अथ सृष्टि उत्पत्ति व्याखयास्याम्
वैदिक वाङ्मय में इस विषय पर कई स्थानों पर विचार किया गया है। ऋग्वेद, मुण्डकउपनिषद्, तैत्तिरीयउपनिषद्, प्रश्नोपनिषद्, छान्दोग्यउपनिषद् तथा बृहदारण्यकउपनिषद् में इस विषय पर विस्तार से विचार किया गया है। इन्हीं ग्रन्थों के आधार पर मैं भी इस विषय पर पूर्व में छः लेख लिख चुका हूँ। एक बार पुनः इसी विषय को लिखने का उपक्रम इसलिए करना पड़ रहा है कि आर्य समाज के ही प्रसिद्ध संन्यासी स्वामी ब्रह्मानन्द सरस्वती आन्ध्रप्रदेश ने माह जून 2015 में ‘वैदिकपथ’ पत्रिका में एक लेख प्रकाशित करवाया है, जिसमें सृष्टि की आयु के स्वामी दयानन्द सरस्वती के निर्णय का विरोध किया है।
सृष्टि की उत्पत्ति के विषय में विज्ञान का मानना तो यह है कि सृष्टि की उत्पत्ति Big Bang (भयंकर विस्फोट) के साथ ही प्रारमभ हुई और परिवर्तन के कई चरणों से गुजरती हुई वर्तमान स्थिति में पहुँची है। Big Bang के साथ ही आकाश और समय का कार्य प्रारमभ हुआ। सृष्टि उत्पत्ति का क्रम इस प्रकार रहा- आकाश, ज्वलनशील वायु, अग्नि, जल और निहारिका का मण्डल। निहारिका मण्डल में ही सौर मण्डलों ने स्थान पाया। पृथ्वी की उत्पत्ति सूर्य से छिटक कर अलग होने के बाद धीरे-धीरे परिवर्तित होकर वर्तमान रूप में हुई। श्वास लेने योग्य वायु के बनने, पानी के पीने योग्य होने पर पानी के अन्दर सर्वप्रथम जलचरों को जीवन मिला। फिर क्रमशः जल-स्थलचर, स्थलचर और आकाशचर प्राणियों की उत्पत्ति हुई। सृष्टि उत्पत्ति के पूर्व क्या था? इस विषय में विज्ञान का कहना है कि Big Bang के बाद ही सृष्टि नियम विकसित हुए हैं और उनके आधार पर हम घोषित कर सकते हैं कि भविष्य में कब क्या होगा और वे घोषणाएँ सब सत्य सिद्ध हो रही हैं, अतः हमें Big Bang के पूर्व की स्थिति को जानने की कोई आवश्यकता नहीं है। इसके अज्ञान से हमारे वैज्ञानिक कार्य पर कोई भी प्रभाव पड़ने वाला नहीं है। अस्तु।
वैज्ञानिक विचार धारा पर संक्षेप में वर्णन कर देने के उपरान्त अब हम इस विषय पर वैदिक वाङ्मय के विचार पाठकों के सामने रखने का प्रयास कर रहे हैं। वैदिक वाङ्मय में सृष्टि उत्पत्ति के पूर्व की स्थिति का वर्णन भी किया गया है। पाठकों के लिए नासदीय सूक्त के मन्त्र दिये जा रहे हैं-
नासदासीन्नो सदासीत्तदानीं नासीद्रजो नो व्योमाऽपरोयत्।
किमावरीवः कुहकस्य शर्मन्नभः किमासीद्गहनं गभीरम्।।
-ऋग्वेद 10.129.1
अर्थ- (नासदासीत्) जब यह कार्य सृष्टि उत्पन्न नहीं हुई थी, तब एक सर्वशक्तिमान् परमेश्वर और दूसरा जगत् का कारण विद्यमान था। असत् शून्य नाम आकाश भी उस समय नहीं था क्योंकि उस समय उसका व्यवहार नहीं था। (ना सदासीत्तदानीम्) उस काल में सत् अर्थात् सतोगुण, रजोगुण और तमोगुण मिलाकर जो प्रधान कहाता है, वह भी नहीं था। (नासीद्रजः) उस समय परमाणु भी नहीं थे तथा (नो व्योमाऽपरोयत्) विराट अर्थात् जो सब स्थूल जगत् के निवास का स्थान है, वह (आकाश) भी नहीं था। (किमावरीव…….गभीरम्) जो यह वर्तमान जगत् है, वह भी अत्यन्त शुद्ध ब्रह्म को नहीं ढँक सकता है और उससे अधिक वा अथाह भी नहीं हो सकता है, जैसे कोहरे का जल पृथ्वी को नहीं ढँक सकता है तथा उस जल से नदी में प्रवाह नहीं आ सकता है और न वह कभी गहरा अथवा उथला हो सकता है।
तम आसीत्तमसा गुलमग्रेऽप्रकेतं सलितं सर्वमा इदम्।
तुच्छ्येनावपिहितं यवासीत्तपसस्तन्माहिना जायतैकम्।।
– ऋ. 10.129.3
अर्थ- उस समय यह जगत् अन्धकार से आवृत, रात्रिरूप में जानने के अयोग्य, आकाशरूप सब जगत् तथा तुच्छ अर्थात् अनन्त परमेश्वर के सममुख एकदेशी आच्छादित तथा पश्चात् परमेश्वर ने अपने सामर्थ्य से कारण रूप से कार्य रूप में कर दिया।
न मृत्युरासीदमृतं न तर्हि न रात्र्या अह्न आसीत्प्रकेतः।
आनीदवातं स्वधया तदेकं तस्माद्धान्यन्न परः किं चनास।।
– ऋ. 10.129.2
सृष्टि के पूर्व प्रलयकाल में मृत्यु नहीं थी, मृत्यु के अभाव में अमरता भी नहीं थी। न मारक शक्ति के विपरीत अमृत अथवा सब जीव मुक्तावस्था में थे, ऐसा भी नहीं कह सकते। रात्रि एवं दिन का प्रज्ञान भी नहीं था। उस समय केवल वायु की अपेक्षा न रखने वाला सदा जाग्रत ब्रह्म ही था। उस समय उससे भिन्न, उसके समान अथवा उससे अधिक कुछ भी नहीं था। प्रकृति ऊर्जारूप में परिवर्तित होकर अव्यक्त थी।
फिर सृष्टि की उत्पत्ति कैसे हुई, इस पर तैत्तिरीय उपनिषद् का कहना है-
‘सो कामयत। बहुस्यां प्रजायेयेति। स तपोऽतप्यत। स तपस्तप्त्वा इदं सर्वमसृजत। यदिद किञ्च। तत सृष्टावा तदेवानु प्राविशत्। तदनुप्रविश्य। सच्चत्यच्यामवत्। निरुक्तं चानिरुक्तं च। निलयन चानिलयन च। विज्ञानं चापिज्ञानं च। सत्यं चानृतं च। सत्यमभवत। यदिद किञ्च। तत्सत्यमित्या चक्षते।
-तै.उप. ब्रह्मानन्दवल्ली अनुवाक 6
अर्थ- उसने कामना की कि मैं एक से अनेक हो जाऊँ, तब उसने तप किया। क्रिया का प्रारमभ हो गया। जब यह क्रिया बढ़ते-बढ़ते उग्र रूप में पहुँची, तब उसे तप कहा गया। तप के प्रभाव से यह सब विश्व सृजा गया। सबकी सृष्टि करके वह ब्रह्म सृष्टि में अनुप्रविष्ट हो गया। आगे विपरीत कणों का वर्णन भी किया गया है-
सत्व रजस्तमसा सामयावस्था प्रकृतिः प्रकृतेर्महान् महतोऽहंकारोऽहंकारात् पञ्चतन्मात्राण्युभयमिन्द्रियं पञ्चतन्मात्रेयः स्थूल भूतानि पुरुष इति पञ्च विंशतिर्गण।।
अर्थ- सत्व, रज और तम रूप शक्तियाँ हैं। इन शक्ति रूपों की समावस्था, निश्चेष्ठावस्था प्रकट रूपावस्था को प्रकृति कहते हैं। प्रकृति से अहंकार, अहंकार से पाँच तन्मात्राएँ तथा पञ्चतन्मात्राओं से पाँच स्थूलभूत, स्थूलभूतों से पाँच ज्ञानेन्द्रियाँ, पाँच कर्मेन्द्रियाँ तथा मन उत्पन्न होता है। पुरुष (चेतन सत्ता) इनसे भिन्न हैं। इन 25 पदार्थों को जानना, समझना विवेक में आवश्यक है।
ऋग्वेद में सृष्टि उत्पत्ति परमेश्वर ने इस प्रकार की है-
ब्रह्मणस्पतिरेता सं कर्मारइवाधमत्।
देवानां पूर्व्ये युगेऽसतः सद जायत।।
– ऋ. 10.72.2
प्रकृति और ब्रह्माण्ड के स्वामी परमेश्वर ने दिव्य पदार्थों के परमाणुओं को लोहार के समान धोंका, अर्थात ताप से तप्त किया है। वास्तव में इसी को वैज्ञानिकों ने भयंकर विस्फोट Big Bang कहा है। इन दिव्य पदार्थों के पूर्व युग, अर्थात् सृष्टि के प्रारमभ में अव्यक्त (असत्) प्रकृति से (सत्) व्यक्त जगत् उत्पन्न किया गया है। तैत्तिरीयोपनिषद् ब्रह्मानन्दवल्ली के प्रथम अनुवाक में सृष्टि उत्पत्ति का क्रम भी बताया गया है-
तस्माद्वा एतस्मादात्मन आकाशः समभूतः। आकाशाद्वायुः। वायोरग्निः। अग्नेरापः। अद्भ्यः पृथिवी। पृथिव्या ओषधय। ओषधीयोऽन्नम् अन्नाद् रेतः। रेतसः पुरुषः। स वा एष पुरुषोऽन्नरसमयः।।
अर्थात् परम पुरुष परमात्मा से पहले आकाश, फिर वायु, अग्नि, जल और पृथ्वी उत्पन्न हुई है। पृथ्वी से ओषधियाँ, (अन्न व फल फूल) ओषधियों से वीर्य और वीर्य से पुरुष उत्पन्न हुए, इसलिए पुरुष अन्न रसमय है।
पृथ्वी की उत्पत्ति सूर्य में से छिटक कर हुई है, इस पर कहा गया है-
भूर्जज्ञ उत्तानपदो भूव आशा अजायन्त |
अदितेर्दक्षो अजायत दक्षाद्वदितिः परि।।
– ऋ. 10.72.4
अर्थ- पृथ्वी सूर्य से उत्पन्न होती है। पृथ्वी से पृथ्वी की दशा को बताने वाले भेद उत्पन्न होते हैं। प्रातःकालीन उषा से आदित्य उत्पन्न होता है, अर्थात् दृष्टि गोचर होता है और सांय कालीन उषा आदित्य से उत्पन्न होती है।
सृष्टि उत्पत्ति पर विचार कर लेने पर अब सृष्टि की वर्तमान आयु पर विचार करते हैं। वर्तमान में सृष्टि का वर्णन Friedmann Model के अनुसार किया जाता है। इसमें Big Bang के साथ ही आकाश-समय निरन्तरता का जन्म हो जाता है, अर्थात् समय की गणना Big Bang के प्रारमभ होने के साथ ही शुरू हो जाती है। एक अमेरिकन वैज्ञानिक Edwin Hubble ने 9 विभिन्न आकाश गंगाओं (Galaxies) की दूरी जानने का प्रयत्न किया। उसने बताया कि हमारी आकाश गंगा तो अत्यन्त छोटी है, ऐसी तो करोड़ों आकाश गंगाएँ हैं। साथ ही उसने यह भी बताया कि जो (Galaxy) हमसे जितना अधिक दूर है, उतनी ही अधिक तेजी से वह हम से दूर भागती जा रही है। उसने उनकी हमसे दूर होने की चाल की गति भी ज्ञात कर ली। फिर इस सिद्धान्त पर भी Big Bang के समय तो सब एक ही स्थान पर थे। उन्हें इतना दूर जाने में कितना समय लगा, उसका एक नियम भी खोज लिया।
नियम है- V=HR. यहाँ V आकाश गंगा की हमसे दूर भागने की गति है, R आकाश गंगा की हमसे दूरी है और H Constant है। Edwin Hubble ने यह भी ज्ञात किया कि कोई भी आकाश गंगा जो हमसे d दश लाख प्रकाश वर्ष की दूरी पर है, उसकी दूर हटने की गति 19d मील प्रति सैकण्ड है। अतः अब समय R=106 d प्रकाश वर्ष, T =106×365×24×3600×186000d वर्ष
19d×3600×24×365
=186×109=9.7×109वर्ष
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Saint Augustine ने अपनी पुस्तक The City of God में बताया कि उत्पत्ति की पुस्तक के अनुसार सृष्टि की उत्पत्ति ईसा से 500 वर्ष पूर्व हुई है।
बिशप उशर का मानना है कि सृष्टि की उत्पत्ति ईसा से 4004 वर्ष पूर्व हुई है और केब्रीज विश्वविद्यालय के कुलपति डॉ. लाइटफुट ने सृष्टि उत्पत्ति का समय 23 अक्टूबर 4004 ईसा पूर्व प्रातः 9 बजे बताया है जो हास्यास्पद है। अब हम वैदिक वाङ्मय के आधार पर सृष्टि की आयु पर विचार करते हैं। स्वामी दयानन्द सरस्वती ने ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका के दूसरे अध्याय अथ वेदोत्पत्ति विषय में इस पर विचार किया है कि वेद की उत्पत्ति कब हुई? इससे यह मानना चाहिए कि सृष्टि में मानव की उत्पत्ति कब हुई, क्योंकि मानव के उत्पन्न होने पर ही तो वेद का ज्ञान उसे प्राप्त हुआ है। इससे पूर्व की स्थिति अर्थात् सृष्टि उत्पन्न होने के प्रारमभ से मानव के उत्पन्न होने के समय पर उन्होंने अपने विचार देना उचित नहीं समझा। वास्तव में मनुष्य ने तो अपने उत्पन्न होने के बाद ही समय की गणना प्रारमभ की है। सृष्टि के उस समय की गणना वह कैसे करता, जब बन ही रही थी? वह कैसे जानता कि सृष्टि उत्पन्न होने की क्रिया के प्रारमभ होने से उसके पूर्ण होने तक सृष्टि निर्माण में कितना समय व्यतीत हुआ है? इस पर फिर चर्चा करेंगे। स्वामी दयानन्द सरस्वती ने अपनी गणना में मनुस्मृति के श्लोकों को ही मुखय रूप से काम में लिया है-
अत्वार्याहुः सहस्त्राणि वर्षाणां तत्कृतं युगम्।
तस्य यावच्छतो सन्ध्या सन्ध्यांशश्च तथा विधः।।
-मनु. 1.69
उन दैवीयुग में (जिनमें दिन-रात का वर्णन है) चार हजार दिव्य वर्ष का एक सतयुग कहा है। इस सतयुग की जितने दिव्य वर्ष की अर्थात् 400 वर्ष की सन्ध्या होती है और उतने ही वर्षों की अर्थात् 400 वर्षों का सन्ध्यांश का समय होता है।
इतंरेषु ससन्ध्येषु ससध्यांशेषु च त्रिषु।
एकापायेन वर्त्तन्ते सहस्त्राणि शतानि च।।
-मनु. 1.70
और अन्य तीन-त्रेता, द्वापर और कलियुग में सन्ध्या नामक कालों में तथा सन्ध्यांश नामक कालों में क्रमशः एक-एक हजार और एक-एक सौ कम कर ले तो उनका अपना-अपना काल परिणाम आ जाता है।
इस गणना के आधार पर सतयुग 4800 देव वर्ष, त्रेतायुग 3600 देव वर्ष, द्वापर 2400 वर्ष तथा कलियुग 1200 देव वर्ष के होते हैं। इस चारों का योग अर्थात् एक चतुर्युगी 12000 देव वर्ष का होता है।
दैविकानाम युगानां तु सहस्त्रं परि संखयया।
ब्राह्ममेकमहर्ज्ञेयं तावतीं रात्रिमेव च।। – मनु. 1.72
देव युगों को 1000 से गुण करने पर जो काल परिणाम निकलता है, वह ब्रह्म का एक दिन और उतने ही वर्षों की एक रात समझना चाहिए। यह ध्यान रहे कि एक देव वर्ष 360 मानव वर्षों के बराबर होता है।
तद्वै युग सहस्रान्तं ब्राह्मं पुण्यमहर्विदुः।
रात्रिं च तावतीमेव तेऽहोरात्रविदोजनाः।।मनु. 1.73
जो लोग उस एक हजार दिव्य युगों के परमात्मा के पवित्र दिन को और उतने की युगों की परमात्मा की रात्रि समझते हैं, वे ही वास्तव में दिन-रात = सृष्टि उत्पत्ति और प्रलय काल के विज्ञान के वेत्ता लोग हैं।
इस आधार की सृष्टि की आयु = 12000×1000 देव वर्ष = 12000000 देव वर्ष
12000000×360 = 4320000000 देव वर्ष
12000000 देव वर्ष = 4320000000 मानव वर्ष
यत् प्राग्द्वादशसाहस्त्रमुदितं दैविक युगम्।
तदेक सप्ततिगुणं मन्वन्तरमिहोच्यते।। -मनु. 1.79
पहले श्लोकों में जो बारह हजार दिव्य वर्षों का एक दैव युग कहा है, इससे 71 (इकहत्तर) गुना समय अर्थात् 12000×71 = 852000 दिव्य वर्षों का अथवा 852000×360= 306720000 वर्षों का एक मन्वन्तर का काल परिणाम गिना गया है।
फिर अगले श्लोक में कहा गया है कि वह महान् परमात्मा असंखय मन्वन्तरों को, सृष्टि उत्पत्ति और प्रलय को बार-बार करता रहता है, अर्थात् सृष्टी प्रवाह से अनादि है।
फिर स्वामी दयानन्द सरस्वती संकल्प मन्त्र के आधार पर वेद का उत्पत्ति काल बताते हैं।
ओ3म् तत्सत् श्री ब्रह्मणः द्वितीये प्रहरोत्तरार्द्धे वैवस्वते मन्वन्तरेऽअष्टाविंशतितमे कलियुगे कलियुग प्रथम चरणेऽमुकसंवत्सरायमनर्तु मास पक्ष दिन नक्षत्र लग्न मुहूर्तेऽवेदं कृतं क्रियते च।
यह जो वर्तमान सृष्टि है, इसमें सातवें वैवस्वत मनु का वर्तमान है। इससे पूर्व छः मन्वन्तर हो चुके हैं और सात मन्वन्तर आगे होवेंगे। ये सब मिलकर चौदह मन्वन्तर होते हैं।
इस आधार पर वेदोत्पत्ति की काल गणना इस प्रकार होगी-
छः मन्वन्तरों का समय = 4320000×71×6= 1840320000 वर्ष
वर्तमान मन्वन्तर की 27 चतुर्युगी का काल= 4320000×27= 116640000 वर्ष
अट्ठाइसवीं चतुर्युगी के गत तीन युगों का काल= 3888000 वर्ष
कलियुग के प्रारभ से विक्रम सं. 2072 तक का काल= 3043 + 2072 वर्ष
= 5115 वर्ष
कुल योग = 1840320000 +116640000 + 3888000 +5115 वर्ष
= 1960853115 वर्ष। चूंकि विक्रम संवत् के प्रारमभ तक कलियुग के 3043 वर्ष व्यतीत हो चुके थे और 3044 वाँ वर्ष चल रहा था, इसलिए वर्तमान में 1960853116वाँ वर्ष चल रहा है।
अब कुछ विद्वान् कहते हैं कि सृष्टि की आयु जब मनु 1000 चतुर्युगी मानते हैं और दूसरी तरफ इसी आयु को 14 मन्वन्तर अर्थात् 994 चतुर्युगी कहा जाता है, तो दोनों के अन्तर 6 चतुर्युगों का समन्वय कैसे होगा? इसका उत्तर यह है कि 994 चतुर्युग तो मानव भोग काल है और 6 चतुर्युगों का समय सृष्टि उत्पत्ति के प्रारमभ से लेकर मानव अथवा वेदों की उत्पत्ति तक का है। सृष्टि उत्पत्ति में जो समय लगा है, वह सृष्टि की आयु में माना जावेगा। इसी प्रकार भोग काल 994 चतुर्युगों के अन्त में प्रलय काल प्रारमभ होगा और वह प्रलय की आयु में जोड़ा जायेगा।
ऋग्वेद में स्पष्ट कहा गया है कि काल लगे बिना कोई कार्य नहीं होता-
त्वेषं रूपं कृणुत उत्तरं यत्संपृञ्चानः सदने गोभिरद्भि।
कविबुध्नं परि मर्मृज्यते धीः सा देवताता समिति र्बभूवः।।
– ऋ. 1.95.8
अर्थ- मनुष्य को चाहिए कि (यत्) जो (संपृञ्चानः) अच्छा परिचय करता कराता हुआ (कविः) जिसका क्रम से दर्शन होता है, वह समय (सादने) सदन में (गोभिः) सूर्य की किरणों वा (अद्भिः) प्राण आदि पवनों से (उत्तरम्) उत्पन्न होने वाले (त्वेषम्) मनोहर (बुध्नम्) प्राण और बल सबन्धी विज्ञान और (रूपम्) स्वरूप को (कृणुते) करता है तथा जो (धीः) उत्पन्न बुद्धि वा क्रिया (परि) (मर्मृज्यते) सब प्रकार से शुद्ध होती है (सा) वह (देवताता) ईश्वर और विद्वानों के साथ (समितिः) विशेष ज्ञान की मर्यादा (बभूव) होती है, इस समस्त उक्त व्यवहार को जानकर बुद्धि को उत्पन्न करें।
भावार्थ- मनुष्यों को जानना चाहिये कि काल के बिना कार्य स्वरूप उत्पन्न होकर और नष्ट हो जाये- यह होता ही नहीं है और न ब्रह्मचर्य आदि उत्तम समय के सेवन के बिना शास्त्र बोध कराने वाली बुद्धि होती है, इस कारण काल के परम सूक्ष्म स्वरूप को जानकर थोड़ा-सा भी समय व्यर्थ न खोवें, किन्तु आलस्य छोड़कर समय के अनुसार व्यवहार और परमार्थ के कामों का सदा अनुष्ठान करें।
यह भी ध्यान रखें कि जिस क्रिया में जो समय लगे, वह उसी का होगा। स्वामी जी ने इस प्रकरण में वेद का उत्पत्ति काल बताया है, सृष्टि की आयु नहीं बताई है। यदि सृष्टि की आयु जानना चाहें तो इसमें सृष्टि का उत्पत्ति काल जोड़ दें, तब सृष्टि की आयु होगी-
= 1960853116+25920000= 1986773116 वर्ष
साथ ही सृष्टि की शेष आयु होगी= 4320000000-1986773116= 2333226884 वर्ष सन्धि और सन्ध्यांश काल तो युगों की आयु में पहिले ही जोड़ लिए हैं, फिर मन्वन्तर के प्रारमभ और अन्त में एक सतयुग का जोड़ना व्यर्थ है। स्वामी जी ने ही नहीं, मनु ने भी इसका उल्लेख नहीं किया है। ज्ञान के अभाव में सृष्टि उत्पत्ति काल को न समझ कर 25920000 वर्षों को 15 भागों में व्यर्थ विभाजित कर क्षति पूर्ति करने का प्रयत्न किया गया है। इससे तो यहूदी ही अच्छे हैं, जो सृष्टि की उत्पत्ति 6 दिनों में स्वीकार करते हैं। यदि उनके दिन का मान एक चतुर्युगी मान लें तो उनकी सृष्टि उत्पत्ति की गणना ठीक वेदों के अनुरूप हो जाती है। इति।
– शिवनारायण उपाध्याय
मानव का प्रादुर्भाव कहाँ ?
उत्तर- प्रयोजन कामनामूलक होता है।ब्रह्म को ब्रह्मज्ञानियों ने पूर्णकाम व आप्तकाम बताया है, इसलिये सृष्टि रचना में ईश्वर का कामनामूलक कोई निजी प्रयोजन नहीं रहता। यह एक व्यवस्था है और ईश्वरीय व्यवस्था है, वह स्वयं अपनी व्यवस्था से बाहर नहीं जाता, उसके नियम सत्य हैं और पूर्ण हैं। उनके अनुसार ईश्वर सृष्टि रचना करता है- जीवात्माओं के भोग और अपवर्ग की सिद्धि के लिये। उसका यह कार्य उसकी एक स्वाभाविक विशेषता है, इसमें कभी कोई अन्तर या विपर्यास आने की संभावना नहीं की जा सकती। सृष्टि रचना के द्वारा ही परमात्मा का बोध होता है और इस मार्ग से जीवात्मा मोक्ष को प्राप्त करता है। जब यह प्राप्त नहीं होता, तब कर्मों को करता और उनके अनुसार सुख-दुःख आदि फलों को भोगा करता है, सृष्टि-रचना का यही प्रयोजन है।
निराकार से साकार सृष्टि कैसे ?
प्रश्न- ईश्वर को निराकार माना जाता है, वह निराकार होता हुआ सृष्टि की रचना कैसे करता है? लोक में देखा जाता है कि कोई भीकर्त्ता देहादि साकार सहयोगी के बिना किसी प्रकार की रचना करने में असमर्थ रहता है, तब निराकार ईश्वर इस अनन्त विश्व की रचना करने में कैसे समर्थ होता है?
उत्तर – अनन्त विश्व की रचना करने वाला निराकार ही समर्थ हो सकता है। जहाँ ईश्वर को निराकार माना गया है, वहाँ उसे सर्वव्यापक और सर्वशक्तिमान भी कहा गया है। जैसा कि पहले कहा जा चुका है, ‘सर्वशक्तिमान्’ का यही तात्पर्य है कि वह जगद्रचना में अन्य किसी सहायक की अपेक्षा नहीं रखता, उसमें अनन्त शक्ति व पराक्रम है, उसका चैतन्यरूप सामर्थ्य असीम है, वह उसी सामर्थ्य द्वारा मूल उपादान जड़ प्रकृति को प्रेरित करता है, उसकी अनन्त सामर्थ्ययुक्त व्यवस्था सूक्ष्मातिसूक्ष्म तत्त्वों में सर्वत्र व्याप्त है। वह कण-कण में अपना कार्य किया करती है। जीवात्मा अल्पज्ञ, अल्प शक्ति एवं एकदेशी है। उसे अपने किसी कार्य को संपन्न करने के लिये अन्तरंग साधनकरण (बुद्धि मन आदि) तथा बाह्य साधन देह एवं देहावयवों की अपेक्षा रहती है, इसलिये लोक में देखी गई स्थूल व्यवस्था के अनुसार ऐश्वरीसृष्टि के विषय में ऊहा करना उपयुक्त न होगा।
यदि गभीरतापूर्वक विचार किया जाय तो जीवात्मा द्वारा की जानेवाली प्रेरणाओं में उस स्थिति को पकड़ा जा सकता है, जहाँ किसी साकार सहयोगी की अपेक्षा नहीं जानी जाती। विचार कीजिये, आप कुर्सी पर बैठे हैं, मेज आपके सामने है, मेज पर आपका हाथ निश्चेष्ट रक्खा हुआ है, उससे कुछ दूर मेज के कोने पर कलम रक्खा है, आप उसे उठाकर कुछ लिखना चाहते हैं। आपकी इस इच्छा के साथ ही हाथ में हरकत होती है, वह ऊपर उठता और अँगुलियों में कलम पकड़ कर फिर पहली जगह आ टिकता है। अब विचारना यह है कि हाथ में उठने के लिये जो क्रिया हुई है, वह एक प्रेरणा का फल है, देह के अन्दर बैठा जो आपका चेतन आत्मा है, उसी से यह प्रेरणा प्राप्त होती है। प्रेरणा देने की सीमा में चैतन्य के अतिरिक्त किसी अन्य साकार सहयोगी का समावेश नहीं है। यहाँ केवल चेतन आत्मा प्रेरणा दे रहा है, जो निराकार है। उसके अन्य साधन बुद्धि, मन आदि प्रेर्यमाण सीमा में आते हैं, प्रेरक सीमा में नहीं। इससे यह परिणाम निकलता है कि चैतन्य एक ऐसा तत्त्व है, जो प्रेरणा का अन्य आधार व स्रोत है, जिसमें किसी अन्य साकार सहयोगी की अपेक्षा नहीं रहती। जीव-चेतन की शक्ति जैसे अति सीमित है, ऐसे ब्रह्म-चेतन की शक्ति असीमित है, जैसे जीव केवल देह में प्रेरणा प्रदान करता है, ऐसे परमेश्वर अनन्त सामर्थ्य युक्त होने से अनन्त विश्व को प्रेरित करता है। सृष्टि रचना के विचार में यदि साकार सहयोगी की कल्पना की जाय तो वस्तुतः यह रचना ही असम्भव हो जायेगी, क्योंकि वह सहयोगी भी बिना रचना के असंभव होगा। फलतः अनन्त विश्व की रचना के लिये निरपेक्ष निराकार चैतन्य ही समर्थ हो सकता है, यह निश्चित है।
बिना कारण क्यों नहीं?
प्रश्न– ईश्वर जब सर्वशक्तिमान् है , तो वह बिना कारण के ही जगत् को क्यों नहीं बना देता?
उत्तर – यह संभव नहीं। बिना कारण के कोई कार्य नहीं होता, कारण न होना ‘अभाव’ का स्वरूप है, जो अभाव है, वह कभी भाव रूप में परिणत नहीं हो सकता और न भाव रूप पदार्थ का कभी सर्वथा अभाव होता है। बिना कारण अथवा अभाव से जगत् की उत्पत्ति कहना बन्ध्या पुत्र के विवाह के समान मिथ्या है।
प्रश्न– जब कारण के बिना कुछ नहीं हो सकता, तो कारण का भी कोई कारण मानना होगा, और उसका भी कोई अन्य कारण, इस प्रकार तुमहारे इस कथन में अनवस्था दोष आता है कि कारण के बिना कुछ नहीं हो सकता।
उत्तर– हमने यह नहीं कहा कि कारण के बिना कुछ नहीं हो सकता। ऐसे भी पदार्थ हैं, जो किसी के कारण हैं, पर वे स्वयं किसी के कारण हैं, तो वे स्वयं किसी के कार्य भी हैं। ऐसे पदार्थों को ‘कारण-कार्य’ अथवा ‘प्रकृति-विकृति’ कहा जाता है। जैसे घड़ा मिट्टी से बनता है, मिट्टी पृथ्वीरूप है, पृथ्वी घड़े मकान आदि का कारण होते हुए भी अपने कारणों का कार्य है, अर्थात जिन कारणों से पृथ्वी की रचना होती है, उनका कार्य है। परन्तु जो सब कार्य जगत् का मूलकारण है, उसका और कोई कारण नहीं होता, जगत् का मूल उपादान कारण अनादि पदार्थ है, वह किसी से उत्पन्न या परिणत नहीं होता, यदि ऐसा होता तो वह मूलकारण नहीं हो सकता था। इस प्रकार जैसे जगत् का कर्त्ता निमित्त कारण ईश्वर अनादि है, वैसे ही जगत् का मूल उपादान कारण प्रकृति भी अनादि है। उसका अन्य कोई कारण संभव नहीं, क्योंकि वह कार्य नहीं, केवल कारण है, अतएव अनवस्था दोष की यहाँ संभावना नहीं हो सकती।
अन्यवादों का विवेचन
प्रश्न- आप प्रकृति उपादान से जगत् की सृष्टि कहते हैं, पर अन्य अनेक आचार्यों के सृष्टि की उत्पत्ति के विषय में विविध विचार हैं, क्या उनमें कोई सत्यता नहीं है? उन विचारों को निम्नलिखित वादों के रूप में उपस्थित किया जा सकता है-शून्यवाद, अभाववाद, आकस्मिकवाद, सर्वानित्यत्ववाद, भूतनित्यत्ववाद, पृथक्त्ववाद, इतरेतराभाववाद, स्वभाववाद, जगदनादिवाद, जीवेश्वरवाद आदि। क्या इनके अनुसार सृष्टि की यथार्थ व्याखया संभव नहीं?
उत्तर – इन वादों के आधार पर सृष्टि की सत्य एवं पूर्ण व्याखया होना समभव नहीं, ये सब एकदेशी, अवैदिकवाद हैं, जो किसी एक अंश पर धुँधला-सा प्रकाश डालते हैं, कहीं वह भी नहीं, प्रत्युत प्रकाश की जगह अन्धकार का ही विस्तार करते हैं। जगत् की यथार्थ विद्यमानता पहले दोनों वादों को ठुकरा देती है। किसी वस्तु का होना कहना अथवा उत्पन्न होना बताना और उसे अकस्मात् कहना परस्पर विरोधी हैं। जो वस्तु उत्पन्न होती है, वह निश्चित ही अपने कारणों से होगी, यह अलग बात है कि हम उन कारणों को जान सकें या न जान सकें। सब वस्तु अनित्य है, अथवा भूतनित्य हैं, इसलिए सब वस्तु नित्य हैं, ये कथन अपने ही में मिथ्या है। किसी वस्तु का नित्य या अनित्य होना विशिष्ट निमित्तों पर आधारित है, उत्पन्न होने वाली वस्तु अनित्य तथा उत्पादन-विनाश से रहित वस्तु नित्य कही जाती है, यह एक व्यवस्था है। प्रत्येक वस्तु न नित्य हो सकती है, न अनित्य।
पृथक्त्ववाद आधुनिक रसायन शास्त्र से पर्याप्त सीमा तक मेल रखता है। रसायन शास्त्र के अनुसार आज तक ऐसे एक सौ दो पदार्थों का पता लग चुका है, जो मूल रूप में एक दूसरे से पृथक है, एक दूसरे में किसी का कोई अंश नहीं है, भविष्य में और भी ऐसे अनेक पदार्थों का पता लग जाने की संभावना है। सोना, चाँदी, लोहा, तांबा, पारा, गन्धक, जस्ता, सीसा, कैल्शियम, आक्सीजन, हाइड्रोजन, कॉर्बन, नाईट्रोजन, सिलिकन्, फास्फोरस, ऐल्युमिनिअम, आर्सनिक, प्लैटिनम्आदि सब ऐसे पदार्थ हैं, जो सर्वथा एक दूसरे से पृथक है। किसी में किसी का कोई अंश नहीं है, पर भौतिकी विज्ञान ने ही इस तथ्य को स्पष्ट कर दिया है कि ये सब किन्हीं मूलतत्त्वों के समिश्रण से बने हैं। वे मूल तत्त्व प्रोटॉन, इलैक्ट्रॉन और न्यूट्रॉन् हैं, भारतीय दार्शनिकविचार के अनुसार इन्हें यथाक्रम सत्व, रजस्, तमस् के वर्ग में समझा जा सकता है। वैसे भी उक्त पदार्थों में से प्रत्येक में आकाश, काल, सामान्य (जाति) एवं नियन्ता शक्ति परमात्मा आदि का विद्यमान रहना अनिवार्य है, इसलिये स्वरूप से इनके पृथक रहते भी इनमें अन्य पदार्थों का अस्तित्व रहता ही है।
पदार्थों के इतरेतराभाव से सब पदार्थों का अभाव बताना सर्वथा प्रत्यक्ष विरुद्ध है। गाय घोड़ा नहीं, घोड़ा गाय नहीं, इसलिये न गाय है न घोड़ा, ऐसा कहना नितान्त विचार शून्य है।यद्यपि गाय घोड़ा नहीं है, पर गाय गाय है, घोड़ा घोड़ा है, उनके अपने अस्तित्व को कैसे झुठलाया जा सकता है?
‘स्वभाव’ से जगत् की उत्पत्ति कहना, किस अर्थ को प्रकट करता है, यह विचारणीय है। स्वभाव में ‘स्व’ पद का अर्थ क्या है? यदि पद मूलकारण को कहता है, तो इस पद मात्र के अलग कहने से कोई अन्तर नहीं आता, अपने मूल कारण से जगत् उत्पन्न होता है, यही उसका तात्पर्य हुआ। इसी प्रकार वर्तमान रूप में जगत् को अनादि कहना प्रमाण विरुद्ध है। जागतिक वस्तुओं में परिणाम व परिवर्तन अथवा उत्पादन-विनाश बराबर देखा जाता है, जो इसके बने हुए होने को सिद्ध करता है, इसी रूप में जगत् को अनादि कहना अयुक्त है। पृथिव्यादि पदार्थ अवयव संयोग से बने परीक्षा द्वारा प्रत्यक्ष देखे जाते हैं। यह कहना भी सर्वथा अयुक्त है कि जगत् का कर्त्ता ईश्वर कोई नहीं, जीवात्मा ही सिद्ध अवस्था को प्राप्त होकर जगद्रचना कर सकते हैं। जीवात्मा को सिद्ध अवस्था तक पहुँचने के लिये भी संसार की आवश्यकता है, यह संसार किसने बनाया ? किसी जीवात्मा का अनादि सिद्ध होना सभव नहीं। यदि कोई चेतन आत्मतत्त्व सृष्टि रचना का सामर्थ्य रखने वाला अनादि सिद्ध माना जाता है, तो उसे ही परमात्मा कहा जा सकता है।
सृष्टि का क्रम प्रवाह से अनादि है, उत्पत्ति स्थिति और प्रलय जगत् के अनादिकाल से चले आते हैं, अनन्त काल तक इसी प्रकार चलते रहेंगे, यह ऐश्वरी व्यवस्था है। कल्प-कल्पान्तर में परमेश्वर ऐसी ही सृष्टि को बनाता, धारण करता एवं प्रलय करता रहता है। ईश्वर के कार्य में कभी भूल-चूक या विपर्यास नहीं होता।
दर्शनों में विरोध
प्रशन- सृष्टि विषय में क्या वेदादि शास्त्रों का एवं भारतीयदर्शनों का परस्पर विरोध नहीं है? कहीं आत्मा से, कहीं परमाणु से, कहीं प्रकृति से, कहीं ब्रह्म और काल एवं कर्म से सृष्टि कही है। इनमें स्पष्ट विरोध प्रतीत होता है ।
उत्तर– इनमें विरोध कोई नहीं, ये सब एक दूसरे के पूरक हैं। प्रत्येक कार्य अनेक कारणों से बनता है। यह कहा जा चुका है, कार्यमात्र के तीन कारण हुआ करते हैं, निमित्त, उपादान और साधारण। न्यायादिदर्शनों में जगत् के विभिन्न कारणों का वर्णन है और उसके लिये अन्य उपयोगी विधियों का। प्रत्येक वस्तु की सिद्धि के किसी भी स्वर पर हमें प्रमाणों का आश्रय लेना पड़ता है, इस स्थिति का कोई दर्शन विरोध नहीं करता। तत्त्व विषयक जिज्ञासा होने पर प्रारमभ में शिक्षा का उपक्रम वहीं से होता है, जिनका प्रतिपादन वैशेषिक दर्शन करता है। तत्त्वों के स्थूल-सूक्ष्म साधारण स्वरूप और उनके गुण-धर्मों की जानकारी पर ही आगे तत्त्वों की अतिसूक्ष्म अवस्थाओं को जानने-समझने की ओर प्रवृत्ति एवं क्षमता का होना समभव है। प्रमाण और बाह्य प्रमेय का विषय न्याय-वैशेषिक दर्शनों में प्रतिपादित किया गया है। तत्त्वों की उन अवस्थाओं और चेतन-अचेतन रूप में उनके विश्लेषण को सांय प्रस्तुत करता है। चेतन-अचेतन के भेद को साक्षात्कार करने की प्रक्रियाओं का वर्णन योग में है। इन प्रक्रियाओं के मुखय साधन भूत मन की जिन विविध अवस्थाओं के विश्लेषण का योग में वर्णन है, वह मनोविज्ञान की विभिन्न दिशाओं का केन्द्र भूत आधार है। समाज के कर्त्तव्य-अकर्त्तव्य का वर्णन मीमांसा एवं समस्त विश्व के संचालक व नियन्ता चेतन तत्त्व का वर्णन वेदान्त करता है। यह ज्ञान साधन कार्यक्रम भारतीय संस्कृति के अनुसार वर्णाश्रम धर्मों एवं कर्त्तव्यों के रूप में पूर्णतया व्यवस्थित है। इन उद्देश्यों के रूप में कहीं किसी का किसी के साथ विरोध का उद्भावन अकल्पनीय है। दर्शनों में जिन तत्त्वों का निरूपण किया है, सृष्टि रचना में एक दूसरे के पूरक होकर वे तत्त्व पहले कहे तीन कारणों में अन्तर्हित अथवा समाविष्ट हैं, इनमें विरोध का कहीं अवकाश नहीं।
प्राणी का प्रादुर्भाव कैसे ?
प्रश्न– पृथिव्यादि लोक-लोकान्तर तथा पृथिवी पर औषधि वनस्पति आदि उत्पन्न हो जाने पर संचरण शील प्राणी का प्रादुर्भव कैसे होता है? चालू सर्ग क्रम में ऐसे प्राणी का प्रजनन मिथुन मूलक देखा जाता है, यह स्थिति सर्वादिकाल में होनी संभव नहीं। यह एक उलझन भरी समस्या है कि सर्वप्रथम प्राणी का प्रादुर्भाव कैसे हुआ।
उत्तर-सर्वप्रथम प्राणी का प्रादुर्भाव बाह्य मिथुन मूलक नहीं होता। परमात्मा अपनी अचिन्त्य शक्ति एवं व्यवस्था के अनुसार स्त्री-पुरुषों के शरीर बनाकर उनमें जीवों का संयोग कर देता है। शरीर की रचना जिस प्रक्रिया के अनुसार चालू होती है, उसमें जीवात्मा का संचार प्रथमतः हो जाता है। प्राणी शरीर की रचना अत्यन्त जटिल है, शरीर-रचना की इस सुव्यवस्था को देखकर रचना करने वाले का अनुमान होता है। जो व्यवस्था जिस प्राणी वर्ग में निहित कर दी गई है, वह चालू संसार के मिथुन-मूलक प्रजनन में अब तक चली आ रही है और प्रलय पर्यन्त चलती रहेगी। इससे आदि शरीर की रचना बाह्य मैथुन रहित केवल परमात्मा की नित्य व्यवस्था के अनुसार होती है। यह अनुमान वर्तमान में देखी गई व्यवस्था के आधार पर किया जा सकता है।
प्रश्न– इतने कथन से आदि सर्ग में मानव शरीर रचना की प्रक्रिया का स्पष्टीकरण नहीं होता। इसका और स्पष्ट विवरण देना चाहिए।
उत्तर– आदि सर्ग में प्राणी देह की रचना ऐश्वरी सृष्टि में गिनी जाती है। सर्वप्रथम जो प्राणी हुए, विशेषतः मानव प्राणी, उनका पालन-पोषण करने वाला माता-पिता आदि कोई न था, इसलिये यह निश्चित समभावना होती है कि वे मानव किशोर अवस्था में प्रादुर्भूत हुए, कतिपय आधुनिक वैज्ञानिक भी ऐसा मानने लगे हैं। बोस्टन नगर के स्मिथसोनियन इन्स्टीट्यूट के जीव विज्ञान शास्त्र के अध्यक्ष डॉ. क्लॉर्क का कथन है- मानव जब प्रादुर्भूत हुआ, वह विचार करने, चलने फिरने और अपनी रक्षा करने के योग्य था- Man appeared able to think walk and defend himself.
समस्या यह है कि मानव ऐसा विकसित देह सर्वप्रथम प्रादुर्भूत कैसे हुआ? उसकी रचना किस प्रकार हुई होगी? सचमुच यह समस्या अत्यन्त गमभीर है। ऐसी स्थिति में ऐसे शरीरों का प्रकट हो जाना अनायास बुद्धिगमय नहीं है। इसे समझने के लिये हमें चालू सर्ग काल के प्रजनन की स्थिति पर ध्यान देना चाहिये, समभव है वहाँ की कोई पकड़ इस समस्या को सुलझाने में सहयोग दे सके। साधारण रूप से प्रजनन की विधा चार वर्गों में विभक्त है- जरायुज, अण्डज, उद्भिज्ज और स्वेदज अथवा ऊष्मज। अन्तिम वर्ग अति सूक्ष्म, अदृश्य कृमि-कीटों से लगाकर दृश्य क्षुद्र जन्तुओं तक का है। इस वर्ग के प्राणी का देह नियत ऊष्मा पाकर अपने कारणों से उदभूत हो जाता है। उद्भिज्ज वर्ग वनस्पति का है। चालू सर्ग काल में देखा जाता है कि बीज से वृक्ष होता है, पर सबसे पहले वृक्ष का बीज कैसे हुआ, यह विचारणीय है। निश्चित है कि वह बीज वृक्ष पर नहीं लगा, तब यही अनुमान किया जा सकता है कि उसकी रचना प्रकृति गर्भ में होती रही होगी। बीज में प्रजनन शक्ति-अंश एक कोष (खोल) में सुरक्षित रहता है, यह स्पष्ट है। वृक्ष पर बीज के निर्माण की प्रक्रिया भी नियन्ता की व्यवस्था के अनुसार प्रकृति का एक चमत्कार है। वंश बीज-निर्माण की प्रक्रिया क्या है, प्रजनन-अंश किस प्रकार कोष में सुरक्षित हो जाते हैं, जड़ से बीज तक कैसे उसका निर्माण होता आता है, इसे आज तक किसने जाना है? इसी प्रकार अण्डज वर्ग में बीज एक अति सुरक्षित कोष में आहित रहता है, इस वर्ग में कीड़ी तथा उससेा भी अन्य कतिपय सूक्ष्म जन्तुओं से लेकर अनेक सरीसृप जाति के प्राणी स्थलचर तथा जलचर एवं नभचर पक्षी जाति का समावेश है। विभिन्न जातियों के देहों के अनुसार कोश की रचना छोटी-बड़ी देखी जाती है। इस वर्ग का भ्रूण एक विशेष प्रकार के खोल से सुरक्षित रहता है, मातृ-गर्भ र्में उपयुक्त पोषण प्राप्त कर गर्भ से बाहर भी नियत काल तक कोश युक्त रहता हुआ पोषण प्राप्त करता है। भ्रूण का यथायथ परिपाक होने पर खोल फटता है और बच्चा निकल आता है, यह प्रकृति का एक चमत्कार है। इस वर्ग में उत्पत्ति काल की दृष्टि से कुछ अधिक बड़े देह वाले प्राणियों का सामावेश है तथा यह एक विचारणीय बात है कि भ्रूण का गर्भ से बाहर भी परिपोषण होता है।
अण्डज वर्ग के आगे बड़ी देह वाला प्राणी-वर्ग जरायुज है, जिसमें मानव एवं समस्त पशु-मृग आदि का समावेश है। कोश में भ्रूण के परिपोषण की प्राकृत व्यवस्था इस वर्ग में भी समान है। मातृगर्भ भ्रूण पूर्णाङ्ग होने तक जरायु में परिवेष्टित रहता है। स्निग्ध सुदृढ़ चमड़े जैसे पदार्थ की थैली का नाम जरायु है, पूर्णाङ्ग होने पर बालक इसको भेदकर ही मातृगर्भ से बाहर आता है। इस प्रकार भ्रूण की सुरक्षा, उपयुक्त पुष्टि व वृद्धि तक के लिए उसका विशिष्ट कोश में परिवेष्टित होना सर्वत्र प्राणी-वर्ग में समान है। यह एक ऐसी नियत व्यवस्था है, जो प्राणी के प्रादुर्भाव की आद्य-स्थिति पर पर्याप्त प्रकाश डालती है। चालू सर्ग काल अथवा मैथुनी सृष्टि में नर-मादा का संयोग प्राणी के साजात्य प्रजनन की जिस स्थिति को प्रस्तुत करता है, वह स्थिति अमैथुनी सृष्टि में प्राकृत नियमों वव्यवस्थाओं के अनुसार प्रकृति गर्भ में प्रस्तुत हो जाती है। इस व्यवस्था से और अण्डज वर्ग के सामान मातृगर्भ से बाहर भ्रूण की परिपोषण प्रक्रिया से यह अनुमान होता है कि सर्व-प्रथम आदिकाल में मानव आदि बड़े की रचना प्रकृति पोषित सुरक्षित उपयुक्त कोशों द्वारा हुई होगी। चालू सर्ग काल में देहों के अनुसार कोषों के आकार में विभिन्नता देखी जाती है। यह समभव है, आदि काल में प्रकृति निर्मित उपयुक्त कोशों में सुरक्षित एवं परिपोषित मानव आदि के किशोरावस्थापन्न सजीव देह यथावसर प्रादुर्भूत हुए हों। आदिसर्ग में विविध प्राणियों का अनेक संखया में प्रादुर्भाव हो जाता है, यह मानने में कोई बाधा नहीं है। यह सब जीवों के कर्मानुसार ऐश्वरी व्यवस्था के सहयोग से हुआ करता है।
आदिमानव का मूलस्थान
प्रश्न– सर्व प्रथम मानव का प्रादुर्भा व पृथ्वी के किस प्रदेश पर हुआ?
उत्तर– भारतीय साहित्य के आधार पर अनेक दिशाओं से यह स्पष्ट होता है कि मानव का सर्वप्रथम प्रादुर्भाव ‘त्रिविष्टप’ नामक प्रदेश में हुआ, जो वर्तमान तिबत के कैलाश, मानसरोवर प्रदेश तथा उससे सुदूर पश्चिम और कुछ दक्षिण-पश्चिम की ओर फैला हुआ था। कुछ समय पश्चात गंगा सरस्वती आदि नदी घाटियों के द्वारा आर्यों ने भारत प्रदेश में आकर निवास किया और इसका आर्यावर्त्त नाम रक्खा, सर्वप्रथम यहाँ आर्यों का निवास हुआ। उनसे पहले यहाँ अन्य किसी मानव का निवास नहीं था। आर्यों का मूलस्थान और यह भूभाग एक ही देश था। आर्य कहीं बाहर से यहाँ कभी नहीं आये। इक्ष्वाकु से लेकर कौरव-पाण्डव पर्यन्त पृथ्वी के इन समस्त भागों पर आर्यों का अखण्ड राज्य और वेदों का थोड़ा-थोड़ा सर्वत्र प्रचार रहा। अनन्तर आर्यों का आलस्य, प्रमाद और परस्पर का विरोध समस्त ऐश्वर्य एवं विभूतियों को ले बैठा। पृथिव्यादि लोकों की लगभग एक अरब सत्तानवें करोड़ वर्ष की आयु में अब तक आर्यों का अधिक काल अभयुदय का बीता है। वेद धर्म पर प्रज्ञा पूर्वक आचरण करने से अब भी उत्कृष्ट अभयुदय की सभावना की जा सकती है।
इस प्रकार सर्वशक्तिमान् परमेश्वर ने अतिसूक्ष्म प्रकृति रूप उपादान कारण से जगत् को बनाया, जो असंखय पृथिव्यादि लोक-लोकान्तरों के रूप में दृष्टिगोचर हो रहा है। ये समस्त लोक अपनी गति एवं परस्पर के आकर्षण से ऐश्वरी व्यवस्था के अनुसार अनन्त आकाश में अवस्थित हैं। जैसे परमेश्वर इन सबका उत्पादक है, वैसे ही इनका धारक एवं संहारक भी रहता है। हमारी इस पृथ्वी के समान अन्य लोक-लोकान्तरों में भी प्राणी का होना संभव है। जीवात्माओं के कर्मानुष्ठान और सुख-दुःखादि फलों को भोगने तथा आत्म-ज्ञान होने पर अपवर्ग की प्राप्ति जगद्रचना का प्रयोजन है। असंखय लोकान्तरों की रचना का निष्प्रयोजन होना असभव है, अतःलोकान्तरों में भी प्राणी का होना समभव है। वेद का ज्ञान सबके लिए समान है। समस्त विश्व पर परमेश्वर का नियन्त्रण रहता है। उसी व्यवस्था के अनुसार सब तत्त्व अपना कार्य किया करते हैं।
‘सृष्टिकर्त्ता ईश्वर प्रदत्त वैदिक धर्म सभी मनुष्यों का परमधर्म’
अग्नि आदि किसी पदार्थ के जलना, प्रकाश व गर्मी देना आदि गुणों को उसका धर्म कहा जाता है। मनुष्यों में जिन श्रेष्ठ गुणों को होना चाहिये उनका मनुष्यों में संस्कार व उन गुणों की उन्नति सहित तदनुसार आचरण को ही मनुष्यों का धर्म कह सकते हैं। किसी आचार्य व विद्वान द्वारा सत्यासत्य व स्वहित के नियमों का निर्धारण जिसमें दूसरों के हितों की किंचित भी अनदेखी व उपेक्षा हो वह धर्म कदापि नहीं हो सकता। धर्म वह होता है जिसकी मान्यतायें व सिद्धान्त सर्वमान्य व अकाट्य होने सहित सभी विषयों के ज्ञान में पूर्णता रखती हों और जिन्हें मनुष्यों द्वारा धारण करने से उनका अभ्युदय व निःश्रेयस सुनिश्चित होता हो। असत्य, अहिंसा व स्वहित के नियम मनुष्यों को आपस में बांटतें हैं और साथ हि अशान्ति व दुःख उत्पन्न करते हैं। यदि यह किसी समाज, संगठन व संस्था में हों तो विचार कर उनका निराकरण किया जाना चाहिये जिससे उस संस्था व अन्य संस्थाओं के लोग परस्पर भाई चारे का व्यवहार कर परस्पर निजी व सामाजिक उन्नति कर सकें। वैदिक मान्यताओं के अनुसार यह सृष्टि लगभग 1.96 अरब वर्षों पूर्व अस्तित्व में आई थी। लगभग 5,200 वर्ष पूर्व भारत में एक महायुद्ध हुआ जिसे वर्तमान में महाभारत के नाम से जाना जाता है। युद्ध में मनुष्यों की भारी क्षति होती है। बड़ी संख्या में लोग मारे जाते हैं। परिवारों में व देश में उनकी मृत्यु से सर्वत्र दुःख का वातावरण छा जाता है। लोगों की सामान्य दिनचर्या अस्तव्यस्त हो जाती है। राज्य की आर्थिक स्थिति पर भी इसका दुष्प्रभाव पड़ता है। राज्य से शिक्षा, चिकित्सा व अन्य विभागों का बजट कम करके उपलब्ध धनराशि को युद्ध में हुई क्षति की पूर्ति में लगाना पड़ता है। ऐसा ही कुछ कम या अधिक महाभारत के युद्ध के बाद हमारे देश में भी हुआ। उसके बाद देश की जो सामाजिक स्थिति निर्मित हुई उससे लगता है कि देश की शिक्षा व्यवस्था पूरी तरह ध्वस्त हो गई थी। कहां तो महाभारत पूर्व हमारे देश में योगेश्वर श्री कृष्ण, महात्मा विदुर, युधिष्ठिर व अर्जुन जैसे विद्वान व वीर मनुष्य तथा द्रोपदी, कुन्ती व माद्री जैसी शिक्षित व वेदज्ञान सम्पन्न विदुषी महिलायें होती थी और कहा महाभारत के बाद यज्ञों में गाय, बकरी, भेड़ व अश्व आदि की हिंसा करते हुए हमारे यज्ञकर्त्ता विद्वान दृष्टिगोचर होते हैं। अज्ञान व अन्धविश्वास बढ़ने लगे और इसके साथ जन्मना जातिवाद, ऊंच-नीच, छुआछूत, अवतारवाद, मूर्तिपूजा, फलित-ज्योतिष जैसे अन्धविश्वास व कुरीतियां समाज में घर कर गये जिनसे आज तक भी पीछा नहीं छूटा है। पतन यहां तक हुआ कि सभी स्त्रियों व शूद्रों से वेदाध्ययन व शिक्षा का अधिकार ही छीन लिया गया। यह सब समाज की घोरतम पतनावस्था थी। इस अवस्था से जो सामाजिक स्थिति उत्पन्न होनी थी वह अविवेकपूर्ण ही होती, विवेकपूर्ण तो तब होती जब देश में लोग ब्रह्मचर्य का पालन करते हुए अपना अधिकांश समय विद्यार्जन, सत्योपदेश, अन्धविश्वास व अवैदिक मतों के खण्डन में लगाते। यह श्रेय किसी ने नहीं लिया। इसका श्रेय उन्नीसवीं सदी में आर्यसमाज के संस्थापक और वेदों के मर्मज्ञ विद्वान, सिद्ध योगी व परमदेशभक्त व वेदधर्मप्रेमी महर्षि दयानन्द सरस्वती को मिला।
सृष्टि का निर्माण मनुष्यों के द्वारा नहीं हो सकता। उनके लिए यह कार्य असम्भव है। हमारी यह सृष्टि वा भौतिक जगत जड़ प्रकृति के सूक्ष्म कणों वा परमाणुओं से मिलकर बना है। यह परमाणु भी नाना प्रकार के होते हैं। हाइड्रोजन, आक्सीजन, नाईट्रोजन, कार्बन, आयरन, कैल्शियम आदि अनेक तत्व हैं जिनके सूक्ष्म परमाणु संरचना की दृष्टि से भिन्न भिन्न प्रकार के होते हैं। यह जिस सत्व, रज व तम गुणों वाली प्रकृति से बने वा बनायें गये हैं, उसके लिए एक अतिसूक्ष्मतम सर्वज्ञ, निराकार, सर्वव्यापक, सर्वान्तर्यामी, सर्वशक्तिमान, सृष्टि निर्माण का पूर्व अनुभव रखनेवाली सत्ता की आवश्यकता होती है। बिना इसके सृष्टि का निर्माण नहीं हो सकता। सृष्टि का अस्तित्व यह घोषणा कर रहा है कि मुझे एक दिव्य सत्ता जो निराकार, सर्वशक्तिमान, सर्वव्यापक व सर्वज्ञ होने सहित सच्चिदानन्द आदि गुणों से युक्त है, उसने इस समस्त सृष्टि वा ब्रह्माण्ड को बनाया है। बनाने वाले ईश्वर से भिन्न उपादान कारण के रूप में जिस जड़ पदार्थ का प्रयोग किया गया, उसे प्रकृति कहते हैं। उस ईश्वर ने पहले अति सूक्ष्म प्रकृति को भिन्न-भिन्न परमाणुओं में बदला वा बनाया, फिर उनसे अणुओं का निर्माण होकर यह समस्त स्थूल जगत बना है जिसमें सूर्य, चन्द्र, पृथिवी, नक्षत्र आदि सम्मिलित हैं। यह ध्यातव्य है कि जड़ पदार्थों में स्वयं निर्मित होने की क्षमता नहीं होती। उसके लिए किसी बुद्धियुक्त चेतन, शक्तिसम्पन्न व प्रकृति से भी सूक्ष्म सत्ता की अपेक्षा होती है जिसे सृष्टिकर्ता कहते हैं। बिना कर्ता के कोई कार्य नहीं होता। आप आटे व उससे बनने वाली रोटी का सारा समान बनाकर अपने रसोईघर में रख दीजिए। जब तक कोई रोटी बनाने वाला मनुष्य रोटी नहीं बनायेगा, समस्त सामान उपलब्ध होने पर भी रोटी अपने आप कभी नहीं बनेगी। अतः ईश्वर द्वारा सृष्टि की रचना, उत्पत्ति व पालन होना युक्ति व तर्क से सिद्ध है। यदि कोई इन तथ्यों को नहीं मानता तो वह अज्ञानी, हठी व दुराग्रही ही कहा जा सकता है। यह सृष्टि की उत्पत्ति का वैज्ञानिक सिद्धान्त है।
ईश्वर ने सृष्टि बनाई और मनुष्यों सहित समस्त प्राणी जगत को भी उसी ने इस सृष्टि के आदि काल में उत्पन्न किया, तब से अब तक और आगे भी निरन्तर उत्पन्न करता रहेगा। अन्य कोई यह कार्य नहीं कर सकता था और सृष्टि रचना और प्राणियों की उत्पत्ति अपने आप वा स्वतः हो नहीं सकती थी। अतः ईश्वर के ऊपर न केवल सृष्टि की रक्षा व पालन का उत्तरदायित्व है अपितु मनुष्यों सहित सभी प्राणियों के पालन-पोषण सहित उन्हें भाषा व ज्ञान देना भी उसी का कर्तव्य निश्चित होता है। अब इस प्रश्न पर विचार करना उचित है कि ईश्वर प्रदत्त वह भाषा कौन थी और उसका ज्ञान क्या व किस रूप में था? इसका उत्तर हमसे पूर्व ही हमारे प्राचीन शास्त्रों व बाद में महर्षि दयानन्द ने अनेक प्रमाणों, तर्कों व युक्तियों से दिया है जिसे सत्यार्थप्रकाश आदि ग्रन्थों में देखा जा सकता है। प्रबल युक्तियों से पोषित यह उत्तर बताता है कि ईश्वर ने मनुष्यों को बोलने के लिए उत्कृष्ट संस्कृत जिसे वैदिक संस्कृत कह सकते हैं, का ज्ञान आदि ऋषियों व मनुष्यों को दिया था। ज्ञान पर विचार करने पर ज्ञात होता है कि ईश्वर ने अपना वह ज्ञान चार वेद ‘ऋग्वेद–यजुर्वेद–सामवेद–अथर्ववेद’ के रूप में चार ऋषियों अग्नि–वायु–आदित्य–अंगिरा को उनकी आत्मा में प्रेरणा द्वारा प्रविष्ट किया था। ईश्वर निराकार, सर्वव्यापक, सर्वान्तर्यामी है अतः ऋषियों वा मनुष्यों की अन्तरात्मा में ज्ञान स्थापित करना व उसकी प्रेरणा करना उसके लिए सरल, सहज व स्वाभाविक है। ईश्वर के लिए यह कार्य यह सम्भव है असम्भव कदापि नहीं। चार वेदों का यह ज्ञान ईश्वर ने उनके अर्थों वा भावों सहित स्थापित किया था जिससे ऋषियों को वेदार्थ जानने में कोई कठिनता नहीं हुई। उन ऋषियों को ईश्वर की ओर से यह दायित्व भी दिया गया था कि वह वेदों के ज्ञान को अमैथुनी सृष्टि में उत्पन्न अन्य सभी युवा स्त्री-पुरुषों को उपदेश, अध्ययन व अध्यापन द्वारा करायें जिसे उन्होंने सफलतापूर्वक किया भी। वही परम्परा महाभारतकाल तक अबाध रूप से चली और उसके बाद लुप्त व विश्रृंखलित होने पर महर्षि दयानन्द (1825-1883) ने उसे पुनः प्रचलित किया और उनकी इस कृपा से आज चारों वेद पूर्ण सुरक्षित हैं व उनके हिन्दी व संस्कृति सहित अंग्रेजी व अन्य भाषाओं में भाष्य भी उपलब्ध हैं जिससे साधारण हिन्दी पढ़ सकने वाला मनुष्य भी विद्वान हो सकता है। इसी से हमने भी लाभ उठाया, हम जो कुछ हैं, इसी का परिणाम हैं।
चार वेद सभी सत्य विद्याओं के सर्वांगपूर्ण ग्रन्थ हैं। शायद ही कोई ऐसा विषय हो जिसका उल्लेख व मनुष्य के कर्तव्य की शिक्षा वेद में न हो। इसी कारण महर्षि दयानन्द ने अपने जीवन काल में घोषणा की थी कि वेद ईश्वर कृत हैं और सब सत्य विद्याओं के पुस्तक हैं। इनका पढ़ना व पढ़ाना और सुनना व सुनाना संसार के सभी मनुष्यों का परम धर्म (परम कर्तव्य) है। यदि किसी मनुष्य ने वेद नहीं पढ़े और उनका प्रचार नहीं किया तो इसका अर्थ है कि हमने मनुष्य के परम धर्म का पालन नहीं किया। वेद से इतर मत-मतान्तर व्यापक दृष्टि से देखने पर कुछ व अधिक मात्रा में धर्म हो सकते हैं परन्तु वेद परम-धर्म है। वेद विरुद्ध विचार, कार्य व आचरण अधर्म ही कहा जा सकता है। जो व्यक्ति वेद नहीं पढ़ता और उसके अनुसार आचरण नहीं करता वह इस जगदीश्वर सृष्टिकर्ता के नियम को तोड़ने का दोषी होता है। ईश्वर व वेद की ओर से मनुष्यकृत रचनाओं को पढ़ने की मनाही नहीं है, इनको भी पढ़ना चाहिये, परन्तु यह ध्यान रखना चाहिये कि मनुष्य के अल्पज्ञ होने से मनुष्यकृत ग्रन्थों में सत्य व असत्य दोनों का मिश्रण होता है। अतः वेदों को जानकर वेदसम्मत कर्तव्यों व मान्यताओं का ही आचरण व प्रचार करना चाहिये। वेद में ही ईश्वर व जीवात्मा आदि पदार्थों के सत्य स्वरूप का वर्णन है। इनके अध्ययन से ही ईश्वर की स्तुति–प्रार्थना–उपासना, देवयज्ञ व अन्य यज्ञों के विधिपूर्वक करने का ज्ञान होता है। वेदों की इसी महत्ता के कारण सृष्टि के आरम्भ से लेकर महाभारतकाल तक के एक अरब छियानवें करोड़ आठ लाख अड़तालीस हजार वर्षों तक भूमण्डल पर एक ही मत वैदिक मत वा धर्म का प्रचार प्रसार रहा। अन्य किसी महापुरूष ने कभी नये मत की स्थापना का विचार ही नहीं किया क्योंकि उनरकी न तो आवश्यकता थी और ऐसा करने पर भी वह वर्तमान की तरह प्रचलित नहीं हो सकते थे। वेदेतर सभी मत महाभारत काल के बाद अन्धकार व अज्ञान के समय में अस्तित्व में आयें हैं। क्यों आये? क्योंकि लोग वेदों के मार्ग को भूल बैठे थे। उन्हें मत-प्रवर्तकों द्वारा अपने ज्ञान व योग्यतानुसार व्यवस्थित करने का प्रयास किया जाता रहा। वेद की तुलना में सभी मत व उनकी पुस्तकें ज्ञान की दृष्टि से उच्च न होकर निम्नतर ही हैं। अतः सत्य के खोजी व पिपासुओं के लिए वेद ही अन्तिम लक्ष्य है। वेद सम्पूर्ण मानव धर्म है। वेदरिुद्ध मान्यतायें व सिद्धान्त धर्म नहीं अपितु अधर्म हैं जो सर्वत्र मत-मतान्तरों में समान रूप से पाये जाते हैं। वैदिक धर्म ईश्वर प्रदत्त होने से सबके लिए कर्तव्य एवं आचरणीय है। यदि इसका कोई पालन नहीं करेगा तो ईश्वर की व्यवस्था का पालन न करने का दोषी होगा और उसका परजन्म उसके इस जन्म में वेदाज्ञा का पालन न करने से दण्ड का कारण व आधार हो सकता है। हमने सत्य के स्वरूप के प्रकाशन के लिए कुछ विचार प्रस्तुत किये हैं। आशा है सत्यप्रेमी इससे लाभान्वित होंगे।
–मनमोहन कुमार आर्य
‘अनादि अविनाशी जीवात्मा कर्मानुसार जन्म–मरण–जन्म के चक्र अर्थात् पुनर्जन्म में आबद्ध’
मनुष्य संसार में जन्म लेता है, अधिकतर 100 वर्ष जीवित रहता है और मृत्यु को प्राप्त हो जाता है। जिस संसार व पृथिवी पर हम रहते हैं उसे हमने व हमारे पूर्वजों ने बनाया नहीं है अपितु उन्हें यह सृष्टि बनी बनाई मिली थी। इस संसार को किसने बनाया, इसका शास्त्र व बुद्धि संगत वैज्ञानिक उत्तर है कि इसे एक अदृश्य, अनादि, सर्वज्ञ, सर्वशक्तिमान व सर्वव्यापक सत्ता ईश्वर ने बनाया है। वह ईश्वर जो जीवात्माओं को मनुष्य आदि योनियों में जन्म देता है, उनका पालन-पोषण करता है और शरीर के निर्बल व वृद्ध हो जाने पर उसकी आत्मा को शरीर से निकाल कर पुनः व वारंवार मनुष्य आदि योनियों में नया जन्म देता है। यह ऐसा ही होता है जैसे कि हम पुराने वस्त्रों को त्याग कर नये वस्त्र धारण करते हैं। साधारण मनुष्य जन्म लेकर व कुछ पढ़ाई लिखाई करके अपनी कुल व समुदाय की परम्परा व रीति-रिवाजों के अनुसार किसी मत व सम्प्रदाय की कुछ सत्यासत्य मान्यताओं के अनुसार कर्म करते हुए अपना जीवन व्यतीत कर स्वयं को धन्य समझ लेते हैं परन्तु कुछ प्रखर बुद्धि व बुलन्द जीवात्मा वाले लोग मैं कौन हूं, मैं कहां से आया हूं, मेरे जन्म का उद्देश्य क्या है? मरने के बाद लोग कहां जाते हैं, क्या गर्भवास, जीवन में आने वाले मृत्यु आदि के दुःखों से बचा जा सकता है? जैसे अनेकानेक प्रश्नों पर विचार करते हैं और इसके लिए अपनी समस्त सामर्थ्य को लगाते हैं। इससे उनको जो ज्ञान प्राप्त होता है, उसी के अनुसार वह अपना जीवन व्यतीत करते हैं। ऐसे मनुष्यों में एक सर्वोपरि नाम है और वह है स्वामी दयानन्द सरस्वती। संसार के अनेक बुद्धिमान अपने गुरुओं से यह प्रश्न करते हैं व कुछ पुस्तकों एवं शास्त्रों आदि का अध्ययन करते हैं तो उन्हें इसका उत्तर मिलता है कि संसार में तीन सत्तायें हैं, ईश्वर, जीव व प्रकृति। ईश्वर सच्चिदानन्दस्वरूप, निराकार, सर्वज्ञ, सर्वशक्तिमान, सर्वव्यापक, अनादि, अनुत्पन्न, नित्य, अमर आदि गुणों वाला है। वह सूक्ष्म जीवात्माओं को उनके जन्म-जन्मान्तरों के कर्मानुसार मनुष्य व अन्य योनियों में जन्म देकर उसके पूर्व कृत कर्मों का भोग कराता है। सिद्धान्त है कि जिसका जन्म होता है उसकी मृत्यु भी अवश्य होती है। अतः हम मनुष्य, पशु, पक्षी आदि योनियों में जन्म लेकर उस योनि के शरीरों की अवधि पूरी होने पर मृत्यु को प्राप्त होते जाते हैं। शेष कर्मों का फल भोगने के लिए हमारा पुनः जन्म होता है। ऐसे बहुत से लोग हैं, जिनको शास्त्रों व जन्म-मृत्यु विषयक ज्ञान तो होता नहीं, कुछ छोटी-मोटी बातों के आधार पर पुनर्जन्म का खण्डन कर देते हैं। वेदों का अध्ययन करने की उन्हें फुर्सत नहीं। वह समझते हैं कि वह जितना जानते हैं उतना ही पर्याप्त है और उनके अलावा सभी अज्ञानी व उनसे ज्ञानस्तर में निम्नकोटि के हैं।
जीवात्मा जन्म लेता है और माता-पिता बनकर अपनी सन्तानों को जन्म देता है। यह तथ्य है परन्तु जीवात्मा को मनुष्य जन्म ईश्वर से मिलता है। उसी ने इस सृष्टि को रचा है। अतः इन प्रश्नों का उत्तर उसी ईश्वर से मिल सकता है। उससे यदि उत्तर जानना है तो वह समाधि अवस्था में जाना जा सकता है। इसके अतिरिक्त ईश्वर ने ही सृष्टि के आरम्भ में चार ऋषियों को वेदों का ज्ञान दिया था। उससे भी सहायता ली जा सकती है। वेदों के अनुसार जीवात्मा को जन्म व मृत्यु ईश्वर के द्वारा प्राप्त होते हैं। पुनर्जन्म एक सत्य, तर्क संगत व वैज्ञानिक सिद्धान्त है। महर्षि दयानन्द वेदों के उच्च कोटि के विद्वान थे। उन्होंने चारों वेदों का भाष्य करने का उपक्रम किया था और सबसे पहले चारों वेदों की भूमिका ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका नामक ग्रन्थ लिखकर वेदभाष्य कार्य को आरम्भ किया था। इस ग्रन्थ का उन्नीसवां अध्याय ‘पुनर्जन्मविषय’ है। आज इस अध्याय में लिखे उनके उपदेशों को ही प्रस्तुत कर हम पुर्नजन्म का स्वरूप पाठकों के समस्त प्रस्तुत कर रहे हैं।
महर्षि दयानन्द ने पुनर्जन्म विषयक ऋग्वेद, यजुर्वेद, अथर्ववेद के मन्त्रों सहित निरुक्त व न्याय दर्शन आदि के वचन उद्धृत किये हैं। यहां हम केवल ऋग्वेद के दो मन्त्रों को देकर सभी वचनों का हिन्दी भावार्थ प्रस्तुत कर रहे हैं। ऋग्वेद के मन्त्र हैं ‘असुनीते पुनरस्मासु चक्षुः पुनः प्राणमिह नो धेहि भोगम!। ज्योक् पश्येम सूय्र्यमुच्चरन्तमनुमते मृळया नः स्वस्ति।। एवं दूसरा मन्त्र ‘पुनर्नो असुं पृथिवी ददातु पुनद्र्यौर्देवी पुनरन्तरिक्षम्। पुनर्नः सोमस्तन्वं ददातु पुनः पूषा पथ्यां३ या स्वस्तिः।।’ इन मन्त्रों का तात्पर्य है कि हे सुखदायक परमेश्वर ! आप कृपा करके पुनर्जन्म अर्थात् परजन्म में हमारे बीच में उत्तम नेत्र आदि सब इन्द्रियां स्थापन कीजिये। प्राण अर्थात् मन, बुद्धि, चित्त, अहंकार, बल, पराक्रम आदि युक्त शरीर पुनर्जन्म में दीजिये। हे जगदीश्वर ! इस संसार अर्थात् इस जन्म और परजन्म में हम लोग उत्तम उत्तम भोगों को प्राप्त हों तथा हे भगवन् ! आपकी कृपा से सूर्यलोक और आपको विज्ञान तथा प्रेम से हम सदा देखते रहें। हे अनुमते=सबको मान देने हारे सब जन्मों में हम लोगों को सुखी रखिये जिससे हम लोगों का कल्याण हो। दूसरे मन्त्र का अर्थ-हे सर्वशक्तिमन् ! आपके अनुग्रह से हमारे लिये वारंवार पृथिवी प्राण को, प्रकाश चक्षु को, और अन्तरिक्ष स्थानादि अवकाशों को देते रहें। पुनर्जन्म में सोम अर्थात् ओषधियों का रस हमको उत्तम शरीर देने में अनुकूल रहे तथा पुष्टि करनेवाला परमेश्वर कृपा करके सब जन्मों में हमको सब दुःख निवारण करनेवाली पथ्यरूप स्वस्ति को देवे।
महर्षि दयानन्द द्वारा यजुर्वेद के एक तथा अथर्ववेद के दो उद्धृत मऩ्त्रों का अर्थ इस प्रकार है। हे सर्वज्ञ ईश्वर ! जब जब हम जन्म लेवें, तब तब हमको शुद्ध मन, पूर्ण आयु, आरोग्यता, प्राण, कुशलतायुक्त जीवात्मा, उत्तम चक्षु और श्रोत्र प्राप्त हों। जो विश्व में विराजमान ईश्वर है, वह सब जन्मों में हमारे शरीरों का पालन करे। सब पापों के नाश करनेवाले आप हमको बुरे कामों और सब दुःखों से पुनर्जन्म में अलग रक्खें। हे जगदीश्वर आप की कृपा से पुनर्जन्म में मन आदि ग्यारह इन्द्रिय मुझ को प्राप्त हों अर्थात् सर्वदा मनुष्य देह ही प्राप्त होता रहे अर्थात् प्राणों को धारण करनेहारा सामथ्र्य मुझ को प्राप्त होता रहे जिससे दूसरे जन्म में भी हम लोग सौ वर्ष वा अच्छे आचरण से अधिक आयु तक भी जीवें। सत्यविद्यादि श्रेष्ठ धन भी हमें पुनर्जन्म में प्राप्त होते रहें। सदा के लिये ब्रह्म जो वेद है, उसका व्याख्यानसहित विज्ञान तथा आप ही में हमारी निष्ठा बनी रहे। सब जगत् के उपकार के अर्थ हम लोग अग्निहोत्रादि यज्ञ को करते रहें। हे जगदीश्वर ! हम लोग जैसे पूर्वजन्मों में शुभ गुण धारण करनेवाली बुद्धि से उत्तम शरीर और इन्द्रियों से युक्त थे, वैसे ही इस संसार में पुनर्जन्म में भी बुद्धि के साथ मनुष्य देह के कृत्य करने में समर्थ हों। ये सब शुद्ध बुद्धि के साथ मुझको यथावत् प्राप्त हों। हम लोग इस संसार में मनुष्य जन्म को धारण करके धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष को सदा सिद्ध करें और इस सामग्र से आपकी भक्ति को प्रेम से सदा किया करें। ऐसा करके किसी जन्म में हमको कभी दुःख प्राप्त न हो।
मनुष्य पूर्वजन्म में धर्माचरण करता है, उस धर्माचरण के फल से अनेक उत्तम शरीरों को धारण करता है। अधर्मात्मा मनुष्य नीच शरीर को प्राप्त होता है। पूर्वजन्म में किये हुए पाप पुण्य के फलों का भोग करने के स्वभावयुक्त जीवात्मा है, वह पूर्व शरीर को छोड़़ के वायु के साथ रहता, पुनः जल ओषधि वा प्राण आदि में प्रवेश करके वीर्य्य में प्रवेश करता है, तदनन्तर योनि अर्थात् गर्भाशय में स्थिर होके पुनः जन्म लेता है। जो जीव अनुदित वाणी अर्थात् जैसी ईश्वर ने वेदों में सत्यभाषण करने की आज्ञा दी है वैसा ही यथावत् जान के बोलता है और धर्म ही में यथावत् स्थित रहता है, वह मनुष्ययोनि में उत्तम शरीर धारण करके अनेक सुखों को भोगता है। जो अधर्माचरण करता है, वह अनेक नीच शरीर अर्थात् कीट पतंग पशु आदि के शरीर को धारण करके अनेक दुःखों को भोगता है। इस संसार में हम दो प्रकार के जन्मों को सुनते हैं। एक मनुष्य शरीर का धारण करना और दूसरा नीच गति से पशु, पक्षी, कीट, पतंग, वृक्ष आदि का होना। इनमें मनुष्यशरीर के तीन भेद हैं-एक पितृ अर्थात् ज्ञानी होना, दूसरा देव अर्थात् सब विद्याओं को पढ़के विद्वान होना, तीसरा मत्र्य अर्थात् साधारण मनुष्यशरीर का धारण करना। इनमें प्रथम गति अर्थात् मनुष्यशरीर पुण्यात्माओं और पुण्यपाप तुल्य वालों का होता है और दूसरा जो जीव अधिक पाप करते हैं उनके लिये है। इन्हीं भेदों से सब जगत् के जीव अपने अपने पुण्य और पापों के फल भोग रहे हैं। जीवों को माता और पिता के शरीर में प्रवेश करके जन्मधारण करना, पुनः शरीर को छोड़ना, फिर जन्म को प्राप्त होना, वारंवार होता है।
जैसा वेदों में पूर्वापरजन्म के धारण करने का विधान किया है वैसा ही निरुक्तकार ने भी प्रतिपादन किया है। उनके अनुसार जब मनुष्य को ज्ञान होता है तब वह ठीक ठीक जानता है कि मैंने अनेक वार जन्ममरण को प्राप्त होकर नाना प्रकार के हजारों गर्भाशयों का सेवन किया है। अनेक प्रकार के भोजन किये हैं, अनेक माताओं के स्तनों का दुग्ध पिया, अनेक माता पिता और सुहृदों को देखा है। मैंने गर्भ में नीचे मुख ऊपर पग इत्यादि नाना प्रकार की पीड़ाओं से युक्त होके अनेक जन्म धारण किये। परन्तु अब इन महादुःखों से तभी छूटूंगा कि जब परमेश्वर में पूर्ण प्रेम और उसकी आज्ञा का पालन करूंगा, नहीं तो इस जन्मरणरूप दुःखसागर के पार जाना कभी नहीं हो सकता। योगशास्त्र में भी पुनर्जन्म का विधान किया है। हर एक प्राणी की यह इच्छा नित्य देखने में आती है कि मैं सदैव सुखी बना रहूं। मरूं नहीं। यह इच्छा कोई भी नहीं करता कि मैं न रहूं अर्थात् मर जाऊं। ऐसी इच्छा पूर्वजन्म के अभाव से कभी नहीं हो सकती। यह ‘अभिनिवेश’ क्लेश कहलाता है जो कि कृमिपर्य्यन्त को भी मृत्यु का भय बराबर होता है। यह व्यवहार पूर्वजन्म की सिद्धि को जनाता है। न्यायदर्शन के वात्स्यायन भाष्य में भी कहा है कि जो उत्पन्न होता है अर्थात् शरीर को धारण करता है, वह मरण अर्थात् शरीर को छोड़ के, पुनरुत्पन्न दूसरे शरीर को भी अवश्य प्राप्त होता है।
अनेक मनुष्य ऐसा प्रश्न करते हैं कि जो पूर्वजन्म होता है, तो हमको उसका ज्ञान इस जन्म में क्यों नहीं होता? इसका उत्तर है कि आंख खोल के देखों कि जब इसी जन्म में जो जो सुख दुःख तुमने बाल्यावस्था में अर्थात् जन्म से पांच वर्ष पर्य्यन्त पाये हैं, उनका ज्ञान नहीं रहता अथवा जो कि नित्य पठन पाठन और व्यवहार करते है, उनमें से भी कितनी ही बातें भूल जाते हैं तथा निद्रा में भी यही हाल हो जाता है कि अब के किये का भी ज्ञान नहीं रहता। जब इसी जन्म के व्यवहारों को इसी शरीर में भूल जाते हैं, तो पूर्व शरीर के व्यवहारों का कब ज्ञान रह सकता है? ऐसा भी प्रश्न करते हैं कि जब हमको पूर्वजन्म के पाप पुण्य का ज्ञान नहीं होता और ईश्वर उनका फल दुःख वा सुख देता है, इससे ईश्वर का न्याय वा जीवों का सुधार कभी नहीं हो सकता। इसका उत्तर देते हुए महर्षि दयानन्द कहते हैं कि ज्ञान दो प्रकार का होता है–एक प्रत्यक्ष व दूसरा अनुमान आदि से। जैसे कि एक वैद्य और दूसरा अवैद्य, इन दोनों को ज्वर आने से वैद्य तो इसका पूर्व निदान जान लेता है और दूसरा नहीं जान सकता। परन्तु उस पूर्व कुपथ्य का कार्य जो ज्वर है, वह दोनों को प्रत्यक्ष होने से वे जान लेते है कि किसी कुपथ्य से ही यह ज्वर हुआ है, अन्यथा नहीं। इसमें इतना विशेष है कि विद्वान् ठीक ठीक रोग के कारण और कार्य को निश्चय करके जानता और वह अविद्वान् कार्य को तो ठीक ठीक जानता है परन्तु कारण में उसको यथावत् निश्चय नहीं होता। वैसे ही ईश्वर न्यायकारी होने से किसी को विना कारण से सुख वा दुःख कभी नहीं देता। जब हम को पुण्य पाप का कार्य सुख और दुःख प्रत्यक्ष हैं, तब हमको ठीक निश्चय होता है कि पूर्वजन्म के पाप-पुण्यों के विना उत्तम मध्यम और नीच शरीर तथा बुद्धि आदि पदार्थ कभी नहीं मिल सकते। इससे हम लोग निश्चय करके जानते हैं कि ईश्वर का न्याय और हमारा सुधार ये दोनों काम यथावत् बनते हैं। प्रकरण की समाप्ति पर महर्षि दयानन्द कहते हैं कि उपर्युक्त विवेचन व विश्लेषण से बुद्धिमान् लोग पुनर्जन्म विषयक सिद्धान्त व उससे सम्बन्धित सभी पहलुओं को अपने विचार व चिन्तन से यथावत् जान लेवें।
हम अनुभव करते हैं कि इस लेख में पुनर्जन्म विषयक वेद व शास्त्रों में पुनर्जन्म के विधान सहित इसके सभी पहलुओं का युक्ति व तर्कों के आधार पर स्पष्टीकरण हो गया है। पुनर्जन्म का सिद्धान्त मनुष्यों को पापकर्मों से दूर रखता है। यदि हम कोई भी बुरा काम करेंगे तो ईश्वर की व्यवस्था से उसका फल हमें अवश्य ही भोगना होगा। यदि बुरे काम अधिक होंगे तो हमें परजन्म में पशु, पक्षी, कीट, पतंग, सुअर, सर्प व गधा आदि भी बनना पड़ सकता है। यह भी विचारणीय है कि जीवात्मा और ईश्वर अनादि व नित्य हैं और यह सृष्टि भी अनन्त काल से बनती व बिगड़ती चली आ रही है। इस अनन्त काल में हम अनेकानेक बार सभी योनियों में रहकर अपने कर्मानुसार सुख व दुःख भोगते रहे हैं और आगे भी भोगेंगे। मनुष्यादि जन्म मरण सहित अनेक बार हम मुक्ति की अवस्था में भी गये व रहे हैं। क्या कोई मनुष्य परजन्म में पशु, घोड़ा व गधा बनना चाहेगा, यदि नहीं हो उसे सद्कर्म ही करने होंगे। इसी के साथ हम इस लेख को विराम देते हैं।
–मनमोहन कुमार आर्य
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