देवता: विश्वकर्मा देवता ऋषि: भुवनपुत्रो विश्वकर्मा ऋषिः छन्द: निचृदार्षी त्रिष्टुप् स्वर: धैवतः
विश्व॑कर्मन् ह॒विषा॒ वर्द्ध॑नेन त्रा॒तार॒मिन्द्र॑मकृणोरव॒ध्यम्।
तस्मै॒ विशः॒ सम॑नमन्त पू॒र्वीर॒यमु॒ग्रो वि॒हव्यो॒ यथास॑त् ॥[यजुर्वेद17/24]
पदार्थान्वयभाषाः -हे (विश्वकर्मन्) सम्पूर्ण शुभकर्मों के सेवन करनेहारे सब सभाओं के पति राजा ! आप (हविषा) ग्रहण करने योग्य (वर्द्धनेन) वृद्धि से जिस (अवध्यम्) मारने के अयोग्य (त्रातारम्) रक्षक (इन्द्रम्) उत्तम सम्पत्तिवाले पुरुष को राजकार्य में सम्मतिदाता मन्त्री (अकृणोः) करो, (तस्मै) उसके लिये (पूर्वीः) पहिले न्यायाधीशों ने प्राप्त कराई (विशः) प्रजाओं को (समनमन्त) अच्छे प्रकार नम्र करो, (यथा) जैसे (अयम्) यह मन्त्री (उग्रः) मारने में तीक्ष्ण (विहव्यः) विविध प्रकार के साधनों से स्वीकार करने योग्य (असत्) होवे, वैसा कीजिये ॥
अन्वय:
(विश्वकर्मन्) अखिलशुभकर्मसेविन् (हविषा) आदातव्येन (वर्द्धनेन) (त्रातारम्) रक्षकम् (इन्द्रम्) परमैश्वर्यवन्तं (अकृणोः) कुरु (अवध्यम्) हन्तुमयोग्यम् (तस्मै) (विशः) प्रजाः (सम्) एकीभावे (अनमन्त) नमन्तु (पूर्वीः) पूर्वैर्न्यायाधीशैः प्रापिताः (अयम्) (उग्रः) हिंसने तीव्रः (विहव्यः) विविधैः साधनैरादातुमर्हः (यथा) (असत्) भवेत् ॥
भावार्थभाषाः -इस मन्त्र में उपमालङ्कार है। सब सभाओं के अधिष्ठाता के सहित सब सभासद् उस पुरुष को राज्य का अधिकार देवें कि जो पक्षपाती न हो। जो पिता के समान प्रजाओं की रक्षा न करें, उनको प्रजा लोग भी कभी न मानें और जो पुत्र के तुल्य प्रजा की न्याय से रक्षा करें, उनके अनुकूल प्रजा निरन्तर हों ॥
देवता: विश्वकर्मा देवता ऋषि: भुवनपुत्रो विश्वकर्मा ऋषिः छन्द: स्वराडार्षी पङ्क्तिः स्वर: पञ्चमः
वि॒श्वक॑र्मा॒ ह्यज॑निष्ट दे॒वऽआदिद् ग॑न्ध॒र्वोऽअ॑भवद् द्वि॒तीयः॑।
तृ॒तीयः॑ पि॒ता ज॑नि॒तौष॑धीनाम॒पां गर्भं॒ व्य᳖दधात् पुरु॒त्रा ॥[यजुर्वेद 17/32]
पदार्थान्वयभाषाः -हे मनुष्यो ! इस जगत् में (विश्वकर्मा) जिस के समस्त शुभ काम हैं, वह (देवः) दिव्यस्वरूप वायु प्रथम (इत्) ही (अभवत्) होता है, (आत्) इसके अन्तर (गन्धर्वः) जो पृथिवी को धारण करता है, वह सूर्य वा सूत्रात्मा वायु (अजनिष्ट) उत्पन्न और (ओषधीनाम्) यव आदि ओषधियों (अपाम्) जलों और प्राणों का (पिता) पालन करनेहारा (हि) ही (द्वितीयः) दूसरा अर्थात् धनञ्जय तथा जो प्राणों के (गर्भम्) गर्भ अर्थात् धारण को (व्यदधात्) विधान करता है, वह (पुरुत्रा) बहुतों का रक्षक (जनिता) जलों का धारण करनेहारा मेघ (तृतीयः) तीसरा उत्पन्न होता है, इस विषय को आप लोग जानो ॥
भावार्थभाषाः -सब मनुष्यों को योग्य है कि इस संसार में सब कामों के सेवन करनेहारे जीव पहिले, बिजुली, अग्नि, वायु और सूर्य पृथिवी आदि लोकों के धारण करनेहारे हैं, वे दूसरे और मेघ आदि तीसरे हैं, उनमें पहिले जीव अज अर्थात् उत्पन्न नहीं होते और दूसरे, तीसरे उत्पन्न हुए हैं, परन्तु वे भी कारणरूप से नित्य हैं, ऐसा जानें ॥
देवता: विश्वकर्मा ऋषि: विश्वकर्मा भौवनः छन्द: निचृत्त्रिष्टुप् स्वर: धैवतः
य इ॒मा विश्वा॒ भुव॑नानि॒ जुह्व॒दृषि॒र्होता॒ न्यसी॑दत्पि॒ता न॑: ।
स आ॒शिषा॒ द्रवि॑णमि॒च्छमा॑नः प्रथम॒च्छदव॑राँ॒ आ वि॑वेश ॥[ऋग्वेद0 १०.८१.१]
पदार्थान्वयभाषाः -(यः) जो (ऋषिः) सर्वद्रष्टा सर्वज्ञ परमेश्वर (होता) प्रलयकाल में सबको अपने में लेनेवाला (विश्वा भुवनानि) सब पृथिवी आदि लोक-लोकान्तरों को (जुहुत्) अपने में ग्रहण करता हुआ (नि-असीदत्) विराजता है (सः-नः पिता) वह हमारा पिता-जनक (आशिषा) आश्रयदान से (द्रविणम्) स्वबल-पराक्रम दर्शाने की (इच्छमानः) आकाङ्क्षा करता हुआ (प्रथमच्छत्) प्रथम उपादानकारण प्रकृति नामक को छादित करता है, प्रभावित करता है तथा, (अवरान्) पश्चात् उत्पन्न हुए जड-जङ्गमों को (आविवेश) अपनी व्याप्ति से आविष्ट प्रविष्ट होता है ॥
भावार्थभाषाः -सर्वज्ञ परमात्मा प्रलयकाल में सारे लोक-लोकान्तरों को अपने में विलीन कर लेता है। इसके उपादानकारण प्रकृति को भी अपने अन्दर छिपा लेता है, पुनः उत्पन्न करता हुआ सब जड-जङ्गमों में अपनी व्याप्ति से प्रविष्ट रहता है ॥-ब्रह्ममुनि
देवता: विश्वकर्मा ऋषि: विश्वकर्मा भौवनः छन्द: पादनिचृत्त्रिष्टुप् स्वर: धैवतः
किं स्वि॑दासीदधि॒ष्ठान॑मा॒रम्भ॑णं कत॒मत्स्वि॑त्क॒थासी॑त् ।
यतो॒ भूमिं॑ ज॒नय॑न्वि॒श्वक॑र्मा॒ वि द्यामौर्णो॑न्महि॒ना वि॒श्वच॑क्षाः ॥[ऋग्वेद0 १०.८१.२]
पदार्थान्वयभाषाः -(किं स्वित्) विश्व के उत्पत्तिकाल में परमात्मा का क्या ही (अधिष्ठानम्-आसीत्) आश्रय था-होता है (कतमत् स्वित्) कौन सा ही (आरम्भणम् कथा-आसीत्) जगत् जिससे आरम्भ होता है, ऐसा मूल किस प्रकार का था या होता है (यतः) जिस मूल से (विश्वकर्मा) विश्व जिसका कर्म-शिल्प है, वह विश्व का रचयिता परमेश्वर (भूमिं दयां जनयन्) भुमिलोक द्युलोक-द्यावापृथिवीमय जगत् को उत्पन्न करता हुआ (विश्वचक्षाः) सर्वद्रष्टा परमात्मा (महिना) अपने महत्त्व से महती शक्ति से (व्यौर्णोत्) उसे विकसित करता है, सृष्टिरूप में फ़ैलाता है ॥
भावार्थभाषाः -विश्व को उत्पन्न करते हुए आश्रय कौन था ? कौन होता है ? सृष्टि का मूल पदार्थ क्या है ? जिससे सृष्टि रची है। जिसे कार्यरूप में विकसित किया या परिणत करता है, द्युलोक पृथिवीलोकवाले जगद्रूप में, यह परमात्मा को मनन करने का प्रकार है। जगत् का मूल पदार्थ तथा उसको सृष्टि के रूप में लानेवाला कोई होना चाहिये ॥
देवता: विश्वकर्मा ऋषि: विश्वकर्मा भौवनः छन्द: भुरिक्त्रिष्टुप् स्वर: धैवतः
वि॒श्वत॑श्चक्षुरु॒त वि॒श्वतो॑मुखो वि॒श्वतो॑बाहुरु॒त वि॒श्वत॑स्पात् ।
सं बा॒हुभ्यां॒ धम॑ति॒ सं पत॑त्रै॒र्द्यावा॒भूमी॑ ज॒नय॑न्दे॒व एक॑: ॥[ऋग्वेद0 १०.८१.३]
पदार्थान्वयभाषाः -(विश्वतः-चक्षु) सर्वत्र व्याप्त नेत्र शक्तिवाला-सर्वद्रष्टा (उत) और (विश्वतः-मुखः) सर्वत्र व्याप्त मुख शक्तिवाला सब पदार्थों के ज्ञानकथन की शक्तिवाला (विश्वतः-बाहुः) सर्वत्र व्याप्त भुज शक्तिवाला-सर्वत्र पराक्रमी (उत) और (विश्वतः-पात्) सर्वत्र व्याप्त शक्तिवाला-विभु गतिमान् (एकः-देव) एक ही वह शासक परमात्मा (द्यावाभूमी जनयन्) द्युलोक पृथिवीलोक-समस्त जगत् को उत्पन्न करनेहेतु (बाहुभ्याम्) भुजाओं से-बल पराक्रमों से (पतत्रैः) पादशक्तियों से-ताडनशक्तियों से (संधमति) ब्रह्माण्ड को आन्दोलित करता है-हिलाता-झुलाता चलाता है ॥
भावार्थभाषाः -जितनी भी मनुष्य के अन्दर अङ्गों की शक्तियाँ होती हैं, वे एकदेशी हैं, परन्तु परमात्मा की दर्शनशक्ति, वक्तृशक्ति, भुजशक्ति, पादशक्ति ये व्यापक हैं, इसी से वह द्यावापृथिवीमय ब्रह्माण्ड को स्वाधीन करता हुआ यथायोग्य व्यापार करता है ॥[ब्रह्ममुनि]
देवता: विश्वकर्मा ऋषि: विश्वकर्मा भौवनः छन्द: स्वराट्त्रिष्टुप् स्वर: धैवतः
किं स्वि॒द्वनं॒ क उ॒ स वृ॒क्ष आ॑स॒ यतो॒ द्यावा॑पृथि॒वी नि॑ष्टत॒क्षुः ।
मनी॑षिणो॒ मन॑सा पृ॒च्छतेदु॒ तद्यद॒ध्यति॑ष्ठ॒द्भुव॑नानि धा॒रय॑न् ॥[ऋग्वेद0 १०.८१.४]
पदार्थान्वयभाषाः -(किं स्वित्) कौन ही (वनम्) वन है (कः-उ) और कौन ही (सः-वृक्षः) वह वृक्ष (आस) है (यतः) जिससे (द्यावापृथिवी) द्युलोक पृथिवीलोक-द्यावापृथिवीमय जगत् को (निस्-ततक्षुः) नियम से तक्षक-बढ़ई की भाँति परमात्मा गढ़ता है-करता है (मनीषिण:) हे प्रज्ञावाले-बुद्धिमान् विद्वानों ! तुम (मनसा पृच्छत) मन से पूछो-विचारो (इत्-उ) अवश्य ही (तत्-यत्) वह जो (भुवनानि धारयन्) लोक-लोकान्तरों को धारण करता हुआ (अध्यतिष्ठत्) उनके ऊपर अधिष्ठित है ॥
भावार्थभाषाः -तक्षक-बढ़ई का अलङ्कार या रूपक देकर विचार किया गया है। इस द्यावपृथिवीमय जगत् का उपादानकारण कौन है और इसमें वर्तमान लोक-लोकान्तरों का धारण करनेवाला कर्त्ता निमित्तकारण कौन है, यह विचारना चाहिए ॥
देवता: विश्वकर्मा ऋषि: विश्वकर्मा भौवनः छन्द: त्रिष्टुप् स्वर: धैवतः
या ते॒ धामा॑नि पर॒माणि॒ याव॒मा या म॑ध्य॒मा वि॑श्वकर्मन्नु॒तेमा ।
शिक्षा॒ सखि॑भ्यो ह॒विषि॑ स्वधावः स्व॒यं य॑जस्व त॒न्वं॑ वृधा॒नः ॥[ऋग्वेद0 १०.८१.५]
पदार्थान्वयभाषाः -(विश्वकर्मन्) हे विश्व के रचनेवाले परमेश्वर ! (ते धामानि) तेरे व्यापने के योग्य मुख्य स्थान (या परमाणि) जो उत्कृष्ट द्युलोकवाले हैं (या मध्यमा) जो मध्यम अन्तरिक्षसम्बन्धी (उत) और (या-अवमानि) जो पृथिवीलोक के अन्तर्गत हैं (इमा) इन सब को (सखिभ्यः शिक्ष) हम समान धर्मवाले चेतन उपासकों के लिए ज्ञानद्वारा प्राप्त करा (स्वधावः) हे अन्न देनेवाले या रस देनेवाले परमात्मन् ! (तन्वं वृधानः) हमारे शरीर के बढ़ानेहेतु (हविषि स्वयं यजस्व) भोग के निमित्त या भोग्य को स्वयं प्रदान कर ॥
भावार्थभाषाः -परमात्मा तीनों लोकों और वहाँ के समस्त पदार्थों के अन्दर व्यापक है। उन सब का ज्ञान वेद द्वारा देता है। शरीरवृद्धि के लिए अन्न और रस भी प्रदान करता है। वह ऐसा परमात्मा धन्यवाद के योग्य तथा उपासनीय है ॥
देवता: विश्वकर्मा ऋषि: विश्वकर्मा भौवनः छन्द: निचृत्त्रिष्टुप् स्वर: धैवतः
विश्व॑कर्मन्ह॒विषा॑ वावृधा॒नः स्व॒यं य॑जस्व पृथि॒वीमु॒त द्याम् ।
मुह्य॑न्त्व॒न्ये अ॒भितो॒ जना॑स इ॒हास्माकं॑ म॒घवा॑ सू॒रिर॑स्तु ॥[ऋग्वेद0१०.८१.६]
पदार्थान्वयभाषाः -(विश्वकर्मन्) हे विश्व के रचनेवाले परमेश्वर ! (हविषा वावृधानः) अपनी ग्रहणशक्ति से विशेष वर्धन के हेतु (पृथिवीम्-उत द्याम्) पृथिवी और द्युलोक को (स्वयं) अपने में संगत करता है-ले लेता है प्रलयकाल में, (अन्ये जनासः) अन्य उत्पन्न होनेवाले जीव (अभितः-मुह्यन्तु) नितान्त मुग्ध हो जाते हैं (इह) इस स्थिति में (अस्माकं मघवा) हमारा मोक्षदाता परमात्मा (सूरिः-अस्तु) प्रेरक होवे-होता है ॥
भावार्थभाषाः -प्रलयकाल में द्युलोक पृथिवीलोकमय जगत् को सूक्ष्म करके परमात्मा अपनी ग्रहणशक्ति से अपने अन्दर ले लेता है-लीन कर लेता है और जीव मनुष्य आदि प्राणी मूर्छितरूप में रहते हैं। उसके उपासक जीवन्मुक्त उसकी प्रेरणा से मोक्ष का आनन्द लेते रहते हैं ॥
देवता: विश्वकर्मा ऋषि: विश्वकर्मा भौवनः छन्द: भुरिक्त्रिष्टुप् स्वर: धैवतः
वा॒चस्पतिं॑ वि॒श्वक॑र्माणमू॒तये॑ मनो॒जुवं॒ वाजे॑ अ॒द्या हु॑वेम ।
स नो॒ विश्वा॑नि॒ हव॑नानि जोषद्वि॒श्वश॑म्भू॒रव॑से सा॒धुक॑र्मा ॥[ऋग्वेद0१०.८१.७]
पदार्थान्वयभाषाः -(अद्य) आज-अब (वाजे) जीवनसंग्राम में (मनोजुवम्) मन के प्रेरक (विश्वकर्माणम्) विश्व के रचनेवाले (वाचस्पतिम्) ज्ञानदाता परमात्मा को (ऊतये) रक्षा के लिए (हुवेम) आमन्त्रित करें-स्मरण करें (सः) वह (विश्वशंभूः) समस्त कल्याण का भावित करनेवाला (साधुकर्मा) यथार्थ कर्मविधायक (नः) हमारे (अवसे) रक्षण के लिए (विश्वानि हवनानि) सब हृदय के भावों को (जोषत्) तृप्त करे-पूरा करे ॥
भावार्थभाषाः -मानव के जीवनसंग्राम में विश्वरचयिता परमात्मा मन को प्रेरणा देता है, हृदय के भावों को पूरा करता है, उसकी शरण लेनी चाहिए ॥
देवता: विश्वकर्मा ऋषि: विश्वकर्मा भौवनः छन्द: त्रिष्टुप् स्वर: धैवतः
चक्षु॑षः पि॒ता मन॑सा॒ हि धीरो॑ घृ॒तमे॑ने अजन॒न्नन्न॑माने ।
य॒देदन्ता॒ अद॑दृहन्त॒ पूर्व॒ आदिद्द्यावा॑पृथि॒वी अ॑प्रथेताम् ॥[ऋग्वेद0१०.८२.१]
पदार्थान्वयभाषाः -(मनसा हि धीरः) ज्ञान से ध्यानवान् या दृढ (चक्षुषः-पिता) सूर्य का उत्पादक (एने नम्नमाने) इन दोनों परिणत हुओं के प्रति (घृतम्-अजनत्) तेज को उत्पन्न करता है (यदा-इत्) जब ही (अन्ताः-अदृहन्त) बाह्य प्रदेश दृढ हो जाते हैं (आत्-इत्) अनन्तर ही (द्यावापृथिवी) ऊपर नीचेवाले स्तर (अप्रथेताम्) विस्तृत होते हैं ॥
भावार्थभाषाः -उस सर्वज्ञ परमात्मा ने जैसे ही सूर्य को उत्पन्न कर तेज को ऊपर नीचेवाले प्रदेशों में फैलाया, तो द्युलोक और पृथिवीलोक प्रकाशित और विस्तृत होते हैं ॥
देवता: विश्वकर्मा ऋषि: विश्वकर्मा भौवनः छन्द: भुरिक्त्रिष्टुप् स्वर: धैवतः
वि॒श्वक॑र्मा॒ विम॑ना॒ आद्विहा॑या धा॒ता वि॑धा॒ता प॑र॒मोत सं॒दृक् ।
तेषा॑मि॒ष्टानि॒ समि॒षा म॑दन्ति॒ यत्रा॑ सप्तऋ॒षीन्प॒र एक॑मा॒हुः ॥[ऋग्वेद0 १०.८२.२]
पदार्थान्वयभाषाः -(विश्वकर्मा) विश्व का रचनेवाला परमात्मा (विमनाः) विशेष मनन शक्तिवाला (विहायाः) व्यापक (धाता) जगत् का धारक (विधाता) कर्मफलविधायक-कर्मफल को नियत कर देनेवाला (परमा सन्दृक्) परम इन्द्रिय-विषयों का ( तेषाम्-इष्टानि) उन इन्द्रियों के विषयसुखों को (इषा-सम्-मदन्ति) उस की प्रेरणा से मनुष्य सम्यक् सुख का अनुभव करते हैं (यत्र) जिस परमात्मा में (सप्त-ऋषीन्) सात छन्दोंवाले मन्त्र रखे हुए हैं तथा (परः-एकम्-आहुः) पार-मोक्षधाम में वर्तमान है, उस एक अधिष्ठाता परमात्मा को वे मन्त्र कहते हैं ॥
भावार्थभाषाः -परमात्मा विश्व का रचनेवाला उसमें व्यापक सर्वज्ञ है, जीवों के कर्मफलों को देनेवाला इन्द्रियों के विषयों का प्रेरक तथा सुख अनुभव करानेवाला है ॥
देवता: विश्वकर्मा ऋषि: विश्वकर्मा भौवनः छन्द: निचृत्त्रिष्टुप् स्वर: धैवतः
यो न॑: पि॒ता ज॑नि॒ता यो वि॑धा॒ता धामा॑नि॒ वेद॒ भुव॑नानि॒ विश्वा॑ ।
यो दे॒वानां॑ नाम॒धा एक॑ ए॒व तं स॑म्प्र॒श्नं भुव॑ना यन्त्य॒न्या ॥[ऋग्वेद0 १०.८२.३]
पदार्थान्वयभाषाः -(यः-नः-जनिता पिता) जो हमारा उत्पादक पालक परमात्मा (यः-विधाता) जो कर्मफल का विधान करनेवाला-देनेवाला (विश्वा धामानि) सारे जन्मों स्थानों (भुवनानि) लोक-लोकान्तरों को (वेद) जानता है (यः) जो (देवानां) अग्न्यादि दिव्यगुण पदार्थों का (नामधाः) नामधारक-नाम रखनेवाला है (तं सम्प्रश्नम्) उस सम्यक् प्रश्न करने योग्य-जानने योग्य परमात्मा को (अन्या भुवना यन्ति) अन्य लोक-लोकान्तर तथा जीव अपना आश्रय बनाते हैं ॥
भावार्थभाषाः -परमात्मा संसार के पदार्थों को उत्पन्न करनेवाला, वेद में उनके नाम रखनेवाला, सब का जानने योग्य और आश्रयरूप है, उसको मानना और उसकी उपासना करनी चाहिए ॥
देवता: विश्वकर्मा ऋषि: विश्वकर्मा भौवनः छन्द: भुरिक्त्रिष्टुप् स्वर: धैवतः
त आय॑जन्त॒ द्रवि॑णं॒ सम॑स्मा॒ ऋष॑य॒: पूर्वे॑ जरि॒तारो॒ न भू॒ना ।
अ॒सूर्ते॒ सूर्ते॒ रज॑सि निष॒त्ते ये भू॒तानि॑ स॒मकृ॑ण्वन्नि॒मानि॑ ॥[ऋग्वेद0 १०.८२.४]
पदार्थान्वयभाषाः -(ते पूर्वे-ऋषयः) वे आरम्भ सृष्टि में उत्पन्न हुए साङ्कल्पिक वेदप्रकाशक ऋषि (जरितारः-न) स्तुति करनेवालों के समान (अस्मै द्रविणं भूना-आयजन्त) इस परमात्मा के लिए स्वात्मभावरूप बल को बहुत भावना से भली-भाँति समर्पित करतें हैं (सूर्ते) सरणशील जङ्गम में (असूर्ते) असरणशील स्थावर में (निषत्ते) निस्तब्ध ज्ञानशून्य (रजसि) लोक में-गण में (इमानि भूतानि) इन योग्य भूतों को वस्तुओं को (ये समकृण्वन्) जो सुखमय बनाते हैं, वे परम ऋषि थे ॥
भावार्थभाषाः -आरम्भ सृष्टि में साङ्कल्पिक ऋषि परमात्मा की स्तुति करनेवाले अपने समस्त आत्मभाव को समर्पित करनेवाले होते हैं तथा जङ्गम स्थावर और निस्तब्ध के निमित्त सब वस्तुओं को सुखमय बनाते हैं ॥
देवता: विश्वकर्मा ऋषि: विश्वकर्मा भौवनः छन्द: त्रिष्टुप् स्वर: धैवतः
प॒रो दि॒वा प॒र ए॒ना पृ॑थि॒व्या प॒रो दे॒वेभि॒रसु॑रै॒र्यदस्ति॑ ।
कं स्वि॒द्गर्भं॑ प्रथ॒मं द॑ध्र॒ आपो॒ यत्र॑ दे॒वाः स॒मप॑श्यन्त॒ विश्वे॑ ॥[ऋग्वेद0 १०.८२.५]
पदार्थान्वयभाषाः -(दिवा परः) जो जगत् रचनेवाला परमात्मा द्युलोक से परे वर्तमान है (एना पृथिव्या परः) इस पृथ्वी से परे वर्तमान महान् अथवा फैली हुई सृष्टि से परे ऊपर स्वामी (देवेभिः-असुरैः-परः) विद्वानों से और असुरों से परे-ऊपर स्वामी (यत्-अस्ति) जिससे वह है (कं स्वित्) उस सुखस्वरूप (प्रथमं गर्भं) प्रमुख ग्रहण करनेवाले को (आपः-दध्रे) व्याप्त परमाणु अपने ऊपर स्वामी रूप में धारण करते हैं (यत्र विश्वेदेवाः समपश्यन्त) जिसमें स्थित सारे विद्वान् ध्यानी जन अपने आत्मा को अनुभव करते हैं ॥
भावार्थभाषाः -परमात्मा द्युलोक, पृथिवीलोक, मोक्ष तथा सारी सृष्टि का स्वामी है, विद्वानों अविद्वानों का भी स्वामी है, व्याप्त परमाणुओं का भी स्वामी है, उसी के आश्रय में जीवन्मुक्त विद्वान् अपने आत्मा को अनुभव करते हैं ॥
देवता: विश्वकर्मा ऋषि: विश्वकर्मा भौवनः छन्द: त्रिष्टुप् स्वर: धैवतः
तमिद्गर्भं॑ प्रथ॒मं द॑ध्र॒ आपो॒ यत्र॑ दे॒वाः स॒मग॑च्छन्त॒ विश्वे॑ ।
अ॒जस्य॒ नाभा॒वध्येक॒मर्पि॑तं॒ यस्मि॒न्विश्वा॑नि॒ भुव॑नानि त॒स्थुः ॥[ऋग्वेद0 १०.८२.६]
पदार्थान्वयभाषाः -(तम्-इत्) उस ही (प्रथमं गर्भम्) प्रमुख ग्रहण करनेवाले परमात्मा को (आपः-दध्रेः) व्याप्त परमाणु अपने ऊपर स्वामी रूप में धारण करते हैं (यत्र) जिस परमात्मा में (विश्वे देवाः) सब मुक्तात्माएँ (समगच्छन्त) सङ्गत होते हैं (अजस्य नाभौ अधि) अजन्मा परमात्मा के मध्य में (एकम्-अर्पितम्) एक हुआ जगत् आश्रित है (यस्मिन्) जिस जगत् में (विश्वानि भुवनानि) सब लोक-लोकान्तर (तस्थुः) स्थित हैं-रहते हैं ॥
भावार्थभाषाः -परमात्मा में मुक्तात्माएँ आश्रय पाते हैं। जगत् के परमाणु और समस्त जगत् तथा लोक-लोकान्तर सब उसी परमात्मा में आश्रय लेते हैं ॥
देवता: विश्वकर्मा ऋषि: विश्वकर्मा भौवनः छन्द: पादनिचृत्त्रिष्टुप् स्वर: धैवतः
न तं वि॑दाथ॒ य इ॒मा ज॒जाना॒न्यद्यु॒ष्माक॒मन्त॑रं बभूव ।
नी॒हा॒रेण॒ प्रावृ॑ता॒ जल्प्या॑ चासु॒तृप॑ उक्थ॒शास॑श्चरन्ति ॥[ऋग्वेद0 १०.८२.७]
पदार्थान्वयभाषाः -(यः-इमा जजान) जो परमात्मा इन लोक-लोकान्तरों को उत्पन्न करता है (तं न विदाथ) उसको नहीं जानते हो (युष्माकम्) तुम्हारे अन्दर (अन्यत्-अन्तरम्) भिन्न भेदक छिद्र (बभूव) है (नीहारेण) अज्ञानान्धकार से (प्रावृताः) बहुत आच्छादित हो, तथा (जल्प्या च) इधर-उधर जल्पना से-इधर-उधर भाषण से वाक्संयमरहितता से (असुतृपः) प्राणपोषक-स्वार्थपरायण-विषयपरायण (उक्थशासः) कथनमात्र-प्रशंसक (चरन्ति) मनुष्य विचरण करते हैं, ऐसी प्रसिद्धि है ॥
भावार्थभाषाः -जिस परमात्मा ने सब लोक-लोकान्तरों को रचा है, उसको नहीं जानते हैं-नहीं स्मरण करते हैं, इसलिए कि मनुष्य के अन्दर दोष हैं, अज्ञानान्धकार तथा वासना का कुहरा, अन्यथा जल्पना, असंयत वाणी से मिथ्यास्तुति प्रशंसा किया करते हैं ॥
No comments:
Post a Comment
ধন্যবাদ