ऋग्वेद मन्त्र 10/86/14 का ऋषि अग्निव्रत जी कृत तीनों प्रकार का भाष्य
इस मन्त्र के भाष्यकार – ऋषि अग्निव्रत नैष्ठिक जी
(विश्व के एकमात्र वैदिक वैज्ञानिक व सम्पूर्ण विश्व में वर्तमान काल के वेदों के सबसे बड़े महाप्रकाण्ड ज्ञाता)
प्रस्तुति – इंजीनियर संदीप आर्य
उक्ष्णो हि मे प´चदश साकं पचन्ति विंशतिम्। उताहमद्मि पीव इदुभा कुक्षी पृणन्ति मे विश्वस्मादिन्द्र उत्तरः ।।
(ऋग्वेद – 10/86/14)
इस ऋचा का ऋषि वृषाकपिरिन्द्र इन्द्राणी है, इसका तात्पर्य है कि इस छन्द रश्मि की उत्पत्ति विशेष बलशाली व विभिन्न रश्मियों को कम्पाने वाले सूत्रात्मा वायु के विशेष रूप से होती है। (देखें- वेदविज्ञान-आलोकः - पृ. 1462) इसका देवता इन्द्र होने से इन्द्र तत्व अर्थात् सूर्य लोक एवं उसके अन्दर विद्यमान तीक्ष्ण विद्युदावेशित तरंगें तीव्रता को प्राप्त होती हैं। इसका छन्द पंक्ति होने से सूर्यादि तारों के अन्दर विभिन्न प्रकार की संयोजन व वियोजनादि विस्तार को प्राप्त करती हैं।
1) वैज्ञानिक_भाष्य (आधिदैविक भाष्य) –
(मे हि प´चदश साकं विंशतिम्) मेरे अर्थात् पूर्वोक्त विशेष सूत्रात्मा वायु के द्वारा {तृतीयार्थ में चतुर्थी का प्रयोग है।} ही पन्द्रह अर्थात् प्राण, अपान, व्यान, समान, उदान, नाग, कूर्म, कृकल, देवदत्त एवं धनंजय ये दस प्राथमिक प्राण तथा सूत्रात्मा वायु, भूः, भुवः, स्वः एवं हिम् अथवा पंच महाभूत ये पांच मिलाकर पन्द्रह प्राथमिक सूक्ष्म रश्मि आदि पदार्थों के साथ-2 बीस अर्थात् 12 मास, 6 ऋतु रश्मियां, मनस्तत्व एवं ओम् रश्मि अथवा 12 मास एवं गायत्री, उष्णिक्, अनुष्टुप्, बृहती, पंक्ति, त्रिष्टुप्, जगती के अतिरिक्त अतिच्छन्द रश्मियां, ये 20 प्रकार की रश्मियां, इस प्रकार कुल 35 प्रकार के रश्मि आदि पदार्थ (उक्ष्णः) {उक्षा = उक्षतेर्वृद्धिकर्मणः उक्षन्त्युदकेनेति वा (निघं. 12/9)} वर्षा आदि के द्वारा सींचने में समर्थ अथवा प्रकाशादि किरणों के द्वारा विभिन्न लोकों को प्रकाशित करने में समर्थ विशाल सूर्यादि लोकों को (पचन्ति) परिपक्व वा पुष्ट करते हैं अर्थात् उपर्युक्त पैंतीस प्रकार के रश्मि आदि पदार्थों के द्वारा ही विशाल काॅस्मिक मेघों में विभिन्न तारों का निमार्ण होता है। (उत) और (अहम्) मैं अर्थात् इस छन्द रश्मि के ऋषिरूप सूत्रात्मा वायु का विशेष स्वरूप (अद्मि) इन सभी पैंतीस रश्मि आदि पदार्थों का भक्षण करता है अर्थात् सबको एकसूत्र में बांधकर सूर्य लोकादि विभिन्न लोकों को भी अपने अन्दर समाहित कर लेता है। (पीवः) इस प्रक्रिया के समय वह सूत्रात्मा वायु अति विस्तृत रूप धारण करके सम्पूर्ण सौरमण्डल, गैलेक्सी आदि में व्याप्त हो जाता है। (मे) मेरे अर्थात् उस विशेष सूत्रात्मा वायु के (उभा) दोनों रूप अर्थात् सम्पूर्ण लोकों को आच्छादित करने वाले तथा विभिन्न सूक्ष्म कणों व रश्मियों को ढकने वाले दोनों रूप सम्पूर्ण काॅस्मिक मेघ, गैलेक्सी, सौरमण्डल आदि के अन्दर व बाहर सर्वत्र व्याप्त हो जाते हैं। (इन्द्रः) वह इन्द्र अर्थात् विद्युत चुम्बकीय तंरगें, विद्युदावेशित तरंगें तथा सूर्यादि लोक अन्य लोकों से उत्कृष्ट स्वरूप को प्राप्त करते हैं।
भावार्थ –
जब किसी काॅस्मिक मेघ के अन्दर दस प्राथमिक प्राण, पंच महाभूत अथवा सूत्रात्मा , हिम् , भूः, भुवः व स्वः, ये सब पन्द्रह पदार्थों के साथ 8 प्रकार की छन्द व 12 प्रकार की मास रश्मियां मिल कर अर्थात् कुल 35 प्रकार के रश्मि आदि पदार्थ विशेष सक्रिय होते हैं, उस समय उस विशाल मेघ के अन्दर नाना प्रकार के तारों का जन्म होने लगता है। उस समय सूत्रात्मा वायु अति विस्तृत होकर सभी पदार्थों के साथ-2 सम्पूर्ण काॅस्मिक मेघ को अपने अन्दर व्याप्त कर लेता है। इन सभी लोकों में सूत्रात्मा वायु रश्मियों के दोनों रूप अर्थात् एक वह रूप, जो सूक्ष्म रश्मियों वा कणों को परस्पर जोड़ने में सहायक होता है और दूसरा, जो विभिन्न लोकों के गुरुत्वाकर्षण बल का एक महत्वपूर्ण भाग बनकर उन्हें थामे व जोड़े रखता है, सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड में सक्रिय होते हैं। इससे विभिन्न प्रकार के विकिरण व लोकों को उत्कृष्ट स्वरूप प्राप्त होता है।
2) आधिभौतिक_भाष्य –
(मे हि पंचदश साकं विंशतिम्) मैं अर्थात् राजा अपने पांच प्राण, पांच ज्ञानेन्द्रियां व पांच कर्मेन्द्रियों को वश में करके दश कामज व्यसन { अक्ष अर्थात् चैपड़ खेलना, जुवा खेलना, दिन में सोना, कामकथा वा दूसरे की निन्दा किया करना, स्त्रियों का अति संग, मादकद्रव्य अर्थात् मद्य, अफीम, भाँग, गाँजा, चरस आदि का सेवन, गाना बजाना, नाचना व नाच कराना, सुनना और देखना, वृथा इधर-उधर घूमते रहना।- मनुस्मृति- सत्यार्थ प्रकाश के षष्ठ समुल्लास से उद्घृत} व आठ क्रोधज व्यसन { पैशुन्यम् अर्थात् चुगली करना, बिना विचारे बलात्कार से किसी की स्त्री से बुरा काम करना, द्रोह रखना, ईष्र्या अर्थात् दूसरे की बड़ाई वा उन्नति देख कर जला करना, असूया दोषों में गुण, गुणों में दोषारोपण करना, अर्थदूषण अर्थात् अधर्मयुक्त बुरे कामों में धनादि का व्यय करना, कठोर वचन बोलना और बिना अपराध कड़ा वचन वा विशेष दण्ड देना।- मनुस्मृति- सत्यार्थ प्रकाश के षष्ठ समुल्लास से उद्घृत} अविद्या व प्रमाद, इन बीस दुव्र्यसनों को जीत कर (उक्ष्णः) प्रजा के लिए अपने सुख व पराक्रम वर्षक स्वरूप को (पचन्ति) परिपक्व करता है {यहाँ बहुवचन प्रयोग व्यत्यय से हुआ है।} (उत) और (अहम्) मैं सुखवर्षक राजा (अद्मि) सम्पूर्ण राष्ट्र के दुःख, अविद्या, दरिद्रता, अशान्ति एवं असुरक्षा आदि को नष्ट करता हूँ, (पीवः) ऐसा करके मैं अपने राष्ट्र का विकास करता हूँ, (मे) मेेरे (उभा कुक्षी) सज्जन प्रजाजन हेतु स्नेह व दुर्जनों हेतु उचित दण्ड, ये दोनों स्वरूप वा व्यवहार (इत् पृणन्ति) सम्पूर्ण राष्ट्र को सुख व शान्ति से समृद्ध करते हैं।
#भावार्थ –
जो अपने प्राणों व इन्द्रियों को वश करके अविद्या, प्रमाद व सभी कामज तथा क्रोधज दोषों को जीत लेेता है, वह सम्पूर्ण राष्ट्र को नाना प्रकार के सुख-ऐश्वर्यों से भर देेेता है। ऐसा राजा सज्जनों को संरक्षण व दुष्टोें को उचित दण्ड के द्वारा अपने राष्ट्र को सर्वविध संरक्षित व सुखी करता है।
3) आध्यात्मिक_भाष्य –
(मे हि) मैं योग साधक (पंचदश साकं विंशतिम्) मोक्ष के चार साधन, जिनमें प्रथम विवेेक के बारह प्रकार अर्थात् शरीर के अन्नमय, प्राणमय, मनोमय, विज्ञानमय व आनन्दमय कोष, तीन अवस्था-जाग्रत, स्वप्न, सुषुप्ति, चार शरीर-स्थूल, सूक्ष्म, कारण एवं तुरीय वा स्वाभाविक को यथावत् जानना, ये बारह प्रकार के विवेक, द्वितीय वैराग्य अर्थात् ज्ञान की पराकाष्ठा, तृतीय षट्क सम्पत्ति (शम, दम, उपरति, तितिक्षा, श्रद्धा व समाधान), चैथा मुमुक्षुत्व अर्थात् मुक्ति की तीव्र इच्छा, ये कुल मिलाकर मुक्ति के बीस साधनों के साथ यम, नियम, आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा, ध्यान व समाधि, इन आठों योगांगों से प्रत्यक्ष, अनुमान, आगम, इन तीन प्रमाण, विपर्पय, विकल्प, निद्रा व स्मृति, इन सात प्रकार की वृत्तियों का निरोध करके अर्थात् कुल पैंतीस प्रकार के साधनोपसाधनों के द्वारा (उक्ष्णः पचन्ति) सुख व आनन्द की वृष्टि करने हारे परब्रह्म परमात्मा को साक्षात् करने की प्रक्रिया को परिपक्व करता हूँ। (उत) और (अहम्) मैं योगमार्ग का पथिक (अद्मि) उस परमानन्द व पावनी शान्ति का भक्षण करता हूँ अर्थात् उसका आस्वादन अनुभव करता हूँ और ऐसा करके (पीवः) अपने आत्मिक बल व पवित्रता को समृद्ध करता हूँ। (मे) मेरे (उभा कुक्षी) लौकिक व परलौकिक दोनों ही सुख (इत्, पृणन्ति) मुझे पूर्ण तत्व करते हैं।
भावार्थ –
कोई भी योगी जब विवेक, वैराग्य, षट्क सम्पत्ति, मुमुक्षुत्व के साथ अष्टांग योग की साधना करता है, उस समय वह सृष्टि के सम्पूर्ण विज्ञान के साथ-2 परब्रह्म परमेश्वर एवं स्वयं के यथार्थ स्वरूप को जानकर परमानंद को प्राप्त करता है। इसके साथ वह इस लोक में भी सभी सुखों को प्राप्त करने में समर्थ होता है।
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