Hindi Bhashya 4 VEDAS 👈
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Yajurved Hindi Bhashya : Pandit Harisharan JI
Yajurved Hindi : Rishi Dayanand Bhashya
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Pandit Jaydev Sharma(Arya Samaj)
ऋग्वेद विवरण
इस ऋग्वेद से सब पदार्थों की स्तुति होती है अर्थात् ईश्वर ने जिसमें सब पदार्थों के गुणों का प्रकाश किया है, इसलिये विद्वान् लोगों को चाहिये कि ऋग्वेद को प्रथम पढ़के उन मन्त्रों से ईश्वर से लेके पृथिवी-पर्य्यन्त सब पदार्थों को यथावत् जानके संसार में उपकार के लिये प्रयत्न करें। ऋग्वेद शब्द का अर्थ यह है कि जिससे सब पदार्थों के गुणों और स्वभाव का वर्णन किया जाय वह ‘ऋक्’ वेद अर्थात् जो यह सत्य सत्य ज्ञान का हेतु है, इन दो शब्दों से ‘ऋग्वेद’ शब्द बनता है। ‘अग्निमीळे’ यहां से लेके ‘यथा वः सुसहासति’ इस अन्त के मन्त्र-पर्यन्त ऋग्वेद में आठ अष्टक और एक एक अष्टक में आठ आठ अध्याय हैं। सब अध्याय मिलके चौसठ होते हैं। एक एक अध्याय की वर्गसंख्या कोष्ठों में पूर्व लिख दी है। और आठों अष्टक के सब वर्ग 2024 दो हजार चौबीस होते हैं। तथा इस में दश मण्डल हैं। एक एक मण्डल में जितने जितने सूक्त और मन्त्र है सो ऊपर कोष्ठों में लिख दिये हैं। प्रथम मण्डल में 24 चौबीस अनुवाक, और एकसौ इक्कानवे सूक्त, तथा 1976 एक हजार नौ सौ छहत्तर मन्त्र। दूसरे में 4 चार अनुवाक, 43 तितालीस सूक्त, और 429 चार सौ उन्तीस मन्त्र। तीसरे में 5 पांच अनुवाक, 62 बासठ सूक्त, और 617 छः सौ सत्रह मन्त्र। चौथे में 5 पांच अनुवाक 58 अठ्ठावन सूक्त, 589 पांच सौ नवासी मन्त्र। पांचमें 6 छः अनुवाक 87 सतासी सूक्त, 727 सात सौ सत्ताईस पैंसठ मन्त्र। 6 छठे में छः अनुवाक, 75 पचहत्तर सूक्त, 765 सात सौ पैंसठ मन्त्र। सातमे में 6 छः अनुवाक, 104 एकसौ चार सूक्त, 841 आठ सौ इकतालीस मन्त्र। आठमे में 10 दश अनुवाक, 103 एकसौ तीन सूक्त, और 1726 एक हजार सातसौ छब्बीस मन्त्र। नवमे में 7 सात अनुवाक 114 एकसौ चौदह सूक्त, 1097 और एक हजार सत्तानवे मन्त्र। और दशम मण्डल में 12 बारह अनुवाक, 191 एकसौ इक्कानवे सूक्त, और 1754 एक हजार सातसौ चौअन मन्त्र हैं। तथा दशों मण्डलों में 85 पचासी अनुवाक, 1028 एक हजार अठ्ठाईस सूक्त, और 10589 दश हजार पांचसौ नवासी मन्त्र हैं।
ऋषि : अग्निः ऋषि
मण्डल: 10
सूक्त: 1028
अष्टक: 8
अध्याय: 64
वर्ग: 2024
मण्डल(2): 10
अनुवाक: 85
कुल मन्त्र10552
यजुर्वेद विवरण
जो कर्मकांड है, सो विज्ञान का निमित्त और जो विज्ञानकांड है, सो क्रिया से फल देने वाला होता है। कोई जीव ऐसा नहीं है कि जो मन, प्राण, वायु, इन्द्रिय और शरीर के चलाये बिना एक क्षण भर भी रह सके, क्योंकि जीव अल्पज्ञ एकदेशवर्त्ती चेतन है। इसलिये जो ईश्वर ने ऋग्वेद के मन्त्रों से सब पदार्थों के गुणगुणी का ज्ञान और यजुर्वेद के मन्त्रों से सब क्रिया करनी प्रसिद्ध की है, क्योंकि (ऋक्) और (यजुः) इन शब्दों का अर्थ भी यही है कि जिससे मनुष्य लोग ईश्वर से लेके पृथिवीपर्यन्त पदार्थों के ज्ञान से धार्मिक विद्वानों का संग, सब शिल्पक्रिया सहित विद्याओं की सिद्धि, श्रेष्ठ विद्या, श्रेष्ठ गुण वा विद्या का दान, यथायोग्य उक्त विद्या के व्यवहार से सर्वोपकार के अनुकूल द्रव्यादि पदार्थों का खर्च करें, इसलिये इसका नाम यजुर्वेद है। और भी इन शब्दों का अभिप्राय भूमिका में प्रकट कर दिया है, वहां देख लेना चाहिये, क्योंकि उक्त भूमिका चारों वेद की एक ही है॥
इस यजुर्वेद में सब चालीस अध्याय हैं, उन एक-एक अध्याय में कितने-कितने मन्त्र हैं, सो पूर्व संस्कृत में कोष्ठ बनाके सब लिख दिया है और चालीसों अध्याय के सब मिलके १९७५ (उन्नीस्सौ पचहत्तर) मन्त्र हैं॥
ऋषि : वायु ऋषि
अध्याय: 40
कुल मन्त्र1975
सामवेद विवरण
इस वेद में कुल 1875 मन्त्र संग्रहित हैं। उपासना को प्रधानता देने के कारण चारों वेदों में आकार की दृष्टि से लघुतम सामवेद का विशिष्ट महत्व है। श्रीमद्भगवद्गीता स्वविभूतियों का उल्लेख करते हुए योगेश्वर श्रीकृष्ण ने स्वयं को वेदों में सामवेद कहकर इसकी महिमा का मण्डन किया है – "वेदानां सामवेदोऽस्मि।(श्रीमद्भगवद्गीता 10/22)- वेदों में मैं सामवेद हूँ।"
ऋषि : आदित्य ऋषि
कौथोम शाखा
पूर्वार्चिकः - मन्त्र : 640
महानाम्न्यार्चिकः - मन्त्र : 10
उत्तरार्चिकः - मन्त्र : 1225
रानायाणीय शाखा
पूर्वार्चिकः - मन्त्र : 640
महानाम्न्यार्चिकः - मन्त्र : 10
उत्तरार्चिकः - मन्त्र : 1225
कुल मन्त्र1875
अथर्ववेद विवरण
अथर्ववेद धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष की साधनों की कुन्जी है। जीवन एक सतत संग्राम है। अथर्ववेद जीवन-संग्राम में सफलता प्राप्त करने के उपाय बताता है।
अथर्ववेद युद्ध और शान्ति का वेद है। शरीर में शान्ति किस प्रकार रहे, उसके लिए नाना प्रकार की औषधियों का वर्णन इसमें है। परिवार में शान्ति किस प्रकार रह सकती है, उसके लिए भी दिव्य नुस्खे इसमें हैं। राष्ट्र और विश्व में शान्ति किस प्रकार रह सकती है, उन उपायों का वर्णन भी इसमें है।
यदि कोई देश शान्ति को भंग करना चाहे तो उससे किस प्रकार युद्ध करना, शत्रु के आक्रमणों से अपने को किस प्रकार बचाना और उनके कुचक्रों को किस प्रकार समाप्त करना, इत्यादि सभी बातों का विशद् वर्णन अथर्ववेद में है।
ऋषि : अंगिरा ऋषि
काण्ड: 20
सूक्त: 731
कुल मन्त्र5977
अमृत से सत्य की ओर
ऋषिः परमेष्ठी प्रजापतिः । देवता: अग्निः । छन्दः आर्ची त्रिष्टुप् ।
अग्ने व्रतपते व्रतं चरिष्यामि तच्छकेयं तन्मे राध्यताम्। इदमूहमनृतात् सत्यमुपैमि
-यजु० १।५
हे ( व्रतपते ) व्रतों का पालन करनेवाले (अग्ने) अग्रनायक जगदीश्वर, राजन् व विद्वन् ! मैं ( व्रतं चरिष्यामि ) व्रत का अनुष्ठान करूंगा। (तत् ) उस व्रत को ( शकेयम् ) पालन करने में समर्थ होऊँ। ( तत् मे ) वह मेरा व्रत (राध्यताम् ) सिद्ध हो। वह व्रत यह है कि ( अहं ) मैं ( इदं ) यह ( अनृतात् ) अनृत को छोड़ कर ( सत्यम् ) सत्य को ( उपैमि) प्राप्त होता हूँ।
हे सर्वाग्रणी विश्वनायक जगदीश्वर आप सबसे बड़े व्रतपति हैं। आपने उत्पत्ति-स्थिति-प्रलय, न्याय, निष्पक्षता, परोपकार, सत्यनिष्ठा आदि अनेक व्रतों को स्वेच्छा से ग्रहण किया हुआ है, जिनका आप सदैव पालन करते हैं। अतएव आपको साक्षी रख कर आज मैं भी एक व्रत ग्रहण करता हूँ। वह मेरा व्रत यह है कि आज से मैं अमृत को त्याग कर सदा सत्य को अपनाऊँगा। अब तक मैं अपने जीवन में अनेक अवसरों पर असत्य भाषण और सत्य आचरण करता रहा हूँ, कई बार प्रलोभनों में पड़ कर मन, वाणी और कर्म से असत्य में लिप्त होता रहा हूँ। परन्तु आज मैं आपके संमुख उस असत्य से मुँह मोड़ने की प्रतिज्ञा करता हूँ। मेरे गुरु ने मुझे सिखाया है कि सत्य के ग्रहण करने और असत्य के छोड़ने में सर्वदा उद्यत रहना चाहिए। आप ऐसी शक्ति दीजिए कि इस व्रत का मैं पालन कर सकें।
यदि कभी मैं अपने व्रत को भूल कर सत्य से विमुख होने लगूं तो मेरे हृदय में बैठे हुए आप मुझे मेरा व्रत स्मरण करा कर होनेवाले स्खलन से मुझे बचा लीजिए। ऐसी कृपा कीजिए कि मैं अपने जीवन के अन्त तक इस व्रत का पालन करता रहूँ और इस व्रतपालन से मिलनेवाले सुमधुर फलों के आस्वादन से कृतकृत्य होता रहूँ।
व्रतपति जगदीश्वर के अतिरिक्त अन्य व्रतपतियों को भी मैं अपने इस व्रत का साक्षी बनाता हूँ। यदि मैं अपने राष्ट्र का प्रतिनिधि होकर संयुक्त राष्ट्रसंघ में गया हूँ, तो उसके अध्यक्षरूप व्रतपति के संमुख सदा सत्य का ही पक्ष लेने की प्रतिज्ञा करता हूँ। यदि में राज्यपरिषद् का सदस्य या राज्य का कोई उच्च अधिकारी हूँ तो राष्ट्रनायक के समक्ष प्रण लेता हूँ कि मैं सदा सत्य का ही पक्षपोषण करूंगा। यदि किसी सभा का सदस्य हूँ तो उसके सभापति के संमुख, यदि मैं किसी संस्था का कर्मचारी हूँ तो उस संस्था के अध्यक्ष के संमुख, यदि किसी विश्वविद्यालय या महाविद्यालय का शिक्षक या विद्यार्थी हूँ तो उसके कुलपति या प्राचार्य के संमुख, यदि मैं किसी संघ का सदस्य हूँ तो संघचालक के संमुख और जिस परिवार का मैं अङ्ग हूँ, उस परिवार के गृहपति के संमुख मैं सदा सत्य पर ही चलने का व्रत ग्रहण करता हूँ।
इन सबके अतिरिक्त यज्ञाग्नि भी व्रतपति है। प्रभु ने सृष्टि के आरम्भ में जो व्रत उसके लिए निश्चित कर दिया था, उसी व्रत का वह आज तक पालन करता चला आया है। अतः प्रतिदिन प्रात:सायं अग्निहोत्र करते हुए उस व्रतपति अग्नि के सामने भी सत्य का व्रत लेता हूँ। उस व्रतपति अग्नि की ऊपर उठती हुई ज्वालाएँ नित्य मेरे अन्तरात्मा में सत्य की ज्योति को जागृत करती रहें।
शतपथकार का कथन है कि देवजन सत्य के व्रत का ही आचरण करते हैं, इस कारण वे यशस्वी होते हैं। इसी प्रकार अन्य भी जो कोई सत्यभाषण और सत्य का आचरण करता है, वह यशस्वी होता है।
व्रतग्रहण
पाद–टिप्पणियाँ
१. शकेयम्, शक्लै शक्तौ ।
२. राध्यताम्, राध संसिद्धौ।
३. एतद्ध वै देवा व्रतं चरन्ति यत् सत्यं, तस्मात् ते यश, यशो ह भवति य एवं विद्वांत्सत्यं वदति। -श० १.१.१.५
व्रतग्रहण -रामनाथ विद्यालंकार
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