अथर्ववेद मंत्र 9/6/3/9 का आचार्य अग्निव्रत जी कृत त्रिविध भाष्य (आधिदैविक अर्थात् वैज्ञानिक, आधिभौतिक, आध्यात्मिक)
[नोट:- दुर्भाग्य से असमय निधन के कारण महर्षि दयानन्द जी ने अथर्ववेद का भाष्य नहीं किया था]
भाष्यकार – अचार्य अग्निव्रत नैष्ठिक (वैदिक वैज्ञानिक)
[वर्तमान में विश्व के एकमात्र वैदिक वैज्ञानिक व सम्पूर्ण विश्व में वर्तमान काल के वेदों के सबसे बड़े महाप्रकाण्ड ज्ञाता]
प्रस्तुति – इंजीनियर संदीप आर्य
देवता: अतिथिः, विद्या ऋषि: ब्रह्मा छन्द: त्रिपदा पिपीलिकमध्या गायत्री स्वर: अतिथि सत्कार
ए॒तद्वा उ॒ स्वादी॑यो॒ यद॑धिग॒वं क्षी॒रं वा मां॒सं वा तदे॒व नाश्नी॑यात् ॥
पद पाठ
एतत् । वै । ऊं इति । स्वादीय: । यत् । अधिऽगवम् । क्षीरम् । वा । मांसम् । वा । तत् । एव । न । अश्नीयात् ॥
(अथर्ववेद – का. 9, सूक्त 6 पर्याय-3, मं.9)
1) वैज्ञानिक_भाष्य (आधिदैविक भाष्य) –
{ब्रह्मा = मनो वै यज्ञस्य ब्रह्मा (श.14/6.1/7), प्रजापतिर्वै ब्रह्मा (गो.उ.5/8)। अतिथिः = यो वै भवति यः श्रेष्ठतामश्नुते स वा अतिथिर्भवति (ऐ.आ.1/1/1)। अतिथिपतिः = अतिथिपतिर्वावातिथेरीशे (क.46/4 - ब्रा.उ.को.)। पिपीलिका = पिपीलिका पेलतेर्गतिकर्मणः (दै.3/9)। स्वादु = प्रजा स्वादु (ऐ.आ.1/3/4), प्रजा वै स्वादुः (जै.ब्रा.2/144), मिथुनं वै स्वादु (ऐ.आ.1/3/4)। क्षीरम् = यदत्यक्षरत् तत् क्षीरस्य क्षीरत्वम् (जै.ब्रा.2/228)। मांसम् = मांसं वै पुरीषम् (श.8/6/2/14), मांसं माननं वा मानसं वा मनोऽस्मिन् सीदतीति वा (नि.4/3), मांसं सादनम् (श.8/1/4/5)}
(एतत् वा स्वादीयः) ये अतिथि अर्थात् सतत गन्त्री प्राण, व्यान रश्मियां एवं अतिथिपति अर्थात् प्राणोपान रश्मियों की नियन्त्रक सूत्रात्मा वायु रश्मियां स्वादुयुक्त होती हैं अर्थात् ये विभिन्न छन्दादि रश्मियों के मिथुन बनाकर नाना पदार्थों को उत्पन्न करने में सहायक होती हैं। (यत्) जो प्राणव्यान व सूत्रात्मा वायु रश्मियां (अधिगवं क्षीरं वा मांसं वा) गो अर्थात् ‘ओम्’ छन्द रश्मि रूपी सूक्ष्मतम वाक् तत्व में आश्रित होती हैं, साथ ही अपने पुरीष= पूर्ण संयोज्य बल {पुरीषम्= पूर्णं बलम् (म.द.य.भा.12/46), ऐन्द्रं हि पुरीषम् (श.8/7/3/7), अन्नं पुरीषम् (श.8/1/4/5)} के साथ निरन्तर नाना रश्मि वा परमाणु आदि पदार्थों के ऊपर झरती रहती हैं। इन ‘ओम्’ रश्मियों का झरना ही क्षीरत्व तथा पूर्ण संयोज्यता ही मांसत्व कहलाता है। यहाँ ‘मांस’ शब्द यह संकेत देता है, कि ये ‘ओम्’ रश्मियां मनस्तत्व से सर्वाधिक रूप से निकटता से सम्बद्ध होती हैं किंवा मनस्तत्व इनमें सर्वाधिक मात्रा में बसा हुआ रहता है। ये ‘ओम्’ रश्मियां प्राणव्यान एवं सूत्रात्मा वायु रश्मियों के ऊपर झरती हुई अन्य स्थूल पदार्थों पर गिरती रहती हैं। (तत् एव न अश्नीयात्) इस कारण से विभिन्न रश्मि वा परमाणु आदि पदार्थों के मिथुन बनने की प्रक्रिया नष्ट नहीं होती। यह प्रक्रिया अतिथिरूप प्राणव्यान के मिथुन बनने किंवा इनके द्वारा विभिन्न मरुदादि रश्मियों को आकृष्ट करने की प्रक्रिया शान्त होने से पूर्व नष्ट नहीं होती है, बल्कि उसके पश्चात् अर्थात् दो कणों के संयुक्त होने के पश्चात् और मिथुन बनने की प्रक्रिया नष्ट वा बन्द हो सकती है, यह जानना चाहिए।
इस_ऋचा_का_सृष्टि_पर_प्रभाव –
आर्ष व दैवत प्रभाव- इसका ऋषि ब्रह्मा होने से संकेत मिलता है कि इसकी उत्पत्ति मन एवं ‘ओम्’ रश्मियों के मिथुन से ही होती है। यह मिथुन इस छन्द रश्मि को निरन्तर व निकटता से प्रेरित करता रहता है। इसके दैवत प्रभाव से प्राण, व्यान तथा सूत्रात्मा वायु रश्मियां विशेष सक्रिय होकर नाना संयोग कर्मों को समृद्ध करती हैं।
छान्दस_प्रभाव –
इसका छन्द पिपीलिका मध्या गायत्री होने से यह छन्द रश्मि विभिन्न पदार्थों के संयोग के समय उनके मध्य तीव्र तेज व बल के साथ सतत संचरित होती है। इससे उन पदार्थों के मध्य विभिन्न पदार्थ तेज एवं बल को प्राप्त होते रहते हैं।
ऋचा_का_प्रभाव –
जब दो कणों का संयोग होता है, तब उनके मध्य प्राण, व्यान व सूत्रात्मा वायु रश्मियों का विशेष योगदान होता है। ये रश्मियां विभिन्न मरुद् रश्मियों द्वारा आकुंचित आकाश तत्व को व्याप्त कर लेती हैं। इसी समय इन रश्मियों के ऊपर सूक्ष्म ‘ओम्’ रश्मियां अपना सेचन करके इन्हें अधिक बल से युक्त करती हैं। इससे दोनों कणों के मध्य फील्ड निरन्तर प्रभावी होता हुआ उन दोनों कणों को परस्पर संयुक्त कर देता है।
2) आधिभौतिक_भाष्य –
(एतत् वा स्वादीयः) ये जो स्वादिष्ट भोज्य पदार्थ होते हैं। (यदधिगवं क्षीरं वा) जो गाय से प्राप्त होने वाले दूध, घृत, मक्खन, दही आदि पदार्थ हैं अथवा (मांसम् वा) मनन, चिन्तन आदि कार्यों में उपयोगी फल, मेवे आदि पदार्थ। (तदेव न अश्नीयात्) उन पदार्थों को अतिथि के खिलाने से पूर्व न खावे अर्थात् अतिथि को खिलाने के पश्चात् ही खाना चाहिए। यहाँ अतिथि से पूर्व न खाने का प्रसंग इसके पूर्व मंत्र से सिद्ध होता है, जहाँ लिखा है- ‘‘अशितावत्यतिथावश्नीयात्’’ = अशितावति अतिथौ अश्नीयात्। इस प्रकरण को पूर्व आधिदैविक भाष्य में भी समझें।
3) आध्यात्मिक_भाष्य –
{मांसम् = मन्यते ज्ञायतेऽनेन तत् मांसम् (उ.को.3/64), मांसं पुरीषम् (श.8/7/4/19), (पुरीषम् = पुरीषं पृणातेः पूरयतेर्वा - नि.2/22; सर्वत्राऽभिव्याप्तम् - म.द.य.भा.38/21; यत् पुरीषं स इन्द्रः - श.10/4/1/7; स एष प्राण एव यत् पुरीषम् - श.8/7/3/6)}
(एतत् वा उ स्वादीयः) योगी पुरुष के समक्ष परमानन्द का आस्वादन कराने वाले ये पदार्थ विद्यमान रहते हैं, जिनके कारण जीव का परमात्मा के साथ सायुज्य रहता है, (यदधिगवं क्षीरं वा मांसं वा) वे पदार्थ योगी की मन आदि इन्द्रियों में प्रतिष्ठित होते हैं। वे पदार्थ क्या हैं, इसका उत्तर यह है कि सर्वत्र अभिव्याप्त परमैश्वर्य सम्पन्न इन्द्ररूप परमात्मा से झरने वाली ‘ओम्’ वा गायत्री आदि वेदों की ऋचाएं ही वे पदार्थ हैं, जो योगी की इन्द्रियों व अन्तःकरण में निरन्तर स्रवित होती रहती हैं। योगी उन आनन्दमयी ऋचाओं का रसास्वादन करने लगता है, तब वह परमानन्द का अनुभव करने लगता है। (तदेव न अश्नीयात्) योगी उन ऋचाओं के आनन्द को उस समय तक अनुभव नहीं कर पाता, जब तक कि अतिथिरूप प्राण तत्व, जो योगी के मस्तिष्क व शरीर में सतत संचरित होते हैं, उन ऋचाओं के साथ संगत नहीं होते हैं। यहाँ अतिथि से पूर्व का प्रकरण पूर्ववत् समझें।
भावार्थ –
जब कोई योगी योगसाधना करता है और एतदर्थ प्रणव वा गायत्री आदि का यथाविध जप करता है, तब सर्वत्र अभिव्याप्त परमैश्वर्यवान् इन्द्ररूप ईश्वर से निरन्तर प्रवाहित ‘ओम्’ रश्मियां उस योगी के अन्तःकरण तथा प्राणों के अन्दर स्रवित होती रहती है। इससे वह योगी उन रश्मियों का रसास्वादन करता हुआ आनन्द में निमग्न हो जाता है।
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी भाष्य
पदार्थान्वयभाषाः -(एतद् वै) यहाँ (उ) निश्चय करके (स्वादीयः) अधिक स्वादु है, (यत्) कि (तत् एव) उसी ही (अधिगवम्) अधिकृत जल, (वा) और (क्षीरम्) दूध (वा) और (मांसम्) मननसाधक [बुद्धिवर्धक] वस्तु को (न) अब [अतिथि के जीमने पर-म० ८] (अश्नीयात्) वह [गृहस्थ] खावे ॥
भावार्थभाषाः -गृहस्थ को यही सुखदायी है कि अतिथि को अच्छे-अच्छे रोचक बुद्धिवर्धक पदार्थ फल, बादाम, अक्षोट आदि जिमाकर आप जीमे, जिस से वह सत्कृत विद्वान् यथावत् उपदेश करे ॥
[গৃহস্থের উচিত অতিথিকে ভালো অনন্দদায়ক, বুদ্ধিবর্ধক পদার্থ ফল, বাদাম, আকরোট আদি দ্বারা সৎকার করা।] (আধিভৌতিক ভাষ্য)
टिप्पणी:९−(एतद्) वक्ष्यमाणम् (वै) एव (उ) निश्चयेन (स्वादीयः) स्वादु−ईयसुन्। रोचकतरम् (यत्) वाक्यारम्भे (अधिगवम्) गौर्जलम्। गोरतद्धितलुकि। पा० ५।४।९२। अधि+गो-टच्, तत्पुरुषात्। अधिकृतश्चासौ गौश्चेति अधिगवः तम्। अधिकृतं जलम् (क्षीरम्) दुग्धम् (वा) समुच्चये (मांसम्) अ० ६।७०।१। मनेर्दीर्घश्च। उ० ३।६४। मन ज्ञाने स प्रत्ययो दीर्घश्च। मांस माननं वा मानसं वा मनोऽस्मिन्त्सीदतीति वा-निरु० ४।३। मननसाधकं बुद्धिवर्धकं वस्तु (तत्) (एव) (न) सम्प्रति-निरु० ७।३१। न शब्दः सम्प्रत्यर्थे−इति सायणः, ऋग्० ७।१०३।७। इदानीम्। अतिथेर्भोजनपश्चादित्यर्थः (अश्नीयात्) खादयेत् ॥
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