ऋग्वेद मन्त्र 10/28/3 का तीनों प्रकार का भाष्य - ধর্ম্মতত্ত্ব

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21 February, 2021

ऋग्वेद मन्त्र 10/28/3 का तीनों प्रकार का भाष्य

ऋग्वेद मन्त्र 10/28/3

तीनों प्रकार का भाष्य (त्रिविध भाष्य): –
{नोट:- दुर्भाग्य से असमय निधन के कारण महर्षि दयानन्द सरस्वती जी ऋग्वेद के 7 वें मण्डल तक ही भाष्य कर सके थे और यह मन्त्र ऋग्वेद के 10 वें मंडल का है)
इस मन्त्र के भाष्यकार – ऋषि अग्निव्रत नैष्ठिक जी
(विश्व के एकमात्र वैदिक वैज्ञानिक व सम्पूर्ण विश्व में वर्तमान काल के वेदों के सबसे बड़े महाप्रकाण्ड ज्ञाता)
प्रस्तुति – इंजीनियर संदीप आर्य
अद्रिणा ते मन्दिन इन्द्र तूयान्त्सुन्वन्ति सोमान्पिबसि त्वमेषाम्। पचन्ति ते वृषभाँ अत्सि तेषां पृक्षेण यन्मघवन् हूयमानः।।
(ऋग्वेद – 10. 28. 3)
1) वैज्ञानिक_भाष्य (आधिदैविक भाष्य) –
यहाँ संवाद की शैली में सृष्टि विद्या को समझाया गया है। यहाँ छन्द रश्मि का ऋषिरूप प्राण-अपान युग्म इन्द्र तत्व अर्थात् तीक्ष्ण विद्युत् आवेशित तरंगों से कहता है- (इन्द्र) हे इन्द्र तत्व अर्थात् तीक्ष्ण विद्युत् तरंगो! (ते) तुम्हारे लिए (अद्रिणा) {आद्रिः = अद्रिरसि श्लोककृत् (का.1/5), मेघनाम (निघं. 1/10), यो अत्ति अदन्ति यत्रेति वा स अद्रिः (उ.को. 4/66) (श्लोकः = वाङ्नाम) (निघं. 1/11)} काॅस्मिक मेघों के अन्दर (यहाँ सप्तमी अर्थ में तृतीया का प्रयोग है।) विभिन्न वाग् रश्मियों को उत्पन्न करने वाली सूक्ष्म प्राणादि रश्मियों से प्रेरित किंवा उनके सहयोग से (मन्दिनः) नाना प्रकार की कमनीय छन्द रश्मियां (तूयान् सोमान्) {तूयम् क्षिप्रनाम (निघं. 2/15), उदकनाम (निघं. 1/12)} शीघ्र गमन करने वाली तथा सम्पूर्ण काॅस्मिक मेघ को सिचत् करने वाली सोम रश्मियों को (सुन्वन्ति) उत्पन्न करती हैं किंवा उस काॅस्मिक मेघस्थ पदार्थ को सम्पीडित करके मानो उससे सूक्ष्म सोम रश्मियों को निचोड़ती हैं। (त्वं, तेषां पिबसि) हे इन्द्र तत्व अर्थात् बलवती तीक्ष्ण विद्युदावेशित तरंगो! तुम उन सोम रश्मियों को पीओ अर्थात् अवशोषित करो। (ते) तुम्हारे लिए (वृषभान्) {वृषभः = स एव (आदित्यः) सप्तरश्मिर्वृषभस्तुुुविष्मान् (जै. उ. 1/28/2) (तुविरिति बलनाम - निघं. 3/1)} उस काॅस्मिक मेघ में अनेकों प्रकार के बहु आकर्षण बलयुक्त आदित्यलोकों अर्थात् विशालतारों को (पचन्ति) परिपक्व करते हैं अर्थात् सोम रश्मि से समृद्ध इन्द्र तत्व अर्थात् तीक्ष्ण विद्युदावेशित तंरगें उन विशाल तारों को उत्पन्न व परिपक्व करती हैं। (मघवन्) {मघवान् = स उ एव मखः स विष्णुः। ततः इन्द्रो मखवान् अभवत् मखवान् है वै तं मघवान मित्याचक्षते परोक्षम् (श. 14/1/1/13) (मखः = यज्ञनाम) (निघं. 3.17), यज्ञो वै मखः (तै. ब्रा. 3/2/8/3) एष वै मखो य एष (सूर्यः) तपति (श. 14/1/3/5)} विभिन्न प्रकार की संयोग-वियोगादि क्रियाओं एवं नाना प्रकार की प्रकाश तरंगों से परिपूर्ण सूर्यादि तारा (पृक्षेण) { पृक्ष = अन्ननाम (निघं. 2/7) संयोज्य कणों की असंख्य धाराओं के द्वारा (हूयमानः) अनेक प्रकार के संघर्षण एवं तज्जन्य नाना उच्च ध्वनियों को उत्पन्न करता हुआ वह विशाल काॅस्मिक मेघ (तेषाम्-अत्सि) उन सूर्यादि तारों को अपने अन्दर निगले रहते हैं अर्थात् अपने गर्भ में समाए रहते हैं।
भावार्थ –
जब विशाल काॅस्मिक मेघ के अन्दर विद्यमान् सूक्ष्म प्राण रश्मियों से प्रेरित होकर विभिन्न छन्द रश्मियों के द्वारा उस काॅस्मिक मेघ का सम्पीडन होना प्रारम्भ होता है, उस समय उस विशाल मेघ रूप पदार्थ में उन छन्द व प्राण रूप रश्मियों से सोम अर्थात् सूक्ष्म मरुद् रश्मियां उत्पन्न होने लगती हैं। जब उस काॅस्मिक मेघ में व्याप्त विद्युदावेशित तरंगें उन सोम रश्मियों को अवशोषित करती हैं, तब वे तीव्र बल व ऊर्जा से सम्पन्न होने लगती हैं। इसके पश्चात् उस काॅस्मिक मेघ में नाना प्रकार से सम्पीडन क्रिया प्रारम्भ होकर सम्पीडन के अनेक केन्द्रों की उत्पत्ति होने लगती है। इसके साथ उन केन्द्रों के आस-पास विभिन्न प्रकार के आयन्स की धाराएं बहने लगती हैं। इससे सम्पूर्ण काॅस्मिक मेघ में नाना प्रकार के गम्भीर उच्च घोष उत्पन्न होने लगते हैं। इस प्रकार उस सम्पूर्ण मेघ रूप पदार्थ में अनेंकों सूर्यों का गर्भ पल रहा होता है।
इस ऋचा (छन्द रश्मि) का सृष्टि प्रक्रिया पर प्रभाव –
इसके प्रभाव से काॅस्मिक मेघ में विद्युदावेशित कणों की अनेकों धाराएं बहने लगती हैं, जो वहाँ विद्यमान् सूक्ष्म छन्द वा मरुद् रश्मियों को अवशोषित करके तीव्रतर रूप को प्राप्त होती हैं। इन धाराओं से युक्त काॅस्मिक मेघ अपने गुरुत्व बल एवं नाना छन्द व प्राण रश्मियों के प्रभाव से सम्पीडत होने लगता है और इस सम्पीडन क्रिया के समय ही उस विशाल मेघ के अन्दर विभिन्न तारों के केन्द्रों का निर्माण होकर उनका गर्भ पलने लगता है।
2) आधिभौतिक_भाष्य
(इन्द्र) हे ऐश्वर्यवान् राजन् (ते) तेरे लिए (अद्रिणा) {अद्रिरसि श्लोककृत् (का.1/5)} तेरी प्रशंसा करने वाले हितैषी वैद्यादि जनों से प्रेरित (मन्दिनः) तुझे चाहने व प्रसन्न करने वाले परिवारी जन अथवा राष्ट्र के नागरिक (तूयान् सोमान्) {सोमः पशुर्वै प्रत्यक्षं सोमः (श.5.1/3/7) यशो वै सोमः (श.4/2/4/9) सोम ओषधीनामधिराजः (गो. उ. 1/17), अन्नं सोमः (कां. 9/9)} शीघ्रगामी अश्वादि पशुओं को, तेरे यश व प्रतिष्ठा को, तेरे लिए उत्तम अन्न व औषधियों को (सुन्वन्ति) प्रदान करते हैं, उत्पन्न करते हैं। हे राजन्! (तेषां, पिबसि) तुम उन अश्वादि पशुओं का संरक्षण करो {यहाँ ध्यान रहे कि ‘पा’ पाने धातु का अर्थ पीना के साथ-2 संरक्षण करना भी है। प्रकरण के अनुसार सोम का अर्थ पशु ग्रहण करने पर ‘पा’ धातु का अर्थ संरक्षण करना ग्रहण करना चाहिए। इस धातु के अर्थ के लिए देखें-संस्कृत-धातु-कोष-पं. युधिष्ठिर मीमांसाक} तथा उत्तम अन्न व औषधि आदि रसों का संरक्षण भी करो और उनका पान करो। इसके साथ ही अपने राष्ट्र के नागरिकों द्वारा जो सम्मान व प्रतिष्ठा प्राप्त हो रही है, उसका भोग करते हुए ऐसे कार्य करो कि उस यश का सदैव संरक्षण ही होवे, न कि उसमें किसी प्रकार की न्यूनता आने पावे।
(ते) हे राजन्! तेरे लिए (वृषभान् पचन्ति) वैद्यजन वृषभ नामक ऋषभकन्द औषधि एवं वीर्यवर्धक अनेक अन्न व औषधियों को पकाते हैं। { श्री वैंकटेश्वर प्रेस, मुम्बई में छपे औषधियों में अनेक वनस्पतियों के नाम पशु संज्ञक दिए हैं। पढ़ें- मेरे द्वारा लिखित मांसाहार-धर्म, अर्थ और विज्ञान के आलोक में} (मघवन्) हे धनैश्वर्यवान् राजन्! (पृक्षेण) अपने स्नेह सम्पर्क के द्वारा (हूयमानः) अपने प्रजाजनों के साथ मधुर संवाद व व्यवहार करते हुए (तेषाम्-अत्सि) उनके द्वारा प्रदत्त कर आदि का उपयोग कर किंवा उनके साथ आनन्द का भोग कर।
भावार्थ –
किसी राष्ट्र के राजा के हितैषी वैद्य वा राजपरिवारी जन राजा के लिए उत्तम अन्न औषधियों को तैयार करते रहें। उस राष्ट्र के नागरिकों के मन में अपने राजा के प्रति यश व सम्मान का भाव होवे तथा वह राजा भी अपने प्रजाजनों के साथ निरन्तर स्नेह संपर्क के द्वारा मधुर व्यवहार करते हुए उचित मात्रा में करों का संग्रहण करके उनके साथ मिलकर आनन्द व ऐश्वर्य का भोग करे अर्थात् प्रजा को दुःखी करके राजा कभी व्यक्तिगत सुख की आकांशा नहीं करे और न जन सामान्य से कठोर व्यवहार करे।
3) आध्यात्मिक_भाष्य
(इन्द्र) हे जीवात्मन् वा योगसाधक! (ते) तेरे लिए (अद्रिणा) अपने अन्तः करण में वेद की ऋचाओं को धारण करने वाले ऋषियों द्वारा प्रेरित (मन्दिनः) तेरा प्रिय चाहने वाले ईश्वर के स्तोता आचार्य अपनी शिक्षा के द्वारा (तूयान् सोमान्) {सोमः = सत्यं श्रीज्र्योतिः सोमः (श. 5/1/2/10) प्राणः सोमः (श. 7/3/1/2), तूर्यम् = सुखकरम् (म.द.ऋ.मा. 3/52/8)} सत्य स्वरूप एवं प्राणों के प्राण परमेश्वर की आनन्द ज्योति को (सुन्वन्ति) प्रकट कराते हैं। (तेषां, पिबसि) हे योगिजनो! तुम उस परमानन्द रूपी रस का पान करो। (ते) वे योगी आचार्य तुम्हारे लिए (वृषभान् पचन्ति) आपके आत्मा व अन्तःकरण में ब्रह्मानन्द की वर्षा कराने वाली दिव्य ज्योति को विकसित व परिपक्व करते हैं अर्थात् उनके मार्गदर्शन में की गयी योगसाधना से समाधिजन्य प्रज्ञा व आनन्द की पुष्टि होती है। (मघवन्) हे योगधन से युक्त योगसाधक (पृक्षेण) अपने आत्मा व अन्तःकरण में प्राण व वेद की ऋचाओं की सुखद वृष्टि के द्वारा (हूयमानः) परब्रह्म का आह्वान करते हुए (तेषाम् अत्सि) उस परमानन्द की वृष्टि एवं प्राण ऊर्जा का उपभोेेग करके अपने आत्मा व अन्तःकरण के बल को बढ़ाता रहा।
भावार्थ
परब्रह्म के साक्षात्कृतधर्मा एवं वेद की ऋचाओं को अपने अन्तःकरण में बसाने वाले ऋषियों से प्रेरित योग के आचार्य अपने योगसाधक शिष्य को परब्रह्म का साक्षात्कार कराते हैं। वे आचार्य अपने शिष्यों के भीतर ब्रह्म की ज्योेेेेति का प्रकाश कराके उसे पुष्ट भी करते हैं। इस कारण वे योगसाधक शिष्य परमेश्वर की दिव्य ज्योति एवं प्राण ऊर्जा को प्राप्त करके अपने आत्मा व अन्तःकरण को बलवान् बनाने में सक्षम होते हैं।
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