ঋগ্বেদ মন্ডল ২ সূক্ত ১ - ধর্ম্মতত্ত্ব

ধর্ম্মতত্ত্ব

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08 November, 2020

ঋগ্বেদ মন্ডল ২ সূক্ত ১

देवता: अग्निः ऋषि: आङ्गिरसः शौनहोत्रो भार्गवो गृत्समदः छन्द: पङ्क्तिः स्वर: पञ्चमः


त्वम॑ग्ने॒ द्युभि॒स्त्वमा॑शुशु॒क्षणि॒स्त्वम॒द्भ्यस्त्वमश्म॑न॒स्परि॑।

 त्वं वने॑भ्य॒स्त्वमोष॑धीभ्य॒स्त्वं नृ॒णां नृ॑पते जायसे॒ शुचिः॑॥

ऋग्वेद  मण्डल:2 सूक्त:1 मन्त्र:1

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

tvam agne dyubhis tvam āśuśukṣaṇis tvam adbhyas tvam aśmanas pari | tvaṁ vanebhyas tvam oṣadhībhyas tvaṁ nṛṇāṁ nṛpate jāyase śuciḥ ||


पद पाठ

त्वम्। अ॒ग्ने॒। द्युऽभिः॑। त्वम्। आ॒शु॒शु॒क्षणिः॑। त्वम्। अ॒त्ऽभ्यः। त्वम्। अश्म॑नः। परि॑। त्वम्। वने॑भ्यः। त्वम्। ओष॑धीभ्यः। त्वम्। नृ॒णाम्। नृ॒ऽप॒ते॒। जा॒य॒से॒। शुचिः॑॥

पदार्थान्वयभाषाः -हे (अग्ने) अग्नि के समान (नृपते) मनुष्यों की पालना करनेवाले ! जो (त्वम्) आप (द्युभिः) विद्यादि प्रकाशों से विराजमान (त्वम्) आप (आशुशुक्षणिः) शीघ्रकारी (त्वम्) आप (अद्भ्यः) जलों से पालना करने वाले मेघ के समान (त्वम्) आप (अश्मनः,परि) पाषाण के सब ओर से निकले रत्न के समान (त्वम्) आप (वनेभ्यः) जङ्गलों में चन्द्रमा के तुल्य (त्वम्) आप (ओषधीभ्यः) ओषधियों से वैद्य के समान और (त्वम्) आप (नृणाम्) मनुष्यों के बीच (शुचिः) पवित्र शुद्ध (जायसे) होते हैं सो आप लोग हम लोगों से सत्कार करने योग्य हैं ॥१॥

भावार्थभाषाः -इस मन्त्र में उपमा और वाचकलुप्तोपमालङ्कार हैं। हे राजन्! जैसे बिजुली अपने प्रकाश से शीघ्र जानेवाली जल, पाषाण, वन ओषधियों के पवित्र करने से सबकी पालना करनेवाली है। वैसे विद्वान् जन समग्र सामग्री से पवित्र आचरणवाला होता हुआ विद्यादि के प्रकाश से सबकी उन्नति करनेवाला होता है । इस मन्त्र का निरुक्त में भी व्याख्यान है ॥१॥-स्वामी दयानन्द सरस्वती

तवा॑ग्ने हो॒त्रं तव॑ पो॒त्रमृ॒त्वियं॒ तव॑ ने॒ष्ट्रं त्वम॒ग्निदृ॑ताय॒तः।

 तव॑ प्रशा॒स्त्रं त्वम॑ध्वरीयसि ब्र॒ह्मा चासि॑ गृ॒हप॑तिश्च नो॒ दमे॑॥

ऋग्वेद  मण्डल:2 सूक्त:1 मन्त्र:2 


अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

tavāgne hotraṁ tava potram ṛtviyaṁ tava neṣṭraṁ tvam agnid ṛtāyataḥ | tava praśāstraṁ tvam adhvarīyasi brahmā cāsi gṛhapatiś ca no dame ||


पद पाठ

तव॑। अ॒ग्ने॒। हो॒त्रम्। तव॑। पो॒त्रम्। ऋ॒त्विय॑म्। तव॑। ने॒ष्ट्रम्। त्वम्। अ॒ग्नित्। ऋ॒त॒ऽय॒तः। तव॑। प्र॒ऽशा॒स्त्रम्। त्वम्। अ॒ध्व॒रि॒ऽय॒सि॒। ब्र॒ह्मा। च॒। असि॑। गृ॒हऽप॑तिः। च॒। नः॒। दमे॑॥


पदार्थान्वयभाषाः -हे (अग्ने) अग्नि के समान बलवान् वर्त्तमान विद्वान् ! (तव) विद्या, धर्म और नम्रता से प्रकाशमान जो आप उनका (होत्रम्) जिसमें पदार्थ होमा जाता वह होता का काम (तव) आपका (पोत्रम्) पवित्र काम (तव) आपका (नेष्ट्रम) पहुँचाने का काम वह है (त्वियम्) कि जो त्विजों के योग्य है (त्वम्) आप (अग्नित्) अग्नि को प्रदीप्त करनेवाले और (तायतः) अपने को सत्य की इच्छा करनेवाले (तव) आपका (प्रशास्त्रम्) उत्तम शिक्षा करना काम है (त्वम्) आप (अध्वरीयसि) अपने को अहिंसा कर्म की इच्छा करते (त्वम्)आप (ब्रह्मा) चारों वेदों के जाननेवाले (च, असि) हैं और (नः) हम लोगों के (दमे) जिसमें जन इन्द्रियों का दमन करते हैं इस घर में (गृहपतिः) घर के कामों की रक्षा करनेहारे (च) भी हैं ॥२॥

भावार्थभाषाः -जिस पुरुष का अग्निहोत्र के तुल्य उपकार, त्विजों के कर्म के समान पवित्र क्रिया, आप्त विद्वानों के समान न्याय, अग्नि विद्या को जाननेवाले के समान उद्यम, न्यायाधीश के समान न्याय-व्यवस्था, यज्ञ करनेवाले के समान अहिंसा, वेदपारङ्गत के समान विद्या, और गृहपति के समान ऐश्वर्य्य का संग्रह हो, वही प्रशंसा को प्राप्त होने योग्य होता है ॥२॥

त्वम॑ग्न॒ इन्द्रो॑ वृष॒भः स॒ताम॑सि॒ त्वं विष्णु॑रुरुगा॒यो न॑म॒स्यः॑ ।

 त्वं ब्र॒ह्मा र॑यि॒विद्ब्र॑ह्मणस्पते॒ त्वं वि॑धर्तः सचसे॒ पुरं॑ध्या॥

ऋग्वेद  मण्डल:2 सूक्त:1 मन्त्र:3 


अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

tvam agna indro vṛṣabhaḥ satām asi tvaṁ viṣṇur urugāyo namasyaḥ | tvam brahmā rayivid brahmaṇas pate tvaṁ vidhartaḥ sacase puraṁdhyā ||


पद पाठ

त्वम्। अ॒ग्ने॒। इन्द्रः॑। वृ॒ष॒भः। स॒ताम्। अ॒सि॒। त्वम्। विष्णुः॑। उ॒रु॒ऽगा॒यः। न॒म॒स्यः॑। त्वम्। ब्र॒ह्मा। र॒यि॒ऽवित्। ब्र॒ह्म॒णः॒। प॒ते॒। त्वम्। वि॒ध॒र्त॒रिति॑ विऽधर्तः। स॒च॒से॒। पुर॑म्ऽध्या॥


पदार्थान्वयभाषाः -हे (अग्ने) सूर्य के समान वर्त्तमान ! (इन्द्रः) ऐश्वर्यवान् (वृषभः) दुष्टों के सामर्थ्य को विनाशनेवाले (त्वम्) आप (सताम्) सत्पुरुषों के बीच (नमस्यः)सत्कार करने योग्य (असि) हैं, (विष्णु) जगदीश्वर के समान (त्वम्) आप सज्जनों में (उरुगायः) बहुतों से कीर्त्तन किये हुए हैं। हे (ब्रह्मणस्पते) वेदविद्या का प्रचार करनेवाले ! जो (त्वम्) आप (रयिवित्) पदार्थविद्या के जानने (ब्रह्मा) समस्त वेद के पढ़नेवाले हैं। हे (विधर्त्तः) जो नाना प्रकार के शुभ गुणों को धारण करनेवाले (त्वम्) आप (पुरन्ध्या) पूर्ण विद्या के धारण करनेवाली स्त्री उसके साथ (सचसे) सम्बन्ध करते हैं ॥३॥

भावार्थभाषाः -जो मनुष्य ब्रह्मचर्य से आप्त विद्वानों के समीप से विद्या शिक्षा को प्राप्त हुआ ईश्वर के समान उपकारदृष्टि से प्रशंसा और सत्कार को प्राप्त हुआ प्रतिदिन उत्तम बुद्धि से समस्त शुभ गुण, कर्म और स्वभावों को धारण करता है, वह सम्पूर्ण विद्यावान् होता है ॥३॥-स्वामी दयानन्द सरस्वती

त्वम॑ग्ने॒ राजा॒ वरु॑णो धृ॒तव्र॑त॒स्त्वं मि॒त्रो भ॑वसि द॒स्म ईड्यः॑।

 त्वम॑र्य॒मा सत्प॑ति॒र्यस्य॑ सं॒भुजं॒ त्वमंशो॑ वि॒दथे॑ देव भाज॒युः॥

ऋग्वेद  मण्डल:2 सूक्त:1 मन्त्र:4 


अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

tvam agne rājā varuṇo dhṛtavratas tvam mitro bhavasi dasma īḍyaḥ | tvam aryamā satpatir yasya sambhujaṁ tvam aṁśo vidathe deva bhājayuḥ ||


पद पाठ

त्वम्। अ॒ग्ने॒। राजा॑। वरु॑णः। धृ॒तऽव्र॑तः। त्वम्। मि॒त्रः। भ॒व॒सि॒। द॒स्मः। ईड्यः॑। त्वम्। अ॒र्य॒मा। सत्ऽप॑तिः। यस्य॑। स॒म्ऽभुज॑म्। त्वम्। अंशः॑। वि॒दथे॑। दे॒व॒। भा॒ज॒युः॥


पदार्थान्वयभाषाः -हे (देव) अतीव मनोहर (अग्ने) सूर्य के समान समस्त अर्थों का प्रकाश करनेवाले ! जो (त्वम्) आप (धृतव्रतः) सत्य को धारण किये स्वीकार किये हुए (वरुणः) श्रेष्ठ के समान (राजा) शरीर, आत्मा और मन से प्रतापवान् (भवसि) होते हैं (दस्मः) दुःख और दुष्टों के विनाश करनेवाले (ईड्यः) प्रशंसा के योग्य (मित्रः) प्राण के मित्र होते हैं (यस्य) जिस राज्य के (सम्भुजम्) सम्भोग करने को (त्वम्) आप (अर्यमा) न्यायकारी (सत्पतिः) सज्जन और सदाचारों के पालनेवाले होते हैं (अंशः) प्रेरणा करनेवाले (त्वम्) आप (विदथे) संग्राम में (भाजयुः) अर्थी-प्रत्यर्थियों की व्यवस्था से पृथक्-पृथक् करनेवाले होते हैं, इससे हम लोगों के राजा हैं ॥४॥

भावार्थभाषाः -जिससे सत्य को धारण कर असत्य का त्याग किया जाता और मित्र के समान सबके लिये सुख दिया जाता है, वह सत्यसन्धि दुष्टाचार से अलग हुआ सत्य और असत्य का यथावद्विवेचन करनेवाला सबको मान करने योग्य होता है ॥४॥

त्वम॑ग्ने॒ त्वष्टा॑ विध॒ते सु॒वीर्यं॒ तव॒ ग्नावो॑ मित्रमहः सजा॒त्य॑म्।

 त्वमा॑शु॒हेमा॑ ररिषे॒ स्वश्व्यं॒ त्वं न॒रां शर्धो॑ असि पुरू॒वसुः॑॥

ऋग्वेद  मण्डल:2 सूक्त:1 मन्त्र:5 


अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

tvam agne tvaṣṭā vidhate suvīryaṁ tava gnāvo mitramahaḥ sajātyam | tvam āśuhemā rariṣe svaśvyaṁ tvaṁ narāṁ śardho asi purūvasuḥ ||


पद पाठ

त्वम्। अ॒ग्ने॒। त्वष्टा॑। वि॒ध॒ते। सु॒ऽवीर्य॑म्। तव॑। ग्नावः॑। मि॒त्र॒ऽम॒हः॒। स॒ऽजा॒त्य॑म्। त्वम्। आ॒शु॒ऽहेमा॑। र॒रि॒षे॒। सु॒ऽअश्व्य॑म्। त्वम्। न॒राम्। शर्धः॑। अ॒सि॒। पु॒रु॒ऽवसुः॑॥


पदार्थान्वयभाषाः -हे (अग्ने) अग्नि के समान वर्त्तमान विद्वान् (त्वष्टा) अज्ञान का विनाश करनेवाले ! (त्वम्) आप (विधते) सेवा करते हुए मनुष्य के लिये (सुवीर्यम्) उत्तम पराक्रम को देते हैं। हे (मित्रमहः) मित्रों का सत्कार करनेवाले (ग्नावः) प्रशंसित वाणी से युक्त जन (तव) आपका (सजात्यम्) समान जातियों में प्रसिद्ध हुआ प्रेम है (आशुहेमा) शीघ्रकारी जनों को वृद्धि देनेवाले (त्वम्) आप (स्वश्व्यम्) सुन्दर अग्न्यादि पदार्थों में प्रसिद्ध हुए बल को (रिरिषे) देते हैं सो (त्वम्) आप (पुरुवसुः) बहुतों को निवास देनेवाले (नराम्) मनुष्यों के (शर्धः) बल के बढ़ानेवाले(असि) हैं ॥५॥

भावार्थभाषाः -जिस पुरुष की सत्यवाणी और परार्थ पराक्रम है, वह राजजनों में प्रशंसायुक्त होता है ॥५॥

त्वम॑ग्ने रु॒द्रो असु॑रो म॒हो दि॒वस्त्वं शर्धो॒ मारु॑तं पृ॒क्ष ई॑शिषे।

 त्वं वातै॑ररु॒णैर्या॑सि शंग॒यस्त्वं पू॒षा वि॑ध॒तः पा॑सि॒ नु त्मना॑॥

ऋग्वेद  मण्डल:2 सूक्त:1 मन्त्र:6 


अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

tvam agne rudro asuro maho divas tvaṁ śardho mārutam pṛkṣa īśiṣe | tvaṁ vātair aruṇair yāsi śaṁgayas tvam pūṣā vidhataḥ pāsi nu tmanā ||


पद पाठ

त्वम्। अ॒ग्ने॒। रु॒द्रः। असु॑रः। म॒हः। दि॒वः। त्वम्। शर्धः॑। मारु॑तम्। पृ॒क्षः। ई॒शि॒षे॒। त्वम्। वातैः॑। अ॒रु॒णैः। या॒सि॒। श॒म्ऽग॒यः। त्वम्। पू॒षा। वि॒ध॒तः। पा॒सि॒। नु। त्मना॑॥


पदार्थान्वयभाषाः -हे (अग्ने) अग्नि के समान दाह करनेवाले ! (त्वम्) आप (रुद्रः) दुष्टों को रुलानेवाले (असुरः) मेघ के समान (महः) बड़े (त्वम्) आप (मारुतम्) मरुत् विषयक (पृक्षः) सम्बन्ध और (दिवः) प्रकाशमान पदार्थ के (शर्द्धः) बल के (इशिषे) ईश्वर हैं उसके व्यवहार प्रकाश करने में समर्थ हैं। (त्वम्) आप (वातैः) पवनों से और (अरुणैः) अग्नि आदि पदार्थों के साथ (यासि) प्राप्त होते हैं। (पूषा) पुष्टि करने और (शङ्गयः) सुख प्राप्ति करानेवाले (त्वम्) आप (त्मना) अपने से (विधतः) सेवकों की (नु) शीघ्र (पासि) पालना करते हैं। इससे किसको सत्कार करने योग्य नहीं होते ? ॥६॥

भावार्थभाषाः -इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। जो जन बल की इच्छा करते दुष्टाचारियों को अच्छे प्रकार ताड़ना देकर धर्माचारियों को सुखी करते और सदैव सबकी उन्नति को चाह्ते हैं, वे अतुल ऐश्वर्य को प्राप्त होते हैं ॥६॥

त्वम॑ग्ने द्रविणो॒दा अ॑रं॒कृते॒ त्वं दे॒वः स॑वि॒ता र॑त्न॒धा अ॑सि।

 त्वं भगो॑ नृपते॒ वस्व॑ ईशिषे॒ त्वं पा॒युर्दमे॒ यस्तेऽवि॑धत्॥

ऋग्वेद  मण्डल:2 सूक्त:1 मन्त्र:7 


अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

tvam agne draviṇodā araṁkṛte tvaṁ devaḥ savitā ratnadhā asi | tvam bhago nṛpate vasva īśiṣe tvam pāyur dame yas te vidhat ||


पद पाठ

त्वम्। अ॒ग्ने॒। द्र॒वि॒णः॒ऽदाः। अ॒र॒म्ऽकृते॑। त्वम्। दे॒वः। स॒वि॒ता। र॒त्न॒ऽधाः। अ॒सि॒। त्वम्। भगः॑। नृ॒ऽप॒ते॒। वस्वः॑। ई॒शि॒षे॒। त्वम्। पा॒युः। दमे॑। यः। ते॒। अवि॑धत्॥


पदार्थान्वयभाषाः -हे (अग्ने) सूर्य के समान सुख देनेवाले ! (त्वम्) आप (अरङ्कृते) पूरे पुरुषार्थ करनेवाले के लिये (द्रविणोदाः) धन देनेवाले (त्वम्) आप (रत्नधाः) रत्नों को धारण और (सविता) ऐश्वर्य के प्रति प्रेरणा करनेवाले (देवः) मनोहर (असि) हैं। हे (नृपते) मनुष्यों की पालना करनेवाले और (भगः) ऐश्वर्यवान् (त्वम्) आप (वस्वः) धनों की (इशिषे) ईश्वरता रखते हैं। (यः) जो (ते) आपके (दमे) निज घर में (अविधत्) विधान करता है। उसके (त्वम्) आप (पायुः) पालनेवाले हैं ॥७॥

भावार्थभाषाः -जो पुरुषार्थी मनुष्यों का सत्कार तथा आलस्य करनेवालों का तिरस्कार करनेवाले और सेवकों के लिये सुख देनेवाले ऐश्वर्यवान् हों, वे इस संसार में सबके राजा होने को योग्य होवें ॥७॥

त्वाम॑ग्ने॒ दम॒ आ वि॒श्पतिं॒ विश॒स्त्वां राजा॑नं सुवि॒दत्र॑मृञ्जते।

 त्वं विश्वा॑नि स्वनीक पत्यसे॒ त्वं स॒हस्रा॑णि श॒ता दश॒ प्रति॑॥

ऋग्वेद  मण्डल:2 सूक्त:1 मन्त्र:8


अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

tvām agne dama ā viśpatiṁ viśas tvāṁ rājānaṁ suvidatram ṛñjate | tvaṁ viśvāni svanīka patyase tvaṁ sahasrāṇi śatā daśa prati ||


पद पाठ

त्वाम्। अ॒ग्ने॒। दमे॑। आ। वि॒श्पति॑म्। विशः॑। त्वाम्। राजा॑नम्। सु॒ऽवि॒दत्र॑म्। ऋ॒ञ्ज॒ते॒। त्वम्। विश्वा॑नि। सु॒ऽअ॒नी॒क॒। प॒त्य॒से॒। त्वम्। स॒हस्रा॑णि। श॒ता। दश॑। प्रति॑॥


पदार्थान्वयभाषाः -हे (अग्ने) अग्नि के समान प्रतापवान् (विश्पतिम्) प्रजा की पालना करनेवाले ! (त्वाम्) (आपको) (विशः) प्रजाजन (दमे) निज घर में (आञ्जते) सब और से प्रसिद्ध करते हैं अर्थात् प्रजापति मानते हैं। और (सुविदत्रम्) सुन्दर देनेवाले (त्वाम्) (आपको) (राजानम्) अपना स्वामी प्रसिद्ध करते हैं। हे (स्वनीक) सुन्दर सेना रखनेवाले ! (त्वम्) आप (विश्वानि) समस्त पदार्थों को (पत्यसे) पतिभाव को प्राप्त होते हैं। और (त्वम्) आप (सहस्राणि) (सहस्रों) (शता) सैकड़ों और (दश) दहाइयों के (प्रति) प्रति पतिभाव को प्राप्त होते हैं ॥८॥

भावार्थभाषाः -वही राजा होने योग्य है, जिसको समस्त प्रजाजन स्वीकार करें। वही सेनापति होने को योग्य है, जो दश वा सौ वा सहस्र वीरों के साथ युद्ध कर सकता है ॥८॥

त्वाम॑ग्ने पि॒तर॑मि॒ष्टिभि॒र्नर॒स्त्वां भ्रा॒त्राय॒ शम्या॑ तनू॒रुच॑म्।

 त्वं पु॒त्रो भ॑वसि॒ यस्तेऽवि॑ध॒त्त्वं सखा॑ सु॒शेवः॑ पास्या॒धृषः॑॥

ऋग्वेद  मण्डल:2 सूक्त:1 मन्त्र:9 


अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

tvām agne pitaram iṣṭibhir naras tvām bhrātrāya śamyā tanūrucam | tvam putro bhavasi yas te vidhat tvaṁ sakhā suśevaḥ pāsy ādhṛṣaḥ ||


पद पाठ

त्वाम्। अ॒ग्ने॒। पि॒तर॑म्। इ॒ष्टिऽभिः॑। नरः॑। त्वाम्। भ्रा॒त्राय॑। शम्या॑। त॒नू॒ऽरुच॑म्। त्वम्। पु॒त्रः। भ॒व॒सि॒। यः। ते॒। अवि॑धत्। त्वम्। सखा॑। सु॒ऽशेवः॑। पा॒सि॒। आ॒ऽधृषः॑॥


पदार्थान्वयभाषाः -हे (अग्ने) अग्नि के वर्त्तमान राजन् ! (यः) जो (त्वम्) आप (पुत्रः) बहुत दुखः से रक्षा करनेवाले (भवसि) होते हैं जो (ते) आपके सुख का (अविधत्) विधान करता है जो (सुशेवः) सुन्दर सुख देनेवाले (सखा) मित्र (त्वम्) आप (आधृषः) सब और से धृष्टता करनेवाले जनों को (पासि) पालते हो उन (त्वाम्) आप (तनूरुचम्) तनूरुच् अर्थात् जिनके लिये शरीर प्रकाशित होते वा उन (त्वाम्) आप (पितरम्) पालनेवाले वा (इष्टिभिः) हवनों के समान सत्कारों से अग्नि के तुल्य वर्त्तमान को (भ्रात्राय) भाईपने के लिये (शम्या) कर्म के साथ (नरः) मनुष्य पालें ॥९॥

भावार्थभाषाः -इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। जैसे होम आदि से अच्छा सेवन किया हुआ अग्नि रक्षा करनेवाला होता है, वैसे भ्राता मित्र पुत्रजन अपने भ्राता मित्र और पितृयों को सेवें ॥९॥

त्वम॑ग्न ऋ॒भुरा॒के न॑म॒स्य१॒॑स्त्वं वाज॑स्य क्षु॒मतो॑ रा॒य ई॑शिषे।

 त्वं वि भा॒स्यनु॑ दक्षि दा॒वने॒ त्वं वि॒शिक्षु॑रसि य॒ज्ञमा॒तनिः॑॥

ऋग्वेद  मण्डल:2 सूक्त:1 मन्त्र:10 


अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

tvam agna ṛbhur āke namasyas tvaṁ vājasya kṣumato rāya īśiṣe | tvaṁ vi bhāsy anu dakṣi dāvane tvaṁ viśikṣur asi yajñam ātaniḥ ||


पद पाठ

त्वम्। अ॒ग्ने॒। ऋ॒भुः। आ॒के। न॒म॒स्यः॑। त्वम्। वाज॑स्य। क्षु॒ऽमतः॑। रा॒यः। ई॒शि॒षे॒। त्वम्। वि। भा॒सि॒। अनु॑। ध॒क्षि॒। दा॒वने॑। त्वम्। वि॒ऽशिक्षुः॑। अ॒सि॒। य॒ज्ञम्। आ॒ऽतनिः॑॥


पदार्थान्वयभाषाः -हे (अग्ने) सर्वशास्त्र पारङ्गत प्रतापवान् राजन् ! (त्वम्) आप (भुः) बुद्धिमान् हैं और (आके) समीप में (नमस्यः) नमस्कार सत्कार करने योग्य हैं। (त्वम्) आप (वाजस्य) विज्ञान निमित्तक (क्षुमतः) बहुत अन्नादि पदार्थ समूह जिसके सम्बन्ध में विद्यमान उस (रायः) धन के (ईशिषे) ईश्वर होते हैं। (त्वम्) आप (विभासि) विशेषता से सब पदार्थों का प्रकाश करते हैं और अग्नि के समान (अनुदक्षि) अनुकूलता से अज्ञान-जन्य दुःख़ को दहन करते हो। (दावने) दानशील (विशिक्षुः) उत्तम शिक्षा करनेवाले (त्वम्) आप (यज्ञम्) यज्ञ का (आतनिः) विस्तार करनेवाले (असि) हैं ॥१०॥

भावार्थभाषाः -इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। जो अग्नि के समान प्रजाओं के पीड़ादेनेवालों को जलाते हैं, पुरुषार्थ से ऐश्वर्य की उन्नति करते हैं, विद्या विनय और उत्तम शीलादि का प्रकाश करते हैं, वे सबको माननीय होते हैं ॥१०॥

त्वम॑ग्ने॒ अदि॑तिर्देव दा॒शुषे॒ त्वं होत्रा॒ भार॑ती वर्धसे गि॒रा।

 त्वमिळा॑ श॒तहि॑मासि॒ दक्ष॑से॒ त्वं वृ॑त्र॒हा व॑सुपते॒ सर॑स्वती॥

ऋग्वेद  मण्डल:2 सूक्त:1 मन्त्र:11


अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

tvam agne aditir deva dāśuṣe tvaṁ hotrā bhāratī vardhase girā | tvam iḻā śatahimāsi dakṣase tvaṁ vṛtrahā vasupate sarasvatī ||


पद पाठ

त्वम्। अ॒ग्ने॒। अदि॑तिः। दे॒व॒। दा॒शुषे॑। त्वम्। होत्रा॑। भार॑ती। व॒र्ध॒से॒। गि॒रा। त्वम्। इळा॑। श॒तऽहि॑मा। अ॒सि॒। दक्ष॑से। त्वम्। वृ॒त्र॒ऽहा। व॒सु॒ऽप॒ते॒। सर॑स्वती॥


पदार्थान्वयभाषाः -हे (देव) प्रकाशमान् ! (अग्ने) विद्या देनेवाले विद्वान् ! (त्वम्) आप (दाशुषे) दानशील शिष्य के लिये (अदितिः) अन्तरिक्ष प्रकाश के समान विद्या गुणों का प्रकाश करनेवाले हैं। (त्वम्) आप (होत्रा) ग्रहण करने योग्य (भारती) विद्या धारण करनेवाली बालिका के समान होते हुए (गिरा) सुन्दर शिक्षा और विद्यायुक्त वाणी से (वर्द्धसे) वृद्धि को प्राप्त होते हैं। (त्वम्) आप (दक्षसे) विद्या बल के देने के लिये (शतहिमा) सौ वर्ष जिसकी आयु वह (इळा) स्तुति के योग्य अध्यापिका के समान (असि) हैं। हे (वसुपते) धन के पालनेहारे (त्वम्) आप (वृत्रहा) मेघहन्ता सूर्य के समान तथा (सरस्वती) प्रज्ञान विज्ञानयुक्त वाणी के समान हैं ॥११॥

भावार्थभाषाः -इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। अच्छी विद्या का पढ़ाने हारा शास्त्र का पारगन्ता विद्वान् जन माता के समान पालना करता है और सब विषयों से उत्तमगुणों को देता है। उससे शिष्यजन शीघ्र विद्याबलयुक्त होते हैं ॥११॥

त्वम॑ग्ने॒ सुभृ॑त उत्त॒मं वय॒स्तव॑ स्पा॒र्हे वर्ण॒ आ सं॒दृशि॒ श्रियः॑।

 त्वं वाजः॑ प्र॒तर॑णो बृ॒हन्न॑सि॒ त्वं र॒यिर्ब॑हु॒लो वि॒श्वत॑स्पृ॒थुः॥

ऋग्वेद  मण्डल:2 सूक्त:1 मन्त्र:12 


अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

tvam agne subhṛta uttamaṁ vayas tava spārhe varṇa ā saṁdṛśi śriyaḥ | tvaṁ vājaḥ prataraṇo bṛhann asi tvaṁ rayir bahulo viśvatas pṛthuḥ ||


पद पाठ

त्वम्। अ॒ग्ने॒। सुऽभृ॑तः। उ॒त्ऽत॒मम्। वयः॑। तव॑। स्पा॒र्हे। वर्णे॑। आ। स॒म्ऽदृशि॑। श्रियः॑। त्वम्। वाजः॑। प्र॒ऽतर॑णः। बृ॒हन्। अ॒सि॒। त्वम्। र॒यिः। ब॒हु॒लः। वि॒श्वतः॑। पृ॒थुः॥


पदार्थान्वयभाषाः -हे (अग्ने) बिजुली के समान बलीजन जो (त्वम्) आप (रयिः) द्रव्यरूप (बहुलः) बहुत सुखों के ग्रहण करनेहारे (विश्वतः) सबसे (पृथुः) विस्तार को प्राप्त (सुभृतः) उत्तम कर्म जिन्होंने धारण किया (प्रतरणः) कठिनता से दुःखों के पार होते और (बृहन्) बढ़ते हुए (असि) हैं। जो (त्वम्) आप (वाजः) ज्ञानवान् हैं। जिन (तव) आपके (स्पार्हे) इच्छा करने और (संदृशि) अच्छे-प्रकार देखने योग्य (वर्णे) वर्ण में (उत्तमम्) उत्तम (वयः) मनोहर जीवन (आ श्रियः) और सब ओर से लक्ष्मी वर्त्तमान है। सो (त्वम्) आप अध्यापक हूजिये ॥१२॥

भावार्थभाषाः -इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। जैसे विद्वान् जन गुण कर्म स्वभाव से बिजुली को जान और कार्य्यों में उसका अच्छे प्रकार प्रयोग कर श्रीमान् होते हैं और ब्रह्मचर्य से दीर्घायु होते हैं, वैसे सब विद्यायुक्त मनुष्यों को होना चाहिये ॥१२॥

त्वाम॑ग्न आदि॒त्यास॑ आ॒स्यं१॒॑त्वां जि॒ह्वां शुच॑यश्चक्रिरे कवे। त्वां रा॑ति॒षाचो॑ अध्व॒रेषु॑ सश्चिरे॒ त्वे दे॒वा ह॒विर॑द॒न्त्याहु॑तम्॥


अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

tvām agna ādityāsa āsyaṁ tvāṁ jihvāṁ śucayaś cakrire kave | tvāṁ rātiṣāco adhvareṣu saścire tve devā havir adanty āhutam ||


पद पाठ

त्वाम्। अ॒ग्ने॒। आदि॒त्यासः॑। आ॒स्य॑म्। त्वाम्। जि॒ह्वाम्। शुच॑यः। च॒क्रि॒रे॒। क॒वे॒। त्वाम्। रा॒ति॒ऽसाचः॑। अ॒ध्व॒रेषु॑। स॒श्चि॒रे॒। त्वे इति॑। दे॒वाः। ह॒विः। अ॒द॒न्ति॒। आऽहु॑तम्॥


ऋग्वेद  मण्डल:2 सूक्त:1 मन्त्र:13


पदार्थान्वयभाषाः -हे (कवे) समस्त साङ्गोपाङ्ग वेद के जाननेवाले (अग्ने) अग्नि के समान वर्त्तमान विद्वन् ! (आदित्यासः) बारह महीना जैसे सूर्य्य को वैसे विद्यार्थी जन जिन (त्वाम्) आपको (आस्यम्) मुख के समान अग्रगन्ता और (शुचयः) पवित्र शुद्धात्मा जन (त्वाम्) आपको (जिह्वाम्) वाणीरूप (चक्रिरे) कर रहे मान रहे हैं। तथा (अध्वरेषु) न नष्ट करने योग्य व्यवहारों में (रातिषाचः) दान के सेवनेवाले जन (त्वाम्) आपको (सश्चिरे) सम्यक् प्रकार से मिलते हैं। (त्वे) तुम्हारे होते (देवाः) विद्वान् जन ! (आहुतम्) सब ओर से ग्रहण किये हुए (हविः) भक्षण करने योग्य पदार्थ को (अदन्ति) खाते हैं। सो आप हमारे अध्यापक हूजिये ॥१३॥

भावार्थभाषाः -इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। जैसे संवत्सर का आश्रय लेकर महीने मुख का आश्रय लेकर शरीर की पुष्टि जिह्वा के आश्रय से रस का विज्ञान यज्ञ को प्राप्त हो विद्वानों के सत्कार और उत्तम अन्न को पाकर रुचि होती है, वैसे आप्तशास्त्रज्ञ धर्मात्मा विद्वानों को प्राप्त होकर मनुष्य शुभगुणलक्षणयुक्त होते हैं ॥१३॥

त्वे अ॑ग्ने॒ विश्वे॑ अ॒मृता॑सो अ॒द्रुह॑ आ॒सा दे॒वा ह॒विर॑द॒न्त्याहु॑तम्। त्वया॒ मर्ता॑सः स्वदन्त आसु॒तिं त्वं गर्भो॑ वी॒रुधां॑ जज्ञिषे॒ शुचिः॑॥


अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

tve agne viśve amṛtāso adruha āsā devā havir adanty āhutam | tvayā martāsaḥ svadanta āsutiṁ tvaṁ garbho vīrudhāṁ jajñiṣe śuciḥ ||


पद पाठ

त्वे इति॑। अ॒ग्ने॒। विश्वे॑। अ॒मृता॑सः। अ॒द्रुहः॑। आ॒सा। दे॒वाः। ह॒विः। अ॒द॒न्ति॒। आऽहु॑तम्। त्वया॑। मर्ता॑सः। स्व॒द॒न्ते॒। आ॒ऽसु॒तिम्। त्वम्। गर्भः॑। वी॒रुधा॑म्। ज॒ज्ञि॒षे॒। शुचिः॑॥


ऋग्वेद  मण्डल:2 सूक्त:1 मन्त्र:14


पदार्थान्वयभाषाः -हे (अग्ने) अग्नि के समान प्रकाशमान ! आप (त्वे) तुम्हारे होते (अद्रुहः) द्रोह छोड़े हुए (विश्वे) सब (अमृतासः) अपने-अपने रूप से जन्म-मरण रहित जीवात्मा जिनके वे (देवाः) विद्वान् जन (आहुतम्) प्राप्त होने योग्य पदार्थ को (आसा) मुख से (हविः) जो कि विद्वानों के खाने योग्य है (अदन्ति) खाते हैं तथा जिन (त्वया) आपकी प्रेरणा से (स्वदन्ते) सुन्दरता से भोजन करते हुए (मर्त्तासः) शरीर के योग से जन्म-मरण सहित मनुष्य (आसुतिम्) जन्मयोग अर्थात् विद्या जन्म का संयोग सेवते हैं। जो (त्वम्) आप (वीरुधाम्) लता वृक्षादिकों के बीच (गर्भः) गर्भरूप अग्नि जैसे वैसे हो कर (शुचिः) पवित्र होते हुए (जज्ञिषे) प्रसिद्ध होते हैं। उन आपका विद्या की प्राप्ति के लिये लोग आश्रय करते हैं ॥१४॥

भावार्थभाषाः -इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। जैसे सब जीव विद्यमान अग्नि के होते जीने और भोजन करने को योग्य होते हैं, वैसे शास्त्रज्ञ धर्मात्मा पढ़ानेवालों के होते पवित्र राग-द्वेष रहित सांसारिक और पारमार्थिक सुख को प्राप्त हुए मुक्ति के बीच आनन्द करते हुए जन्मान्तर संस्कार में पवित्र होते हैं ॥१४॥

त्वं तान्त्सं च॒ प्रति॑ चासि म॒ज्मनाग्ने॑ सुजात॒ प्र च॑ देव रिच्यसे। पृ॒क्षो यदत्र॑ महि॒ना वि ते॒ भुव॒दनु॒ द्यावा॑पृथि॒वी रोद॑सी उ॒भे॥


अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

tvaṁ tān saṁ ca prati cāsi majmanāgne sujāta pra ca deva ricyase | pṛkṣo yad atra mahinā vi te bhuvad anu dyāvāpṛthivī rodasī ubhe ||

पद पाठ

त्वम्। तान्। सम्। च॒। प्रति॑। च॒। अ॒सि॒। म॒ज्मना॑। अग्ने॑। सु॒ऽजा॒त॒। प्र। च॒। दे॒व॒। रि॒च्य॒से॒। पृ॒क्षः। यत्। अत्र॑। म॒हि॒ना। वि। ते॒। भुव॑त्। अनु॑। द्यावा॑पृथि॒वी इति॑। रोद॑सी इति॑। उ॒भे इति॑॥


ऋग्वेद  मण्डल:2 सूक्त:1 मन्त्र:15

पदार्थान्वयभाषाः -हे (सुजात) सुन्दर प्रसिद्धिमान् (देव) विद्या देनेवाले (अग्ने) बिजुली के समान सबसे अलग विद्वान् ! जो (त्वम्) आप (मज्मना) बल से वा पुरुषार्थ से (तान्) उन मनुष्यों को कि जो मोक्ष सुख और सांसारिक सुख साधनेवाले हैं। (प्रतिच) प्रतिनिधि और (सम् च) मिले हुए भी (असि) हैं। (च) और (प्ररिच्यसे) अलग होते हो और (उभे) दोनों (रोदसी) सांसारिक तुच्छ सुख के कारण रोने के निमित्त जो (द्यावापृथिवी) द्यावापृथिवी के समान (महिना) अपने महिमा से (यत्) जो (अत्र) यहाँ (पृक्षः) विद्या सम्बन्ध को भी प्राप्त हो जिन (ते) आपकी विद्या (अनु, वि, भुवत्) अनुकूल विशेषता से होती है। सो आप हमारे अध्यापक और उपदेशक हूजिये ॥१५॥

भावार्थभाषाः -जैसे अग्नि में अनेक गुण हैं, वैसे विद्वानों की सेवा करने और धर्म में प्रवर्त्तमान होने वाले तथा अधर्म से निवृत्त जनों में इस संसार में बहुत शुभ गुण उत्पन्न होते हैं ॥१५॥


ये स्तो॒तृभ्यो॒ गोअ॑ग्रा॒मश्व॑पेशस॒मग्ने॑ रा॒तिमु॑पसृ॒जन्ति॑ सू॒रयः॑। अ॒स्माञ्च॒ तांश्च॒ प्र हि नेषि॒ वस्य॒ आ बृ॒हद्व॑देम वि॒दथे॑ सु॒वीराः॑॥


अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

ye stotṛbhyo goagrām aśvapeśasam agne rātim upasṛjanti sūrayaḥ | asmāñ ca tām̐ś ca pra hi neṣi vasya ā bṛhad vadema vidathe suvīrāḥ ||


पद पाठ

ये। स्तो॒तृऽभ्यः॑। गोऽअ॑ग्राम्। अश्व॑ऽपेशसम्। अग्ने॑। रा॒तिम्। उ॒प॒ऽसृ॒जन्ति॑। सू॒रयः॑। अ॒स्मान्। च॒। तान्। च॒। प्र। हि। नेषि॑। वस्यः॑। आ। बृ॒हत्। व॒दे॒म॒। वि॒दथे॑। सु॒ऽवीराः॑॥


ऋग्वेद  मण्डल:2 सूक्त:1 मन्त्र:16 

पदार्थान्वयभाषाः -हे (अग्ने) विद्वान् ! आप (ये) जो (सूरयः) विद्या ज्ञान चाहते हुए जन (स्तोतृभ्यः) समस्त विद्या के अध्यापक विद्वानों के लिए (गोअग्राम्) जिसमें इन्द्रिय अग्रगन्ता हों (अश्वपेशसम्) उस शीघ्रगामी प्राणी के समान रूपवाली (रातिम्) विद्यादान क्रिया को (उपसृजन्ति) देते हैं। (तान् च) उनको और (अस्माञ्च) हम लोगों को भी (वस्यः) अत्युत्तम निवासस्थान (आप्रनेषिहि) अच्छे प्रकार उत्तमता से प्राप्त करते हो इसी से (सुवीराः) उत्तम शूरतादि गुणों से युक्त हम लोग (विदथे) विवाद संग्राम में (बृहत्) बहुत (वदेम) कहें ॥१६॥

भावार्थभाषाः -इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। हे मनुष्यो ! जैसे विद्वान् सर्वोत्तम विद्यादान देके हमको तथा औरों को विद्वान् करते हैं, वैसे हमको भी चाहिये कि उनको सदा प्रसन्न करें ॥१६॥ इस सूक्त में अग्नि के दृष्टान्त से विद्वान् और विद्यार्थियों के कृत्य का वर्णन होने से इस सूक्त के अर्थ की पिछिले सूक्तार्थ के साथ संगति समझनी चाहिये ॥ यह दूसरे मण्डल में प्रथम सूक्त और उन्नीसवाँ वर्ग समाप्त हुआ ॥

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