देवता: इन्द्र: ऋषि: मधुच्छन्दाः वैश्वामित्रः छन्द: विराड्गायत्री स्वर: षड्जः
यु॒ञ्जन्ति॑ ब्र॒ध्नम॑रु॒षं चर॑न्तं॒ परि॑त॒स्थुषः॑।
रोच॑न्ते रोच॒ना दि॒वि॥
যুজ্ঞন্তি ব্রধ্মমরুষং চরন্তং পরিতস্থুষঃ।
রোচন্তে রোচনা দিবি।।
ऋग्वेद मण्डल:1 सूक्त:6 मन्त्र:1
अंग्रेज़ी लिप्यंतरण
yuñjanti bradhnam aruṣaṁ carantam pari tasthuṣaḥ | rocante rocanā divi ||
मन्त्र उच्चारण
पद पाठ
यु॒ञ्जन्ति॑। ब्र॒ध्नम्। अ॒रु॒षम्। चर॑न्तम्। परि॑। त॒स्थुषः॑। रोच॑न्ते। रो॒च॒ना। दि॒वि॥
छठे सूक्त के प्रथम मन्त्र में यथायोग्य कार्य्यों में किस प्रकार से किन-किन पदार्थों को संयुक्त करना चाहिये, इस विषय का उपदेश किया है-
पदार्थान्वयभाषाः -जो मनुष्य (अरुषम्) अङ्ग-अङ्ग में व्याप्त होनेवाले हिंसारहित सब सुख को करने (चरन्तम्) सब जगत् को जानने वा सब में व्याप्त (परितस्थुषः) सब मनुष्य वा स्थावर जङ्गम पदार्थ और चराचर जगत् में भरपूर हो रहा है, (ब्रध्नम्) उस महान् परमेश्वर को उपासना योग द्वारा प्राप्त होते हैं, वे (दिवि) प्रकाशरूप परमेश्वर और बाहर सूर्य्य वा पवन के बीच में (रोचना) ज्ञान से प्रकाशमान होके (रोचन्ते) आनन्द में प्रकाशित होते हैं। तथा जो मनुष्य (अरुषम्) दृष्टिगोचर में रूप का प्रकाश करने तथा अग्निरूप होने से लाल गुणयुक्त (चरन्तम्) सर्वत्र गमन करनेवाले (ब्रध्नम्) महान् सूर्य्य और अग्नि को शिल्पविद्या में (परियुञ्जन्ति) सब प्रकार से युक्त करते हैं, वे जैसे (दिवि) सूर्य्यादि के गुणों के प्रकाश में पदार्थ प्रकाशित होते हैं, वैसे (रोचनाः) तेजस्वी होके (रोचन्ते) नित्य उत्तम-उत्तम आनन्द से प्रकाशित होते हैं॥१॥
(jo manushy (arusham) ang-ang mein vyaapt honevaale hinsaarahit sab sukh ko karane (charantam) sab jagat ko jaanane va sab mein vyaapt (paritasthushah) sab manushy va sthaavar jangam padaarth aur charaachar jagat mein bharapoor ho raha hai, (bradhnam) us mahaan parameshvar ko upaasana yog dvaara praapt hote hain, ve (divi) prakaasharoop parameshvar aur baahar sooryy va pavan ke beech mein (rochana) gyaan se prakaashamaan hoke (rochante) aanand mein prakaashit hote hain. tatha jo manushy (arusham) drshtigochar mein roop ka prakaash karane tatha agniroop hone se laal gunayukt (charantam) sarvatr gaman karanevaale (bradhnam) mahaan sooryy aur agni ko shilpavidya mein (pariyunjanti) sab prakaar se yukt karate hain, ve jaise (divi) sooryyaadi ke gunon ke prakaash mein padaarth prakaashit hote hain, vaise (rochanaah) tejasvee hoke (rochante) nity uttam-uttam aanand se prakaashit hote hain.)
भावार्थभाषाः -जो लोग विद्यासम्पादन में निरन्तर उद्योग करनेवाले होते हैं, वे ही सब सुखों को प्राप्त होते हैं। इसलिये विद्वान् को उचित है कि पृथिवी आदि पदार्थों से उपयोग लेकर सब प्राणियों को लाभ पहुँचावें कि जिससे उनको भी सम्पूर्ण सुख मिलें। जो यूरोपदेशवासी मोक्षमूलर साहब आदि ने इस मन्त्र का अर्थ घोड़े को रथ में जोड़ने का लिया है, सो ठीक नहीं। इसका खण्डन भूमिका में लिख दिया है, वहाँ देख लेना चाहिये॥१॥
(jo log vidyaasampaadan mein nirantar udyog karanevaale hote hain, ve hee sab sukhon ko praapt hote hain. isaliye vidvaan ko uchit hai ki prthivee aadi padaarthon se upayog lekar sab praaniyon ko laabh pahunchaaven ki jisase unako bhee sampoorn sukh milen. jo yooropadeshavaasee mokshamoolar saahab aadi ne is mantr ka arth ghode ko rath mein jodane ka liya hai, so theek nahin. isaka khandan bhoomika mein likh diya hai, vahaan dekh lena chaahiye.)
अन्वय:
ये मनुष्या अरुषं ब्रध्नं परितस्थुषश्चरन्तं परमात्मानं स्वात्मनि बाह्यदेशे सूर्य्यं वायुं वा युञ्जन्ति ते रोचना सन्तो दिवि प्रकाशे रोचन्ते प्रकाशन्ते॥१॥
पदार्थान्वयभाषाः -(युञ्जन्ति) योजयन्ति (ब्रध्नम्) महान्तं परमेश्वरम्। शिल्पविद्यासिद्धय आदित्यमग्निं प्राणं वा। ब्रध्न इति महन्नामसु पठितम्। (निघं०३.३)। (अरुषम्) सर्वेषु मर्मसु सीदन्तमहिंसकं परमेश्वरं प्राणवायुं तथा बाह्ये देशे रूपप्रकाशकं रक्तगुणविशिष्टमादित्यं वा। अरुषमिति रूपनामसु पठितम्। (निघं०३.७) (चरन्तम्) सर्वं जगज्जानन्तं सर्वत्र व्याप्नुवन्तम् (परि) सर्वतः (तस्थुषः) तिष्ठन्तीति तान् सर्वान् स्थावरान् पदार्थान् मनुष्यान् वा। तस्थुष इति मनुष्यनामसु पठितम्। (निघं०२.३) (रोचन्ते) प्रकाशन्ते रुचिहेतवश्च भवन्ति (रोचनाः) प्रकाशिताः प्रकाशकाश्च (दिवि) द्योतनात्मके ब्रह्मणि सूर्य्यादिप्रकाशे वा। अयं मन्त्रः शतपथेऽप्येवं व्याख्यातः—युञ्जन्ति ब्रध्नमरुषं चरन्तमिति। असौ वा आदित्यो ब्रध्नोऽरुषोऽमुमेवाऽस्मा आदित्यं युनक्ति स्वर्गस्य लोकस्य समष्ट्यै। (श०ब्रा०१३.१.१५.१)॥१॥
{(Yuñjanti) yōjayanti (bradhnam) mahāntaṁ paramēśvaram. Śilpavidyāsid'dhaya ādityamagniṁ prāṇaṁ vā. Bradhna iti mahannāmasu paṭhitam. (Nighaṁ03.3). (Aruṣam) sarvēṣu marmasu sīdantamahinsakaṁ paramēśvaraṁ prāṇavāyuṁ tathā bāhyē dēśē rūpaprakāśakaṁ raktaguṇaviśiṣṭamādityaṁ vā. Aruṣamiti rūpanāmasu paṭhitam. (Nighaṁ03.7) (Carantam) sarvaṁ jagajjānantaṁ sarvatra vyāpnuvantam (pari) sarvataḥ (tasthuṣaḥ) tiṣṭhantīti tān sarvān sthāvarān padārthān manuṣyān vā. Tasthuṣa iti manuṣyanāmasu paṭhitam. (Nighaṁ02.3) (Rōcantē) prakāśantē rucihētavaśca bhavanti (rōcanāḥ) prakāśitāḥ prakāśakāśca (divi) dyōtanātmakē brahmaṇi sūryyādiprakāśē vā. Ayaṁ mantraḥ śatapathē̕pyēvaṁ vyākhyātaḥ—yuñjanti bradhnamaruṣaṁ carantamiti. Asau vā ādityō bradhnō̕ruṣō̕mumēvā̕smā ādityaṁ yunakti svargasya lōkasya samaṣṭyai. (Śa0brā013.1.15.1).1.}
भावार्थभाषाः -ईश्वर उपदिशति-ये खलु विद्यासम्पादने उद्युक्ता भवन्ति तानेव सर्वाणि सुखानि प्राप्नुवन्ति। तस्माद्विद्वांसः पृथिव्यादिपदार्थेभ्य उपयोगं सङ्गृह्योपग्राह्य च सर्वान् प्राणिनः सुखयेयुरिति। यूरोपदेशवासिना भट्टमोक्षमूलराख्येनास्य मन्त्रस्यार्थो रथेऽश्वस्य योजनरूपो गृहीतः; सोऽन्यथास्तीति भूमिकायां लिखितम्॥१॥
{Īśvara upadiśati-yē khalu vidyāsampādanē udyuktā bhavanti tānēva sarvāṇi sukhāni prāpnuvanti. Tasmādvidvānsaḥ pr̥thivyādipadārthēbhya upayōgaṁ saṅgr̥hyōpagrāhya ca sarvān prāṇinaḥ sukhayēyuriti. Yūrōpadēśavāsinā bhaṭṭamōkṣamūlarākhyēnāsya mantrasyārthō rathē̕śvasya yōjanarūpō gr̥hītaḥ; sō̕n'yathāstīti bhūmikāyāṁ likhitam.1.}
উপাসনাই মুক্তি পাবার অতি উত্তম সাধন। এইজন্য বিদ্বানরা সমগ্ৰ জগৎ ও মনুষ্য হৃদয়ে ব্যাপ্ত পরমেশ্বরকে উপাসনা দ্বারা নিজ আত্মার সহিত যুক্ত করে থাকেন।
(সেই ঈশ্বর কিরূপ,তাহা বর্ণনা করা হয়েছে)
ঈশ্বর সর্বজ্ঞ, অহিংসক, সকল প্রকার আনন্দবর্ধনকারী, সর্বাপেক্ষা বৃহৎ, পরমানন্দদায়ক হওয়ায়, উপাসকদের আত্নার সমস্ত অবিদ্যাদি দোষ ও অন্ধকার নষ্ট হয়ে যায়,এবং জীবাত্না ঐ প্রকাশকারী পরমাত্নার দ্বারা প্রকাশিত হয়।
দ্বিতীয় অর্থ
যে সূর্যালোক নিজ কিরণ দ্বারা সমস্ত মূর্তিমান দ্রব্যের প্রকাশ ও আকর্ষণ করিয়া থাকে যাহা সর্বাপেক্ষা বৃহৎ, যাহা রক্তবর্ণ,যাহার আকর্ষণের সহিত সমস্ত লোক যুক্ত আছে,যাহার প্রকাশ দ্বারা সমস্ত পদার্থ সকল প্রকাশিত রহিয়াছে বিদ্বানগণ,সেই সূর্যকে সমস্ত লোকের সহিত আকর্ষণযুক্ত বলিয়া জ্ঞান করেন।
প্রাণই সকল পদার্থের সিদ্ধির মুখ্য হেতু স্বরূপ। এই প্রাণকে অর্থাৎ প্রাণবায়ুকে প্রাণায়ামের রীতি অনুসারে অনুসারে অত্যন্ত প্রীতির সহিত যোগীরা পরমাত্মায় যুক্ত করেন এবং এইরূপ করিয়া তিনি মোক্ষ প্রাপ্ত হইয়া সদা আনন্দের সহিত বিদ্যমান থাকেন।
গ্ৰন্থসূত্রঃ ঋগ্বেদাদি ভাষ্য ভূমিকা- মহর্ষি দয়ানন্দ সরস্বতী
यु॒ञ्जन्त्य॑स्य॒ काम्या॒ हरी॒ विप॑क्षसा॒ रथे॑।
शोणा॑ धृ॒ष्णू नृ॒वाह॑सा॥-ऋग्वेद मण्डल:1 सूक्त:6 मन्त्र:2
अंग्रेज़ी लिप्यंतरण
yuñjanty asya kāmyā harī vipakṣasā rathe | śoṇā dhṛṣṇū nṛvāhasā ||
पद पाठ
यु॒ञ्जन्ति॑। अ॒स्य॒। काम्या॑। हरी॒ इति॑। विप॑क्षसा। रथे॑। शोणा॑। धृ॒ष्णू इति॑। नृ॒ऽवाह॑सा॥
उक्त सूर्य्य और अग्नि आदि के कैसे गुण हैं, और वे कहाँ-कहाँ उपयुक्त करने योग्य हैं, सो अगले मन्त्र में उपदेश किया है-
पदार्थान्वयभाषाः -हे विद्वान् लोगो ! (अस्य) सूर्य्य और अग्नि के (काम्या) सब के इच्छा करने योग्य (शोणा) अपने-अपने वर्ण के प्रकाश करनेहारे वा गमन के हेतु (धृष्णू) दृढ (विपक्षसा) विविध कला और जल के चक्र घूमनेवाले पांखरूप यन्त्रों से युक्त (नृवाहसा) अच्छी प्रकार सवारियों में जुड़े हुए मनुष्यादिकों को देशदेशान्तर में पहुँचानेवाले (हरी) आकर्षण और वेग तथा शुक्लपक्ष और कृष्णपक्षरूप दो घोड़े जिनसे सब का हरण किया जाता है, इत्यादि श्रेष्ठ गुणों को पृथिवी जल और आकाश में जाने आने के लिये अपने-अपने रथों में (युञ्जन्ति) जोड़ें॥२॥
{he vidvaan logo ! (asy) sooryy aur agni ke (kaamya) sab ke ichchha karane yogy (shona) apane-apane varn ke prakaash karanehaare va gaman ke hetu (dhrshnoo) drdh (vipakshasa) vividh kala aur jal ke chakr ghoomanevaale paankharoop yantron se yukt (nrvaahasa) achchhee prakaar savaariyon mein jude hue manushyaadikon ko deshadeshaantar mein pahunchaanevaale (haree) aakarshan aur veg tatha shuklapaksh aur krshnapaksharoop do ghode jinase sab ka haran kiya jaata hai, ityaadi shreshth gunon ko prthivee jal aur aakaash mein jaane aane ke liye apane-apane rathon mein (yunjanti) joden.}
भावार्थभाषाः -ईश्वर उपदेश करता है कि-मनुष्य लोग जब तक भू जल आदि पदार्थों के गुण ज्ञान और उनके उपकार से भू जल और आकाश में जाने आने के लिये अच्छी सवारियों को नहीं बनाते, तब तक उनको उत्तम राज्य और धन आदि उत्तम सुख नहीं मिल सकते। जरमन देश के रहनेवाले मोक्षमूलर साहब ने इस मन्त्र का विपरीत व्याख्यान किया है। सो यह है कि-अस्य सर्वनामवाची इस शब्द के निर्देश से स्पष्ट मालूम होता है कि इस मन्त्र में इन्द्र देवता का ग्रहण है, क्योंकि लाल रंग के घोड़े इन्द्र ही के हैं। और यहाँ सूर्य्य तथा उषा का ग्रहण नहीं, क्योंकि प्रथम मन्त्र में एक घोड़े का ही ग्रहण किया है। यह उनका अर्थ ठीक नहीं, क्योंकि अस्य इस पद से भौतिक जो सूर्य्य और अग्नि हैं, इन्हीं दोनों का ग्रहण है, किसी देहधारी का नहीं। हरी इस पद से सूर्य्य के धारण और आकर्षण गुणों का ग्रहण तथा शोणा इस शब्द से अग्नि की लाल लपटों के ग्रहण होने से और पूर्व मन्त्र में एक अश्व का ग्रहण जाति के अभिप्राय से अर्थात् एकवचन से ब्रध्न जाति का ग्रहण होता है। और अस्य यह शब्द प्रत्यक्ष अर्थ का वाची होने से सूर्य्यादि प्रत्यक्ष पदार्थों का ग्राहक होता है, इत्यादि हेतुओं से मोक्षमूलर साहब का अर्थ सच्चा नहीं॥२॥
{eeshvar upadesh karata hai ki-manushy log jab tak bhoo jal aadi padaarthon ke gun gyaan aur unake upakaar se bhoo jal aur aakaash mein jaane aane ke liye achchhee savaariyon ko nahin banaate, tab tak unako uttam raajy aur dhan aadi uttam sukh nahin mil sakate. jaraman desh ke rahanevaale mokshamoolar saahab ne is mantr ka vipareet vyaakhyaan kiya hai. so yah hai ki-asy sarvanaamavaachee is shabd ke nirdesh se spasht maaloom hota hai ki is mantr mein indr devata ka grahan hai, kyonki laal rang ke ghode indr hee ke hain. aur yahaan sooryy tatha usha ka grahan nahin, kyonki pratham mantr mein ek ghode ka hee grahan kiya hai. yah unaka arth theek nahin, kyonki asy is pad se bhautik jo sooryy aur agni hain, inheen donon ka grahan hai, kisee dehadhaaree ka nahin. haree is pad se sooryy ke dhaaran aur aakarshan gunon ka grahan tatha shona is shabd se agni kee laal lapaton ke grahan hone se aur poorv mantr mein ek ashv ka grahan jaati ke abhipraay se arthaat ekavachan se bradhn jaati ka grahan hota hai. aur asy yah shabd pratyaksh arth ka vaachee hone se sooryyaadi pratyaksh padaarthon ka graahak hota hai, ityaadi hetuon se mokshamoolar saahab ka arth sachcha nahin॥}
#अन्वय:
हे विद्वांसोऽस्य काम्यौ शोणौ धृष्णू विपक्षसौ नृवाहसौ हरी रथे युञ्जन्ति युञ्जन्तु॥२॥
पदार्थान्वयभाषाः -(युञ्जन्ति) युञ्जन्तु। अत्र लोडर्थे लट्। (अस्य) सूर्य्यस्याग्नेः (काम्या) कामयितव्यौ। अत्र सर्वत्र सुपां सुलुगित्याकारादेशः। (हरी) हरणशीलावाकर्षणवेगगुणौ पूर्वपक्षापरपक्षौ वा। इन्द्रस्य हरी ताभ्यामिदꣳ सर्वं हरतीति। (षड्विंशब्रा०प्रपा०१.ख०१) (विपक्षसा) विविधानि यन्त्रकलाजलचक्रभ्रमणयुक्तानि पक्षांसि पार्श्वे स्थितानि ययोस्तौ (रथे) रमणसाधने भूजलाकाशगमनार्थे याने। यज्ञसंयोगाद्राजा स्तुतिं लभेत, राजसंयोगाद्युद्धोपकरणानि। तेषां रथः प्रथमगामी भवति। रथो रंहतेर्गतिकर्मणः स्थिरतेर्वा स्याद्विपरीतस्य रममाणोऽस्मिँस्तिष्ठतीति वा रपतेर्वा रसतेर्वा। (निरु०९.११) रथ इति पदनामसु पठितम्। (निघं०५.३) आभ्यां प्रमाणाभ्यां रथशब्देन विशिष्टानि यानानि गृह्यन्ते। (शोणा) वर्णप्रकाशकौ गमनहेतू च (धृष्णू) दृढौ (नृवाहसौ) सम्यग्योजितौ नॄन् वहतस्तौ॥२॥
{(Yuñjanti) yuñjantu. Atra lōḍarthē laṭ. (Asya) sūryyasyāgnēḥ (kāmyā) kāmayitavyau. Atra sarvatra supāṁ sulugityākārādēśaḥ. (Harī) haraṇaśīlāvākarṣaṇavēgaguṇau pūrvapakṣāparapakṣau vā. Indrasya harī tābhyāmidaꣳ sarvaṁ haratīti. (Ṣaḍvinśabrā0prapā01.Kha01) (vipakṣasā) vividhāni yantrakalājalacakrabhramaṇayuktāni pakṣānsi pārśvē sthitāni yayōstau (rathē) ramaṇasādhanē bhūjalākāśagamanārthē yānē. Yajñasanyōgādrājā stutiṁ labhēta, rājasanyōgādyud'dhōpakaraṇāni. Tēṣāṁ rathaḥ prathamagāmī bhavati. Rathō ranhatērgatikarmaṇaḥ sthiratērvā syādviparītasya ramamāṇō̕smim̐stiṣṭhatīti vā rapatērvā rasatērvā. (Niru09.11) Ratha iti padanāmasu paṭhitam. (Nighaṁ05.3) Ābhyāṁ pramāṇābhyāṁ rathaśabdēna viśiṣṭāni yānāni gr̥hyantē. (Śōṇā) varṇaprakāśakau gamanahētū ca (dhr̥ṣṇū) dr̥ḍhau (nr̥vāhasau) samyagyōjitau nr̥̄n vahatastau.}
भावार्थभाषाः -ईश्वर उपदिशति-न यावन्मनुष्या भूजलाग्न्यादिपदार्थानां गुणज्ञानोपकारग्रहणाभ्यां भूजलाकाशगमनाय यानानि सम्पादयन्ति नैव तावत्तेषां दृढे राज्यश्रियौ सुसुखे भवतः। शारमण्यदेशनिवासिनाऽस्य मन्त्रस्य विपरीतं व्याख्यानं कृतमस्ति। तद्यथा-‘अस्येति सर्वनाम्नो निर्देशात् स्पष्टं गम्यत इन्द्रस्य ग्रहणम्। कुतः, रक्तगुणविशिष्टावश्वावस्यैव सम्बन्धिनौ भवतोऽतः। नात्र खलु सूर्य्योषसोर्ग्रहणम्। कुतः, प्रथममन्त्र एकस्याश्वस्याभिधानात्।’ इति मोक्षमूलरकृतोऽर्थः सम्यङ् नास्तीति। कुतः, अस्येति पदेन भौतिकपदार्थयोः सूर्य्याग्न्योर्ग्रहणं, न कस्यचिद्देहधारिणः। हरी इति सूर्य्यस्य धारणाकर्षणगुणयोर्ग्रहणम्। शोणेति पदेनाग्ने रक्तज्वालागुणयोर्ग्रहणम्। पूर्वमन्त्रे ब्रध्नाभिधान एकवचनं जात्यभिप्रायेण चास्त्यतः। इदं शब्दप्रयोगः खलु प्रत्यक्षार्थवाचित्वात् संनिहितार्थस्य सूर्य्यादेरेव ग्रहणाच्च तत्कल्पितोऽर्थोऽन्यथैवास्तीति॥२॥
{Īśvara upadiśati-na yāvanmanuṣyā bhūjalāgn'yādipadārthānāṁ guṇajñānōpakāragrahaṇābhyāṁ bhūjalākāśagamanāya yānāni sampādayanti naiva tāvattēṣāṁ dr̥ḍhē rājyaśriyau susukhē bhavataḥ. Śāramaṇyadēśanivāsinā̕sya mantrasya viparītaṁ vyākhyānaṁ kr̥tamasti. Tadyathā-‘asyēti sarvanāmnō nirdēśāt spaṣṭaṁ gamyata indrasya grahaṇam. Kutaḥ, raktaguṇaviśiṣṭāvaśvāvasyaiva sambandhinau bhavatō̕taḥ. Nātra khalu sūryyōṣasōrgrahaṇam. Kutaḥ, prathamamantra ēkasyāśvasyābhidhānāt.’ Iti mōkṣamūlarakr̥tō̕rthaḥ samyaṅ nāstīti. Kutaḥ, asyēti padēna bhautikapadārthayōḥ sūryyāgn'yōrgrahaṇaṁ, na kasyaciddēhadhāriṇaḥ. Harī iti sūryyasya dhāraṇākarṣaṇaguṇayōrgrahaṇam. Śōṇēti padēnāgnē raktajvālāguṇayōrgrahaṇam. Pūrvamantrē bradhnābhidhāna ēkavacanaṁ jātyabhiprāyēṇa cāstyataḥ. Idaṁ śabdaprayōgaḥ khalu pratyakṣārthavācitvāt sannihitārthasya sūryyādērēva grahaṇācca tatkalpitō̕rthō̕n'yathaivāstīti.}
के॒तुं कृ॒ण्वन्न॑के॒तवे॒ पेशो॑ मर्या अपे॒शसे॑।
समु॒षद्भि॑रजायथाः॥
-ऋग्वेद मण्डल:1 सूक्त:6 मन्त्र:3
अंग्रेज़ी लिप्यंतरण
ketuṁ kṛṇvann aketave peśo maryā apeśase | sam uṣadbhir ajāyathāḥ ||
पद पाठ
के॒तुम्। कृ॒ण्वन्। अ॒के॒तवे॑। पेशः॑। म॒र्याः॒। अ॒पे॒शसे॑। सम्। उ॒षत्ऽभिः॑। अ॒जा॒य॒थाः॒॥
जिसने संसार के सब पदार्थ उत्पन्न किये हैं, वह कैसा है, यह बात अगले मन्त्र में प्रकाशित की है-
पदार्थान्वयभाषाः -(मर्य्याः) हे मनुष्य लोगो ! जो परमात्मा (अकेतवे) अज्ञानरूपी अन्धकार के विनाश के लिये (केतुम्) उत्तम ज्ञान, और (अपेशसे) निर्धनता दारिद्र्य तथा कुरूपता विनाश के लिये (पेशः) सुवर्ण आदि धन और श्रेष्ठ रूप को (कृण्वन्) उत्पन्न करता है, उसको तथा सब विद्याओं को (समुषद्भिः) जो ईश्वर की आज्ञा के अनुकूल वर्त्तनेवाले हैं, उनसे मिल कर जानो। तथा हे जानने की इच्छा करनेवाले मनुष्य ! तू भी उस परमेश्वर के समागम से (अजायथाः) इस विद्या को यथावत् प्राप्त हो॥३॥
भावार्थभाषाः -मनुष्यों को प्रति रात्रि के चौथे प्रहर में आलस्य छोड़कर फुरती से उठ कर अज्ञान और दरिद्रता के विनाश के लिये प्रयत्नवाले होकर तथा परमेश्वर के ज्ञान और संसारी पदार्थों से उपकार लेने के लिये उत्तम उपाय सदा करना चाहिये। यद्यपि मर्य्याः इस पद से किसी का नाम नहीं मालूम होता, तो भी यह निश्चय करके जाना जाता है कि इस मन्त्र में इन्द्र का ही ग्रहण है कि-हे इन्द्र तू वहाँ प्रकाश करनेवाला है कि जहाँ पहिले प्रकाश नहीं था। यह मोक्षमूलरजी का अर्थ असङ्गत है, क्योंकि मर्य्याः यह शब्द मनुष्य के नामों में निघण्टु में पढ़ा है, तथा अजायथाः यह प्रयोग पुरुषव्यत्यय से प्रथम पुरुष के स्थान में मध्यम पुरुष का प्रयोग किया है॥३॥
अन्वय:
हे मर्य्याः ! यो जगदीश्वरोऽकेतवे केतुमपेशसे पेशः कृणवन्सन् वर्त्तते तं सर्वा विद्याश्च समुषद्भिः सह समागमं कृत्वा यूयं यथावद्विजानीत। तथा हे जिज्ञासो मनुष्य ! त्वमपि तत्समागमेनाऽजायथाः, एतद्विद्याप्राप्त्या प्रसिद्धो भव॥३॥
पदार्थान्वयभाषाः -(केतुम्) प्रज्ञानम्। केतुरिति प्रज्ञानामसु पठितम्। (निघं०३.९) (कृण्वन्) कुर्वन्सन्। इदं कृवि हिंसाकरणयोश्चेत्यस्य रूपम्। (अकेतवे) अज्ञानान्धकारविनाशाय (पेशः) हिरण्यादिधनं श्रेष्ठं रूपं वा। पेश इति हिरण्यनामसु पठितम्। (निघं०१.२) रूपनामसु च। (निघं०३.७) (मर्य्याः) मरणधर्मशीला मनुष्यास्तत्सम्बोधने। मर्य्या इति मनुष्यनामसु पठितम्। (निघं०२.३) (अपेशसे) निर्धनतादारिद्र्यादिदोषविनाशाय (सम्) सम्यगर्थे (उषद्भिः) ईश्वरादिपदार्थविद्याः कामयमानैर्विद्वद्भिः सह समागमं कृत्वा (अजायथाः) एतद्विद्याप्राप्त्या प्रकटो भव। अत्र लोडर्थे लङ्॥३॥
भावार्थभाषाः -मनुष्यै रात्रेश्चतुर्थे प्रहर आलस्यं त्यक्त्वोत्थायाज्ञानदारिद्र्यविनाशाय नित्यं प्रयत्नवन्तो भूत्वा परमेश्वरस्य ज्ञानं पदार्थेभ्य उपकारग्रहणं च कार्य्यमिति। ‘यद्यपि मर्य्या इति विशेषतयाऽत्र कस्यापि नाम न दृश्यते, तदप्यत्रेन्द्रस्यैव ग्रहणमस्तीति निश्चीयते। हे इन्द्र ! त्वं प्रकाशं जनयसि यत्र पूर्वं प्रकाशो नाभूत्। ’ इति मोक्षमूलरकृतोऽर्थोऽसङ्गतोऽस्ति। कुतो, मर्य्या इति मनुष्यनामसु पठितत्वात् (निघं०२.३)। अजायथा इति लोडर्थे लङ्विधानेन मनुष्यकर्त्तृकत्वेन पुरुषव्यत्ययेन प्रथमार्थे मध्यमविधानादिति॥३॥
आदह॑ स्व॒धामनु॒ पुन॑र्गर्भ॒त्वमे॑रि॒रे।
दधा॑ना॒ नाम॑ य॒ज्ञिय॑म्॥
अंग्रेज़ी लिप्यंतरण
ād aha svadhām anu punar garbhatvam erire | dadhānā nāma yajñiyam ||
मन्त्र उच्चारण
पद पाठ
आत्। अह॑। स्व॒धाम्। अनु॑। पुनः॑। ग॒र्भ॒ऽत्वम् आ॒ऽई॒रि॒रे। दधा॑नाः। नाम॑। य॒ज्ञिय॑म्॥
ऋग्वेद मण्डल:1 सूक्त:6 मन्त्र:4
स्वामी दयानन्द सरस्वती
अगले मन्त्र में वायु के कर्मों का उपदेश किया है-
पदार्थान्वयभाषाः -जैसे मरुतः वायु (नाम) जल और (यज्ञियम्) यज्ञ के योग्य देश को (दधानाः) सब पदार्थों को धारण किये हुए (पुनः) फिर-फिर (स्वधामनु) जलों में (गर्भत्वम्) उनके समूहरूपी गर्भ को (एरिरे) सब प्रकार से प्राप्त होते कम्पाते, वैसे (आत्) उसके उपरान्त वर्षा करते हैं, ऐसे ही वार-वार जलों को चढ़ाते वर्षाते हैं॥४॥
भावार्थभाषाः -जो जल सूर्य्य वा अग्नि के संयोग से छोटा-छोटा हो जाता है, उसको धारण कर और मेघ के आकार को बना के वायु ही उसे फिर-फिर वर्षाता है, उसी से सब का पालन और सब को सुख होता है।इसके पीछे वायु अपने स्वभाव के अनुकूल बालक के स्वरूप में बन गये और अपना नाम पवित्र रख लिया। देखिये मोक्षमूलर साहब का किया अर्थ मन्त्रार्थ से विरुद्ध है, क्योंकि इस मन्त्र में बालक बनना और अपना पवन नाम रखना, यह बात ही नहीं है। यहाँ इन्द्र नामवाले वायु का ही ग्रहण है, अन्य किसी का नहीं॥४॥
स्वामी दयानन्द सरस्वती
अथ मरुतां कर्मोपदिश्यते।
अन्वय:
यथा मरुतो यज्ञियं नाम दधानाः सन्तो यदा स्वधामन्वप्सु पुनर्गर्भत्वमेरिरे, तथा आत् अनन्तरं वृष्टिं कृत्वा पुनर्जलानामहेति विनिग्रहं कुर्वन्ति॥४॥
पदार्थान्वयभाषाः -(आत्) आनन्तर्य्यार्थे (अह) विनिग्रहार्थे। अह इति विनिग्रहार्थीयः। (निरु०१.५) (स्वधाम्) उदकम्। स्वधेत्युदकनामसु पठितम्। (निघं०१.१२) (अनु) वीप्सायाम् (पुनः) पश्चात् (गर्भत्वम्) गर्भस्याधिकरणा वाक् तस्या भावस्तत् (एरिरे) समन्तात् प्राप्नुवन्तः। ईर गतौ कम्पने चेत्यस्यामन्त्र इति प्रतिषेधादामोऽभावे प्रयोगः। (दधानाः) सर्वधारकाः (नाम) उदकम्। नामेत्युदकनामसु पठितम्। (निघं०१.१२) (यज्ञियम्) यज्ञकर्मार्हतीति यज्ञियो देशस्तम्। तत्कर्मार्हतीत्युपसंख्यानम्। (अष्टा०५.१.७१) इति वार्तिकेन घः प्रत्ययः॥४॥
भावार्थभाषाः -यज्जलं सूर्य्याग्निभ्यां लघुत्वं प्राप्य कणीभूतं जायते, तद्धारणं घनाकारं कृत्वा मरुत एव वर्षयन्ति, तेन सर्वपालनं सुखं च जायते। ‘तदनन्तरं मरुतः स्वस्वभावानुकूल्येन बालकाकृतयो जाताः। यैः स्वकीयं शुद्धं नाम रक्षितम्।’ इति मोक्षमूलरोक्तिः प्रणाय्यास्ति। कस्मात्, न खल्वत्र बालकाकृतिशुद्धनामरक्षणयोरविद्यमानत्वेनेन्द्रसंज्ञिकानां मरुतां सकाशादन्यार्थस्य ग्रहणं सम्भवत्यतः॥४॥
वी॒ळु चि॑दारुज॒त्नुभि॒र्गुहा॑ चिदिन्द्र॒ वह्नि॑भिः।
अवि॑न्द उ॒स्रिया॒ अनु॑॥
ऋग्वेद मण्डल:1 सूक्त:6 मन्त्र:5
अंग्रेज़ी लिप्यंतरण
vīḻu cid ārujatnubhir guhā cid indra vahnibhiḥ | avinda usriyā anu ||
मन्त्र उच्चारण
पद पाठ
वी॒ळु। चि॒त्। आ॒रु॒ज॒त्नुऽभिः॑। गुहा॑। चि॒त्। इ॒न्द्र॒। वह्नि॑ऽभिः। अवि॑न्दः। उ॒स्रियाः॑। अनु॑॥
स्वामी दयानन्द सरस्वती
उन पवनों के साथ सूर्य्य क्या करता है, सो अगले मन्त्र में उपदेश किया है-
पदार्थान्वयभाषाः -(चित्) जैसे मनुष्य लोग अपने पास के पदार्थों को उठाते धरते हैं, (चित्) वैसे ही सूर्य्य भी (वीळु) दृढ बल से (उस्रियाः) अपनी किरणों करके संसारी पदार्थों को (अविन्दः) प्राप्त होता है, (अनु) उसके अनन्तर सूर्य्य उनको छेदन करके (आरुजत्नुभिः) भङ्ग करने और (वह्निभिः) आकाश आदि देशों में पहुँचानेवाले पवन के साथ ऊपर-नीचे करता हुआ (गुहा) अन्तरिक्ष अर्थात् पोल में सदा चढ़ाता गिराता रहता है॥५॥
भावार्थभाषाः -इस मन्त्र में उपमालङ्कार है। जैसे बलवान् पवन अपने वेग से भारी-भारी दृढ वृक्षों को तोड़ फोड़ डालते और उनको ऊपर नीचे गिराते रहते हैं, वैसे ही सूर्य्य भी अपनी किरणों से उनका छेदन करता रहता है, इससे वे ऊपर नीचे गिरते रहते हैं। इसी प्रकार ईश्वर के नियम से सब पदार्थ उत्पत्ति और विनाश को भी प्राप्त होते रहते हैं। ।हे इन्द्र ! तू शीघ्र चलनेवाले वायु के साथ अप्राप्त स्थान में रहनेवाली गौओं को प्राप्त हुआ। यह भी मोक्षमूलर साहब की व्याख्या असङ्गत है, क्योंकि उस्रा यह शब्द निघण्टु में रश्मि नाम में पढ़ा है, इससे सूर्य्य की किरणों का ही ग्रहण होना योग्य है। तथा गुहा इस शब्द से सबको ढाँपनेवाला होने से अन्तरिक्ष का ग्रहण है॥५॥-स्वामी दयानन्द सरस्वती
तैः सह सूर्य्यः किं करोतीत्युपदिश्यते।
अन्वय:
चिद्यथा मनुष्याः स्वसमीपस्थान् पदार्थानुपर्य्यधश्च नयन्ति, तथैवेन्द्रोऽयं सूर्य्यो वीळुबलेनोस्रियाः क्षेपयित्वा पदार्थान् विन्दतेऽनु पश्चात्तान् भित्त्वाऽऽरुजत्नुभिर्वह्निभिर्मरुद्भिः सह त्वामेतत्पदार्थसमूहं गुहायामन्तरिक्षे स्थापयति॥५॥
पदार्थान्वयभाषाः -(वीळु) दृढं बलम्। वीळु इति बलनामसु पठितम्। (निघं०२.९) (चित्) उपमार्थे। (निरु०१.४) (आरुजत्नुभिः) समन्ताद् भञ्जद्भिः। आङ्पूर्वाद् रुजो भङ्ग इत्यस्माद्धातोरौणादिकः क्त्नुः प्रत्ययः। (गुहा) गुहायामन्तरिक्षे। सुपां सुलुगिति ङेर्लुक्। गुहा गूहतेः। (निरु०१३.८) (चित्) एवार्थे। चिदिदं पूजायाम्। (निरु०१.४) (इन्द्रः) सूर्य्यः (वह्निभिः) वोढृभिर्मरुद्भिः सह। वहिशृ० (उणा०४.५१) इति वहेरौणादिको निः प्रत्ययः। (अविन्दः) लभते। पूर्ववदत्र पुरुषव्यत्ययः, लडर्थे लङ् च। (उस्रियाः) किरणाः। अत्र इयाडियाजीकाराणामुपसंख्यानमित्यनेन शसः स्थाने डियाजादेशः। उस्रेति रश्मिनामसु पठितम्। (निघं०१.५) (अनु) पश्चादर्थे॥५॥
भावार्थभाषाः -अत्रोपमालङ्कारः। यथा बलवन्तो मरुतो दृढेन स्ववेगेन दृढानपि वृक्षादीन् भञ्जन्ति तथा सूर्य्यस्तानहर्निशं किरणैश्छिनत्ति मरुतश्च तानुपर्य्यधो नयन्ति, एवमेवेश्वरनियमेन सर्वे पदार्था उत्पत्तिविनाशावपि प्राप्नुवन्ति। ‘हे इन्द्र ! त्वया तीक्ष्णगतिभिर्वायुभिः सह गूढस्थानस्था गावः प्राप्ता’ इति मोक्षमूलरव्याख्याऽसङ्गतास्ति। कुतः, उस्रेति रश्मिनामसु निघण्टौ (१.५) पठितत्वेनात्रैतस्यार्थस्यैवार्थस्य योग्यत्वात्। गुहेत्यनेन सर्वावरकत्वादन्तरिक्षस्यैव ग्रहणार्हत्वादिति॥५॥
दे॒व॒यन्तो॒ यथा॑ म॒तिमच्छा॑ वि॒दद्व॑सुं॒ गिरः॑।
म॒हाम॑नूषत श्रु॒तम्॥
अंग्रेज़ी लिप्यंतरण
devayanto yathā matim acchā vidadvasuṁ giraḥ | mahām anūṣata śrutam ||
मन्त्र उच्चारण
पद पाठ
दे॒व॒ऽयन्तः॑। यथा॑। म॒तिम्। अच्छ॑। वि॒दत्ऽव॑सुम्। गिरः॑। म॒हाम्। अ॒नू॒ष॒त॒। श्रु॒तम्॥
ऋग्वेद मण्डल:1 सूक्त:6 मन्त्र:6
फिर वे पवन कैसे हैं, सो अगले मन्त्र में प्रकाश किया है-
पदार्थान्वयभाषाः -जैसे (देवयन्तः) सब विज्ञानयुक्त (गिरः) विद्वान् मनुष्य (विदद्वसुम्) सुखकारक पदार्थविद्या से युक्त (महाम्) अत्यन्त बड़ी (मतिम्) बुद्धि (श्रुतम्) सब शास्त्रों के श्रवण और कथन को (अच्छ) अच्छी प्रकार (अनूषत) प्रकाश करते हैं, वैसे ही अच्छी प्रकार साधन करने से वायु भी शिल्प अर्थात् सब कारीगरी को सिद्ध करते हैं ॥६॥
भावार्थभाषाः -इस मन्त्र में उपमालङ्कार है। मनुष्यों को वायु के उत्तम गुणों का ज्ञान, सब का उपकार और विद्या की वृद्धि के लिये प्रयत्न सदा करना चाहिये, जिससे सब व्यवहार सिद्ध हों। गान करनेवाले धर्मात्मा जो वायु हैं, उन्होंने इन्द्र को ऐसी वाणी सुनाई कि तू जीत जीत। यह भी मोक्षमूलर का अर्थ अच्छा नहीं, क्योंकि देवयन्तः इस शब्द का अर्थ यह है कि मनुष्य लोग अपने अन्तःकरण से विद्वानों के मिलने की इच्छा रखते हैं। इस अर्थ से मनुष्यों का ग्रहण होता है ॥६॥-स्वामी दयानन्द सरस्वती
स्वामी दयानन्द सरस्वती
पुनस्ते कीदृशा भवन्तीत्युपदिश्यते।
अन्वय:(संस्कृत)
यथा देवयन्तो गिरो विद्वांसो मनुष्या विदद्वसुं महां महतीं मतिं बुद्धिं श्रुतं वेदशास्त्रार्थयुक्तं श्रवणं कथनं चानूषत प्रशस्तं कुर्वन्ति, तथैव मरुतः स्ववेगादिगुणयुक्ताः सन्तो वाक्श्रोत्रचेष्टामहच्छिल्पकार्य्यं च प्रशस्तं साधयन्ति ॥६॥
पदार्थान्वयभाषाः -(देवयन्तः) प्रकाशयन्त आत्मनो देवमिच्छन्तो मनुष्याः (यथा) येन प्रकारेण (मतिम्) बुद्धिम् (अच्छ) उत्तमरीत्या। निपातस्य चेति दीर्घः। (विदद्वसुम्) विदद्भिः सुखज्ञापकैर्वसुभिर्युक्ताम् (गिरः) गृणन्ति ये ते गिरो विद्वांसः (महाम्) महतीम् (अनूषत) प्रशस्तां कुर्वन्ति। णू स्तवन इत्यस्य लुङ्प्रयोगः। संज्ञापूर्वको विधिरनित्य इति गुणाभावः, लडर्थे लुङ् च। (श्रुतम्) सर्वशास्त्रश्रवणकथनम् ॥६॥
भावार्थभाषाः -अत्रोपमालङ्कारः। मनुष्यैर्मरुतां सकाशाल्लोकोपकारार्थं विद्याबुद्ध्यर्थं च सदा प्रयत्नः कार्य्यो येन सर्वे व्यवहाराः सिद्धेयुरिति। ‘धर्मात्मभिर्गायनैर्मरुद्भिरिन्द्राय जयजयेति श्राविताः’ इति मोक्षमूलरोक्तिरन्यथास्ति। कुतः, देवयन्त इत्यात्मनो देवं विद्वांसमिच्छन्त इत्यर्थान्मनुष्याणामेव ग्रहणम् ॥६॥
इन्द्रे॑ण॒ सं हि दृक्ष॑से संजग्मा॒नो अबि॑भ्युषा।
म॒न्दू स॑मा॒नव॑र्चसा॥
ऋग्वेद मण्डल:1 सूक्त:6 मन्त्र:7
अंग्रेज़ी लिप्यंतरण
indreṇa saṁ hi dṛkṣase saṁjagmāno abibhyuṣā | mandū samānavarcasā ||
मन्त्र उच्चारण
पद पाठ
इन्द्रे॑ण। सम्। हि। दृक्ष॑से। स॒म्ऽज॒ग्मा॒नः। अबि॑भ्युषा। म॒न्दू इति॑। स॒मा॒नऽव॑र्चसा॥
स्वामी दयानन्द सरस्वती
उक्त पदार्थ किस के सहाय से कार्य्य के सिद्ध करनेवाले होते हैं, सो अगले मन्त्र में प्रकाश किया है-
पदार्थान्वयभाषाः -यह वायु (अबिभ्युषा) भय दूर करनेवाली (इन्द्रेण) परमेश्वर की सत्ता के साथ (संजग्मानः) अच्छी प्रकार प्राप्त हुआ, तथा वायु के साथ सूर्य्य (संदृक्षसे) अच्छी प्रकार दृष्टि में आता है, (हि) जिस कारण ये दोनों (समानवर्चसा) पदार्थों के प्रसिद्ध बलवान् हैं, इसी से वे सब जीवों को (मन्दू) आनन्द के देनेवाले होते हैं॥७॥
भावार्थभाषाः -ईश्वर ने जो अपनी व्याप्ति और सत्ता से सूर्य्य और वायु आदि पदार्थ उत्पन्न करके धारण किये हैं, इन सब पदार्थों के बीच में से सूर्य्य और वायु ये दोनों मुख्य हैं, क्योंकि इन्हीं के धारण आकर्षण और प्रकाश के योग से सब पदार्थ सुशोभित होते हैं। मनुष्यों को चाहिये कि उन्हें पदार्थविद्या से उपकार लेने के लिये युक्त करें। यह बड़ा आश्चर्य्य है कि बहुवचन के स्थान में एकवचन का प्रयोग किया गया, तथा निरुक्तकार ने द्विवचन के स्थान में एकवचन का प्रयोग माना है, सो असङ्गत है। यह भी मोक्षमूलर साहब की कल्पना ठीक नहीं, क्योंकि व्यत्ययो ब० सुप्तिङुपग्रह० व्याकरण के इस प्रमाण से वचनव्यत्यय होता है। तथा निरुक्तकार का व्याख्यान सत्य है, क्योंकि सुपा सु० इस सूत्र से मन्दू इस शब्द में द्विवचन को पूर्वसवर्ण दीर्घ एकादेश हो गया है॥७॥
केन सहैते कार्य्यसाधका भवन्तीत्युपदिश्यते।
अन्वय:
अयं वायुरबिभ्युषेन्द्रेणैव संजग्मानः सन् तथा वायुना सह सूर्य्यश्च सङ्गत्य संदृक्षसे दृश्यते दृष्टिपथमागच्छति हि यतस्तौ समानवर्चसौ वर्तेते तस्मात्सर्वेषां मन्दू भवतः॥७॥
पदार्थान्वयभाषाः -(इन्द्रेण) परमेश्वरेण सूर्य्येण सह वा (सम्) सम्यक् (हि) निश्चये (दृक्षसे) दृश्यते। अत्र लडर्थे लेट्मध्यमैकवचनप्रयोगः। अनित्यमागमशासनमिति वचनप्रामाण्यात् सृजिदृशोरित्यम् न भवति। (संजग्मानः) सम्यक् सङ्गतः (अबिभ्युषा) भयनिवारणहेतुना किरणसमूहेन वायुगणेन सह वा (मन्दू) आनन्दितावानन्दकारकौ। मन्दू इति पदनामसु पठितम्। (निघं०४.१) (समानवर्चसा) समानं तुल्यं वर्चो दीप्तिर्यर्योस्तौ। यास्काचार्य्येणायं मन्त्र एवं व्याख्यातः—इन्द्रेण सं हि दृश्यसे संजग्मानो अबिभ्युषा गणेन मन्दू मदिष्णू युवां स्थोऽपि वा मन्दुना तेनेति स्यात्समानवर्चसेत्येतेन व्याख्यातम्। (निरु०४.१२)॥७॥
भावार्थभाषाः -ईश्वरेणाभिव्याप्य स्वसत्तया सूर्य्यवाय्वादयः सर्वे पदार्था उत्पाद्य धारिता वर्त्तन्ते। एतेषां मध्य खलु सूर्य्यवाय्वोर्धारणाकर्षणप्रकाशयोगेन सह वर्त्तमानाः सर्वे पदार्थाः शोभन्ते। मनुष्यैरेते विद्योपकारं ग्रहीतुं योजनीयाः। ‘इदम्महदाश्चर्यं यद्बहुवचनस्यैकवचने प्रयोगः कृतोऽस्तीति। यच्च निरुक्तकारेण द्विवचनस्य स्थान एकवचनप्रयोगः कृतोऽस्त्यतोऽसङ्गतोऽस्ति।’ इति च मोक्षमूलरकल्पना सम्यङ् न वर्त्तते। कुतः, व्यत्ययो बहुलम्, सुप्तिङुपग्रह० इति वचनव्यत्ययविधायकस्य शास्त्रस्य विद्यमानत्वात्। तथा निरुक्तकारस्य व्याख्यानं समञ्जसमस्ति। कुतः, मन्दू इत्यत्र सुपां सुलुग्० इति पूर्वसवर्णादेशविधायकस्य शास्त्रस्य विद्यमानत्वात्॥७॥
अ॒न॒व॒द्यैर॒भिद्यु॑भिर्म॒खः सह॑स्वदर्चति।
ग॒णैरिन्द्र॑स्य॒ काम्यैः॑॥
ऋग्वेद मण्डल:1 सूक्त:6 मन्त्र:8
अंग्रेज़ी लिप्यंतरण
anavadyair abhidyubhir makhaḥ sahasvad arcati | gaṇair indrasya kāmyaiḥ ||
मन्त्र उच्चारण
पद पाठ
अ॒न॒व॒द्यैः। अ॒भिद्यु॑ऽभिः। म॒खः। सह॑स्वत्। अ॒र्च॒ति॒। ग॒णैः। इन्द्र॑स्य। काम्यैः॑॥
स्वामी दयानन्द सरस्वती
पूर्वोक्त नित्य वर्तमान व्यवहार किस प्रकार से है, इस विषय का उपदेश अगले मन्त्र में किया है-
पदार्थान्वयभाषाः -जो यह (मखः) सुख और पालन होने का हेतु यज्ञ है, वह (इन्द्रस्य) सूर्य्य की (अनवद्यैः) निर्दोष (अभिद्युभिः) सब ओर से प्रकाशमान और (काम्यैः) प्राप्ति की इच्छा करने के योग्य (गणैः) किरणों वा पवनों के साथ मिलकर सब पदार्थों को (सहस्वत्) जैसे दृढ़ होते हैं, वैसे ही (अर्चति) श्रेष्ठ गुण करनेवाला होता है॥८॥
भावार्थभाषाः -जो शुद्ध अत्युत्तम होम के योग्य पदार्थों के अग्नि में किये हुए होम से किया हुआ यज्ञ है, वह वायु और सूर्य्य की किरणों की शुद्धि के द्वारा रोगनाश करने के हेतु से सब जीवों को सुख देकर बलवान् करता है। यहाँ मखशब्द से यज्ञ करनेवाले का ग्रहण है, तथा देवों के शत्रु का भी ग्रहण है। यह भी मोक्षमूलर साहब का कहना ठीक नहीं, क्योंकि जो मखशब्द यज्ञ का वाची है, वह सूर्य्य की किरणों के सहित अच्छे-अच्छे वायु के गुणों से हवन किये हुए पदार्थों को सर्वत्र पहुँचाता है, तथा वायु और वृष्टिजल की शुद्धि का हेतु होने से सब प्राणियों को सुख देनेवाला होता है। और मख शब्द के उपमावाचक होने से देवों के शत्रु का भी ग्रहण नहीं॥८॥
कथं पूर्वोक्तो नित्यवर्त्तमानो व्यवहारोऽस्तीत्युपदिश्यते।
अन्वय:
अयं मख इन्द्रस्यानवद्यैरभिद्युभिः काम्यैर्गणैः सह सर्वान्पदार्थान्सहस्वदर्चति॥८॥
पदार्थान्वयभाषाः -(अनवद्यैः) निर्दोषैः (अभिद्युभिः) अभितः प्रकाशमानैः (मखः) पालनशिल्पाख्यो यज्ञः। मख इति यज्ञनामसु पठितम्। (निघं०३.१७) (सहस्वत्) सहोऽतिशयितं सहनं विद्यते यस्मिन् तद्यथा स्यात्तथा। अत्रातिशये मतुप्। (अर्चति) सर्वान् पदार्थान् सत्करोति (गणैः) किरणसमूहैर्मरुद्भिर्वा (इन्द्रस्य) सूर्य्यस्य (काम्यैः) कामयितव्यैरुत्तमैः सह मिलित्वा॥८॥
भावार्थभाषाः -अयं सुखरक्षणप्रदो यज्ञः शुद्धानां द्रव्याणामग्नौ कृतेन होमेन सम्पादितो हि वायुकिरणशोधनद्वारा रोगविनाशनात्सर्वान् प्राणिनः सुखयित्वा बलवतः करोति। अत्र मोक्षमूलरेण मखशब्देन यज्ञकर्त्ता गृहीतस्तदन्यथास्ति। कुतो, मखशब्देन यज्ञस्याभिधानत्वेन कमनीयैर्वायुगणैः सूर्य्यकिरणसहितैः सह हुतद्रव्यवहनेन वायुवृष्टिजलशुद्धिद्वारेष्टसुखसम्पादनेन सर्वेषां प्राणिनां सत्कारहेतुत्वात्। यच्चोक्तं ‘मखशब्देन देवानां शत्रुर्गृह्यते’ तदप्यन्यथास्ति। कुतस्तत्र मखशब्दस्योपमावाचकत्वात्॥८॥
अतः॑ परिज्म॒न्ना ग॑हि दि॒वो वा॑ रोच॒नादधि॑।
सम॑स्मिन्नृञ्जते॒ गिरः॑॥
ऋग्वेद मण्डल:1 सूक्त:6 मन्त्र:9
अंग्रेज़ी लिप्यंतरण
ataḥ parijmann ā gahi divo vā rocanād adhi | sam asminn ṛñjate giraḥ ||
मन्त्र उच्चारण
पद पाठ
अतः॑। प॒रि॒ज्म॒न्। आ। ग॒हि॒। दि॒वः। वा॒। रो॒च॒नात्। अधि॑। सम्। अ॒स्मि॒न्। ऋ॒ञ्ज॒ते॒। गिरः॑॥
अगले मन्त्र में गमनस्वभाववाले पवन का प्रकाश किया है॥
पदार्थान्वयभाषाः -जिस वायु में (गिरः) वाणी का सब व्यवहार (समृञ्जते) सिद्ध होता है, वह (परिज्मन्) सर्वत्र गमन करता हुआ सब पदार्थों को तले ऊपर पहुँचानेवाला पवन (अतः) इस पृथिवीस्थान से जलकणों का ग्रहण करके (अध्यागहि) ऊपर पहुँचाता और फिर (दिवः) सूर्य्य के प्रकाश से (वा) अथवा (रोचनात्) जो कि रुचि को बढ़ानेवाला मेघमण्डल है, उससे जल को गिराता हुआ तले पहुँचाता है। (अस्मिन्) इसी बाहर और भीतर रहनेवाले पवन में सब पदार्थ स्थिति को प्राप्त होते हैं॥९॥
भावार्थभाषाः -यह बलवान् वायु अपने गमन आमगन गुण से सब पदार्थों के गमन आगमन धारण तथा शब्दों के उच्चारण और श्रवण का हेतु है।इस मन्त्र में सायणाचार्य्य ने जो उणादिगण में सिद्ध परिज्मन् शब्द था, उसे छोड़कर मनिन्प्रत्ययान्त कल्पना किया है, सो केवल उनकी भूल है। हे इधर-उधर विचरनेवाले मनुष्यदेहधारी इन्द्र ! तू आगे पीछे और ऊपर से हमारे समीप आ, यह सब गानेवालों की इच्छा है। यह भी उन (मोक्षमूलर साहब) का अर्थ अत्यन्त विपरीत है, क्योंकि इस वायुसमूह में मनुष्यों की वाणी शब्दों के उच्चारणव्यवहार से प्रसिद्ध होने से प्राणरूप वायु का ग्रहण है॥९॥
-स्वामी दयानन्द सरस्वती
अथ मरुतां गमनशीलत्वमुपदिश्यते।
अन्वय:
यत्र गिरः समृञ्जते सोऽयं परिज्मा वायुरतः पृथिवीस्थानाज्जलकणानध्यागह्युपरि गमयति, स पुनर्दिवो रोचनात् सूर्य्यप्रकाशान्मेघमण्डलाद्वा जलादिपदार्थानागह्यागमयति। अस्मिन् सर्वे पदार्थाः स्थितिं लभन्ते॥९॥
पदार्थान्वयभाषाः -(अतः) अस्मात्स्थानात् (परिज्मन्) परितः सर्वतो गच्छन् उपर्य्यधः। सर्वान् पदार्थानितस्ततः क्षेप्ता। अयमजधातोः प्रयोगः। श्वनुक्षण० (उणा०१.१५९) इति कनिन्प्रत्ययान्तो मुडागमेनाकारलोपेन च निपातितः। (आगहि) गमयत्यागमयति वा। अत्र लडर्थे लोट्, पुरुषव्यत्ययेन गमेर्मध्यमपुरुषस्यैकवचने बहुलं छन्दसीति शपो लुक्, हेर्ङित्त्वादनुनासिकलोपश्च। (दिवः) प्रकाशात् (वा) पक्षान्तरे (रोचनात्) सूर्य्यप्रकाशाद्रुचिकरान्मेघमण्डलाद्वा (अधि) उपरितः (सम्) सम्यक् (अस्मिन्) बहिरन्तःस्थे मरुद्गणे (ऋञ्जते) प्रसाध्नुवन्ति। ऋञ्जतिः प्रसाधनकर्मा। (निरु०६.२१) (गिरः) वाचः॥९॥
भावार्थभाषाः -
अयं बलवान् वायुर्गमनागमनशीलत्वात् सर्वपदार्थगमनागमनधारणशब्दोच्चारणश्रवणानां हेतुरस्तीति।।सायणाचार्य्येण परिज्मन्शब्दमुणादिप्रसिद्धमविदित्वा मनिन्प्रत्ययान्तो व्याख्यातोऽयमस्य भ्रमोऽस्तीति बोध्यम्। ‘हे इतस्ततो भ्रमणशील मनुष्याकृतिदेवदेहधारिन्निन्द्र ! त्वं सन्मुखात्पार्श्वतो वोपरिष्टादस्मत्समीपमागच्छ, इयं सर्वेषां गायनानामिच्छास्ति’ इति मोक्षमूलरव्याख्या विपरीतास्ति। कुतः, अस्मिन्मरुद्गण इन्द्रस्य सर्वा गिर ऋञ्जते इत्यनेन शब्दोच्चारणव्यवहारप्रसाधकत्वेनात्र प्राणवायोरेव ग्रहणात्॥९॥सायणाचार्य्येण परिज्मन्शब्दमुणादिप्रसिद्धमविदित्वा मनिन्प्रत्ययान्तो व्याख्यातोऽयमस्य भ्रमोऽस्तीति बोध्यम्। ‘हे इतस्ततो भ्रमणशील मनुष्याकृतिदेवदेहधारिन्निन्द्र ! त्वं सन्मुखात्पार्श्वतो वोपरिष्टादस्मत्समीपमागच्छ, इयं सर्वेषां गायनानामिच्छास्ति’ इति मोक्षमूलरव्याख्या विपरीतास्ति। कुतः, अस्मिन्मरुद्गण इन्द्रस्य सर्वा गिर ऋञ्जते इत्यनेन शब्दोच्चारणव्यवहारप्रसाधकत्वेनात्र प्राणवायोरेव ग्रहणात्॥९॥
इ॒तो वा॑ सा॒तिमीम॑हे दि॒वो वा॒ पार्थि॑वा॒दधि॑।
इन्द्रं॑ म॒हो वा॒ रज॑सः॥
ऋग्वेद मण्डल:1 सूक्त:6 मन्त्र:10
अंग्रेज़ी लिप्यंतरण
ito vā sātim īmahe divo vā pārthivād adhi | indram maho vā rajasaḥ ||
मन्त्र उच्चारण
पद पाठ
इ॒तः। वा॒। सा॒तिम्। ईम॑हे। दि॒व। वा॒। पार्थि॑वात्। अधि॑। इन्द्र॑म्। म॒हः। वा॒। रज॑सः॥
अगले मन्त्र में सूर्य्य के कर्म का उपदेश किया है-
पदार्थान्वयभाषाः -हम लोग (इतः) इस (पार्थिवात्) पृथिवी के संयोग (वा) और (दिवः) इस अग्नि के प्रकाश (वा) लोकलोकान्तरों अर्थात् चन्द्र और नक्षत्रादि लोकों से भी (सातिम्) अच्छी प्रकार पदार्थों के विभाग करते हुए (वा) अथवा (रजसः) पृथिवी आदि लोकों से (महः) अति विस्तारयुक्त (इन्द्रम्) सूर्य्य को (ईमहे) जानते हैं॥१०॥
भावार्थभाषाः -सूर्य्य की किरण पृथिवी में स्थित हुए जलादि पदार्थों को भिन्न-भिन्न करके बहुत छोटे-छोटे कर देती है, इसी से वे पदार्थ पवन के साथ ऊपर को चढ़ जाते हैं, क्योंकि वह सूर्य्य सब लोकों से बड़ा है। हम लोग आकाश पृथिवी तथा बड़े आकाश से सहाय के लिये इन्द्र की प्रार्थना करते हैं, यह भी डाक्टर मोक्षमूलर साहब की व्याख्या अशुद्ध है, क्योंकि सूर्य्यलोक सब से बड़ा है, और उसका आना-जाना अपने स्थान को छोड़ के नहीं होता, ऐसा हम लोग जानते हैं॥१०॥सूर्य्य और पवन से जैसे पुरुषार्थ की सिद्धि करनी चाहिये तथा वे लोक जगत् में किस प्रकार से वर्त्तते रहते हैं और कैसे उनसे उपकारसिद्धि होती है, इन प्रयोजनों से पाँचवें सूक्त के अर्थ के साथ छठे सूक्तार्थ की सङ्गति जाननी चाहिये। और सायणाचार्य्य आदि तथा यूरोपदेशवासी अङ्गरेज विलसन आदि लोगों ने भी इस सूक्त के मन्त्रों के अर्थ बुरी चाल से वर्णन किये हैं।-स्वामी दयानन्द सरस्वती
इदानीं सूर्य्यकर्मोपदिश्यते।
अन्वय:
वयमितः पार्थिवाद्वा दिवो वा सातिं कुर्वन्तं रजसोऽधि महान्तं वेन्द्रमीमहे विजानीमः॥१०॥
पदार्थान्वयभाषाः -(इतः) अस्मात् (वा) चार्थे (सातिम्) संविभागं कुर्वन्तम्। अत्र ऊतियूतिजूतिसातिहेति० (अष्टा०३.३.९७) अनेनायं शब्दो निपातितः। (ईमहे) विजानीमः। अत्र ईङ् गतौ, बहुलं छन्दसीति शपो लुकि श्यनभावः। (दिवः) प्रत्यक्षाग्नेः प्रकाशात् (वा) पक्षान्तरे लोकलोकान्तरेभ्योऽपि (पार्थिवात्) पृथिवीसंयोगात्। सर्वभूमिपृथिवीभ्यामणञौ। (अष्टा०५.१.४१) इति सूत्रेण पृथिवीशब्दादञ् प्रत्ययः। (अधि) अधिकार्थे (इन्द्रम्) सूर्य्यम् (महः) महान्तमति विस्तीर्णम् (वा) पक्षान्तरे (रजसः) पृथिव्यादिलोकेभ्यः। लोका रजांस्युच्यन्ते। (निरु०४.१९)॥१०॥
भावार्थभाषाः -सूर्य्यकिरणाः पृथिवीस्थान् जलादिपदार्थान् छित्त्वा लघून् सम्पादयन्ति। अतस्ते वायुना सहोपरि गच्छन्ति। किन्तु स सूर्य्यलोकः सर्वेभ्यो लोकेभ्यो महत्तमोऽस्तीति। ‘वयमाकाशात् पृथिव्या उपरि वा महदाकाशात्सहायार्थमिन्द्रं प्रार्थयामहे’ इति मोक्षमूलरव्याख्याऽशुद्धास्ति। कुतः ? अत्र परिमाणे सर्वेभ्यो महत्तमस्य सूर्य्यलोकस्यैवाभिधानेनेन्द्रमीमहे विजानीम इत्युक्तप्रामाण्यात्॥१०॥इन्द्रमरुद्भ्यो यथा पुरुषार्थसिद्धिः कार्य्या, ते जगति कथं वर्त्तन्ते कथं च तैरुपकारसिद्धिर्भवेदिति पञ्चमसूक्तेन सह षष्ठस्य सङ्गतिरस्तीति बोध्यम्। अस्यापि सूक्तस्य मन्त्रार्थाः सायणाचार्य्यादिभिर्यूरोपाख्यदेशनिवासिभिर्विलसनाख्यमोक्षमूलरादिभिश्चान्यथैव वर्णिता इति वेदितव्यम्॥ -स्वामी दयानन्द सरस्वती
No comments:
Post a Comment
ধন্যবাদ