ब्राम्हण ग्रन्थ के 2800 पेज के वैज्ञानिक भाष्य वेद विज्ञान आलोक पुस्तक से बताया है , जिसमे पूरी Vedic theory of universe है |यह ग्रन्थ वर्तमान विज्ञानं की सभी गंभीर समस्याओं को वेदों से सुलझाने में सक्षम है |
आचार्य अग्निव्रत ने BHU वाराणसी की scientific conference में अपनी Theory Vedic Rashmi Theory present की थी , इस ग्रन्थ में आज के विज्ञान से 200 साल आगे का विज्ञान है
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