বেদে অবতার - ধর্ম্মতত্ত্ব

ধর্ম্মতত্ত্ব

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धर्म मानव मात्र का एक है, मानवों के धर्म अलग अलग नहीं होते-Theology

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স্বাগতম

28 September, 2021

বেদে অবতার

                     देवता: हिरण्यगर्भः परमात्मा देवता ऋषि: स्वयम्भु ब्रह्म ऋषिः छन्द: निचृत्पङ्क्तिः स्वर: पञ्चमः

ন তস্য প্রতিমা অস্তি যস্য নাম মহদযশঃ
হিরণ্যগর্ভ ইত্যেষ মা মা হিংসীদিত্যেষ যস্মান্ন জাত ইত্যেষঃ৷৷
[ শুক্ল-যজুর্বেদ ৩২৷৩ ]  

न तस्य॑ प्रति॒माऽअस्ति॒ यस्य॒ नाम॑ म॒हद्यशः॑।

हि॒र॒ण्य॒ग॒र्भऽइत्ये॒ष मा मा॑ हिꣳसी॒दित्ये॒षा यस्मा॒न्न जा॒तऽइत्ये॒षः ॥

यजुर्वेद  अध्याय:32 मन्त्र:3

যজুর্বেদ ৩২/৩

पदार्थान्वयभाषाः -हे मनुष्यो ! (यस्य) जिसका (महत्) पूज्य बड़ा (यशः) कीर्त्ति करनेहारा धर्मयुक्त कर्म का आचरण ही (नाम) नामस्मरण है, जो (हिरण्यगर्भः) सूर्य बिजुली आदि पदार्थों का आधार (इति) इस प्रकार (एषः) अन्तर्यामी होने से प्रत्यक्ष जिसकी (मा) मुझको (मा, हिंसीत्) मत ताड़ना दे वा वह अपने से मुझ को विमुख मत करे, (इति) इस प्रकार (एषा) यह प्रार्थना वा बुद्धि और (यस्मात्) जिस कारण (न) नहीं (जातः) उत्पन्न हुआ (इति) इस प्रकार (एषः) यह परमात्मा उपासना के योग्य है। (तस्य) उस परमेश्वर की (प्रतिमा) प्रतिमा-परिमाण उसके तुल्य अवधि का साधन प्रतिकृति, मूर्ति वा आकृति (न, अस्ति) नहीं है। अथवा द्वितीय पक्ष यह है कि (हिरण्यगर्भः०) इस पच्चीसवें अध्याय में १० मन्त्र से १३ मन्त्र तक का (इति, एषः) यह कहा हुआ अनुवाक (मा, मा, हिंसीत्) (इति) इसी प्रकार (एषा) यह ऋचा बारहवें अध्याय की १०२ (वाँ) मन्त्र है और (यस्मान्न जातः—इत्येषः०) यह आठवें अध्याय के ३६, ३७ दो मन्त्र का अनुवाक (यस्य) जिस परमेश्वर की (नाम) प्रसिद्ध (महत्) महती (यशः) कीर्ति है, (तस्य) उसका (प्रतिमा) प्रतिबिम्ब-तस्वीर (न, अस्ति) नहीं है ॥[स्वामी दयानन्द सरस्वती]

भावार्थभाषाः -हे मनुष्यो ! जो कभी देहधारी नहीं होता, जिसका कुछ भी परिमाण सीमा का कारण नहीं है, जिसकी आज्ञा का पालन ही नामस्मरण है, जो उपासना किया हुआ अपने उपासकों पर अनुग्रह करता है, वेदों के अनेक स्थलों में जिसका महत्त्व कहा गया है, जो नहीं मरता, न विकृत होता, न नष्ट होता उसी की उपासना निरन्तर करो। जो इससे भिन्न की उपासना करोगे तो इस महान् पाप से युक्त हुए आप लोग दुःख-क्लेशों से नष्ट होओगे ॥

হে মানবজাতি! যিনি কখনও অবতার হন না, যাঁর পরিমাণ কোনও সীমার কারণ নয়, যাঁর আনুগত্য কেবল স্মরণ, যিনি তাঁর উপাসকদের প্রতি কৃপাশীল, যাঁর গুরুত্ব বেদের বহু জায়গায় বলা হয়েছে, যাঁর মৃত্যু হয় না, তাঁরই নিরন্তর উপাসনা কর ...যে বিকৃত বা ধ্বংস হয় না. যে ইহা ব্যতীত অন্য কিছুর উপাসনা করিবে, দুঃখ-কষ্টে বিনষ্ট হইবে..

न तस्य प्रतिमा अस्ति यस्य नाम महद् यशः ॥
শ্বেতাশ্বতর-৪/১৯
शब्दार्थ - कोई भी एनम् इस ब्रह्म को न न ऊध्र्वम् ऊपर से, च और न न तिर्यंच्चम् तिरछे से च और न न मध्ये मध्य बीच से परिजग्रभत् पकड़ सकता है । तस्य उस ब्रह्म की कोई प्रतिमा प्रतिमा मूर्ति अथवा आकृति न नहीं अस्ति है यस्य जिस ब्रह्म का नाम नामस्मरण उपासना ही महद्यशः - महत् + यशः महान् बड़े यश कीर्ति का करने हारा है ।
नारायण स्वामी
অর্থ- এই ব্রহ্মকে কেউ উপর থেকে উপলব্ধি করতে পারে না, উপর থেকেও নয়, তির্যক থেকেও নয়, মধ্যম থেকেও নয়। তস্য যে ব্রহ্মের কোনো মূর্তি নেই, কিন্তু যে ব্রহ্মের নামে পূজা করা হয়, কেবল মহদ্যশঃ-মহত্+যশঃ সে মহাযশ ও খ্যাতি করে হেরে যায়।

( ভাষ্য নারায়ণ স্বামী।)
রূপং রূপং প্রতিরূপো বভূব তদন্য রূপম্ পতিচক্ষণায়
ইন্দ্রো মায়াভিঃ পুরুরূপ ঈয়তে যুক্তাহ্যস্য হরয়ঃ শতাদশঃ।। ঋগ্বেদ ৬/৪৭/১৮
পদার্থঃ- (রূপং রূপং) (প্রতিরূপঃ) দতাকার বর্ত্তমানঃ (বভূব) বভতি (তৎ) (অস্য) জীবাক্মানঃ (রূপম্) (প্রতিচক্ষণাম্)প্রত্যক্ষ কথনায় (ইন্দ্র) জীবঃ (মায়াভিঃ) প্রজ্ঞাভিঃ (পুরুরূপঃ) বহুশরীরধারণের বিবিধরূপ (ঈয়তে) (যুক্তাঃ) (হি) খলু (অস্য) দেহিনঃ (হরয়ঃ) অশ্বা ইবোন্দ্রিয়ানবন্তঃ করণপ্রাণাঃ (শতা) শতানি (দশ)।।

ভাবার্থ- হে মনুষ্য! যথা বিদ্যুৎ পদার্থং পদার্থং প্রতি তদ্রূপা বভতি, তথৈব জীবঃ শরীরং শরীরং প্রতিতৎস্বভাবো জায়তে যদা বাহ্য বিষয়ং দুষ্ঠুমিচ্ছতি তদাতদ্দৃষ্টা তদাকারং জ্ঞানমস্য জায়তে যা অস্য শরীরে বিদ্যুৎসহিতা অসংখ্যা নাড্যঃ সস্তি তাভিরয়ং সর্বস্য শরীরস্য সমাচারং জানতি। (মহর্ষি দয়ানন্দ)।।
যেমন বৈদ্যুতিক শক্তি যে বস্তুতে যায় তারই রূপ গ্রহন করে সেইরূপ জীবাত্মা কর্মের প্রবাহে জন্মজন্মান্তরে যেমন শরীর গ্রহন করুক না কেন, তখন তদাকার বৃত্তি লাভ করে,যেমন যেমন বাহ্যবস্তুর সংস্পর্শে যায় তার থেকে তদাকার জ্ঞানলাভ হয়। বিজলীশক্তি যেমন অসংখ্য তারের মধ্যে দিয়ে পবাহিত হয়,তেমনি আমাদের শরীরস্হ অংসখ্য নাড়ীতে যে চিৎশক্তি প্রবাহিত হচ্ছে তার কেন্দ্রস্হুল অন্তঃকরণ। জীবাত্মা ঐ কেন্দ্রে বসেই শরীরস্হ নাড়ীর মধ্য দিয়ে যেমন চিৎশক্তির প্রবাহে জীবনশক্তি ক্রয়াশীল থাকে, তেমনি চিদ্প্রবাহের যে অসংখ্যধারা বা রশ্মি আছে, তারই সহায়তায় সমস্ত জ্ঞানলাভ করে। জীবাত্মা চিদবিন্দুর যে কেন্দ্রে থাকে সেইখান থেকেই উৎক্রমণের পথ। জীবাত্মা যতক্ষণ না ঐ উৎক্রমণের পথে গিয়ে পরমাত্মারসঙ্গে মিলিত হয়, সেই সেই শরীরের অন্তঃকরণের ঘাটে বসেই জীবাত্মা দেশকালপাত্রানুযায়ী তদাকার বৃত্তি, সংস্কার ও জ্ঞানলাভ করে সেই সেই শরীরের কার্য নির্বাহ করে থাকে।

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