সামবেদ ৮০ - ধর্ম্মতত্ত্ব

ধর্ম্মতত্ত্ব

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धर्म मानव मात्र का एक है, मानवों के धर्म अलग अलग नहीं होते-Theology

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স্বাগতম

15 April, 2021

সামবেদ ৮০

 ঋষিঃ-পাযুর্ভারদ্বাজঃ। দেবতা-অগ্নিঃ। ছন্দঃ-ত্রিষ্টুপ। স্বরঃ-ধৈবতঃ। কাণ্ডম্ আগ্নেয়ম্।।

সনাদগ্নে মৃণসি যাতুধানান্ন ত্বা রক্ষাঁসি পৃতনাসু জিগ্যুঃ।
অনু দহ সহমূরান্ক্যাদো মা তে হেত্যা মুক্ষত দৈব্যাযাঃ। সামবেদ-৮০
सनादग्ने मृणसि यातुधानान्न त्वा रक्षाꣳसि पृतनासु जिग्युः । अनु दह सहमूरान्कयादो मा ते हेत्या मुक्षत दैव्यायाः ॥

পদঃ-সনাত্। অগ্নে। মৃণসি। য়াতুধানান্। য়াতু। ধানান্। ন। দহ। সহমূরান্। সহ। মূরান্। কয়াদঃ। কয়। অদঃ। মা। তে। হেত্যাঃ। মুক্ষত। দৈব্যাযাঃ।।

#পদার্থ-( অগ্নে) হে পরিশুদ্ধকারী অজ্ঞতা নাশকারী পরমাত্মান্! আপনি ( য়াতুধানান্) নিজেদের তধা অন্যের প্রতি যাতনা ধারণকারী পীড়া বিতরণকারী পাপবিচার তথা পাপীজনকে ( সনাত্-মৃণসি) নিত্য যা সর্বদা "সনাত্ নিত্যে-সর্বদা বা"[ অব্যয়ার্থনিবন্ধনম্] সহিংসতা করে নষ্ট করে ( ত্বা রক্ষাংসি পৃতনাসু ন জিগ্যুঃ) আপনি, রাক্ষস-যাদের থেকে রক্ষা করা উচিত এই পাপচিন্তার সংঘর্ষ সংগ্রামে "পৃতনাঃ সংগ্রাম নাম"[নিঘ০ ২/১৭] জয়ী হতে পারে না—আপনার দণ্ডবিধানকে উলঙ্ঘন করতে পারে না ( মূরান্ কয়াদঃ -সহ-অনুদহ) মূঢ়- অজ্ঞানপরায়ণ তথা মাংস ভক্ষককে একসাথে ভস্ম করে - তাদের তুচ্ছ করে অক্ষম করে তোলে "লডর্থে লোট্" ( দৈব্যয়াঃ হেত্যাঃ) আপনারঐশ্বরিক দৃষ্টিশক্তি, বজ্রধ্বনি দ্বারা"ইতি-বজ্রনাম" নিঘ০ ২/২০] ( তে মা মূক্ষত) তারা না ছুটতে সক্ষম-না ছুটতে পারবে।।

#ভাবার্থ-পরমাত্মা সদা বা অনন্তকালের জন্য বেদনাদায়ক চিন্তা-পাপ এবং পাপীকে ধ্বংস করেন,পাপ এবং পাপী তাঁর কাছে তুচ্ছ করতে সক্ষম কোন পাপ ও পাপীকে তার ঐশ্বরিক বজ্রপাত থেকে রক্ষা করা যায় না,তাঁর চিন্তার শক্তি পাপীদের থেকে রক্ষা করে।।

বিশেষ -ঋষি:-পায়ুঃ(উপাসক যিনি নিজেকে সংশোধনের গুণাবলী দিয়ে রক্ষা করেন) ( ভাষ্যম্- স্বমী ব্রহ্মমুনি পরিব্রাজক)

हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार

पदार्थान्वयभाषाः - हे (अग्ने) अग्रणी परमात्मन् ! अथवा शत्रुसंहारक राजन् ! आप (सनात्) चिरकाल से (यातुधानान्) पीड़ादायक, घात-पात, हिंसा, उपद्रव आदि दोषों को और दुष्टजनों को (मृणसि) विनष्ट करते आये हो। (रक्षांसि) काम-क्रोध-लोभ आदि और ठग-लुटेरे-चोर आदि राक्षस (त्वा) आपको (पृतनासु) आन्तरिक और बाह्य देवासुर-संग्रामों में (न जिग्युः) नहीं जीत पाते। आप (कयादः) सुख-नाशक दुर्विचारों तथा दुष्टजनों को (सहमूरान्) समूल (अनुदह) एक-एक करके भस्म कर दीजिए। (ते) वे दुष्टभाव और दुष्टजन (ते) आपके (दैव्यायाः) विद्वज्जनों का हित करनेवाले (हेत्याः) दण्डशक्तिरूप वज्र से एवं शस्त्रास्त्रों से (मा मुक्षत) न छूट सकें ॥८॥ इस मन्त्र में अर्थश्लेषालङ्कार है, वीर रस है ॥ भावार्थभाषाः - हे धर्मपालक, विधर्मविध्वंसक, सद्गुणप्रसारक जगदीश्वर वा राजन् ! आपके प्रशंसक हम जब-जब मानसिक या बाह्य देवासुर-संग्राम में काम-क्रोध-लोभ-मोह आदिकों में और ठग-लुटेरे-हिंसक-चोर-शराबी-व्यभिचारी-भ्रष्टाचारी आदि दुष्टजनों से पीड़ित हों, तब-तब आप हमारे सहायक होकर उन्हें जड़-समेत नष्ट करके हमारी रक्षा कीजिए। दुर्जनों का यदि हृदय-परिवर्तन सम्भव हो तो उनका राक्षसत्व नष्ट करके उन्हें शुद्ध अन्तःकरणवाला कर दीजिए, जिससे संसार में सज्जनों की वृद्धि से सर्वत्र सुख और सौहार्द की धारा प्रवाहित हो ॥८॥ इस दशति में परमात्माग्नि को जागृत करने का, अग्नि, पूषन् और जातवेदस् नामों से परमात्मा के गुणों का और उसके द्वारा किये जानेवाले राक्षस-विनाश का वर्णन होने से तथा मनुष्यों को परमात्मा की पूजा की प्रेरणा किये जाने से इस दशति के विषय की पूर्व दशति के विषय के साथ संगति है ॥ प्रथम प्रपाठक में द्वितीय अर्ध की तृतीय दशति समाप्त ॥ प्रथम अध्याय में अष्टम खण्ड समाप्त ॥

टिप्पणी:१. ऋ० १०।८७।१९, देवता अग्नी रक्षोहा, कयादो इत्यत्र ‘क्रव्यादो’—इति पाठः। अथ० ५।२९।११, ८।३।१८, उभयत्र सहमूराननु दह क्रव्यादो इति तृतीयः पादः। २. याति हिंसाकर्मा। यातुर्हिंसा। यातोर्निधानभूता इति यातुं विदधति इति वा यातुधानाः—इति भ–०। ३. कयादः। क्रव्यशब्दस्य रेफवकारयोश्छन्दसि वर्णलोपेन कय इत्येतद् भवति। कयं ये अदन्ति ते कयादः क्रव्यादाः। मांसस्य भक्षयितॄनित्यर्थः—इति वि०। तदेव भरतसायणोरभिमतम्। ४. सहमूरान् सहभूतान् मूढान्, मूर्खानित्यर्थः—इति वि०। मूढेन सहितान्—इति भ–०। ५. हन्तेः हिनोतेर्वा हेतिः—इति भ०।

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