ঋগ্বেদ ৪র্থ মন্ডল ২৬ সূক্ত - ধর্ম্মতত্ত্ব

ধর্ম্মতত্ত্ব

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धर्म मानव मात्र का एक है, मानवों के धर्म अलग अलग नहीं होते-Theology

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24 November, 2020

ঋগ্বেদ ৪র্থ মন্ডল ২৬ সূক্ত

देवता: इन्द्र: ऋषि: वामदेवो गौतमः छन्द: पङ्क्तिः स्वर: पञ्चमः
अ॒हं मनु॑रभवं॒ सूर्य॑श्चा॒हं क॒क्षीवाँ॒ ऋषि॑रस्मि॒ विप्रः॑।
 अ॒हं कुत्स॑मार्जुने॒यं न्यृ॑ञ्जे॒ऽहं क॒विरु॒शना॒ पश्य॑ता मा ॥१॥
-ऋग्वेद0  मण्डल:4 सूक्त:26 मन्त्र:1 

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण
aham manur abhavaṁ sūryaś cāhaṁ kakṣīvām̐ ṛṣir asmi vipraḥ | ahaṁ kutsam ārjuneyaṁ ny ṛñje haṁ kavir uśanā paśyatā mā ||

पद पाठ
अ॒हम्। मनुः॑। अ॒भ॒व॒म्। सूर्यः॑। च॒। अ॒हम्। क॒क्षीवा॑न्। ऋषिः॑। अ॒स्मि॒। विप्रः॑। अ॒हम्। कुत्स॑म्। आ॒र्जु॒ने॒यम्। नि। ऋ॒ञ्जे॒। अ॒हम्। क॒विः। उ॒शना॑। पश्य॑त। मा॒ ॥१॥

पदार्थान्वयभाषाः -हे मनुष्यो ! जो (अहम्) मैं सृष्टि को करनेवाला ईश्वर (मनुः) विचार करने और विद्वान् के सदृश सम्पूर्ण विद्याओं का जनानेवाला (च) और (सूर्य्यः) सूर्य्य के सदृश सब का प्रकाशक (अभवम्) हूँ और (अहम्) मैं (कक्षीवान्) सम्पूर्ण सृष्टि की कक्षा अर्थात् परम्पराओं से युक्त (ऋषिः) मन्त्रों के अर्थ जाननेवाले के सदृश (विप्रः) बुद्धिमान् के सदृश सब पदार्थों को जाननेवाला (अस्मि) हूँ और (अहम्) मैं (आर्ज्जुनेयम्) सरल विद्वान् ने उत्पन्न किये हुए (कुत्सम्) वज्र को (नि) अत्यन्त (ऋञ्जे) सिद्ध करता हूँ और (अहम्) मैं (उशना) सब के हित की कामना करता हुआ (कविः) सम्पूर्ण शास्त्र को जाननेवाला विद्वान् हूँ, उस (मा) मुझको तुम (पश्यत) देखो ॥१॥
भावार्थभाषाः -इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। हे मनुष्यो ! जो जगदीश्वर मन्त्रियों अर्थात् विचार करनेवालों में विचार करने और प्रकाश करनेवालों का प्रकाशक, विद्वानों में विद्वान्, अखण्डित न्याययुक्त, सर्वज्ञ और सब का उपकारी है उस ही का विद्या, धर्म्माचरण और योगाऽभ्यास से प्रत्यक्ष करो ॥१॥
-स्वामी दयानन्द सरस्वती
अ॒हं भूमि॑मददा॒मार्या॑या॒हं वृ॒ष्टिं दा॒शुषे॒ मर्त्या॑य।
अ॒हम॒पो अ॑नयं वावशा॒ना मम॑ दे॒वासो॒ अनु॒ केत॑मायन् ॥२॥
-ऋग्वेद0  मण्डल:4 सूक्त:26 मन्त्र:2

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण
aham bhūmim adadām āryāyāhaṁ vṛṣṭiṁ dāśuṣe martyāya | aham apo anayaṁ vāvaśānā mama devāso anu ketam āyan ||

पद पाठ
अ॒हम्। भूमि॑म्। अ॒द॒दा॒म्। आर्या॑य। अ॒हम्। वृ॒ष्टिम्। दा॒शुषे॑। मर्त्या॑य। अ॒हम्। अ॒पः। अ॒न॒य॒म्। वा॒व॒शा॒नाः। मम॑। दे॒वासः॑। अनु॑। केत॑म्। आ॒य॒न् ॥२॥
पदार्थान्वयभाषाः -हे मनुष्यो ! जो (अहम्) सबका धारण करने और सब का उत्पन्न करनेवाला ईश्वर मैं (आर्य्याय) धर्म्मयुक्त गुण, कर्म्म और स्वभाववाले के लिये (भूमिम्) पृथिवी के राज्य को (अददाम्) देता हूँ (अहम्) मैं (दाशुषे) देनेवाले (मर्त्याय) मनुष्य के लिये (वृष्टिम्) वर्षा को (अनयम्) प्राप्त कराऊँ (अहम्) मैं (अपः) प्राणों वा पवनों को प्राप्त कराऊँ जिस (मम) मेरे (वावशानाः) कामना करते हुए (देवासः) विद्वान् लोग (केतम्) बुद्धि वा जनाने के लिये (अनु, आयन्) अनुकूल प्राप्त होते हैं, उस मुझको तुम सेवो ॥२॥
भावार्थभाषाः -हे मनुष्यो ! जो न्यायकारी स्वभाववाले के लिये भूमि का राज्य देता, सब के सुख के लिये वृष्टि करता और सब के जीवन के लिये वायु को प्रेरणा करता है और जिसके उपदेश के द्वारा विद्वान् होते हैं, उसी की निरन्तर उपासना करो ॥२॥
-स्वामी दयानन्द सरस्वती
अ॒हं पुरो॑ मन्दसा॒नो व्यै॑रं॒ नव॑ सा॒कं न॑व॒तीः शम्ब॑रस्य।
 श॒त॒त॒मं वे॒श्यं॑ स॒र्वता॑ता॒ दिवो॑दासमतिथि॒ग्वं यदाव॑म् ॥३॥
-ऋग्वेद0  मण्डल:4 सूक्त:26 मन्त्र:3

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण
aham puro mandasāno vy airaṁ nava sākaṁ navatīḥ śambarasya | śatatamaṁ veśyaṁ sarvatātā divodāsam atithigvaṁ yad āvam ||

पद पाठ
अ॒हम्। पुरः॑। म॒न्द॒सा॒नः। वि। ऐ॒र॒म्। नव॑। सा॒कम्। न॒व॒तीः। शम्ब॑रस्य। श॒त॒ऽत॒मम्। वे॒श्य॑म्। स॒र्वऽता॑ता। दिवः॑ऽदासम्। अ॒ति॒थि॒ग्वम्। यत्। आव॑म् ॥३॥
पदार्थान्वयभाषाः -हे मनुष्यो ! जो (मन्दसानः) आनन्दस्वरूप और आनन्द देनेवाला (अहम्) मैं जगदीश्वर (पुरः) प्रथम (शम्बरस्य) मेघ के (शततमम्) अत्यन्त असंख्यात (वेश्यम्) उत्तम वेशों अर्थात् प्रवेशों में उत्पन्न (नव, नवतीः) निन्नानवे पदार्थों को (साकम्) साथ (वि, ऐरम्) प्रेरणा करूँ (सर्वताता) सब में ही मिलने योग्य जगत् में (यत्) जिस (दिवोदासम्) विज्ञानस्वरूप प्रकाश के देनेवाले (अतिथिग्वम्) अतिथियों को प्राप्त हो वा प्राप्त करावे उसकी (आवम्) रक्षा करूँ, उस मेरी उपासना करो और वह आनन्दयुक्त होता है ॥३॥
भावार्थभाषाः -हे मनुष्यो ! जो जगदीश्वर जगत् की उत्पत्ति के प्रथम चेतनस्वरूप से वर्त्तमान, वह सब जगत् को उत्पन्न करके, सब के साथ सब का सम्बन्ध करके सब का हित करता है ॥३॥
-स्वामी दयानन्द सरस्वती
प्र सु ष विभ्यो॑ मरुतो॒ विर॑स्तु॒ प्र श्ये॒नः श्ये॒नेभ्य॑ आशु॒पत्वा॑।
 अ॒च॒क्रया॒ यत्स्व॒धया॑ सुप॒र्णो ह॒व्यं भर॒न्मन॑वे दे॒वजु॑ष्टम् ॥४॥
-ऋग्वेद0 मण्डल:4 सूक्त:26 मन्त्र:4 

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण
pra su ṣa vibhyo maruto vir astu pra śyenaḥ śyenebhya āśupatvā | acakrayā yat svadhayā suparṇo havyam bharan manave devajuṣṭam ||

पद पाठ
प्र। सु। सः। विऽभ्यः॑। म॒रु॒तः॒। विः। अ॒स्तु॒। प्र। श्ये॒नः। श्ये॒नेभ्यः॑। आ॒शु॒ऽपत्वा॑। अ॒च॒क्रया॑। यत्। स्व॒धया॑। सु॒ऽप॒र्णः। ह॒व्यम्। भर॑त्। मन॑वे। दे॒वऽजु॑ष्टम् ॥४॥
पदार्थान्वयभाषाः -हे मनुष्यो ! जैसे (श्येनः) वाज (विः) पक्षी (श्येनेभ्यः) वाजनामक (विभ्यः) पक्षी विशेषों से (अचक्रया) अविद्यमान चक्राकारगति के साथ (आशुपत्वा) शीघ्र गिर के वेग को (भरत्) धारण करता है, वैसे (मरुतः) मनुष्य जन मनुष्यों की सेना के वेगादिगुण को (प्र) विशेष करके धारण करता है (यत्) जो (सुपर्णः) उत्तम पतनयुक्त (मनवे) मनुष्य के लिये (स्वधया) अन्न आदि से (देवजुष्टम्) विद्वानों से सेवित (हव्यम्) ग्रहण करने योग्य वस्तु को (प्र) अत्यन्त (सु) उत्तम प्रकार धारण करता है (सः) वह सब स्थानों में सुखकारी (अस्तु) हो ॥४॥
भावार्थभाषाः -इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। हे मनुष्यो ! इस सृष्टि और अन्तरिक्ष में जैसे पक्षी आकाश में जाकर आते हैं, वैसे ही सब लोक और लोकान्तर घूमते हैं, जो सृष्टिविद्या को जानता है, वही मनुष्यादिकों का सुखकारी होता है ॥४॥
-स्वामी दयानन्द सरस्वती
भर॒द्यदि॒ विरतो॒ वेवि॑जानः प॒थोरुणा॒ मनो॑जवा असर्जि।
तूयं॑ ययौ॒ मधु॑ना सो॒म्येनो॒त श्रवो॑ विविदे श्ये॒नो अत्र॑ ॥५॥
-ऋग्वेद0 मण्डल:4 सूक्त:26 मन्त्र:5

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण
bharad yadi vir ato vevijānaḥ pathoruṇā manojavā asarji | tūyaṁ yayau madhunā somyenota śravo vivide śyeno atra ||

पद पाठ
भर॑त्। यदि॑। विः। अतः॑। वेवि॑जानः। प॒था। उ॒रुणा॑। मनः॑ऽजवाः। अ॒स॒र्जि॒। तूय॑म्। य॒यौ। मधु॑ना। सो॒म्येन॑। उ॒त। श्रवः॑। वि॒वि॒दे॒। श्ये॒नः। अत्र॑ ॥५॥
पदार्थान्वयभाषाः -हे राजजनो ! (यदि) जो (अत्र) इस संसार में आप लोगों से (मनोजवाः) मन के सदृश वेगयुक्त सेनाओं को (असर्जि) बनाता है तो (अतः) इस स्थान से जैसे (श्येनः) हिंसा करनेवाला वेगयुक्त (विः) पक्षी (वेविजानः) कम्पता हुआ (उरुणा) बहुत (पथा) मार्ग से (तूयम्) शीघ्र (ययौ) जाता है, वैसे जो राजा (मधुना) मधुर (सोम्येन) सोम अर्थात् ओषधियों में उत्पन्न हुए रस से (श्रवः) अन्न आदि को (उत) और सेना को (भरत्) पुष्ट करे, वह विजय को (विविदे) प्राप्त होता है ॥५॥
भावार्थभाषाः -इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। हे राजजनो ! आप लोग जब तक वाजपक्षी के सदृश वेग युक्त सेना को नहीं करते हैं, तब तक विजय से धन का लाभ नहीं हो सकता है ॥५॥
-स्वामी दयानन्द सरस्वती
ऋ॒जी॒पी श्ये॒नो दद॑मानो अं॒शुं प॑रा॒वतः॑ शकु॒नो म॒न्द्रं मद॑म्।
 सोमं॑ भरद्दादृहा॒णो दे॒वावा॑न्दि॒वो अ॒मुष्मा॒दुत्त॑रादा॒दाय॑ ॥६॥
-ऋग्वेद 0 मण्डल:4 सूक्त:26 मन्त्र:6 

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण
ṛjīpī śyeno dadamāno aṁśum parāvataḥ śakuno mandram madam | somam bharad dādṛhāṇo devāvān divo amuṣmād uttarād ādāya ||

पद पाठ
ऋ॒जी॒पी। श्ये॒नः। दद॑मानः। अंशु॒म्। प॒रा॒ऽवतः॑। श॒कु॒नः। म॒न्द्रम्। मद॑म्। सोम॑म्। भ॒र॒त्। द॒दृ॒हा॒णः। दे॒वऽवा॑न्। दि॒वः। अ॒मुष्मा॑त्। उत्ऽत॑रात्। आ॒ऽदाय॑ ॥६॥
पदार्थान्वयभाषाः -हे राजन् ! जैसे (ऋजीपी) सीधी चालवाला (श्येनः) बढ़े हुए वेग से युक्त (शकुनः) पक्षी (परावतः) दूर देश से गिर के अपने अपेक्षित पदार्थ को (भरत्) धारण करता है, वैसे ही आप (अंशुम्) विज्ञान आदि पदार्थ (मदम्) आनन्द करनेवाले (मन्द्रम्) प्रशंसा करने योग्य (सोमम्) ऐश्वर्य्य को (ददमानः) देते हुए (देवावान्) बहुत विद्वानों से युक्त (अमुष्मात्) परोक्ष (उत्तरात्) आनेवाले (दिवः) बिजुली के प्रकाश से विद्या को (आदाय) ग्रहण करके (दादृहाणः) बढ़ते हुए होवें ॥६॥
भावार्थभाषाः -इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। हे मनुष्यो ! जैसे पक्षी पृथिवी से उड़ के अन्तरिक्ष के मार्ग से जाकर और आकर अपने प्रयोजन को सिद्ध करते हैं, वैसे ही देश-देशान्तर में विमान आदि से जाकर अपने प्रयोजन को सिद्ध करो ॥६॥
-स्वामी दयानन्द सरस्वती
आ॒दाय॑ श्ये॒नो अ॑भर॒त्सोमं॑ स॒हस्रं॑ स॒वाँ अ॒युतं॑ च सा॒कम्।
 अत्रा॒ पुर॑न्धिरजहा॒दरा॑ती॒र्मदे॒ सोम॑स्य मू॒रा अमू॑रः ॥७॥
-ऋग्वेद 0 मण्डल:4 सूक्त:26 मन्त्र:7

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण
ādāya śyeno abharat somaṁ sahasraṁ savām̐ ayutaṁ ca sākam | atrā puraṁdhir ajahād arātīr made somasya mūrā amūraḥ ||

पद पाठ
आ॒ऽदाय॑। श्ये॒नः। अ॒भ॒र॒त्। सोम॑म्। स॒हस्र॑म्। स॒वान्। अ॒युत॑म्। च॒। सा॒कम्। अत्र॑। पुर॑म्ऽधिः। अ॒ज॒हा॒त्। अरा॑तीः। मदे॑। सोम॑स्य। मू॒राः। अमू॑रः ॥७॥
पदार्थान्वयभाषाः -जो सेना का स्वामी (श्येनः) वाज नामक पक्षी के सदृश (सहस्रम्) सहस्र संख्यायुक्त (सोमम्) ऐश्वर्य्य वा ओषधि आदि पदार्थ (च) और (अयुतम्) असंख्य (सवान्) उत्पन्न हुए पदार्थों को (आदाय) ग्रहण करके सेना और राज्य को (अभरत्) धारण करे वह (अमूरः) निर्मोह जन (अत्रा) इस में (पुरन्धिः) पुर को धारण करनेवाला (सोमस्य) ऐश्वर्य्य सम्बन्धी (मदे) आनन्द के निमित्त (मूराः) मूढ़ (अरातीः) शत्रुओं का (अजहात्) त्याग करता है, वह इसमें (साकम्) साथ ही विजय को प्राप्त होवे ॥७॥
भावार्थभाषाः -जो शत्रु के बल से अधिक बल, शत्रु की सामग्री से सैकड़ों गुणी अधिक सामग्री, उत्तम प्रकार शिक्षायुक्त सेना और विद्वानों को अध्यक्ष करके युद्ध करें, वे निश्चय विजय को प्राप्त होवें ॥७॥ इस सूक्त में ईश्वर और राजसेना के गुण वर्णन करने से इस सूक्त के अर्थ की इस से पूर्व सूक्त के अर्थ के साथ सङ्गति जाननी चाहिये ॥७॥ यह छब्बीसवाँ सूक्त और पन्द्रहवाँ वर्ग समाप्त हुआ ॥भाष्य-स्वामी दयानन्द सरस्वती
গীতা-দশম-অধ্যায়-বিভূতি-যোগ
কথং বিদ্যামহং যোগিংস্ত্বাং সদা পরিচিন্তয়ন্।
কেষু কেষু চ ভাবেষু চিন্ত্যোহসি ভগবন্ময়া।।১৭।।
অনুবাদঃ হে যোগেশ্বর! কিভাবে সর্বদা তোমার চিন্তা করলে আমি তোমাকে জানতে পারব? হে ভগবন্! কোন্ কোন্ বিবিধ আকৃতির মাধ্যমে আমি তোমাকে চিন্তা করব?

বিস্তরেণাত্মনো যোগং বিভূতিং চ জনার্দন।
ভূয়ঃ কথয় তৃপ্তির্হি শৃণ্বতো নাস্তি মেহমৃতম্।।১৮।।
অনুবাদঃ হে জনার্দন! তোমার যোগ ও বিভূতি বিস্তারিতভাবে পুনরায় আমাকে বল। কারণ তোমার উপদেশামৃত শ্রবণ করে আমার পরিতৃপ্তি হচ্ছে না; আমি আরও শ্রবণ করতে ইচ্ছা করি।

শ্রীভগবানুবাচ
হস্ত তে কথয়িষ্যামি দিব্যা হ্যাত্মবিভূতয়ঃ।
প্রাধান্যতঃ কুরুশ্রেষ্ঠ নাস্ত্যস্তো বিস্তরস্য মে।।১৯।।
অনুবাদঃ পরমেশ্বর ভগবান বললেন-হে অর্জুন, আমার দিব্য প্রধান প্রধান বিভুতিসমূহ তোমাকে বলব, কিন্তু আমার বিভূতিসমূহের অন্ত নেই।

অহমাত্মা গুড়াকেশ সর্বভূতাশয়স্থিতঃ।
অহমাদিশ্চ মধ্যং চ ভূতানামন্ত এব চ।।২০।।
অনুবাদঃ হে গুড়াকেশ! আমিই সমস্ত জীবের হৃদয়ে অবস্থিত পরমাত্মা। আমিই সর্বভূতের আদি, মধ্য ও অন্ত।

আদত্যানামহং বিষ্ণুর্জ্যোতিষাং রবিরংশুমান্।
মরীচির্মরুতামস্মি নক্ষত্রাণামহং শশী।।২১।।
অনুবাদঃ আদিত্যদের মধ্যে আমি বিষ্ণু, জ্যোতিষ্কদের মধ্যে আমি কিরণশালী সূর্য, মরুতদের মধ্যে আমি মরীচি এবং নক্ষত্রদের মধ্যে আমি চন্দ্র।

বেদানাং সামবেতোহস্মি দেবনামস্মি বাসবঃ।
ইন্দ্রিয়াণাং মনশ্চাস্মি ভূতানামস্মি চেতনা।।২২।।
অনুবাদঃ সমস্ত বেদের মধ্যে আমি সামবেদ, সমস্ত দেবতাদের মম্যে আমি ইন্দ্র, সমস্ত ইন্দ্রিয়ের মধ্যে আমি মন এবং সমস্ত প্রাণীদের মধ্যে আমি চেতনা।

রুদ্রাণাং শঙ্করশ্চাস্মি বিত্তেশো যক্ষরক্ষসাম্।
বসূনাং পাবকশ্চাস্মি মেরুঃ শিখরিণামহম্।।২৩।।
অনুবাদঃ রুদ্রদের মধ্যে আমি শিব, যক্ষ ও রাক্ষসদের মধ্যে আমি কুবের, বসুদের মধ্যে আমি অগ্নি এবং পর্বতসমূহের মধ্যে আমি সুমেরু।

পুরোধসাং চ মুখ্যং মাং বিদ্ধি পার্থ বৃহস্পতিম্।
সেনানীনামহং স্কন্দঃ সরসামস্মি সাগরঃ।।২৪।।
অনুবাদঃ হে পার্থ! পুরোহিতদের মধ্যে আমি প্রধান বৃহস্পতি, সেনাপতিদের মধ্যে আমি কার্তিক এবং জলাশয়ের মধ্যে আমি সাগর।

মহর্ষীণাং ভৃগুরহং গিরামস্ম্যেকমক্ষরম্।
যজ্ঞানাং জপযজ্ঞোহস্মি স্থাবরাণাং হিমালয়ঃ।।২৫।।
অনুবাদঃ মহর্ষিদের মধ্যে আমি ভৃগু, বাক্যসমূহের মধ্যে আমি ওঁকার। যজ্ঞসমূহের মধ্যে আমি জপযজ্ঞ এবং স্থাবর বস্তুসমূহের মধ্যে আমি হিমালয়।

অশ্বত্থঃ সর্ববৃক্ষাণাং দেবষীণাং চ নারদঃ।
গন্ধর্বাণাং চিত্ররথঃ সিদ্ধানাং কপিলো মুনিঃ।।২৬।।
অনুবাদঃ সমস্ত বৃক্ষের মধ্যে আমি অশ্বত্থ, দেবর্ষিদের মধ্যে আমি নারদ। গন্ধর্বদের মধ্যে আমি চিত্ররথ এবং সিদ্ধদের মধ্যে আমি কপিল মুনি।

উচ্ছৈঃশ্রবসমশ্বানাং বিদ্ধি মামমৃতোদ্ভবম্।
ঐরাবতং গেজেন্দ্রাণাং নরাণাং চ নরাধিপম্।।২৭।।
অনুবাদঃ অশ্বদের মধ্যে আমাকে সমুদ্র-মন্থনের সময় উদ্ভত উচ্চৈঃশ্রবা বলে জানবে। শ্রেষ্ঠ হস্তীদের মধ্যে আমি ঐরাবত এবং মনুণ্যদের মধ্যে আমি সম্রাট।

আয়ুধানামহং বজ্রং ধেনূনামস্মি কামধুক্।
প্রজন্শ্চাস্মি কন্দর্পঃ সর্পাণামস্মি বাসুকিঃ।।২৮।।
অনন্তশ্চাস্মি নাগানাং বরুণো যাদসামহম্।
পিতৃণামর্যমা চাস্মি যমঃ সংযমতামহম্।।২৯।।
 অনুবাদঃ সমস্ত অস্ত্রের মধ্যে আমি বজ্র, গাভীদের মধ্যে আমি কামধেনু। সন্তান উৎপাদনের কারণ আমিই কামদেব এবং সর্পদের মধ্যে আমি বাসুকি। সমস্ত নাগদের মধ্যে আমি অনন্ত এবং জলচরদের মধ্যে আমি বরুণ। পিতৃদের মধ্যে আমি অর্যমা এবং দন্ডদাতাদের মধ্যে আমি যম।

প্রহ্লাদশ্চাস্মি দৈত্যানাং কালঃ কলয়তামহম্।
মৃগাণাং চ মৃগেন্দ্রোহহং বৈনতেয়শ্চ পক্ষিণাম্।।৩০।।
অনুবাদঃ দৈত্যদের মধ্যে আমি প্রহ্লাদ, বশীকারীদের মধ্যে আমি কাল, পশুদের মধ্যে আমি সিংহ এবং পক্ষীদের মধ্যে আমি গরুড়।

পবনঃ পবতামস্মি রামঃ শস্ত্রভৃতামহম্।
ঋষাণাং মকরশ্চাস্মি স্রোতসামস্মি জাহ্নবী।।৩১।।
অনুবাদঃ পবিত্রকারী বস্তুদের মধ্যে আমি বায়ু, শস্ত্রধারীদের মধ্যে আমি পরশুরাম, মৎস্যদের মধ্যে আমি মকর এবং নদীসমূহের মধ্যে আমি গঙ্গা।

সর্গাণামাদিরন্তশ্চ মধ্যং চৈবাহমর্জুন।
অধ্যাত্মবিদ্যা বিদ্যানাং বাদঃ প্রবদতামহম্।।৩২।।
অনুবাদঃ হে অর্জুন! সমস্ত সৃষ্ট বস্তুর মধ্যে আমি আদি, অন্ত ও মধ্য সমস্ত বিদ্যার মধ্যে আমি অধ্যাত্মবিদ্যা এবং তার্কিকদের বাদ, জল্প ও বিতণ্তার মধ্যে আমি সিদ্ধান্তবাদ।

অক্ষরাণামকারেহস্মি দ্বন্দ্বঃ সামাসিকস্য চ। 
অহমেবাক্ষয়ঃ কালো ধাতাহং বিশ্বতোমুখঃ।।৩৩।।
অনুবাদঃ সমস্ত অক্ষরের মধ্যে আমি অকার, সমাসসমূহের মধ্যে আমি দ্বন্দ্ব-সমাস, সংহারকারীদের মধ্যে আমি মহাকাল রুদ্র এবং স্রষ্টাদের মধ্যে আমি ব্রহ্মা।

মৃত্যুঃ সর্বহরশ্চাহমুদ্ভবশ্চ ভবিষ্যতাম্। 
কীর্তিঃ শ্রীর্বাক্ চ নারীণাং স্মৃতির্মেধা ধৃতিঃ ক্ষমা।।৩৪।।
অনুবাদঃ সমস্ত হরণকারীদের মধ্যে আমি সর্বগ্রাসী মৃত্যু, ভাবীকালের বস্তুসমূহের মধ্যে আমি উদ্ভব। নারীদের মধ্যে আমি কীর্তি, শ্রী, বাণী, স্মৃতি,  মেধা, ধৃতি ও ক্ষমা।

বৃহৎসাম তথা সাম্নাং গায়ত্রী ছন্দসামহম্। 
মাসানাং মার্গশীর্ষোহহমৃতূনাং কুসুমাকরঃ।।৩৫।।
অনুবাদঃ সামবেদের মধ্যে আমি বৃহৎসাম এবং ছন্দসমূহের মধ্যে আমি গায়ত্রী। মাসসমূহের মধ্যে আমি অগ্রাহয়ণ এবং ঋতুদের মধ্যে আমি বসন্ত।
দ্যূতং ছলয়তামস্মি তেজস্তেজস্বিনামহম্। 
জয়োহস্মি ব্যবসায়োহস্মি সত্ত্বং সত্ত্ববতামহম্।।৩৬।।
অনুবাদঃ সমস্ত বঞ্চনাকারীদের মধ্যে আমি দ্যূতক্রীড়া এবং তেজস্বীদের মধ্যে আমি তেজ। আমি বিজয়, আমি উদ্যম এবং বলবানদের মধ্যে আমি বল।

বৃষ্ণীনাং বাসুদেবোহস্মি পান্ডবানাং ধনঞ্জয়ঃ। 
মুনীনামপ্যহং ব্যাসঃ কবীনামুশনাঃ কবিঃ।।৩৭।।
অনুবাদঃ বৃষ্ণিদের মধ্যে আমি বাসুদেব এবং পান্ডবদের মধ্যে আমি অর্জুন। মুনিদের মধ্যে আমি ব্যাস এবং কবিদের মধ্যে আমি শুক্রাচার্য।

দন্ডো দময়তামস্মি নীতিরস্মি জিগীষতাম্। 
মৌনং চৈবাস্মি গুহ্যানাং জ্ঞানং জ্ঞানবতামহম্।।৩৮।।
অনুবাদঃ দমনকারীদের মধ্যে আমি দন্ড এবং জয় অভিলাষীদের মধ্যে আমি নীতি। গুহ্য ধর্মের মধ্যে আমি মৌন এবং জ্ঞানবানদের মধ্যে আমিই জ্ঞান।

যচ্চাপি সর্বভূতানাং বীজং তদহমর্জুন। 
ন তদস্তি বিনা যৎ স্যান্ময়া ভূতং চরাচরম্।।৩৯।।
অনুবাদঃ হে অর্জুন! যা সর্বভূতের বীজস্বরূপ তাও আমি, যেহেতু আমাকে ছাড়া স্থাবর ও জঙ্গম কোন বস্তুরই অস্তিত্ব থাকতে পারে না।

নাস্তোহস্তি মম দিব্যানাং বিভূতীনাং পরন্তপ। 
এষ তূদ্দেশতঃ প্রোক্তো বিভুতের্বিস্তরো ময়া ।।৪০।।
অনুবাদঃ হে পরন্তপ! আমার দিব্য বিভুতি-সমূহের অন্ত নেই। আমি এই সমস্ত বিভুতির বিস্তার সংক্ষেপে বললাম।

যদ্যদ্বিভূতিমৎ সত্ত্বং শ্রীমদূর্জিতমেব বা। 
তত্তদেবাবগচ্ছ ত্বং মম তেজোহংশসম্ভবম্।।৪১।।
অনুবাদঃ ঐশ্বর্যযুক্ত, শ্রী-সম্পন্ন ও বল-প্রভাবাদির আধিক্যযুক্ত যত বস্তু আছে, সে সবই আমার তেজাংশসম্ভূত বলে জানবে।

অথবা বহুনৈতেন কিং জ্ঞাতেন তবার্জুন। 
বিষ্টভ্যাহমিদং কৃৎস্নমেকাংশেন স্থিতো জগৎ।।৪২।।
অনুবাদঃ  হে অর্জুন! অথবা এই প্রকার বহু জ্ঞানের দ্বারা তোমার কি প্রয়োজন? আমি আমার এক অংশের দ্বারা সমগ্র জগতে ব্যাপ্ত হয়ে অবস্থিত আছি।

সমাপ্ত
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যজুর্বেদ অধ্যায় ১২

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