वेद का पादुर्भाव - ধর্ম্মতত্ত্ব

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18 July, 2021

वेद का पादुर्भाव

वेद का पादुर्भाव
स्वामी दयानंद जी ने अपने ग्रंथों में ईश्वर द्वारा वेदों की उत्पत्ति का विस्तार से वर्णन किया हैं. ऋग्वेद, यजुर्वेद और सामवेद के पुरुष सूक्त (ऋक १०.९०, यजु ३१ , अथर्व १९.६) में सृष्टी उत्पत्ति का वर्णन हैं. परम पुरुष परमात्मा ने भूमि उत्पन्न की, चंद्रमा और सूर्य उत्पन्न किये, भूमि पर भांति भांति के अन्न उत्पन्न किये,पशु आदि उत्पन्न किये. उन्ही अनंत शक्तिशाली परम पुरुष ने मनुष्यों को उत्पन्न किया और उनके कल्याण के लिए वेदों का उपदेश
दिया. इस प्रकार सृष्टि के आरंभ में मनुष्य की उत्पत्ति के साथ ही परमात्मा ने उसे वेदों का ज्ञान दे दिया. इसलिए वेदों की उत्पत्ति का काल मनुष्य जाति की उत्पत्ति के साथ ही हैं.स्वामी दयानंद की इस मान्यता का समर्थन
ऋषि मनु और ऋषि वेदव्यास भी करते हैं. परमात्मा ने सृष्टी के आरंभ में वेदों के शब्दों से ही सब वस्तुयों और प्राणियों के नाम और कर्म तथा लौकिक व्यवस्थायों की रचना की हैं. (मनु १.२१) स्वयंभू परमात्मा ने सृष्टी के आरंभ में वेद रूप नित्य दिव्य वाणी का प्रकाश किया जिससे मनुष्यों के सब व्यवहार सिद्ध होते हैं (वेद व्यास,महाभारत शांति पर्व २३२/२४) स्वामी दयानंद ने वेद उत्पत्ति विषय में सृष्टी की रचना काल को मन्वंतर,चतुर्युगियों व वर्षों के आधार पर संवत १९३३ में १९६०८५२९७७ वर्ष लिखा हैं अर्थात आज संवत २०७० में इस सृष्टी को १९६०८५३११४ वर्ष हो चुके हैं.अथर्ववेद १०.७.२० में वेदों की उत्पत्ति का अलंकारिक वर्णन आता है – ऋच:, यजु:, साम: और अथर्व, यह चारों सर्वशक्तिमान परमेश्वर से उत्पन्न हुए हैं | पूछा है कि कौन से देव ( आनंद और ज्ञान देने वाला) ने वेद दिए हैं? और उत्तर है कि जो सारे जगत का संचालक परमेश्वर है वही वेदों को बनानेवाला है | अथर्ववेद उस परमेश्वर के मुख के समान है, सामवेद त्वचा के लोमों के समान, यजुर्वेद ह्रदय और ऋग्वेद प्राण के समान है |

शतपथ ब्राह्मण १४.५.४.१० के अनुसार – जो आकाश से भी बड़ा सर्वव्यापक ईश्वर है, उस से ही चारों वेद उत्पन्न हुए हैं | जैसे मनुष्य के शरीर से श्वास बाहर आकर फ़िर भीतर जाता है, इसी प्रकार सृष्टि के प्रारंभ में ईश्वर वेदों को उत्पन्न कर के संसार में प्रकाश करता है और प्रलय में संसार में वेद नहीं रहते परंतु जैसे बीज में अंकुर पहले ही रहता है, इसी प्रकार से वेद भी ईश्वर के ज्ञान में बिना किसी परिवर्तन के सदा बने रहते हैं, उनका नाश कभी नहीं होता |

शंकराचार्य अपने गीता भाष्य ३.१५ में कहते हैं – वस्तुतः वेद कभी निर्मित या नष्ट नहीं होते, हमेशा उसका अविर्भाव( प्रकट) और तिरोभाव ( लुप्त ) होता रहता है किन्तु वे हमेशा ईश्वर में ही रहते हैं |

ऋग्वेद १०.१९०.३ के अनुसार सभी कल्पों में सृष्टि एक समान ही बनती है, अत: प्रत्येक सृष्टि में वेदों का ज्ञान भी समान होता है |

वेद का पादुर्भाव:🚩
बृह॑स्पते प्रथ॒मं वा॒चो अग्रं॒ यत्प्रैर॑त नाम॒धेयं॒ दधा॑नाः । यदे॑षां॒ श्रेष्ठं॒ यद॑रि॒प्रमासी॑त्प्रे॒णा तदे॑षां॒ निहि॑तं॒ गुहा॒विः ॥-ऋग्वेद0 मण्डल१० सूक्त ७१ मन्त्र १
पदार्थान्वयभाषाः -(बृहस्पते) हे वेदवाणी के स्वामी परमात्मन् ! (वाचः-अग्रं प्रथमम्) वाणी के श्रेष्ठरूप सृष्टि के प्रारम्भ में होनेवाले (नामधेयं यत्-दधानाः प्रैरत) पदार्थमात्र के नामव्यवहार के प्रदर्शक वेद को धारण करते हुए परमर्षि प्रेरित करते हैं, जनाते हैं (यत्) यतः (एषाम्) इन परम ऋषियों का (श्रेष्ठम्) श्रेष्ठ कार्य (अरिप्रम्-आसीत्) पापरहित-निष्पाप है (प्रेणा-एषां गुहा निहितम्) तेरी प्रेरणा से इन परमर्षियों के हृदय में प्रकट होता है ॥
भावार्थभाषाः -
वेद का स्वामी परमात्मा सृष्टि के आरम्भ में आदि ऋषियों के पवित्र अन्तःकरण में वेद का प्रकाश करता है, जो पदार्थमात्र के गुण स्वरूप को बताता है, उसे वे ऋषि दूसरों को जनाते हैं ॥✍ब्रह्ममुनि
सक्तु॑मिव॒ तित॑उना पु॒नन्तो॒ यत्र॒ धीरा॒ मन॑सा॒ वाच॒मक्र॑त । अत्रा॒ सखा॑यः स॒ख्यानि॑ जानते भ॒द्रैषां॑ ल॒क्ष्मीर्निहि॒ताधि॑ वा॒चि ॥-ऋग्वेद0 मण्डल१० सूक्त ७१ मन्त्र २
पदार्थान्वयभाषाः -(सक्तुम्-इव) सक्तु को (तितउना पुनन्तः) छालनी से शोधते हुए के समान (धीराः-मनसा) बुद्धिमान् या ध्यानशील मनसे (यत्र वाचम्-अक्रत) जहाँ वाणी को प्रकट करते हैं (अत्र) वहाँ वाग्विषय में (सखायः) वाग्विज्ञान के साथ समान ख्यान-आनुभविक ज्ञान को प्राप्त होते हैं (सख्यानि) यथार्थ ताद्भाव्य को अनुभव करते हैं (एषाम्-अधिवाचि) इन परम ऋषियों की वाणी में (भद्रा लक्ष्मीः-निहिता) कल्याणकारी अन्यों से लक्षणीय ज्ञान-सम्पत्ति निहित होती है ॥
भावार्थभाषाः -
परम ऋषि महानुभाव वाग्विषय को भली-भाँति शोधकर अपने अन्दर धारण करते हैं। वाणी के यथार्थ ज्ञान के साथ उनकी तन्मयता हो जाती है। ज्ञानसम्पत्ति की वे रक्षा करते हैं ॥✍ब्रह्ममुनि
य॒ज्ञेन॑ वा॒चः प॑द॒वीय॑माय॒न्तामन्व॑विन्द॒न्नृषि॑षु॒ प्रवि॑ष्टाम् । तामा॒भृत्या॒ व्य॑दधुः पुरु॒त्रा तां स॒प्त रे॒भा अ॒भि सं न॑वन्ते ॥-ऋग्वेद0 मण्डल१० सूक्त ७१ मन्त्र ३
पदार्थान्वयभाषाः -(वाचः) मन्त्रवाणियाँ (यज्ञेन) अध्यात्मयज्ञ के द्वारा-ध्यान से (पदवीयम्) पदों द्वारा ज्ञानक्रम को (आयन्) प्राप्त होती हैं (ताम्-ऋषिषु) उस वाणी को मन्त्रों में (प्रविष्टाम्-अन्वविन्दन्) प्रविष्ट हुई को प्राप्त करते हैं (ताम्-आभृत्य) उस वाणी को भली प्रकार धारण करके (पुरुत्रा व्यदधुः) बहुत देशों में प्रचारित करते हैं (तां सप्त रेभाः) उस वाणी को सात छन्द विषयों को लक्ष्य करके (अभि सं नवन्ते) स्तुति करते हैं, वर्णित करते हैं ॥
भावार्थभाषाः -
वेदवाणी एक-एक पद के साथ अर्थ को रखती हुई सात छन्दों में-मन्त्रों में ज्ञानयज्ञ तथा अध्यात्मयज्ञ से प्रकाशित होती है। जिसका भिन्न-भिन्न देशों में ऋषियों द्वारा प्रचार हो जाता है ॥✍ब्रह्ममुनि

ईश्वर को अपने काम करने के लिए मनुष्यों की तरह बाह्य साधनों या इन्द्रियों आदि अवयवों की जरुरत नहीं है | ईश्वर के लिए ऐसे बंधन नहीं हैं | वेद उसे असंख्य अंगों और मुखों वाला बताते हैं जिसका अर्थ है की ईश्वर अपने कार्य बिना किसी भौतिक साधन के इस्तेमाल के और बिना किसी की सहायता लिए कर सकता है | जब ईश्वर यह सम्पूर्ण जगत बना सकता है तो वेदों को क्यों नहीं रच सकता ? श्वेताश्वतर उपनिषद ३.१९ कहता है की वह हाथ- पावं वाला नहीं है फ़िर भी वह शीघ्र गामी और पकड़ लेने वाला है | वह आँखों के बिना ही देखता है | वह जानने योग्य को जानता है परंतु उसको जानने वाला नहीं है | उस सब के अग्रणी को ही महान परम पुरुष कहते हैं |

वेदों को बनाने में ईश्वर का क्या प्रयोजन 
– १.पहले यह बताइए कि नहीं बनाने में क्या प्रयोजन है ? ईश्वर में असीम और दिव्य ज्ञान है और वह ज्ञान प्रगति और विकास के लिए अत्यंत आवश्यक है | इसलिए, यदि ईश्वर हमें अपने ज्ञान का प्रकाश कर के उपकृत नहीं करता तब तक दिव्य ज्ञान ऐसे ही रहेगा | हमें अपने ज्ञान से प्रकाशित कर के और वेदों के ज्ञान से अवगत कराकर ही ईश्वर हमें अपने गुणों का परिचय देता है |
२.ईश्वर हमारे माता-पिता के समान है और जैसे माता-पिता अपनी संतानों से प्रेम करते हैं और हमेशा सुखी करना चाहते हैं वैसे ही ईश्वर हमारे लिए करता है | इसलिए ईश्वर ने हमें हमारे सुखों में वृद्धि करने के लिए ही वेद का ज्ञान दिया है यदि ईश्वर हमें यह ज्ञान नहीं देता तो सृष्टि उत्पत्ति का उद्देश्य ही कुछ नहीं था | ईश्वर अगर इस ज्ञान का उपदेश नहीं करता तो हम सांसारिक पदार्थों का यथावत उपयोग भी नहीं कर पाते और न ही मनुष्य जीवन के मूल उद्देश्य परमानन्द को प्राप्त कर सकते थे |
३.संसार की सभी वस्तुओं में ज्ञान ही सबसे अधिक कृपा और सुख़ के समान है और जब परमात्मा ने सृष्टि रचना से हमें उपकृत किया है तब वेदों को अपने पास सीमित क्यों रखेगा ? और ऐसा कर के सृष्टि की रचना के उसके उद्देश्य को ही निरस्त क्यों करेगा ? इस प्रकार मनुष्यों पर कृपा करने के मूल उद्देश्य को व्यर्थ क्यों करेगा ? डब्लू . डी ब्राउन अपनी पुस्तक ‘ सुपीरियोरिटी ऑफ वैदिक रिलीजन’ में लिखते हैं कि “बाइबिल, कुरान और पुराण के विपरीत वैदिक ज्ञान ऐसा है जहां विज्ञान और अध्यात्म दोनों मिलते हैं | यह ज्ञान ही वैदिक धर्म की विशेषता है जो विज्ञान और दर्शन पर आधारित है | ” ‘ द बाइबिल इन इंडिया ‘ में जकोलिएट लिखते हैं कि ” जितने भी इलहाम हुए हैं उन में वेद और उसकी शिक्षाएं ही आधुनिक विज्ञान से सामंजस्य रखते हैं |” बहुत सारे दूसरे वैज्ञानिक भी जिन्होनें वेदों पर काम किया है यही राय रखते हैं |
– यह बहुत ही नासमझी भरा सवाल है | जैसा हम पहले ही बता चुके हैं, जब ईश्वर सारे जगत को ही बिना किसी अतिरिक्त बाह्य साधन के बना सकता है, तो वेदों की रचना में क्या संदेह है ? और ईश्वर ने वेद पुस्तक रूप में लिख कर सृष्टि के आदि में प्रकाशित नहीं किए, ईश्वर ने सृष्टि के आदि में महान ऋषियों – अग्नि,वायु,आदित्य और अंगीरा के मन में वेदों का प्रकाश किया | शतपथ ब्राह्मण ११.५.२.३ कहता है कि जैसे एक खिलौना कहीं से गति प्राप्त कर के चेष्टा करता है उसी प्रकार ऋषियों ने ध्यानावस्था में अपने अंतर्मन में वेदों का ज्ञान प्राप्त कर आगे वेदों का उपदेश किया | मनुष्य मात्र को उपदेश देने के लिये ईश्वर ने उनको निमित्त बनाया |

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