भूमिका ॥
“यतो धर्मस्ततो जयः” कहो क्या होरहा है ?
महाभारत में उद्योगपर्व के पढ़नेसे विशेषतः १४७, १४८, १४६ अध्यायों के देखने से पता चलता है कि वस्तुतः राज्या धिकारी पाण्डव ही थे। वंशपरम्परा के चित्रसे यह बात स्पष्ठ हो जाती है। 'धृतराष्ट्र' अन्धा था अतः उसको राज्य का एक महीं पहुंच सकता था। 'विदुर' दासी का पुत्र था अतः धड़ भी अनधिकारी था। केवल छोटा 'पाण्डु' ही राज्य का हक़ दार था इसीलिये उसी को गद्दी मिली। किन्तु वह कारण-. विशेषसे वैराग्ययुक्त होकर राजपाट धृतराष्ट्र के सुपुर्द करके: बन को चलागया । त्रिदुर भी धृतराष्ट्र के साथ काम काज की देख भाल करते रहे। इसी कारण लोग भी धृतराष्ट्र को ही संघ कुछ समझने लग गये। पाण्डव उस समय बच्चे थे । इसलिये बात नहीं बढ़ी। जैसे जैसे वे बड़े होने लगे धृतराष्ट्र की विन्ता बढ़ने लगी। उधर दुर्योधन को भी राज्य लेने की सूझी। उसने अपने मामा 'शकुनि' द्वारा द्य त क्रीड़ा का कपट नाटक रचा और 'युधिष्ठिर' का राज पाट सब छीन लिया।" परिणाम यह हुआ कि पाण्डवों को बारह वर्ष वनवास व एक वर्ष अहातवास भोगना पड़ा। इस प्रतिज्ञा के पूर्ण होजाने. पर राज़ा 'द्रुपद' की अध्यक्षता में एक सभा हुई। सबकी संमति से यह पास हुआ कि द्रुपद का पुरोहित कौरवों
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