ओ३म्
‘जीवात्मा ईश्वर नहीं, ईश्वर का मित्र बन सकता है’
मनुष्य जीवन का उद्देश्य है उन्नति करना। संसार में ईश्वर सबसे बड़ी सत्ता है। जीवात्माओं की ईश्वर से पृथक स्वतन्त्र सत्ता है। जीवात्मा को अपनी उन्नति के लिए सर्वोत्तम या बड़ा लक्ष्य बनाना है। सबसे बड़ा लक्ष्य तो यही हो सकता है कि वह ईश्वर व ईश्वर के समान बनने का प्रयास करे। प्रश्न यह है कि मनुष्य यदि प्रयास करे तो क्या वह ईश्वर बन सकता है? इसका उत्तर विचार पूर्वक दिया जाना समीचीन है। इसके लिए ईश्वर तथा जीवात्मा, दोनों के स्वरूप को जानना होगा। ईश्वर क्या है? ईश्वर वह है जिससे यह संसार अस्तित्व में आता है अर्थात् ईश्वर इस सृष्टि या जगत का निमित्त कारण हैं। निमित्त कारण किसी वस्तु के बनाने वाले चेतन तत्व व सत्ता को कहते हैं। इसमें ईश्वर भी आता है और मनुष्य वा जीवात्मा भी। ईश्वर ने इस सारे संसार को रचकर बनाया है। ईश्वर ने अमैथुनी सृष्टि में हमारे पूर्वजों अग्नि, वायु, आदित्य, अंगिरा, ब्रह्मा आदि पुरूषों सहित स्त्रियों को भी बनाया और उसके बाद से वह मैथुनी सृष्टि द्वारा मनुष्य आदि और समस्त प्राणियों की रचना कर उन्हें जन्म देता आ रहा है।
ईश्वर के कार्यों में सृष्टि की रचना कर उसका संचालन करना और अवधि पूरी होने पर प्रलय करना भी सम्मिलित है जिसे वह इस सृष्टि के कल्प में विगत 1.96 अरब वर्षो से करता आ रहा है। इससे पूर्व भी वह अनन्त बार अनन्त कल्पों में सृष्टि की रचना कर उसका पालन करता रहा है। वह यह कार्य इस लिए कर पाता है कि उसका स्वरूप सच्चिदानन्द (सत्य, चित्त व आनन्द) स्वरूप है। वह सर्वज्ञ, निराकार, सर्वशक्तिमान, न्यायकारी, दयालु, अजन्मा, अनन्त, निर्विकार, अनादि, अनुपम, सर्वाधार, सर्वेश्वर, सर्वव्यापक, सर्वान्तर्यामी, अजर, अमर, अभय, नित्य, पवित्र और सृष्टिकत्र्ता है। जीवों के पुण्य व पापों के अनुसार जीवों को भिन्न-भिन्न योनियों में भेजकर उन्हें उनके अनुसार सुख-दुःख रूपी फल देना भी ईश्वर का कार्य है और यह भी उसका स्वरूप है। दूसरी ओर जीवात्मा के कुछ गुण ईश्वर के अनुरूप हैं व कुछ भिन्न। जीवात्मा अर्थात् हम वा हमारा आत्मा अर्थात् हमारे शरीर मे विद्यमान चेतन तत्व है। यह या इसका स्वरूप कैसा है? जीवात्मा सत्य पदार्थ, चेतन तत्व, आनन्द रहित व ईश्वर से आनन्द की अपेक्षा रखने व प्राप्त करने वाला, अल्पज्ञ, निराकार, अल्प व सीमित शक्ति से युक्त, न्याय व अन्याय करने वाला, अजन्मा, अनादि, अविनाशी, अमर, जिसका आधार ईश्वर है, ईश्वर से ऐश्वर्य प्राप्त करने वाला, एकदेशी, ससीम, ईश्वर से व्याप्य, अजर, नित्य व पवित्र है। यह कर्म करने में स्वतन्त्र तथा उनका फल भोगने में ईश्वर की व्यवस्था में परतन्त्र है। ईश्वर की उपासना करना इसका कर्तव्य है।
जीवात्मा और ईश्वर का वेद सम्मत युक्ति व तर्क सम्मत स्वरूप उपर्युक्त पंक्तियों में वर्णित है। जीवात्मा के स्वाभाविक गुणों में अल्पज्ञता, नित्य व इसका अनादि होना आदि गुण हैं जो सर्वज्ञता में कदापि नहीं बदल सकते। ईश्वर अपने स्वाभाविक गुण के अनुसार ही सर्वज्ञ है। जीवात्मा अल्प शक्तिशाली है तो ईश्वर सर्वशक्तिमान है। ईश्वर सृष्टि को बनाकर इसका सफलतापूर्वक संचालन करता है। यह कार्य जीवात्मा कितनी भी उन्नति कर ले नहीं कर सकता। ईश्वर सर्वव्यापक है और जीवात्मा एकदेशी। यह जीवात्मा अधिकतम उन्नति कर भी सर्वव्यापकता को प्राप्त नहीं कर सकता। इसी प्रकार से जीवों की अपनी सीमायें है। अतः जीवात्मा सदा जीवात्मा ही रहेगा और ईश्वर सदा ईश्वर रहेगा। यह जान लेने के बाद यह जानना शेष है कि जीवात्मा अधिकतम उन्नति कर किस स्थान को प्राप्त कर सकता है। इसका उत्तर यह मिलता है कि जीवात्मा के अन्दर मुख्य रूप से दो गुण विद्यमान हैं। एक ज्ञान व दूसरा कर्म या क्रिया। जीवात्मा अल्पज्ञ और ससीम होने से सीमित ज्ञान ही प्राप्त कर सकता है और सीमित कर्म या क्रियायें ही कर सकता है। ज्ञान प्राप्ति व कर्म करने में भी इसे ईश्वर की सहायता की अपेक्षा है। ईश्वर ने जीवात्मा में ज्ञान की उत्पत्ति के लिए सृष्टि के आरम्भ में चार वेदों ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद तथा अर्थववेद का ज्ञान चार ऋषियों अग्नि, वायु, आदित्य व अंगिरा के माध्यम से दिया था जो विगत 1.96 अरब वर्षों से यथावत् चला आ रहा है। वेदों में एक साधारण तिनके से लेकर सभी सृष्टिगत पदार्थों व संसार की सबसे सूक्ष्म व बड़ी सत्ता ईश्वर तक का आवश्यक ज्ञान दिया गया है। ईश्वर प्रदत्त ज्ञान होने से यह पूर्णतया निभ्रान्त सत्य ज्ञान है और परम प्रमाण है। यह भी कह सकते हैं कि वेदो में सत्य ज्ञान की पराकाष्ठा है। जीवात्मा परम्परानुसार पुरूषार्थ व तप पूर्वक वेदों का ज्ञान अर्जित कर सर्वोच्च उन्नति पर पहुंच सकता है। यही उसका उद्देश्य व लक्ष्य भी है। जीवात्मा में दूसरा गुण कर्म करने का है। कर्म भी मुख्यतः शुभ व अशुभ भेद से दो प्रकार के हैं। उसे कौन से कर्म करने हैं और कौन से नहीं, इसका ज्ञान भी वेदों से मिलता है। अन्य सामान्य आवश्यक कर्मों के साथ ईश्वरोपासना, अग्निहोत्र यज्ञ, माता-पिता-आचार्य व विद्वान अतिथियों की सेवा तथा सभी प्राणियों के प्रति मित्रता का भाव रखते हुए उनके जीवानयापन में सहयोगी होना ही मनुष्य के मुख्यः कर्म हैं जो उन्हें नियमित रूप से करने होते हैं। इनमें अनाध्याय नहीं होता। इस प्रकार वेदों का ज्ञान प्राप्त कर वेद विहित कर्मों को करके मनुष्य उन्नति के शिखर पर पहुंचता है। इसके अलावा जीवन की उन्नति का अन्य कोई मार्ग है ही नहीं। केवल धन कमाना और सुख सुविधाओं को एकत्रित करना ही जीवन का उद्देश्य नहीं है। धर्म व सदाचार पूर्वक घन कमाना यद्यपि धर्म के अन्तर्गत आता है परन्तु इससे जीवन की सर्वांगीण उन्नति नहीं हो सकती। इसके लिए तो वेद विहित व निर्दिष्ट सभी करणीय कर्मों को करना होगा और निषिद्ध कर्मों का त्याग करना होगा।
ईश्वरोपासना व अग्निहोत्र आदि वेद विहित कर्मों को करके मनुष्य की ईश्वर से मित्रता हो जाती है अर्थात् जीवात्मा ईश्वर का सखा बन जाता है। महर्षि दयानन्द, मर्यादा पुरूषोत्तम राम, योगेश्वर कृष्ण, पतंजलि, गौतम, कपिल, कणाद, व्यास, जैमिनी, पाणिनी तथा यास्क आदि ऋषियों ने सम्पूर्णं वेदों का ज्ञान प्राप्त कर वेदानुसार कर्म करके ईश्वर का सान्निध्य, मित्रता व सखाभाव को प्राप्त किया था। यह ईश्वर तो नहीं बने परन्तु ईश्वर के सखा अवश्य बने। यह सभी विद्वान भी थे और धर्मात्मा भी। महर्षि दयानन्द ने अपने ग्रन्थ ‘व्यवहार भानु’ में एक प्रश्न उठाया है कि क्या सभी मनुष्य विद्वान व धर्मात्मा हो सकते हैं? इसका युक्ति व प्रमाण सिद्ध उत्तर उन्होंने स्वयं दिया है कि सभी विद्वान नहीं हो सकते परन्तु धर्मात्मा सभी हो सकते हैं। ईश्वर का मित्र बनने के लिए वेदों का विद्वान बनना व वेद की शिक्षाओं का आचरण कर धर्मात्मा बनना मनुष्य जीवन की उन्नति का शिखर स्थान है। इससे ईश्वर से सखा भाव बन जाता है। यदि कोई विद्वान न भी हो तो वह विद्वानों की संगति कर उनके मार्गदर्शन में ऋषियों मुनियों के ग्रन्थों का स्वाध्याय कर धर्मात्मा बन कर ईश्वर से मित्रता व सखाभाव उत्पन्न कर सकता है और जीवन सफल बना सकता है। यह सफलता धर्म, अर्थ, काम व मोक्ष इन चार पुरूषार्थों का युग्म है। यह वेद के ज्ञान से सम्पन्न और वेदानुसार आचरण करने वाले योगियों या ईश्वर भक्तों को ही प्राप्त होती है। यहां यह भी उल्लेखनीय है कि आजकल प्रचलित मत-मतान्तर के अनुयायियों को ईश्वर का यह मित्रभाव पूर्णतः प्राप्त नहीं हो सकता, आंशिक व न्यून ही प्राप्त हो सकता है। यह सभी मत-मतान्तर धर्म नहीं है। यह विष मिश्रित अन्न के समान त्याज्य हैं इसलिए कि इनमें सत्य व असत्य दोनों का मिश्रण हैं। पूर्ण सत्य केवल वेदों में है जिसे स्वाध्याय द्वारा जाना जा सकता है। आईये, वेद की शरण में चले और वेदाचरण कर ईश्वर से मित्रभाव व सखा प्राप्त कर अपने जीवन की उच्चतम उन्नति कर धर्म, अर्थ, काम व मोक्ष को प्राप्त करें। यह मित्रभाव ऐसा होता है कि दोनों एक तो नहीं बनते लेकिन लगभग समान कहे जा सकते हैं। ऐसी स्थिति में जीव यह धोषणा कर सकता है कि ‘अहं ब्रह्मास्मि’अर्थात् मैं ब्रह्म में हूं, ब्रह्म अर्थात् ईश्वर मुझ में है, हम दोनों परस्पर सखा व मित्र बन गये हैं। यही नहीं ‘सर्वा आशा मम मित्रं भवंतु’अर्थात् सभी दिशायें और सभी प्राणी मेरे मित्र बन गये हैं। मेरा जीवन सार्थक हो गया है।
‘ईश्वर को क्यों जानें, जानें या न जानें?’
हमारे एक लेख ‘ईश्वर सर्वज्ञ है तथा जीवात्मा अल्पज्ञ है’ को गुरूकुल में शिक्षारत एक ओजस्वी युवक व हमारे मित्र ने पसन्द किया और अपनी प्रतिक्रया में कहा कि लोग ईश्वर को मानते नहीं है अतः एक लेख इस शीर्षक से लिखें कि हम ईश्वर को क्यों मानें? हमें यह सुझाव पसन्द आया और हमने इस विषय पर लिखने का उन्हें आश्वासन दिया। ईश्वर को हम मानें या न मानें, परन्तु पहले उसे जानना आवश्यक हैं। जानना क्यों है? इसलिये कि यदि हमें उससे कुछ लाभ होता या हो सकता है तो हम उससे वंचित न रहें। यदि उससे कुछ लाभ नहीं भी होता है तो फिर उसे जानकर उसको मानना छोड़ सकते हैं। प्रश्न का मूल यह भी है कि क्या ईश्वर है? इसका उत्तर है कि ईश्वर हो भी सकता है और नहीं भी। यदि नहीं है तो फिर एक प्रश्न जिसका उत्तर ढूंढना होगा वह यह है कि यदि नहीं है तो यह ब्रह्माण्ड कैसे बना, किसने बनाया व क्यों बनाया? प्राणी जगत को कौन बनाता है और इनका नियमन किसके द्वारा होता है? कोई भी क्रिया यदि होती है तो उसके कर्ता का होना अवश्यम्भावी है। यदि कर्ता न हो तो क्रिया होना सम्भव नहीं है। संसार में हम अपनी आंखों से जिन सूर्य, चन्द्र, पृथिवी आदि पदार्थों और प्राणी जगत को देखते हैं उनका कर्ता अर्थात उन्हें बनाने वाला कोई न कोई तो अवश्य ही है। यदि नहीं है तो अपने-आप वा स्वतः तो कुछ बनेगा नहीं। संसार यथार्थतः अर्थात् सचमुच में है, यह इस बात का प्रमाण है कि संसार का कर्ता अर्थात् इसका बनाने वाला अवश्य है। उसका अस्तित्व सिद्ध हो जाने के बाद उसके स्वरूप का तर्क, बुद्धि वा युक्तिसंगत ज्ञान होना आवश्यक है अन्यथा फिर अन्ध-विश्वास अपना काम करते हैं और हमारा जीवन अज्ञान पूर्ण कृत्यों व झूठी आस्था को समर्पित हो जाता है।
उस स्रष्टा का स्वरूप जानने के लिए उसका पहला गुण उसकी सत्ता का होना है अतः इस कारण से वह सत्य पदार्थ कहा जाता है। रचना हमेशा चेतन तत्व द्वारा होती है, जड़ या निर्जीव तत्व के द्वारा नहीं होती, अतः स्रष्टा का एक स्वरूप या गुण उसका चेतन तत्व होना है जिसे चित्त कहा जाता है। अब कोई चेतन सत्ता जिसमें दुख व क्लेश हो, वह तो संसार को बना नहीं सकती, अतः उसका समस्त दुःखों से रहित होना और आनन्द स्वरूप होना भी सिद्ध होता है। इसके बाद हम इस ब्रह्माण्ड के स्वरूप पर ध्यान देते हैं और विचार करते हैं तो हमें यह अनन्त परिमाण वाला दिखाई देता है। रचना व रचयिता का एक स्थान पर होना आवश्यक है। हम देहरादून में बैठे हुए जहां पर हैं, वही पर कोई रचना कर सकते हैं। देहरादून में या किसी स्थान पर स्थित कोई व्यक्ति वहां से 5 या 10 किलोमीटर वा कम या ज्यादा दूरी पर कोई रचना नहीं कर सकते। अतः इस संसार को अनन्त परिमाण में देखकर ईश्वर भी अनन्त व सर्वव्यापक, सर्वदेशी सिद्ध होता है और उसका सूक्ष्मतम होना भी आवश्यक है। इस ब्रह्माण्ड को बनाने के लिए अल्प शक्ति से काम नहीं चलेगा अतः उसका सर्वशक्तिमान होना भी अपरिहार्य है। कोई भी उपयोगी रचना के लिए ज्ञान की आवश्यकता होती है। ज्ञान की कमी से रचना करने पर उसका उद्देश्य पूरा नहीं होता तथा रचना में दोष आ जाते हैं। जिस सत्ता से यह सूर्य, चन्द्र, पृथिवी, मानव शरीर व अन्य प्राणी जगत बना है, वह कोई साधारण ज्ञानी नहीं है अपितु उसमें ज्ञान की पराकाष्ठा है, ऐसी सत्ता वह सिद्ध होती है। अतः उसे सर्वज्ञानमय या सर्वज्ञ कहा जाता है। इस प्रकार से अन्यान्य गुणों का समावेश उस सत्ता में सिद्ध होता व किया जा सकता है। महर्षि दयानन्द ने इस सत्ता के स्वरूप को एक वाक्य में इस प्रकार से कहा है – ‘ईश्वर सत्य–चित्त–आनन्दस्वरूप, निराकार, सर्वशक्तिमान्, न्यायकारी, दयालु, अजन्मा, अनन्त, निर्विकार, अनादि, अनुपम, सर्वाधार, सर्वेश्वर, सर्वव्यापक, सर्वान्तर्यामी, अजर, अमर, अभय, नित्य, पवित्र और सृष्टिकर्ता है, उसी की उपासना करनी योग्य है।‘
ईश्वर के इस स्वरूप का ज्ञान प्राप्त कर उसके अन्य कार्यों को भी विचार कर जान लेते हैं। ईश्वर ने प्राणी जगत को बनाया है जिसमें मनुष्य, पशु, पक्षी अर्थात् समस्त थलचर, नभचर तथा जलचर आदि सम्मिलित हैं। इन सभी प्राणियों के शरीरों में हम एक-एक जीवात्मा को पाते हैं। इन सूक्ष्म, एकदेशी, ससीम, चेतन तत्व जीवात्माओं को ही ईश्वर ने भिन्न-भिन्न प्राणि-शरीर प्रदान किये हैं जिनसे यह सुख व दुखों का भोग करने के साथ कर्म में प्रवृत्त रहते हैं। सभी प्राणियों के सुख-दुख के जब कारणों की विवेचना करते हैं तो ज्ञात होता है कि शुभ व अशुभ, अच्छे वा बुरे तथा पुण्य वा पाप कर्मों को मनुष्य योनि में लोग करते हैं। शुभ, अच्छे व पुण्य कर्मों का फल सुख दिखाई देता है और अशुभ, बुरे वा पाप कर्मों का फल दुःख दिखाई देता है। अतः ईश्वर जीवात्माओं को कर्म के फल प्रदान करने वाला तथा सभी प्राणियों को उनके शुभाशुभ कर्मों के आधार पर मनुष्य, पशु, पक्षी आदि योनियेां में जन्म देता है, यही तर्क व युक्तियों से सिद्ध होता है। यह भी ईश्वर के स्वरूप व कार्यों का एक मुख्य अंग है।
ईश्वर का स्वरूप विदित हो जाने के बाद हमें थोड़ा सा अपने स्वरूप पर भी विचार करना उचित प्रतीत होता है। हम सब चेतन तत्व है और हमारी सत्ता यथार्थ अर्थात् सत्य है। हमारी सत्ता काल्पनिक व अन्धकार में रस्सी को देख कर सांप की भ्रांति होने जैसी नहीं है अपितु यह पूर्णतः सत्य है व उसका अस्तित्व यथार्थ है। यह अस्तित्व अनुत्पन्न, अनादि, नित्य, अविनाशी, अमर सिद्ध होता है। कोई मनुष्य दुःख नहीं चाहता परन्तु वह इसमें विवश है। जब-जब उसे दुःख, रोगादि व दुर्घटनाओं, आर्थिक तंगी, अशिक्षा, अज्ञान आदि के कारण होता है तो उसमें वह विवश व परतन्त्र होता है। इससे यह सिद्ध होता है दुःख का कारण उसके अशुभ कर्म वा उन कर्मों के ईश्वर द्वारा दिये जाने वाले फल हैं जो वर्तमान व पूर्व जन्म के कर्मों के आधार पर ईश्वर से उसे जीवन भर मिलते रहते हैं। इस प्रकार से जीव की सत्ता अनादि, नित्य व इसका स्वरूप सत्य व चेतन, एकदेशी, सूक्ष्म, आकार-रहित, अजर, अमर, जन्म-मरण-धर्मा सिद्ध होता है।
ईश्वर के बारे में संक्षेप में तो हम जान ही गये हैं। उसका अस्तित्व निभ्र्रान्त रूप से सिद्ध है। अब उसको माने या न मानें, इस प्रश्न पर विचार करते हैं। जो पदार्थ यथार्थ रूप में हैं उनको मानना ही ज्ञान व न मानना अज्ञान कहलाता है। ईश्वर है तो उसे तो मानना ही पड़ेगा। अब दूसरी प्रकार का मानना यह है कि हम उससे क्या कोई लाभ ले सकते हैं या स्वयं को होने वाली हानियों से बचा सकते हैं? इसका उत्तर है कि हम उसका चिन्तन कर उसे अधिक से अधिक जानने का प्रयास करें। इस कार्य में हम सत्यार्थ प्रकाश आदि सत्य के अर्थ का प्रकाश करने वाले ग्रन्थ की सहायता भी ले सकते हैं। मनुष्य को ज्ञान नैमित्तिक साधनों से प्राप्त होता है। यह ज्ञान माता-पिता-आचार्यों से भी प्राप्त होता है या फिर पुस्तकों का अध्ययन कर ज्ञान हो सकता है। माता-पिता-आचार्यों व पुस्तकों की बहुत सी या कुछ बातें अज्ञान व अविवेक पूर्ण भी हो सकती है जो कि उनकी ज्ञान की क्षमता पर निर्भर होती है जो कि सीमित है। कोई भी मनुष्य पूर्ण ज्ञानी अर्थात् सर्वज्ञ कदापि नहीं हो सकता। ससीम व एकदेशी होने के कारण जीवात्मा अल्पज्ञ अर्थात् अल्प ज्ञान प्राप्त करने वाली है। इसे ज्ञान वृद्धि के लिए माता-पिता-आचार्यों की अपेक्षा होती है जो इससे अधिक जानते हों। अतः सत्य ज्ञान की पुस्तकों को पढ़कर ज्ञान प्राप्त किया जा सकता है। पुस्तकों का ज्ञान भी दो प्रकार का होता है। अधिकांश पुस्तके सत्य व असत्य का मिश्रण होती हैं। अनेक पुस्तकें, धार्मिक व सामाजिक सभी प्रकार की, क्षुद्राशय मनुष्यों ने अपनी अज्ञानता व कुछ स्वार्थों के कारण बनाई हुई होती हैं वा हैं जिसमें सत्य के साथ असत्य मिश्रित है और ऐसी पुस्तकें विष मिश्रित अन्न या भोजन के समान हैं। प्रायः अल्पज्ञानी मनुष्यों द्वारा ही निर्मित सभी पुस्तकें हैं और सभी इसी कोटि में आती है। चार वेद यद्यपि ज्ञान की पुस्तकें हैं परन्तु यह किसी मनुष्य की रचना न होकर संसार को बनाने वाले और चलाने वाले सच्चिदानन्द स्वरूप ईश्वर की रचनायें हैं। इन पुस्तकों में निहित ज्ञान को ईश्वर ने सृष्टि के आरम्भ में चार श्रेष्ठ बुद्धि व स्वस्थ शरीरधारी पुण्यात्माओं को प्रदान किया था। इन्हीं वेदों के आधार सतत वेदों का अघ्ययन, चिन्तन, उपासना करके हमारे प्राचीन ऋषियों ने वेदानुकूल सत्य ज्ञान की पुस्तकेों को रचा था। ऐसे ग्रन्थों में वेदों से इतर शिक्षा, कल्प, व्याकरण, निरूक्त, निघण्टु, ज्योतिष, उपनिषद व दर्शन, प्रक्षेप रहित मनुस्मृति आदि ग्रन्थ हैं। इनमें सत्यार्थ प्रकाश तथा ऋग्वेदादिभाष्य भूमिका आदि ग्रन्थ भी सम्मिलित होते हैं।
इन पुस्तकों का अध्ययन कर सत्य-सत्य ज्ञान को प्राप्त किया जा सकता है। इनसे यह जाना जाता है कि हम ईश्वर से जीवन में जो चाहें, वह प्राप्त कर सकते हैं। उसके लिए हमें अपनी प्रार्थना के अनुरूप पात्रता को प्राप्त करना होता है। संसार में धन व सम्पत्ति आवश्यक हैं। इसकी प्राप्ति के लिए मनुष्यों का स्वस्थ शरीर होना आवश्यक है। अतः स्वास्थ्यवर्धक भोजन, व्यायाम व प्राणायाम आदि करके शरीर को स्वस्थ रखना चाहिये और रोगादि होने पर उचित उपचार करना चाहिये। इसके अतिरिक्त संसार के सबसे बहुमूल्य पदार्थ ईश्वर को जानकर उसकी प्राप्ति के लिए स्तुति, प्रार्थना व उपासना करनी चाहिये। इससे ईश्वर से मित्रता व पे्रम सम्बन्ध स्थापित हो जाता है। इसकी अन्तिम परिणति ईश्वर साक्षात्कार के रूप में होती है। यह ऐसी अवस्था होती है कि इसे प्राप्त कर कुछ प्राप्त करना शेष नहीं रहता। मनुष्य के आधिदैविक, आधिभौतिक व आध्यात्मिक, इन तीन कारणों से होने वाले सभी दुःखए ईश्वरोपासना एवं सदकर्मों से दूर हो जाते हैं। जीवन पूर्णतः सुखी हो जाता है। इस स्थिति में पहुंच कर मनुष्य दूसरों का मार्गदर्शन, उपदेश व प्रवचन द्वारा तथा सरल भाषा में अज्ञान व अन्धविश्वास रहित तथा ज्ञान से पूर्ण पुस्तकें लिखकर कर सकता है। ऐसे व्यक्ति की मृत्यु होने पर वह जन्म-मरण के चक्र से छूट जाता है। कारण यह है कि जन्म व मरण हमारे कर्मों के आश्रित हैं और जब हम कोई अशुभ कर्म करेंगे ही नही तो फिर जन्म होगा ही नहीं। यह मोक्ष की अवस्था कहलाती है। जिस प्रकार अच्छा व श्रेष्ठ कार्य करने पर माता-पिता-आचार्यों व शासन से पुरस्कार मिलता है, उसी प्रकार से उपासना की सफलता व अशुभ कर्मों का क्षय हो जाने पर पुरस्कार स्वरूप ईश्वर केे द्वारा मोक्ष प्राप्त होता है। यह मोक्ष ऐसा है कि इसमें जीवात्मा को ईश्वर के द्वारा सुखों की पराकाष्ठा आनन्द की प्राप्ति होती है। इसकी अवधि 31 नी 10 खरब 40 अरब वर्षों की होती है। इतनी अवधि तक जीवात्मा जन्म व मृत्यु के चक्र से छूट कर ईश्वर के सान्निध्य में रहकर आनन्द का उपभोग करता है। मोक्ष व उपासना के बारे में वेदों व ऋषियों के ग्रन्थों को पढ़कर निर्भ्रांत ज्ञान प्राप्त किया जा सकता है।
हमने अपने अध्ययन में पाया कि महर्षि दयानन्द, स्वामी श्रद्धानन्द, पं. गुरूदत्त विद्यार्थी, पं. लेखराम, महात्मा हंसराज, स्वामी दर्शनानन्द सरस्वती आदि महात्माओं ने वेदों एवं इतर वैदिक साहित्य का अध्ययन कर ईश्वर, जीवात्मा तथा प्रकृति के सत्य स्वरूप को जाना था। उनका जीवन ईश्वर की स्तुति, प्रार्थना व उपासना के साथ वैदिक कर्तव्यों का निर्वहन अर्थात् पंच महायज्ञ आदि कर्मों को करने के साथ समाज के हितकारी परोपकारी, सेवा व समाजोन्नति तथा देशोन्नति के कार्यां में व्यतीत हुआ। यह सभी लोग प्रातः व सायं नियमित रूप से ईश्वर की स्तुति-प्रार्थना-उपासना करते थे। इससे यह बात भी ज्ञात होती है कि इन महात्माओं की गुणों व कर्मों की समानता व पवित्रता के कारण ईश्वर से पूर्ण निकटता थी। समाज के हित के सभी सेवा व परोपकार आदि कार्य भी इन्होंने किये। स्वामी श्रद्धानन्द, पं. गुरूदत्त विद्यार्थी, स्वामी दर्शनानन्द सरस्वती तथा महात्मा हंसराज शिक्षा जगत से जुड़े हुए थे और इस क्षेत्र में इन्होंने प्रशंसनीय कार्य किया। पं. लेखराम ने महर्षि दयानन्द जी के जीवन चरित की खोज के साथ वैदिक धर्म का प्राणपन से प्रचार किया और अगणित स्वजातीय बन्धुओं को विधर्मी होने से बचाया और अन्य मतों के बन्धुओं में वैदिक मत का प्रचार कर उन्हें वैदिक धर्म का प्रेमी व प्रशंसक बनाया। इन सभी बन्धुओं ने उपासना के द्वारा ईश्वर से अत्यन्त निकटता प्राप्त की हुई थी। महर्षि दयानन्द तो असम्प्रज्ञात समाधि को भी सिद्ध किये हुए थे। अन्य महात्मा वा महापुरूष भी असम्प्रज्ञात समाधि के अत्यन्त निकट थे जो कि मोक्ष व जीवन की पूर्ण सफलता का द्वारा व आरम्भ है। इन सभी महात्माओं ने पवित्र जीवन व्यतीत किया जो हम सभी के लिए आदर्श एवं अनुकरणीय है। समाज में इनका अति उच्च एवं सम्माननीय स्थान था और इनका व्यक्तिगत जीवन भी सन्तोष रूपी सुख से भरपूर था। इससे यह अनुमान किया जा सकता है कि इन जैसा जीवन ही सभी मनुष्य जीवनधारी प्राणियों का होना अभीष्ट है।
ईश्वर को क्यों जाने ? जाने या न जाने? का उत्तर हमें मिल चुका है। यदि हमने ईश्वर को जान लिया तो हम निश्चय ही उसे मानेगे भी अर्थात् अपने लाभों के लिए उसकी स्तुति, प्रार्थना व उपासना वेद के अनुसार करेंगे जिसका परिणाम होगा कि हम सभी प्रकार के दुःखों से मुक्त होकर सदा आनन्द में विचरण करने वाले होकर मोक्ष को प्राप्त कर सकेंगे। आईयें, ईश्वर के सत्य स्वरूप को जानने का प्रयास करें, सत्साहित्य का अध्ययन करें और अज्ञान, ढ़ोग, पाखण्ड, अन्धविश्वासों व कुरीतियों को तिलांजलि दे दें क्योंकि इनसे बन्धन पैदा होते हैं और जीवन सुख-दुख के चक्र में फंस कर असफल होता है।
‘पुनर्जन्म व त्रैतवाद के सिद्धांत पर एक आर्य विद्वान के नए तर्क व युक्तियाँ ‘
वैदिक सनातन धर्म पुनर्जन्म के सिद्धान्त को सृष्टि के आरम्भ से ही मानता चला आ रहा है। इसका प्रमाण है कि सृष्टि के आरम्भ में ईश्वर ने प्रथम चार ऋषियों और स्त्री-पुरूषों को उत्पन्न किया। अग्नि, वायु, आदित्य और अंगिरा नाम के चार ऋषियों को परमात्मा ने चार वेदों का ज्ञान दिया। वेदों में पुनर्जन्म का सिद्धान्त ईश्वर द्वारा बताया गया है। इसलिए इस सिद्धान्त पर शंका करने का कोई कारण नहीं है। तथापि अनेक तर्कों से इस सिद्धान्त को सिद्ध भी किया जा सकता है। वैसे सिद्धान्त कहते ही उसे हैं जो स्वयं सिद्ध हो व जिसे तर्क व युक्तियों से सिद्ध किया जा सके। असिद्ध बातों को सिद्धान्त नहीं कहा जा सकता। एक प्रसिद्ध सिद्धान्त है कि अभाव से भाव उत्पन्न नहीं हो सकता और भाव का अभाव नहीं हो सकता। गीता में भी इस आशय का श्लोक है कि जिस वस्तु का अस्तित्व होता है उसका अभाव अर्थात् उसका विनाश कभी नहीं होता। जो सत्ता है ही नहीं वह कभी अस्तित्व में नहीं आ सकती। ईश्वर भी अभाव से भाव की उत्पत्ति नहीं कर सकता। वह भाव से भाव को उत्पन्न करता है अर्थात् कारण प्रकृति से संसार बनाता है और जीवात्माओं को मनुष्यादि जन्म देता है। सृष्टि में कारण प्रकृति व जीव का अस्तित्व नित्य व शाश्वत् है और नित्य पदार्थ सदा अविनाशी होता है।
आर्य जगत के प्रसिद्ध विद्वान प्राध्यापक राजेन्द्र जिज्ञासु एक बार नागपुर के हंसापुरी आर्य समाज के कार्यक्रम में भाग लेने पहुंचे। वहां उनकी प्रेरणा से हुतात्मा पं. लेखराम जी की स्मृति में कुछ समय पूर्व वैदिक साहित्य की बिक्री का केन्द्र आरम्भ किया गया था। इस पुस्तक बिक्री केन्द्र में प्रा. जिज्ञासु जी की स्वसम्पादित पुस्तक “कुरान वेद की ठण्डी छाओं में” उपलब्ध थी। संयोगवश एक मुस्लिम युवक अपने एक हिन्दू मित्र के साथ घूमता हुआ आर्य समाज मन्दिर आ गया। इस समाज के अधिकारी श्री उमेश राठी इन युवकों को वहां मिल गये। उन्होंने इन दोनों युवकों को पुस्तक बिक्री केन्द्र कक्ष में ही बैठाया। यह मुस्लिम युतक जमायते इस्लामी की तबलीग के लिए एक वर्ष में एक मास का समय दिया करता था।
युवक ने वहां विद्यमान पुस्तक ‘कुरान वेद की ठण्डी छाओं में’ को देखा तो उसे लेकर उसके पन्ने पलटने कर देखने लगा। उसने पुस्तक को लेने के लिए राठी जी से पुस्तक का मूल्य पूछा तो उन्होंने कहा कि यह हमारी ओर से आपको भेंट है। राठी जी ने उसे बताया कि हमारे यहां इस समय इस्लाम के एक अधिकारी विद्वान प्रा. राजेन्द्र जिज्ञासु जी विद्यमान हैं। क्या वह उनसे चर्चा करना पसन्द करेगा। वह युवक इसके लिए एकदम तैयार हो गया। जिज्ञासुजी सन्ध्या कर रहे थे। उससे निवृत होकर उस मुस्लिम युवक से वार्तालाप आरम्भ करते हुए उन्होंने कहा कि आप तबलीग़ करते हुए मुख्य विचार क्या देते हैं? उस युवक ने कहा-“जो हज करे, नमाज़ पढ़े, रोज़ा रखे, वह सच्चा मुसलमान है। जो आवागमन को माने वह काफिर है।“ उसने ऐसी कुछ और बातें भी कहीं यथा “मुहम्मद अल्लाह का अन्तिम नबी और कुरान उसका अन्तिम इल्हाम है”, इस बात को विशेष बल देकर कहा। यह सब सुनकर प्रा. राजेन्द्र जिज्ञासु उस युवक से बोले – “क्या आपने बर्फ देखी है? उसने कहा, क्यों नहीं?, देखी है।“ उन्होंने पूछा बर्फ पर घूप पड़े तो क्या होगा? युवक ने उत्तर दिया कि बर्फ पिघल कर जल बन जायेगा। जिज्ञासु जी ने फिर पूछा कि उस जल पर सूर्य की किरणे पड़ने पर जल का क्या होगा? उत्तर मिला कि भाप बन जायेगी। युवक से फिर पूछा कि भाप का क्या होगा तो युवक बोला कि मेघ बनेंगे। ऐसे ही मेघ वर्षा बनकर वर्षेंगे। यह उस युवक का कथन था। अब जिज्ञासु जी ने समीक्षा करते हुए कहा कि ‘‘जड़, निर्जीव व अचेतन ज्ञान शून्य ब़र्फ का तो आप आवागमन मानते हैं और ज्ञानवान चेतन जीव के पुनर्जन्म को कु़फ्र्र बता रहे हैं। यह कैसी फि़लास्फी है?’’
जिज्ञासु जी ने आगे कहा कि आप आवागमन को मानने वालों को काफिर बता रहे हैं और आपका सबसे बड़ा दार्शनिक डा. इकबाल सुबह से रात व रात से सुबह, सूर्य तारों का उदय व अस्त होना, दिन व रात का एक दूसरे के बाद आना मानता है। वह जीवन का अन्त नहीं मानता। हज़रत मुहम्मद की कामना, “‘मैं अल्लाह की राह में शहीद हो जाऊं, फिर जन्मूँ–फिर शहीद हो जाऊं ……।“ को क्या कुफ्र ही मानेंगे? क्या यह आवागमन नहीं है?
जिज्ञासु जी युवक को बता रहे हैं – “एक मियां मर गया। उसे कबर में दबाया गया। इसके शरीर की खाद बन गई। कबर पर उगे पौधे को अच्छी खाद मिली। कब्रस्तान के मजावर की बकरी उस पौधे के पत्ते खा–खा कर पल गई। उसे कसाई ने क्रय कर लिया। उसका मांस खा–खा कर एक मियां का शरीर बन गया। वह मरा तो कबर में दबाया गया। उसका शव भी खाद बन गया फिर कब्रस्तान की बकरी ने खाया और वही चक्र चल पड़ा। क्या यह आवागमन है या नहीं?’’ वह लिखते हैं कि उस युवक के पास अब कहने के लिए कुछ था ही नहीं। उसे जो रटाया गया था वही उसने प्रकट किया। अब वह आगे क्या कहें?
जिज्ञासुजी ने उस युवक से एक अन्य विषय पर चर्चा आरम्भ कर कहा कि सृष्टि रचना से पूर्व क्या था? उसने कहा कि केवल अल्लाह था। उससे जिज्ञासु जी ने पूछा कि क्या आप अल्लाह को न्यायकारी, दयालु, दाता, पालक, स्रष्टा, स्वामी मानते हैं? उस युवक ने कहा – ‘क्यों नहीं? वह अल्लाह आदिल (न्यायकारी), दयालु है और यह उसका स्वभाव है।‘ उससे पूछा कि क्या अल्लाह के यह गुण सदा से, हमेशा से हैं? उस युवक ने कहा कि हां, अनादि काल से वह दयालु, न्यायकारी आदि है। इस पर जिज्ञासुजी ने उससे पूछा कि जब अल्लाह के अतिरिक्त कोई था ही नही तो वह दया किस पर करता था? न्याय किसे देता था? जब प्रकृति थी ही नहीं, वह देता क्या था? सृजन क्या करता था? जीव तो थे नहीं, वह पालक स्वामी किसका था? उस युवक से वार्ता के समय वहां आर्य समाज के विद्वान व अन्य लोग भी उपस्थित थे। उन्होंने जिज्ञासुजी से कहा कि आवागमन व त्रैतवाद के बारे में आपकी युक्तियां हमने प्रथम बार ही सुनी हैं। यह वर्णन आर्य समाज या किसी वैदिक ग्रन्थ में भी नहीं है।
इस युवक से संयोग का परिणाम यह हुआ कि प्रा. राजेन्द्र जिज्ञासु जी ने आवागमन सहित कुछ अन्य विषयों पर नये अन्दाज से विचार प्रस्तुत किये जिनसे वैदिक मत के सिद्धान्तों की पुष्टि हुई। वैदिक मत और आर्य समाज में पुनर्जन्म अर्थात् आवागमन पर इतनी सामग्री है कि जिसे पढ़कर पुनर्जन्म संबंधी सभी शंकाओं का निराकरण हो जाता है। इस विषय पर एक शताब्दी से कुछ अधिक पहले रक्तसाक्षी, हुतात्मा शहीद पं. लेखराम जी ने एक महत्वपूर्ण तर्क प्रमाण पुरस्सर पुस्तक लिखी थी। पुस्तक लिखने से पूर्व उन्होंने विज्ञप्तियां देकर सभी मत-मतान्तर के लोगों को पुनर्जन्म विषयक अपनी शंकायें भेजने के लिए प्रेरित किया था। उन्होने सभी प्रकार की सभी शंकाओं का निराकरण व समाधान अपनी पुस्तक में किया है। वेद और गीता पुनर्जन्म को स्वीकार करती हैं। वर्तमान में समय में कोई कुछ भी कहे व माने, परन्तु आवागमन और ईश्वर-जीव-प्रकृति के नित्य, अजन्मा व अविनाशी होने का त्रैतवाद का सिद्धान्त सर्वत्र व्यवहार में है। विज्ञान भी जड़ प्रकृति के अस्तित्व को स्वीकार करता है जो कि निभ्र्रान्त सत्य है। इसी के साथ इस चर्चा को विराम देते हैं।
ईश्वर व जीवात्मा के अस्तित्व के प्रमाण
बच्चा जब संसार में जन्म लेता है तो वह न तो अपनी भावना को बोल कर कह सकता है और न अपने आप उठ-बैठ सकता है, चलना फिरना तो उसका कई महीनों व एक वर्ष का हो जाने पर आरम्भ होता है। माता-पिता बच्चे को बोलना सिखाते हैं, उठना-बैठना व चलना-फिरना सिखाते हैं। इस परम्परा पर दृष्टि डाले तो हम सृष्टि के आरम्भ में पहुंच जाते हैं। हमारे आदि पूर्वजों के माता पिता नहीं थे। आदि का अर्थ ही प्रारम्भ की अवस्था है। वैदिक साहित्य इसका उत्तर देता है कि आदि सृष्टि में युवा स्त्री व पुरूष पैदा हुए थे। यह सृष्टि अमैथुनी सृष्टि थी जिसका अर्थ होता कि बिना माता-पिता की सृष्टि। प्रश्न उठना स्वाभाविक है कि इन्हें फिर किसने जन्म दिया? इसका उत्तर है कि माता पिता के न होने से यह जन्म इस संसार को बनाने व चलाने वाले “ईश्वर” ने दिया था। अब हमारे नास्तिक बन्धु कहेंगे कि सिद्ध करो कि ईश्वर है? हम पूछते हैं कि हम मान लेते हैं कि ईश्वर नहीं है। नास्तिक बन्धु हमें बतायें और सिद्ध करें कि ईश्वर के न होने पर यह सूर्य, चन्द्र, तारे, पृथिवी, गृह व उपग्रह व प्राणिजगत आदि संसार कब, किससे व कैसे बना? कौन इसे चला रहा है? इसका उत्तर न ईश्वर को न मानने वालों के पास है और न वैज्ञानिकों के पास ही। इसका उत्तर न होना ही ईश्वर के होने का प्रमाण है क्योंकि ईश्वर के अतिरिक्त इसका कोई उत्तर है ही नहीं। कोई भी उत्पत्ति किसी न किसी उत्पत्तिकर्ता के द्वारा ही होती है। यदि उत्पत्तिकर्ता दिखाई न दें तो उसे ढूढंना चाहिये न कि उसके अस्तित्व से इनकार करना। हमारे सामने भी यह प्रश्न आया कि ईश्वर दिखाई तो देता नहीं फिर उसे क्यों माना जाये? हमने स्वयं से तर्क किया तो उत्तर मिला कि यदि रचना है तो उसका रचयिता होना आवश्यक है।
दूसरा प्रश्न कि यदि वह है तो दिखाई क्यों नहीं देता? इसका उत्तर यह मिला कि अत्यन्त सूक्ष्म पदार्थ आंखों से दिखाई नहीं देते परन्तु उनका अस्तित्व होता है। आजकल माइक्रोस्कोप से ऐसे जीवाणु व सूक्ष्म कीट आदि तथा रक्त के सूक्ष्म कणों को देखा जाता है जिसको हमारी आंखे देखने में अपनी असमर्थता प्रकट करती है। अतः ईश्वर सूक्ष्म है इस सम्भावना का ज्ञान इन तर्कों से होता है। अब वह सत्ता संसार में रहती कहा हैं? इसका उत्तर भी तर्क से यह प्राप्त हुआ कि यह ब्रह्माण्ड अनन्त है। इसका न कोई ओर है न छोर। ब्रह्माण्ड में अनेक सूर्य व सौर्य मण्डल होने और इनकी संख्या अनन्त होने के प्रमाण हमारे वैज्ञानिकों ने अपनी बहुत ही आधुनिक दूरबीनों की सहायता व विवेचन से प्राप्त किये हैं। रचना जहां होती है वहां रचयिता का होना आवश्यक होता है। इस जानकारी पर तर्क करने से सिद्ध हुआ कि ईश्वर सर्वव्यापक, निराकार, सर्वदेशी, सर्वातिसूक्ष्म व सर्वान्तर्यामी है। अब इस प्रश्न पर विचार किया गया कि ईश्वर यदि है तो वह उत्पन्न कैसे हुआ, तर्क ने उत्तर दिया कि वह अनादि, अजन्मा और नित्य है। उत्पन्न सत्ता को उत्पत्तिकर्ता चाहिये और उत्पन्न सत्ता अमर या अविनाशी या नाशरहित नहीं हो सकती। यदि ईश्वर को उत्पत्तिधर्मा मानते हैं तो उसका नाश व मृत्यु भी माननी पड़ेगी, फिर एक अन्य उससे बड़े ईश्वर को मानना होगा जिसने उस ईश्वर को उत्पन्न किया था। और इस प्रकार से मानने से अनावस्था दोष आता है जिसका समाधान एक अनादि, अनुत्पन्न, अविनाशी, अनन्त अर्थात् जन्म व मृत्यु से रहित सत्ता को मानने से होता है। और विचार किया गया तो ज्ञात हुआ है कि वह सत्य, चेतन तत्व व आनन्द स्वरूपवान होना ही सम्भव है। यदि ऐसा न होगा तो ईश्वर कुछ कर ही न सकेगा। अब ईश्वर का स्वरूप निर्धारित हो जाने पर इसको सिद्ध करना है तो इसका सरल उपाय है कि आंखे बन्द करो और इन सब तर्कों व इसके विपरीत तर्कों का चिन्तन करो तो हमारी आत्मा में सत्य ज्ञान प्रकट हो जायेगा और वह वही होता है जिसे पूर्व तर्क के आधारित किया गया है। यहां इतना बताना आवश्यक है कि ईश्वर के स्वरूप के सम्बन्ध में यही स्वरूप हमारे वेदों, वैदिक साहित्य, दर्शन, उपनिषद, मनुस्मृति आदि ग्रन्थों में वर्णित किया गया है। हम वेदों की एक बात का यहां और वर्णन करना चाहेंगे जिसमें कहा गया है कि यह अनन्त ब्रह्माण्ड ईश्वर के सर्वव्यापक आकार का 1/3 भाग ही है। ईश्वर के इसके अतिरिक्त 2/3 भाग में भी ईश्वर अपने आनन्द स्वरूप में स्थित है। हमें लगता वहां यदि किसी की पहुंच हो सकती है तो वह मोक्ष प्राप्त करने वाली जीवात्माओं की हो सकती है।
अब दूसरा प्रमाण है कि सृष्टि की आदि में जब युवा स्त्री व पुरूष उत्पन्न हुए तो उनको ज्ञान की आवश्यकता थी। ज्ञान भाषा में निहित होता है अतः भाषा की भी आवश्यकता थी अन्यथा आदि स्त्री-पुरूषों का जीवन आगे चल ही नहीं सकता था। यहां फिर केवल ईश्वर की शरण में जाना पड़ता है और तर्क से उत्तर मिलता है कि ज्ञान व भाषा सिखाने व देने वाला यदि कोई है तो वह सृष्टिकर्ता ईश्वर ही है। अब यदि ऐसा है तो उसने जो ज्ञान दिया उसका प्राचीन साहित्य में उल्लेख होना चाहिये। उसका उल्लेख प्राचीनतम ब्राह्मण ग्रन्थों, मनुस्मृति, दर्शन ग्रन्थों व उपनषिदों आदि में मिलता है। यह सब एक मत से बताते हैं कि ईश्वर प्रदत्त ज्ञान वेद है। वेद को ईश्वरीय ज्ञान मानने की परम्परा आज तक चली आ रही है। आधुनिक काल में इसका प्रमाण पुरस्सर उत्तर महर्षि दयानन्द सरस्वती ने अपने वार्तालाप, उपदेशों, शास्त्रार्थों एवं सत्यार्थ प्रकाश व ऋग्वेदादिभाष्य भूमिका आदि ग्रन्थों में दिया है जिसका अनुसंधान एवं विस्तार उनके अनुयायियों ने विगत 140 वर्षों में किया है। वेद का ज्ञान व उसकी भाषा का अध्ययन करने पर यह निष्कर्ष सामने आता है कि वेद कोई मानवी कृति नही हो सकती, इसका ज्ञान प्रबुद्ध अध्येता को सहज ही जाता है। यहां हम यह भी बताना चाहते हैं कि आरम्भ में मनुष्य भाषा बना नहीं सकता। यदि आपके पास एक भाषा हो तो उसमें अपभ्रंस होकर कुछ मिलती-जुलती भाषा व भाषायें तो बनाई जा सकती हैं परन्तु सर्वप्राचीन भाषा केवल ईश्वर द्वारा ही दी जाती है। यदि वह भाषा न दे तो मनुष्य कुछ भी कर ले, भाषा नहीं बना सकता। इसका उत्तर यह भी है कि जिस प्रकार शरीर के सभी अंग ईश्वर के बनाये हुए हैं। आज विज्ञान उन्नति के चरम पर पहुंच गया है पर क्या एक किसी वैज्ञानिक ने मनुष्य की एक छोटी सी आंख, नाक, कान व जिह्वा अथवा कोई अंग बना पाया है, इसका उत्तर है कि नहीं। जो ईश्वरीय रचनायें हैं वह ईश्वर ही करता है। मनुष्य वही कर सकता है जो उसके लिए सम्भव है। पहली अर्थात् सृष्टि की आदि भाषा बनाना मनुष्य के लिए सम्भव नहीं है। हम चाहते हैं कि यदि किसी बन्धु को हमारी बात स्वीकार न करे तो वह चिन्तन करे और फिर अपने निष्कर्षों को भाषाविदों व ज्ञानविदों से शेयर करें और उनको सहमत कर लें, उसका सिद्धान्त सारी दुनियां में प्रचलित हो जायेगा। यदि आज भाषाविदों को भाषा की उत्पत्ति का निभ्र्रान्त उत्तर नहीं मिल रहा है तो इसका कारण यह है कि इसका उत्तर जो हमने पूर्व दिया है वही है और दूसरा कोई नहीं है। वैज्ञानिकों को कुछ समय बाद या भविष्य में कभी न कभी इस सिद्धान्त को सर्वसम्मति से स्वीकार करना ही होगा। यहां हम वेदों के आधार पर ईश्वर का संक्षिप्त स्वरूप प्रस्तुत कर रहे हैं जो स्वामी दयानन्द ने वेदों का गहन अध्ययन, योगाभ्यास व समाधि सिद्ध करने के बाद प्राप्त किया। वह है कि ईश्वर सच्चिदानन्दस्वरूप, सर्वज्ञ, निराकार, सर्वशक्तिमान, न्यायकारी, दयालु, अजन्मा, सर्वज्ञ, अनन्त, निर्विकार, अनादि, अनुपम, सर्वाधार, सर्वेश्वर, सर्वान्तर्यामी, अजर, अमर, अभय, नित्य, पवित्र और सृष्टिकर्ता है। वही सब मनुष्यों के उपासना के योग्य है अन्य कोई जन्मधारी मनुष्य, महापुरूष या अवतार उपासना के योग्य नहीं है। उन्होंने यह भी बताया कि अजन्मा होने से वह कभी अवतार या मनुष्य के रूप में जन्म न लेता है और न ले सकता है।
ईश्वर के साक्षात्कार के विषय में हम यह भी कहना चाहते हैं कि हमारे उपनिषदों के ऋषि ईश्वर का साक्षात्कार किये हुए उच्च कोटि के महापुरूष थे। मुण्डकोपनिषद् के ऋषि समाधि में ईश्वर की प्राप्ति का उल्लेख कर कहते हैं कि “भिद्यते हृदयग्रन्थिश्छिद्यन्ते सर्वसंशयाः। क्षीयन्ते चास्य कर्माणि तस्मिन्दृष्टे पराऽवरे।।“ अर्थात् समाधि में ईश्वर-साक्षात्कार की अवस्था सिद्ध हो जाने पर जीवात्मा के हृदय की अविद्या-अज्ञानरूपी गांठ कट जाती है और सब संशय छिन्न होकर उसके दुष्ट व पाप कर्म क्षय को प्राप्त होते हैं। तभी आत्मा के भीतर और बाहर व्यापक हो रहा परमात्मा में वह योगी वा उसका जीवात्मा निवास करता है और आनन्द से परिपूर्ण हो जाता है।
मानव शरीर में ईश्वर की प्राप्ति के स्थान के विषय में समाधि को सिद्ध किए हुए महर्षि दयानन्द अपने ग्रन्थ ऋग्वेदादिभाष्य भूमिका के उपासना विषय में लिखते हैं कि कण्ठ के नीचे और उदर से ऊपर तथा दोनों स्तनों के बीच में जो हृदय देश है, जिसको ब्रह्मपुर अर्थात् परमेश्वर का नगर कहते हैं, उसके बीच में जो गर्त है उसमें कमल के आकार वेश्म अर्थात् अवकाश रूप एक स्थान है और उसके बीच में जो सर्वशक्तिमान् परमात्मा बाहर भीतर एकरस होकर भर रहा है, वह आनन्दस्वरूप परमेश्वर उसी प्रकाशित स्थान के बीच में खोज करने (अर्थात् योग रीति से उपासना करने) से मिल जाता है। दूसरा उसके मिलने का कोई उत्तम स्थान वा मार्ग नहीं है।
ईश्वर को जान लेने के बाद अब जीवात्मा के अस्तित्व व स्वरूप पर विचार करते हैं। जीवात्मा भी एक स्वतन्त्र सत्ता है। यह ईश्वर का अंश नहीं है। हां, इसका कुछ स्वरूप व गुण ईश्वर के समान व कुछ विपरीत है। यह सत्य, चित्त, आकार रहित, अल्पज्ञ, एकदेशी, जन्म-मरण धर्मा, कर्मों का कर्ता व उसके फलों को सुख व दुःख के रूप में भोक्ता आदि स्वभाव, स्वरूप व गुणों वाला है। ईश्वर ही इसे माता-पिता के माध्यम से मनुष्यादि योनियों में जन्म देता है और वृद्धावस्था व आयु पूरी होने पर मृत्यु के होने के अवसर पर शरीर से इसका सम्बन्ध विच्छेद करता है। इसको जानने व समझने के लिए भी सत्यार्थ प्रकाश एक सर्वोत्तम ग्रन्थ है जिसका सभी को अध्ययन करना चाहिये जिससे धार्मिक व आध्यात्मिक व अन्य सभी प्रकार के भ्रम व भ्रान्तियां दूर हो सकें। इस ग्रन्थ के मुकाबले में संसार में कोई दूसरा ग्रन्थ नहीं है। इसको पढ़कर ही इसकी महत्ता का अनुमान किया जा सकता है। इन्हीं विचारों को यदि स्वयं पर लागू करें तो हम यह कहेंगे कि मैं वस्तुतः एक जीवात्मा हूं। मेरा जन्म कभी नहीं हुआ है। मैं हमेशा से हूं और हमेशा रहूंगा। ईश्वर की कृपा से मुझे कर्मानुसार बार-बार जन्म मिलेगा, आयु पूरी होने पर मेरी मृत्यु हेाती रहेगी। प्रारब्ध के अनुसार अनेकानेक योनियों में मेरा जन्म होता रहेगा। मेरे अब तक असंख्य जन्म हो चुके हैं। मैं संसार में विद्यमान सभी योनियों में कई-कई बार जन्म लेकर कर्मों का भोग कर चुका हूं। मैं कई बार मोक्ष में भी रहा हूं। कई बार पूर्व में मैं ईश्वर का साक्षात्कार कर चुका हूं। अनेकानेक बार साधू-संन्यासी, योगी, ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य या शूद्र भी रहा हूं एवं इनसे निकृष्ट क्षूद्र प्राणी भी। यह सब कर्मों का खेल है। इसे समझना है और आसक्तियों का त्याग कर ज्ञान की वृ़िद्ध करके सत्कर्मों को करके, ईश्वर उपासना से समाधि को सिद्ध करना है जिससे ईश्वर का साक्षात्कार हो सके। ऐसा करके मेरा मोक्ष हो सकेगा। मोक्ष की अवस्था ब्रह्माण्ड के सभी जीवों की सबसे अधिक उन्नत अवस्था है। सभी को इसके लिए प्रयास करने चाहिये। मत-मतान्तरों के चक्र से मुक्त होकर सत्य ज्ञान की खोज करनी चाहिये और इस प्रकार से जाने गये सत्य मार्ग पर चलना चाहिये जो उन्नति की ओर ले जाता है। यदि हम मत-मतान्तरों की अन्धविश्वासों व अविद्याजन्य कर्म व उपासना पद्धतियों में फंसे रहे तो हमारा यह मानव जीवन व्यर्थ हो जायेगा और इस जन्म के बाद अगले जन्म में हमारा भविष्य निश्चय ही दुःखद होगा। सत्य पर चल कर हमारा यह जीवन भी उन्नत होता है व भावी जीवन भी। अतः हमें सत्य को जानना और उसको धारण कर सत्य-धर्म का ही आचरण करना है। यही वास्तविक मनुष्य धर्म है। वेद धर्म का साक्षात् रूप व ग्रन्थ हैं और इनकी शिक्षाओं के अनुरूप आचरण ही समस्त मानव जाति का कर्तव्य है। हम समझते है हमारे इस लेख से ईश्वर व जीवात्मा के अस्तित्व को न मानने वाले बन्धुओं की आस्था व मिथ्या विश्वास का समाधान होगा एवं इस संक्षिप्त विवेचन से पाठको को लाभ होगा।
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