गायत्री मन्त्र का वैज्ञानिक भाष्य - ধর্ম্মতত্ত্ব

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13 July, 2021

गायत्री मन्त्र का वैज्ञानिक भाष्य

गायत्री मन्त्र का वैज्ञानिक भाष्य

भूर्भुवः स्वः। तत्सवितुर्वरेण्यं भर्गो देवस्य धीमहि। धियो यो नः प्रचोदयात्।। (यजुर्वेद - 36/3)

भाष्यकार – आचार्य अग्निव्रत नैष्ठिक (वैदिक वैज्ञानिक)
বাংলা ভাষায় পড়তে হলে নীচে দেখুন
[वर्तमान में विश्व के एकमात्र वैदिक वैज्ञानिक व सम्पूर्ण विश्व में वर्तमान काल के वेदों के सबसे बड़े महाप्रकाण्ड ज्ञाता]
प्रस्तुति – इंजीनियर संदीप आर्य
यह मन्त्र (व्याहृति रहित रूप में) यजु.3/35; 22/9; 30/2; ऋ. 3/62/10; सामवेद 1462 में भी विद्यमान है। यह ऐतरेय ब्राह्मण में भी अनेकत्र आया है। इनमें से यजुर्वेद 30/2 में इस मन्त्र का ऋषि नारायण तथा अन्यत्र विश्वामित्र है। देवता सविता, छन्द निचृद् बृहती एवं स्वर षड्ज है। व्याहृतियों का छन्द दैवी बृहती तथा स्वर व्याहृतियों सहित सम्पूर्ण मन्त्र का मध्यम षड्ज है। महर्षि दयानन्द ने सर्वत्र ही इसका भाष्य आध्यात्मिक किया है। केवल यजुर्वेद 30/2 के भावार्थ में आधिभौतिक का स्वल्प संकेत भी है; शेष आध्यात्मिक ही है। एक विद्वान् ने कभी हमें कहा था कि गायत्री मन्त्र जैसे कुछ मन्त्रों का आध्यात्मिक के अतिरिक्त अन्य प्रकार से भाष्य हो ही नहीं सकता। हम संसार के सभी वेदज्ञों को घोषणापूर्वक कहना चाहते हैं कि वेद का प्रत्येक मन्त्र इस सम्पूर्ण सृष्टि में अनेकत्र Vibrations (कंपन) के रूप में विद्यमान है। इन मन्त्रों की इस रूप में उत्पत्ति पृथिव्यादि लोकों की उत्पत्ति से भी पूर्व में हो गयी थी। इस कारण प्रत्येक मन्त्र का आधिदैविक भाष्य (वैज्ञानिक भाष्य) अनिवार्यतः होता है। त्रिविध अर्थ प्रक्रिया में सर्वाधिक व सर्वप्रथम सम्भावना इसी प्रकार के अर्थ की होती है। इस कारण इस मंत्र का आधिदैविक अर्थ (वैज्ञानिक अर्थ) नहीं हो सकता, ऐसा विचार करना वेद के यथार्थ स्वरूप से नितान्त अनभिज्ञता का परिचायक है।
सर्वप्रथम हम इस मन्त्र का महर्षि दयानन्द जी कृत आध्यात्मिक भाष्य प्रस्तुत करते हैं-
पदार्थ:–
हे मनुष्यो! जैसे हम लोग (भूः) कर्मकाण्ड की विद्या (भुवः) उपासना काण्ड की विद्या और (स्वः) ज्ञानकाण्ड की विद्या को संग्रहपूर्वक पढ़के (यः) जो (नः) हमारी (धियः) धारणावती बुद्धियों को (प्रचोदयात्) प्रेरणा करे उस (देवस्य) कामना के योग्य (सवितुः) समस्त ऐश्वर्य के देनेवाले परमेश्वर के (तत्) उस इन्द्रियों से न ग्रहण करने योग्य परोक्ष (वरेण्यम्) स्वीकार करने योग्य (भर्गः) सब दुःखों के नाशक तेजःस्वरूप का (धीमहि) ध्यान करें, वैसे तुम भी इसका ध्यान करो।।
भावार्थ:–
इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। जो मनुष्य कर्म, उपासना और ज्ञान सम्बन्धिनी विद्याओं का सम्यक् ग्रहण कर सम्पूर्ण ऐश्वर्य से युक्त परमात्मा के साथ अपने आत्मा को युक्त करते हैं तथा अधर्म, अनैश्वर्य और दुःख रूप मलों को छुड़ा के धर्म, ऐश्वर्य और सुखों को प्राप्त होते हैं उनको अन्तर्यामी जगदीश्वर आप ही धर्म के अनुष्ठान और अधर्म का त्याग कराने को सदैव चाहता (ते) है।।
अब हम इस मन्त्र का आचार्य अग्निव्रत जी कृत 2 प्रकार का भाष्य प्रस्तुत करते हैं:–
[नोट:- इस मन्त्र का आचार्य अग्निव्रत जी ने 2 प्रकार का भाष्य किया है, प्रथम आधिदैविक भाष्य अर्थात् वैज्ञानिक भाष्य और द्वितीय आधिभौतिक भाष्य। महर्षि दयानन्द जी ने इस मन्त्र का आध्यात्मिक भाष्य किया है जिसे हमने ऊपर उदधृत किया है]
इस ऋचा का देवता सविता है।
सविता के विषय में ऋषियों का कथन है:–
‘‘सविता सर्वस्य प्रसविता’’ (नि. - 10/31)
‘‘सविता वै देवानां प्रसविता’’ (श. - 1/1/2/17)
‘‘सविता वै प्रसवानामीशे’’ (ऐ. - 1/30)
‘‘प्रजापतिर्वै सविता’’ (तां. - 16/5/17)
‘‘मनो वै सविता’’ (श. - 6/3/1/13)
‘‘विद्युदेव सविता’’ (गो.पू. - 1/33)
‘‘पशवो वै सविता’’ (श. - 3/2/3/11)
‘‘प्राणो वै सविता’’ (ऐ. - 1/19)
‘‘वेदा एव सविता’’ (गो.पू. - 1/33)
‘‘सविता राष्ट्रं राष्ट्रपतिः’’ (तै.ब्रा. - 2/5/7/4)
इससे निम्नलिखित निष्कर्ष प्राप्त होते हैं:–
– सविता नामक पदार्थ सबकी उत्पत्ति व प्रेरणा का स्रोत वा साधन है।
– यह सभी प्रकाशित व कामना अर्थात् आकर्षणादि बलों से युक्त कणों का उत्पादक व प्रेरक है।
– यह सभी उत्पन्न पदार्थों का नियन्त्रक है।
–‘ओम्’ रश्मि रूप छन्द रश्मि एवं मनस्तत्व ही सविता है।
– विद्युत् को भी ‘सविता’ कहते हैं।
– विभिन्न मरुद् रश्मियां एवं दृश्य कण ‘सविता’ कहलाते हैं।
– विभिन्न प्राण रश्मियां ‘सविता’ कहलाती हैं।
– सभी छन्द रश्मियां भी ‘सविता’ हैं।
– तारों के केन्द्रीय भाग रूप राष्ट्र को प्रकाशित व उनका पालन करने वाला सम्पूर्ण तारा भी ‘सविता’ कहाता है।
देवता किसी भी मंत्र का मुख्य प्रतिपाद्य विषय होता है। इस कारण इस मंत्र का मुख्य प्रतिपाद्य ‘ओम्’ छन्द रश्मि, मनस्तत्व, प्राण तत्व एवं सभी छन्द रश्मियां हैं। इस ऋचा की उत्पत्ति विश्वामित्र ऋषि {वाग् वै विश्वामित्रः (कौ. ब्रा. - 10/5), विश्वामित्रः सर्वमित्रः (नि. - 2/24)} अर्थात् सबको आकृष्ट करने में समर्थ ‘ओम्’ छन्द रश्मियों से होती है।
1) आधिदैविक_भाष्य (वैज्ञानिक भाष्य)
(भूः) ‘भूः’ नामक छन्द रश्मि किंवा अप्रकाशित कण वा लोक, (भुवः) ‘भुवः’ नामक रश्मि किंवा आकाश तत्व, (स्वः) ‘सुवः’ नामक रश्मि किंवा प्रकाशित कण, फोटोन वा सूर्यादि तारे आदि से युक्त। (तत्) उस अगोचर वा दूरस्थ सविता अर्थात् मन, ‘ओम्’ रश्मि, सभी छन्द रश्मियां, विद्युत् सूर्यादि आदि पदार्थों को (वरेण्यम् भर्गः देवस्य) सर्वतः आच्छादित करने वाला व्यापक {भर्गः = अग्निर्वै भर्गः (श. - 12/3/4/8), आदित्यो वै भर्गः (जै.उ. - 4/12/2/2), वीर्यं वै भर्गऽएष विष्णुर्यज्ञः (श. - 5/4/5/1), अयं वै (पृथिवी) लोको भर्गः (श. - 12/3/4/7)} आग्नेय तेज, जो सम्पूर्ण पदार्थ को व्याप्त करके अनेक संयोजक व सम्पीडक बलों से युक्त हुआ प्रकाशित व अप्रकाशित लोकों के निर्माण हेतु प्रेरित करने मेें समर्थ होता है, (धीमहि) प्राप्त होता है अर्थात् वह सम्पूर्ण पदार्थ उस आग्नेय तेज, बल आदि को व्यापक रूप से धारण करता है। (धियः यः नः प्रचोदयात्) जब वह उपर्युक्त आग्नेय तेज उस पदार्थ को व्याप्त कर लेता है, तब विश्वामित्र ऋषि संज्ञक मन व ‘ओम्’ रश्मि रूप पदार्थ {धीः = कर्मनाम (निघं. - 2/1), प्रज्ञानाम (निघं. - 3/9), वाग् वै धीः (ऐ.आ. - 1/1/4)}
नाना प्रकार की वाग् रश्मियों को विविध दीप्तियों व क्रियाओं से युक्त करता हुआ अच्छी प्रकार प्रेरित व नियन्त्रित करने लगता है।
भावार्थ – मन एवं ‘ओम्’ रश्मियां व्याहृति रश्मियों से युक्त होकर क्रमशः सभी मरुद्, छन्द आदि रश्मियों को अनुकूलता से सक्रिय करते हुए सभी कण, क्वाण्टा एवं आकाश तत्व को उचित बल व नियन्त्रण से युक्त करती हैं। इससे सभी लोकों तथा अन्तरिक्ष में विद्यमान पदार्थ नियन्त्रित ऊर्जा से युक्त होकर अपनी-2 क्रियाएं समुचित रूपेण सम्पादित करने में समर्थ होते हैं। इससे विद्युत् बल भी सम्यक् नियंत्रित रहते हैं।

सृष्टि_में_इस_ऋचा_का_प्रभाव
इस ऋचा की उत्पत्ति के पूर्व विश्वामित्र ऋषि अर्थात् ‘ओम्’ छन्द रश्मियां विशेष सक्रिय होती हैं। इसका छन्द दैवी बृहती + निचृद् गायत्री होने से इसके छान्दस प्रभाव से विभिन्न प्रकाशित कण वा रश्मि आदि पदार्थ तीक्ष्ण तेज व बल प्राप्त करके सम्पीडित होने लगते हैं। इसके दैवत प्रभाव से मनस्तत्व एवं ‘ओम्’ छन्द रश्मि रूप सूक्ष्मतम पदार्थों से लेकर विभिन्न प्राण, मरुत् छन्द रश्मियां, विद्युत् के साथ-2 सभी दृश्य कण वा क्वाण्टाज् प्रभावित अर्थात् सक्रिय होते हैं। इस प्रक्रिया में ‘भूः’, ‘भुवः’ एवं ‘सुवः’ नामक सूक्ष्म छन्द रश्मियां ‘ओम्’ छन्द रश्मि के द्वारा विशेष संगत व प्रेरित होती हुई कण, क्वाण्टा, आकाश तत्व तक को प्रभावित करती हैं। इससे इन सभी में बल एवं ऊर्जा की वृद्धि होकर सभी पदार्थ विशेष सक्रियता को प्राप्त होते हैं। इस समय होने वाली सभी क्रियाओं में जो-2 छन्द रश्मियां अपनी भूमिका निभाती हैं, वे सभी विशेष उत्तेजित होकर नाना कर्मों को समृद्ध करती हैं। विभिन्न लोक चाहे, वे तारे आदि प्रकाशित लोक हों अथवा पृथिव्यादि ग्रह वा उपग्रहादि अप्रकाशित लोक हों, सभी की रचना के समय यह छन्द रश्मि अपनी भूमिका निभाती है। इसके प्रभाव से सम्पूर्ण पदार्थ में विद्युत् एवं ऊष्मा की वृद्धि होती है परन्तु इस स्थिति में भी यह छन्द रश्मि विभिन्न कणों वा क्वाण्टाज् को सक्रियता प्रदान करते हुए भी अनुकूलता से नियन्त्रित रखने में सहायक होती है।
[नोट:- आचार्य अग्निव्रत जी रचित वेदविज्ञान-आलोकः ग्रन्थ में आपलोग इस ऋचा का और भी विस्तृत वैज्ञानिक प्रभाव देख सकते हैं]
2) आधिभौतिक_भाष्य
{भूः = कर्मविद्याम्, भुवः = उपासनाविद्याम्, स्वः = ज्ञानविद्याम् (म.द.य.भा.36/3)। सविता= योग पदार्थज्ञानस्य प्रसविता (म.द.य.भा.11/3), सविता राष्ट्रं राष्ट्रपतिः (तै.ब्रा.2/5/7/4)}
कर्मविद्या, उपासनाविद्या एवं ज्ञानविद्या इन तीनों विद्याओं से सम्पन्न (सवितुः) (देवस्य) दिव्य गुणों से युक्त राजा, माता-पिता किंवा उपदेशक आचार्य अथवा योगी पुरुष के (वरेण्यम्) स्वीकरणीय श्रेष्ठ (भर्गः) पापादि दोषों को नष्ट करने वाले, समाज, राष्ट्र व विश्व में यज्ञ अर्थात् संगठन, त्याग, बलिदान के भावों को समृद्ध करने वाले उपदेश वा विधान को (धीमहि) हम सब मनुष्य धारण करें। (यः) ऐसे जो राजा, योगी, आचार्य वा माता-पिता और उनके विधान वा उपदेश (नः) हमारे (धियः) कर्म एवं बुद्धियों को (प्रचोदयात्) व्यक्तिगत, आध्यात्मिक, पारिवारिक, सामाजिक, राष्ट्रिय वा वैश्विक उन्नति के पथ पर अच्छी प्रकार प्रेरित करते हैं।
भावार्थ:–
उत्तम योगी व विज्ञानी माता-पिता, आचार्य एवं राजा अपनी सन्तान, शिष्य वा प्रजा को अपने श्रेष्ठ उपदेश एवं सर्वहितकारी विधान के द्वारा सभी प्रकार के दुःखों, पापों से मुक्त करके उत्तम मार्ग पर चलाते हैं। ऐसे माता-पिता, आचार्य एवं राजा के प्रति सन्तान, शिष्य व प्रजा अति श्रद्धा भाव रखे, जिससे सम्पूर्ण परिवार, राष्ट्र वा विश्व सर्वविध सुखी रह सके।

"मैं वैदिक विज्ञान के द्वारा एक अखण्ड, सुखी व समद्ध भारत के निर्माण की आधारशिला रखने का प्रयास रहा हूँ, जिसमें प्रत्येक भारतीय तन, मन, विचारों व संस्कारों से विशुद्ध भारतीय होगा। उसके पास अपना विज्ञान वेदों, ऋषियों व देवों के प्राचीन विज्ञान पर आधारित एवं अपनी भाषा हिन्दी व संस्कृत में होगा। उसे अपने पूर्वजों की प्रतिभा, चरित्र एवं संस्कारों पर गर्व होगा, उसे पाश्चात्य विद्वानों की बौद्धिक दासता से मुक्ति मिलेगी, जिससे लार्ड मैकाले का वर्तमान में साकार हो चुका स्वप्न ध्वस्त हो सकेगा। यह प्यारा राष्ट्र पुनः विश्वगुरु बनकर विश्व को शांति एवं आनंद का मार्ग दिखाएगा। " -आचार्य अग्निव्रत नैष्ठिक

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ও৩ম্ ভূর্ভুবঃ স্বঃ
তৎ সবিতুর্বরেণ্যং
ভর্গো দেবস্য ধীমহি
ধিয়ো য়ো নঃ প্রচোদয়াৎ।।
পদার্থ : (ভূঃ) ‘ভূঃ’ নামক ছন্দরশ্মি কিংবা অপ্রকাশিত কণা বা লোক, (ভুবঃ) ‘ভুবঃ’ নামক রশ্মি কিংবা আকাশ তত্ত্ব, (স্বঃ) ‘সুবঃ’ নামক রশ্মি কিংবা প্রকাশিত কণা , আকাশ কণা বা সূর্যাদি তারা আদিতে যুক্ত । (তত্) ওই অগোচর বা দূরস্থ সবিতা অর্থাৎ মন, ‘ওম্’ রশ্মি, সমস্ত ছন্দরশ্মি, বিদ্যুৎ সূর্যাদি আদি পদার্থকে (বরেণ্যম্ ভর্ঘঃ দেবস্য) সাধারণ-ভাবে আচ্ছাদিতকারী ব্যাপক [ভর্গঃ=অগ্নি বৈ ভর্গঃ শ০ ব্রা০ ১২.৩.৪.৮; আদিত্য বৈ ভর্গঃ জৈ০ উ০ ৪.১২.২.২; বীর্যং বৈ ভর্গহত্রর্ষ বিষ্ণুর্য়জ্ঞঃ শ০ ব্রা০ ১২.৩.৪.৭] আগ্নেয় তেজ, যে সম্পূর্ণ পদার্থকে ব্যাপ্ত করে অনেক সংযোগ সংকোচকারী বল দ্বারা যুক্ত হয়ে প্রকাশিত বা অপ্রকাশিত লোকের নির্মাণ যুক্ত প্রেরিত করতে সমর্থ, (ধীমহি) প্রাপ্ত হয় অর্থাৎ সে সম্পূর্ণ পদার্থ ঐ আগ্নেয় তেজ, বল আদিকে ব্যাপক রূপে ধারণ করেন । (ধিয়ঃ য়ঃ নঃ প্রচোদয়াত্) যখন সে উপযুক্ত অগ্নিতেজ ঐ পদার্থকে ব্যাপ্ত করেন, তখন বিশ্বামিত্র ঋষি জ্ঞান ভিত্তিক মন বা ‘ওম্’ রশ্মি রূপ পদার্থ [ধীঃ=কর্মনাম নিঘ০ ২.১; প্রজ্ঞানাম নিঘ০ ৩.৯; বাক্ বৈ ধীঃ ঐ০ আ০ ১.১.৪] নানা প্রকারের বাক্ রশ্মির বিবিধ দীপ্তি বা ক্রিয়া দ্বারা যুক্ত করিয়ে উত্তম প্রকার প্রেরিত বা নিয়ন্ত্রিত করতে থাকে ।
-মন এবং "ওম্" রশ্মি ব্যাহৃত রশ্মির সাথে যুক্ত হয়ে ক্রমশঃ সমস্ত মরুদ্, ছন্দ আদি রশ্মিকে সক্রিয় করে।সমস্ত কণাদি এবং আকাশ তত্ত্বকে উচিত বল বা নিয়ন্ত্রন করে যুক্ত করে। এই সমস্ত লোক তথা অন্তরিক্ষে বিদ্যমান পদার্থ নিয়ন্ত্রিত উর্জাতে যুক্ত হয়ে থাকার কারণে তাদের ক্রিয়াগুলি যথাযথভাবে সম্পাদন করতে সক্ষম হয়। ইহাদ্বারা সমস্ত বৈদ্যুতিক শক্তিও যথাযথভাবে নিয়ন্ত্রিত হয়।
ভাবার্থ : মন এবং ‘ওম্’ রশ্মি পরিব্যাপ্ত রশ্মির দ্বারা যুক্ত হয়ে ক্রমশঃ সমস্ত মরুত, ছন্দরশ্মির অনুকূলতা থেকে সক্রিয় করিয়ে সমস্ত কণা, পরিণাম এবং আকাশ তত্ত্বকে উচিত বল বা নিয়ন্ত্রণ দ্বারা যুক্ত করেন । ইহাতে সমস্ত লোক তথা অন্তরিক্ষে বিদ্যমান পদার্থ নিয়ন্ত্রিত শক্তি দ্বারা যুক্ত হয়ে নিজে-নিজে ক্রিয়ায় উপযুক্ত রূপে সম্পাদিত করতে সমর্থ হয় । ইহাতে বিদ্যুৎ বলও উত্তমরূপে নিয়ন্ত্রিত থাকে । সৃষ্টির প্রথমে দৈবী গায়ত্রী ছন্দ পরাওম্ প্রকট হয় । পরা ওম্ ২৪ অক্ষর রশ্মির গায়ত্রী ছন্দের নির্মান করে সর্বপ্রথম বিদ্যুৎ বলের নির্মান করেন । উক্ত বিদ্যুৎ তথাকথিত ব্যবহার্য বিদ্যুৎ নন । প্রতিটি ২৪ টি অক্ষরই সূক্ষ সূক্ষ কম্পনরূপী ছন্দ বল যাহা আকাশ আদিকে অবকাশ মুক্ত করে সৃষ্টি নির্মানের জন্য গতি , বল , স্থান , প্রাণ সব কিছুই দান করে থাকে ।
কৃতজ্ঞতাঃ আচার্য অগ্নিব্রত নৈষ্টিক জী
(আধিদৈবিক ভাষ্যঃ যজুর্বেদ ৩৬।৩)

ব্রাহ্মণহস্য মুখসাসীদ্ৰাহ্ রাজন্যঃ কৃতঃ।
উরূ তদস্য অদ্বৈশ্যঃ পদ্ধ্যাং শূদ্রোহঅজায়ত।। যজু০ ৩১।১১
পদার্থঃ হে জিজ্ঞাসু গণ! (অস্য) ঈশ্বরের সৃষ্টিতে (ব্রাহ্মণঃ) গায়ত্রী ছন্দরশ্মি অন্য ছন্দরশ্মির স্থলে মূখ্য স্থানীয় ব্রাহ্মণ' এই ছন্দশ্মি সৃষ্টিতে প্রথম উৎপন্ন হয় [গায়ত্রো বৈ ব্রাহ্মণাঃ।' ঐ০ ব্রা ১.২৮] (মুখ) গায়ত্রী ছন্দরশ্মিই মুখ [ছন্দ সাম মুখ গায়ত্রী।' তা ব্রা ৭.৩.৩.] (আসীত) হইয়া থাকে (ৰাহ্) সূত্ৰাত্মা বায়ু সহ একাদশ প্রাণই বাহু’ (রুদ্রস্য বাহ্।' তৈ০ ব্রা ১.৫.১.১) (রাজন্যঃ) বাল বা পরাক্রমই রাজন্য' ('বীয় বাহ এতদ্ৰাজন্যস্য য় বাহু।' শo ব্রা ৫.৪.১.১৭] (কৃতঃ) করিয়াছে (য়) যে (উর) অনুষ্টুপ ছন্দ সহ সকল প্রকাশক বলই উরূ [অনুষ্টুপছন্দো বিশ্বে দেবা দেবতােরূ।' শo ব্ৰ০ ১০.৩.২.৯] (তত্) সেই (অস্য) তাহাকে (বৈশ্যঃ) সর্বত্র বিস্তারকারী মরুত রশ্মিই বৈশ্য' ('মারুতাে হি বৈশ্য। তৈ০ ব্রা ২.৭.২.২] (প্যা) সেবা এবং অভিমান রহিত (শূদ্রঃ) অগ্নি, সূর্য প্রকাশক বলই শূদ্র' ('তপাে বৈ শূদ্র। শo ব্রা ১৩.৬.২.১০] (অজায়ত) উৎপন্ন হইয়াছে, এই উত্তম ক্রম জানিৰে।।

ভাবার্থঃ হে জিজ্ঞাসু গণ ! গায়ত্রী ছন্দরশ্মিই ব্রাহ্মণ, প্রাক সৃষ্টিতে গায়ত্রী ছন্দই মূখ্য স্থানীয় হইয়া থাকে। সূত্রত্মা বায়ু সহ প্রাণ, অপান, ব্যান, সমান, উদান, নাগ, কূর্ম, কৃকল, দেবদত্ত, ধনঞ্জয় এই একাদশ প্রাণ এবং উপ-প্রাণরশ্মিই রাজন্য ক্ষিত্রিয়]। অনুষ্টুপ্ ছন্দরশ্মিই বৈশ্য, অনুষ্টুপ্ ছন্দরশ্মি পূর্বক্ত ছন্দ [গায়ত্রী, উষ্ণিক ছন্দরশ্মির সাথে কার্যের গতি বৃদ্ধির সাথে-সাথে সৃষ্টি প্রকাশের সহায়ক ভূমিকা পালন করেন এবং গায়ত্রী ও উষ্ণিক ছন্দরশ্মির বল পরাক্রম অর্জনই বৈশ্য কর্ম। তপা বলই শুদ্র, অগ্নি, সূর্য, বিদ্যুৎ এবং কারণরূপ অগ্নি
আদি প্রকাশক বলই সমগ্র সৃষ্টিকে ধারণ করেন এবং পালন-পােষণ-ধারণ করেন এই ধারণ কার্যই তপাে কর্ম জানিবে।।

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'বিবাহ' শব্দটি 'বি' উপসর্গপূর্বক 'বহ প্রাপণে' ধাতুতে 'ঘঅ্' প্রত্যয় যোগ করে গঠিত এবং 'উদ' উপসর্গ হতে...

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