हम ईश्वर तत्व पर निष्पक्ष वैज्ञानिक दृष्टि से विचार करते हैं। हम संसार के समस्त ईश्वरवादियों से पूछना चाहते हैं कि क्या ईश्वर नाम का कोई पदार्थ इस सृष्टि में विद्यमान है, भी वा नही? जैसे कोई अज्ञानी व्यक्ति भी सूर्य, चन्द्र, पृथिवी, जल, वायु, अग्नि, तारे, आकाशगंगाओं, वनस्पति एवं प्राणियों के अस्तित्व पर कोई शंका नहीं करेगा, क्या वैसे ही इन सब वास्तविक पदार्थों के मूल निर्माता व संचालक ईश्वर तत्व पर सभी ईश्वरवादी शंका वा संदेह से रहित हैं? क्या संसार के विभिन्न पदार्थों का अस्तित्व व स्वरूप किसी की आस्था व विश्वास पर निर्भर करता है? यदि नहीं तब इन पदार्थों का निर्माता माने जाने वाला ईश्वर क्यों किसी की आस्था व विश्वास के आश्रय पर निर्भर है? हमारी आस्था न होने से क्या ईश्वर नहीं रहेगा? हमारी आस्था से संसार का कोई छोटे से छोटा पदार्थ भी न तो बन सकता है और न आस्था के समाप्त होने से किसी पदार्थ की सत्ता नष्ट हो सकती है, तब हमारी आस्थाओं से ईश्वर क्योंकर बन सकता है और क्यों हमारी आस्था समाप्त होने से ईश्वर मिट सकता है ? क्या हमारी आस्था से सृष्टि के किसी भी पदार्थ का स्वरूप बदल सकता है? यदि नहीं, तो क्यों हम अपनी-२ आस्थाओं के कारण ईश्वर के रूप बदलने की बात कहते हैं? संसार की सभी भौतिक क्रियाओं के विषय में कहीं किसी का विरोध नहीं, कहीं आस्था, विश्वास की बैसाखी की आवश्यकता नहीं, तब क्यों ईश्वर को ऐसा दुर्बल व असहाय बना दिया, जो हमारी आस्थाओं में बंटा हुआ मानव और मानव के मध्य विरोध, हिंसा व द्वेष को बढ़ावा दे रहा है। हम सूर्य को एक मान सकते हैं, पृथिवी आदि लोकों, अपने-२ शरीरों को एक समान मानकर आधुनिक भौतिक विद्याओं को मिलजुल कर पढ़ व पढ़ा सकते हैं, तब क्यों हम ईश्वर और उसके नियमों को एक समान मानकर परस्पर मिलजुल कर नहीं रह सकते? हम ईश्वर की बनाई हुई सृष्टि एवं उसके नियमों पर बिना किसी पूर्वाग्रह के संवाद व तर्क-वितर्क प्रेमपूर्वक करते हैं, तब क्यों इस सृष्टि के रचयिता ईश्वर तत्व पर किसी चर्चा, तर्क से घबराते हैं? क्यों किचित् मतभेद होने मात्र से फतवे जारी करते हैं, आगजनी, हिंसा पर उतारू हो जाते हैं। क्या सृष्टि के निर्माता ईश्वर तत्व की सत्ता किसी की शंका व तर्क मात्र से हिल जायेगी, मिट जायेगी ? यदि ईश्वर तर्क, विज्ञान वा विरोधी पक्ष की आस्था व विश्वास तथा अपने पक्ष की अनास्था व अविश्वास से मिट जाता है, तब ऐसे ईश्वर का मूल्य ही क्या है? ऐसा परजीवी, दुर्बल, असहाय, ईश्वर की पूजा करने से क्या लाभ? उसे क्यों माना जाये? क्यों उस कल्पित ईश्वर और उसके नाम से प्रचलित कल्पित धर्मों में व्यर्थ माथापच्ची करके धनसमय व श्रम का अपव्यय किया जाये?
मेरे प्रबुद्ध पाठकगण! जरा विचारें कि यदि ईश्वर नाम की कोई सत्ता वास्तव में संसार में विद्यमान है, तो वह हमारे विश्वास, आस्थाओं के सहारे जीवित नहीं रहेगी। वह सत्ता निरपेक्ष रूप से यथार्थ विज्ञान के द्वारा जानने योग्य भी होगी। उसका एक निश्चित स्वरूप होगा उसके निश्चित नियम होंगे। ईश्वर के भौतिक नियमों के विषय में Richard P. Feynman का कथन है-
“We an imagine that this complicated array of moving things which constitutes ‘the world' is something like a great chess game being played by the god, and we are observers of the game. We do not know what the rules of the games are, all we are allowed to do is to watch the playing. Of course, if we watch long enough, we may eventually watch on to a few rules. The rules of the game are whats we mean by fundamental physics.” (Lectures on Physics-Pg. 13)
इसका आशय यह है कि यह संसार निश्चित नियमों से बना व चल रहा है। वे नियम ईश्वर द्वारा बनाये गये हैं और वही उनको लागू करके संसार को बनाता व चलाता है। वैज्ञानिक उन असंख्य नियमों में से कुछ को जान भर सकते हैं, उन्हें बना वा लागू नहीं कर सकते। यहाँ फाइनमेन ने एक भारी भूल अवश्य कर दी, जो ‘God' के स्थान पूर 'Gods' लिख दिया। यदि नियम बनाने वाले अनेक 'Gods', तो उन नियमों में सामंजस्य नहीं बैठेगा। सभी 'Gods' को समन्वित व नियन्त्रित करने वाला कोई ‘Supreme God’ अर्थात् ‘God' की सत्ता अवश्य माननी होगी और मूलभूत भौतिकी के नियम बनाने वाला एक ही ‘God’ होगा। अब हम विचारें कि उस ‘God’ अर्थात् ईश्वर के भौतिक नियम ही मूलभूत भौतिक विज्ञान नाम से जाने जाते हैं। इसी विज्ञान पर सम्पूर्ण भौतिक विज्ञान, खगोल, रसायन, जीव, वनस्पति, भूगर्भ, इंजीनियरिंग, मेडिकल सायंस आदि सभी शाखाएं आश्रित हैं। भूलभूत भौतिकी के बिना संसार में विज्ञान का अस्तित्व ही सम्भव नहीं है। जब ईश्वर के भौतिक नियम जिनसे इस संसार को जाना जाता है, ब्रह्माण्ड भर के बुद्धिवादी प्राणी वा मनुष्यों के लिए समान हैं, तब उस ईश्वर को जानने के लिए आवश्यक उसी के बनाये आध्यात्मिक नियम अर्थात् अध्यात्म विज्ञान (जिसे प्रायः धर्म कहा जाता है) भी तो सभी मनुष्यों के लिए समान ही होंगे। आश्चर्य है कि इस साधारण तर्क को समझने की भी बुद्धि ईश्वरवादियों में नहीं रही, तब निश्चित ही यह उनकी कल्पनाप्रसूत ईश्वरीय धारणा व कल्पित उपासना-पूजा पद्धति का ही फल है, जहाँ सत्य के अन्वेषण की वैज्ञानिक मेधा कहीं पलायन कर गयी । ईश्वरवादी वैज्ञानिक केवल Feynman ही नहीं है अपितु अनेक प्रतिभाशाली वैज्ञानिक ईश्वर की सत्ता को स्वीकार करते रहे हैं व करते हैं। क्योंकि वर्तमान विज्ञान केवल प्रयोगों, प्रेक्षणों व गणितीय व्याख्याओं के सहारे ही जीता है और यही उसका स्वरूप भी है। इस कारण वह ईश्वर की व्याख्या इनके सहारे तो, नहीं कर सकता और न वह इसकी व्याख्या की इच्छा करता है। उधर Stephen Hawing ने तो The Grand Design पुस्तक में मानो संसार के सभी ईश्वरवादियों को मूर्ख समझकर निरर्थक व्यंग्य किये हैं। विज्ञान का नाम लेकर स्वयं अवैज्ञानिकता का ही परिचय दिया है। इस पुस्तक से पूर्व उन्हीं की पुस्तकों में वे ईश्वर की सत्ता स्वीकार करते हैं, फिर मानो अकस्मात् वे भारी खोज करके संसार में घोषणा करते हैं कि ईश्वर नाम की कोई सत्ता ब्रह्माण्ड में नहीं है। उधर आज संसार में ऐसा भयंकर पाप प्रवाह चल रहा है कि ईश्वरवादी कहाने वाले भी ऐसा व्यवहार कर रहे हैं, मानो उनके ऊपर ईश्वर नाम की कोई सत्ता न हो, वे अहंकारी मानव स्वयं को ही सर्वोच्च सत्ता की भांति व्यवहार का प्रदर्शन करते देखे जाते हैं। इस कारण हम संसार भर के वैज्ञानिक अनीश्वरवादियों व ईश्वरवादियों दोनों का ही आह्वान करना चाहेंगे कि वे ईश्वर की सत्ता पर खुले मस्तिष्क से विचार करने को उद्यत हो जाएं। आज अनेक ईश्वरवादी विद्वान् ईश्वरवादी वैज्ञानिकों के प्रमाण देते देखे वा सुने जाते हैं, परन्तु हम ईश्वरीय सत्ता का प्रमाण किसी वैज्ञानिक से लेना आवश्यक नहीं समझते। अब वह समय आयेगा जब वर्तमान वैज्ञानिक हम वैदिक वैज्ञानिकों को प्रमाण मानना प्रारम्भ करके नये वैज्ञानिक युग का सूत्रपात करेंगे अर्थात् हमारे साथ मिलकर कार्य करेंगे। हम आज विश्वभर के समस्त प्रबुद्ध समाज से घोषणापूर्वक कहना चाहेंगे कि यदि ईश्वर नहीं है, तो सब झंझट छोड़कर नितान्त नास्तिक व स्वच्छन्द बन जाएँ और यदि ईश्वर सिद्ध होता है, तो उसकी आज्ञा में चलकर मर्यादित जीवन जीते हुये संसार को सुखी बनाने का प्रयत्न करें, क्योंकि सम्पूर्ण संसार उसी ईश्वर की रचना है और इस कारण सभी मानव ही नहीं, अपितु प्राणिमात्र परस्पर भाई-२ हैं।
वेद को ईश्वरकृत सिद्ध करने का एकमात्र माध्यम
मैंने सभी महानुभावों से निम्न विषयों पर अपने विचार प्रकट करने हेतु कहा था -
- वेद की वैज्ञानिकता को कैसे सिद्ध किया जा सकता है?
- वेद में ऐसा क्या विशेष है, जिससे यह सिद्ध हो सके सम्पूर्ण वैज्ञानिकों के समक्ष कि वेद ही ईश्वरीकृत है, जिससे वेद सम्पूर्ण विश्व में स्थापित हो सके।
आप सभी महानुभावों ने अपनी-अपनी योग्यतानुसार इस विषय पर अपने विचार प्रकट किए, जिसके लिए मैं आभार व्यक्त करता हूँ। सभी प्रिय महानुभावों ने कुछ इस प्रकार के विचार प्रकट किए, जो मैं आगे उद्धृत कर रहा हूँ। सभी महानुभावों ने ये विचार प्रकट किए कि वेद सबसे प्राचीन पुस्तक है, वेद श्रुति रूप में थे, वेद सृष्टि के आरम्भ से ही हैं, वेद में कोई इतिहास नही हैं, वेद में विज्ञान विरुद्ध कोई बात नही हैं, वेद में विज्ञान सम्मत बातें हैं, वेद सभी सत्य विद्याओं की पुस्तक है, वेद ज्ञान का भंडार है, संसार के सभी विद्याओं का मूल वेद है, वेद में प्राणी मात्र के कल्याण के लिए व लोक व्यवहार के लिए सत्य उपदेश व सत्य विद्या विद्यमान है, वेद में मानव विरुद्ध एवं सृष्टि विरुद्ध कोई भी बात नहीं लिखी हुई है, वेद में अनंत ज्ञान व विज्ञान है, कुछ वैज्ञानिक लोग वेद पर शोध कर रहे हैं, सभी ऋषियों का यह कथन है कि वेद ही ईश्वरकृत है, वेद स्वयं प्रमाण है, जहां किसी अन्य से प्रमाणित ना हो, वहां वेद से प्रमाण लिया जाता है, वेद का काल सृष्टि के आरंभ से है जिसे ईश्वर ने मनुष्य मात्र के लिए दिया है, वेद ऐसी रचना है जो मनुष्य द्वारा नहीं रचा जा सकता, ऋषियों के शब्द प्रमाण हैं कि वेद ईश्वरकृत है, इसलिए बुद्धिमान लोग यह कह सकते हैं कि वेद ईश्वरकृत रचना है, आदि। ये सभी विचार व शब्द प्रमाण मेरे सभी प्रिय महानुभावों ने रखें थे।
अब इस पर मेरा विचार
अब तक हम सब वेद के बारे में यही जानते आये हैं और मान्यतानुसार, ऋषियों के शब्द प्रमाणों के आधार पर यही मानते आए हैं कि वेद ईश्वरकृत है। शब्द प्रमाण के अतिरिक्त हमारे पास और कुछ है भी नहीं। यद्यपि ऋषियों के शब्द प्रमाण में हम सभी वैदिक धर्मियों को कोई भी सन्देह नहीं। हम यह स्पष्ट कर देना चाहते हैं कि हमें ऋषियों के कथन पर कोई भी सन्देह नहीं, क्योंकि ऋषियों के कथन व शब्द प्रमाण पूर्णतः सत्य होते हैं। किन्तु व्यवहारिक रूप से वैज्ञानिक आधार व दृष्टिकोण से संसार के समस्त वैज्ञानिकों के समक्ष यह कैसे सिद्ध होगा कि वेद ही ईश्वर कृत है? वैज्ञानिक तो वेद को ईश्वरकृत नहीं मानते। हमारे सभी ऋषियों के शब्द प्रमाण मात्र से संसार का कोई भी वैज्ञानिक यह स्वीकार कभी नहीं कर सकता कि वेद ईश्वरकृत रचना है। हम यह भी स्पष्ट कर देना चाहते हैं कि मेरे जितने भी प्रिय महानुभावों ने वेद को ईश्वर कृत सिद्ध करने के लिए अपनी योग्यतानुसार जितने भी विचार व प्रमाण रखे, जिसका उल्लेख मैंने ऊपर किया है, उन सभी विचारों व प्रमाणों के आधार पर वैज्ञानिकों के समक्ष वेद को ईश्वरकृत सिद्ध नहीं किया जा सकता।
वेद को वैज्ञानिक आधार, दृष्टिकोण व विज्ञान के माध्यम से वैज्ञानिकों के समक्ष ईश्वरकृत सिद्ध करने का माध्यम
वैज्ञानिकों के समक्ष वेद को ईश्वरकृत सिद्ध करने के लिए सर्वप्रथम तो हमें ईश्वर की सत्ता को सिद्ध करना होगा, ठोस वैज्ञानिक प्रमाण के आधार पर, क्योंकि वैज्ञानिक ईश्वर की सत्ता को नहीं मानते। यह भी सत्य है कि कुछ वैज्ञानिक ऐसे भी हुए हैं, जो ईश्वर की सत्ता को तो मानते हैं किन्तु उनके पास भी ईश्वर के अस्तित्वत को सिद्ध करने के लिए वैसा कोई भी वैज्ञानिक आधार नहीं है। उनमें से कुछ वैज्ञानिक ऐसा मानते हैं कि कोई तत्व ऐसा तो है, जो ब्रह्माण्ड को संचालित कर रहा है परंतु उनके पास इसका कोई भी वैज्ञानिक प्रमाण, आधार व वैज्ञानिक व्याख्या नही। अतः ईश्वर की अस्तित्वता को लेकर वैज्ञानिकों के बीच बहुत ही विरोधाभास व मतभेद है। इस कारण ईश्वर को विज्ञान के माध्यम से सिद्ध करने की सामथ्र्य संसार के किसी भी वैज्ञानिक में नहीं, फलस्वरूप आधुनिक विज्ञान ईश्वर की सत्ता को नहीं मानता। यदि ईश्वर का अस्तित्वत विज्ञान के माध्यम से सिद्ध हो जाये, तो ही हम आगे की ओर बढ़ सकते हैं वेद को ईश्वर कृत सिद्ध करने की दिशा में वैज्ञानिक आधार, विज्ञान व वैज्ञानिक दृष्टिकोण के माध्यम व प्रमाण से वैज्ञानिकों के समक्ष। यद्यपि यह अनुसंधान, शोध व खोज के कार्य तो विश्व के एकमात्र वैदिक वैज्ञानिक, विश्व के एकमात्र वैदिक भौतिक वैज्ञानिक, विश्व के एकमात्र वैदिक ब्रह्माण्ड वैज्ञानिक व सम्पूर्ण विश्व में वर्तमान काल के वेदों के सबसे बड़े महाप्रकाण्ड ज्ञाता पूज्य गुरुदेव आचार्य अग्निव्रत जी नैष्ठिक के हैं। मैं केवल वह माध्यम व उनके इस महान् खोज, शोध व अनुसंधान को ही यहाँ बताऊंगा, जिससे सम्पूर्ण विश्व के वैज्ञानिकों के समक्ष वैज्ञानिक दृष्टिकोण, आधार व प्रमाण से पूर्ण रूप से यह सिद्ध हो जाएगा कि केवल वेद ही ईश्वरकृत रचना है। यह सिद्ध होने के पश्चात् संसार के सभी वैज्ञानिक व समस्त लोग यह स्वीकार करेंगे कि वेद ही ब्रह्मांडीय व ईश्वरकृत रचना है, फलस्वरूप वेद की ईश्वरीयता को संसार का कोई भी मानव नकार नहीं पायेगा तथा वेद की स्थापना भी स्वतः सम्पूर्ण विश्व में अवश्य होगी।
ईश्वर के अस्तित्वत को विज्ञान के माध्यम से सिद्ध करने का सामर्थ्य इस संसार में केवल एक ही महात्मा ऋषि कोटि के विश्व के एकमात्र वैदिक वैज्ञानिक व वर्तमान काल के वेदों के सबसे महाप्रकाण्ड ज्ञाता, श्रद्धेय गुरुदेव आचार्य अग्निव्रत जी नैष्ठिक के पास ही है। श्रद्धेय आचार्य जी के अतिरिक्त संसार के किसी अन्य मानव में यह सामथ्र्य, योग्यता व क्षमता नहीं है और ईश्वर को विज्ञान के माध्यम से सिद्ध करने की संपूर्ण वैज्ञानिक प्रक्रिया, वैज्ञानिक व्याख्या व प्रणाली का ज्ञान केवल आचार्य जी को ही है और आचार्य जी के पास ही यह सामथ्र्य है, जो अटल सत्य है। आचार्य जी बहुत पूर्व ही ईश्वर को विज्ञान के माध्यम से सिद्ध कर चुके हैं और विश्व के सभी बड़े वैज्ञानिकों के समक्ष उन्होंने यह सिद्ध करने हेतु भरसक प्रयास भी किये। कई बार भारत सरकार को भी लिखा और अप्रैल 2018 में बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय के विज्ञान संस्थान में भारत सरकार ने एक अन्तर्राष्ट्रिय काॅफ्रैंस के आयोजन का आयोजन भी किया, परन्तु कुछ षड्यंत्रकारियों ने उस काॅफ्रैंस को बाधित करके विश्वस्तरीय नहीं रहने दिया और उस काॅफ्रैंस में आचार्य जी ने अपनी वैदिक थ्योरी आॅफ यूनिवर्स को सर्वप्रथम प्रस्तुत किया।
अब हम वेद को ईश्वरकृत सिद्ध करने का वह मार्ग व माध्यम, वैज्ञानिक दृष्टिकोण व आधार के बारे में बतलाने जा रहें, जो वस्तुतः श्रद्धेय आचार्य जी की खोज, शोध व अनुसंधान है। यह अत्यंत जटिल है, जिसे साधारण जन नहीं समझ सकते, केवल भौतिक वैज्ञानिक, ब्रह्माण्ड वैज्ञानिक व ब्रह्माण्ड विज्ञान पर शोध करने वाले तथा भौतिक विज्ञान का उच्चतम ज्ञान रखने वाले जन ही समझ सकते हैं। फिर भी मैं अति सरल शब्दों में अति सरल भाषा में व संक्षिप्त में ही बताने का प्रयास करूंगा, ताकि साधारण जन व विज्ञान की उच्चतम जानकारी नहीं रखने वाले लोग भी सरलता से कम शब्दों में इसे समझ सकें।
श्रद्धेय आचार्य जी के कई वर्षों के कठोर परिश्रम, पुरुषार्थ, उनके तपोबल, साधना, तप, तर्क शक्ति, ऊहा के बल पर वेद व ऋषिकृत ग्रँथों पर शोध व अनुसन्धान के पश्चात् आचार्य जी ने यह खोजा व जाना कि वेद मन्त्रों से ही सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड का निर्माण होता है। आचार्य जी ने यह जाना व खोजा कि वेद मंन्त्र वास्तव में एक ध्वनि ऊर्जा है। वेद मंत्र, छन्दों का समूह है। वेद मन्त्रों में आये शब्दों के समूहों को ही छन्द कहा जाता है, ये सभी छन्द ही वेद मंत्र कहलाते हैं। वस्तुतः यह सभी छन्द, अति सूक्ष्म पदार्थ कहलाते हैं। ब्रह्माण्ड के प्रत्येक पदाथ का निर्माण इन्हीं वेद मंत्रों अर्थात छन्दों से होता है। ब्रह्माण्ड अर्थात् सृष्टि की उत्पत्ति में वेद मंन्त्रों की ही भूमिका होती है। ब्रह्माण्ड की उत्पत्ति वेद मन्त्रों से होती है। वास्तव में जब ईश्वर ब्रह्माण्ड का निर्माण कर रहा होता है तो ईश्वर सर्वप्रथम सूक्ष्म स्पंदन उत्पन्न करता है, मनस्तत्व में। वह स्पंदन कम्पन करते हुए तरंग के रूप में फैलता है, जो रश्मि कहलाती है। इसे वैदिक विज्ञान की भाषा में रश्मि कहा जाता है। ऐसे कई प्रकार के सूक्ष्म स्पंदन ईश्वर उत्पन्न करता है। ये रश्मियां ही वैदिक ऋचाएं अर्थात् वेद मंन्त्र हैं। वेद मंत्रों के संघनन से ही सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड का निर्माण होता है। ये रश्मियां ध्वनि ऊर्जा रूपी कम्पन करते हुए तरंगों के रूप में होते हैं। यही सूक्ष्म ध्वनि ऊर्जा ही वेद मंन्त्र हैं। वेद मंत्र ही उपादान कारण भी हैं, ब्रह्माण्ड के निर्माण का। वेद के सभी मंत्र संसार के सभी पदार्थों के अंदर वाणी अर्थात् ध्वनि की परा व पश्यन्ति अवस्था में सर्वत्र कम्पन करते हुए गूंज रहे हैं। यह ध्वनि ऊर्जा रूपी वेद मन्त्रों के शब्द कभी भी नष्ट नहीं होते।
श्रद्धेय आचार्य जी ने यह खोजा व जाना कि हमारे शरीर की एक-एक कोशिका इन्हीं वेद मंत्रों से बनी है। हमारे शरीर की सभी कोशिकाओं के अंदर ध्वनि की पश्यन्ति व परा अवस्था में ये वेद मंन्त्र गूंज रहे हैं। ब्रह्माण्ड में सर्वत्र वेद के सभी मंत्र शब्द रूप में ध्वनि ऊर्जा के रूप में गूंज रहे हैं। ब्रह्माण्ड के सूक्ष्म से सूक्ष्म, स्थूल से स्थूल व विशाल से विशाल सभी पदार्थों जैसे सभी कण, सूर्य, चन्द्र, तारे, उल्का-पिंड, धूमकेतु, ग्रह, उपग्रह, सौरमण्डल, गैलेक्सी, अंतरिक्ष, आकाश, जल, वायु, अग्नि, प्रकाश, आदि ब्रह्माण्ड में उपस्थित समस्त पदार्थों का निर्माण इन्ही वेद मंत्रों से हुआ है। ब्रह्माण्ड के सभी पदार्थों के भीतर ध्वनि की पश्यन्ति व परा अवस्था में वेद मंन्त्र ही सर्वत्र गूंज रहे हैं। ब्रह्माण्ड के सभी पदार्थों में कोई न कोई बल, ऊर्जा, गति, त्वरण आदि होते हैं, जो ध्वनि ऊर्जा रूपी वेद मंत्रों से ही होते हैं जो सभी पदार्थों के भीतर ध्वनि की पश्यन्ति व परा अवस्था में कम्पन करते हुए तरंगों के रूप में रश्मियों के रूप में निरन्तर गूँज रहे हैं तथा इन्हीं वेद मन्त्रों से ही ब्रह्माण्ड के सभी पदार्थों की रचना होती है। सृष्टि की आदि में हुए 4 ऋषियों ने समाधि की अवस्था में अपने अन्तःकरण वा आत्मा के माध्यम से ईश्वर की प्रेरणा से उन सभी ईश्वरीकृत मन्त्रों को जाना। वे सभी मन्त्र ही वेद कहलाये।
यद्यपि ऋषियों के अतिरिक्त संसार का कोई अन्य मनुष्य वेद के इस यथार्थ वैज्ञानिक स्वरूप को नहीं जानता। वेद मंत्रों से ब्रह्माण्ड का निर्माण व जितनी भी व्याख्या ऊपर मैंने की है, वेद व वेद मंत्रों से ब्रह्माण्ड के निर्माण की प्रक्रिया, यह ऋषियों के अतिरिक्त और कोई भी नहीं जानता। हमारे ऋषि लोग इसे भली-भाँति जान लिया करते थे व इसका सम्पूर्ण ज्ञान ऋषियों को हो जाता था। आप लोगों को यह भी बतला दूँ कि वेद में तथा ऋषिकृत ग्रँथों में अनेकत्र स्थान पर यह संकेत है कि वेद मंत्रों से ही सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड का निर्माण होता है, किन्तु वेद व ऋषिकृत ग्रँथों को न समझ पाने से साधारण जन व यहां तक कि सभी वैदिक विद्वान् भी यह आज तक नहीं जान व समझ पाऐ कि वेद मंत्रों से यह सृष्टि बनती है। इसका मुख्य कारण यह है कि उनके पास तर्क शक्ति, वैज्ञानिक बुद्धि, ऊहा का अभाव है। वेद व अनेक ऋषिकृत ग्रन्थ विज्ञान के ग्रन्थ हैं। केवल संस्कृत व्याकरण, निरुक्त, निघण्टु आदि के परम्परागत अध्ययन के बल पर वेदों व ऋषिकृत ग्रँथों को नहीं समझा जा सकता। उसे समझने के लिए वैदिक संस्कृत व्याकरण, निरुक्त, निघण्टु, छन्द शास्त्र, ब्राह्मण ग्रन्थ, वेदांग, आरण्यक, शाखाएं आदि अनेक ऋषिकृत ग्रँथों का पूर्ण ज्ञान इसके साथ ही ईश्वरीय प्रेरणा, ईश्वर प्रदत्त प्रतिभा, उच्च कोटि की तर्क शक्ति, ऊहा, वैज्ञानिक बुद्धि से सम्पन्न, विज्ञान की उच्च समझ रखने वाला व पवित्र आत्मा का होना अनिवार्य है। वस्तुतः ऋषियों के पश्चात् वर्तमान में केवल श्रद्धेय आचार्य अग्निव्रत जी नैष्ठिक ही ऐसे ऋषि कोटि के महात्मा हैं, जिन्होंने अपनी कठोर साधना, परिश्रम, पुरुषार्थ, तर्क शक्ति, ऊहा से वेद व ऋषिकृत ग्रँथों पर शोध व अनुसंधान करके यह जाना है। अतएव यह खोज आचार्य जी की है। आचार्य जी द्वारा रचित ‘वेदविज्ञान-आलोकः’ ग्रन्थ का गहन अध्ययन करेंगे, तो इसे और भी अच्छे व विस्तार से आप लोग जान पाएंगे।
इस प्रकार यदि यह सिद्ध हो जाये कि सभी वेद मंत्रों से ही सम्पूर्ण पदार्थों व समस्त ब्रह्माण्ड का निर्माण होता है, जो ब्रह्माण्ड के सभी पदार्थों के भीतर ध्वनि के परा व पश्यन्ति अवस्था में सर्वत्र गूंज रहें है, जब यह वैज्ञानिक आधार व प्रमाण से सिद्ध हो जाएगा, तो सभी वैज्ञानिकों व समस्त संसार के समक्ष यह पूर्ण व वैज्ञानिक रूप से, वैज्ञानिक आधार पर, वैज्ञानिक प्रमाण से यह स्वतः सिद्ध हो जाएगा कि वेद ही ईश्वरकृत रचना है, तब संसार का कोई भी मनुष्य वेद के ईश्वरकृत होने को नकार नहीं पायेगा, जिससे स्वतः ही संपूर्ण विश्व में यह सिद्ध हो जाएगा कि केवल वेद ही ईश्वरकृत व ब्रह्मांडीय रचना है, जिससे वेद सम्पूर्ण विश्व में स्थापित होगा, जो आने वाले कुछ ही वर्ष में ही संसार के वैज्ञानिकों को यह बात समझ आ जाएगी, यदि वे पूर्वाग्रहों से मुक्त हो सकें तो।
यद्यपि मैं पुनः यह स्पष्ट कर दूं कि वेद को किसी वैज्ञानिक से सर्टिफिकेट व प्रमाण पत्र लेने की आवश्यकता नही कि वेद ईश्वरकृत है अथवा नहीं? क्योंकि वेद स्वतः प्रमाण है ईश्वरकृत होने का परन्तु समय की यही मांग है कि यदि वैज्ञानिक दृष्टिकोण, आधार व प्रमाण से वेद ईश्वरकृत सिद्ध हो जाये सम्पूर्ण विश्व के वैज्ञानिकों के समक्ष तो वेद को सम्पूर्ण जगत् के लोग स्वीकार करेंगे। वेद व वैदिक धर्म की स्थापना विश्व में स्वतः हो जायेगी। वेद को वैज्ञानिकों के समक्ष ईश्वरकृत सिद्ध करने का केवल यही एक मार्ग है, अन्य कोई भी दूसरा मार्ग व माध्यम नही, क्योंकि केवल इसी वैज्ञानिक ठोस प्रमाण से ही यह सिद्ध किया जा सकता है, समस्त वैज्ञानिकों के समक्ष कि वेद ही ईश्वर कृत रचना है, इससे वेद व वैदिक धर्म की स्थापना सम्पूर्ण विश्व में हो सकेगी व विश्व के सम्पूर्ण मानवों का कल्याण होगा। श्रद्धेय आचार्य जी द्वारा बहुत पूर्व ही यह सिद्ध किया जा चुका है। जैसा कि मैंने पूर्व ही बतलाया कि आगामी कुछ ही समय में विश्व के समस्त बड़े वैज्ञानिकों को कोई भी इस तथ्य का बोध हो जायेगा परन्तु बिना शासन के सहयोग वैज्ञानिकों द्वारा धार्मिकता व पूर्वाग्रहों के त्याग के बिना यह सम्भव नहीं है। आचार्य जी योगेश्वर श्री भगवान् कृष्ण जी महाराज के कथन ‘कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन’ को शिरोधार्य करके आगे बढ़ रहे हैं। आचार्य जी के पुरुषार्थ से वेद व वैदिक धर्म की स्थापना सम्पूर्ण विश्व में अवश्य होगी, ऐसा हमें आशा व विश्वास करना चाहिए।
आशा करता हूँ कि वेद के इस वास्तविक सत्य यथार्थ वैज्ञानिक स्वरूप को जानकर आप सभी प्रियजनों को गर्व महसूस हो रहा होगा, जिस ईश्वरकृत वेद के बारे में अब तक आप सभी अनभिज्ञ थे।
- इंजीनियर संदीप आर्य
ईश्वर के अस्तित्व पर नये सिरे से विचार
अब हम ईश्वर के अस्तित्व पर नये सिरे से विचार करते हैं हमने अब तक वैज्ञानिकों से जो भी चर्चा सृष्टि विज्ञान पर की है, उससे एक विचार यह सामने आता है कि वैज्ञानिक 'क्यों' प्रश्न का उत्तर नहीं देते क्योंकि उनकी दृष्टि में यह विज्ञान का विषय नहीं है। हम संसार में नाना स्तरों पर निम्न प्रश्नवाचक शब्दों का सामना करते हैं
1. क्यों
2. किसने
3. किसके लिए
4. क्या
5. कैसे आदि
इन प्रश्नों में से 'क्या', 'कैसे' के उत्तर के विषय में वर्तमान विज्ञान विचार करने का प्रयास करता प्रतीत हो रहा है। यद्यपि इन दोनों ही प्रश्नों का पूर्ण समाधान तो विज्ञान के पास नहीं परन्तु प्रयास अवश्य ईमानदारी से हो रहा है। अन्य प्रश्न 'क्या', 'किसने' एवं 'किसके लिए इन तीन प्रश्नों के विषय में विचार करना भी आधुनिक विज्ञान के लिए किंचिदपि रुचि का विषय नहीं है। हम इन प्रश्नों के आशय पर क्रमशः विचार करते हैं
क्यों यह प्रश्न प्रयोजन की खोज के लिए प्रेरित करता है। हम निःसन्देह सारे जीवन नाना प्रकार के कर्मों को करते एवं नाना द्रव्यों का संग्रह करते हैं। इन सबका कोई न कोई प्रयोजन अवश्य होता है। कोई भी बुद्धिमान् प्राणी किसी न किसी प्रयोजन हेतु ही कोई प्रवृत्ति रखता है। मूर्ख मनुष्य भले ही निष्प्रयोजन कर्मों में प्रवृत्त रहता हो, बुद्धिमान् तो कदापि ऐसा नहीं करेगा। संसार पर विचार करें कि यह क्यों बना व क्यों संचालित हो रहा है? इसकी प्रत्येक गतिविधि का कोई न कोई प्रयोजन अवश्य है। 'क्यों' प्रश्न की उपेक्षा करने वाला कोई वैज्ञानिक क्या यह मानता है कि सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड निष्प्रयोजन रचना है? हमारे विचार से प्रत्येक मनुष्य को सर्वप्रथम 'क्यों' प्रश्न का उत्तर ही खोजने का यत्न करना चाहिये। जिस प्रकार वह कोई कर्म करने से पूर्व उसका प्रयोजन जानता है, उसी प्रकार इस सृष्टि के उत्पन्न होने, किसी शरीरधारी के जन्म लेने का प्रयोजन जानने का भी प्रयत्न करना चाहिये। वर्तमान विज्ञान के इस प्रश्न से दूर रहने से ही आज वह अनेकों अनुसन्धान करते हुए भी उनके प्रयोजनव दुष्प्रभाव पर विचार नहीं करता है। इसी कारण मानव को अपने विविध क्रियाकलापों, यहाँ तक कि जीने के भी प्रयोजन का ज्ञान नहीं होने से भोगों की अति तृष्णा में भटकता हुआ अशान्ति व दुःखों के जाल में फंसता जा रहा है।
• किसने यह प्रश्न 'क्यों' से जुड़ा हुआ है। कोई कार्य किस प्रयोजन के लिए हो रहा है, इसके साथ ही इससे जुड़ा हुआ अन्य प्रश्न यह भी उपस्थित होता है कि उस कार्य को किसने सम्पन्न किया अथवा कौन सम्पन्न रहा है अर्थात् उसका प्रायोजक कौन है? इस सृष्टि की प्रत्येक क्रिया का एक निश्चित प्रयोजन है, साथ ही उसका प्रायोजक कोई चेतन तत्व है। कोई जड़ पदार्थ प्रायोजक नहीं होता। जड़ पदार्थ प्रयोजन की सामग्री तो बन सकता है परन्तु उसका कर्ता अर्थात् प्रायोजक नहीं। चेतन तत्व ही जड़ तत्व पर साम्राज्य व नियन्त्रण करता है। चेतन तत्व स्वतन्त्र होने से कर्त्तापन का अधिकारी है, जबकि जड़ पदार्थ स्वतन्त्र नहीं होने से कर्तृत्व सम्पन्न नहीं हो सकता।
● किसके लिए यह प्रश्न इस बात का विचार करता है कि किसी कर्ता ने कोई कार्य किया
वा कर रहा है, तो क्या वह कार्य स्वयं के लिए किया वा कर रहा है अथवा अन्य किसी चेतन तत्व के लिए कर रहा है? यहाँ कोई उपभोक्ता होगा और उपभोक्ता भी चेतन ही होता है। जड़ पदार्थ कभी भी न तो स्वयं का उपभोग कर सकता है और न वह दूसरे जड़ पदार्थों का उपभोग कर सकता है।
• क्या- यह प्रश्न पदार्थ के स्वरूप की पूर्णतः व्याख्या करता है। जगत् क्या है? इसका स्वरूप क्या है? मूल कण क्या हैं? ऊर्जा व द्रव्य क्या है? बल क्या है? इन सब प्रश्नों का समाधान इस क्षेत्र का विषय है। वर्तमान विज्ञान तथा दर्शन शास्त्र दोनों इस प्रश्न का उत्तर देने का यथासम्भव प्रयास करते हैं। इसका क्षेत्र बहुत व्यापक है। वर्तमान विज्ञान इस प्रश्न का सम्पूर्ण उत्तर देने में समर्थ नहीं है। जहाँ विज्ञान असमर्थ हो जाता है, वहाँ वैदिक विज्ञान किंवा दर्शन शास्त्र इसका उत्तर देता है।
कैसे- कोई भी क्रिया कैसे सम्पन्न होती है? जगत् कैसे बना है? द्रव्य व ऊर्जा कैसे व्यवहार करते हैं? बल कैसे कार्य करता है? इन सभी प्रश्नों का समाधान इस क्षेत्र का विषय है। वर्तमान विज्ञान इस क्षेत्र में कार्य करता है परन्तु इसका भी पूर्ण सन्तोषप्रद उत्तर इसके पास नहीं है। अन्य प्रश्नों के उत्तर जाने बिना इसका सन्तोषप्रद उत्तर मिल भी नहीं सकता। इन पांच प्रश्नों के अतिरिक्त अन्य कुछ प्रश्न भी हैं, जिनका समायोजन इन पांचों प्रश्नों में ही प्रायः हो सकता है। अब हम सृष्टि उत्पत्ति के सन्दर्भ में क्यों व किसने प्रश्नों पर क्रमशः विचार करते हैं.
(क) Big Bang Theory के सन्दर्भ में -
पूर्वोक्त Big Bang Theory में अनेक प्रश्न निम्नानुसार उपस्थित हैं
• अनन्त सघन व अनन्त तापयुक्त शून्य आयतन वाले पदार्थ में अकस्मात् विस्फोट क्यों हुआ तथा इसे किसने किया?
• यदि Steven Weinberg के Big Bang पर विचार करें तो, वहाँ भी क्यों व किसने प्रश्न उपस्थित होंगे ही। यदि चेतन नियन्त्रक सत्ता को स्वीकार किया जाये, तो कहा जा सकता है कि उसने किया और जीवों के उपयोग में आने योग्य बुद्धिमत्तापूर्ण सृष्टि का निर्माण करने के लिए विस्फोट किया परन्तु अनीश्वरवादी इसका उत्तर कभी नहीं दे सकते। एक वैज्ञानिक ने मुझसे पूछा कि यदि ईश्वर मानें, तो भी यह प्रश्न उठेगा कि ईश्वर ने अकस्मात् आज से लगभग 13.6 अरब वर्ष पूर्व ही क्यों विस्फोट किया? तो इसके उत्तर में ईश्वरवादी तो उचित उत्तर दे सकता है। चेतन तत्व इच्छा व ज्ञान शक्ति से सम्पन्न होता है। वह किसी कार्य का समय व प्रयोजन अपनी बुद्धि से निश्चित कर सकता है। कोई चिड़िया पेड़ से अमुक समय पर क्यों उड़ी? मैं अमुक समय पर अमुक कार्य क्यों करने बैठा? में भूख लगने पर भोजन करू वा नहीं करूँ, यह मेरी इच्छा व विवेक का विषय है, यहाँ 'क्यों' प्रश्न उचित नहीं है परन्तु वृक्ष से पत्ता क्यों गिरा? बादल अभी क्यों बरसने लगे, पानी नीचे की ओर क्यों बह रहा है? इन प्रश्नों का उत्तर अवश्य देने योग्य है। यहाँ इच्छा एवं विवेक नहीं है।
इस कारण ईश्वरवादी Big Bang के समय व प्रयोजन के औचित्य को सिद्ध कर सकता है, अनीश्वरवादी कभी नहीं। मेरे यह कहने का प्रयोजन यह नहीं है कि ईश्वर के द्वारा Big Bang सम्भव है अर्थात् यदि बिग बैंग थ्योरिस्ट ईश्वर की सत्ता को मान लें, तो Big Bang Theory सत्य हो सकती है। नहीं, ईश्वर तत्व भी वर्तमान वैज्ञानिकों वाले Big Bang को सम्पन्न नहीं कर सकता है। Big Bang कैसे होता है? इसका समाधान ईश्वरवाद से भी नहीं मिल सकता है। ईश्वर भी अपने नियमों अर्थात् मूलभूत भौतिकी के नियमों के विरुद्ध कार्य नहीं कर सकता। हमने Big Bang Theory की समीक्षा में दर्शाया है कि इस थ्योरी में भौतिकी के कितने मूलभूत नियमों का उल्लंघन होता है? हाँ, यदि किसी लोक में विस्फोट माना जाये, वह लोक भी अनादि न माना जाये, साथ ही भौतिकी के पूर्वोत नियमों का उल्लंघन न हो, तब ईश्वर द्वारा विस्फोट किया जा सकता है परन्तु उस एक विस्फोट से ही सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड का निर्माण होना सम्भव नहीं है। शून्य से ईश्वर भी सृष्टि की रचना नहीं कर सकता है। सृष्टि रचना के लिए अनादि जड़ उपादान कारण की आवश्यकता अवश्य होती है परन्तु जड़ पदार्थ में स्वयं गति, क्रिया नहीं होती, इस कारण इन्हें उत्पन्न करने में ईश्वर की भूमिका अवश्य होती है। अनन्त पदार्थ (अनन्त तापअनन्त द्रव्यमान) से सान्त ऊर्जा व सान्त द्रव्यमान वाले ब्रह्माण्ड की उत्पत्ति क्यों होती है? इसका उत्तर अनीश्वरवादी नहीं दे सकता, जबकि ईश्वरवादी इसका उत्तर देते हुए कह सकता है कि ईश्वर अपने प्रयोजनानुसार अनन्त पदार्थ से कुछ पदार्थ को उपयोग में लाकर ब्रह्माण्ड की रचना कर सकता है। जिस प्रकार लोक में कोई व्यक्ति पदार्थ विशेष से कुछ भाग लेकर अपनी इच्छा का प्रयोजनानुसार किसी वस्तु विशेष का निर्माण करने के लिए स्वतंत्र है, उसकी इच्छा वा प्रयोजन पर कोई अन्य व्यक्ति प्रश्न
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Riglengीसकते हैं या vaidic physicn youtube channel पर पीडियो देख सकते
उपस्थित नहीं कर सकता, उसी प्रकार अनन्त पदार्थ से कुछ पदार्थ लेकर परमात्मा सान्त द्रव्यमान व ऊर्जा वाले ब्रह्माण्ड की रचना करता है। हम इस पर यह प्रश्न नहीं कर सकते कि उसके अनन्त पदार्थ का शेष भाग का उपयोग क्यों नहीं किया अथवा अनन्त द्रव्यमान वा ऊर्जा से युक्त ब्रह्माण्ड क्यों नहीं बनाया? वैसे अभी तो यह भी प्रश्न अनुत्तरित है कि ब्रह्माण्ड सान्त है वा अनन्त? हमारी दृष्टि में ब्रह्माण्ड ईश्वर की अपेक्षा सान्त तथा हमारी अपेक्षा अनन्त है। हम जिस पदार्थ को ऐसा समझते हैं कि वह ब्रह्माण्ड बनाने में काम में नहीं आया, वह हमारी अल्पज्ञता ही है। वस्तुतः जो पदार्थ ऐसा है, वह भी ब्रह्माण्ड के संचालन आदि में परोक्ष भूमिका निभाता है। वह पदार्थ ही प्राण, मन, छन्द व मूल प्रकृति के रूप में विद्यमान रहता है। दूसरी बात यह भी है कि प्रारम्भ में द्रव्यमान, ऊर्जा जैसे लक्षण विद्यमान ही नहीं होते।
• दूर बिखरता हुआ पदार्थ संघनित होना कैसे प्रारम्भ करता है? अनीश्वरवादी दूर भागते हुए पदार्थ के संघनित होने का यथार्थ कारण नहीं बता सकता परन्तु ईश्वरवादी इसका इस प्रकार समाधान कर सकता है कि दूर भागते हुए पदार्थ को ईश्वर सृष्टि सृजन हेतु उससे सूक्ष्म तरंग रूप शक्तिशाली पदार्थ के द्वारा रोककर संघनित कर सकता है अर्थात् संघनन की प्रक्रिया प्रारम्भ कर सकता है।
(ख) Eternal Universe
इस मत पर हमने एकमात्र प्रश्न यह उठाया था कि कोई भी कण वा क्वाण्टा, जिसमें किसी भी प्रकार का बल अथवा क्रिया विद्यमान होती है, वह अनादि नहीं हो सकता। साथ ही हमने यह भी कहा था कि जो पदार्थ किसी अन्य सूक्ष्मतर पदार्थ के संयोग से बना है, वह अनादि नहीं हो सकता। इसका कारण भी हम इस सिद्धान्त की समीक्षा के समय बतला चुके हैं। अब हम सृष्टि के अनादित्व पर कुछ अन्य ढंग से विचार करते हैं क्या गति अनादि है- 'सृष्टि शब्द का अर्थ है-"नाना पदार्थों के बुद्धिपूर्वक मेल से नवीन २ पदार्थों की उत्पत्ति का होना" इस मैल की क्रिया में बल और गति का होना अनिवार्य है। प्रश्न यह है कि क्या जड़ पदार्थ में स्वयं बल अथवा गति का होना सम्भव है? इस सृष्टि में जो भी बल व गति दिखाई पड़ रहे हैं, क्या वे मूलतः उसके अपने ही हैं? इस विषय में महर्षि वेदव्यास का कथन है- प्रवृत्तेक्ष (अनुपपत्ते:)" (२.२.२) अर्थात् जड़ पदार्थ में स्वतः कोई क्रिया व गति आदि नहीं हो सकती। उसमें गति व क्रिया को उत्पन्न करने वाला कोई चेतन तत्व अवश्य होता है। हम अपने चतुर्दिक नाना प्रकार की गतियां निरन्तर देखते हैं, जिनमें से किन्हीं वस्तुओं को गति देने वाला चालक दिखाई देता है, तो किन्हीं गतियों का चालक दिखाई नहीं देता। अब हम विचार करते हैं कि कौन-२ से पदार्थ हैं, जिनका चालक दिखाई नहीं देता और कौन-२ से पदार्थ ऐसे हैं, जिनका चालक दिखाई देता है, किंवा दिखाई दे सकता है। हम बस, रेलगाड़ी, कार आदि वाहनों के चालक को प्रत्यक्ष देखते हैं, उनकी इच्छा वा प्रयत्न आदि क्रियाओं को अनुभव करते हैं। हम वाहन की गति को प्रारम्भ करने वाले चेतन वाहन चालक को देखते हैं परन्तु वाहन के इंजन में हो रही क्रियाओं को मात्र ईंधन से उत्पन्न मान लेते हैं। ईंधन वा उससे उत्पन्न ऊर्जा वाहन को कैसे गति देती है, विद्युत बड़े-२ यन्त्रों को कैसे चलाती है, विद्युत चुम्बकीय बल कैसे कार्य करते हैं, ऊर्जा व बल क्या है? इन प्रश्नों का हमें स्पष्ट ज्ञान नहीं है। वर्तमान वैज्ञानिक भी इस बात को स्वीकार करते हैं। Richard P. Fesuman लिखते हैं
"It is important to realize that in physics today, we have no knowledge of what energy is." (Lechnes on Physics- P. 40)
इससे यह स्पष्ट होता है कि आधुनिक भौतिक विज्ञान बल एवं ऊर्जा को ठीक-२ समझ नहीं पा रहा है। वे कैसे कार्य करते हैं, यह अज्ञात है। सूक्ष्म परमाणुअणु अथवा तरंगें कैसे सतत चल रही हैं? यह भी सर्वथा अज्ञात है। Feynman की यह स्पष्ट स्वीकारोक्ति सराहनीय है। वस्तुतः वर्तमान विज्ञान की कार्यशैली की एक सीमा होती है। Science शब्द का अर्थ करते हुए Chambers Dictionary में लिखा है
"Knowledge ascertained by observation and experiment, critically tested, systematized and brought under general principles, esp in relation to the physical world, a department or a branch of such knowledge or study."
Oxford ardhanced leamers dictionary के Indian Edition में Science का अर्थ इस प्रकार किया है
"Organized knowledge esp when obtained by observation and testing of facts, about the physical world, natural laws."
इन दोनों परिभाषाओं से स्पष्ट है कि भौतिक जगत् का जो ज्ञान प्रयोगों, प्रेक्षणों और विविध परीक्षणों से सुपरीक्षित एवं व्यवस्थित होता है, वह आधुनिक विज्ञान की सीमा में माना जाता है। इससे यह भी स्पष्ट होता है कि हमारे पास परीक्षण के जितने अधिक साधन उपलब्ध हों, हमारा विज्ञान उतना अधिक परीक्षण करके सृष्टि के पदार्थों को जान सकता है। अपने तकनीकी साधनों की सीमा के बाहर विद्यमान कोई भी पदार्थ, चाहे कितना भी यथार्थ क्यों न हो, उसे विज्ञान स्वीकार नहीं कर सकता। पश्चिमी देशों के विज्ञान को आइजक न्यूटन से पूर्व गुरुत्वाकर्षण बल का पता नहीं था, गैलीलियो एवं कॉपरनिकस के पूर्व पृथिवी के आकार व परिक्रमण का ज्ञान नहीं था, तब तक उनके लिए गुरुत्वाकर्षण बल, पृथिवी का गोलाकार होना तथा सूर्य के चारों ओर परिक्रमण करना आदि विषय विज्ञान के क्षेत्र में नहीं आते थे अर्थात् ये सभी तथ्य कल्पनामात्र थे। परन्तु जब इन वैज्ञानिकों ने इन पर प्रेक्षण व प्रयोग, तो ये सभी तथ्य वैज्ञानिक सत्य रूप में प्रतिष्ठित हो गये। आज संसार में जो भी नये-२ आविष्कार हो रहे हैं, वे अब से पूर्व कल्पना के विषय थे परन्तु अब विज्ञान व तकनीक बन गये। इसी कारण कहा जाता है कि विज्ञान परिवर्तनशील है। इसे वर्तमान विज्ञान की विशेषता कहें वा अपूर्णता, यह वैज्ञानिकों को स्वयं विचारना चाहिये। मैं सूर्य को देख पाऊँ वा नहीं, इससे सूर्य और उसके विज्ञान में कोई परिवर्तन नहीं आयेगा, तब मैं इसे अपने प्रेक्षणों व प्रयोगों की सीमा में कठोरतापूर्वक क्यों बांधने का हठ करूँ? स्थूल रूप से ज्ञान के दो क्षेत्र हैं। एक वह है, जिसके प्रेक्षण व प्रयोग की तकनीक वर्तमान में उपलब्ध हैं. दूसरा वह है, जिसके प्रयोग व परीक्षण की तकनीक मनुष्य द्वारा विकसित किये जाने की सम्भावना हो सकती है। इसके अतिरिक्त ज्ञान का एक क्षेत्र ऐसा भी है, जिसका प्रयोग व परीक्षण किसी तकनीक से सम्भव नहीं, बल्कि जिसे योग साधनाजन्य दिव्यदृष्टि से ही जाना जा सकता है। इन तीनों प्रकार के ज्ञान में उचित तर्क का होना अनिवार्य है। जो बात सामान्य सुतर्क तथा ऊहा की दृष्टि से ही असम्भव प्रतीत हो, वह उपर्युक्त तीनों प्रकार के ज्ञान में से एक भी ज्ञान के क्षेत्र में नहीं आयेगी। यहाँ ऊहा व तर्क का यथार्थ आशय भी गम्भीर विचारक ही जान सकते हैं, सामान्य व्यक्ति नहीं। जिस-२ व्यक्ति की प्रतिभा, साधना जितनी-२ अधिक होगी, उस उसकी तर्क व ऊहा शक्ति उतनी-२ अधिक यथार्थ होगी। इस कारण वर्तमान विज्ञान को अपने क्षेत्र के बाहर जाकर सुतर्क व ऊहा की दृष्टि से भी विचारना चाहिये। यदि कोई सज्जन यह कहे कि सुतर्क व ऊहा का विज्ञान के क्षेत्र में कोई महत्व नहीं है, मैं उस सज्जन को कहना चाहूंगा कि विज्ञान का जन्म सुतर्क एवं ऊहा रूप दर्शन से ही होता है और जहाँ विज्ञान का सामर्थ्य वा क्षेत्र समाप्त हो जाता है, वहाँ उसकी समाप्ति सुतर्क व ऊहा रूप दर्शन में ही होती है किंवा विज्ञान की चरम सीमा से परे दर्शन की सीमा पुनः प्रारम्भ होती है।
दर्शन व वैदिक विज्ञान
जब न्यूटन ने सेब के फल को वृक्ष से नीचे गिरते देखा था. उस समय उसके मन में इस
ऊहा व तर्क की उत्पत्ति हुई कि सेब नीचे ही क्यों गिरा? उनके इसी विचार से गुरुत्वाकर्षण की खोज और एतदर्थ किये प्रयोग, परीक्षण व प्रयोगों की नींव रखी गयी। सेब गिरते अनेक लोग देखते हैं वा उस समय भी देखते थे परन्तु यह विचार न्यूटन के मस्तिष्क में ही आया, क्योंकि वे तर्क व ऊहा से संपन्न व्यक्ति थे। दर्शन को आंग्ल भाषा में Philosophy कहा जाता है, जिसकी परिभाषा करते हुए Chambers Dictionary में लिखा है
"In pursuit of wisdom and knowledge, investigation contemplation of the nature of being knowledge of the causes and laws of all things. The principles Underlying any sphere of knowledge, reasoning."
Oxford Advanced Learners dictionary में इसे इस प्रकार परिभाषित किया है
"Search for knowledge and understanding of the nature and meaning of the Universe and humanlife."
आज सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड में विद्यमान विभिन्न वस्तुओं, उनके कारण तथा कार्य करने के सिद्धांतों आदि को तर्क व उन्हा के आधार पर जानने का प्रयत्न करना ही दर्शन कहलाता है। इससे स्पष्ट होता है कि विज्ञान व दर्शन दोनों का उद्देश्य ब्रह्माण्ड को जानने का प्रयास करना है। दोनों प्रक्रियाओं में कुछ भेद अवश्य है परन्तु दोनों का उद्देश्य समान है। विज्ञान का क्षेत्र मानव तकनीक के सामर्थ्य तक सीमित है और दर्शन का क्षेत्र चिन्तन, मनन, ऊहा की सीमाओं तक फैला है। कहीं विज्ञान प्रेक्षणादि कर्मों की विद्यमानता में भी मूल कारण वा नियमादि विषयों में भ्रमित हो सकता है, तो कहीं दर्शन भी दार्शनिकों (विशेषकर परम सिद्ध योगियों के अतिरिक्त) की कल्पनाओं के वेग में बहकर भ्रांत हो सकता है। हमें दोनों ही विधाओं का विवेक सम्मत उपयोग करने का प्रयत्न करना चाहिये। अब हम विज्ञान व दर्शन की सीमा और समन्वय को दर्शाते हुए सृष्टि के एक नियम पर विचार करते हैं। जब हम इस बात पर विचार करते हैं कि एक धनावेशित वस्तु दूसरी ऋणावेशित वस्तु को क्यों आकर्षित करती है? तब इस ज्ञान की प्रक्रिया में सर्वप्रथम हमें यह अनुभव होता है। कि विपरीत आवेश वाली कोई भी वस्तु एक-दूसरे को आकर्षित करती हैं। यहाँ आकर्षण बल है, तो उसका कारण भी होगा. यह विचार करना दर्शन का क्षेत्र है। कोई दो वस्तुएं परस्पर निकट आ रही हैं, तब उनके मध्य कोई आकर्षण बल कार्य कर रहा होगा, यह जानना भी दर्शन का क्षेत्र है। अब उन आकर्षित हो रही वस्तुओं पर विपरीत वैद्युत आवेश है, यह बताना विज्ञान का कार्य है। यह आवेश कैसे काम करता है? यह बताना भी विज्ञान का कार्य है। वर्तमान विज्ञान ने जाना कि जब दो विपरीत आवेश वाले कण जब निकट आते हैं, तब उनके मध्य Virtual Photons उत्पन्न और संचरित होने लगते हैं। ये Particles (Photons) ही आकर्षण बल का कारण बनते हैं। ये Particles वर्तमान विज्ञान के मत में उन दोनों कणों के मध्य विद्यमान Space को संकुचित करके उन कणों को परस्पर निकट लाने का कार्य करते हैं। इस प्रक्रिया को जानना विज्ञान का काम है। कदाचित् वर्तमान विज्ञान की सीमा यहाँ समाप्त हो जाती है। इसके आगे दर्शन वा वैदिक विज्ञान की सीमा प्रारम्भ होती है।
जब में पूछता हूँ कि धन व ऋण वैद्युत आवेशयुक्त कणों के परस्पर निकट आते ही Virtual Particles कहाँ से व क्यों प्रकट हो जाते हैं? तब वैज्ञानिक उत्तर देते हैं कि इसका उत्तर हम नहीं जानते। जहां वर्तमान विज्ञान के पास उत्तर नहीं मिलता, वहीं वैदिक विज्ञान वा दर्शन उत्तर देता है। यह उत्तर वैदिक ऋषियों वा वेद के महान विज्ञान से मिलेगा, जिसे हम किसी पृथक् पुस्तक में स्पष्ट करेंगे। यहाँ हम कहना यह चाहते हैं कि वर्तमान विज्ञान किसी बल के कार्य करने की प्रक्रिया को बतलाता है, जबकि वैदिक विज्ञान किंवा दर्शन उसके आगे जाकर यह बतलाते हैं कि वह बल की प्रक्रिया क्यों हो रही है और मूल प्रेरक बल क्या है? वहाँ हम यह सिद्ध करेंगे कि सभी जड़ बलों का मूल प्रेरक बल चेतन परमात्म तत्व का बल है। यहाँ वर्तमान विज्ञान न तो हमारे प्रश्नों का उत्तर देता है और न ईश्वर तत्व के मूल प्रेरक बल की सत्ता को ही स्वीकार करता है। यह दुराग्रह किसी भी वैज्ञानिक के लिए उचित नहीं है। उसे या तो समस्याओं का समाधान करना चाहिये अथवा वैदिक वैज्ञानिकों से समाधान पूछना चाहिए।
यहाँ हम चर्चा कर रहे थे कि ब्रह्माण्ड में आधुनिक विज्ञान द्वारा माने जाने वाले मूलकण अनादि नहीं हो सकते और तब उनमें होने वाली किसी भी प्रकार की क्रिया वा गति भी अनादि नहीं हो सकती। यदि कोई यह हठ करे कि मान लीजिये कि मुलकण प्राणादि सूक्ष्म पदार्थ वा प्रकृति रूप सूक्ष्मतम पदार्थ से बने हैं, तब भी उस सूक्ष्म वा सूक्ष्मतम कारण पदार्थ में गति अनादि क्यों नहीं हो सकती? क्यों इसके लिए चेतन ईश्वर तत्व की आवश्यकता होती है? इस विषय पर हम इस प्रकार विचार करते हैं
इस सृष्टि में जो भी गति एवं बल का अस्तित्व है, वह पदार्थ की सूक्ष्मतम अवस्था तक प्रभावी होता है। पदार्थ के अणुओं में होने वाली कोई भी क्रिया, बल आदि का प्रभाव उसमें विद्यमान आयन्स तक होता है। आयन्स में होने वाली प्रत्येक गति व बल आदि का प्रभाव वा सम्बन्ध इलेक्ट्रॉन्स, प्रोटोन्स, न्यूट्रॉन्स वा क्वार्स व ग्लूआन्स तक होता है। हमारा विश्वास है कि वर्तमान विज्ञान भी इसे मिथ्या नहीं कहेगा। इन सूक्ष्म कणों की संरचना व स्वरूप के विषय में वर्तमान विज्ञान अनभिज्ञ है, इस कारण इनमें होने वाली गति, क्रिया, बल आदि के प्रभाव की व्यापकता के विषय में वह अनभिज्ञ है। यह प्रभाव प्राण, मन व वाक् तत्वों तक व्याप्त होता है, जो मूल प्रकृति व ईश्वर में समाप्त हो जाता है। वस्तुतः ईश्वर तत्व में कोई क्रिया नहीं होती और प्रकृति में क्रिया ईश्वरीय प्रेरणा से होती है, परन्तु उससे प्रकृति का मूल स्वरूप परिवर्तित हो जाता है। यह सब ज्ञान वर्तमान विज्ञान या तकनीक के द्वारा होना सम्भव नहीं है। गति व बल की व्याप्ति के पश्चात् हम यह भी विचार करें कि इस ब्रह्माण्ड में हो रही प्रत्येक क्रिया अत्यन्त बुद्धिमत्तापूर्ण ढंग से हो रही है। समस्त सृष्टि अनायास किसी क्रिया का परिणाम नहीं है, बल्कि प्रत्येक क्रिया अत्यन्त व्यवस्थित व विशेष प्रयोजनानुसार हो रही है। मूलकण, क्वाण्टा आदि सूक्ष्म पदार्थ किंवा विभिन्न विशाल लोक लोकान्तर आदि पदार्थ जड़ होने से न तो बुद्धिमत्तापूर्ण क्रियाएं कर सकते हैं और न वे अपनी क्रियाओं का प्रयोजन ही समझ सकते हैं।
Stephen Hawking, जिन्होंने अपनी पुस्तक The Grand Design में ईश्वर की सत्ता को अपने अवैज्ञानिक कृतकों के द्वारा नकारने का असफल प्रयास किया है, वहीं शरीर में जीवात्मा की सत्ता को भी अस्वीकार करने का असफल प्रयत्न किया है। वे उसमें रोबोट एवं परग्रही जीव में भेद भी करते हैं, पुनरपि परग्रही जीव में स्वतन्त्र इच्छा व बुद्धियुक्त आत्मा को नहीं मानते। यही हठ वर्तमान विज्ञान को विनाशकारी भोगवादी मार्ग पर ले जा रही है। वे लिखते हैं
"How can one tell if a being has free will? If One encounters an alien how can one tell if it is just a robot or it has a Mind of its own? The behavior of a robot would be would be completely determined, unlike that of a being with free will. Thus one could in principle detect a robot as a being whose actions can be predicted. As we said in Chapter 2, this may be impossibly difficult if the beings
large and complex. We cannot even solve exactly the equations for three or more particles interacting with each other. Since an alien the size of a human would contain about a thousand trillion trillion particles even if the alien were a robot, it would be impossible to sole the equations and predict what it would do. We would therefore have to say that any complex being has free will-not as a fundamental feature, but as an effective theory, admission of our inability to do the calculations that would enable us to predict its actions."
(The Grand Design- P. 178)
यहाँ पाठक विचारें कि यदि Thousand rillion trillion particles ही बुद्धि, इच्छा की उत्पत्ति का कारण हो सकते हैं, तब क्या रोबोट में इतने कण नहीं होते? वह भी उन्हीं मूलकणों से बना है, जिनसे हमारा शरीर बना है। अणुओं के स्तर पर ही भेद है, अन्यथा लगभग परमाणुओं के स्तर पर कोई भेद नहीं है, मूलकण स्तर पर तो नितान्त समानता है। तब कैसे कणों की संख्या मात्र के कारण भेद को मान लेते हैं और जीव के व्यवहार को केवल इसी आधार पर अज्ञेय बता देते हैं। आज एक मनुष्य अनेकों स्वचालित रोबोट्स का निर्माण कर सकता है परन्तु क्या अनेकों रोबोट्स है मिलकर भी बिना मनुष्य की प्रेरणा व नियन्त्रण के एक मनुष्य तो क्या, स्वयं एक रोबोट का निर्माण भी कर सकते हैं? इस अवैज्ञानिकता व दम्भपूर्ण पुस्तक में जन्म, मरण, इच्छा आदि को जिस प्रकार समझाया है, वह वास्तव में हॉकिंग साहब को वैज्ञानिक के स्थान पर मात्र एक प्रतिक्रियावादी दुराग्रही नास्तिक दार्शनिक के रूप में प्रस्तुत करता है। इसे पढ़कर मेरे मन में इनके प्रति जो सम्मान था, वह लगभग समाप्त हो गया है। उनके प्रत्येक तर्क का उत्तर सरलता से दिया जा सकता है परन्तु इस ग्रन्थ में जीव की सत्ता की सिद्धि आवश्यक नहीं है. पुनरपि यहाँ हम संक्षेप
में कुछ विचार कर रहे हैं।
रोबोट में इच्छा, ज्ञान, प्रयत्न, द्वेष, सुख व दुःख ये कोई गुण नहीं होते। वह किसी मनुष्य द्वारा निर्मित व संचालित होता है। उधर कोई भी जीवित प्राणी किसी अन्य द्वारा संचालित नहीं होता है.. बल्कि प्रत्येक कर्म को करने में स्वतन्त्र होता है। आज हॉकिंग साहब जैसे जो कोई वैज्ञानिक इच्छा, ज्ञान आदि गुणों से युक्त व्यवहार की कथित व्याख्या करके जीवत्मा की सत्ता को नकारने का प्रयास करते हैं, वह वस्तुतः इस प्रकार ही है, जैसे कोई व्यक्ति किसी हलवाई द्वारा बनाये जा रहे व्यजनों की व्याख्या में आग, पानी, आटा, शक्कर, दूध, घी, कड़ाही, चम्मच आदि सबके कार्यों को बता रहा हो इन खाद्य पदार्थों में नाना परिवर्तनों की रासायनिक प्रक्रिया बता रहा हो परन्तु हलवाई की चर्चा ही न कर रहा हो, बल्कि उसके अस्तित्व को ही नकार रहा हो। ऐसी कथित वैज्ञानिक व्याख्याएं वास्तव में अवैज्ञानिक व दुराग्रहपूर्ण ही होती हैं।
ये वैज्ञानिक इसी प्रकार इस सृष्टि की वैज्ञानिक व्याख्या करते समय उसके निर्माता, नियन्त्रक वा संचालक असीम बुद्धि व बल से संपन्न चेतन परमात्मतत्व की उपेक्षा ही नहीं करते, बल्कि उसके अस्तित्व को ही नकारने में एड़ी से चोटी तक का जोर लगाते हैं। हम निःसन्देह वैज्ञानिकों की इस वैज्ञानिक व्याख्याओं की सराहना करते हैं। निश्चित ही वे मूल भौतिकी के क्षेत्र में सतत गम्भीर अनुसन्धान कर रहे हैं और करना भी चाहिये परन्तु इस सम्पूर्ण उपक्रम में चेतन नियन्त्रक, नियामक तत्व को सर्वथा उपेक्षित कर देते हैं। यही कारण है कि विज्ञान वर्तमान मूल भौतिकी की अनेक समस्याओं को आज तक सुलझा नहीं पाया है। इसी कारण विज्ञान की History of the lime में भारी त्रुटियां हैं, ऊर्जा द्रव्य संरक्षण के भंग होने की समस्या है, 'क्यों' व 'क्या' जैसे प्रश्नों का उत्तर न मिल पाना समस्या है, वस्तुतः सर्वत्र समस्याएं ही समस्याएं हैं।
इस सबके लिखने का अभिप्राय यही है कि सम्पूर्ण जड़ जगत् में जो भी बल व गति विद्यमान है, उस सबके पीछे चेतन ईश्वर तत्व की ही मूल भूमिका है, उधर प्राणियों के शरीर में आत्मा की भूमिका रहती है। प्रत्येक गति के पीछे किसी न किसी बल की भूमिका होती है। केवल बल की भूमिका से गति यदृच्छया, निष्प्रयोजन एवं अव्यवस्थित होगी परन्तु सृष्टि एक व्यवस्थित, बुद्धिगम्य व सप्रयोजन रचना है, इस कारण इसमें बल के साथ महती प्रज्ञा की भी भूमिका अवश्य है। बल व बुद्धि किंवा इच्छा, ज्ञान आदि का होना केवल चेतन में ही सम्भव है। यही चेतन तत्व ईश्वर कहलाता है। इस तत्व पर विचार करना वर्तमान विज्ञान के सामर्थ्य की बात नहीं है, इस कारण वर्तमान वैज्ञानिकों को भौतिक विज्ञान के साथ-२ दर्शन शास्त्र, जहाँ ईश्वर, जीव रूपी सूक्ष्मतम चेतन एवं प्रकृति, मन, प्राण आदि सूक्ष्मतर जड़ पदार्थों का विचार किया जाता है, पर भी गम्भीर चिन्तन करना चाहिए, इससे वर्तमान भौतिक विज्ञान की अनेक समस्याओं का समाधान करने में सहयोग मिलेगा। पंचावयव से ईश्वर की सिद्धि
महर्षि गौतम ने किसी सिद्धान्त (Theory) के निरूपण के उपायों के पांच अवयव बतलाये हैं
"प्रतिज्ञाहेतूदाहरणोपनयनिगमनान्यवयवाः” (न्या.द.१.१.३२) अर्थात् ये पांच अवयव इस प्रकार हैं
(1) प्रतिज्ञा = गति अनित्य है।
(2) हेतु = क्योंकि हम इसे उत्पन्न व नष्ट होते देखते हैं।
(3) उदाहरण= जैसे लोक में जड़ पदार्थों वा चेतन प्राणियों द्वारा नाना प्रकार की गतियों का उत्पन्न होना देखा जाता है, साथ ही उन गतियों का विराम भी चेतन द्वारा होना देखा जाता है।
(4) उपनय= उसी प्रकार अन्य गतियां भी अनित्य हैं।
(5) निगमन= सभी दृष्ट वा अदृष्ट गतियां अनित्य हैं। गति की अनित्यता की सिद्धि के साथ इसी प्रकार गति के पीछे चेतन कर्ता के अस्तित्व की सिद्धि करते हैं
(1) प्रतिज्ञा = गति मूलतः चेतन के बल द्वारा उत्पन्न व नियन्त्रित होती है।
अब बुद्धिगम्य कार्यों में चेतन तत्व की भूमिका पर विचार करते हैं
(1) प्रतिज्ञा = प्रत्येक बुद्धिगम्य, व्यवस्थित रचना के पीछे चेतन तत्व की भूमिका होती है।
(2) हेतु = क्योंकि हम चेतन प्राणियों द्वारा बुद्धिगम्य कार्य करते देखते हैं।
(3) उदाहरण- जैसे हम अपनी बुद्धि के द्वारा नाना प्रकार के कार्यों को सिद्ध करते हैं।
(4) उपनय= उसी प्रकार सृष्टि में विभिन्न बुद्धिगम्य रचनाओं के पीछे ईश्वर रूपी अदृष्ट चेतन की भूमिका होती है।
(5) निगमन= सभी प्रकार की बुद्धिगम्य रचनाओं किंवा सम्पूर्ण सृष्टि की प्रत्येक क्रिया के पीछे चेतन तत्व की अनिवार्य भूमिका होती है।
इस प्रकार संयोगजन्य पदार्थों के अनादि व अनन्त न हो सकने के साथ-२ विभिन्न गति, बल व बुद्धिमत्तापूर्ण रचनाओं के पीछे चेतन तत्व की अनिवार्य भूमिका होती है। कुछ कार्यों में जीव रूपी चेतन की भूमिका होती है। इसी कारण महर्षि वेदव्यास ने लिखा “सा च प्रशासनात्”-(ब्र.सू.१.३.११) अर्थात् इस सम्पूर्ण सृष्टि की नाना क्रियाएं उस ब्रह्म के प्रशासन से ही सम्पन्न होती हैं।
इस प्रकार जो भी पदार्थ सूक्ष्म कारण पदार्थों के संयोग से बनता है, तथा जो किसी अन्य से प्रेरित गति, बल, क्रिया आदि गुणों से युक्त होता है, वह पदार्थ अनादि नहीं हो सकता, जबकि जो पदार्थ ऐसे सूक्ष्मतम रूप में विद्यमान होता है, जिसका कोई अन्य कारण विद्यमान नहीं हो, वह अनादि हो सकता है। इससे प्रकट हुआ कि मूल प्रकृति रूप पदार्थ में जहाँ कोई गति आदि गुण विद्यमान नहीं रहते अनादि होता है। इसी अनादि पदार्थ से सर्वोच्च नियंत्रक, नियामक, सर्वशक्तिमान्, सर्वव्यापक व सर्वज्ञ ईश्वर तत्व इस सृष्टि की रचना समय-२ पर करता रहता है। कभी सृष्टि, तो कभी प्रलय
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