असित काश्यपो देवलो वा ऋषिः। पवमानः सोमो देवता यवमध्या गायत्री।
अपघ्नन्तो अराव्णः पवमानाः स्वर्दृशः योनौवृतस्य सीदत।। (ऋग्वेद 9.13.9)
अराव्णः = रा दाने (अदा.) धातोर्वनिप्। न´् समासःस्वर्दृक् = असौ (सूर्यः) वाव स्वर्दृक् (ऐ. 4.10), सूर्यदृशः (निरु 1.23)अप + हन् = हटाना, नष्ट करना, दूर करनादेवलः = दीव्यत्यधार्मिणो विजिगीषतीति
कश्यपो वै कूर्मः (श. 7.5.1.5)
कूर्म प्राण से उत्पन्न बन्धन में न आनेवाले तथा धारक बलों से विहीन पदार्थों को नियंत्रित करने वाले सूक्ष्म प्राण विशेष से इस ऋचा रूपी छन्दरश्मि की उत्पत्ति होती है। इसका देवता सोम तथा छन्द गायत्री होने से सोम रश्मियां तेज व बल से विशेष युक्त होती हैं।
आधिदैविक भाष्य - (पवमानाः स्वर्दृशः) सूर्य की ओर आकर्षित होती संयोगोन्मुख सोम रश्मियां (मरुद् वा प्राण रश्मियां अथवा इलेक्ट्राॅन्स की धाराएं) (अपघ्नन्तो अराव्णः) संयोग में बाधक रश्मि आदि पदार्थों को दूर हटाती वा नष्ट करती हैं। (योनौ + ऋतस्य सीदत) ऐसी वे रश्मियां व इलेक्ट्राॅन्स (अग्निर्वा ऋतम्) अग्नि (ऊर्जा) की उत्पत्ति के स्थान अर्थात् सूर्य के केन्द्रीय भाग में प्रतिष्ठित हो जाती हैं।
भावार्थ - सूर्य के केन्द्रीय भाग की ओर धनायनों को ले जाने के लिए अनेक प्रकार की प्राण व मरुद् रश्मियां सूर्य के केन्द्रीय भाग की ओर प्रवाहित होती हैं, जिनके कारण इलेक्ट्राॅन्स की धाराएं भी उसी ओर प्रवाहित होने लगती हैं। फलतः धनायनों का भी प्रवाह भी उसी ओर होने लगता है।
सृष्टि प्रक्रिया पर प्रभाव - सूर्य के अन्दर विद्यमान एवं उसके बाहरी भाग में स्थित विभिन्न प्राण व मरुद् रश्मियां सूर्य के केन्द्रीय भाग की ओर प्रवाहित होने हेतु प्रेरित होती हैं। इसके कारण इलेक्ट्राॅन्स की धाराएं भी केन्द्रीय भाग की ओर प्रवाहित होती हुई अपने साथ प्रोटोन्स वा अन्य धनायनों को आकृष्ट करके ले जाती हैं। इस प्रक्रिया में जो भी बाधक रश्मि आदि पदार्थ हों, उन्हें दूर हटाती हुई ये धाराएं केन्द्रीय भाग में प्रतिष्ठित हो जाती हैं।
आधिभौतिक भाष्य - (पवमानः) संगठन की पवित्र भावना वाला शान्ति का विधायक विद्वान् वा राजा (स्वर्दृशः) ज्ञान की ज्योति को चाहता वा पाता हुआ (अराव्णः) कंजूस, सामाजिक कार्यों के प्रति त्याग की भावना से रहित करें की चोरी करने वाले समाजकण्टकों को (अपघ्नन्तः) दूर करता एवं आवश्यक होने पर उन्हें नष्ट भी करता हुआ (योनौ $ ऋतस्य) सत्य, न्याय व अनुशासन के कारण रूप उत्तम व्यवहार में (सीदत) स्थित रहता है।
भावार्थ - राष्ट्र को सुरक्षित व अखण्ड बनाने हेतु राजा एवं विद्वान् लोग सब में विद्या का प्रकाश करते हुए चोरों व कृपण लोगों को सुधार कर अथवा दण्डित करके सदैव न्याययुक्त व्यवहार के द्वारा प्रजा को सुखी करता है।
अध्यात्मिक भाष्य - (पवमानः) यम-नियमों की साधना से पवित्र हुए अन्तःकरण से युक्त योगी (स्वर्दृशः) परमपिता परमात्मा की पवित्र ज्याति को देखता अर्थात् परब्रह्म का साक्षात्कार करता हुआ (अराव्णः) ब्रह्म-साक्षात्कार में बाधक वृत्तियों को (अपघ्नन्तः) दूर हटाता हुआ (योनौ + ऋतम्) सम्पूर्ण ऋत वा सत्य ज्ञान विज्ञान व आनन्द के स्रोत अर्थात् ब्रह्म में (सीदत) प्रतिष्ठित हो जाता है।
भावार्थ - अन्तःकरण को पवित्र बनाता हुआ योगी ब्रह्म साक्षात्कार करता है। इसके लिए वह मन में उत्पन्न होने वाली मलीन वृत्तियों को दूर हटाता हुआ परम ब्रह्म के आनन्द में रमण करता है।
✍ आचार्य अग्निव्रत नैष्ठिक
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