देवता: ब्रह्मणस्पतिः ऋषि: मेधातिथिः काण्वः छन्द: विराड्गायत्री स्वर: षड्जः
सो॒मानं॒ स्वर॑णं कृणु॒हि ब्र॑ह्मणस्पते।
क॒क्षीव॑न्तं॒ य औ॑शि॒जः॥
সোমান স্বরণং কৃণুহি ব্রহ্মণস্পতে।কক্ষীবন্তং য ঔশিজঃ।।(ঋগ্বেদ ১।১৮।১)
পদার্থঃ (ব্রহ্মণস্পতে) বেদের স্বামী ঈশ্বর! (যঃ) যে আমি (ঔশিজঃ) বিদ্যার প্রকাশে সংসার কে বিদিত হওয়া এবং বিদ্বানের পুত্রের সমান হই, যেই আমাকে (সোমানম্) ঐশ্বর্য্য সিদ্ধকারী যজ্ঞের কর্তা (স্বরণম্) শব্দ অর্থের সমন্ধ্যের উপদেশক এবং (কক্ষীবন্তম্) কক্ষা হস্ত বা অঙ্গুলির ক্রিয়ায় হওয়া প্রসংশনীয় শিল্পবিদ্যার কৃপায় সম্পাদন কারী (কৃণুহি) করো। (মহর্ষি দয়াননন্দ কৃত ভাষ্য)
সোমান সোতারং প্রকাশনবন্তং কুরু ব্রহ্মণস্পতে কক্ষীবন্তমিব য ঔশিজঃ। কক্ষীবান্ কক্ষাবান্। ঔশিজ উশিজঃ পুত্রঃ। উশিগ্বষ্টেঃ কান্তিকর্মণঃ। অপি ত্বয়ং মনুষ্যকক্ষ এবাভিপ্রেতঃ স্যাত্। তং সোমানং সোতারং মাং প্রকামনবন্তং কুরু ব্রহ্মণস্পতে ।। (নিরুক্ত ৬।১০)
पदार्थान्वयभाषाः -(ब्रह्मणस्पते) वेद के स्वामी ईश्वर ! (यः) जो मैं (औशिजः) विद्या के प्रकाश में संसार को विदित होनेवाला और विद्वानों के पुत्र के समान हूँ, उस मुझको (सोमानम्) ऐश्वर्य्य सिद्ध करनेवाले यज्ञ का कर्त्ता (स्वरणम्) शब्द अर्थ के सम्बन्ध का उपदेशक और (कक्षीवन्तम्) कक्षा अर्थात् हाथ वा अङ्गुलियों की क्रियाओं में होनेवाली प्रशंसनीय शिल्पविद्या का कृपा से सम्पादन करनेवाला (कृणुहि) कीजिये॥
अन्वय:
हे ब्रह्मणस्पते ! योऽहमौशिजोऽस्मि तं मां सोमानं स्वरणं कक्षीवन्तं कृणुहि॥[(सोमानम्) यः सवत्यैश्वर्य्यं करोतीति तं यज्ञानुष्ठातारम् (स्वरणम्) यः स्वरति शब्दार्थसम्बन्धानुपदिशति तम् (कृणुहि) सम्पादय। उतश्च प्रत्ययाच्छन्दो वा वचनम्। (अष्टा०६.४.१०६) इति विकल्पाद्धेर्लोपो न भवति। (ब्रह्मणः) वेदस्य (पते) स्वामिन्नीश्वर ! षष्ठ्याः पतिपुत्रपृष्ठपारपदपयस्पोषेषु। (अष्टा०८.३.५३) इति सूत्रेण षष्ठ्या विसर्जनीयस्य सकारादेशः। (कक्षीवन्तम्) याः कक्षासु कराङ्गुलिक्रियासु भवाः शिल्पविद्यास्ताः प्रशस्ता विद्यन्ते यस्य तम्। कक्षा इत्यङ्गुलिनामसु पठितम्। (निघं०२.५) अत्र कक्षाशब्दाद् भवे छन्दसि इति यत्, ततः प्रशंसायां मतुप्। कक्ष्यायाः संज्ञायां मतौ सम्प्रसारणं कर्त्तव्यम्। (अष्टा०६.१.३७) अनेन वार्त्तिकेन सम्प्रसारणम्। आसंदीवद० (अष्टा०८.२.१२) इति निपातनान्मकारस्य वकारादेशः। (यः) अहम् (औशिजः) य उशिजि प्रकाशे जातः स उशिक् तस्य विद्यावतः पुत्र इव। इमं मन्त्रं निरुक्तकार एवं व्याख्यातवान्-सोमानं सोतारं प्रकाशनवन्तं कुरु ब्रह्मणस्पते कक्षीवन्तमिव य औशिजः। कक्षीवान् कक्ष्यावान्, औशिज उशिजः पुत्रः, उशिग्वष्टेः कान्तिकर्मणः। अऽपि त्वयं मनुष्यकक्ष एवाभिप्रेतः स्यात्। तं सोमानं सोतारं मां प्रकाशनवन्तं कुरु ब्रह्मणस्पते। (निरु०६.१०)]
भावार्थभाषाः -जो कोई विद्या के प्रकाश में प्रसिद्ध मनुष्य है, वही पढ़ानेवाला और सम्पूर्ण शिल्पविद्या के प्रसिद्ध करने योग्य है। क्योंकि ईश्वर भी ऐसे ही मनुष्य को अपने अनुग्रह से चाहता है। इस मन्त्र का अर्थ सायणाचार्य्य ने कल्पित पुराण ग्रन्थ भ्रान्ति से कुछ का कुछ ही वर्णन किया है॥
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