देवता: अश्वोऽग्निः ऋषि: दीर्घतमा औचथ्यः छन्द: भुरिक्पङ्क्ति स्वर: पञ्चमः
" উপ প্রাগাচ্ছসনং বাজ্যর্বা দেবদ্রীচা মনসাদীধ্যানঃ।
অজঃ পুরো নীয়তে নাভিরস্যানু পশ্চাৎকবয়ো যন্তি রেভাঃ।।" -ঋগ্বেদ ১/১৬৩/১২
उप॒ प्रागा॒च्छस॑नं वा॒ज्यर्वा॑ देव॒द्रीचा॒ मन॑सा॒ दीध्या॑नः।
अ॒जः पु॒रो नी॑यते॒ नाभि॑र॒स्यानु॑ प॒श्चात्क॒वयो॑ यन्ति रे॒भाः ॥ ऋग्वेद १.१६३.१२
पदार्थान्वयभाषाः -जो (दीध्यानः) देदीप्यमान (अजः) कारणरूप से अजन्मा (वाजी) वेगवान् (अर्वा) घोड़े के समान अग्नि (देवद्रीचा) विद्वानों का सत्कार करते हुए (मनसा) मन से (अस्य) इस कलाघर के (शसनम्) ताड़न को (उप, प्रागात्) सब प्रकार से प्राप्त किया जाता है जिससे इसका (नाभिः) बन्धन (पुरः) प्रथम से और (पश्चात्) पीछे (नीयते) प्राप्त किया जाता है जिसको (रेभाः) शब्दविद्या को जाने हुए (कवयः) मेधावी बुद्धिमान् जन (अनु, यन्ति) अनुग्रह से चाहते हैं उसको सब सेवें ॥
भावार्थभाषाः -खैचना वा ताड़ना आदि शिल्पविद्याओं के विना अग्नि पदार्थ कार्यों के सिद्ध करनेवाले नहीं हैं ॥ -स्वामी दयानन्द सरस्वती
[khaichana va taadana aadi shilpavidyaon ke vina agni padaarth kaaryon ke siddh karanevaale nahin hain]
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