आर्यावर्त/ भारतवर्ष एक धर्मप्रधान/ धर्मप्राण देश है। यहाँ का पूर्ण शिक्षित, अर्ध शिक्षित अथवा अशिक्षित प्रत्येक स्त्री-पुरुष स्वयं को किसी-न-किसी प्रकार से धर्म के साथ संयुक्त रखना चाहता है। लेकिन धर्म के नाम पर जो आचरण वह कर रहा है वह धर्म ही है अथवा अधर्म या फिर धर्म की चादर ओढ़े अधर्म तो नहीं है ? यह सब सोचने का अवकाश उसके पास नहीं है। धर्म के विषय में इस उपेक्षा अथवा उदासीनता ने ही तथाकथित धर्माधिकारियों को सामान्य जनता पर धर्म के नाम से अत्याचार करने का मार्ग उद्घाटित किया है। यदि विद्वान् यजेत विद्वानेव याजयेत् (किसी कर्म के करने वाले तथा कराने वाले दोनों ही उस कर्म के विज्ञ होने चाहिएं) का अनुसरण करते हुए ज्ञानपूर्वक ही सभी कर्मों में सबकी प्रवृत्ति होवे तो किसी भी प्रकार के अत्याचार या धोखाधड़ी की सम्भावना ही नहीं रहती। जागरूकता के अभाव में ही दुकानदार ग्राहक को, पण्डित यजमान को, डॉक्टर (वैद्य) रोगी को आदि जहाँ भी उपकार्य-उपकारक अथवा संस्कार्य संस्कारक सम्बन्ध है, वहाँ ठगा करता है।
मीमांसा दर्शन का एक सूत्र है- 'चोदनालक्षणोऽर्थो धर्मः' (१.१.२) अर्थात् 'क्रिया में प्रेरक वचन से लक्षित होने वाला निःश्रेयस को प्राप्त कराने वाला अर्थ, धर्म कहलाता है।' सूत्र में प्रयुक्त 'चोदनालक्षणः' (क्रिया में प्रेरक वचन से लक्षित होने वाला) में वचन से तात्पर्य वेदवचन से है। लेकिन वैदिक (?) कर्मकाण्डी पण्डितवर्ग ने ब्राह्मणेतर जनसमुदाय को वेदाध्ययन से दूर करते हुए वैदिक कर्मकाण्ड में विनियुक्त वेद मन्त्रों को हटा दिया और मन्त्रों के स्थान पर स्वघटित संस्कृत-पद्य मन्त्र बनाकर रख दिये। इस प्रकार वेद मन्त्रों का स्थान संस्कृत-पद्यों ने ले लिया। गृह्यसूत्रों में यह अत्याचार प्रचुर मात्रा में दृष्टिगोचर होता है। धीरे-धीरे इस वृत्ति ने 'बाबा-वाक्यं प्रमाणम्' का रूप ले लिया। इसकी परिणति यहाँ तक हुई कि शिखा यज्ञोपवीत- धौतवस्त्रधारी जो कुछ भी बोलेगा वह वेदवाक्य ही होगा।
इसी वृत्ति का परिणाम ये पुराण और गीता आदि ग्रन्थ हैं। जब किसी क्षेत्र में स्वच्छन्दता का प्रवेश हो जाता है तो वहाँ सभी प्रकार की मर्यादाएं टूट जाती हैं। प्रत्येक व्यक्ति स्वयं को पूर्व की अपेक्षा बढ़ा चढ़ा कर प्रस्तुत किया करता है। यही सब गीता और पुराणों में पदे पदे दृष्टिगोचर होता है। ये दोनों वेद तथा वेद प्रतिपादित सिद्धान्तों की अवमानना करके, उन्हें निन्दित/ कुत्सित बताकर स्वयं को महिमा मण्डित करने में लगे हैं। पुराणों की करतूत के लिए तो पाठक हमारे द्वारा सम्पादित 'पुराण तत्त्व प्रकाश' ग्रन्थ देखें। प्रकृत ग्रन्थ गीता की वास्तविकता उजागर करने के लिए प्रकाशित किया जा रहा है।
महाभारत के भीष्म पर्व में जिस स्थल पर गीता को प्रक्षिप्त किया गया है वहाँ के पूर्वापर प्रसङ्गों को देखने से स्पष्ट है कि न तो यह श्री कृष्ण का प्रवचन है और न ही महर्षि वेदव्यास की रचना है। और इसकी पृष्ठभूमि में जो अर्जुन-विषाद की कल्पना की गई है वह सब भी बकवाद है। इस विषय में पण्डित राजेन्द्र जी 'गीता की पृष्ठभूमि' नामक पुस्तक की प्रस्तावना में लिखते हैं- “गत वर्ष मैंने भीष्म पर्व के सभा, विराट तथा उद्योग पर्वों का विशेष अध्ययन किया। इन पर्वो के कई स्थलों को देखकर मुझे आश्चर्य हुआ कि इन प्रमाणों की विद्यमानता में गीताकार ने अर्जुन-विषाद को गीता की पृष्ठभूमि बनाकर उसे रचने का कैसे साहस किया ? और इससे अधिक आश्चर्य उन भाष्यकार महानुभावों पर है जिन्होंने गीता पर भाष्य करते समय इन स्थलों पर दृष्टि डालने और विचार करने का भी कष्ट नहीं किया। "
गीता के प्रचार-प्रसार और महिमा मण्डन ने आर्य/ हिन्दू जाति की कितनी महती हानि की है इसकी और संकेत करते हुए श्री चक्खन लाल वेदार्थी ने 'गीता समीक्षा' ग्रन्थ की प्रस्तावना में लिखा है "गीता, वास्तव में एक मधुर विषफल है, जिसके खाने से आर्यजाति, अनार्यत्व की ओर तीव्र गति से अग्रसर हो रही है। मूर्तिपूजा, अवतारवाद तथा साकार ईश्वरोपासना, अपने को ब्रह्म समझना, पापक्षमा, सब धर्मों को त्यागकर केवल श्री कृष्ण की शरण में जाना, स्त्री, वैश्य तथा शूद्रों को पाप-योनियाँ घोषित करना आदि-आदि अवैदिक मान्यताओं का समावेश आर्यों में होता जा रहा है। इसलिए यदि आर्यत्व की रक्षा करनी है तो जनता को गीता के अवैदिक सिद्धान्तों की बुराइयों से परिचित कराना तथा शुद्ध धर्म क्या है, उससे अवगत कराना अत्यन्त आवश्यक है।"
गीता की वास्तविकता को बताते हुए पण्डित राजेन्द्र जी 'गीता विमर्श' पुस्तक की प्रस्तावना में लिखते हैं- "गीता एक ऐसा अध्यात्म रस है जिसमें साम्प्रदायिक विष घोल दिया गया है। रस और विष का अन्तर तो साधारण विवेकी पुरुष भी कर सकता है, किन्तु दोनों के सम्मिश्रण का पता तो एक वैज्ञानिक ही लगा सकता है।... शिक्षित एवं धनी वर्ग का लाखों-करोड़ों रुपया इन सम्प्रदायियों द्वारा गीता के नाम पर लूटा जा रहा है। "
गीता द्वारा प्रसारित पाखण्ड से बचने का उपाय बताते हुए पण्डित राजेन्द्र जी वहीं लिखते हैं-"हम अपने जीवन के अन्य कार्यों की भाँति धर्म में भी बुद्धि और तर्क को स्थान दें। धर्म और सम्प्रदाय में यही भेद है कि पहला तर्क और बुद्धि पर आधारित है किन्तु दूसरा अन्धविश्वास पर, जिसे उसकी परिभाषा में श्रद्धा और भक्ति कहा जाता है, फलता-फूलता है। लोग समझते हैं कि धर्म बुद्धि और तर्क का विषय नहीं है-किन्तु बात सर्वथा इसके विपरीत है।" मानव समाज-शास्त्र के आदि प्रणेता मनु ने लिखा है----
प्रत्यक्षञ्चानुमानञ्च शास्त्रञ्च विविधागमम् ।
त्रयं सुविदितं कार्यं धर्मशुद्धिमभीप्सता । १२.१०५ ॥
आर्षं धर्मोपदेशञ्च वेदशास्त्राविरोधिना ।
यस्तर्केणानुसन्धत्ते स धर्मं वेद नेतरः ।। १२.१०६॥
स्वाध्याय में वेद का स्थान गीता ने ले लिया है, यह बताते हुए आचार्य डॉ० श्रीराम आर्य 'गीता-विवेचन' पुस्तक के 'दो शब्द' में लिखते हैं- "वेदों के स्थान पर गीता को प्रतिष्ठित किया गया है, वेदों के स्वाध्याय को बन्द करके गीता के प्रवचनों व पाठ को मान्यता दी गई है। गीता के किसी भी शब्द या सिद्धान्त पर शङ्का करना घोर नास्तिकता समझा गया है।"
गीता की रचना के विषय में लिखते हुए आचार्य जी ने आगे लिखा है- "गीता की रचना जिस पौराणिक काल में की गई थी उस युग में ईश्वर, जीवात्मा, देवतावाद, स्वर्ग, नरक, अवतारवाद, वर्णव्यवस्था आदि के सम्बन्ध में जो अवैदिक, भ्रान्त धारणाएँ चल रही थीं गीता में उन सभी का प्रतिपादन मिलता है, जिससे गीता के भ्रमात्मक ग्रन्थ होने के तथ्य की सम्पुष्टि हो जाती है।"
ऋषिवर देव दयानन्द गीता को त्रिदोष का सन्निपात बतलाते थे। अवतार - खण्डन पर व्याख्यान देते समय सं० १९३६ के हरिद्वार कुम्भ में एक पौराणिक पण्डित द्वारा 'यदा यदा हि धर्मस्य....' इस गीता श्लोक का प्रमाण देने पर स्वामी जी ने कहा- "गीता कल की रांड है, इसको हम नहीं मानते, कोई वेद का प्रमाण लाओ।" इस प्रकार ऋषिवर ने अनेकत्र गीता को अमान्य कहा है। ( द्र० - 'ऋषि दयानन्द और गीता' पृष्ठ ११०)
बहुत लम्बे समय से आर्य विद्वानों में भी गीता-विषयक सन्निपात ज्वर चढ़ा हुआ है। किसी ने आध्यात्मिक व्याख्या की तो दूसरे ने वैदिक गीता प्रकाशित की। एक ने तो जीविका का सस्ता साधन मानकर गीता-कथाएँ ही कर डालीं। और एक सत्यार्थप्रकाश के शोधन के सनकी प्रोफेसर महोदय ने तो हद ही कर दी, इन्होंने ऋषि दयानन्द द्वारा अपने कथन की पुष्टि में उद्धृत वेद-वचन को गीता का सिद्ध कर अपने दुस्साहस की पुष्टि में अपनी बुद्धि के आधार पर लम्बी चौड़ी टिप्पणी लिख मारी। इन महोदय ने गीता का भी वह श्लोक ऋषि दयानन्द की ओर से उद्धृत किया है जो कि वेदों की साक्षात् अवमानना कर रहा है। यह सब इसलिए हो रहा है क्योंकि सभी आर्य-संस्थाओं से वेद का स्वाध्याय लगभग उत्सन्न हो गया है। ऋषिवर दयानन्द जी महाराज ने जो हमारा मुख्य कार्य निर्दिष्ट किया आर्यसमाज आज उसी से विमुख हुआ बैठा है। वह है 'वेद सब सत्य विद्याओं का पुस्तक है, वेद का पढ़ना-पढ़ाना और सुनना-सुनाना सब आर्यो का परम धर्म है।" धर्म ही नहीं अपितु परमधर्म बताया है। क्या धर्म को छोड़कर भी किसी का अस्तित्व सुरक्षित रह सकता है? मानव धर्म शास्त्र के आदि प्रवक्ता मनु महाराज हमें चेताते हुए कहते हैं---
धर्म एव हतो हन्ति धर्मो रक्षति रक्षितः।
तस्माद् धर्मो न हन्तव्यो मा नो धर्मो हतोऽवधीत् ॥ मनु० ८.१५ ॥
प्रस्तुत पुस्तक में गीता-सम्बन्धी अनुसन्धानात्मक छह लघु पुस्तिकाओं का संकलन प्रकाशित किया जा रहा है। जिनमें पण्डित राजेन्द्र जी (अतरौली, अलीगढ़, उ०प्र०) की तीन पुस्तकें- 'गीता विमर्श' (प्रथम संस्करण, वि०सं० २०१६), 'गीता की पृष्ठभूमि' (वि०सं० २०१९), 'ऋषि दयानन्द और गीता'। श्री चक्खन लाल वेदार्थी, एम०ए० (आगरा, उ०प्र०) की 'गीता-समीक्षा' (प्रथम संस्करण, सन् १९६२ ई०) तथा आचार्य डॉ० श्रीराम आर्य की 'गीता विवेचन' (तृतीय संस्करण, सन् १९८३ ई०), पण्डित गंगाप्रसाद उपाध्याय द्वारा लिखित एक लेख 'गीता और आर्यसमाज' भी इनमें सम्मिलित हैं। ये चारों ही विद्वान् लेखक आर्य वैदिक सिद्धान्तों के तलस्पर्शी तथा लब्धकीर्ति रहे हैं। ये महात्मा लोग वैदिक सिद्धान्तों के अहर्निश प्रचार-प्रसार तथा वेदेतर मत-मतान्तरों के खण्डन में कृतसंकल्प, आजीवन सम्पूर्णतया समर्पित रहे हैं। इन्होंने दीपक की बाती की भाँति अपने जीवन को अन्धकार मिटाकर प्रकाश फैलाने में उपयुक्त किया है। इनके जीवन एवं लेखन के विषय में विशेष उस उस पुस्तक के आरम्भ में प्रकाशित किया गया है। हमें खेद है कि श्री चक्खन लाल वेदार्थी एम०ए० (आगरा) का विशेष जीवन-परिचय हम प्रयास करके भी प्राप्त नहीं कर सके। अन्त में बाली द्वीप से प्राप्त मङ्गलानन्द पुरी संन्यासी द्वारा अनूदित प्राचीन सप्ततिश्लोकात्मिका (सत्तर- श्लोकी) गीता विद्वानों के विचारार्थ प्रकाशित की जा रही है। मङ्गलानन्द पुरी संन्यासी का परिचय एवं ग्रन्थविषयक ऐतिहासिक विस्तृत सामग्री वहीं ग्रन्थ के आरम्भ में प्रकाशित की गई है।
सत्यधर्म के प्रकाशन के लिए कृतसंकल्प यशस्वी आचार्य सत्यानन्द जी नैष्ठिक आज से लगभग दो वर्ष पूर्व पण्डित राजेन्द्र जी तथा डॉ० श्रीराम आर्य की उक्त पुस्तकें लेकर आये। बोले, ये पुस्तकें मैं प्रकाशित करना चाहता हूँ, इनका सम्पादन आपको करना है। मैंने कुछ समय लगाकर सारी पुस्तकों को गम्भीरता से पढ़ा, सारी पुस्तकों का विषय पिष्टपेषण दोष से रहित तथा ज्ञानचक्षु खोलने के लिए पर्याप्त उपयोगी लगा। पण्डित राजेन्द्र जी ने अपनी 'ऋषि दयानन्द और गीता' पुस्तक में श्री चक्खनलाल वेदार्थी द्वारा लिखित 'गीता समीक्षा' का उल्लेख किया हुआ है। मैंने आचार्य सत्यानन्द जी को दूरभाष द्वारा सूचित किया कि जब हम गीता विषयक समीक्षात्मक/ अनुसन्धानात्मक सामग्री प्रकाशित कर ही रहे हैं तो क्यों न इस ग्रन्थ का भी अन्वेषण किया जाये। जीवन की चतुर्थ अवस्था में होते हुए भी आचार्य जी इस पुस्तक के अन्वेषण में लग गये। और 'जिन खोजा तिन पाईयां गहरे पानी पैठ' उक्ति को चरितार्थ करते हुए अन्ततः आगरा जाकर इस पुस्तक की भी एक जीर्ण शीर्ण प्रति आप खोज लाये। इस प्रकार आचार्य जी के परिश्रम से प्रसूत गीता सम्बन्धी सम्पूर्ण जानकारी को लिए हुए यह ग्रन्थ आप सहृदय पाठकों के करकमलों में सादर समर्पित है।
अत्यन्त हार्दिक खेद के साथ लिखना पड़ रहा है कि इतना परिश्रम करने पर भी आचार्य सत्यानन्द जी इस ग्रन्थ का प्रकाशन नहीं देख सके, वे २ अप्रैल सन् २०१७ को यशः शेष हो गये। आचार्य जी के दिवङ्गत हो जाने पर इस ग्रन्थ के प्रकाशन के लिए मैंने शताब्दी स्मारक ग्रन्थमाला प्रकाशन समिति, सोनीपत के प्रधान सुविख्यात आर्य विद्वान् पण्डित रामचन्द्र जी से निवेदन किया तो उन्होंने आचार्य सत्यानन्द की स्मृति में इस ग्रन्थ को प्रकाशन की सहर्ष अनुमति प्रदान कर दी।
इन ग्रन्थों में उद्धृत वचनों का मूल ग्रन्थों के साथ मिलान करने में आचार्य विश्वम्बर, प्र० गुणेन्द्र तथा प्र० धर्मवीर ने पर्याप्त परिश्रम किया है। ये दोनों आगे चलकर भी इसी प्रकार वैदिक अनुसन्धान में प्रवृत्त रहें यही प्रभु से प्रार्थना है। वैदिक आर्य ग्रन्थों के सुन्दर, सुव्यवस्थित टङ्कण (टाइप -सैटिंग) में भ्राता श्री महेन्द्र आर्य (करनाल) जिस श्रद्धा, निष्ठा एवं उत्साह से अहर्निश लगे हुए हैं वह अपने आप में एक आदर्श उपस्थित करता है। अनेक बार पीठ में पीड़ा होने पर भी आप लगे रहते हैं। चारों वेदों सहित लगभग सम्पूर्ण वैदिक वाङ्मय का टळूण करते-करते आपने स्वयं ही घर पर थोड़ा-थोड़ा करके चतुर्वेद पारायण यज्ञ भी सम्पन्न कर लिया है। ईश्वर श्री महेन्द्र जी में वैदिक वाङ्मय के प्रति यह श्रद्धा-निष्ठा यावज्जीवन बनाये रखे।
इस ग्रन्थ के प्रतिपाद्य के प्रति विषय को ध्यान में रखते हुए इस का नाम 'गीता का रहस्य' रखा गया है। सुधी पाठकों की सुविधा के लिए भी पुस्तिकाओं की विषय-सूची प्रत्येक पुस्तिका के आरम्भ में न देकर इस ग्रन्थ के आरम्भ में दी जा रही है। अब चूंकि अनेक लघु ग्रन्थ मिलकर समानविषयक होने से एक ग्रन्थ का रूप ग्रहण कर रहे हैं अतः उक्त कार्य करना प्रसङ्ग-प्राप्त है। ऐतिहासिक तथा धार्मिक क्षेत्र में अनुसन्धित्सु दृष्टि रखने वाले विद्वज्जनों के लिए यह ग्रन्थ गीता-विषयक उनकी पूर्वाग्रहग्रस्त मनोधारणा को परिवर्तित करने अथवा पुनर्विचार करने के लिए निश्चित रूप से विवश करेगा। भक्तिभावयुक्त स्वाध्यायशील को भी यह ग्रन्थ 'धर्म के क्षेत्र में हमें बुद्धिपूर्वक निर्णय लेकर ही चलना चाहिए' ऐसी विवेकशालिनी दृष्टि प्रदान करेगा। अन्त में परमपिता परमेश्वर से प्रार्थना है कि
ओं यां मे॒धां दे॑वग॒णाः पि॒तर॑श्चा॒पास॑ते ।
तया॒ माम॒द्य मे॒धयाग्ने॑ मे॒धाव॑िनं कुरु स्वाहा॑ ॥ यजुः ० ३२.१४ ॥
प्रदीप कुमार शास्त्री आचार्य,
पाणिनि महाविद्यालय, रेवली, सोनीपत (हरियाणा)
आषाढ़ शुक्ल पूर्णिमा, वि०सं० २०७४, दि० ९.६.२०१७ ई०
गीता का रहस्य |
लेखक परिचय
पण्डित राजेन्द्र जी, अतरौली
महान् स्वाध्यायशील तथा सैद्धान्तिक ग्रन्थों के सफल प्रणेता पण्डित राजेन्द्र जी का जन्म मार्गशीर्ष शुक्ला ४ सं० १९५३ वि० १८९६ को अलीगढ़ जिले के अतरौली नामक कस्बे में एक धनाढ्य जमींदार ब्राह्मण श्री मथुरा प्रसाद के यहाँ हुआ। वे आर्यसमाज के कर्मठ कार्यकर्ता, अत्यन्त स्वाध्यायशील तथा सिद्धान्त - पालन में अत्यन्त कट्टर थे। आप वर्षों तक आर्यसमाज अतरौली के मन्त्री तथा प्रधान रहे। आर्यसमाज अतरौली के नवीन भवन का निर्माण उन्होंने स्वयं का धन लगाकर किया। राजेन्द्र जी अतिथि सत्कार -परायण थे तथा वैदिक धर्मप्रचार हेतु सहस्रों रुपये निस्संकोच व्यय कर देते थे। यद्यपि उनका नियमित शिक्षण इण्टरमीडिएट तक ही हुआ था, परन्तु स्वाध्याय से उन्होंने हिन्दी, उर्दू, अंग्रेजी तथा संस्कृत की अच्छी योग्यता अर्जित कर ली थी। हिन्दी के प्रसिद्ध समालोचक डॉ० नगेन्द्र पं० राजेन्द्र जी के ही पुत्र हैं । ७३ वर्ष की आयु में १ सितम्बर १९६९ को उनका निधन हुआ।
लेखक कार्य =
१. भारत में मूर्तिपूजा (२००७ वि०), २. महर्षि दयानन्द के पुण्य संस्मरण (२०१५ वि०), ३. पूर्व जन्म स्मृति (२०१२ वि०), ४. भारतीय संस्कृति के तीन प्रतीक- ओम्, आर्य, नमस्ते, ५. ब्राह्मण समाज के तीन महापातक-मृतक श्राद्ध, फलित ज्योतिष तथा मूर्तिपूजा, ६. हरिनाम संकीर्तन (२०१३ वि०), ७. नमस्ते बनाम नमस्कार, ८. सनातन धर्म (२०२३ वि०), ९. सर्वधर्म समन्वय, १०. शांकर मायावाद, ११. आर्यसमाज का नवनिर्माण (२०१९ वि०), १२. राधाकृष्ण (१९६०) ।
पण्डित राजेन्द्र जी गीता को अप्रामाणिक, अनार्ष तथा महाभारत में कालान्तर में प्रक्षिप्त मानते थे। उन्होंने गीता के खण्डन में निम्न पुस्तकें लिखी थी_____________
१. गीता विमर्श (२०१६ वि०)
२. ऋषि दयानन्द और गीता ३. गीता की पृष्ठभूमि (२०१९ वि०)
४. शुद्ध गीता-असत्य में सत्य की खोज
(प्रो० भवानीलाल भारतीय कृत 'शुद्ध गीता' का समालोचनात्मक
विवेचन, २०२५ वि० ) ।-(साभार : आर्य-लेखक-कोश)
सन् १९१५-१६ में जब मैं विद्यार्थी था, एक सज्जन से महामहोपाध्याय पण्डित आर्यमुनि के गीताभाष्य की प्रशंसा सुनी। मैंने पुस्तक को लेकर पढ़ा। उसे पढ़कर मेरे ऊपर पण्डित जी के पाण्डित्य का तो प्रभाव पड़ा, परन्तु जिस ढंग से उन्होंने गीता की उपनिषदों के साथ संगति लगाने का विद्वत्तापूर्ण प्रयत्न किया है वह मुझे खींचातानी ही जान पड़ी। पीछे मैंने ऋषि दयानन्द के लेखक पण्डित भीमसेन शर्मा का वह भाष्य भी देखा जो उन्होंने अपने आर्यसमाजी रहते हुए किया था। इसमें उक्त पण्डित जी ने प्रक्षिप्त अध्यायों और श्लोकों की युक्तियुक्त समालोचना की थी । अन्त में आर्यसमाज के प्रसिद्ध विद्वान् - श्री स्वामी आत्मानन्द जी का इसी प्रकार का भाष्य देखा। इन सबको देखकर मेरी यही धारणा रही कि गीता में पीछे से सम्प्रदायियों ने अनेक अध्याय और श्लोक अपने अपने मतों की पुष्टि में मिला दिये हैं।
दो वर्ष हुए मैंने अपने इसी प्रकार के विचार एक समारोह में प्रकट करते हुए यह कह दिया कि वर्तमान गीता एक प्रकार का भानमती का पिटारा है जिसमें से जो चाहे अपने-अपने मतानुसार कुछ न कुछ निकाल सकता है। इस पर पौराणिक वर्ग के कुछ लोगों ने आपत्ति की और एक विवाद उठ खड़ा हुआ। परिणामतः मैंने गीता के साथ महाभारत के उन स्थलों का जिनका गीता के साथ विशेष सम्बन्ध है, अध्ययन किया। तब मैंने यही सुन रखा था कि अनेक विद्वान् समस्त गीता को ही प्रक्षिप्त मानते हैं, परन्तु उसका क्या आधार है ? इसका मुझे परिचय नहीं था। महाभारत के पढ़ने पर मैंने उन कारणों को समझा और परखा। पहली बार ही मैंने महाभारत पर पाश्चात्त्य विद्वानों के विचार गीता प्रेस गोरखपुर से प्रकाशित महाभारत में देखे हैं, अतएव मुझ पर यह आरोप कि महाभारत तथा गीता सम्बन्धी मेरे विचारों पर पाश्चात्त्य प्रभाव है न्यायसंगत न होगा।
गीता को महाभारत के साथ पढ़कर मेरा भी अब यही विचार बन गया कि समस्त गीता महाभारत में पीछे से सम्प्रदायवादियों______
विशेषतः वैष्णवों ने उसमें मिला दी है। अपने पक्ष की सिद्धि में जो युक्तियाँ और प्रमाण प्रस्तुत किये हैं-वही इस छोटी पुस्तक का विषय है।
गीता प्रेस से प्रकाशित महाभारत के तीसरे वर्ष के ग्यारहवें अंक में अनेक विद्वानों के लेख देकर महाभारत को अक्षरशः सत्य सिद्ध करने का प्रयत्न किया गया है। इनमें बुद्धि के स्थान पर श्रद्धा और वह भी अन्ध-श्रद्धा के नाम पर उसे ग्रहण करने की अपील की गई है, जो इस युग वस्तु नहीं है।
अब हमें भली प्रकार समझ लेना चाहिए कि इस प्रकार का अन्धविश्वास जहाँ जनसाधारण में पाखण्ड उत्पन्न करेगा वहाँ शिक्षित समुदाय में नास्तिकता को जन्म देगा। इन्हीं लेखकों में एक महानुभाव की यह युक्ति कि जैसे वायुयान और बेतार का तार कुछ समय पूर्व कल्पनातीत और बुद्धिबाह्य था किन्तु आज सत्य है, वैसे ही महाभारत के बहुत से स्थल और घटनाएँ, जो आज हमें असम्भव दीख पड़ती हैं, सत्य हैं।
यदि हम इस युक्ति को थोड़ी देर के लिये मान लें तो क्या महाभारत की अनेकानेक अप्राकृतिक एवं सृष्टिनियम विरुद्ध घटनाओं को सत्य मान लिया जाये ? क्या ज्योतिः पुत्र सूर्य द्वारा कुन्ती के गर्भ से कर्ण की उत्पत्ति असम्भव अप्राकृतिक और व्यभिचार नहीं है? महाभारत के रचयिता वेदव्यास को जिनकी उत्पत्ति महाभारत के अनुसार अविवाहित सत्यवती के गर्भ से पराशर द्वारा हुई और जो गर्भ स्थापना के पश्चात् तुरन्त जन्म लेकर युवा तथा समस्त वेद शास्त्रों के पूर्ण ज्ञाता बन गये; क्या कभी सत्य समझा जा सकता है ? जो ग्रन्थ इसी प्रकार की कथाओं और उपाख्यानों से भरा पड़ा हो क्या उसके प्रत्येक शब्द को ब्रह्मवाक्य मानकर अङ्गीकार कर लिया जाय ?
महाभारत के निष्पक्ष अध्ययन से कोई भी इस परिणाम पर पहुँचे बिना नहीं रह सकता कि इसमें समय समय पर अनेक लेखकों ने प्रक्षेप किये हैं, और उनकी इतनी बहुलता है कि ग्रन्थ का समस्त ऐतिहासिक तथ्य उनमें तिरोहित हो गया है। इस ग्रन्थ को अकेले वेदव्यास कृत नहीं कहा जा सकता। मैं पाश्चात्त्य विद्वान् विंटरनिज़ के निम्र विचारों से जो उन्होंने भारतीय साहित्य का इतिहास' में प्रकट किये हैं, बहु अंशों से सहमत हूँ। वह लिखते हैं
'वीर गाथाओं का जैसे-जैसे सर्वसाधारण में प्रचार बढ़ता गया, ब्राह्मण भी वैसे ही वैसे उनको अपने साँचे में ढालने के लिये उत्सुक होते गये। इन लौकिक गाथाओं में अपने धार्मिक उपदेशों का रङ्ग लाने की कला में वह बड़े निपुण थे। इस तरह देव देवियों के आख्यानों, ब्राह्मण सम्प्रदाय के उपदेशों, दर्शनों और नीतियों का 'महाभारत' में समावेश हो गया। समाज पर अपना प्रभुत्व दृढ़ करने के लिए ब्राह्मणों ने प्राचीन लोकप्रिय गाथाओं का स्वागत किया। ये ब्राह्मण ही थे, जिन्होंने उनमें प्राचीन ऋषि महर्षियों के इतिहास भर दिये और यह दिखलाया कि अपने तप और यज्ञों के बल से वे केवल मनुष्य को ही नहीं, देवों को भी प्रभावित कर सकते थे। वर और शाप से जिसको जो चाहे बना देने की उनमें सामर्थ्य थी। यह करतूत विद्वान् वैदिकों की नहीं थी, यदि ऐसा होता तो 'महाभारत' में भी यज्ञादि क्रियाकलाप की भरमार होती। वास्तव में यह करतूत पुरोहितों की थी, जो राजदरबार में सूतमागधों की तरह भरे रहते थे । यहाँ उन्हें वीर गाथाओं के सुनने का अच्छा अवसर मिलता था। मन्दिरों के पुजारी भी प्रायः ऐसे ही पुरोहित हुआ करते थे।
शिव, विष्णु आदि के सम्बन्ध में जो कुछ उन्होंने सुना, उन सबको छन्दोबद्ध कर 'महाभारत' में घुसेड़ दिया। जिन प्रदेशों में विष्णु की उपासना बहुत चलती थी, वहीं ऐसी गाथाओं का प्रचार भी अधिक था इसलिए उन्होंने 'महाभारत' में प्राधान्य विष्णु के अवतार कृष्ण को ही दिया। जब शैव प्रदेशों में भी उसका कुछ प्रचार हुआ, तब उसमें शिवाख्यानों को भी जोड़ दिया गया। ब्राह्मण पुरोहित के अतिरिक्त इन दिनों एक वर्ग और था जिसका भी तत्कालीन साहित्य के निर्माण में हाथ था और जनसाधारण पर उसका प्रभाव भी पूरा पड़ता था। उन्होंने अपना एक विशेष साहित्य बना रक्खा था, जिसमें संसार को मिथ्या बताते हुए त्याग और वैराग्य का उपदेश दिया गया था। इन्हें समझाने के लिए उन्होंने पशु-पक्षियों, देव-दानवों, भूत-प्रेतों की कितनी ही कहानियाँ गढ़ डाली थीं। यह 'सन्त-साहित्य' भी अधिकांश रूप से 'महाभारत' में समा गया। वे फिर लिखते हैं कि 'हम लोगों के लिये, जो एक श्रद्धालु हिन्दू की दृष्टि से नहीं, बल्कि साहित्य के आलोचक इतिहासकार की दृष्टि से 'महाभारत' को देखते हैं, वह एक कला की कृति कभी नहीं हो सकती। यह तो निश्चित है कि उसकी रचना किसी एक ने नहीं की और संग्रहकर्त्ता भी चतुर नहीं था। 'महाभारत' सचमुच एक 'साहित्यिक दानव' है। यदि 'महाभारत' का रचयिता कोई एक ही व्यक्ति माना जायेगा, जैसा कि कृष्ण द्वैपायन को बतलाया जाता है, तो यह मानना पड़ेगा कि वह एक साथ ही महाकवि और टुच्चा लेखक, एक चतुर और मूर्ख एवं एक सुयोग्य कलाकार तथा बड़ा नक्काल रहा होगा। इसके अतिरिक्त यह विचित्र व्यक्ति अत्यन्त परस्पर विरोधी धार्मिक भावों और दार्शनिक सिद्धान्तों में हमारा विश्वास या उनका ज्ञान रखता होगा। हाँ, यह बात अवश्य है कि इस काव्य के जङ्गल में, जिसको साफ करना विद्वानों ने अब आरम्भ किया है, घास-फूंस तथा लता-पत्तों में छिपे हुए सच्ची कविता के भी कुछ पौधे हैं। साहित्य के इस बेतुके ढेर में अमर कला और गम्भीर बुद्धि के कुछ रत्न भी चमक रहे हैं।'
जो कुछ महाभारत के सम्बन्ध में इस विद्वान् के विचार हैं वही बहु अंशों में गीता पर भी चरितार्थ होते हैं। ऋषि दयानन्द ने इसे 'त्रिदोष सन्निपात' कहा है जिसे हम विंटरनिज के विचारों का एक वाक्य में निचोड़ कर सकते हैं।
विंटरनिज के उपर्युक्त विचार महाभारत में किये गये प्रक्षेप और उसके कारणों पर अच्छा प्रकाश डालते हैं। महाभारत के अध्ययन से यह स्पष्ट होता है कि इस काल में क्षत्रियों द्वारा ब्राह्मण पद को अपने अधिकार में करने का संघर्ष प्रारम्भ हो गया था, चाहे इसका कारण ब्राह्मणों की बढ़ती हुई स्वार्थवृत्ति तथा विद्या, त्याग और तपस्या की उपेक्षा ही क्यों न हो। रामायण काल में जो उच्चपद और गौरव उनको प्राप्त था, राज्य व्यवस्था में उनसे जो मन्त्रणा ली जाती थी- महाभारत काल में हम उसका सर्वथा अभाव पाते हैं। महाभारत के संघर्ष का एक कारण यह भी हो सकता है कि ब्राह्म और क्षात्र शक्ति की पारस्परिक सहयोग भावना इस समय नष्ट हो चुकी थी और सच्चे ब्राह्मणों द्वारा पथ-प्रदर्शन के अभाव में क्षत्रिय वर्ग पथभ्रष्ट होकर मनमानी करने लगा था।
महाभारत में सर्वत्र ब्रह्मविद्या के उपदेष्टा ब्राह्मण न होकर क्षत्रिय ही हैं। कृष्ण को इस ग्रन्थ में सर्वोपरि स्थान प्राप्त है। वह ब्रह्मविद्या के उपदेष्टा ही नहीं साक्षात् ब्रह्म और यदि सम्भव हो तो उससे भी कुछ ऊपर वर्णित किये गये हैं। वेदव्यास, भीष्म, युधिष्ठिर, विदुर आदि ब्रह्मविद्या के मर्मज्ञ समझे जाने वाले सभी क्षत्रिय वंशज हैं।
इस संघर्ष ने आगे बौद्ध-जैन काल में और भी उग्ररूप धारण कर लिया। बुद्ध और महावीर दोनों ही क्षत्रिय थे। इन सम्प्रदायों ने खुले रूप में ब्राह्मणों के प्रति विद्रोह भावना प्रदर्शित की। बुद्ध और महावीर का क्षत्रिय कुल में जन्म लेना गौरव की बात समझी गई। देवताओं के प्रश्न करने पर बुद्ध का यह उत्तर कि क्षत्रिय कुल में जन्म लेना ही मेरे अनुरूप होगा तथा ब्राह्मणी के गर्भ से हटाकर क्षत्राणी के गर्भ में लाने की जैन तीर्थंकर महावीर की कथा इस बढ़ती हुई विद्वेष भावना के ज्वलन्त उदाहरण हैं।
पौराणिक काल में राम और कृष्ण को पूर्णावतार का पद दिया जाना तथा समस्त अवतारों में परशुराम और वामनावतार को छोड़कर क्षत्रिय वंशजों की प्रधानता के प्रक्षेपण में जिन तथाकथित ब्राह्मणों का हाथ विंटरनिज ने बताया है वे राजदरबारों में रहनेवाले चाटुकार पुरोहित, सूत और मागध ही थे-सच्चे त्यागी तपस्वी ब्राह्मण नहीं थे। पुराणों की रचना में भी इन्हीं लोगों का हाथ है। विद्वान् ब्राह्मणों ने तो सदा इन रचनाओं को हेय ही समझा।
गीता एक ऐसा अध्यात्म-रस है जिसमें साम्प्रदायिक विष घोल दिया गया है। रस और विष का अन्तर तो साधारण विवेकी पुरुष भी कर सकता है, किन्तु दोनों के सम्मिश्रण का पता तो एक वैज्ञानिक ही लगा सकता है। एक समय था जब हिन्दू पौराणिक गाथाओं में विश्वास करते थे। मन्दिर और तीर्थों में दिखाये जाने वाले चमत्कारों को सत्य समझते थे। पश्चिमी शिक्षा और विज्ञान ने इस देश के शिक्षित वर्ग के मस्तिष्क से इन पाखण्डों का पर्दा उठा दिया है और अब वे अपना आकर्षण खो चुके हैं। किन्तु भारतीय-धर्म-तत्त्व के वास्तविक ज्ञान के अभाव में यह वर्ग अब चतुर साम्प्रदायिकों द्वारा गीता की आड़ में फैलाये जाने वाले उसी पौराणिक पाखण्ड को नहीं समझ पा रहा। आज स्थान-स्थान पर गीता मन्दिर, गीता भवन, गीता प्रेस स्थापित किये जा रहे हैं। गीता-यज्ञ, गीता-जयन्ती, गीता महोत्सव, गीता-सप्ताह न जाने क्या-क्या मनाये जा रहे हैं। गीता की सवारी निकाली जा रही है, मन्दिरों में गीता की आरती उतारी जाती है सम्भव है कि उसको भोग भी लगाया जाता हो या लगाया जाने लगे। पत्र-पत्रिकाएं गीता विशेषांक निकालते हैं और उनमें गीता पर नई-नई वैज्ञानिक व्याख्याएँ प्रकाशित होती हैं। यदि हम इन सब पर सूक्ष्म | दृष्टि डालें तो हमें पता चलेगा कि इन सब में वही पुरानी मदिरा नवीन चमकीले पात्रों में प्रस्तुत की जा रही है और शिक्षित और धनी वर्ग का लाखों-करोड़ों रुपया इन साम्प्रदायियों द्वारा गीता के नाम पर लूटा जा रहा है।
इस प्रकार के नये रूप में प्रस्तुत किये जाने वाले पाखण्ड और ढोंग से बचने का एकमात्र उपाय यही है कि हम अपने जीवन के अन्य कार्यों की भांति धर्म में भी बुद्धि और तर्क को स्थान दें। धर्म और सम्प्रदाय में यही भेद है कि पहला तर्क और बुद्धि पर आधारित है किन्तु दूसरा अन्धविश्वास पर, जिसे उसकी परिभाषा में श्रद्धा और भक्ति कहा जाता है, फलता-फूलता है। लोग समझते हैं कि धर्म बुद्धि और तर्क का विषय नहीं है, किन्तु बात सर्वथा इसके विपरीत है। मानव समाज शास्त्र के आदि प्रणेता मनु ने लिखा है_______
प्रत्यक्षं चानुमानं च शास्त्रं च विविधागमम् ।
त्रयं सुविदितं कार्यं धर्मशुद्धिमभीप्सता ॥ १०५ ॥
आर्षं धर्मोपदेशं च वेदशास्त्राऽविरोधिना ।
यस्तर्केणानुसंधते स धर्म वेद नेतरः ॥ १०६ ॥ अ०] १२ ॥
धर्मतत्त्व को जानने की इच्छा करने वाले को प्रत्यक्ष अनुमानादि
प्रमाणों और विविध धर्मशास्त्र, इन तीनों को भली प्रकार जानना चाहिये। १०५ ॥
जो ऋषि उपदिष्ट धर्मोपदेश का वेद शास्त्र के अविरोधी तर्क के द्वारा अनुसंधान करता है वही धर्म को जानता है— अन्य नहीं। १०६ ॥
इसी प्रकार निरुक्तकार ने 'तर्क एव ऋषिः' तर्क ही ऋषि (प्रकाशित करने वाला) है।
तेभ्य एतं तर्कमृषिं प्रायच्छन् ॥ निरुक्त १३.१२ ।।
षड् दर्शनों में न्याय दर्शन का विषय ही तर्क द्वारा सूक्ष्म तत्त्वों का बोध कराना है। बुद्धि का महत्त्व प्रदर्शित करते हुए एक नीति लिखा है__________
यस्य नास्ति स्वयं प्रज्ञा शास्त्रं तस्य करोति किम् ।
लोचनाभ्यां विहीनस्य दर्पणः किं करिष्यति ।। चा०नी० १२८ ।
अर्थात् जिसके पास स्वयं सदसद्विवेकिनी बुद्धि नहीं है उसका शास्त्र क्या उपकार कर सकता है ? जैसे कि जिस पुरुष के दोनों नेत्र न हों उसको दर्पण क्या लाभ पहुँचायेगा ?
प्राचीन वैदिक काल में धर्म स्वयं सोचने समझने और विचारने की वस्तु थी, परन्तु हजारों वर्षों से हमने इस कार्य को दूसरों पर छोड़ दिया है। जब लोग अपने लिये आप न सोचने वाले बन जाते हैं, वहाँ ठगों की भी कमी नहीं रहती। आज के शिक्षित समाज में पहले तो धर्मग्रन्थों के स्वाध्याय की अभिरुचि ही नहीं है, और जो पढ़ते हैं वे धर्म को तर्क की वस्तु न समझकर विश्वास की वस्तु समझते हैं परिणामतः वे धर्म के वास्तविक स्वरूप को नहीं समझ पाते। यही दशा धनसम्पन्न वर्ग की है। उन्हें अपने व्यापार और व्यवसाय में व्यस्तता के कारण धार्मिक ऊहापोह के लिए समय नहीं है, हाँ श्रद्धा अवश्य है। फलतः धर्म के नाम पर पाखण्डी पण्डा, पुरोहितों, साधु-सन्तों और महन्तों द्वारा खूब ठगे जाते हैं। देवियाँ इसकी विशेष आखेट बनती हैं
जब तक धर्म व्यवहार की वस्तु न समझा जाकर केवल पूजा पाठ की वस्तु समझा जाता रहेगा, जब तक वह बुद्धि का विषय न बन कर केवल विश्वास की वस्तु बना रहेगा, तब तक उससे हमारा, हमारे समाज तथा संसार का कोई हित साधन न हो सकेगा। यह व्यावहारिक धर्म हमें वेद और वेदानुकूल साहित्य में ही मिलेगा-रामायण, महाभारत एवं पुराणों की गाथाओं में नहीं। ये तो इतिहास ग्रन्थ हैं जिनमें अनेक मनमानी कल्पित रोचक कहानियों का तूमार खड़ा कर दिया गया है, जिन्हें दुर्भाग्य से लोग सत्य और धर्म समझ बैठे हैं।
लोग इन भ्रमजालों से ऊपर उठें और मतमतान्तरों की भूलभुलैयों से बाहर निकल कर धर्म के व्यावहारिक रूप को समझें। इस छोटी सी पुस्तक को लिखने का मेरा यही ध्येय है।
आर्य निवास, अतरौली (अलीगढ़) कृष्ण जन्माष्टमी सं० २०१६ वि०
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