विमान शास्त्र - ধর্ম্মতত্ত্ব

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23 December, 2020

विमान शास्त्र

Bharadwaaja thus defines the word Vimaana:

☞ Vega-Saamyaat Vimaano Andajaanaam. Sootra 1.

"Owing to similarity of speed with birds, it is named Vimaana." 

वर्तमान काल में कुछ समय पूर्व वैमानिक कला प्राय: लुप्त सी हो गयी थी । बाद में पाश्चात्य विद्वानों के वुद्धि विकास से विमान फिर इस संसार में दिखाई देने लगे । कहा जाता है कि विमान नाम की वस्तु पहलें नहीं थी, प्रत्युत पक्षियों को आकाश में उड़ते देखकर भारतीयों की यह निरी कपोल-कल्पना थी कि विमान नाम की कोई वस्तु पहले इस देश में थी, जो आकाश में उडती थी एवं जिसका उल्लेख रामायण आदि ग्रंथों में पाया जाता है । महर्षि कर्दम के विमान के विषय में भी उनकी यही धारणा है । किन्तु आज भी हमारे समक्ष उदाहरणार्थ एक ऐसा ग्रन्थरत्न उपस्थित है जिससे यह मानना पड़ेगा कि विमान के विषय में हमारे पूर्वजों ने जिस कोटि के वैज्ञानिक तत्त्व और प्रविधि को ढूंढ निकाला था, उसे आज भी पाश्चात्य विज्ञानवेता खोज निकालने में असमर्थ ही हैं । वह ग्रन्थ है-प्राचीनतम महर्षि भरद्वाज की रचना ‘यन्त्रसर्वस्व’

वैमानिक शास्त्र :- डाउनलोड करें :- वैमानिक शास्त्र (महर्षि भारद्वाज प्रणित):-  https://drive.google.com/drive/folders/13eJdxfdFhgwuh_NGMdVl2Z52kN8sx2Bx

देश में में सर्वसाधारण लोगों मे यह धारणा प्रचलित है कि विज्ञान के क्षेत्र में प्रकाश की प्रथम किरण पश्चिम के आकाश में ही फूटी थी और इस कारण समूचे विश्व में विकास चक्र गतिमान हुआ । पूर्व के आकाश में विज्ञान के क्षेत्र में अन्धकार व्याप्त था । इस धारणा के कारण मात्र पश्चिम का अनुकरण करने की वृत्ति देश में दिखाई देती है। परिणामस्वरूप हमारी कोई वैज्ञानिक परम्परा थी , विज्ञान दृष्टि थी इसका कोई ज्ञान न होने से आज के विश्व में हमारी कोई भूमिका हो सकती है, इस विश्वास का अभाव आज चारों ओर दिखाई देता है।

परन्तु 20 वीं सदी के प्रारम्भ में आचार्य प्रफुल्लचन्द्र राय , ब्रजेन्द्रनाथ सील , जगदीश चन्द्र बसु , राव साहब वझे आदि विक्षनों ने अपने गहन अध्ययन के द्वारा सिद्ध किया कि भारत मात्र धर्म दर्शन के क्षेत्र में ही नहीं अपितु विज्ञान और तकनीकी के क्षेत्र में भी अग्रणी था । इतना ही नही तो हमारे पूर्वजों ने विज्ञान और अध्यात्म का समन्वय किया था जिसमें से उत्पन्न विज्ञान दृष्टि के कारण विज्ञान का विकास जैवसृष्टि के अनुकूल व मंगलकारी रहने की दृष्टि प्राप्त हुई जिसकी आवश्यकता आज का विश्व भी अनुभव कर रहा है।

इसी दिशा में आगे चलकर अनेक विद्वानों ने और अधिक प्रमाणों के साथ प्रचीन भारतीय विज्ञान को विभिन्न पुस्तकों में व लेखों में अभिव्यक्त किया । इनमें विशेष रूप से आचार्य प्रफुल्ल चंद्र राय की हिन्दु कैमेस्ट्री , ब्रजेन्द्रनाथ सील की " दी पॉजेटिव सायन्स ऑफ इन्स्टीट्यूट हिन्दूज " , राव सा.वझे का " हिन्दी शिल्प शास्त्र " तथा धर्मपालजी की " इण्डियन सायन्स ऍण्ड टेक्नॉलॉजी इन दी एटीन्थ सेंचुरी " में भारत में विज्ञान व तकनीकी परपंराओं को उद्घाटित किया गया है । वर्तमान में संस्कृत भारती ने संस्कृत में विज्ञान तथा बॉटनी, फिजिक्स, मेटलर्जी, मशीन्स , केमिस्ट्री आदि विषयों पर कई पुस्तकें निकालकर इस विषय को आगे बढ़ाया है । इसके अतिरिक्त बंगलौर के एम.पीत्र राव ने विमानशास्त्र व वाराणसी के पीजी डोंगरे ने अंशबोधिनी पर विशेष रूप से प्रयोग किए । विज्ञान भारती मुम्बई व पाथेय कण जयपुर ने उपर्युक्त सभी प्रयासों को संकलित रूप से समाज के सामने लाने का प्रयत्न किया । डॉ. मुरली मनेहर जोशी के लेखों, व व्याख्यानों में प्राचीन भातीय विज्ञान परम्परा को प्रभावी रूप से प्रस्तुत किया गया है । इसके अतिरिक्त आज की सबसे बड़ी आवश्यकता विज्ञान व अध्यात्म के समन्वय की दिशा में फ्रीटजॉफ काप्रा, ग्रेझुकोवव, प्योफ्रीच्वे तथा रामकृष्ण मिशन के परमाध्यक्ष पूज्य स्वामी रंनाथानंदजी एवं स्वामी जितात्मानंदजी आदि के अनुभवो कें व व्याख्यानों से भारतीय विज्ञान दृष्टि एवं उसका वैश्ष्ट्यि जगत्‌ कें सामने उद्घाटित हो रहा है।

अनेक विद्वान्‌ इस दिशा में चितंन व प्रयोग कर रहे हैं इस साहित्य को पढ़ने पर आज की पीढ़ी को एक दिशा मिल सकती है , उसके मन में स्वाभिमान का जागरण हो सकता है और अपनी विज्ञान दृष्टि से विश्व को भी उन अनेक समस्याओं से मुक्ति दिलाई जा सकती है जिसे आज मात्र भौतिक विकास के कारण वह अनुभव कर रहा है । इन सब विद्वानों की लिखि कुछ पुस्तकों और लेखों के आधार पर इसी धारणा को निर्मूल सिद्ध करने के लिए श्री सुरेश जी सोनी ने (भारत में विज्ञान की उज्जवल परंपरा) एक पुस्तक भारत में विज्ञान की उज्जवल परम्परा लिखी जिसके कुछ अंशों को आपके सामने लाया जा रहा है।
 
 
 
विमानविषयक ऐसी युक्तिया तो है ही जिंनका प्रयोग आधुनिक काल मे हो रहा है , इसके अतिरिक्त अनेकों विमाननिर्माण की ऐसी विधिया व युक्तिया भी है , जिनके बारे मे शायद आधुनिक विज्ञान सोच भी नहीं सकता.... हालांकि ये आश्चर्यचकित करने वाली बात है कि इस पर आज के समय मे किसी ने कार्य क्यो नहीं किया....शायद इसका कारण ये हो सकता है कि जो करने मे सक्षम है किन्तु साधन सम्पन्न नहीं , जो साधन सम्पन्न है वो करने मे सक्षम नहीं...किन्तु ये पूर्ण सत्य है कि अगर आज के समय मे इस पर कार्य किया जाये तो सफल परिणाम अवश्य ही प्राप्त हो...... इसमे अनेकों शब्दो को समझना मुश्किल है , किन्तु संस्कृत का जिस विद्वान को पूर्ण ज्ञान हो वह अवश्य ही इन शब्दो को वास्तविक आकार देने मे समर्थ है....अपने संस्कृत अध्ययन के पूर्ण होने पर मे अवश्य ही इन विधियो का अध्ययन कर इसका खाका तैयार करना चाहूँगा ......आप इस लेख को कॉपी करके रख सकते है....ताकि आवश्यकता पढ़ने पर विज्ञान की संतानों को दिखा सके....कि वेदिक काल का हमारा विज्ञान कितना उन्नत था....हम आज कहते है कि जिस चीज के बारे मे सौ साल पहले हम सोच भी नहीं सकते थे , वो आज है .... किन्तु हमारे वैदिक ग्रंथो मे लाखो वर्ष पूर्व ही उन्हे खोज कर लिख दिया ...
 
श्लोक - मेघोत्पत्तिप्रकरणोक्तशरन्मेधावरणषट्केषु द्वितीया वरणपथे विमानमन्तर्धाय विमानस्थ          शक्त्याकर्षणदर्पणमुखात्तन्मेधशक्तिमाहत्य पच्श्राद्विमानपरिवेषचक्रमुखे नियोजयेत् । तेनस्तंभनशक्तिप्रसारणम् भवति, पच्श्रात्तद्दवा रा लोकस्तम्भनक्रियारहस्यम् ॥ 

मेघोत्पत्ति प्रकरण में कहे शरद ऋतु संबंधी छ: मेघावरणों के द्वितीय आवरण मार्ग में विमान छिपकर विमानस्थ शक्ति का आकर्षण करने वाले दर्पण के मुख से उस मेघशक्ति को लेकर पश्चात् विमान के घेरे वाले चक्रमुख में नियुक्त करे , उससे स्तम्भनशक्ति का विस्तार अर्थात प्रसार हो जाता है ,एवं स्तम्भन क्रिया रहस्य हो जाता है .... 

अर्थ-

इस मंत्र में जो दर्पण आया है , उसे शक्ति आकर्षण दर्पण कहा जाता है , यह पूर्व के विमानो मे लगा होता था , यह दर्पण मेघो की शक्ति को ग्रहण करता है । 
दूसरा विमान मे एक स्थित चक्र मुख यंत्र होता है ..... आकाश में शक्ति आकर्षण दर्पण मेघो की शक्ति को ग्रहण करके , स्थित चक्र के माध्यम से मुख यंत्र तक पहुचा देता है... तत्पश्चात चन्द्र मुख यंत्र स्तंभन क्रिया का प्रारम्भ कर देता है.......

इसके अतिरिक्त एक चौकाने वाली चीज और देखी , जिसमे विमान को अदृश्य करने का रहस्य वर्णित है ....उसमे शक्ति यंत्र सूर्य किरणों के उषादण्ड के सामने पृष्ठ केंद्र में रहने वाले वेणरथ्य किरण आदि शक्तियों से आकाशतरंग के शक्तिप्रवाह को खीचता है , और वायुमंडल में स्थित बलाहा विकरण आदि पाँच शक्तियों को नियुक्त करके उनके द्वारा सफ़ेद अभ्रमंडलाकार करके उस आवरण से विमान के अदृश्य करने का रहस्य है ..... 

इतना ही नहीं , इस ग्रंथ के दश्य रहस्य विचार में एक "विव्श्रक्रिया दर्पण का उल्लेख भी आता है , जिसे हम आज रडार सिस्टम कहते है ..... एक अध्याय मे इसका थोड़ा विस्तृत रूप मे भी उल्लेख है ... पर यहा संक्षेप मे उद्गृत करता हू - इसके अंतर्गत आकाश में विद्युत किरण और वात किरण मतलब रेडियो वेव्स , के परस्पर सम्मेलन से उत्पन्न होने वाली बिंबकारक शक्ति अर्थात इमेज मेकिंग पावर वेव्स का प्रयोग करके , रडार के पर्दो पर छाया चित्र बनाकर आकाश मे उड़ने वाले अदृश्य विमानो का पता लगाया जा सकता है ...

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

विमान विद्या

सामान्यतः आजकल यह माना जाता है कि पक्षियों की तरह आकाश में उड़ने का मानव का स्वप्न राइट बंधुओं ने सन्‌ १७ दिसम्बर १९०३ में विमान बनाकर पूरा किया और विमान विद्या विश्व को पश्चिम की देन है । इसमें संशय नहीं कि आज विमान विद्या अत्यंत विकसित अवस्था में पहॅंच चुकी है । परंतु महाभारत काल तथा उससे पूर्व भारतवर्ष में भी विमान विद्या का विकास हुआ था । न केवल विमान अपितु अंतरिक्ष में स्थित नगर रचना भी हुई थी इसके अनेक संदर्भ प्राचीन वांग्मय में मिलते हैं।

विद्या वाचस्पति पं. मधुसूदन सरस्वती " इन्द्रविजय " नामक ग्रंथ में ऋग्वेद के छत्तीसवें सूक्त प्रथम मंत्र का अर्थ लिखते हुए कहते हैं कि ऋभुओं ने तीन पहियों वाला ऐसा रथ बनाया था जो अंतरिक्ष में उड़ सकता था । पुराणों में विभिन्न देवी देवता , यक्ष , विद्याधर आदि विमानों द्वारा यात्रा करते हैं इस प्रकार के उल्लेख आते हैं । त्रिपुरा याने तीन असुर भाइयों ने अंतरिक्ष में तीन अजेय नगरों का निर्माण किया था , जो पृथ्वी, जल, व आकाश में आ जा सकते थे और भगवान शिव ने जिन्हें नष्ट किया। रामायण में पुष्पक विमान का वर्णन है । महाभारत में श्री कृष्ण, जरासंध आदि के विमानों का वर्णन आता है । भागवत में कर्दम ऋषि की कथा आती है । तपस्या में लीन रहने के कारण वे अपनी पत्नी की ओर ध्यान नहीं दे पाए । इसका भान होने पर उन्होंने अपने विमान से उसे संपूर्ण विश्व कादर्शन कराया। उपर्युक्त वर्णन जब आज का तार्किक व प्रयोगशील व्यक्ति सुनता या पढ़ता है तो उसके मन में स्वाभाविक विचार आता है कि यें सब कपोल कल्पनाएं हैं मानव के मनोंरंजन हेतु गढ़ी कहानियॉ हैं । ऐसा विचार आना सहज व स्वाभाविक है क्योंकि आज देश में न तो कोई प्राचीन अवशेष मिलते हैं जों सिद्ध कर सकें कि प्राचीनकाल में विमान बनाने की तकनीक लोग जानते थें। केवल सौभागय से एक ग्रन्थ उपलब्ध है, जो बताता है कि भारत में प्राचीनकाल में न केवल विमान विद्या थी, अपितु वह बहुत प्रगत अवस्था में भी थी । यह ग्रंथ इसकी विषय सूची में व इसमें किया गया वर्णन विगत अनेक वर्षों से अपने देश व विदेश में अध्येताओं को आकर्षित कर रहा है। सन्‌ ११९४० में गोरखपुर से प्रकाशित ( कल्याण ) के " हिन्दू संस्कृति " अंक में श्री दामोदर जी साहित्याचार्य ने हमारी प्राचीन वैज्ञानिक कला नामक लेख में इस ग्रंथ का विस्तार से उल्लेख किया है । अभी दो तीन वर्ष पूर्व बेंगलूर के वायुसेना के सेवा निवृत्त अभियंता श्री प्रह्‌लाद राव की इस विषय में जिज्ञासा हुई और उन्होंने अपने साथियों के सहयोग से एक प्रकल्प वैमानिक शास्त्र रीडिसकवर्ड लिया तथा अपने गहन अध्ययन व अनुभव के आधार पर यह प्रतिपादित किया कि इस ग्रंथ में अत्यंत विकसित विमान विद्या का वर्णन मिलता है । नागपुर के श्री एम. के. कावड़कर ने भी इस ग्रंथ पर काफी काम किया है । महर्षि भारद्वाज यंत्र सर्वस्व नामक ग्रंथ लिखा था, उसका एक भाग वैमानिक शास्त्र है । इस पर बोधानन्द ने टीका लिखी थी । आज यंत्र सर्वस्व तो उपलब्ध नहीं है तथा वैमानिक शास्त्र भी पूरा उपलब्ध नहीं है । पर जितना उपलब्ध होता है , उससे यह विश्वास होता है कि पूर्व में विमान एक सच्चाई थे ।  इस ग्रंथ के पहले प्रकरण में प्राचीन विज्ञान विषय के पच्चीस ग्रंथों की एक सूची है, जिनमें प्रमुख है अगस्त्यकृत - शक्तिसूत्र, ईश्वरकृत - सौदामिनी कला, भरद्वाजकृत - अशुबोधिनी, यंत्रसर्वसव तथा आकाश शास्त्र, शाकटायन कृत - वायुतत्त्व प्रकरण, नारदकृत - वैश्वानरतंत्र, धूम प्रकरण आदि।

विमान शास्त्र की टीका लिखने वाले बोधानन्द लिखते है -

निर्मथ्य तद्वेदाम्बुधिं भरद्वाजो महामुनिः ।

नवनीतं समुद्घृत्य यन्त्रसर्वस्वरूपकम्‌ ।

प्रायच्छत्‌ सर्वलोकानामीप्सिताज्ञर्थ लप्रदम्‌ ।

तस्मिन चत्वरिंशतिकाधिकारे सम्प्रदर्शितम्‌ ॥

नाविमानर्वैचित्र्‌यरचनाक्रमबोधकम्‌ ।

अष्टाध्यायैर्विभजितं शताधिकरणैर्युतम ।

सूत्रैः पञ्‌चशतैर्युक्तं व्योमयानप्रधानकम्‌ ।

वैमानिकाधिकरणमुक्तं भगवतास्वयम्‌ ॥

अर्थात - भरद्वाज महामुनि ने वेदरूपी समुद्र का मन्थन करके यन्त्र सर्वस्व नाम का ऐसा मक्खन निकाला है , जो मनुष्य मात्र के लिए इच्छित फल देने वाला है । उसके चालीसवें अधिकरण में वैमानिक प्रकरण जिसमें विमान विषयक रचना के क्रम कहे गए हैं । यह ग्रंथ आठ अध्याय में विभाजित है तथ्ज्ञा उसमें एक सौ अधिकरण तथा पाँच सौ सूत्र हैं तथा उसमें विमान का विषय ही प्रधान है । ग्रंथ के बारे में बताने के बाद भ्ज्ञरद्वाज मुनि विमान शास्त्र के उनसे पपूर्व हुए आचार्य उनके ग्रंथों के बारे में लिखते हैं वे आचार्य तथा उनके ग्रंथ निम्नानुसार हैं।

(१) नारायण कृत - विमान चन्द्रिका   (२) शौनक कृत न् व्योमयान तंत्र

(३) गर्ग - यन्त्रकल्प (४) वायस्पतिकृत - यान बिन्दु + चाक्रायणीकृत खेटयान प्रदीपिका

 (६)   धुण्डीनाथ - व्योमयानार्क प्रकाश

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

इस ग्रन्थ में भरद्वाज मुनि ने विमान की परिभाषा , विमान का पायलट जिसे रहस्यज्ञ अधिकारी कहा गया, आकाश मार्ग , वैमानिक के कपड़े , विमा के पुर्जे , ऊर्जा , यंत्र तथा उन्हें बनाने हेतु विभिन्न धातुओं का वर्णन किया गया है।

विमान की परिभाषा

अष् नारायण ऋषि कहते हैं जो पृथ्वी, जल तथा आकाश में पक्षियों के समान वेग पूर्वक चल सके, उसका नाम विमान है।

शौनक के अनुसार- एक स्थान से दूसरे स्थान को आकाश मार्ग से जा सके , विश्वम्भर के अनुसार - एक देश से दूसरे देश या एक ग्रह से दूसरे ग्रह जा सके, उसे विमान कहते हैं।

रहस्यज्ञ अधिकारी (पायलट) - भरद्वाज मुनिक हते हैं, विमान के रहस्यों को जानने वाला ही उसे चलाने का अधकारी है । शास्त्रों में विमान चलाने के बत्तीस रहस्य बताए गए हैं । उनमा भलीभाँति ज्ञान रखने वाला ही उसे चलाने का अधिकारी है। शास्त्रों में विमान चलाने के बत्तीस रहस्य बताए गए हैं । उनका भलीभाँति ज्ञान रखने वाला ही सफल चालक हो सकता है । क्योंकि विमान बनाना, उसे जमीन से आकाश में ले जाना, खड़ा करना, आगे बढ़ाना टेढ़ी - मेढ़ी गति से चलाना या चक्कर लगाना और विमान के वेग को कम अथवा अधिक करना उसे जाने बिना यान चलाना असम्भव है । अतः जो इन रहस्यों को जानता है , वह रहस्यज्ञ अधिकारी है तथा उसे विमान चलाने का अधिकारी है तथा उसे विमान चलाने का अधिकार है। 

(३) कृतक रहस्य - बत्तीस रहस्यों में यह तीसरा रहस्य है , जिसके अनुसार विश्वकर्मा , छायापुरुष , मनु तथा मयदानव आदि के विमान शास्त्र के आधार पर आवश्यक धातुओं द्वारा इच्छित विमान बनाना , इसमें हम कह सकते हैं कि यह हार्डवेयर का वर्णन है।

(४) गूढ़ रहस्य - यह पाँचवा रहस्य है जिसमें विमान को छिपाने की विधि दी गयी है । इसके अनुसार वायु तत्त्व प्रकरण में कही गयी रीति के अनुसार वातस्तम्भ की जो आठवीं परिधि रेखा है उस मार्ग की यासा , वियासा तथा प्रयासा इत्यादि वायु शक्तियों के द्वारा सूर्य किरण रहने वाली जो अन्धकार शक्ति है, उसका आकर्षण करके विमान के साथ उसका सम्बन्ध बनाने पर विमान छिप जाता है।

(५) अपरोक्ष रहस्य - यह नवाँ रहस्य है । इसके अनुसार शक्ति तंत्र में कही गयी रोहिणी विद्युत्‌ के फैलाने से विमान के सामने आने वाली वस्तुओं को प्रत्यक्ष देखा जा सकता है।

(१०) संकोचा - यह दसवाँ रहस्य है । इसके अनुसार आसमान में उड़ने समय आवश्यकता पड़ने पर विमान को छोटा करना।

(११) विस्तृता - यह ग्यारवाँ रहस्य है । इसके अनुसार आवश्यकता पड़ने पर विमान को बड़ा करना । यहाँयह ज्ञातव्य है कि वर्तमान काल में यह तकनीक १९७०के बाद विकसित हुई है।

(२२) सर्पागमन रहस्य - यह बाइसवाँ रहस्य है जिसके अनुसार विमान को सर्प के समान टेढ़ी - मेढ़ी गति से उड़ाना संभव है । इसमें काह गया है दण्ड, वक्रआदि सात प्रकार के वायु औरसूर्य किरणों की शक्तियों का आकर्षण करके यान के मुख में जो तिरछें फेंकने वाला केन्द्र है उसके मुख में उन्हें नियुक्त करके बाद में उसे खींचकर शक्ति पैदा करने वाले नाल में प्रवेश करानाचाहिए । इसके बाद बटन दबाने से विमान की गति साँप के समान टेढ़ी - मेढ़ी हो जाती है।

(२५) परशब्द ग्राहक रहस्य - यह पच्चीसंवा रहस्य है । इसमें कहा गया है कि सौदामिनी कला ग्रंथ के अनुसार शब्द ग्राहक यंत्र विमान पर लगाने से उसके द्वज्ञरा दूसरे विमान पर लोगों की बात-चीत सुनी जा सकती है।

(२६) रूपाकर्षण रहस्य - इसके द्वारा दूसरे विमानों के अंदर का सबकुछ देखा जा सकता था।

(२८) दिक्प्रदर्शन रह्रस्य - दिशा सम्पत्ति नामक यंत्र द्वारा दूसरे विमान की दिशा ध्यान में आती है।

(३१)  स्तब्धक रहस्य - एक विशेष प्रकार का अपस्मार नामक गैस स्तम्भन यंत्र द्वारा दूसरे विमान पर छोड़ने से अंदर के सब लोग बेहोश हो जाते हैं।

(३२) कर्षण रहस्य - यह बत्तीसवाँ रहस्य है , इसके अनुसार अपने विमान का नाश करने आने वाले शत्रु के विमान पर अपने विमान के मुख में रहने वाली वैश्र्‌वानर नाम की नली में ज्वालिनी को जलाकर सत्तासी लिंक (डिग्री जैसा कोई नाप है) प्रमाण हो, तब तक गर्म कर फिर दोनों चक्कल की कीलि (बटन) चलाकर शत्रु विमानों पर गोलाकार से उस शक्ति की फैलाने से शत्रु का विमान नष्ट हो जाता है।

 

 

 

 

 

 

1. शक्त्युद्गम - बिजली से चलने वाला। 
2. भूतवाह - अग्नि, जल और वायु से चलने वाला। 
3. धूमयान - गैस से चलने वाला। 
4. शिखोद्गम - तेल से चलने वाला। 
5. अंशुवाह - सूर्यरश्मियों से चलने वाला। 
6. तारामुख - चुम्बक से चलने वाला। 
7. मणिवाह - चन्द्रकान्त, सूर्यकान्त मणियों से चलने वाला। 
8. मरुत्सखा - केवल वायु से चलने वाला।

महर्षि शौनक आकाश मार्ग का पाँच प्रकार का विभाजन करते हैं तथा धुण्डीनाथ विभिन्न मार्गों की ऊँचाई विभिन्न मार्गों की ऊँचाई पर विभिन्न आवर्त्त या whirlpools का उल्लेख करते हैं और उस ७ उस ऊँचाई पर सैकड़ों यात्रा पथों का संकेत देते हैं । इसमें पृथ्वी से १०० किलोमीटर ऊपर तक विभिन्न ऊँचाईयों पर निर्धारित पथ तथा वहाँ कार्यरत शक्तियों का विस्तार से वर्णन करते हैं।

आकाश मार्ग तथा उनके आवर्तों का वर्णन निम्नानुसार है -

10 km ( 1 ) रेखा पथ - शक्त्यावृत्त - whirlpool of energy

50 km ( 2 ) - वातावृत्त - wind

60 km ( 3 ) कक्ष पथ - किरणावृत्त - solar rays

80 km ( 4 ) शक्तिपथ - सत्यावृत्त - cold current

-वैमानिक का खाद्य - इसमें किस ऋतु में किस प्रकार का अन्न हो इसका वर्णन है । उस समय के विमान आज से कुछ भिन्न थे । आज ते विमान उतरने की जगह निश्चित है पर उस समय विमान कहीं भी उतर सकते थे । अतः युद्ध के दौरान जंगल में उतरना पड़ा तो जीवन निर्वाह कैसे करना , इसीलिए १०० वनस्पतियों का वर्णन दिया है जिनके सहारे दो तीन माह जीवन चलाया जा सकता है। एक और महत्वपूर्ण बात वैमानिक शास्त्र में कही गयी है कि वैमानिक को दिन में ५ बार भोजन करना चाहिए । उसे कभी विमान खाली पेट नहीं उड़ाना चाहिए । १९९० में अमेरिकी वायुसेना ने १० वर्ष के निरीक्षण के बाद ऐसा ही निष्कर्ष निकाला है।

विमान के यन्त्र - विमान शास्त्र में ३१ प्रकार के यंत्र तथा उनका विमान में निश्चित स्थान का वर्णन मिलता है । इन यंत्रों का कार्य क्या है इसका भी वर्णन किया गया है । कुछ यंत्रों की जानकारी निम्नानुसार है -

(१) विश्व क्रिया दर्पण - इस यंत्र के द्वारा विमान के आसपास चलने वाली गति- विधियों का दर्शन वैमानिक को विमान के अंदर होता था, इसे बनाने में अभ्रक तथा पारा आदि का प्रयोग होता था।

(२) परिवेष क्रिया यंत्र - इसमें स्वाचालित यंत्र वैमानिक यंत्र वैमानिक का वर्णन है।

(३) शब्दाकर्षण मंत्र - इस यंत्र के द्वारा २६ किमी. क्षेत्र की आवाज सुनी जा सकती थी तथा पक्षियों की आवाज आदि सुनने से विमान को दुर्घटना से बचाया जा सकता था।

(४) गुह गर्भ यंत्र -इस यंत्र के द्वारा जमीन के अन्दर विस्फोटक खोजने में सफलता मिलती है।

(५) शक्त्याकर्षण यंत्र - विषैली किरणों को आकर्षित कर उन्हें उष्णता में परिवर्तित करना और उष्णता के वातावरण में छोड़ना।

(६) दिशा दर्शी यंत्र - दिशा दिखाने वाला यंत्र

(७) वक्र प्रसारण यंत्र - इस यंत्र के द्वारा शत्रु विमान अचानक सामने आ गया, तो उसी समय पीछे मुड़ना संभव होता था।

(८) अपस्मार यंत्र - युद्ध के समय इस यंत्र से विषैली गैस छोड़ी जाती थी।

(९) तमोगर्भ यंत्र - इस यंत्र के द्वारा शत्रु युद्ध के समय विमान को छिपाना संभव था । तथा इसके निर्माण में तमोगर्भ लौह प्रमुख घटक रहता था।

ऊर्जा स्रोत - विमान को चलाने के लिए चार प्रकार के ऊर्जा स्रोतों का महर्षि भरद्वाज उल्लेख करते हैं।

(१) वनस्पति तेल जो पेट्रोल की भाँति काम करता था।

(२) पारे की भाप - प्राचीन शास्त्रों में इसका शक्ति के रूप में उपयोग किए जाने का वर्णन है । इस के द्वारा अमेरिका में विमान उड़ाने का प्रयोग हुआ , पर वह ऊपर गया, तब विस्फोट हो गया । परन्तु यह तो सिद्ध हुआ कि पारे की भाप का ऊर्जा की तरह प्रयोग हो सकता है । आवश्यकता अधिक निर्दोष प्रयोग करने की है।

(३) सौर ऊर्जा - इसके द्वारा भी विमान चलता था । ग्रहण कर विमान उड़ना जैसे समुद्र में पाल खोलने पर नाव हवा के सहारे तैरता है इसी प्रकार अंतरिक्ष में विमान वातावरण से शक्ति ग्रहण कर चलता रहेगा । अमेरिका में इस दिशा में प्रयत्न चल रहे हैं । यह वर्णन बताता है कि ऊर्जा स्रोत के रूप में प्राचीन भारत में कितना व्यापह प्रचार हुआ था।

विमान के प्रकार - विमान विद्या के पूर्व आचार्य युग के अनुसार विमानों का वर्णन करते हैं ।

मंत्रिका प्रकार के विमान जिसमें भौतिक एवं मानसिक शक्तियों के सम्मिश्रण की प्रक्रिया रहती थी वह सतयुग और त्रेता युग में सम्भव था ।

इनके ५६ प्रकार बताए गए हैं तथा कलियुग में कृतिका प्रकार के यंत्र चालित विमान थे इनके २५ प्रकार बताए हैं।

 

इनमें शकुन,रुक्म, हंस, पुष्कर, त्रिपुर आदि प्रमुख थे ।

उपर्युक्त वर्णन पढ़ने पर कुछ समस्याएँ व प्रश्न हमारे सामने आकर खडे होते हैं । समस्या यह है आज के विज्ञान की शब्दावली व नियमावली से हम परिचित हैं, परन्तु प्राचीन विज्ञान , जो संस्कृत में अभिव्यक्त हुआ है , उसकी शब्दावली , उनका अर्थ तथा नियमावली हम नहीं जानते । अतः उनमें निहित रहस्य को अनावृत्त करना पड़ेगा । दूसरा , प्राचीन काल में गलत व्यक्ति के हाथ में विद्या न जाए , इस हेतु बात को अप्रत्यक्ष ढंग से , गूढ़ रूप में , अलंकारिक रूप में कहने की पद्धति थी । अतः उसको भी समझने के लिए ऐसे लोगों के इस विषय में आगे प्रयत्न करने की आवश्यकता है , जो संस्कृत भी जानते हों तथा विज्ञान भी जानते हों।

विमान शास्त्र में वर्णित धातुएं - दूसरा प्रश्न उठता है कि क्या विमान शास्त्र ग्रंथ का कोई ऐसा भाग है जिसे प्रारंभिक तौर पर प्रयोग द्वज्ञरा सिद्ध किया जा सके । यदि कोई ऐसा भाग है , तो क्या इस दिशा में कुछ प्रयोग हुए हैं । क्या उनमें कुछ सफलता मिली है 

सौभाग्य से इन प्रश्नों के उत्तर हाँ में दिए जा सकते हैं । हैदराबाद के डॉ. श्रीराम प्रभु ने वैमानिक शास्त्र ग्रंथ के यंत्राधिकरण को देखा , तो उसमें वर्णित ३१ यंत्रों में कुछ यंत्रों की उन्होंने पहचान की तथा इन यंत्रों को बनाने वाली मिश्र धातुओं का निर्माण सम्भव है या नहीं , इस हेतु प्रयोंग करने का विचार उनके मन में आया । प्रयोग हेतु डॉ. प्रभु तथा उनके साथियों ने हैदराबाद स्थित बी. एम. बिरला साइंस सेन्टर के सहयोग से प्राचीन भारतीय साहित्य में वर्णित धातुएं , दर्पण आदि का निर्माण प्रयोगशाला में करने का प्रकल्प किया और उसके परिणाम आशास्पद हैं।

अपने प्रयोंगों के आधार पर प्राचीन ग्रंथ में वर्णित वर्णन के आधार पर दुनिया में अनुपलब्ध कुछ धातुएं बनाने में सफलता उन्हें मिली है।

प्रथम धातु है तमोगर्भ लौह । विमान शास्त्र में वर्णन है कि यह विमान अदृश्य करने के काम आता है । इस पर प्रकाश छोड़ने से ७५ से ८० प्रतिशत प्रकाश को सोख लेतो है । यह धातु रंग में काली तथा शीशे से कठोर तथा कान्सन्ट्रेटेड सल्फ्‌यूरिक एसिड में भी नहीं गलती।

दूसरी धातु जो बनाई है, उसका नाम है पंच लौह । यह रंग में स्वर्ण जैसा है तथा कठोर व भारी है । ताँबा आधारित इस मिश्र धातु की विशेषता यह है कि इसमें सीसे का प्रमाण ७.९५ प्रतिशत है , जबकि अमेरिकन सोसायटी ऑफ मेटल्स ने कॉपर बेस्ड मिश्र धातु में सीसे का अधिकतम प्रमाण ०.३५ से ३ प्रतिशत संभव है यह माना है । इस प्रकार ७.९५ सीसे के मिश्रण वाली यह धातु अनोखी है।

तीसरी धातु है आरर । यह ताँबा आधारित मिश्र धातु है , जो रंग में पीली और कठोर तथा हल्की है । इस धातु में तमेपेजंदबम जव उवपेजनतम का गुण है । बी. एम. बिरला साइंस सेन्टर के डायरेक्टर डॉ. बी. जी. सिद्धार्थ ने उन धातुओं को बनाने में सफलता की जानकारी एक पत्रकार परिषद में देते हुए बताया कि इन धातुओं को बनाने में खनिजों के साथ विभिन्न औषधियाँ , पत्ते , गोंद , पेड़ की छाल , आदि का भी उपयोग होता है । इस कारण जहाँ इनकी लागत कम आती है , वहीं कुछ विशेष गुण भी उत्पन्न होते हैं । उन्होनें कहा कि ग्रंथ में वर्णित अन्य धातुओं का निर्माण और उस हेतु आवश्यक साधनों की दिशा में देश के नीति निर्धारक सोचेंगे , तो यह देश के भविष्य की दृष्टि से अच्छा होगा।

इसी प्रकार मुंबई के रसायन शास्त्र विभाग के डॉ. माहेश्वर शेरोन ने भी इस ग्रंथ में वर्णित तीन पदार्थों को बनाने का प्रयत्न किया है । ये थे चुम्बकमणि जो गुहगर्भ यंत्र में काम आती है और उसमें परावर्तन ( रिफ्‌लेक्शन ) को अधिगृहीत ( कैप्चर ) करने का गुण है । पराग्रंधिक द्रव - यह एक प्रकार का एसिड है , जो चुम्बकमणि के साथ गुहगर्भ यंत्र में काम आता है।

इसी प्रकार विमान शास्त्र में एक और अधिकरण है दर्पणाधिकरण , जिसमें विभिन्न प्रकार के काँच और उनके अलग अलग गुणों का वर्णन है । इन पर वाराणसी के हरिश्चन्द्र पी. जी. कॉलेज के रीडर डॉ. एन. जी. डोंगरे ने । " The study of various materials described in Amsubodhini of Maharshi Bharadwaja "

इस प्रकल्प के तहत उन्होंने महर्षि भरद्वाज वर्णित दर्पण बनाने का प्रयत्न नेशनल मेटलर्जीकल लेबोरेटरी जमशेदपुर में किया तथा वहाँ के निदेशक पी. रामचन्द्र राव जो पूर्व मे बनारस हिंदू विश्वविद्यालय के कुलपति थे, के साथ प्रयोग कर एक विशेष प्रकार का कांच बनाने में सफलता प्राप्त की , जिसका नाम प्रकाश स्तभंन भिद् लौह है । इसकी विशेंषता है कि यह दर्शनीय प्रकाश को सोखता है तथा इन्फ्रारैड प्रकाश को जाने देता है । इसका निर्माण कचर लौह – Silic भूचक्र सुरमित्रादिक्षर - Lime अयस्कान्त - Lodestone इनके द्वारा अंशुबोधिनी में वर्णित विधि से किया गया है । प्रकाश स्तंभन भिद् लौह की यह विशेषता है कि यह पूरी तरह से नॉन हाईग्रोस्कोपिक है , हाईग्रोस्कोपिक इन्फ्रारेड वाले काँचों में पानी की भाप या वातावरण की नमी से उनका पॉलिश हट जाता है और वे बेकार हो जाते हैं । आजकल ब्थ् २ यह बहुत अधिक हाईग्रोस्कोपिक है । अतः इनके यंत्रों के प्रयोग में बहुत अधिक सावधानी रखनी पड+ती है जबकि प्रकाश स्तंभन भिद् लौह के अध्ययन से यह सिद्ध हुआ है कि इन्फ्रारैड सिग्नल्स में यह आदर्श काम करता है तथा इसका प्रयोग वातावरण में मौजूद नमी के खतरे के बिना किया जा सकता है।

इस प्रकार हम कह सकते है कि महर्षि भरद्वाज प्रणीत ग्रंथ के विभिन्न अध्यायों में से एक अध्याय पर कुछ प्रयोंगों की सत्यता यह विश्वास दिलाती है कि यदि एक ग्रंथ का एक अध्याय सही है तो अन्य अध्याय भी सही होंगे और प्राचीन काल में विमान विद्या कपोल कल्पना न होकर एक यथार्थ था इस का विश्वास दिलाती है । यह विश्वास सार्थक करने हेतु इस पुस्तक के अन्य अध्याय अपनी सत्यता की सिद्धी हेतु साहसी संशोधकों की राह देख रहे हैं।

 जन सामान्य में हमारे प्राचीन ऋषियों-मुनियों के बारे में ऐसी धारणा जड़ जमाकर बैठी हुई है कि वे जंगलों में रहते थे, जटाजूटधारी थे, भगवा वस्त्र पहनते थे, झोपड़ियों में रहते हुए दिन-रात ब्रह्म-चिन्तन में निमग्न रहते थे, सांसारिकता से उन्हें कुछ भी लेना-देना नहीं रहता था। इसी पंगु अवधारणा का एक बहुत बड़ा अनर्थकारी पहलू यह है कि हम अपने महान पूर्वजों के जीवन के उस पक्ष को एकदम भुला बैठे, जो उनके महान् वैज्ञानिक होने को न केवल उजागर करता है वरन् सप्रमाण पुष्ट भी करता है। महर्षि भरद्वाज हमारे उन प्राचीन विज्ञानवेत्ताओं में से ही एक ऐसे महान् वैज्ञानिक थे जिनका जीवन तो अति साधारण था लेकिन उनके पास लोकोपकारक विज्ञान की महान दृष्टि थी।

महाभारत काल तथा उससे पूर्व भारतवर्ष में भी विमान विद्या का विकास हुआ था । न केवल विमान अपितु अंतरिक्ष में स्थित नगर रचना भी हुई थी | इसके अनेक संदर्भ प्राचीन वांग्मय में मिलते हैं। निश्चित रूप से उस समय ऐसी विद्या अस्तित्व में थी जिसके द्वारा भारहीनता (zero gravity) की स्थति उत्पन्न की जा सकती थी। यदि पृथ्वी की गरूत्वाकर्षण शक्ति का उसी मात्रा में विपरीत दिशा में प्रयोग किया जाये तो भारहीनता उत्पन्न कर पाना संभव है|

विद्या वाचस्पति पं. मधुसूदन सरस्वती " इन्द्रविजय " नामक ग्रंथ में ऋग्वेद के छत्तीसवें सूक्त प्रथम मंत्र का अर्थ लिखते हुए कहते हैं कि ऋभुओं ने तीन पहियों वाला ऐसा रथ बनाया था जो अंतरिक्ष में उड़ सकता था । पुराणों में विभिन्न देवी देवता , यक्ष , विद्याधर आदि विमानों द्वारा यात्रा करते हैं इस प्रकार के उल्लेख आते हैं । त्रिपुरासुर याने तीन असुर भाइयों ने अंतरिक्ष में तीन अजेय नगरों का निर्माण किया था , जो पृथ्वी, जल, व आकाश में आ जा सकते थे और भगवान शिव ने जिन्हें नष्ट किया।

वेदों मे विमान संबंधी उल्लेख अनेक स्थलों पर मिलते हैं। ऋषि देवताओं द्वारा निर्मित तीन पहियों के ऐसे रथ का उल्लेख ऋग्वेद (मण्डल 4, सूत्र 25, 26) में मिलता है, जो अंतरिक्ष में भ्रमण करता है। ऋषिओं ने मनुष्य-योनि से देवभाव पाया था। देवताओं के वैद्य अश्विनीकुमारों द्वारा निर्मित पक्षी की तरह उडऩे वाले त्रितल रथ, विद्युत-रथ और त्रिचक्र रथ का उल्लेख भी पाया जाता है। महाभारत में श्री कृष्ण, जरासंध आदि के विमानों का वर्णन आता है। वाल्मीकि रामायण में वर्णित ‘पुष्पक विमान’ (जो लंकापति रावण के पास था) के नाम से तो प्राय: सभी परिचित हैं। लेकिन इन सबको कपोल-कल्पित माना जाता रहा है। यदि विमान की चर्चा केवल रामायण या अन्य पुराणों में ही मिलती तो हम इसे उन ऋषियों या कवियों की कल्पनाशक्ति मान लेते। विमान की चर्चा, अंतरिक्ष यात्रा की विश्वसनीय-सी चर्चा वेदों में है और वह भी फुटकर नहीं, बल्कि ऐसी है कि महर्षि भारद्वाज ने वेदों का निर्मंथन कर  ‘यंत्र सर्वस्व’  नामक इंजीनियरी ग्रंथ उसमें से नवनीत की भाँति निकाल डाला (वैमानिक प्रकरणम्, पृ0 2, वृहद विमान शास्त्र)

(दसवां श्लोक)। ‘यंत्र सर्वस्व’ ग्रंथ में इंजीनियरी आदि से संबंधित, चालीस प्रकरण हैं। ‘यंत्र सर्वस्व’ के इस वैमानिक प्रकरण के अतिरिक्त विमान शास्त्र से संबंधित अनेक ग्रंथ हैं जिनमें छः ऋषियों के ग्रंथ प्रसिद्ध हैं: नारायण कृत ‘विमान चंद्रिका’, शौनक कृत ‘व्योमयान’, गर्ग कृत ‘यंत्रकल्प’, वाचस्पति कृत ‘यानविंदु’, चाक्रायणि कृत ‘खेटयान प्रदीपिका’, तथा घुंडिनाथ कृत ‘व्योमयानार्क प्रकाश’।

महर्षि भारद्वाज ने न केवल वेदों तथा इन छः ग्रंथों का भी मंथन किया वरन् अन्य अनेक ऋषियों द्वारा इन विषयों पर रचित ग्रंथों का भी मंथन किया था। इसमें आचार्य लल्ल (‘रहस्य लहरी’), सिद्धनाथ, विश्वकर्मा (पुष्पक विमान का आविष्कर्ता), छायापुरुष, मनु, मय आदि के ग्रंथों की चर्चा है। ‘बृहद विमान शास्त्र’ में कुल 97 विमान से संबद्ध ग्रंथों का संदर्भ है। और भी अनेकों से जानकारी ली गई है। महर्षि भारद्वाज के ‘बृहद विमान शास्त्र’ (बृ0वि0शा0) में जो वर्णन है, अचरज होता है कि उसमें विमानों के इंजीनियरी निर्माण की विधियों का वर्णन है। अतएव इसके पूर्व कि हम भारत की प्राचीन पंरपरा में विमानों के अथवा उनके ज्ञान के अस्तित्व पर कोई भी निर्णय लें उनका अध्ययन आवश्यक हो जाता है। भारत के प्राचीन ग्रन्थों में आज से लगभग दस हजार वर्ष पूर्व विमानों तथा उन के युद्धों का विस्तरित वर्णन है। सैनिक क्षमताओं वाले विमानों के प्रयोग, विमानों की भिडन्त, तथा ऐक दूसरे विमान का अदृष्य होना और पीछा करना किसी आधुनिक वैज्ञिानिक उपन्यास का आभास देते हैं लेकिन वह कोरी कलपना नहीं यथार्थ है।

प्राचीन विमानों के प्रकार

मानव निर्मित विमान, जो आधुनिक विमानों की तरह पंखों के सहायता से उडान भरते थे। आश्चर्य जनक विमान, जो मानव निर्मित नहीं थे किन्तु उन का आकार प्रकार आधुनिक ‘उडन तशतरियों’ के अनुरूप है।

विमान विकास के प्राचीन ग्रन्थ

भारतीय उल्लेख प्राचीन संस्कृत भाषा में सैंकडों की संख्या में उपलब्द्ध हैं, किन्तु खेद का विषय है कि उन्हें अभी तक किसी आधुनिक भाषा में अनुवादित ही नहीं किया गया। प्राचीन भारतीयों ने जिन विमानों का अविष्कार किया था उन्हों ने विमानों की संचलन प्रणाली तथा उन की देख भाल सम्बन्धी निर्देश भी संकलित किये थे, जो आज भी उपलब्द्ध हैं और उन में से कुछ का अंग्रेजी में अनुवाद भी किया जा चुका है। विमान विज्ञान विषय पर कुछ मुख्य 

प्राचीन ग्रन्थों का ब्योरा इस प्रकार हैः-

1. ऋगवेद- इस आदि ग्रन्थ में कम से कम 200 बार विमानों के बारे में उल्लेख है। उन में तिमंजिला, त्रिभुज आकार के, तथा तिपहिये विमानों का उल्लेख है जिन्हे अश्विनों (वैज्ञिानिकों) ने बनाया था। उन में साधारणत्या तीन यात्री जा सकते थे। विमानों के निर्माण के लिये स्वर्ण, रजत तथा लोह धातु का प्रयोग किया गया था तथा उन के दोनो ओर पंख होते थे। वेदों में विमानों के कई आकार-प्रकार उल्लेखित किये गये हैं। अहनिहोत्र विमान के दो ईंजन तथा हस्तः विमान (हाथी की शक्ल का विमान) में दो से अधिक ईंजन होते थे। एक अन्य विमान का रुप किंग-फिशर पक्षी के अनुरूप था। इसी प्रकार कई अन्य जीवों के रूप वाले विमान थे। इस में कोई सन्देह नहीं कि बीसवीं सदी की तरह पहले भी मानवों ने उड़ने की प्रेरणा पक्षियों से ही ली होगी। याता-यात के लिये ऋग वेद में जिन विमानों का उल्लेख है वह इस प्रकार है-

अ॒न॒श्वो जा॒तो अ॑नभी॒शुरु॒क्थ्यो॒३॒॑ रथ॑स्त्रिच॒क्रः परि॑ वर्तते॒ रजः॑।
म॒हत्तद्वो॑ दे॒व्य॑स्य प्र॒वाच॑नं॒ द्यामृ॑भवः पृथि॒वीं यच्च॒ पुष्य॑थ ॥

-(ऋग वेद 4.36.1)
पदार्थान्वयभाषाः -हे (ऋभवः) बुद्धिमानो ! (वः) आप लोगों के लिये (अनश्वः) घोड़ों से रहित (अनभीशुः) जिसने किसी का दिया नहीं लिया वह (उक्थ्यः) प्रशंसा करने योग्य (त्रिचक्रः) तीन पहियों से युक्त (रथः) वाहनविशेष (जातः) उत्पन्न हुआ (यत्) जो (महत्) बड़े (रजः) लोकसमूह के (परि) सब ओर (वर्तते) वर्त्तमान है (तत्) वह (देव्यस्य) विद्वानों में उत्पन्न कर्म का (प्रवाचनम्) उपदेश सब ओर वर्त्तमान है, उससे (द्याम्) प्रकाश (च) और (पृथिवीम्) अन्तरिक्ष वा भूमि को आप लोग (पुष्यथ) पुष्ट करो ॥ भावार्थभाषाः -हे मनुष्यो ! तुम लोग अनेक प्रकार के अनेक कलाचक्रों तथा पशु घोड़ा के वाहन से रहित, अग्नि और जल से चलाये गये विमान आदि वाहनों को बना पृथिवी, जलों और अन्तरिक्ष में जा आकर और ऐश्वर्य्य को प्राप्त होकर पूर्ण सुखवाले होओ ॥ [he manushyo ! tum log anek prakaar ke anek kalaachakron tatha pashu ghoda ke vaahan se rahit, agni aur jal se chalaaye gaye vimaan aadi vaahanon ko bana prthivee, jalon aur antariksh mein ja aakar aur aishvaryy ko praapt hokar poorn sukhavaale hoo .]--स्वामी दयानन्द सरस्वती

यो वा॑मश्विना॒ मन॑सो॒ जवी॑या॒न्रथ॒: स्वश्वो॒ विश॑ आ॒जिगा॑ति।
येन॒ गच्छ॑थः सु॒कृतो॑ दुरो॒णं तेन॑ नरा व॒र्तिर॒स्मभ्यं॑ यातम् ॥
-ऋग्वेद १.११७.२[1,117,2]
पदार्थान्वयभाषाः -हे (नरा) न्याय की प्राप्ति करानेवाले (अश्विना) विचारशील सभा सेनाधीशो ! (यः) जो (सुकृतः) अच्छे साधनों से बनाया हुआ (स्वश्वः) जिसमें अच्छे वेगवान् बिजुली आदि पदार्थ वा घोड़े लगे हैं, वह (मनसः) विचारशील अत्यन्त वेगवान् मन से भी (जवीयान्) अधिक वेगवाला और (रथः) युद्ध की अत्यन्त क्रीड़ा करानेवाला रथ है, वह (विशः) प्रजाजनों की (आजिगाति) अच्छे प्रकार प्रशंसा कराता और (वाम्) तुम दोनों (येन) जिस रथ से (वर्त्तिः) वर्त्तमान (दुरोणम्) घर को (गच्छथः) जाते हो (तेन) उससे (अस्मभ्यम्) हम लोगों को (यातम्) प्राप्त हूजिये ॥ 
अन्वय: हे नराश्विना सभासेनेशौ यः सुकृतः स्वश्वो मनसो जवीयान् रथोऽस्ति स विश आजिगाति वा युवां येन रथेन वर्त्तिर्दुरोणं गच्छथस्तेनास्मभ्यं यातम् ॥
भावार्थभाषाः -राजपुरुषों को चाहिये कि मन के समान वेगवाले, बिजुली आदि पदार्थों से युक्त, अनेक प्रकार के रथ आदि यानों को निश्चित कर प्रजाजनों को सन्तोष देवें। और जिस-जिस कर्म से प्रशंसा हो उसी-उसी का निरन्तर सेवन करें, उससे और कर्म का सेवन न करें ॥ -स्वामी दयानन्द सरस्वती
[raajapurushon ko chaahiye ki man ke samaan vegavaale, bijulee aadi padaarthon se yukt, anek prakaar ke rath aadi yaanon ko nishchit kar prajaajanon ko santosh deven. aur jis-jis karm se prashansa ho usee-usee ka nirantar sevan karen, usase aur karm ka sevan na karen ]
अ॒न॒श्वो जा॒तो अ॑नभी॒शुरु॒क्थ्यो॒३॒॑ रथ॑स्त्रिच॒क्रः परि॑ वर्तते॒ रजः॑।
 म॒हत्तद्वो॑ दे॒व्य॑स्य प्र॒वाच॑नं॒ द्यामृ॑भवः पृथि॒वीं यच्च॒ पुष्य॑थ ॥
-RigVed 4.36.1
पदार्थान्वयभाषाः -हे (ऋभवः) बुद्धिमानो ! (वः) आप लोगों के लिये (अनश्वः) घोड़ों से रहित (अनभीशुः) जिसने किसी का दिया नहीं लिया वह (उक्थ्यः) प्रशंसा करने योग्य (त्रिचक्रः) तीन पहियों से युक्त (रथः) वाहनविशेष (जातः) उत्पन्न हुआ (यत्) जो (महत्) बड़े (रजः) लोकसमूह के (परि) सब ओर (वर्तते) वर्त्तमान है (तत्) वह (देव्यस्य) विद्वानों में उत्पन्न कर्म का (प्रवाचनम्) उपदेश सब ओर वर्त्तमान है, उससे (द्याम्) प्रकाश (च) और (पृथिवीम्) अन्तरिक्ष वा भूमि को आप लोग (पुष्यथ) पुष्ट करो ॥
अन्वय: हे ऋभवो ! वोऽनश्वोऽनभीशुरुक्थ्यस्त्रिचक्रो रथो जातः सन् यन्महद्रजः परिवर्त्तते तद्देव्यस्य प्रवाचनं परिवर्त्तते तेन द्यां पृथिवीं च यूयं पुष्यथ ॥
भावार्थभाषाः -हे मनुष्यो ! तुम लोग अनेक प्रकार के अनेक कलाचक्रों तथा पशु घोड़ा के वाहन से रहित, अग्नि और जल से चलाये गये विमान आदि वाहनों को बना पृथिवी, जलों और अन्तरिक्ष में जा आकर और ऐश्वर्य्य को प्राप्त होकर पूर्ण सुखवाले होओ ॥--स्वामी दयानन्द सरस्वती
[he manushyo ! tum log anek prakaar ke anek kalaachakron tatha pashu ghoda ke vaahan se rahit, agni aur jal se chalaaye gaye vimaan aadi vaahanon ko bana prthivee, jalon aur antariksh mein ja aakar aur aishvaryy ko praapt hokar poorn sukhavaale hoo]

यास्ते॑ पूष॒न्नावो॑ अ॒न्तः स॑मु॒द्रे हि॑र॒ण्ययी॑र॒न्तरि॑क्षे॒ चर॑न्ति।
 ताभि॑र्यासि दू॒त्यां सूर्य॑स्य॒ कामे॑न कृत॒ श्रव॑ इ॒च्छमा॑नः ॥
-(ऋग वेद 6.58.3)
पदार्थान्वयभाषाः -हे (कृत) किये हुए विद्वन् ! (पूषन्) भूमि के समान पुष्टियुक्त ! (याः) जो (ते) आपकी (हिरण्यययीः) तेजोमयी सुवर्णादिकों से सुभूषित (नावः) प्रशंसनीय नौकायें (समुद्रे) समुद्र वा (अन्तरिक्षे) अन्तरिक्ष में (अन्तः) भीतर (चरन्ति) जाती हैं (ताभिः) उनसे (कामेन) कामना करके (श्रवः) अन्नादिक की (इच्छमानः) इच्छा करते हुए (सूर्यस्य) सूर्य्य के (दूत्याम्) दूत की क्रिया के समान कामना को (यासि) प्राप्त होते हो, इससे धन्य हो ॥
भावार्थभाषाः -जो मनुष्य सुदृढ़ नावें और भूविमानों को भूमि और अन्तरिक्ष में चलनेवाले यानों को अन्तरिक्ष में चलने को रचते और उनसे देश-देशान्तरों को जाय आकर अपनी इच्छा को पूरी करते हैं, वे ही सूर्य्य के समान प्रकाशित कीर्तिवाले होते हैं ॥ {jo manushy sudrdh naaven aur bhoovimaanon ko bhoomi aur antariksh mein chalanevaale yaanon ko antariksh mein chalane ko rachate aur unase desh-deshaantaron ko jaay aakar apanee ichchha ko pooree karate hain, ve hee sooryy ke samaan prakaashit keertivaale hote hain .}-स्वामी दयानन्द सरस्वती

अ॒ना॒र॒म्भ॒णे तद॑वीरयेथामनास्था॒ने अ॑ग्रभ॒णे स॑मु॒द्रे।
यद॑श्विना ऊ॒हथु॑र्भु॒ज्युमस्तं॑ श॒तारि॑त्रां॒ नाव॑मातस्थि॒वांस॑म् ॥
-ऋग्वेद १.११६.५ [rig1.116.5]
पदार्थान्वयभाषाः -हे (अश्विनौ) विद्या में व्याप्त होनेवाले सभा सेनापति ! (यत्) तुम दोनों (अनारम्भणे) जिसमें आने-जाने का आरम्भ (अनास्थाने) ठहरने की जगह और (अग्रभणे) पकड़ नहीं है उस (समुद्रे) अन्तरिक्ष वा सागर में (शतारित्राम्) जिसमें जल की थाह लेने को सौ वल्ली वा सौ खम्भे लगे रहते और (नावम्) जिसको चलाते वा पठाते उस नाव को बिजुली और पवन के वेग के समान (ऊहथुः) बहाओ और (अस्तम्) जिसमें दुःखों को दूर करें उस घर में (आतस्थिवांसम्) धरे हुए (भुज्यम्) खाने-पीने के पदार्थ समूह को (अवीरयेथाम्) एक देश से दूसरे देश को ले जाओ, (तत्) उन तुम लोगों का हम सदा सत्कार करें ॥ 
अन्वय: हे अश्विनौ यद्यौ युवामनारम्भणेऽनास्थानेऽग्रभणे समुद्रे शतारित्रां नावमूहथुरस्तमातस्थिवांसं भुज्युमवीरयेथां विक्रमेथां तत् वयं सदा सत्कुर्याम ॥
भावार्थभाषाः -राजपुरुषों को चाहिये कि निरालम्ब मार्ग में अर्थात् जिसमें कुछ ठहरने का स्थान नहीं है वहां विमान आदि यानों से ही जावें। जबतक युद्ध में लड़नेवाले वीरों की जैसी चाहिये वैसी रक्षा न की जाय तबतक शत्रु जीते नहीं जा सकते, जिसमें सौ वल्ली विद्यमान हैं वह बड़े फैलाव की नाव बनाई जा सकती है। इस मन्त्र में शत शब्द असंख्यातयाची भी लिया जा सकता है, इससे अतिदीर्घ नौका का बनाना इस मन्त्र में जाना जाता है। मनुष्य जितनी बड़ी नौका बना सकते हैं, उतनी बड़ी बनानी चाहिये। इस प्रकार शीघ्र जानेवाला पुरुष भूमि और अन्तरिक्ष में जाने-आने के लिये यानों को बनावे ॥ -स्वामी दयानन्द सरस्वती
[raajapurushon ko chaahiye ki niraalamb maarg mein arthaat jisamen kuchh thaharane ka sthaan nahin hai vahaan vimaan aadi yaanon se hee jaaven. jabatak yuddh mein ladanevaale veeron kee jaisee chaahiye vaisee raksha na kee jaay tabatak shatru jeete nahin ja sakate, jisamen sau vallee vidyamaan hain vah bade phailaav kee naav banaee ja sakatee hai. is mantr mein shat shabd asankhyaatayaachee bhee liya ja sakata hai, isase atideergh nauka ka banaana is mantr mein jaana jaata hai. manushy jitanee badee nauka bana sakate hain, utanee badee banaanee chaahiye. is prakaar sheeghr jaanevaala purush bhoomi aur antariksh mein jaane-aane ke liye yaanon ko banaave .]
বেদে বিমান

यु॒वं न॑रा स्तुव॒ते कृ॑ष्णि॒याय॑ विष्णा॒प्वं॑ ददथु॒र्विश्व॑काय।
घोषा॑यै चित्पितृ॒षदे॑ दुरो॒णे पतिं॒ जूर्य॑न्त्या अश्विनावदत्तम् ॥
ऋग्वेद १.११७.७[1/117/7]
पदार्थान्वयभाषाः -हे (नरा) सब कामों में प्रधान और (अश्विनौ) सब विद्याओं में व्याप्त सभासेनाधीशो ! (युवम्) तुम दोनों (कृष्णियाय) खेती के काम की योग्यता रखने और (स्तुवते) सत्य बोलनेवाले (पितृषदे) जिसके समीप विद्या विज्ञान देनेवाले स्थित होते (विश्वकाय) और जो सभों पर दया करता है उस राजा के लिये (दुरोणे) घर में (विष्णाप्वम्) जिस पुरुष से खेती के भरे हुए कामों को प्राप्त होता उस खेती रखनेवाले पुरुष को (ददथुः) देओ (चित्) और (जूर्य्यन्त्यै) बुड्ढेपन को प्राप्त करनेवाली (घोषायै) जिसमें प्रशंसित शब्द वा गौ आदि के रहने के विशेष स्थान हैं, उस खेती के लिये (पतिम्) स्वामी अर्थात् उसकी रक्षा करनेवाले को (अदत्तम्) देओ ॥ 
अन्वय: हे नराश्विनौ युवं युवां कृष्णियाय स्तुवते पितृषदे विश्वकाय दुरोणे विष्णाप्वं पतिं ददथुः। चिदपि जूर्यन्त्यै घोषायै पतिमदत्तम् ॥
भावार्थभाषाः -राजा आदि न्यायाधीश खेती आदि कामों के करनेवाले पुरुषों से सब उपकार पालना करनेवाले पुरुष और सत्य न्याय को प्रजाजनों को देकर उन्हें पुरुषार्थ में प्रवृत्त करें। इन कार्य्यों की सिद्धि को प्राप्त हुए प्रजाजनों से धर्म के अनुकूल अपने भाग को यथायोग्य ग्रहण करें ॥ -स्वामी दयानन्द सरस्वती
[raaja aadi nyaayaadheesh khetee aadi kaamon ke karanevaale purushon se sab upakaar paalana karanevaale purush aur saty nyaay ko prajaajanon ko dekar unhen purushaarth mein pravrtt karen. in kaaryyon kee siddhi ko praapt hue prajaajanon se dharm ke anukool apane bhaag ko yathaayogy grahan karen]

आ होता॑ म॒न्द्रो वि॒दथा॑न्यस्थात्स॒त्यो यज्वा॑ क॒वित॑मः॒ स वे॒धाः।
 वि॒द्युद्र॑थः॒ सह॑सस्पु॒त्रो अ॒ग्निः शो॒चिष्के॑शः पृथि॒व्यां पाजो॑ अश्रेत्॥
(ऋग वेद 3.14.1)
पदार्थान्वयभाषाः -हे मनुष्यो ! जो (मन्द्रः) अच्छे और प्रसन्न कराने (सत्यः) श्रेष्ठ पुरुषों का आदर करने (यज्वा) मेल करने और (होता) सब विद्या का देनेवाला (कवितमः) अत्यन्त विद्वान् (वेधाः) बुद्धिमान् पुरुष है (सः) वह (विदथानि) विज्ञानों को (आ) (अस्थात्) प्राप्त होकर उत्पन्न करे (विद्युद्रथः) बिजुली से रथ चलानेवाला (सहसः) बलयुक्त वायु के (पुत्रः) सन्तान के सदृश (शोचिष्केशः) केशों के सदृश तेजों को धारणकर्त्ता (अग्निः) अग्नि के तुल्य तेजस्वी इस (पृथिव्याम्) पृथिवी में (पाजः) बल का (अश्रेत्) आश्रय करे, उससे विमानरचना और शिल्पविद्या में निपुण होइये ॥
अन्वय: हे मनुष्या यो मन्द्रः सत्यो यज्वा होता कवितमो वेधा अस्ति स विदथान्यास्थात् विद्युद्रथः सहसस्पुत्रः शोचिष्केशोऽग्निः पृथिव्यां पाजोऽश्रेत्तस्मादेव युष्माभिः शिल्पविद्या सङ्ग्राह्या ॥
भावार्थभाषाः -जो मनुष्य पदार्थविद्या में कुशल होकर हाथ की कारीगरी से यन्त्रकला सिद्ध करके बिजुली से चलाने योग्य वाहनों को रचें, तो वे अत्यन्त सुख को प्राप्त होवें ॥ [jo manushy padaarthavidya mein kushal hokar haath kee kaareegaree se yantrakala siddh karake bijulee se chalaane yogy vaahanon ko rachen, to ve atyant sukh ko praapt hoven]--स्वामी दयानन्द सरस्वती

यम॑श्विना द॒दथु॑: श्वे॒तमश्व॑म॒घाश्वा॑य॒ शश्व॒दित्स्व॒स्ति।
तद्वां॑ दा॒त्रं महि॑ की॒र्तेन्यं॑ भूत्पै॒द्वो वा॒जी सद॒मिद्धव्यो॑ अ॒र्यः ॥
-१.११६.६[1.116.6]
पदार्थान्वयभाषाः -हे (अश्विना) जल और पृथिवी के समान शीघ्र सुख के देनेहारो सभासेनापति ! तुम दोनों (अघाश्वाय) जो मारने के न योग्य और शीघ्र पहुँचानेवाला है उस वैश्य के लिये (यम्) जिस (श्वेतम्) अच्छे बढ़े हुए (अश्वम्) मार्ग में व्याप्त प्रकाशमान बिजुलीरूप अग्नि को (ददथुः) देते हो तथा जिससे (शश्वत्) निरन्तर (स्वस्ति) सुख को पाकर (वाम्) तुम दोनों की (कीर्त्तेन्यम्) कीर्त्ति होने के लिये (महि) बड़े राज्यपद (दात्रम्) और देने योग्य (इत्) ही पदार्थ को ग्रहण कर (पैद्वः) सुख से ले जानेहारा (वाजी) अच्छा ज्ञानवान् पुरुष उस (सदम्) रथ को कि जिसमें बैठते हैं रच के (अर्यः) वणियाँ (हव्यः) पदार्थों के लेने योग्य (भूत्) होता है (तत्, इत्) उसी पूर्वोक्त विमानादि को बनाओ ॥ 
अन्वय: हे अश्विना युवामघाश्वाय वैश्याय यं श्वेतमश्वं भास्वरं विद्युदाख्यं ददथुर्दत्तः। येन शश्वत् स्वस्ति प्राप्य वा कीर्त्तेन्यं महि दात्रमिदेव गृहीत्वा पैद्वो वाजी तत् सदं रचयित्वाऽर्यश्च हव्यो भूद् भवति तदिदेवं विधत्ताम् ॥
भावार्थभाषाः -जो सभा और सेना के अधिपति वणियों (=वणिकों) की भली-भाँति रक्षा कर रथ आदि यानों में बैठाकर द्वीप-द्वीपान्तर में पहुँचावें, वे बहुत धनयुक्त होकर निरन्तर सुखी होते हैं ॥--स्वामी दयानन्द सरस्वती 
[jo sabha aur sena ke adhipati vaniyon (=vanikon) kee bhalee-bhaanti raksha kar rath aadi yaanon mein baithaakar dveep-dveepaantar mein pahunchaaven, ve bahut dhanayukt hokar nirantar sukhee hote hain .]

जल-यान – यह वायु तथा जल दोनो तलों में चल सकता था। (ऋग वेद 6.58.3)

कारा – यह भी वायु तथा जल दोनो तलों में चल सकता था। (ऋग वेद 9.14.1)

त्रिताला – इस विमान का आकार तिमंजिला था। (ऋग वेद 3.14.1)

त्रिचक्र रथ – यह तिपहिया विमान आकाश में उड सकता था। (ऋग वेद 4.36.1)

वायु रथ – रथ की शकल का यह विमान गैस अथवा वायु की शक्ति से चलता था। (ऋग वेद 5.41.6)
 

विद्युत रथ – इस प्रकार का रथ विमान विद्युत की शक्ति से चलता था। (ऋग वेद 3.14.1).

2. यजुर्वेद में भी ऐक अन्य विमान का तथा उन की संचलन प्रणाली उल्लेख है जिस का निर्माण जुडवा अशविन कुमारों ने किया था। इस विमान के प्रयोग से उन्हो मे राजा भुज्यु को समुद्र में डूबने से बचाया था।

3. विमानिका शास्त्र –1875 ईसवी में भारत के ऐक मन्दिर में विमानिका शास्त्र ग्रंथ की ऐक प्रति मिली थी। इस ग्रन्थ को ईसा से 400 वर्ष पूर्व का बताया जाता है तथा ऋषि भारज रचित माना जाता है। इस का अनुवाद अंग्रेज़ी भाषा में हो चुका है। इसी ग्रंथ में पूर्व के 97 अन्य विमानाचार्यों का वर्णन है तथा 20 ऐसी कृतियों का वर्णन है जो विमानों के आकार प्रकार के बारे में विस्तरित जानकारी देते हैं। खेद का विषय है कि इन में से कई अमूल्य कृतियाँ अब लुप्त हो चुकी हैं। इन ग्रन्थों के विषय इस प्रकार थेः-

विमान के संचलन के बारे में जानकारी, उडान के समय सुरक्षा सम्बन्धी जानकारी, तुफान तथा बिजली के आघात से विमान की सुरक्षा के उपाय, आवश्यक्ता पडने पर साधारण ईंधन के बदले सौर ऊर्जा पर विमान को चलाना आदि। इस से यह तथ्य भी स्पष्ट होता है कि इस विमान में ‘एन्टी ग्रेविटी’ क्षेत्र की यात्रा की क्षमता भी थी।

विमानिका शास्त्र में सौर ऊर्जा के माध्यम से विमान को उडाने के अतिरिक्त ऊर्जा को संचित रखने का विधान भी बताया गया है। ऐक विशेष प्रकार के शीशे की आठ नलियों में सौर ऊर्जा को एकत्रित किया जाता था जिस के विधान की पूरी जानकारी लिखित है किन्तु इस में से कई भाग अभी ठीक तरह से समझे नहीं गये हैं।

इस ग्रन्थ के आठ भाग हैं जिन में विस्तरित मानचित्रों से विमानों की बनावट के अतिरिक्त विमानों को अग्नि तथा टूटने से बचाव के तरीके भी लिखित हैं। ग्रन्थ में 31 उपकरणों का वर्तान्त है तथा 16 धातुओं का उल्लेख है जो विमान निर्माण में प्रयोग की जाती हैं जो विमानों के निर्माण के लिये उपयुक्त मानी गयीं हैं क्यों कि वह सभी धातुयें गर्मी सहन करने की क्षमता रखती हैं और भार में हल्की हैं।

4. यन्त्र सर्वस्वः – यह ग्रन्थ भी ऋषि भारदूज रचित है। इस के 40 भाग हैं जिन में से एक भाग ‘विमानिका प्रकरण’के आठ अध्याय, लगभग 100 विषय और 500 सूत्र हैं जिन में विमान विज्ञान का उल्लेख है। इस ग्रन्थ में ऋषि भारदूजने विमानों को तीन श्रेऩियों में विभाजित किया हैः-

1. अन्तरदेशीय – जो ऐक स्थान से दूसरे स्थान पर जाते हैं।

2. अन्तरराष्ट्रीय – जो ऐक देश से दूसरे देश को जाते

3. अन्तीर्क्षय – जो ऐक ग्रह से दूसरे ग्रह तक जाते

इन में सें अति-उल्लेखलीय सैनिक विमान थे जिन की विशेषतायें विस्तार पूर्वक लिखी गयी हैं और वह अति-आधुनिक साईंस फिक्शन लेखक को भी आश्चर्य चकित कर सकती हैं। उदाहरणार्थ सैनिक विमानों की विशेषतायें इस प्रकार की थीं-

पूर्णत्या अटूट, अग्नि से पूर्णत्या सुरक्षित, तथा आवश्यक्ता पडने पर पलक झपकने मात्र समय के अन्दर ही ऐक दम से स्थिर हो जाने में सNe।

1-शत्रु से अदृष्य हो जाने की क्षमता।

2-शत्रुओं के विमानों में होने वाले वार्तालाप तथा अन्य ध्वनियों को सुनने में सक्ष्म। शत्रु के विमान के भीतर से आने वाली आवाजों को तथा वहाँ के दृष्यों को रिकार्ड कर लेने की क्षमता।

3-शत्रु के विमान की दिशा तथा दशा का अनुमान लगाना और उस पर निगरानी रखना।

4-शत्रु के विमान के चालकों तथा यात्रियों को दीर्घ काल के लिये स्तब्द्ध कर देने की क्षमता।

5-निजि रुकावटों तथा स्तब्द्धता की दशा से उबरने की क्षमता।

6-आवश्यक्ता पडने पर स्वयं को नष्ट कर सकने की क्षमता।
7-चालकों तथा यात्रियों में मौसमानुसार अपने आप को बदल लेने की क्षमता।
8-स्वचालित तापमान नियन्त्रण करने की क्षमता।
9-हल्के तथा उष्णता ग्रहण कर सकने वाले धातुओं से निर्मित तथा आपने आकार को छोटा बडा करने, तथा अपने चलने की आवाजों को पूर्णत्या नियन्त्रित कर सकने में सक्ष्म।
विचार करने योग्य तथ्य है कि इस प्रकार का विमान अमेरिका के अति आधुनिक स्टेल्थ फाईटर और उडन तशतरी का मिश्रण ही हो सकता है।

ऋषि भारदूज  कोई आधुनिक ‘फिक्शन राईटर’ नहीं थे परन्तुऐसे विमान की परिकल्पना करना ही आधुनिक बुद्धिजीवियों को चकित कर सकता है कि भारत के ऋषियों ने इस प्रकार के वैज्ञिानक माडल का विचार कैसे किया। उन्हों ने अंतरीक्ष जगत और अति-आधुनिक विमानों के बारे में लिखा जब कि विश्व के अन्य देश साधारण खेती बाडी का ज्ञान भी पूर्णत्या हासिल नहीं कर पाये थे।

5. समरांगनः सुत्रधारा – य़ह ग्रन्थ विमानों तथा उन से सम्बन्धित सभी विषयों के बारे में जानकारी देता है।इस के 230 पद्य विमानों के निर्माण, उडान, गति, सामान्य तथा आकस्माक उतरान एवम पक्षियों की दुर्घटनाओं के बारे में भी उल्लेख करते हैं। लगभग सभी वैदिक ग्रन्थों में विमानों की बनावट त्रिभुज आकार की दिखायी गयी है। किन्तु इन ग्रन्थों में दिया गया आकार प्रकार पूर्णत्या स्पष्ट और सूक्ष्म है। कठिनाई केवल धातुओं को पहचानने में आती है।

समरांगनः सुत्रधारा के आनुसार सर्व प्रथम पाँच प्रकार के विमानों का निर्माण ब्रह्मा, विष्णु, यम, कुबेर तथा इन्द्र के लिये किया गया था। पश्चात अतिरिक्त विमान बनाये गये। चार मुख्य श्रेणियों का ब्योरा इस प्रकार हैः-

रुकमा – रुकमानौकीले आकार के और स्वर्ण रंग के थे।

सुन्दरः –सुन्दर राकेट की शक्ल तथा रजत युक्त थे।
त्रिपुरः –त्रिपुर तीन तल वाले थे।
शकुनः – शकुनः का आकार पक्षी के जैसा था।
दस अध्याय संलगित विषयों पर लिखे गये हैं जैसे कि विमान चालकों का परिशिक्षण, उडान के मार्ग, विमानों के कल-पुरज़े, उपकरण, चालकों एवम यात्रियों के परिधान तथा लम्बी विमान यात्रा के समय भोजन किस प्रकार का होना चाहिये।
ग्रन्थ में धातुओं को साफ करने की विधि, उस के लिये प्रयोग करने वाले द्रव्य, अम्ल जैसे कि नींबु अथवा सेब या कोई अन्य रसायन, विमान में प्रयोग किये जाने वाले तेल तथा तापमान आदि के विषयों पर भी लिखा गया है।

सात प्रकार के ईजनों का वर्णन किया गया है तथा उन का किस विशिष्ट उद्देष्य के लिये प्रयोग करना चाहिये तथा कितनी ऊचाई पर उस का प्रयोग सफल और उत्तम होगा। सारांश यह कि प्रत्येक विषय पर तकनीकी और प्रयोगात्मक जानकारी उपलब्द्ध है। विमान आधुनिक हेलीकोपटरों की तरह सीधे ऊची उडान भरने तथा उतरने के लिये, आगे पीछ तथा तिरछा चलने में भी सक्ष्म बताये गये हैं

6. कथा सरित-सागर – यह ग्रन्थ उच्च कोटि के श्रमिकों का उल्लेख करता है जैसे कि काष्ठ का काम करने वाले जिन्हें राज्यधर और प्राणधर कहा जाता था। यह समुद्र पार करने के लिये भी रथों का निर्माण करते थे तथा एक सहस्त्र यात्रियों को ले कर उडने वालो विमानों को बना सकते थे। यह रथ-विमान मन की गति के समान चलते थे।

कोटिल्लय के अर्थ शास्त्र में अन्य कारीगरों के अतिरिक्त सोविकाओं का उल्लेख है जो विमानों को आकाश में उडाते थे । कोटिल्लय ने उन के लिये विशिष्ट शब्द आकाश युद्धिनाह का प्रयोग किया है जिस का अर्थ है आकाश में युद्ध करने वाला (फाईटर-पायलेट) आकाश रथ, चाहे वह किसी भी आकार के हों का उल्लेख सम्राट अशोक के आलेखों में भी किया गया है जो उस के काल 256-237 ईसा पूर्व में लगाये गये थे।

विमान शास्त्र का भारतीय इतिहास

इस ग्रंथ में भरद्वाज मुनि ने विमान का पायलट, जिसे रहस्यज्ञ अधिकारी कहा गया, आकाश मार्ग, वैमानिक के कपड़े, विमान के पुर्जे, ऊर्जा, यंत्र तथा उन्हें बनाने हेतु विभिन्न धातुओं का वर्णन किया है।

रहस्यज्ञ अधिकारी (घ्त्थ्दृद्य)-भरद्वाज मुनि कहते हैं, विमान के रहस्यों को जानने वाला ही उसे चलाने का अधिकारी है। शास्त्रों में विमान चलाने के बत्तीस रहस्य बताए गए हैं। उनका भलीभांति ज्ञान रखने वाला ही सफल चालक हो सकता है ! इन बत्तीस रहस्यों में कुछ प्रमुख रहस्य निम्न प्रकार हैं।

(३) कृतक रहस्य- 

(५) गूढ़ रहस्य-
(९) अपरोक्ष रहस्य-
(१०) संकोचा-
(११) विस्तृता-
(२२) सर्पागमन रहस्य-
(२५) परशब्द ग्राहक रहस्य-
(२६) रूपाकर्षण रहस्य- 
(२८) दिक्प्रदर्शन रहस्य-
(३१) स्तब्धक रहस्य-
(३२) कर्षण रहस्य-

(१) विश्व क्रिया दर्पण-इस यंत्र के द्वारा विमान के आस-पास चलने वाली गति-विधियों का दर्शन वैमानिक को विमान के अंदर होता था, इसे बनाने में अभ्रक  तथा पारा आदि का प्रयोग होता था।

(२) परिवेष क्रिया यंत्र- इसमें स्वचालित यंत्र वैमानिक का वर्णन है।

(३) शब्दाकर्षण यंत्र- इस यंत्र के द्वारा २६ कि.मी. क्षेत्र की आवाज सुनी जा सकती थी तथा पक्षियों की आवाज आदि सुनने से विमान को दुर्घटना से बचाया जा सकता था।

(४) गुह गर्भ यंत्र-इस यंत्र के द्वारा जमीन के अन्दर विस्फोटक खोजने में सफलता मिलती थी।

(५) शक्त्याकर्षण यंत्र- विषैली किरणों को आकर्षित कर उन्हें उष्णता में परिवर्तित करना और वह उष्णता वातावरण में छोड़ना।

(६) दिशा दर्शी यंत्र- दिशा दिखाने वाला यंत्र।

(७) वक्र प्रसारण यंत्र-इस यंत्र के द्वारा शत्रु विमान अचानक सामने आ गया तो उसी समय पीछे मुड़ना संभव होता था।

(८) अपस्मार यंत्र- युद्ध के समय इस यंत्र से विषैली गैस छोड़ी जाती थी।

(९) तमोगर्भ यंत्र-इस यंत्र के द्वारा युद्ध के समय विमान को छिपाना संभव था। इनके निर्माण में तमोगर्भ लौह प्रमुख घटक रहता था।

(१०) उर्जा स्रोत- विमान को चलाने के लिए चार प्रकार के ऊर्जा स्रोतों का महर्षि भारद्वाज उल्लेख करते हैं।

(१) उर्जा स्रोत- विमान को चलाने के लिए चार प्रकार के ऊर्जा स्रोतों का महर्षि भारद्वाज उल्लेख करते हैं।

वनस्पति तेल, जो पेट्रोल की भांति काम करता है।

(२) पारे की भाप-- प्राचीन शास्त्रों में इसका शक्ति के रूप में उपयोग किये जाने का वर्णन है। इसके द्वारा अमरीका में विमान उड़ाने का प्रयोग हुआ, पर वह ऊपर गया, तब विस्फोट हो गया। परन्तु यह तो सिद्ध हुआ कि पारे की भाप का ऊर्जा के रूप में उपयोग किया जा सकता है। आवश्यकता अधिक निर्दोष प्रयोग करने

(३) सौर ऊर्जा-इसके द्वारा भी विमान चलता था।

(४) वातावरण की ऊर्जा- बिना किसी अन्य साधन के सीधे वातावरण से शक्ति ग्रहण कर विमान, उड़ना जैसे समुद्र में पाल खोलने पर नाव हवा के सहारे तैरती है उसी प्रकार अंतरिक्ष में विमान वातावरण से शक्ति ग्रहण कर चलता रहेगा। अमरीका में इस दिशा में प्रयत्न चल रहे हैं। यह वर्णन बताता है कि ऊर्जा स्रोत के रूप में प्राचीन भारत में कितना व्यापक विचार हुआ था।

विमान के प्रकार- विमान विद्या के पूर्व आचार्य युग के अनुसार विमानों का वर्णन करते है। 
सतयुग और त्रेता युगमंत्रिका प्रकार के विमान, जिसमें भौतिक एवं मानसिक शक्तियों के सम्मिश्रण की प्रक्रिया रहती थी। इसमें २५ प्रकार के विमान का उल्लेख है। 
द्वापर युग में तांत्रिका प्रकार के विमान थे। इनके ५६ प्रकार बताये गए हैं । 

कलियुग में कृतिका प्रकार के यंत्र चालित विमान थे, इनके २५ प्रकार बताये गए हैं। इनमें शकुन, रूक्म, हंस, पुष्कर, त्रिपुर आदि प्रमुख थे।

 



 









ष्पक विमान स्वामी की इच्छा के अनुसार चलता था और यात्रियों के अनुसार बड़ा छोटा हो जाता था।

श्रीराम के समय मे उपस्थित भारद्वाज मुनि ने विमानशास्त्र की रचना की थी जिसमे यात्री विमान, अस्त्र शस्त्र युक्त विमान, गायब होने वाले विमान आदि 22 तरह के विमानों की रचना, निर्माण की जानकारी थी। इसके कुछ ही पृष्ठ मिलते है अभी।

डिस्कवरी चैनल में बताया गया कि अमेरिका के वैग्यानिक , मन की इच्छा के अनुसार उड़ने वाले विमान बनाने प्रयत्नशील है ,2050 तक ऐसा छोटा विमान उपलब्ध होगा, जोकि स्वामी (मालिक) के मन की तरंगों को पहचानेगा और इच्छित स्थान पर पहुच जाएगा, कम्प्यूटर प्रणाली और मस्तिष्क की तरंगों के जुड़ाव से ऐसा होगा।

इन्ही मस्तिष्क की तरंगों का उपयोग प्राचीनकाल में होता था।
पुष्पक विमान पारा धातु का बना था।
आपको जानकर आश्चर्य होगा कि पारा के ऊपर पूरी रिसर्च लाखो साल पहले ऋषि मुनि कर चुके थे, वर्तमान वैज्ञानिकों ने केवल 200 साल से पारा को जाना है।
पारा बहने वाली जहरीली धातु है जिसको बांधकर खाने वाली गोली के रूप में औषधि रूप में प्रयोग करने की विधि भारत मे ही सबसे पहले आरम्भ हुई।
चरक संहिता आदि प्राचीन ग्रंथों में पारा को शुद्ध करने, बांधने के प्रयोग विधि लिखित मिलती है।
पारे से बनी हुई गुटिका को मुह में रखने से आदमी अदृश्य तक हो सकता है, ऐसा वर्णन है।

तो
पुष्पक विमान पारे का बना हुआ था।
पारे की विशेषता ये भी है कि ये मनुष्य के शरीर के तापमान के अनुसार फैलता है। इसकी इसी विशेषता के कारण पुष्पक विमान स्वामी यात्रियों की संख्यानुसार बड़ा , छोटा हो जाता था।


लेख लेखक एवं संग्रहकर्ता –पंडित सुमित पालंदे

                पंडित अमितोष द्विवेदी

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