ঋগ্বেদ ১/৪৮/১২ - ধর্ম্মতত্ত্ব

ধর্ম্মতত্ত্ব

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धर्म मानव मात्र का एक है, मानवों के धर्म अलग अलग नहीं होते-Theology

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স্বাগতম

29 November, 2020

ঋগ্বেদ ১/৪৮/১২

ঋগ্বেদ ১/৪৮/১২
ঋগ্বেদ মন্ডল ১ সূক্ত ৪৮ মন্ত্র ১২

ऋषि: - प्रस्कण्वः काण्वःदेवता - उषाःछन्दः - बृहतीस्वरः - मध्यमः

विश्वा॑न्दे॒वाँ आ व॑ह॒ सोम॑पीतये॒ऽन्तरि॑क्षादुष॒स्त्वम् ।

 सास्मासु॑ धा॒ गोम॒दश्वा॑वदु॒क्थ्य १॒॑ मुषो॒ वाजं॑ सु॒वीर्य॑म् ॥

पद पाठ

विश्वान्। देवान् । आ । वह । सोमपीतये । अन्तरिक्षात् । उषः । त्वम् । सा । अस्मासु । धाः । गोमत् । अश्वावत् । उक्थ्यम् । उषः । वाजम् । सुवीर्य्यम्

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

viśvān devām̐ ā vaha somapītaye ntarikṣād uṣas tvam | sāsmāsu dhā gomad aśvāvad ukthyam uṣo vājaṁ suvīryam ||

ऋग्वेद ০ मण्डल:1 सूक्त:48 मन्त्र:12 | अष्टक:1 अध्याय:4 वर्ग:5 मन्त्र:2 | मण्डल:1 अनुवाक:9 मन्त्र:12
पदार्थ -

हे (उषः) प्रभात के तुल्य स्त्रि ! मैं (सोमपीतये) सोम आदि पदार्थों को पीने के लिये (अन्तरिक्षात्) ऊपर से (विश्वान्) अखिल (देवान्) दिव्य गुण युक्त पदार्थों और जिस तुझ को प्राप्त होता हूं उन्हीं को तू भी (आवह) अच्छे प्रकार प्राप्त हो हे (उषः) उषा के समान हित करने और (सा) तू सब इष्ट पदार्थों को प्राप्त करानेवाली (अस्मासु) हम लोगों इन्द्रिय किरण और पृथिवी आदि से (अश्वावत्) और अत्युत्तम तुरंगों से युक्त (सुवीर्य्यम्) उत्तम वीर्य्य पराक्रम कारक (वाजम्) विज्ञान वा अन्न को (धाः) धारण कर ॥१२॥

भावार्थ -

इस मंत्र में वाचकलुप्तोपमालंकार है। जैसे यह उषा अपने प्रादुर्भाव में शुद्ध वायु जल आदि दिव्य गुणों को प्राप्त कराके दोषों का नाश कर सब उत्तम पदार्थ समूह को प्रकट करती है वैसे उत्तम स्त्री गृह कार्य्य में हो ॥१२॥

translate-is mantr mein vaachakaluptopamaalankaar hai. jaise yah usha apane praadurbhaav mein shuddh vaayu jal aadi divy gunon ko praapt karaake doshon ka naash kar sab uttam padaarth samooh ko prakat karatee hai vaise uttam stree grh kaaryy mein ho .

संस्कृत-(विश्वान्) अखिलान् (देवान्) दिव्यगुणयुक्तान् पदार्थान् (आ) समन्तात् (वह) प्राप्नुहि (सोमपीतये) सोमानां पीतिः पानं यस्मिन् व्यवहारे तस्मै (अन्तरिक्षात्) उपरिष्टात् (उषः) उषर्वदनुत्तमगुणे (त्वम्) (सा) (अस्मासु) मनुष्येषु (धाः) धेहि। अत्र लडर्थे लुङडभावश्च। (गोमत्) प्रशस्ता गाव इन्द्रियाणि किरणाः पृथिव्यादयी वा विद्यन्ते यस्मिँस्तत् (अश्वावत्) बहवः प्रशस्ता वेगप्रदा अश्वा अग्न्यादयः सन्ति यस्मिँस्तत्। अत्र मन्त्रे सोमाश्वेन्द्रिय०। अ० ६।३।१३१। इति दीर्घः। (उक्थ्यम्) उच्यते प्रशस्यते यत्तस्मै हितम् (उषः) उषर्वद्धितसंपादिके (वाजम्) विज्ञानमन्नं वा (सुवीर्य्यम्) शोभनानि वीर्य्याणि पराक्रमा यस्मात्तत् ॥१२॥

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