অথর্ববেদ ৩/৩০/১ - ধর্ম্মতত্ত্ব

ধর্ম্মতত্ত্ব

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21 July, 2021

অথর্ববেদ ৩/৩০/১

                      देवता: चन्द्रमाः, सांमनस्यम् ऋषि: अथर्वा छन्द: अनुष्टुप् स्वर: सांमनस्य सूक्त

                                     সহৃদয়ং সাংমনস্যমবিদ্বেষং কৃণোমি বঃ।
                                   অন্যো অন্যমভি হর্য়ত বত্সং জাতমিবাঘ্ন্যা।।
অথর্ববেদ0 কান্ড ৩ সূক্ত ৩০ এর ১নং মন্ত্রে ঈশ্বর উপদেশ করেছেন, মনুষ্যকে বেদানুগামী হয়ে সত্য গ্রহণ ও অসত্য কে পরিত্যাগ করে সমস্ত ভেদভাব ত্যাগ করে প্রেমের সাথে একজন অপরজনের ভূল সংশোধন করার মাধ্যমে ঐক্যবদ্ধ হয়ে থাকা উচিত, যেমন গাভী নিজ মেজাজ ত্যাগ করে তাঁর বাছুরকে স্নেহ ভরে জিহ্বার দ্বারা চেটে শুদ্ধ করে বাছুর কে দাঁড় করিয়ে দুগ্ধপান করায়।

टिप्पणी:१−तैत्तिरीयारण्यक में पाठ है−ओ३म्। सह नाववतु। सह नौ भुनक्तु। सह वीर्यं करवावहै। तेजस्विनावधीतमस्तु मा विद्विषावहै। तैत्ति० आ० १०।१ ॥ ओ३म्। (सह) वही (नौ) हम दोनों को (अवतु) बचावे। (सह) वही (नौ) हम दोनों को (भुनक्तु) पाले। हम दोनों (सह) मिलकर (वीर्यम्) उत्साह (करवावहै) करें। (नौ) हम दोनों का (अधीतम्) पढ़ा हुआ (तेजस्वि) तेजस्वी (अस्तु) होवे। (मा विद्विषावहै) हम दोनों झगड़ा न करें ॥ भगवान् यास्क मुनि कहते हैं। (अघ्न्या) गौ का नाम है−निघ० २।११। वह अहन्तव्या, [अवध्या न मारने योग्य] अथवा, अघघ्नी [पाप अर्थात् शारीरिक दुःख अथवा दुर्भिक्षादि पीड़ा नाश करनेवाली] होती है−निरुक्त ११।४३ ॥ श्रीमान् महीधर यजुर्वेदभाष्य अ० १ म० १ में लिखते हैं−अघ्न्या गौएँ हैं। गोवध उपपातक भारी पाप है, इसलिये वे न मारने योग्य अघ्न्या कही जाती हैं ॥ १−(सहृदयम्) वृह्रोः षुग्दुकौ च। उ० ४।१०। इति हृञ् हरणे=स्वीकारे कयन्, दुक् च। सहस्य सभावः। सहग्रहणम्। सहवीर्यम्। (सांमनस्यम्) सम्+मनस्-भावे ष्यञ्। समानमननत्वम्। ऐकमत्यम् (अविद्वेषम्)। द्विष वैरे-घञ्। अशत्रुताम्। सख्यम् (कृणोमि) उत्पादयामि। (वः) युष्मभ्यम्। (अन्यो अन्यम्) छान्दसं द्विपदत्वम्। परस्परम्। (अभि) सर्वतः। (हर्यत) हर्य गतिकान्त्योः। कामयध्वम्। (वत्सम्) अ० ३।१२।३। गोशिशुम्। (जातम्) नवोत्पन्नम्। (इव) यथा। (अघ्न्या) अघ्न्यादयश्च। उ० ४।११२। नञि अघे वोपपदे हन्तेर्यगन्तो निपातः। गौः-निघ० २।११। अघ्न्याहन्तव्या भवत्यघघ्नीति वा-निरु० ११।४३। अघ्न्याः। गावः। गोवधस्योपपानकरूपत्वाद्धन्तुमयोग्या अघ्न्या उच्यन्ते-इति श्रीमन्महीधरे यजुर्वेदभाष्ये १।१ ॥

पदार्थान्वयभाषाः -(सहृदयम्) एकहृदयता, (सांमनस्यम्) एकमनता और (अविद्वेषम्) निर्वैरता (वः) तुम्हारे लिये (कृणोमि) मैं करता हूँ। (अन्यो अन्यम्) एक दूसरे को (अभि) सब ओर से (हर्यत) तुम प्रीति से चाहो (अघ्न्या इव) जैसे न मारने योग्य, गौ (जातम्) उत्पन्न हुए (वत्सम्) बछड़े को [प्यार करती है] ॥

भावार्थभाषाः -ईश्वर उपदेश करता है, सब मनुष्य वेदानुगामी होकर सत्य ग्रहण करके एकमतता करें और आपा छोड़कर सच्चे प्रेम से एक दूसरे को सुधारें, जैसे गौ आपा छोड़कर तद्रूप होकर पूर्ण प्रीति से उत्पन्न हुए बच्चे को जीभ से चाटकर शुद्ध करती और खड़ा करके दूध पिलाती और पुष्ट करती है ॥-पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी

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