ঋষিঃ-অথর্বা।। দেবতা-বাচস্পতিঃ।। ছন্দঃ-অনুষ্টুপ্।।
উপহুতো বাচস্পতিরুপাস্মান্ বাচস্পতির্হুয়াতাম।
সং শ্রুতেন গমেমহি মা শ্রুতেন বিরাধিষি।।
उप॑हूतो वा॒चस्पति॒रुपा॒स्मान्वा॒चस्पति॑र्ह्वयताम्। सं श्रु॒तेन॑ गमेमहि॒ मा श्रु॒तेन॒ वि रा॑धिषि ॥
মন্ত্রার্থঃ (বাচস্পতিঃ) বানীর স্বামী, পরমেশ্বরের (উপহুতঃ) নিকট আহ্লান করছি, (বাচস্পতিঃ) বাণীর স্বামী (অস্মান্) আমাদেরকে (উপহৃয়তাম্) নিকট ডাকবে। (শ্রুতেন) বেদ বিজ্ঞান দ্বারা (সংগমেমহি) আমরা মিলেমিসে থাকব। (শ্রুতেন) বেদ বিজ্ঞান হইতে (মা বিরাধিষি) আমি আলাদা না হয়ে যাই।।
ভাবার্থঃ ব্রহ্মচারী লোক পরমেশ্বরের আহ্বান করে নিরন্তর অভ্যাস আর সৎকার হইতে বেদাধ্যয়ন করে যার দ্বরা প্রীতি পূর্বক আচার্য পড়াবে ব্রহ্মবিদ্যা তাহার হৃদয়ে স্থিত হয়ে যথাবত উপযোগী হবেন।।
पदार्थान्वयभाषाः -(वाचस्पतिः) वाणी का स्वामी, परमेश्वर (उपहूतः) समीप बुलाया गया है, (वाचस्पतिः) वाणी का स्वामी (अस्मान्) हमको (उपह्वयताम्) समीप बुलावे। (श्रुतेन) वेदविज्ञान से (संगमेमहि) हम मिले रहें। (श्रुतेन) वेदविज्ञान से (मा विराधिषि) मैं अलग न हो जाऊँ ॥
भावार्थभाषाः -ब्रह्मचारी लोग परमेश्वर का आवाहन करके निरन्तर अभ्यास और सत्कार से वेदाध्ययन करें, जिससे प्रीतिपूर्वक आचार्य की पढ़ायी ब्रह्मविद्या उनके हृदय में स्थिर होकर यथावत् उपयोगी होवे ॥ इस सूक्त का यह भी तात्पर्य है कि जिज्ञासु ब्रह्मचारी अपने शिक्षक आचार्यों का सदा आदर सत्कार करके यत्नपूर्वक विद्याभ्यास करें, जिससे वह शास्त्र उनके हृदय में दृढ़भूमि होवे ॥
टिप्पणी:४−उप+हूतः। उप+ह्वेञ् आह्वाने-क्त। समीपं कृतावाहनः, कृतस्मरणः। वाचः+पतिः। म० १ ॥ वाण्याः पालयिता, परमेश्वरः। उप। समीपे। आदरेण। ह्वयताम्। ह्वेञ्-लोट्। आह्वयतु स्मरतु। श्रुतेन। मं० २। अधीतेन, शास्त्रविज्ञानेन। सम्+गमेमहि। सम् पूर्वकात् गम्लृ संगतौ−आशीर्लिङि। समो गम्यृच्छि- प्रच्छि०। पा० १।३।२९। इति आत्मनेपदम्, व्यवहिताश्च। पा० १।४।८२। इति समः क्रियापदेन संबन्धः। संगच्छेमहि, संगता भूयास्म। मा+वि+राधिषि। राध संसिद्धौ। विराध वियोगे लुङि, आत्मनेपदमेकवचनम् इडागमश्च। माङि लुङ्। पा० ३।३।१७५। इति लुङ्। न माङ्योगे। पा० ६।४।७४। इति माङि अटोऽभावः। अहं वियुक्तो मा भूवम् ॥
ভাষ্যঃ পন্ডিত ক্ষেমকরণদাস ত্রিবেদী
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